शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

फ़िल्मी नगरी की गैर फ़िल्मी होली


मुंबई में होली के बहुत ही अलग अलग अनुभव हुए.शुरू में एक बहुत बड़ी सोसायटी में रहते थे. वहाँ बहुत ही वृहद् से रूप होली मनाई जाती थी.एक दिन पहले पार्टी होती थी. गेम और्गनाइज़र बुलाये जाते.जो बच्चों के,महिलाओं के,कपल्स के फिर पूरे परिवार के..अलग अलग गेम्स खिलाते.फिर खाना,पीना,गाना,अन्त्याक्षरी के बाद सुबह ४ बजे के आस पास होलिका दहन होता.और फिर सबलोग गुलाल लगाते एक दूसरे को और दूसरे दिन फिर दस बजे पानी वाली होली शुरू हो जाती.

उसके बाद एक ऐसी सोसायटी में शिफ्ट हुई जहाँ एकाध परिवार को छोड़कर सिर्फ महाराष्ट्रियन परिवार ही थे. मुंबई में बच्चों और किशोरों के लिए होली एक हफ्ते पहले से ही शुरू हो जाती है. पर यहाँ सिर्फ होली के दिन ही रंग खेलते हैं बाकी के दिन सिर्फ पानी से और बहुत ही जम कर खेलते हैं. सड़क पर चलना दूभर हो जाता है. पता नहीं किधर से पानी के गुब्बारे हमला कर दें.और अगर वो लग जाए तो बड़े जोर की चोट लगती है और ना लगे तब और भी मुसीबत क्यूंकि तब सड़क की मिटटी उड़कर कपड़ों पर पड़ जाती है.कई बार दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. किसी बाईक चला रहें व्यक्ति को लग जाए तो उसका बैलेंस बिगड़ जाता है.

होली के ३,४, दिन पहले से बच्चे रात के ८,९ बजे बिलकुल भीग कर आते हैं. अच्छा है यहाँ ठंढ नहीं पड़ती.बिहार में होलिका दहन बहुत रात बीते कहीं होती थी. लेकिन यहाँ शाम को ही सारे लोग उसके आस पास जमा हो जाते हैं.पुजारी आते हैं मराठी और गुजराती महिलायें हाथों में पूजा की थाली लिए होती हैं.वे इसकी परिक्रमा भी करती हैं.  प्रसाद स्वरुप 'पूरण पोली'( मीठी दाल भरी पूरी) होती है जिसे वे जलती हुई होलिका में डालती हैं. बिहार में भी बेसन की बड़ियाँ होलिका में डालते हैं.मतलब चने के दाल से बनी चीज़ों का महत्त्व होता है, आज के दिन.  इधर पूजा होती रहती है और बच्चों का हुडदंग शुरू हो जाता है.  आज के दिन तो वे रात के १२ बजे तक पानी से होली खेलते हैं.

होली के दिन सिर्फ पुरुष और बच्चे ही रंगों वाली होली खेलते. महाराष्ट्रियन महिलायें बाहर नहीं आतीं क्यूंकि उन्हें दूसरे दिन ऑफिस भी जाना होता और रंग ना छुड़ा पाने का डर उन्हें घर में ही क़ैद कर के रखता.

जब हम अपने फ़्लैट में शिफ्ट हो गए तो हमारा भी एक ग्रुप बन गया. जिसमे बंगाली,पंजाबी,राजस्थानी,यू.पी.और एक महाराष्ट्रियन परिवार भी है. हम सबने मिलकर होली मनाने की सोची.  यहाँ पार्टी अरेंज करने का काम महिलाओं का ही होता है.सबके पति देर रात को घर आते हैं और आपस में मिल भी नहीं पाते. लिहाज़ा मेन्यु चयन करने से ऑर्डर करने तक का सारा काम महिलाओं के सर ही होता है. होली के दिन हम सबने जम कर होली खेली और वहीँ लॉन में आधी धूप आधी छाया में बैठ गए. हमारे ग्रुप के बंगाली दादा सबसे सीनियर हैं और बहुत अच्छा गाना गाते हैं. वे ईलाहाबाद के हैं और बनारस और पटना में काफी वर्ष गुजारे हैं,लिहाज़ा वहाँ के होली गीतों से बहुत अच्छी तरह परिचित हैं. उन्होंने वहीँ थाली पर चम्मच की ताल पर महफ़िल जमा ली. बस बीच बीच में उन्हें गीत एक्सप्लेन भी करने पड़ते. यहाँ तक कि उन्हें 'टिकुली' का अर्थ भी समझाना पड़ता. उनकी बेटी और पत्नी का गला भी बहुत सुरीला है...वे भी बहुत अच्छा गाती हैं. पर सबलोग बढ़ चढ़ कर साथ देते हैं. आज के दिन सारी टेंशन भुला,होली के गीतों में रम  जाते.

खाने पीने के दौरान हमलोग सबको बिहार की होली के बारे में बताने लगे कि कैसे शाम को नए कपड़े पहन कर एक दूसरे के घर होली मिलने जाते हैं तभी मेरे पतिदेव को पता नहीं क्या सूझी , उन्होंने सबको कह दिया,शाम को आप सबलोग मेरे घर पर आ जाइए. पूरे घर का नज़ारा मेरे सामने घूम गया. घर बिखरा पड़ा था.किचेन में अनधुले बर्तन पड़े थे. और कोई तैयारी नहीं थी. होली के दिन गुब्बारों के डर से कामवाली बाईयां भी छुट्टी कर लेती हैं. पर पति लोगों को इन सबकी क्या चिंता?  जब व्यावहारिक बुद्धि बंट रही थी तब तो इनलोगों की नज़र बुद्धि की थाल थामे अप्सरा पर जमी हुई थी. ये अपनी झोली फैलाना ही भूल गए और उनके हिस्से की बुद्धि भी हमें ही मिल गयी. सारी सहेलयों की नज़र मुझपर थी. वे मेरी उलझन समझ रही थीं. पर मैंने भी हंस कर कहा "हाँ हाँ सबलोग आ जाइए".शाम के चार बज गए थे और सारे पुरुष उठने को तैयार नहीं. मुझे रात की पार्टी की तैयारी भी करनी थी. खैर घर आकर मशीन की तरह सारे काम निबटाये. सहेलियों के फोन आने भी शुरू हो गए.'कुछ बना कर ले आऊं??'पर मेरे मना करने के बावजूद एक.दो ने कुछ पका ही डाला और कुकर ही उठा कर ले आयीं. उन दिनों बाहर से खाना मंगाना भी नहीं सीखा था. मेहमानों को घर का बना ही खिलाना चाहिए,यही मान्यता थी..रात की महफ़िल और अच्छी जमी. और उसके बाद से ही यह सिलसिला चल निकला. अब तो दिन की बैठक के लिए पहले से ही एक गैरेज धुलवा लिए जाते हैं. बाकायदा दरी बिछा कर दादा अपनी हारमोनियम भी ले आते हैं. मैं भी दो दिन पहले से तैयारी शुरू कर देती हूँ...सो सबकुछ स्मूथ चलता रहता है

अभी पिछले साल मेरी योगा बैच की सहेलियां (जिसमे सब दक्षिण भारतीय और क्रिश्चियन हैं) कहने लगीं कि उनलोगों ने कभी मालपुए और दही बड़े नहीं खाए हँ (मुंबई में रेस्टोरेंट में मीठे दही बड़े मिलते हैं,मैं धोखा खा चुकी हूँ) मैंने सोचा चलो इनलोगों को उत्तर भारतीय व्यंजन से परिचित कराती हूँ. मालपुए,दहीबड़े, मटर की कचौरियां,छोले सबबनाए ...उनलोगों को बहुत पसंद भी आया पर जब अंत में मैंने गुलालों भरी थाल निकाली तो सब चौंक गयीं. पर सबने बड़े शौक से अच्छे कपड़ों की परवाह किये बिना अबीर खेला.क्रिश्चियन लड़की (महिला :)..अब कहाँ कोई लड़की दोस्त है) ने ज़िन्दगी में पहली बार होली खेली. सोचा था इसे हर साल का सिलसिला बना दूंगी पर इस साल बेटे के इम्तहान की वजह से ब्रेक लग गया...कोई बात नहीं...अगले साल सही.

आजकल 'होली रेन डांस' का भी चलन बहुत बढ़ गया है. कई क्लब और सोसायटी भी बड़े बड़े पानी के टैंकर मंगवाते हैं उसमे रंग घोल कर शावर के माध्यम से रंग की बरसात की जाती है. और लड़के लडकियां.इसके नीचे रंग में भीगते हुए डांस करते हैं. जो लोग अकेले रहते हैं.दोनों पति पत्नी काम करते हैं.  कोई सोशल सर्कल नहीं है.उनके लिए यह सुविधा उपयुक्त है.

हमलोग तो वही पुराने ढंग वाली होली मनाते हैं और बहुत एन्जॉय करते हैं.
आप सबलोगों को होली की ढेरों शुभकामनाएं.

