बुधवार, 23 दिसंबर 2015

पहली एकल जयपुर यात्रा --1

पिछले वर्ष  इन्हीं दिनों जयपुर यात्रा पर  गई थी ,उन दिनों उपन्यास  पूरा करने के लिए फेसबुक ब्रेक पर थी और फिर इस वर्ष लाहुल स्पीती ट्रिप से लौटी तो उस उपन्यास के प्रकाशन की तैयारियों में व्यस्त रही .दोनों यात्राओं के संस्मरण लिखना रह ही गया जबकि मैं तो एक बार लोकल से यात्रा कर आती हूँ ,वो भी लिख डालती हूँ :).
पहले जयपुर यात्रा संस्मरण जो मेरे जीवन की पहली सोलो ट्रिप थी 
मेरे कॉलेज की  फ्रेंड सीमा की बेटी  की शादी जयपुर में थी . उसने तुरंत ही मुझे फोन कर आमंत्रित किया. आजकल शादी कि डेट तय होते ही लोग बता देते हैं क्यूंकि काफी पहले बता देने पर प्लेन के टिकट बहुत कम कीमत में मिल जाते हैं .सीमा ने मेरे पतिदेव से भी आने का आग्रह किया  और आशा के विपरीत ह्मेशा व्यस्त रहने वाले पतिदेव ने आने के लिए हामी भर  दी . सीमा कटिहार में केन्द्रीय विद्यालय में प्रिंसिपल है. बेटी बैंगलोर में जॉब करती है .लडका भी बैंगलोर में है ,पर उसके सभी रिश्तेदार जयपुर के आस -पास हैं.. इसलिए उनकी इच्छा थी कि जयपुर से ही शादी हो . सीमा ने जयपुर में ही एक रिजॉर्ट बुक किया था और हमें वहीँ शादी अटेंड करनी थी. मेरे पतिदेव ने प्लान बनाय कि हमलोग दो दिन पहले ही जयपुर चलते हैं, जयपुर घूम लेंगे और फिर रिसॉर्ट में शिफ्ट होकर शादी में शामिल  हो जायेंगे . उन्होंने नेट पर ढूंढकर  पूरी  तरह राजस्थान के पारम्परिक साज सज्जा से सुसज्जित  होटल उम्मेद पैलेस बुक कर दिया . दो महीने पहले ही सारी बुकिंग हो गयी .और फिर हम अपने रोजमर्रा के कार्यों में व्यस्त हो गए .

जाने से ठीक एक हफ्ते पहले पता चला, पतिदेव को उन्हीं दिनों कुछ बहुत जरूरी काम है ,जिन्हें टाला नहीं जा सकता .इसलिए वे नहीं जा पायेंगे . टिकट  कैंसल करनी पड़ेगी.पहले तो मैंने सोचा...अपनी टिकट  भी कैंसल करवा देती हूँ .दो दिन बाद जाकर सीधा शादी में ही  सम्मिलित हो जाउंगी .अकेले जाने में कोई समस्या नहीं थी .ज्यादातर अकेले ही ट्रेवल करती हूँ . पर बच्चे पीछे पड़ गए , आजकल छोटी  छोटी  लडकियां यूरोप तक अकेले घूम कर आ रही हैं और तुम दो दिन जयपुर घूमने  से डर रही हो. अपना देश, अपनी भाषा...वे लोग तो अनजान देश में अनजान भाषा के बीच घूम आती हैं और तुमसे उम्र में आधी है .कुछ सोच विचार कर मैंने भी सोचा ,'ये अनुभव भी ले ही लेती हूँ...उम्र जल्द ही दस्तक देने लगेगी और इस तरह के अनुभव से महरूम रह जाउंगी और मैंने टिकट कैंसल नहीं किया .

उसके बाद के दिन तो रोमांच में ही बीते .नया शहर ,बिलकुल अकेले घूमना...सारे अनजान चेहरों के बीच, यह सब सोच थोडा मन सशंकित भी होता पर कुछ बोल नहीं सकती थी . घर में तो सब हंसी उड़ाते कि कौन सी बड़ी बात है., दुनिया भर में लडकियां अकेली घूम रही हैं . राम राम करके वो दिन भी आ पहुंचा , दस बजे की फ्लाइट बदलकर दो बजे की हो गई यानि जयपुर पहुँचते शाम हो जानी  थी और फिर उस दिन कहीं भी घूमना सम्भव नहीं था .थोड़ी निराशा भी हुई  कुछ और समय मिल गया .एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाईट का इंतजार करते उत्तर के शहरों से आते लोगों को देख रही थी. सब कोट मफलर, स्वेटर में सजे हुए थे .जिसे  जाते ही उतार देने  वाले थे,मुंबई में तो पंखा चल रहा था . आजकल तो ट्रेन में भी लोग बातें नहीं करते ,प्लेन में तो यूँ भी गर्दन टेढ़ी किये बैठे रहते हैं .मैंने भी एक किताब खोल ली थी .जब स्नैक्स आया तो पाया विंडो सीट पर बैठा लड़का सो रहा था . बीच में एक बड़ा सोफिस्टीकेटेड सा  लड़का बैठा था ,जिसे उसे जगाने में कोई रूचि नहीं दिखी .पर मुझे लग रहा था, बिचारे को अफ़सोस ना हो, उसका नाश्ता छूट गया .मैंने बीचवाले लड़के से आग्रह किया कि उसे जगा दे .बड़ी अनिच्छा से उसने दो बार ऊँगली से ठक ठक कर उसे जगाया . फिर थोड़ी देर बाद मेरी किताब पर कहा कि उसकी पढी हुई है, बड़ी अच्छी किताब है ' .फिर तो बातें होने लगीं और पता चला...मेरा बेटा जिस कम्पनी में काम करता है वो भी उसी में है, पर उस से काफी सीनियर है .बैंगलोर में पोस्टेड है और अब जयपुर में कैम्पस इंटरव्यू लेने जा रहा है . शादी शुदा है और उसका एक बेटा भी है. आजकल सब अपनी उम्र से कम ही दिखते हैं .


जयपुर एयरपोर्ट से बाहर निकल अपने नाम की तखती ढूँढने लगी क्यूंकि होटल से पिक अप बुक किया हुआ था .पर वहां दो तख्ती देख  चौंक गई. एक मेरे नाम की और  एक मेरे पतिदेव  के नाम की .एक बार तो चौंक ही गई ...मुझसे झूठ बोला क्या उन्होंने और किसी दूसरी फ्लाईट से आ रहे हैं  .पर तुरंत ही ये सोच उलटे पैर लौट गया ,ऐसा कुछ करना  उनके वश की बात नहीं .मैं अपने नाम की तख्ती वाले  ड्राइवर की तरफ बढ़ गई और उसके पास खड़े दुसरे ड्राइवर से कहा कि वे नहीं आ रहे . अब वो पूछने लगा...'आप उन्हें जानती हैं ?' इसका क्या उत्तर हो ,जब उसे बताया कि मेरे पतिदेव का नाम है...पर वे नहीं आ रहे तो दोनों ड्राइवर मुस्करा कर कहने लगे , हमलोग बात कर ही रहे थे कि ये दोनों लोग जरूर एक दुसरे को जानते होंगे ,एक ही सरनेम है . मुम्बई से बाहर आते ही सबसे पहले यही बात ध्यान में आती है ,अपरिचित भी बड़े आराम से बातें करते हैं .वरना वहां बिना किसी काम के या काम से अलग अनजान  लोग शायद ही दो बातें करें . अब वे पूछ रहे थे ,"पर  दो गाड़ी क्यूँ बुक की ?"
मैं समझ गई  कि दो महीने पहले होटल की बुकिंग करते हुए भी अपने नाम से पिक अप करने के लिए गाड़ी बुक कर दी होगी और भूल गए .जब मैं अकेले जाने लगी तो फिर से मेरे नाम से गाड़ी बुक कर दी . पर मुझे इस लापरवाही पर इतनी खीझ हो रही थी कि मैंने फोन करके पूछा भी नहीं ,अपने नाम की तख्ती वाले ड्राइवर से कहा, गाड़ी लेकर आइये .वो तो चला गया ...दूसरा ड्राइवर घबराया हुआ था कि अब पैसे कौन देगा .उसने होटल फोन किया .होटल से पतिदेव को फोन गया और फिर उनका फोन मेरे पास आया कि दुसरे ड्राइवर को भी पैसे दे देना . यानि अब एक अकेले मेरे लिए दो दो इनोवा खड़ी  थी :)

