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शेफाली शाह और किरण करमाकर |
शालिनी एक मध्यमवर्गीय गृहणी है....ढीली ढाली साड़ी जैसे बस किसी तरह लपेट कर, घर के काम में व्यस्त रहती है. पर खुशमिजाज है, दफ्तर के लिए तैयार होते पति से लगातार बातें करती रहती है...बेटे के नए यूनिफॉर्म खरीदने की बातें...शहर से दूर..एक रिसोर्ट में नौकरी करने की शिकायत.....पति के देर रात तक काम करने की शिकायत....कोई पड़ोसी ना होने की शिकायत...बाप-बेटे के घर गन्दा करने की और दोनों के मितभाषी होने की प्यार भरी शिकायत. पति के बाथरूम में टॉवेल मांगने पर कह देती है...."लगता है पुरुष इसीलिए शादी करते हैं कि बाथरूम में से टॉवेल मांग सकें."
उसी वक्त पति के एक दूर के रिश्तेदार का बेटा अपनी पत्नी के साथ उनके घर पर मेहमान के रूप में आता है. वह लड़का क्लिनिकल साइकोलॉजी में पी.एच.डी कर रहा है. पति तो ऑफिस चला जाता है पर शालिनी उनकी आवभगत करती है. जब पता चलता है कि उसकी पत्नी प्रेग्नेंट है तो उसे सौ हिदायतें देती है. अपना अनुभव भी बांटती है. पूरे समय अपने बेटे मोहित की बातें करती रहती है कि कैसे उसे बड़ा करने में कितनी मुश्किल हुई. आठवीं में पढता है पर अपने पिता के कंधे तक आ गया है. जब वे पतिपत्नी बाहर घूमने जाने लगते हैं तो पूछते हैं...."मोहित को क्या पसंद है..उसके लिए क्या गिफ्ट लायें' तो शालिनी मना करती है...पर बातों बातों में कह देती है,'देखो सारा घर उसके खिलौनों से भरा है फिर भी टेबल टेनिस के रैकेट लिए जिद करता है.'
दूसरे दृश्य में रात के ग्यारह बज गए हैं...शालिनी दरवाजे पर खड़ी इंतज़ार कर रही है, मोहित अब तक घर नहीं लौटा है. मेहमान भी परेशान से खड़े हैं. पति बाहर से उसे ढूंढ कर लौटते हैं तो बताते हैं...'मोहित के दोस्त भी अभी घर नहीं लौटे हैं.' मेहमान सोने चले जाते हैं. तभी बिजली गुल हो जाती है और अँधेरे में मोहित के आने की खटपट...शालिनी के डांटने की आवाज़ आती रहती है...."अभी तो आया और अब सुबह कराटे कैम्प जाना है...तू घर आता ही क्यूँ है"
यह सुन कर सोने के लिए गए मेहमान दंपत्ति सोचते हैं...मोहित को उसकी टेबल टेनिस की रैकेट अभी ही दे दें कहीं वह उनके जागने से पहले ही ना चला जाए. जब वे दरवाज़ा खोल बाहर आते हैं तो देखते हैं..'वहाँ कोई मोहित नहीं है....शालिनी एक खाली कुर्सी को डांट रही है'
और सारे दर्शक सहम से जाते हैं. शालिनी संतानविहीन है पर वह एक कल्पना की दुनिया बसा लेती है जिसमे

शालिनी के पति प्रवीण को बताते हैं कि 'शालिनी का 'बस इतना सा ख्वाब पूरा नहीं हो सका कि वह अपने बच्चे की माँ बन सके. और इस वजह से पड़ोसी अपने बच्चों को हमारे घर नहीं भेजते थे कि कहीं उन्हें नज़र ना लग जाए. हमें बच्चे के जन्मोत्सव में नहीं बुलाते और शालिनी ने अपनी कल्पना की दुनिया बसा ली. अगर तुम उसे सत्य से अवगत कराना भी चाहते हो...उसकी आँखे खोलना भी चाहते हो तो खोल कर दिखाओगे क्या.??...यही कटाक्ष?...यही ताने? इस से अच्छा तो यह है कि वह इसी दुनिया में रहे और यही सोच, मैं भी उसका साथ देने लगा. यह समस्या मनोवैज्ञानिक से ज्यादा सामाजिक है"
दोनों पति-पत्नी ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे बेटा उनके घर में ही हो..घर में साइकिल रखी है, टेबल पर कंप्यूटर है....टेबल लैम्प जलता रहता है...छोटा सा टेबल फैन चलता रहता जैसे कोई बच्चा पढ़ रहा हो. बीच की कुर्सी को इंगित कर वे आपस में बहस करते हैं कि वह बड़ा होकर क्या बनेगा?...इस माध्यम से समाज के हर वर्ग पर गहरा कटाक्ष भी किया है..आखिर में शालिनी कहती है.. "तुम बस एक अच्छे भारतीय नागरिक बनना "
उसके पति जबाब देते हैं,"हाँ, वहाँ काफी वेकेंसीज़ हैं..."