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

होली के रंग,गाँव की सोंधी मिटटी के संग



कोई कहता है उन्हें होली नहीं पसंद...कोई कहता है बहुत पसंद है.पर मैंने कभी खुद को इस स्थिति में पाया ही नहीं कि पसंद या नापसंद करूँ.शायद बचपन सेही इस त्योहार को अपने अंदर रचा बसा पाया है.
दस वर्ष की उम्र में हॉस्टल चली गयी...और तब से जैसे बस होली का इंतज़ार ही रहता...बाकी का पूरा साल होली में की गयी मस्ती याद करके ही गुजरता.सरस्वती पूजा के विसर्जन वाले दिन से जो गुलाल खेलने की शुरुआत होती वह होली की छुट्टी के अंतिम दिन तक चलती रहती. हमारे हॉस्टल का हर कमरा' इंटरकनेक्टेड' था.पूरी रात हर कमरे में जाकर सोने वालों के बालों में अबीर डालने का और मुहँ पर दाढ़ी मूंछ बनाने का सिलिसिला चलता रहता.पेंट ख़त्म हो जाते तो कैनवास वाले जूते का सफ़ेद रंग वाला शू पोलिश भी काम आता (ड्रामा में हमलोग बाल सफ़ेद करने के लिए भी इसका उपयोग करते थे) उन दिनों ज्यादातर लड़कियों के लम्बे बाल होते थे.उन्हें रोज़ शैम्पू करने होते.और टीचर से डांट पड़ती...बाल खुले क्यूँ रखे हैं?.मैं शुरू से ही नींद की अपराधिनी हूँ .इसलिए इस रात वाली गैंग में हमेशा शामिल रहती..बाकी सदस्य अदलते बदलते रहते.

सरस्वती पूजा में हमलोग गेट से लेकर स्टेज तक ,जहाँ सरस्वती जी की मूर्ति रखी जाती थी.सुर्खी की एक सड़क बनाते थे.(सुर्खी ईंट के चूरे जैसा होता है ) उसके ऊपर चॉक पाउडर से अल्पना बनायी जाती थी.हर वर्ष होली में एक बार उस सुर्खी से जमकर होली खेली जाती.ये रास्ता मैदान के बीच से होकर जाता था और हम लोग रोज शाम को मैदान में 'बुढ़िया कबड्डी' खेला करते थे.किसी ना किसी का मन मचल जाता और वो एक पर सुर्खी उठा कर फेंकती..वो लड़की उसके पीछे भागती पर बीच में जो मिल जाता,उसे ही लगा देती. फिर पूरा हॉस्टल ही शामिल हो जाता इसमें. एक बार शनिवार के दिन ऐसे ही हम सब सुर्खी से होली खेल रहें थे. अधिकाँश लड़कियों ने यूनिफ़ॉर्म नहीं बदले थे.सफ़ेद शर्ट और आसमानी रंग की स्कर्ट सुर्खी से लाल हो गयी थी.उन दिनों 'सर्फ़ एक्सेल' भी नहीं था.फिर भी हमें कोई परवाह नहीं थी. मेट्रन मार्केट गयीं थीं. वो कब आकर हमारे बीच खड़ी हो गयीं पता ही नहीं चला.जब जोर जोर से चिल्लाईं तब हमें होश आया और हमें सजा मिली की इसी हालत में खड़े रहो. सब सर झुकाए लाईन में खड़े हो गए. शाम रात में बदल गयी,सुर्खी चुभने लगी,मच्छर काटने लगे पर मेट्रन दी का दिल नहीं पिघला.जब खाने की घंटी बजी और कोई मेस में नहीं गया तो मेस में काम करने वाली गौरी और प्रमिला हमें देखने आई. झूठमूठ का डांटा फिर इशारे से कहा..एक एप्लीकेशन लिखो...कि अब ऐसे नहीं करेंगे.सबने साईन किया डरते डरते उनके कमरे में जाकर दिया.फिर हमें आलू की पानी वाली सब्जी और रोटी(रात का रोज़ का यही खाना था,हमारा) खाने की इजाज़त मिली.पर सिर्फ हाथ मुहँ धोने की अनुमति थी,नहा कर कपड़े बदलने की नहीं.खाना तो हमने किसी तरह खा लिया.पर मेट्रन के लाईट बंद करने के आदेश के बावजूद ,अँधेरे में ही एक एक कर बाथरूम में जाकर बारह बजे रात तक सारी लडकियां नहाती रहीं.
हॉस्टल में 'टाइटल' देने का बड़ा चलन था...रोज ही नोटिस बोर्ड के पास एक कागज़ चिपका होता.और किसी ना किसी कमरे की लड़कियों ने बाकियों की खबर ली होती.खूब दुश्मनी निकाली जाती इस बहाने. कई बार तो असली झगडे भी हो जाते और बोल चाल बंद हो जाती.पर ऐसा कभी कभी होता...ज्यादातर सब टाइटल पढ़ हँसते हँसते लोट पोट ही हो जाते.

मेरे स्कूल के दिनों में पापा की पोस्टिंग मेरे पैतृक गाँव के पास थी. अक्सर हॉस्टल से सीधा मैं गाँव ही चली जाती.वहाँ की होली भी निराली होती थी.दिन भर अलग अलग लोगों के ग्रुप निकलते.सुबह सुबह लड़कों का हुजूम निकलता.लड़के गोबर और कीचड़ से भी खेला करते.और कोई दामाद अगर गाँव में आ गया तो उसकी खैर नहीं उसे फटे जूते और उपलों का माला भी पहनाया जाता.एक बार मेरे पापा दालान में बैठे शेव कर रहें थे.एक हुडदंगी टोली आई पर वे निश्चिन्त बैठे थे कि ये सब उनसे उम्र  में  छोटे  हैं.पर उनमे ही उनका हमउम्र भी कोई था और उसने उन्हें एक कीचड़ भरी बाल्टी से नहला दिया.पापा को सीधा नहर में जाकर नहाना पड़ा.

लड़कियों का ग्रुप एक बाल्टी में रंग और प्लेट में अबीर और सूखे मेवे(कटे हुए गरी, छुहारे) लेकर घर घर घूमता.उन दिनों घर की बहुएं बाहर नहीं निकलती थीं. कई घर की बहुएं तो लड़कियों से भी बात नहीं करती थीं.(ये बात अब तक मेरी समझ में नहीं आती). घर में काम करने वाली,आँगन में एक पटरा और रंग भरी बाल्टी रखती. कमरे से घूंघट निकाले बहू आकर पटरे पर बैठ जाती और हम लोग अपनी अपनी बाल्टी से एक एक लोटा रंग भरा जल शिव जी की तरह उनपर ढाल देते.फिर घूंघट के अंदर ही उनके गालों पर अबीर मल देते और हाथों में थोड़े अबीर में लिपटे मेवे थमा देते.वे बहुएं भी हमारी फ्रॉक खींच हमें नीचे बैठातीं और एक लोटा रंग डाल देतीं.घूंघट के अंदर से भी वे सब कुछ देखती रहतीं.कोई लड़की अगर बचने की कोशिश में पीछे ही खड़ी रहती तो इशारे से उसे भी बुला कर नहला देतीं.

इसके बाद शुरू होता रंग छुडाने का सिलसिला.आँगन में चापाकल के पास हम बहनों का हुजूम जमा हो जाता,आटा,बेसन से लेकर केरोसिन तेल तक आजमाए जाते.त्वचा छिल जाती.पर हम रंग छुड़ा कर ही रहते.घर की औरतें बड़े बड़े कडाहों में पुए पूरी तलने में लगी होतीं.पुए का आटा रात में ही घोल कर रख दिया जाता.एक बार मेरी दादी ने जिन्हें हम 'ईआ' बुलाते थे.मैदे के घोल में शक्कर की जगह नमक डाल दिया था.वहाँ बिजली तो रहती नहीं थी.एक थैले में गाय बैलों के लिए लाया गया नमक और दूसरे थैले में शक्कर एक ही जगह टंगी थी.सुबह सुबह सबसे पहले 'ईआ' ने मुझे ही दिया चखने को,जब मैंने कहा नमकीन है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ.फिर उन्होंने हमारे घर में काम करने वाली (पर बहुओं पर सास से भी ज्यादा प्यार,अधिकार और रौब जमाने वाली) 'भुट्टा काकी' से चखने को कहा .जब उन्होंने भी यही बताया तब उनके होश उड़ गए...फिर तो पता नहीं कितने एक्सपेरिमेंट किये गए.दुगुना,शक्कर..मैदा सब मिला कर देखा गया..पर अंततः उसे फेंकना ही पड़ा.

शाम को होली गाने वालों की टोली घर घर घूमती.पूरे झाल मंजीरे के साथ हर घर के सामने कुछ होली गीत गाये जाते और बदले में उन्हें ढेर सारा अनाज दिया जाता.सारे दिन खेतों में काम करने वाले,गाय-भैंस चराने वालों का यह रूप, हैरान कर देता हमें.हमारे 'प्रसाद काका' जो इतने गंभीर दीखते कभी काम के अलावा कोई बात नहीं करते. वे भी आज के दिन भांग या ताड़ी के नशे में गाने में मशगूल रहते.ज्यादातर वे लोग एक ही लाइन पर अटक जाते..." गोरी तेरी अंखियाँ लगे कटार..."...बस अलग अलग सुर में यही लाईन दुहराते रहते.

अब तो पता नहीं...गाँव में भी ऐसी होली होती है या नहीं.

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

दर्शक से श्रोता में तब्दील होने की दास्तान




'स्पोर्ट्स डे' की तरह ही स्कूल के 'वार्षिक प्रोग्राम' की तैयारी भी बड़े लगन और मेहनत से की जाती है.पर इसमें सारा दारोमदार टीचर पर होता है.प्रोग्राम के चयन से लेकर सैकड़ों बच्चों में से कुछ को चुनना फिर रिहर्सल करवाना.कॉस्टयूम निश्चित करना..आजकल वार्षिक प्रोग्राम जैसे स्कूल का एक 'प्रेस्टीज इशु' बन गया है और स्कूलों में होड़ लगी होती है कि किनका प्रोग्राम सबसे अच्छा होता है.

जब पहली बार मैंने सुना कि वार्षिक प्रोग्राम प्रतिष्ठित 'भाईदास हॉल' में होगा तो बडा आश्चर्य हुआ था.स्कूल कम्पाउंड में 'स्पोर्ट्स डे' की तरह भी कर सकते थे.हज़ारों रुपये खर्च कर इतना शानदार हॉल लेने की क्या जरूरत.इस हॉल में 'जगजीत सिंह' जैसे बड़े बड़े कलाकारों के प्रोग्राम होते हैं.स्कूल से एक घंटा लग जाता है जाने में.पर देखने के बाद पता चला.इतना अच्छा 'साउंड एन लाईट इफेक्ट' ,बार बार बदलते दृश्य बिलकुल प्रोफेशनल अंदाज़ में.यह स्कूल के स्टेज पर मुश्किल था.मुंबई में ज्यादातर स्कूल दो शिफ्ट में चलते हैं.सुबह ७ से १ बजे तक पांचवीं से दसवीं कक्षा.फिर १ से ६ बजे तक पहली से चौथी तक.एक क्लास के ८ से १० डिविज़न होते हैं और हर डिविज़न में ६० बच्चे.अब सभी बच्चों के माता-पिता को तो आमंत्रित करना ही होता है.लिहाज़ा ३ दिन तक प्रोग्राम के दो शो किये जाते हैं.पहले तो कार्ड पर लिखा होता था केवल दो लोगों को ही अनुमति है..पर पिछले २,३, साल से पहचान पत्र लेकर जाना होता है और सिर्फ माता-पिता को ही प्रोग्राम देखने की अनुमति है.मुझे यह व्यवस्था थोड़ी खटकती है, क्यूंकि जिन बच्चों के नाना-नानी,दादा-दादी साथ रहते हैं.उनकी भी तो इच्छा होती होगी कि अपने नौनिहालों का प्रोग्राम देखें.पहले फिर भी जो लोग नहीं जाते उनसे कार्ड लेकर उन्हें ले जाया जा सकता था .पर मुंबई की अपनी मजबूरियाँ हैं.

यहाँ स्कूलों में वार्षिक प्रोग्राम को इतनी गंभीरता से लिया जाता है कि नाटकों के लिए बाकायदा रंगकर्मी और नृत्य के लिए कोरियोग्राफर बुलाये जाते हैं.इच्छुक बच्चों का ऑडिशन लिया जाता है और उपयुक्त पाने पर ही उन्हें चुना जाता है.किसी पक्षपात की कोई गुंजाईश नहीं रह जाती वरना, टीचर्स बेचारों पर यह आरोप लग ही जाता था कि अपने, पडोसी,या फ्रेंड के बच्चे हैं, इसीलिए लिया है.ज्यादातर डांस फ़िल्मी गाने पर ही होते हैं यह बात नहीं जमती,इतनी भाषाओँ में ढेर सारे लोकगीत हैं.जिका उपयोग किया जा सकता है.

यहाँ विशेष अतिथि के रूप में 'फिल्म स्टार' को बुलाने का चलन है.एक बार मेरे पैरेंट्स यहाँ थे तो मैं दूसरों से एक्स्ट्रा कार्ड लेकर उन्हें भी साथ ले गयी थी.'गोविंदा' को मुख्य अतिथि के रूप में देखकर पापा बहुत नाराज़ हुए थे कि किसी शिक्षाविद को बुलाना चाहिए.मुझे भी ऐसा ही लगता था पर जब मैंने गोविंदा की बातें सुनीं तो लगा..शायद यही कोई शिक्षाविद कहते तो बच्चे बिलकुल ही नहीं सुनते.गोविंदा ने कहा कि 'बच्चों तुमने भगवान को तो नहीं देखा है पर माता-पिता तुम्हारे सामने हैं उन्हें ही अपना भगवान समझो.' बच्चों के साथ ये फिल्मस्टार नाचते हैं गाते हैं..पलभर को जैसे अपना बचपन भी जी लेते हैं बच्चों के बीच.जब जैकी श्रौफ़ ने अपने परिचित अंदाज़ में कहा था,"कैसा है बीड़ू?"तो सारे बच्चे खी खी कर हंस पड़े थे.

बच्चों का वार्षिक प्रोग्राम यानि पैरेंट्स की मुसीबत.एक बार छोटा बेटा 'कनिष्क' ,बाल मजदूर का रोल कर रहा था.डाइरेक्टर ने एक गन्दा शर्ट लाने को बोला.मैं जितने शर्ट भेजती सब लौटा देते 'नहीं और गन्दा चाहिए'.मेरी परेशानी देख सहेलियों ने कहा,ऐसा करो एक शर्ट से घर में पोछा लगा लो और वही सुखा कर भेज दो.अब यह तो नहीं कर सकती सो जानबूझक बर्तन जलाए कालिख बनाई और शर्ट से पोछा.पेंट से मिटटी जैसा रंग बना कर लगाया.उसके बावजूद स्टेज पर जाने से पहले उसके सर ने कहा बाहर जाकर लॉन से ढेर सारी मिटटी,अपने शर्ट,और हाथ मुहँ पर लगा कर आ जाओ.यही उसका मेकअप था.फिर भी सहेलियों ने कहा ये तो एकदम 'well fed' मजदूर है.इसके मालिक इसका अच्छा ख्याल रखते हैं.

कई बातें अब भी सीखने को मिल जाती हैं.एक बार किंजल्क' एंकर' था और उसे टाई सूट पहननी थी.मैंने सूट से मैच करता हुआ 'ग्रे कलर' का टाई दे दिया पर स्टेज पर देखते ही मेरी सहेली ने कहा.तुम्हे रेड कलर की टाई देनी चाहिए थी.दूसरे शो के लिए रेड दे देना.सचमुच फीका सा लग रहा था..उसने 'शाईमक डावर' की क्लासेस कीं थीं और बता रही थी कि शो के पहले ग्रीन रूम में शाईमक चिल्लाते रहते हैं,'आई वांट मोर कलर ..आई वांट मोर ग्लिटर '.स्टेज पर चटकीले और भड़कीले रंग ही अच्छे लगते हैं.

और एक मजेदार वाकया हुआ.मैंने अपने बेटे को ही नहीं पहचना.घर आकर उसने पूछा,'मेरा डांस कैसा था?'..जब मैंने कहा,'पर तुम तो एंकरिंग कर रहें थे' तब उसने बताया कि वह टाइम पास के लिए प्रैक्टिस में दोस्तों के बीच घुसकर डांस भी करता था .स्टेज पर जाते समय टीचर ने कहा,'तुम भी चले जाओ..बस कोट उतार कर रख दो.टाई ढीली कर लो,एक तरफ की शर्ट बाहर कर दो और बाल बिखेर लो. हो गया,'दस बहाने कर के.....' का कॉस्टयूम.पर मेरी सहेली ने उसे पहचान लिया था और बाद में बताया कि मैंने डर के मारे तुमसे नहीं कहा कि बोलोगी मेरे बेटे को भी नहीं पहचानती'


यहाँ सिर्फ स्कूलों में ही नहीं कोचिंग क्लास के भी वार्षिक प्रोग्राम होते हैं और मैंने नोटिस किया है कोचिंग क्लास के वार्षिक प्रोग्राम बच्चे ज्यादा एन्जॉय करते हैं क्यूंकि यहाँ उतना अनुशासन नहीं होता और टीचर्स ज्यादा फेंडली होते हैं.मैं किंजल्क से बहुत नाराज़ थी क्यूंकि बोर्ड एग्जाम सर पर था और वह रिहर्सल में लगा हुआ था.मैंने कह रखा था,'मैं देखने नहीं आउंगी'.फिर भी मुझे जाना ही था और उसे भी यह बात पता थी.ऑडिटोरियम में घुसते ही मैंने देखा किंजल्क स्टेज पर है. जाने पर पता चला वह 'impromptu speech' था.जिसमे स्टेज पर ही चिट उठाकर बोलना होता है.किंजल्क को विषय मिला था,'माँ की ममता' और माँ उस से इतनी नाराज़ थी.पर प्राइज़ उसे ही मिला..मैंने अपने workaholic husband के लिए बगल की कुर्सी खाली रखी थी कि यह प्रोग्राम तो रात में है,आ सकते हैं.और उसका नाटक शुरू होने के पहले आ भी गए.और हम दोनों स्तब्ध देखते रहें.किंजल्क जमूरा बना था,बालों में तेल लगाए,घुटने तक की पैंट पहन रखी थी, शर्ट कीबांह एक आधी और एक पूरी.इस गेटअप में भी वह किसी भी स्टेज फ्रायीट से बेखबर अपने अभिनय में मशगूल था.मेरे पति ने सिर्फ इतना कहा ,'अब बेटा बड़ा हो गया है'

किंजल्क स्कूल से निकल गया और कनिष्क के स्कूल के अंतिम वर्ष(9th ) में वार्षिक प्रोग्राम कैंसिल कर वे पैसे २६ /११ के विक्टिम्स को डोनेट कर दिए गए.

इसके बाद से मेरी भूमिका दर्शक से श्रोता की हो गयी.

चेतन भगत की Five Point Someone (जिसपर थ्री इडियट्स फिल्म बनी है) की शुरुआत में ही लिखा है."अगर आप इंजिनियर बनना चाहते हैं तो दो साल के लिए किताबों के साथ एक कमरे में खुद को बंद कर चाभी बाहर फेंक दें".और मैंने यह आँखों के सामने घटित होते भी देख लिया.दो साल किंजल्क सिर्फ किताबे,क्लासेस,होमवर्क और टेस्ट का ही होकर रह गया.

पर एक बार मनपसंद स्ट्रीम और मनपसनद कॉलेज में एडमिशन के बाद तो जैसे उसने कॉलेज एक्टिविटीज़ में खुद को डूबा लिया है.मेरे सामने भी एक नयी दुनिया खुलती जा रही है.नाटकों के इतने प्रकार होते हैं.spoof,situational drama ,hollywood-.bollywood.आदि .नुक्कड़ नाटक में ७,८,कलाकार होते हैं और एक कलाकर को ५,६ अलग अलग किरदार निभाने होते हैं और इसका प्रदर्शन किसी माल में या सडक के किनारे करना पड़ता है.जज भी भीड़ में ही खड़े होते हैं.और यह कोशिश करनी होती है कि सचमुच उनके नाटक से आकर्षित होकर भीड़ जुटे. हॉलीवुड-बॉलीवुड में एक हिंदी,एक अंग्रेजी फिल्मों को मिलाकर एक नयी कहानी बनानी होती है.situational acting में इन्हें किसी भी फिल्म के दो मिनट का सीन दिखाया जाता है और आगे ८ मिनट की कहानी खुद बनानी पड़ती है और आज शाम सीन दिया जाता है,दूसरे दिन प्रदर्शित करना होता है. रात के दस,ग्यारह बजे तक ये सीढियों पर रिहर्सल करते हैं.मेरी थोड़ी असहमति थी पर इनके टीम में लडकियां भी इतनी रात तक होती हैं.और प्रोग्राम भी हमेशा क्लासेस के बाद रात को ही होते हैं.बच्चे नाराज़ भी होते हैं कि ट्रॉफी तो कॉलेज वाले सजा लेते हैं पर रिहर्सल करने को एक कमरा भी नहीं देते.मुझे 'रंग दे बसंती' फिल्म याद आ गयी ,शायद हर कॉलेज में रिहर्सल सीढियों पर ही होती है

कई जगह इन्होने ईनाम भी जीता और ट्रॉफी और सर्टिफिकेट्स भी मिले.जब गिफ्ट वाउचर्स मिले तो ये बच्चे आश्चर्य में डूब गए.मुझे अपने दिन याद आ गए,रचना छप जाना ही बड़ी बात थी,जब १०० रुपये का चेक मिला था तो सुखद आश्चर्य हुआ था. इन्हें हज़ार- हज़ार रुपये के ३ गिफ्ट वाउचर्स 'लोखंडवाला' के जूते,घडी और कपड़ों के शोरूम के मिले. पर जब किंजल्क अपने भाई के बर्थडे में गिफ्ट करने को एक घडी लेने गया तो पता चला,वहाँ शुरुआत ही १५०० रुपये से थी.


यहाँ जज में अनुराग कश्यप,डौली ठाकुर,एलेक पद्मसी जैसी हस्तियाँ आती हैं.मैंने कह रखा है, कहीं से कोई ऑफर मिले तो ध्यान मत देना,बेसिक एडुकेशन बहुत जरूरी है.फिर भी यकीन नहीं था.पर जब डौली ठाकुर ने इनके नुक्कड़ नाटक (विषय था..'पप्पू कांट वोट.....")से प्रभावित होकर कहा कि वे महाराष्ट्र सरकार को लिख देती है."तुम लोग, जनता को जागरूक करने के लिए जगह जगह जाकर इसका प्रदर्शन करो' तो सब बच्चों ने मना कर दिया.'एलिक पद्मसी' ने भी पृथ्वी थियेटर का एक ग्रुप ज्वाइन करने को कहा तब भी इनलोगों ने इनकार कर दिया कि पढ़ाई पर बहुत असर पड़ेगा. और शायद ये बच्चे हकीकत से वाकिफ भी हैं क्यूंकि आसपास ही देखते हैं कितने ही टी.वी. कलाकार दो महीने तो दिन रात काम करते हैं,बर्थडे 'फाइव स्टार' में मनाते हैं और अगले चार महीने गार्डेन में बैठे गिटार टुनटुनाते रहते हैं और ढाबे में खाना पड़ता है.इसीलिए शायद ग्लैमर का आकर्षण थोड़ा कम है.

फिर भी मैंने फिंगर क्रॉस करके ही रखी है कि इसका मन कभी ना डोले और कोई ऑफर भी ना मिले.

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

वह सिलसिला भी अब ख़त्म हुआ...


कुछ दिनों पहले एक सफ़र पूरा हुआ जो बारह साल पहले शुरू हुआ था.वो था बच्चों के स्कूल में 'स्पोर्ट्स डे' में उपस्थिति का सिलसिला.मेरे छोटे बेटे का स्कूल में यह अंतिम 'खेल दिवस' था और मैं प्रोग्राम देखते हुए यादों के समंदर में डूब उतरा रही थी.

ठीक बारह साल पहले बड़े बेटे किंजल्क ने स्कूल से आकर कहा था,मेरी स्कूल डायरी देख लेना,टीचर ने कुछ लिखा है.और उसमे लिखा था,"आपके बेटे ने १०० मीटर की रेस में गोल्ड मेडल जीता है' कल स्पोर्ट्स डे के दिन उसे मेडल मिलेगा.".इनके स्कूल में सारी प्रतियोगिता पहले ही हो जाती है.'स्पोर्ट्स डे' के दिन सिर्फ रंगारंग कार्यक्रम के बीच पुरस्कार वितरण होता है.मैंने जब खुश होकर उस से पूछा,'तुम रेस में फर्स्ट आए?' तो अपने खेल में मगन वह लापरवाही से बोला,'वो तो मैं कई बार फर्स्ट आया'...वह अभी पहली कक्षा में था और उसे अभी फर्स्ट राउंड,सेकेण्ड राउंड,सेमी फाइनल ,फाइनल की समझ नहीं थी.स्कूल से कार्ड पहले ही आ चुका था और मुख्य अतिथि के रूप में 'एकनाथ सोलकर' का नाम देखकर मैं वैसे ही रोमांचित थी अब यह जान कि उनके हाथों ही मेरे बेटे को मेडल भी मिलेगा मेरी ख़ुशी कई गुना बढ गयी.मेरे पापा और भाई भी सुनकर बहुत खुश हुए,पापा सोलकर के जबरदस्त फैन थे.उन्हें भी शायद इसके गोल्ड मेडल मिलने से ज्यादा इसकी ख़ुशी थी कि वो सोलकर के हाथों मिलेगी.

उसके बाद ये सफ़र चलता रहा..दो साल बाद छोटा बेटा कनिष्क भी शामिल हो गया.उसका भी पहला परफौरमेंस आँखों के सामने आ गया. मुझे उसे प्रोग्राम के बाद कलेक्ट करने में थोड़ी देर हो गयी थी.और उसके लाल लाल फूले फूले गालों पर मोटी मोटी बूँदें गिर रही थीं पर वह एक बडा सा लड्डू खाने में भी मगन था.रोते हुए भी स्कूल से मिले लड्डू खाना उसने एक सेकेण्ड के लिए नहीं छोड़ा था.

इनलोगों को कभी मेडल्स मिलते,कभी नहीं मिलते.जब नहीं मिलते तो मेरा काम ज्यादा बढ़ जाता.मुझे सारी कहानी सुननी पड़ती,'वो तो मेरा पैर फिसल गया...जूता ठीक नहीं था...पीछे वाले लड़के ने धक्का मार दिया...टीचर पक्षपात करती है, वगैरह वगैरह.मैं कहती,'कोई बात नहीं...भाग लेना ही बस मत्वपूर्ण है,मेडल मिले ना इसकी फ़िक्र नहीं करनी चाहिए '...बाद में बच्चे हंसने भी लगे थे.'ममी ...डायलॉग चेंज भी तो करो"

एक बार सातवीं कक्षा में किंजल्क ने आकर बताया,कि उसने 'लॉंग जम्प' में महाराष्ट्र का अंडर फोर्टीन का रेकोर्ड तोडा है,कई जगह उस से हस्ताक्षर कराये गए.कोई सेना का ऑफिसर भी उपस्थित था,(किस हैसियत से ,ये नहीं पता)...पर किंजल्क उनकी यूनिफ़ॉर्म का बखान किये जा रहा था.वह कुछ ज्यादा ही प्रभावित था क्यूंकि उसे 'एयरफोर्स पायलट' बनने की तमन्ना थी .शायद उन्हें देखकर ही उसे ज्वाइन करने कि इच्छा जाग्रत हुई.घर से NDA ज्वाइन करने की इजाज़त नहीं मिली,वो अलग किस्सा है.फिर कई साल बाद जब वह ग्यारहवीं में था और अपने कोचिंग सेंटर के नीचे दोस्तों के साथ खड़ा था.थोड़ी दूर पर उसे यूनिफॉर्म में सेना के एक अफसर दिख गए.उसकी नज़र बार बार उनकी तरफ उठ जाती.थोड़ी देर बाद उन्होंने उसे पास .बुलाया.किंजल्क थोड़ा डर गया,शायद बार बार उन्हें देख रहा था.इसीलिए उन्होंने बुलाया है.पर उन्होंने बुला कर पूछा,'तुम तो खुश हो गए होगे..तुम्हारे बोर्ड के रिजल्ट में २ परसेंट और जुड़ गए होंगे"
'सॉरी सर...शायद आप मुझे कोई और समझ रहें हैं,हम कभी नहीं मिले हैं.'
'तुम SVIS के स्टूडेंट हो ना.जिसने 'लॉंग जम्प' में महाराष्ट्र का अंडर फोर्टीन का रेकॉर्ड ब्रेक किया था".
अब किंजल्क स्तंभित, 'आपको कैसे पता?'
और उन्होंने कहा,' You are carrying the same face my boy ,You hvnt changed at all.' और उन्होंने बताया कि अभी तक वह रेकॉर्ड उसी के नाम है.हमें तो पता भी नहीं था कि उस सर्टिफिकेट का कुछ फायदा उठाया जा सकता है,जरूरत भी नहीं पड़ी..उसे अच्छे नंबर मिले और मनपसंद कॉलेज में एडमिशन मिल गया.
और उन्होंने यह भी बताया कि चेहरे से पहले उन्होंने उसकी चाल नोटिस कि.उनका कहना था कि ये पैर उठा कर चलता है जबकि ज्यादातर बच्चे पैर घसीट कर.(मैंने तो आजतक नोटिस नहीं किया)..

इन खुशनुमा लमहों के साथ कई दुखद पल भी आए.किंजल्क दसवीं में था और उसका अंतिम 'स्पोर्ट्स डे' था.वह बहुत खुश था.उसके सारे competitor स्कूल से निकल गए थे.करीब करीब सारे रेस के फाइनल में था वह और उसे कई सारे मेडल जीतने की पूरी उम्मीद थी लेकिन फाइनल्स के एक दिन पहले वह स्कूल में ही गिर गया और घुटने पे ११ स्टिचेस लगे.
वो 'खेल दिवस' मेरे लिए सबसे बडा दुविधा का दिन था.प्रोग्राम तो मैं कई बार देख चुकी थी पर छोटे बेटे को कुछ मेडल्स मिलने वाले थे.और मैंने देखा है, स्टेज से उतरते वक़्त उनकी आँखें भीड़ में मुझे जरूर ढूँढती हैं.कभी वे मुझे देख पाते हैं,कभी नहीं.पर वह एक अहसास बड़ा होता है कि आपके इस ख़ास क्षण में कोई अपना आपके साथ है,आपको देख रहा है.
किंजल्क ने ही यह मुश्किल आसान कर दी.मुझे जबरदस्ती जाने के लिए बोला.और मैं देख रही थी,मेरे किशोर बेटे में सारे पुरुषोचित गुण आ गए हैं.उसके मन के गहरे दुःख का अहसास था मुझे पर वह निर्विकार भाव से चेहरे पर मुस्कान सहेजे सोफे पे लेता हेडफोन लगाए गाने सुन रहा था.

और आज कनिष्क का स्कूल का अंतिम 'स्पोर्ट्स डे' था और उसने इसका भरपूर फायदा उठाने की सोची थी.कई सारे प्रोग्राम में हिस्सा लिया था.सबसे पहले उसे सफ़ेद कमीज़ और काली पैंट में डिसिप्लिन मिनिस्टर का बैज लगाये मार्च पास्ट करते देखा,थोड़ी देर बाद ही वह सफ़ेद बनियान और काले शौर्ट्स में 'ह्युमन पिरामिड' बना रहा था. जब आप अपने बच्चे के ऊपर तीन तीन लडको को खड़े देखते हैं तो एक पल को सांस रुक जाती है...फिर तालियों की गड़गडाहट से ही ध्यान टूटता है.थोड़ी देर बाद देखा वो चमकीले लाल शर्ट में गले में स्कार्फ लगाए माइकेल जैक्सन के गाने पर डांस कर रहा था.इस अजीबोगरीब गेटअप में देख एक पल को विश्वास करना मुश्किल हो रहा था,ये अपना ही बेटा है.और इसके बाद उसे सफ़ेद कुरता पैजामा पहने साफा बांधे लेजियम बजाते देखा.अंत में अपनी फुटबाल टीम के साथ जर्सी में दौड़ते हुए पूरे ग्राउंड का चक्कर लगा रहा था..और वही मेरे लिए उस स्कूल का अंतिम प्रोग्राम था.

स्कूल में 'स्पोर्ट्स डे' का दिन बच्चे सबसे ज्यादा एन्जॉय करते हैं क्यूंकि उस दिन कोई अनुशासन नहीं होता.पूरी छूट होती है टीचर्स दूसरे काम में बिजी होती हैं और छोटे छोटे ग्रुप में बच्चे रंग बिरंगे कपड़ों में चहकते नज़र आते हैं.कनिष्क ने भी प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद थोड़ी देर और स्कूल में रुकने की इजाज़त मांगी और हैरान हो गया,जब मैंने एकदम से हाँ कह दी.वह अभी इस अहसास से बेखबर था कि बेफिक्री भरे उसके ये दिन फिर कभी वापस नहीं आने वाले.

एक घटने का जिक्र करूँ तो बच्चे बहुत नाराज़ हो जायेंगे और घटना इतनी मजेदार है कि जिक्र ना कैसे करूँ?...कनिष्क अपने स्कूल के लेजियम ग्रुप में तीन साल से है और इनका स्कूल मुंबई में फर्स्ट आया था.इसलिए कभी भी किसी नेता का आगमान हो,शिक्षा मंत्री या कोई भी विशिष्ट व्यक्ति तो इनके स्कूल को बुलाहट आ जाती है.नेतागण तो अपनी ए.सी. कार में आते हैं और ये बच्चे कड़ी धूप में घंटो लेजियम लिए सड़क के किनारे उनका इंतज़ार करते रहते हैं.खैर इसी वजह से कनिष्क को हर बार सफ़ेद कुरते पैजामे की जरूरत पड़ती थी..मैंने पतिदेव का एक कुरता पायजामा काँट-छाँट कर उसके नाप का कर दिया.हर प्रोग्राम के बाद धुलवा कर रख देती.इस बार कनिष्क के स्पोर्ट्स डे के एक दिन पहले किंजल्क के ड्रामा का शो था.उसे भी सफ़ेद कुरता पायजामा चाहिए था,मैंने निकाल कर दे दिया.जब रात में कनिष्क ने अपने सारे कॉस्ट्यूम्स रखने शुरू किये और सफ़ेद कुरता पायजामा माँगा तो मेरी हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.सुबह सात बजे उसे स्कूल जाना था और किंजल्क शो ख़त्म करके बारह के पहले घर नहीं आनेवाला था.उन दिनों हमारी बिल्डिंग में 'पानी बचाओ मुहिम' भी चल रही थी' और रात के 11 बजे पानी बंद हो जाता था...लिहाजा वाशिंग मशीन में धोकर सुखाना भी संभव नहीं था..मैंने कनिष्क को बिना कुछ बताये किंजल्क को फोन किया...और उसने कहा 'मैंने ड्रामे में पहना तो है...पर ज्यादा गन्दा नहीं हुआ...उसे प्रेस करके वापस वो दूसरे दिन पहन सकता है'...कनिष्क ने देखा तो बहुत नाक भौं सिकोड़ा और बोला 'तुमने 'सचिन तेंदुलकर' वाली पोस्ट लिखी ना...कि उनके पास एक ही सफ़ेद शर्ट पैंट थी...इसीलिए हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ.'

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

कुछ 'वैलेंटाइन डे'...ऐसे भी, गुजरते हैं




काफी साल पहले की घटना है,जब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे पर मुंबई में 'वैलेंटाइन डे'
की धूम कुछ ऐसी ही रही होगी,तभी तो इनलोगों ने अपने टीचर से पूछा होगा,कि ये 'वैलेंटाइन डे' क्या बला है? और टीचर ने इन्हें बताया कि आप जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं ,इस दिन,उसे कार्ड,फूल और गिफ्ट देकर विश करते हैं. अब बचपन में बच्चों की सारी दुनिया माँ ही होती है (एक बार छुटपन में मेरे बेटे ने एक पेंटिंग बनायी थी जिसमे एक घर था और एक लड़का हाथों में फूल लिए घर की तरफ जा रहा था...मैंने जरा उसे चिढ़ा कर पूछा ,"ये फूल, वह किसके लिए लेकर जा रहा है?" और उसने भोलेपन से कहा था,"अपनी ममी के लिए" ) .अब टीचर की इस परिभाषा पर दोनों बच्चों ने कुछ मनन किया और मेरे लिए एक कार्ड बनाया और गुलदस्ते से एक प्लास्टिक का फूल ले कर कार्ड के साथ सुबह सुबह मेरे तकिये पर रख गए...मेरी आँखें खुली तो दोनों भागते हुए नज़र आए और दरवाजे से झाँक रहें थे.

इनलोगों के स्कूल जाने के बाद मैंने सोचा,कुछ अलग सा करूँ.? बच्चों ने कार्ड दिया है तो कुछ तो करना चाहिए और मैंने सोचा..जब मेहमान आते हैं तभी ढेर सारी,डिशेज बनती हैं.क्रौक्रीज़ निकाली जाती हैं.सफ़ेद मेजपोश बिछाए जाते हैं..चलो आज सिर्फ घर वालों के लिए ये सब करती हूँ. मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ पर घर में बाकी सब नौनवेज़ खाते हैं.सोचा,एक ना एक दिन तो बनाना शुरू करना ही है,आज ही क्यूँ नहीं?.मैंने पहली बार फ्रोजेन चिकेन लाया और किसी पत्रिका में से रेसिपी देख बनाया.स्टार्टर से लेकर डेज़र्ट तक.बच्चे समझे कोई डिनर पर आ रहा है...जब ये खेलने गए तब मैंने सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ भी निकाल कर लगा दी.दोनों बेटे जब खेलकर आए तो उन्हें बताया.वे भी बड़े खुश हुए और मैंने देखा किंजल्क मेरी महंगी परफ्यूम प्लास्टिक के फूलों पर छिड़कने लगा,जब मैंने डांटा तो बोला,'मैंने टी.वी. में देखा है,ऐसे ही करते हैं"...जाने बच्चे क्या क्या देख लेते हैं.मैंने तो कभी नोटिस ही नहीं किया.

खैर सब कुछ सेट करने के बाद मैंने पतिदेव को फोन लगाया.उनके घर आने का समय आठ बजे से रात के दो बजे तक होता है.हाँ, कभी मैं अगर पूरे आत्मविश्वास से सहेलियों को बुला लूँ...कि वे तो लेट ही आते हैं तो वे आठ बजे ही नमूदार हो जाएंगे .या फिर कभी मैं अगर बाहर से देर से लौटूं तो गाड़ी खड़ी मिलेगी नीचे.ये टेलीपैथी यहाँ उल्टा क्यूँ काम करती है,नहीं मालूम.

मैंने फोन पर कहा,कि आज तो बाहर चलेंगे,मैंने खाना नहीं बनाया है.वे बोले, "अरे, कहाँ इन सब बातो में पड़ी हो"..मैंने कहा "ना....when u r in rome do as romans do इसलिए खाना तो बाहर ही खायेंगे".बोले 'मुझे लेट होगा बाहर से ऑर्डर कर लो'.मैंने कहा ,'ठीक है, पर बच्चे वेट कर रहें हैं,सुबह कार्ड बना कर दिया है,डिनर तो साथ में ही करेंगे' फिर या तो मैं फोन करती या मुझे फोन करके बताया जाता कि,अभी थोड़ी देर और लगेगी.आखिर 11 बजे मैंने कहा,'अब अगर एक बजे आयेंगे तब भी एक बजे ही सब डिनर करेंगे' और फोन रख दिया

बच्चों को तो मैंने खिला दिया ,उनका साथ भी दिया और इंतज़ार करने लगी.पति एक
बजे ही आए और आते ही बोला, "तुमने ऐसा १ बजे कह दिया की देखो एक ही बज गए"
कहीं पढ़ा था, "wokaholic hates surprises "अब वो मेरे जीवन का मूलमंत्र बन गया है

वो दिन है और आज का दिन है,सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ मेहमानों के आने पर ही निकलते हैं.


कुछ साल बाद एक बार 14th feb को ही मेरे बच्चों के स्कूल में वार्षिक प्रोग्राम था.दोनों ने पार्ट लिया था.मुंबई में जगह की इतनी कमी है कि ज्यादातर स्कूल सात मंजिलें होते हैं.स्कूल कम,5 star होटल ज्यादा दीखते हैं.क्लास में G,H तक devision होते हैं,लिहाज़ा वार्षिक प्रोग्राम भी ३ दिन तक चलते हैं और रोज़ दो शो किये जाते हैं,तभी सभी बच्चों के माता-पिता देख सकते हैं.उस बार भी इन दोनों को दो शो करने थे यानि सुबह सात से शाम के ६ बजे तक. स्कूल में ही रहना था.मुझे फर्स्ट शो में सुबह देखने जाना था,और उसके बाद मैं घर मे अकेली रहने वाली थी.

यूँ ही झींक रही थी कि अकेली रहूंगी,खुद के लिए क्या बनाउंगी ,क्या खाऊँगी..पतिदेव ने दरियादिली दिखाई और कहा, 'मेरा ऑफिस रास्ते में ही है,प्रोग्राम के बाद वहीँ चली आना,लंच साथ में करते हैं'.मैंने चारो तरफ देखा,ख़ुदा नज़र तो नहीं आया पर जरूर आसपास ही होगा,तभी यह चमत्कार संभव था,वरना ऑफिस में तो बीवी का फोन तक उठाना मुहाल है. और यहाँ लंच की दावत दी जा रही थी.जरूर पिछले जनम में मैंने गाय को रोटी खिलाई होगी.

खैर प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद मेरी सहेली ने मुझे ऑफिस के पास ड्रॉप कर दिया और हम पास के एक रेस्टोरेंट में गए.वहाँ का नज़ारा देख तो हैरान रह गए.पूरा रेस्टोरेंट कॉलेज के लड़के लड़कियों से खचाखच भर हुआ था.हम उलटे पैर ही लौट जाना चाहते थे पर हेड वेटर ने this way sir ...please this way कह कर रास्ता रोक रखा था.पति काफी असहज लग रहें थे,मुझे तो आदत सी थी.मैं अक्सर सहेलियों के साथ इन टीनेजर्स के भीड़ के बीच CCD में कॉफ़ी पी आती हूँ. बच्चों के साथ ' Harry Potter ' की सारी फ़िल्में भी देखी हैं.मुझे कोई परेशानी नहीं थी.पर नवनीत का चेहरा देख ,ऐसा अलग रहा था कि इस समय 'इच्छा देवी' कोई वर मांगने को कहे..तो यही मांगेंगे कि 'मुझे यहाँ से गायब कर दें'.वेटर हमें किनारे लगे सोफे की तरफ चलने का इशारा कर रहा था.पर नवनीत के पैर जैसे जमीन से चिपक से गए थे.मुझे भी शादी के इतने दिनों बाद पति के साथ कोने में बैठने का कोई शौक नहीं था,पर सुबह से सीधी बैठकर पीठ अकड सी गयी थी,सोफे पर फैलकर आराम से बैठने का मन था.शायद नवनीत मेरा इरादा भांप गए और दरवाजे के पास छोटी सी एक कॉफ़ी टेबल से लगी कुर्सी पर ही बैठ गए,जैसे सबकी नज़रों के बीच रहना चाहते हों.वेटर परेशान था,'सर इस पर खाना खाने में मुश्किल होगी',...'नहीं..नहीं हमलोग कम्फर्टेबल हैं..जल्दी ऑर्डर लो.'


मूड का तो सत्यानाश हो चुका था.और पूरे समय गुस्से में थे, बीच बीच में बोल पड़ते
,'इन बच्चों को देखो,कैसे पैसे बर्बाद कर रहें हैं:..माँ बाप बिचारे किस तरह पसीने बहा कर पैसे कमाते हैं और इनके शौक देखो'.वगैरह..वगैरह...मैंने चुपचाप खाने पर ध्यान केन्द्रित कर रखा था.ज्यादा हाँ में हाँ मिलाती तो क्या पता कहीं खड़े हो एक भाषण ही ना दे डालते वहाँ.वेटर ने डेज़र्ट के लिए पूछा तो उसे भी डांट पड़ गयी,'अरे टाईम कहाँ है, जल्दी बिल लाओ"..

जब बाहर निकल, गाड़ी में बैठी तो नाराज़गी का असली कारण पता चला,उन्हें लग रहा था,कि सब सोच रहें होंगे वे भी ऑफिस से किसी के साथ लंच पर आए हैं.मन तो हुआ कह दूँ कि,'ना..जिस तरह से आप सामने वाली दीवार घूर रहें थे और चुपचाप खाना खा रहें थे,सब समझ गए होंगे हमलोग पति-पत्नी ही हैं.'...या फिर कहूँ 'ठीक है अगली बार से पूरी मांग भरी सिंदूर और ढेर सारी चूड़ियाँ पहन कर आउंगी ताकि सब समझ जाएँ कि आपकी पत्नी ही हूँ.'पर शायद उनके ग्रह अच्छे थे,ऑफिस आ गया.और मेरी बात मुल्तवी हो गयी.

दूसरे दिन सहेलियों को एक दूसरे से पता चला और सबके फोन आने शुरू हो गए,सबने चहक का पूछा ,"'क्या बात है...सुना,पति के साथ लंच डेट पर गयी थी,कैसा रहा?'..और मेरा पूरा अगला दिन सबको ये किस्सा सुनते हुए बीता.आज यहाँ भी सुना दिया.

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

हिंदी लेखन में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग...कितना उचित??





सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि मैंने विषय के रूप में हिंदी बस इंटर तक ही पढ़ी है और मेरा सारा हिंदी ज्ञान ,पत्र पत्रिकाओं या हिंदी साहित्यिक पुस्तकों से ही अर्जित किया हुआ है,इसलिए अगर हिंदी में 'एम.ए.' या 'पी.एच.डी.' वालों को मेरी बात अच्छी ना लगे तो ,क्षमा याचना.

अक्सर मेरे लेखन में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर र्लोग आपत्ति जताते हैं.एक बार किसी ने कमेन्ट में भी लिखा कि "कृपया अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग ना करें...यह आँखों में चुभता है." पर मेरा मानना है कि हिंदी को समृद्ध करने के लिए दूसरी भाषाओं के शब्द भी समाहित करने चाहिए.सिर्फ अंग्रेजी ही नहीं अगर संभव हो तो स्पेनिश,फ्रेंच,इटैलियन शब्द भी शामिल करने चाहिए लेकिन हमारा साबका ज्यादातर अंग्रेजी भाषा से ही पड़ता है इसलिए जाने अनजाने हम इनका प्रयोग कर डालते हैं.

एक समस्या सम्प्रेषण की भी है, लिखते वक़्त अनायास ही कोई अंग्रेजी शब्द लिख जाते हैं,पर अगर हम यह बंदिश रखें कि नहीं सिर्फ हिंदी शब्द ही इस्तेमाल करने हैं.तो रुक कर हिंदी शब्द सोचने पड़ते हैं और फिर इस से लेखन प्रवाह में रुकावट आती है.और पाठकों को भी इसका अहसास होता है और फिर वह लेख पाठकों को बांधे रखने में अक्षम हो जाता है.जानबूझकर अगर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया गया हो या विशिष्टता दिखाने के लिए किया गया हो तो लेख पढने से इसका भी अहसास हो जाता है.पर अगर सहज रूप में कुछ शब्द रचना का हिस्सा बन जाते हैं तो मेरे ख्याल से इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए.अंग्रेजी भाषा का नहीं अंग्रेजियत का विरोध करना चाहिए.

कहते हैं,'साहित्य समाज का दर्पण होता है'.जिस तरह की भाषा आसपास बोली जाती है,वह लेखन में भी झलक जाती है.किसी गाँव कस्बों में रहने वालों का लेखन या महानगरों में रहने वालों का लेखन,कोई किसी से कमतर नहीं है.वहाँ रहने वालों के लेखन में एक आंचलिक खुशबू होती है और कई सारे आंचलिक शब्दों से पहचान हो जाती है वैसे ही महानगरों में रहने वालों के लेखन में कई भाषाओँ के शब्दों का सम्मिश्रण अपेक्षित है.अगर हम यह दबाव डालें कि सिर्फ हिंदी या संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग कर सकते हैं.फिर लेखन में विविधता दृष्टिगत नहीं होगी.अलग अलग शैली का लेखन किसी भी भाषा को समृद्ध ही करता है.मैं कभी अल्मोड़ा,हल्द्वानी नहीं गयी ऐसे ही कभी 'गल्फ कंट्रीज' में भी नहीं गयी.पर मेरे कुछ फ्रेंड्स अक्सर धोखा खा जाते हैं क्यूंकि 'शिवानी' के उपन्यास पढ़ पढ़ कर कितने ही पहाड़ी शब्दों से परिचय हो गया.और मुस्लिम महिलाओं के ऊपर लिखी कई किताबों से 'खाड़ी देशों' के रहन सहन का भी पता चला.मेरी समझ से हिंदी से इतर शब्दों का उपयोग हमारे ज्ञान में वृद्धि ही करता है.

अंग्रेजी एक समृद्ध भाषा है और सबको पता है,उसमे अनेकानेक भाषाओँ का सम्मिश्रण है.हर वर्ष 'ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी' के नए संस्करण निकलते हैं और अखबारों में खबर छपती है,फलां,फलां हिंदी शब्द को शामिल किया गया है.और अंग्रेजी लेखक उन शब्दों का उपयोग करने में जरा भी देरी नहीं करते.एक अंग्रेजी उपन्यास में मैंने जगह जगह 'जोधपुरी' का उल्लेख पाया.जबकि लेखक Artisitic indian shoes लिख सकता था लेकिन उसने 'जोधपुरी' लिखना श्रेयस्कर समझा.ऐसे ना जाने कितने हिंदी शब्द ,अंग्रेजी लेखन में मिल जाते हैं.और पढ़कर बुरा नहीं लगता,ख़ुशी ही महसूस होती है.

ये कह सकते हैं हिंदी खुद ही इतनी समृद्ध है और नए शब्द चाहें तो संस्कृत से लिए जा सकते हैं लेकिन आम पाठक,उर्दू अंग्रेजी मिश्रित हिंदी का इतना आदी हो चुका है कि संस्कृतनिष्ठ भाषा ही उसे अजनबी सी लगती है और उसके हिन्दी के प्रति ज्यादा रूचि जागने की जगह विमुख होने का खतरा ही ज्यादा बढ़ जाता है.

जो लोग बहुत सुगमता से क्लिष्ट हिंदी शब्दों का प्रयोग कर लेते हैं वे हिंदी के सच्चे साधक हैं पर जो लोग सिर्फ बोलचाल की भाषा में ही लिखते हैं,वे भी हिंदी को हानि नहीं पहुंचा रहें.

कई बार लेखन में कुछ नयापन लाने के लिए भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया जाता है.'शरद कोकस' जी मुंबई पर लिखी कविताओं की एक श्रृंखला लिख रहें हैं."सिटी पोएम्स'..अब "शहर कविता" लिखने में वह बात नहीं होती इसीलिए उन्होंने यह शीर्षक चुना.अंग्रेजी उपन्यासों में अक्सर पढने को मिलता है " He was still in his payjama " लेखक आसानी से लिख सकता है " He was still in his night suit " पर पायजामा लिखने में एक नवीनता झलकती है.और हर लेखक अपनी रचना को एक नयापन देना चाहता है.इसलिए इतर भाषा के शब्दों के प्रयोग से नहीं हिचकता.

कुछ अंग्रेजी शब्द हामारी भाषा में इतने रच बस गए हैं कि प्रतीत ही नहीं होता ये हिंदी भाषा के अभिन्न अंग नहीं हैं.'खुशदीप सहगल जी' ने मेरी 'कामवालियों' पर लिखी पोस्ट पढ़ कर कहा उन्हें, इनके लिए 'मददगार' शब्द उचित लगता है.हमें भी बाई,कामवाली ,महरिन, बुलाना अच्छा नहीं लगता.पर मददगार शब्द उतनी सुगमता से हमारी जुबान पर नहीं चढ़ पायेगा जितना 'हेल्पर' शब्द....गाँव का बच्चा बच्चा भी 'हेल्प' शब्द का अर्थ जानता है और सेना में तो ऑफिसर को जो व्यक्तिगत अर्दली दिए जाते हैं .उन्हें हेल्पर ही कहा जाता है.पर चूँकि 'हेल्पर'शब्द अंग्रेजी का है इसलिए कई लोगों को ग्राह्य नहीं होगा.अब 'ब्लॉग 'शब्द का उदाहरण ही ले लेँ.'चिटठा' या 'चिट्ठाकार' शब्द से सभी परिचित हैं पर उपयोग तो 'ब्लॉग' या 'ब्लॉगर' शब्द का ही करते हैं.

मेरे अहिन्दीभाषी फ्रेंड्स हमेशा पूछते हैं.बोलने वाली हिंदी और पढने वाली हिंदी में इतना फर्क क्यूँ है? जितना ही हम नए शब्दों को प्रश्रय देंगे. यह खाई मिटती जायेगी और हिंदी नए नए लोगों को और भी आकर्षित करेगी.

बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

खुदा महफूज़ रखे इन्हें हर बला से,हर बला से


यह पोस्ट मैंने 'हमज़बान' के लिए लिखी थी या यह कहना सही होगा कि शहरोज़ भाई ने ...मुझसे लिखवा ली थी.उनके जैसे तकाज़े करने वाला और मेरे जैसे टालने वाला.उन्हें ऑनलाईन देखकर ही डर जाती कि अभी पूछ बैठेंगे और जरा सी कुशल क्षेम के बाद वे पूछ ही लेते कभी कभी तो हलो भी नहीं..सीधा ही पूछ बैठते.."आपका मेल नहीं मिला"..और एक दिन प्रॉमिस कर ही दिया...शाम तक आपके मेलबॉक्स में होगा..और बस उंगलियाँ कीबोर्ड पे खटखटाई और लिख डाला

जिन लोगों ने पढ़ रखी है,वे तस्वीरें देख सकते हैं :)

'लोकल ट्रेन' मुंबई की धड़कन कही जाती है और इसी तर्ज़ पर अगर यहाँ की कामवाली बाईयों को 'मुंबई' का हाथ पैर कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी.क्यूंकि इन्हीं की बदौलत,मुंबई के सारे घर शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चलते हैं.सुबह पांच बजे से रात के ग्यारह बजे तक ये कामवालियां दूसरों का घर संभालने में लगी होती हैं.

ये सब कामवालियां,भारत के सुदूर प्रान्तों से आकर यहाँ बसी हुई होती हैं.बिहार,यू,पी.,मध्यप्रदेश,उडीसा,आसाम,बंगाल,तमिलनाडु,कर्नाटक...शायद ही कोई ऐसा प्रदेश हो जहाँ की मिटटी में पले,बढे ये हाथ मुंबई के घरों को साफ़-सुथरा रखने में ना लगे हों.कितनी ही बाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता.पर ये इशारों में ही बात समझ, काम करना शुरू कर देती हैं और एकाध सालों में ही इतनी दक्ष हो जाती हैं कि इन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाता है.कच्चे घरों और कच्ची सडकों की आदी ये महिलायें पूरे आत्मविश्वास से लिफ्ट का इस्तेमाल करना और इतने ट्रैफिक के बीच आराम से रास्ता तय करना सीख जाती हैं.अत्याधुनिक उपकरणों से लैस रसोईघर को ये इतनी निपुणता से संभालती हैं कि इनके अनपढ़ होने पर शक होता है.सच है,व्यावहारिक ज्ञान के आगे,किताबी ज्ञान कितना बौना है.

घर की मालकिनों को सोफे पर बैठ कर टी.वी.देखने का या ऑफिस के ए.सी.कमरे में बैठ कलम चलाने (या नेट पर ब्लॉग लिखने :)) का अवसर देनेवाली इन कामवालियों का खुद का जीवन बहुत ही कठिन होता है.सुबह ४ बजे उठती हैं,अपने घर का खाना बना,नहा धोकर काम पे निकल जाती हैं. हाँ! मुंबई की ज्यादातर बाईयां सुबह नहा धोकर,पूजा और नाश्ता करके ही काम पर जाती हैं.दक्षिण भारतीय और मराठी महिलाओं के तो बालों में फूल भी लगा होता है.मेरी माँ जब मेरे पास आई थीं तो सबसे ज्यादा ख़ुशी, उन्हें मेरी मराठी बाई को देखकर होती थी. सुबह सुबह ही उसके बालों में लगे गजरे से मेरे पूरे घर में भीनी भीनी खुशबू फ़ैल जाती.
इनकी कठिन दिनचर्या शुरू हो जाती है. औसतन ये ५,६, घरों में जरूर काम करती हैं.किसी घर में सिर्फ झाडू,पोंछा,बर्तन का काम होता है तो कहीं कपड़े धोना,कपड़े फैलाना,डस्टिंग करना,खाना बनाने में मदद करना और कहीं कहीं पूरा खाना भी यही बनाती हैं.
दोपहर को थोड़ी देर को ये अपने घर जाती हैं और अपने घर के बर्तन साफ़ करते,कपड़े धोते इन्हें दो घडी का भी आराम नहीं मिलता.और दूसरी पाली का काम शुरू हो जाता है.बहुत सी बइयां शाम ७ से दस बजे रात तक घर घर घूम कर रोटियाँ बनाती हैं.ज्यादातर गुजराती घरों में रात के जूठे बर्तन सुबह तक नहीं रखते,उनके यहाँ ये बाईयां रात ग्यारह बजे काम ख़त्म कर वापस जाती हैं.

रात में सोने में इन्हें एक,दो बज जाते हैं क्यूंकि बी.एम्.सी.(ब्रिहन्न्मुम्बाई महानगरपालिका) रात में ही पानी रिलीज़ करती है.बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स में तो टैंक में पानी भरता रहता है पर.इन्हें रात में ही बड़े बड़े ड्रमों में पानी भरना पड़ता है ताकि दिन भर काम चल सके.
पर अच्छी बात ये है कि पैसे इन्हें अच्छे मिलते हैं तीन हज़ार से दस हज़ार तक ये प्रति माह कमा लेती हैं.इन पैसों को ये बहुत ही बुद्धिमानी से खर्च करती हैं.करीब करीब सभी बाईयों के बैंक एकाउंट हैं.हर महीने ये कुछ पैसे जरूर जमा करती हैं और दिवाली में तो अच्छी खासी रकम जमा हो जाती है क्यूंकि यहाँ के रिवाज़ के अनुसार पूरे एक महीने का वेतन इन्हें बोनस के रूप में मिलता है.खुद भी और अपने बच्चों को भी ये साफ़ सुथरे कपड़े पहनाती हैं. मुंबई आने के शुरुआत के दिन में जब मेरी बाई ने बताया था कि उसने ६सौ की बेडशीट खरीदी है तो मैं आश्चर्य में पड़ गयी थी.करीब करीब सभी बाईयां अपने बच्चों को स्कूल भी भेजती हैं और ट्यूशन भी.कुछ बाईयां तो अपने बच्चों को प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाती हैं और फीस भरने को दुगुनी मेहनत करती हैं.इनके दस बाई दस के कमरे में सुख सुविधा की सारी चीज़ें मिलेंगी.गैस,मिक्सी,रंगीन टी.वी..मोबाईल के बिना तो ये घर से बाहर कदम नहीं रखतीं.

इन्हें ज़िन्दगी जीना भी आता है.सिनेमा जाना,बच्चों के साथ' जुहू बीच' जाना ,गरबा और गणपति के समय देर रात तक घूमना,ये सब इनकी ज़िन्दगी के हिस्से हैं.अच्छा लगता है देख अपने बच्चों का बर्थडे भी केक काटकर मनाती हैं.एक बार तो 'वेलेंटाईन डे' पर मेरी बाई अपने पति के साथ सिनेमा देखने चली गयी और मुझे बर्तन साफ़ करने पड़े.(दरअसल उसका पति,रिक्शा चलाता था और कॉलेज के लड़के लड़कियों की बातें सुन और बाज़ार की रौनक देख,उसका भी मन ''वेलेंटाईन डे' मनाने का हो आया)
पर इनकी ऐसी किस्मत कभी कभी ही होती है.ज्यादातर इनके पति,इनके पैसों पर ऐश ही करते हैं.और इन्हें मारते पीटते भी हैं.शायद ही किसी बाई का पति हो जो रोज काम पर जाता हो.महीने में बीस दिन अपने साथियों के साथ पत्ते खेलता है और शराब पीता है.पैसे नहीं देने पर इन्हें मारता पीटता भी है.पर ये बाईयां मध्यम वर्गीय महिलाओं की तरह चुप नहीं बैठतीं.पुलिस में भी रिपोर्ट कर देती हैं और कई बार पति को घर से निकाल भी देती हैं.और कुछ दिनों बाद ही पति दुम हिलाता हुआ,माफ़ी मांग वापस लौट आता है.फिर वही सब शुरू हो जाता है,ये अलग बात है.पर सबसे दुःख होता है,इनके बेटों का व्यवहार देख.बेटियाँ फिर भी पढ़ लेती हैं पर बेटे ना स्कूल जाते हैं,ना ट्यूशन.एक ही क्लास में फेल होते रहते हैं और जब भी मौका मिले अपनी माँ से पैसे छीन भाग जाते हैं,एक बार मेरी बाई ने बड़ी मासूमियत से पूछा था,"कोई ऐसी दवा होती है,भाभी जिस से इनका पढने में मन लगे."
ये बाईयां मेहनतकश होने के साथ साथ बहुत ही ईमानदार और प्रोफेशनल भी होती हैं.कई घरों में पड़ोस से चाबी ले,फ़्लैट खोलकर ये सारा काम करती हैं और चाबी वापस कर चली जाती हैं.एक युवक अपने घर के बाहर doormat के नीचे चाबी रखकर चला जाता था.बाई घर खोल उसे मिस कॉल देती और वह फोन करके बताता कि क्या खाना बनाना है.कितने ही घरों का काम ऐसे ही चलता है.महीने में दो छुट्टी इनका नियम है,इसके अलावा बीमार पड़ने या बहुत जरूरी होने पर ही ये छुट्टियाँ लेती हैं.वरना मैंने देखा है,छोटे शहरों में जरा सा मूड नहीं हुआ,या नींद नहीं खुली,सर में दर्द था,कोई आ गया,ऐसे बहाने बना बाईयां छुट्टी कर जाती हैं.

यहाँ एक और अलग रूप है इन काम वाली बाईयों का. एक बार 'बॉम्बे टाईम्स' में एक रिपोर्ट छपी थी कि या बाईयां अपनी मालकिनों के emotional anchor का रोल भी बखूबी निभाती हैं.मुंबई में अपने पड़ोसियों की भी कोई खबर नहीं होती.ऐसे में उनकी परेशानियां बांटने वाली एकमात्र ये बाईयां ही होती हैं.कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे.एक युवती ने बताया था कि उसका डिवोर्स हो गया था और वह घोर डिप्रेशन में थी.उड़ीसा के किसी गाँव से आई एक सीधी साधी बाई ने उसका पूरा घर संभाला.उसके बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना,उसे भी जबरदस्ती खाना खिलाना,उसे समझाना,इक ने अपना पति खो दिया था,एक की नौकरी चली गयी थी,सबको उनकी बाई ने ही सहारा दिया था.बरसों पहले रिलीज़ हुई फिल्म अर्थ में 'रोहिणी हट्टनगडी' का किरदार कपोल कल्पित नहीं था.मुंबई के जीवन में यह अक्षरशः सत्य है.फ्लैट्स की चहारदीवारी में क़ैद कई जोड़ी बूढी आँखें अपने बेटे बेटियों का इंतज़ार उतनी शिद्दत से नहीं करतीं जितनी व्याकुलता से इन कामवालियों की बाट जोहती हैं....मैंने एक बार अपनी कामवाली से पूछा ," आंटी के यहाँ तो इतना काम नहीं तुम्हे इतनी
देर क्यूँ लगती है" तब उसने बताया....'आंटी बात करते बैठती है,..अकेली जो है."..मैंने भी कहा हाँ बाबा..थोड़ा समय बिताया करो उनके साथ.तुम्हे भी ब्रेक मिल जाएगा. 'नारद मुनि' वाला अवतार ये भी निभाती हैं,यानि की 'गौसिपिंग' इधर की बात उधर....पर ज्यादा नहीं क्यूंकि इनके पास समय बहुत कम होता है...जल्दी होती है,एक घर से दूसरे घर भागने की...और ये आप पर भी निर्भर है कि आप बतरस का कितना आनंद लेते हैं.

अगर सिर्फ दो दिन के लिए ही,मुंबई की बाईयां कहीं अंतर्ध्यान हो जाएँ तो कितने ही घरों में खाना नहीं बने,बच्चे स्कूल नहीं जा पायें,घर बिखरा पड़ा रहें कपड़े नहीं धुले और घर की मालकिन अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठे..इसलिए
LONG LIVE KAAMWAALI BAAI .

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