इंटरनेट से होटल तो बुक कर लेते हैं .पर दूरी का अंदाजा नहीं होता . ये उम्मेद पैलेस ,शहर के बिलकुल दूसरे छोर पर है. यानि पहले ही दिन मैंने एक छोर से दूसरे छोर तक शहर को नाप लिया. मुंबई की  बेहिसाब ट्रैफिक और जनसमुद्र के सामने तो कोई भी शहर शांत ही प्रतीत होता है.  खूब चटख रंग की साड़ियाँ,सलवार कुरते में सजी महिलायें अच्छी लग रही थीं . होटल पहुँचते शाम हो गई थी .
होटल बहुत खुबसूरत था . पीतल जड़े किले के दरवाजे सा गेट .अंदर की साज सज्जा भी कुछ रजवाड़े सी  . बड़े बड़े शीशे, पीतल के गागर , दीवारों पर उकेरे भित्तिचित्र , जालीदार झरोखे .कमरे में एंटीक फर्नीचर . सोफे टी वी के साथ एक कोने में नक्काशीदार कुर्सी के साथ एक राइटिंग टेबल भी और टेबल पर पुराने चलन  का एक लैम्प. अब तो हाथ से लिखना छूट  ही गया है, वरना वहाँ लेखन का पूरा माहौल  था .
शाम हो चुकी थी ,होटल एक रिहाईशी  इलाके में था ,बाज़ार के बीच में नहीं कि निकल कर एक चक्कर लगा लिया जाए .घर से फोन पर सबने कहा ,'क्या होटल में रहने के लिए गई हो...बाहर निकल कर थोडा घूम आओ कहीं. पर मैंने सोच लिया था , कल सुबह ही जाउंगी .ऊपर रूफ टॉप रेस्टोरेंट था ,बस सोचा खुली छत पर डिनर का आनन्द लिया जाएगा . एक चाय और एक प्लेट भजिया ऑर्डर किया और अकेले घूमने में सबसे बड़ी मुसीबत  खाने  पीने  की ही  होती  है.  .इतना सारा भजिया था कि मेरा तो डिनर ही हो जाता .अब मैंने सोचा ,सफर में बाल बिलकुल बिखर गए थे ,जरा कंघी कर लूँ .और बस हो गई मुसीबत . सामान में कंघी मिले ही ना .अब तो मैं बुरी तरह घबरा गई .कल सुबह घूमने जाना है और बिना कंघी किये कैसे जाउंगी . सारा बैग उलट  पुलट कर देख लिया पर कंघी नहीं मिली .

अब मुझे बाहर जाना ही पड़ा . रिसेप्शन पर पूछा तो  बताया गया ,बस पास में ही एक जनरल स्टोर है,वहां सब कुछ मिल जाएगा .उस अनजान  शहर में हलके ह्ल्के घिरते अंधियारे में घूमना एक अलग ही अनुभव था . उंघती हुई सी कॉलोनी थी . सुंदर लॉन वाले बड़े  खुले खुले प्राइवेट मकान और उनके बंद गेट . कॉलोनी की  सडक पर इक्का दुक्का कोई आता -जाता दिख जाता . कभी कोई गाड़ी आती दिखती , बड़ा सा गेट मुंह खोल गाड़ी को लील जाता और फिर गेट का मुंह बंद .थोडा रोमांच और हलकी सी सिहरन भी हो रही थी पर खुद को अजनबी भी नहीं दिखाना था ,इसलिए थोड़ी लापरवाही ओढ़े  चारों तरफ देखते चलती जा रही थी. किसी दूकान के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे . काफी दूर जाने पर बाईं  तरफ एक बैनर दिखा, "यहाँ फ्रेश ड्राई फ्रूट्स मिलता है" .ऐसा लग रहा था किसी गैराज में कोई दूकान है. मैंने सोचा वहां पूछने पर पता चल जाएगा .जब जाकर देखा तो वो एक छोटा मोटा सुपर स्टोर सा ही था .जरूरत का हर समान मौजूद था .चाहे कितनी भी आभिजात्य कॉलोनी हो पर सामान्य चीज़ों की  दरकार तो सभी को होती है. मैंने उसे बोल भी दिया , ये दूकान के बाहर 'यहाँ ड्राई  फ्रूट्स मिलता है', ऐसा बैनर क्यूँ लगाया हुआ है? ,लोगों को धोखा  हो सकता है . बोला, 'नहीं जी यहाँ सबको पता है ' .हाँ उसे कहाँ अंदाजा होगा कि मुम्बई से कोई उसके यहाँ कंघी खरीदने आ जाएगा :) ( दूसरे दिन पता नहीं कहाँ से कूद कर  कंघी बिलकुल सामने आ  गई ,मानो घर वालों के संग मुझे बाहर भेजने की साजिश में शामिल थी )

जाते  वक्त  जो  बेचैनी और हल्का सा डर था वो गायब हो  चुका था और अब मैं वो शांत ,धूसर अँधेरा  एन्जॉय  कर रही थी .पर होटल कुछ जल्दी ही  आ गया . 

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

'कांच के शामियाने ' पर गीताश्री जी की टिप्पणी

गीताश्री जी , साहित्य  जगत में एक जाना माना नाम हैं . उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं . साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां नियमित प्रकाशित होती हैं. 'बिंदिया' पत्रिका की  सम्पादक रह चुकी हैं. साहित्यिक आयोजनों में उनकी नियमित भागेदारी रहती है, आजकल 'प्रसिद्ध लेखकों से मंच पर संवाद' कार्यक्र्म होस्ट करती हैं .
 'कांच के शामियाने' पर उनकी प्रतिक्रिया अपने ही लेखन में विश्वास बनाए रखने को प्रेरित करती  है.
गीताश्री  का बहुत आभार :)

                                                             कांच के शामियाने 

रश्मि रविजा के इस उपन्यास को पढ़ना जैसे एक लड़की के स्वप्न, संघर्ष और यातना का पीछा करने जैसा...
अपनी तस्वीर देखना और डूब डूब जाना उन दिनों में जहां से शुरु होता है एक लड़की का इस बीहड़ वन में दुरुह सफर...

"कांच के शामियाने" में एक लड़की रहा करती है. कभी झील में बदलती है तो कभी पहाड़ी नदी बन जाती है. चंबा की चिड़ियां अक्सर कांच में चोंच मारा करती है. उसकी कोशिशों का दौर थमता नहीं. खुरदुरे यथार्थ का कड़वा स्वाद लेती हुई वह लड़की अक्सर उम्मीद की तरह झांकती है शामियाने से बाहर. जहां कैद है वहां सहरा से दिन और अंधें कूंए सी रातें ही होंगी न ! वह कहीं भी महफूज नहीं कि जीवन की ये तल्खियां और दुश्वारियां उसे धीरज नहीं धरने देते. दुख से दोस्ती करने वाली वह लड़की देखती है बार बार सपने .

रश्मि रवीजा के उपन्यास की वह लड़की अब तक मेरी चेतना में रहती आई है. पहली बार उसे दर्ज होते देखा. कांच के भीतर की छटपटाहट उस लड़की से कितनी मिलती है...जिसे मैं बचपन से अब तक साथ लिए घूम रही हूं...!
यह वही लड़की है जो मेरे मोहल्ले में रहा करती थी बिना पिता के घर में. दुनियाभर के वहशत उसका पीछा करते थे और वह अपने आप में सिमटती चली जाती थी. उसे हर कोई अपने शीशे में उतार लेना चाहता है. घरवाले बोझ समझ कर उसे जल्दी निपटा देना चाहते हैं.

वह सिर झुका कर निपटने देती है खुद को. शायद बेहतर की उम्मीद में कि बंजर में फूल खिला सके. उपन्यास की मुख्य पात्र जया पर गुस्सा भी आया.थोडा संघर्ष तो करती. इतनी आसानी से अपने जीवन का समर्पण कैसे कर दिया? दुख कहां खत्म होते हैं जल्दी. वे पसरते चले जाते हैं थिर पानी पर शैवाल की तरह. जया का दुख विस्तार लेता चला जाता है. एक निरीह लड़की के ऊपर एक मर्द के अहंकार की विजयगाथा चलती रहती है. लड़की की आंखें गरीब के झोपड़े में बरसात की तरह टपकती रहती हैं.

फिर गुस्सा आता है मुझ जैसे पाठक को. मैरिटल रेप और डोमेस्टिक वायलेंस झेलते हुए वह मुझसे दूर होती जा रही है. वह लड़की से औरत में बदल रही है और दो बच्चों की मां भी बन गई.

और सहते सहते एक दिन उसकी सहनशक्ति खत्म ! उसे अपने अस्तित्व का बोध हुआ और वह उस विवाह रुपी कैद को छोड़ कर बाहर निकल आई. आर्थिक निर्भरता ने उसमें आत्मविश्वास भर दिया और वह लड़ सकी ! खुद को कविता में अभिव्यक्त कर सकी. सारे पहरे यकायक हट गए और उसके अरमानों को आकाश मिल गया. अब वह सुकून से है.

रश्मि रविजा के इस उपन्यास में एक लड़की की जीवन यात्रा है. बिहार के परिवेश की जीवंत और सच्ची कथा है. सुधा अरोड़ा ने सटीक लिखा है कि "इसमें एक स्त्री के बहाने से उन बेशुमार स्त्रियों के संघर्ष को बयान किया गया है जिन्हें उनका सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हक ताउम्र नहीं मिलता. एक पढ़ा लिखा पति भी पितृसत्तात्मक समाज के लूप-होल का फायदा उठाते हुए उस पर साधिकार कहर ढ़ाता चला जाता है और स्थितियों को प्रतिकूल पाकर गिरगिट की तरह रंग बदलता है. जाहिर है स्त्री के लिए विवाह संस्था एक शोषण संस्था बन चुकी है. "

सुधा जी से सहमत होते हुए कुछ और जोड़ना चाहती हूं कि कई बार कस्बे की लड़कियों के लिए विवाह भी मुक्त करता है. ऐसे समाज में आजीवन अविवाहित रहने का फैसला बहुत आसान नहीं. आर्थिक निर्भरता आते आते कई लड़कियां निपटा दी जाती हैं. जया के सामने कोई विकल्प नहीं. विवाह से उसकी मुक्ति जल्दी नहीं, देर से हुई. तब तक उसके अरमां निकल गए.

रश्मि...बहसतलब कथानक है! नायिका के साथ सहज संबंध बनने के वाबजूद मैं उद्वेलित रही.  एक अच्छा उपन्यास ! बधाई !

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

'कांच के शामियाने ' पर 'अपनी बात' रखी वंदना अवस्थी दुबे ने

 'वंदनाअवस्थी दुबे' एक  प्रखर  पत्रकार  हैं .दस  साल  तक  'देशबंधु' अखबार  में  काम  करने के  बाद  उन्होंने  स्कूल खोलाऔर  इतने मन से बच्चों को वहां पढ़ाती हैं और उनके सर्वांगीण विकास के लिए प्रयास करती हैं कि हर वर्ष बच्चों की  संख्या में वृद्धि होती जा रही है . पर लेखन हमेशा उनका पहला प्यार रहा .अपने ब्लॉग
  "अपनी  बात " पर कई वर्षों से सक्रिय हैं .संस्मरण , कहानियां , ज्वलंत विषयों पर आलेख लिखती आ रही हैं . दो तीन वर्षों से  फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय हैं . उनके स्टेटस इतनी ताजगी भरे और अछूते होते हैं कि सब बेसब्री से उनके लिखे का इंतज़ार करते हैं ..पर  आजकल सब उन्हें मिस कर रहे हैं और उनके  लौट आने कि गुहार भी लगा रहे हैं .क्यूंकि वंदना फेसबुक से ब्रेक पर हैं . 
 है
मैं तो ज्यादा ही मिस करती हूँ क्यूंकि वो मेरी प्यारी सी दोस्त भी है . पर स्वार्थी बन कर सोचूं तो लगता है ,शायद कुछ ब्रेक अच्छे होते हैं ।उसने मेरी किताब पढ़ी और समीक्षा जो लिखी है :) (किताबें पढने के लिए ही ब्रेक लिया और पहली किताब मेरी ही पढ़ी :) )smile emoticon
थैंक्यू एक छोटा शब्द है फिर भी एक तो बनता है थैंक्यू सो मच वंनदना .पर तुम्हें शुक्रिया भी क्या कहूँ , एक तरह से ये तुम्हारी किताब भी है .
शुरू से तुम इस उपन्यास से जुडी रही .कई बार कुछ अंश पहले तुम्हे ही पढवाए हैं कि 'ये ठीक है ना' और तुम्हारी 'हाँ' के बाद ही आगे बढ़ी हूँ . 
ब्लॉग पर डालने के बाद तीन साल का गैप अच्छा ही रहा .,दुबारा भी एक बार में पढ़ गई (अपने आलसपने को जस्टिफाई करने का बढ़िया तरीका :) ) 
बहुत अच्छा लिखा है, उपन्यास में इतना कुछ देख लिया, हमेशा शुक्रगुजार रहूंगी ,इसी तरह मुझे पुश करती रहा करो तभी कुछ लिख पाउंगी .
                                                          