पति का प्रमोशन हो गया है...वह मिठाई और नई साड़ी लेकर घर आता है..बहुत खुश है कि अब काम का बोझ कम हो गया...अब अपनी पत्नी को ज्यादा समय दे पायेगा. वह पत्नी के नज़दीक जाना चाहता है तो वह मोहित की तरफ इशारा करती है...आखिर पति साइकिल बाहर रख देता है और कहता है...'मोहित बाज़ार से कुछ सामान लेकर आओ' .फिर से नज़दीक जाना चाहता है तो शालिनी पति को ही 'मोहित समझकर संबोधित कर कहती है कि....'इतने बड़े हो गए हो..अब भी डर लगता है..अपने कमरे में जाओ' .दरअसल शालिनी के मन में ये बात गहरे पैठ गयी है कि जब वह संतान को जन्म नहीं दे सकती तो पति के साथ की क्या जरूरत.
अब पति को लगता है...शालिनी से मोहित को दूर करने की जरूरत है. पहले, पति यह बहाना बनाता है कि मोहित गलत संगत में पड़ गया है,ठीक से नहीं पढता उसे बोर्डिंग भेज देना चाहिए .इस पर शालिनी उसके मेज के करीब सारा समय एक स्टूल लेकर बैठी रहती है कि मैं इस पर नज़र रखूंगी. आखिरकार एक
इसके बाद पति को ही अपराध बोघ होने लगता है...उसे सब जगह खून बिखरा नज़र आता है...उसे जमीन पोंछते देख..शालिनी उठकर आती है.और जब वह कहता है,"मैने मोहित का खून कर दिया..अब तुम कैसे रहोगी..तुम इतनी अकेली हो गयी" तो शालिनी कहती है..'अकेली कहाँ...आप हैं ना मेरे साथ "...नाटक का अंत थोड़ा अचानक (abrupt) सा लगता है...हो सकता है ...नाटककार को जो कुछ कहना था,वह कह चुका था...उसे नाटक को अब और नहीं खींचना था या फिर शायद इस तरह का शॉक लगने के बाद ऐसे मरीज़ ठीक भी हो जाते हों.
शेफाली शाह और किरण करमाकर का अभिनय इतना जानदार है कि देखते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं. शेफाली शाह ने दो घंटे तक 'शालिनी' के कैरेक्टर में रहकर , इस रोल को इतना आत्मसात कर लिया था कि नाटक ख़त्म होने के बाद दर्शकों का अभिवादन करते हुए भी मुस्कराहट नहीं आ पायी उनके चेहरे पर.
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शेफाली शाह और विपुल शाह |
ऑडीटोरियम से निकलते हुए दर्शक अपने में गुम...कुछ ग़मगीन से थे. शायद सबके दिमाग में चल रहा था कि हमें हर चीज़ फॉर ग्रांटेड लेने की आदत है. बच्चों की शैतानी...उनकी शरारतों से हम तंग आ जाते हैं....वहीँ ऐसे भी लोग हैं, जो उनकी एक शरारत की बाट जोह रहे होते हैं. शेफाली शाह ने भी एक इंटरव्यू में कहा कि 'इस नाटक में अभिनय के बाद वे अपने बच्चों की अहमियत समझने लगी हैं.'
यह नाटक बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर गया. यह विषय कुछ ऐसा है कि इस पर संतानहीन दंपत्ति और उनके करीबी लोग, दोनों ही आपस में खुलकर बात नहीं कर पाते. एक निश्चित फासले से अंदाज़ने की कोशिश की जाती है. पर मन में क्या चल रहा है...कोई नहीं समझ पाता. लोग दया का पात्र ना समझ लें,यह सोच निस्संतान दंपत्ति अपना दुख नहीं बाँट पाते....और कहीं उन्हें कुछ बुरा ना लग जाए,यह सोच , बाकी लोग भी चुप रहते हैं. लोग ,बड़ी आसानी से कह देते हैं , निस्संतान दंपत्ति कोई बच्चा गोद क्यूँ नहीं ले लेते. लेकिन उनके मन की क्या स्थितियाँ हैं. वे अपने मन को कितना तैयार कर पाते हैं ,किसी दूसरे का बच्चा गोद लेने के लिए यह सब दूसरे नहीं समझ पायेंगे. बच्चा गोद लेना या न लेना यह उनका नितांत व्यक्तिगत निर्णय है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए.