मुंबई में होली के बहुत ही अलग अलग अनुभव हुए.शुरू में एक बहुत बड़ी सोसायटी में रहते थे. वहाँ बहुत ही वृहद् से रूप होली मनाई जाती थी.एक दिन पहले पार्टी होती थी. गेम और्गनाइज़र बुलाये जाते.जो बच्चों के,महिलाओं के,कपल्स के फिर पूरे परिवार के..अलग अलग गेम्स खिलाते.फिर खाना,पीना,गाना,अन्त्याक्षरी के बाद सुबह ४ बजे के आस पास होलिका दहन होता.और फिर सबलोग गुलाल लगाते एक दूसरे को और दूसरे दिन फिर दस बजे पानी वाली होली शुरू हो जाती.
उसके बाद एक ऐसी सोसायटी में शिफ्ट हुई जहाँ एकाध परिवार को छोड़कर सिर्फ महाराष्ट्रियन परिवार ही थे. मुंबई में बच्चों और किशोरों के लिए होली एक हफ्ते पहले से ही शुरू हो जाती है. पर यहाँ सिर्फ होली के दिन ही रंग खेलते हैं बाकी के दिन सिर्फ पानी से और बहुत ही जम कर खेलते हैं. सड़क पर चलना दूभर हो जाता है. पता नहीं किधर से पानी के गुब्बारे हमला कर दें.और अगर वो लग जाए तो बड़े जोर की चोट लगती है और ना लगे तब और भी मुसीबत क्यूंकि तब सड़क की मिटटी उड़कर कपड़ों पर पड़ जाती है.कई बार दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. किसी बाईक चला रहें व्यक्ति को लग जाए तो उसका बैलेंस बिगड़ जाता है.
होली के ३,४, दिन पहले से बच्चे रात के ८,९ बजे बिलकुल भीग कर आते हैं. अच्छा है यहाँ ठंढ नहीं पड़ती.बिहार में होलिका दहन बहुत रात बीते कहीं होती थी. लेकिन यहाँ शाम को ही सारे लोग उसके आस पास जमा हो जाते हैं.पुजारी आते हैं मराठी और गुजराती महिलायें हाथों में पूजा की थाली लिए होती हैं.वे इसकी परिक्रमा भी करती हैं. प्रसाद स्वरुप 'पूरण पोली'( मीठी दाल भरी पूरी) होती है जिसे वे जलती हुई होलिका में डालती हैं. बिहार में भी बेसन की बड़ियाँ होलिका में डालते हैं.मतलब चने के दाल से बनी चीज़ों का महत्त्व होता है, आज के दिन. इधर पूजा होती रहती है और बच्चों का हुडदंग शुरू हो जाता है. आज के दिन तो वे रात के १२ बजे तक पानी से होली खेलते हैं.
होली के दिन सिर्फ पुरुष और बच्चे ही रंगों वाली होली खेलते. महाराष्ट्रियन महिलायें बाहर नहीं आतीं क्यूंकि उन्हें दूसरे दिन ऑफिस भी जाना होता और रंग ना छुड़ा पाने का डर उन्हें घर में ही क़ैद कर के रखता.
जब हम अपने फ़्लैट में शिफ्ट हो गए तो हमारा भी एक ग्रुप बन गया. जिसमे बंगाली,पंजाबी,राजस्थानी,यू.पी.और एक महाराष्ट्रियन परिवार भी है. हम सबने मिलकर होली मनाने की सोची. यहाँ पार्टी अरेंज करने का काम महिलाओं का ही होता है.सबके पति देर रात को घर आते हैं और आपस में मिल भी नहीं पाते. लिहाज़ा मेन्यु चयन करने से ऑर्डर करने तक का सारा काम महिलाओं के सर ही होता है. होली के दिन हम सबने जम कर होली खेली और वहीँ लॉन में आधी धूप आधी छाया में बैठ गए. हमारे ग्रुप के बंगाली दादा सबसे सीनियर हैं और बहुत अच्छा गाना गाते हैं. वे ईलाहाबाद के हैं और बनारस और पटना में काफी वर्ष गुजारे हैं,लिहाज़ा वहाँ के होली गीतों से बहुत अच्छी तरह परिचित हैं. उन्होंने वहीँ थाली पर चम्मच की ताल पर महफ़िल जमा ली. बस बीच बीच में उन्हें गीत एक्सप्लेन भी करने पड़ते. यहाँ तक कि उन्हें 'टिकुली' का अर्थ भी समझाना पड़ता. उनकी बेटी और पत्नी का गला भी बहुत सुरीला है...वे भी बहुत अच्छा गाती हैं. पर सबलोग बढ़ चढ़ कर साथ देते हैं. आज के दिन सारी टेंशन भुला,होली के गीतों में रम जाते.