                                                                 कांच  के  शामियाने 
"कुछ संयोग यादगार होते हैं. रश्मि की किताब को सबसे पहले बुक करने और फिर उस किताब का सबसे पहले मुझे ही मिलने का संयोग भी ऐसे यादगार संयोगों में से एक है. “कांच के शामियाने” मेरे हाथों में सबसे पहले आई, लेकिन पढी सबसे पहले मेरी सास जी ने. उसके बाद कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि चाहने के बाद भी किताब पर अपनी टिप्पणी लिखने का मौका टलता गया. इधर रंजू (रंजू भाटिया), वंदना जी(वंदना गुप्ता) और साधना जी(साधना वैद) इस पुस्तक के बारे में लिख चुकी थीं. अब तो गिल्ट के मारे मेरी डूब मरने जैसी स्थिति हो रही थी. लगा, रश्मि क्या सोचती होगी!! पहले तो बड़ा हल्ला मचाये थी,- कब छपवाओगी? क्यों नहीं छपवा रहीं? कब तक आयेगी? और जब आ गयी तो चुप्पी साध गयी.
(वंदना ने आंटी  की  ये तस्वीर चुपके से खींच ली :) )

खैर… देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज़ पर मैने अब “कांच के शामियाने” अपने साथ रखनी शुरु की. स्कूल जाती तो किताब हाथ में होती. नतीजा ये हुआ, कि अगले दो दिनों में ही उपन्यास पढ डाला. दोबारा पढना कहूंगी क्योंकि इस उपन्यास को हम रश्मि के ब्लॉग पर पहले ही पढ चुके हैं. बल्कि यूं कहूं, कि इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया की कई बार हिस्सेदार भी बनी. तो “कांच के शामियाने” से अलग सा ज्जुड़ाव होना लाज़िमी था.

“कांच के शामियाने” कहानी है एक ऐसी लड़की की, जिसने बेहद लाड़ प्यार के बाद असीमित धिक्कार पाया. यानि दोनों ही अपरिमित. उपन्यास की केन्द्र जया की व्यथा-कथा है ये. एक ऐसी व्यथा-कथा, जिसे पढते हुए कई जयाएं अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं. आये दिन खाना बनाते हुए जल के मरने वाली बहुओं की तस्वीरें सामने नाचने लगती हैं. कुछ ऐसी महिलाएं याद आने लगती हैं, जिनके बच्चे किशोर हो रहे हैं, तब भी पति महोदय जब तब पिटाई का शौक़ पूरा करते हैं, उन पर हाथ आजमा के.