खाने पीने के दौरान हमलोग सबको बिहार की होली के बारे में बताने लगे कि कैसे शाम को नए कपड़े पहन कर एक दूसरे के घर होली मिलने जाते हैं तभी मेरे पतिदेव को पता नहीं क्या सूझी , उन्होंने सबको कह दिया,शाम को आप सबलोग मेरे घर पर आ जाइए. पूरे घर का नज़ारा मेरे सामने घूम गया. घर बिखरा पड़ा था.किचेन में अनधुले बर्तन पड़े थे. और कोई तैयारी नहीं थी. होली के दिन गुब्बारों के डर से कामवाली बाईयां भी छुट्टी कर लेती हैं. पर पति लोगों को इन सबकी क्या चिंता? जब व्यावहारिक बुद्धि बंट रही थी तब तो इनलोगों की नज़र बुद्धि की थाल थामे अप्सरा पर जमी हुई थी. ये अपनी झोली फैलाना ही भूल गए और उनके हिस्से की बुद्धि भी हमें ही मिल गयी. सारी सहेलयों की नज़र मुझपर थी. वे मेरी उलझन समझ रही थीं. पर मैंने भी हंस कर कहा "हाँ हाँ सबलोग आ जाइए".शाम के चार बज गए थे और सारे पुरुष उठने को तैयार नहीं. मुझे रात की पार्टी की तैयारी भी करनी थी. खैर घर आकर मशीन की तरह सारे काम निबटाये. सहेलियों के फोन आने भी शुरू हो गए.'कुछ बना कर ले आऊं??'पर मेरे मना करने के बावजूद एक.दो ने कुछ पका ही डाला और कुकर ही उठा कर ले आयीं. उन दिनों बाहर से खाना मंगाना भी नहीं सीखा था. मेहमानों को घर का बना ही खिलाना चाहिए,यही मान्यता थी..रात की महफ़िल और अच्छी जमी. और उसके बाद से ही यह सिलसिला चल निकला. अब तो दिन की बैठक के लिए पहले से ही एक गैरेज धुलवा लिए जाते हैं. बाकायदा दरी बिछा कर दादा अपनी हारमोनियम भी ले आते हैं. मैं भी दो दिन पहले से तैयारी शुरू कर देती हूँ...सो सबकुछ स्मूथ चलता रहता है
अभी पिछले साल मेरी योगा बैच की सहेलियां (जिसमे सब दक्षिण भारतीय और क्रिश्चियन हैं) कहने लगीं कि उनलोगों ने कभी मालपुए और दही बड़े नहीं खाए हँ (मुंबई में रेस्टोरेंट में मीठे दही बड़े मिलते हैं,मैं धोखा खा चुकी हूँ) मैंने सोचा चलो इनलोगों को उत्तर भारतीय व्यंजन से परिचित कराती हूँ. मालपुए,दहीबड़े, मटर की कचौरियां,छोले सबबनाए ...उनलोगों को बहुत पसंद भी आया पर जब अंत में मैंने गुलालों भरी थाल निकाली तो सब चौंक गयीं. पर सबने बड़े शौक से अच्छे कपड़ों की परवाह किये बिना अबीर खेला.क्रिश्चियन लड़की (महिला :)..अब कहाँ कोई लड़की दोस्त है) ने ज़िन्दगी में पहली बार होली खेली. सोचा था इसे हर साल का सिलसिला बना दूंगी पर इस साल बेटे के इम्तहान की वजह से ब्रेक लग गया...कोई बात नहीं...अगले साल सही.
आजकल 'होली रेन डांस' का भी चलन बहुत बढ़ गया है. कई क्लब और सोसायटी भी बड़े बड़े पानी के टैंकर मंगवाते हैं उसमे रंग घोल कर शावर के माध्यम से रंग की बरसात की जाती है. और लड़के लडकियां.इसके नीचे रंग में भीगते हुए डांस करते हैं. जो लोग अकेले रहते हैं.दोनों पति पत्नी काम करते हैं. कोई सोशल सर्कल नहीं है.उनके लिए यह सुविधा उपयुक्त है.
हमलोग तो वही पुराने ढंग वाली होली मनाते हैं और बहुत एन्जॉय करते हैं.
आप सबलोगों को होली की ढेरों शुभकामनाएं.