पढते-पढते कई बार जया पर गुस्सा आता है. क्यों की उसने शादी? क्यों नहीं उसके प्रस्ताव को टके सा फेर दिया? क्यों सही उसकी मार? हाथ पकड़ के दो थप्पड़ क्यों न लगा दिये? जानते हैं, ऐसे सवाल मन में कब आते हैं? तब, जब आप पात्र के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं. हाथ में पकड़े उपन्यास के साथ-साथ चलने लगते हैं और यही किसी भी कहानी या उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है कि पाठक उस के साथ ऐसा जुड़ाव महसूस करे कि पात्र की कमियों पर उन्हें गुस्सा आने लगे तो खूबियों पर प्यार. पढते-पढते मन सोचता है कि- “काश! मैं वहां होती तो जया के साथ कोई दुर्व्यवहार न होने देती” कितना बड़ा जुड़ाव है ये पात्र के साथ!! लेखिका कमरे में जया को बाद में ले जाती है, पाठक पहले ही दहशत में भर जाता है कि पता नहीं अब कौन सा गुल खिलायेगा राजीव…

जया के साथ पाठक का इस क़दर जुड़ाव हो जाता है कि घर में उसकी तरफ़दारी करने वालों के प्रति भी मन में प्यार उपजने लगता है. मैने तो कई बार काकी और संजीव को धन्यवाद दिया. मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं, कि यही भाव तमाम अन्य पाठक/पाठिकाओं के मन में भी आया होगा.

उपन्यास में जया को जिस क़दर रश्मि ने जिया है, उससे लगता ही नहीं कि ये तक़लीफ़ किसी पात्र की है.. लिखते हुए जैसे रश्मि , जया में तब्दील हो गयी… पूरी तरह से रश्मि ने जया को जिया है, ये एक-एक शब्द, हर एक घटना की सजीवता से ज़ाहिर होता है. जया की छोटी-छोटी सी चिंहुक, उसकी दहशत पाठक के भीतर भी उतारने में सफल हुई है रश्मि.
पढते हुए शायद ही किसी के मन में आये कि- हुंह, राजीव जैसे पात्र भी होते हैं कहीं! होते हैं. तमाम राजीव समाज में बिखरे पड़े हैं. ऐसे राजीवों की वजह से ही औरतों की दुर्दशा है. खासतौर से उन औरतों की , जो जया की तरह आत्मनिर्भर नहीं हैं. जिनमें प्रतिकार का हौसला कम और बर्दाश्त करने की क्षमता ज़्यादा है.

“रोज़ रात में मां की नसीहतें सुन सुन के उसका दिमाग़ भन्ना जाता. स्त्री जाति में जन्म क्या ले लिया, अपने जीवन पर अपना ही कोई अधिकार नहीं. हमेशा उसके फ़ैसले दूसरे ही लेंगे और उसे मन से या बेमन से मानना ही पड़ेगा. अगर मां ही साथ नहीं देगी तो वो क्या करे आखिर?”
इस स्वगत कथन में औरत का कितना बड़ा दर्द छुपा है. कुछ न कर पाने की बेबसी, अपनी ही मां के लिये परायेपन का अहसास..

उपन्यास पढते हुए बार-बार खुद से वादा करती रही- तमाम लड़कियों को नौकरी करने के बाद ही शादी करने की सलाह दूंगी, ताकि किसी को जया जैसी विवशता से दो-चार न होना पड़े.
“जब किसी का घर जलता है, तो जलते हुए घर पर प्रतिक्रिया देना सबको सहज लगता है, पर स्त्री की हिम्मत ग्राह्य नहीं होती. लोग स्त्री को अबला रूप में ही चाहते हैं. रोती-गिड़गिड़ाती औरत ताकि वे सहानुभूति जता सकें. उस पर बेचारी का लेबल लगा सकें.”
सचमुच. समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी औरत को अबला के रूप में ही देखना चाहता है. तमाम कामकाजी महिलाओं को भी उनके पति और परिवार पति से कमतर ही मानना चाहते हैं.

“अब पति की बात तो माननी ही पड़ती है. आखिर उसी का खाते-पहनते हैं. कभी हाथ उठा दिया, घर से निकलने को कह दिया तो क्या. वे लोग गरम खून वाले होते हैं. पति के सामने हमेशा झुक के रहने में ही भलाई है.”
आज भी घर से विदा होती बेटी को मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी यही सीख दे के भेजते हैं कि वो ससुराल में झुक के रहे. यही झुकने का नतीजा भोगा जया ने.

उपन्यास के अन्त में जया का विद्रोह कलेजे को ठंडक दे गया. और ये सही भी है. औरत के सहते जाने का मतलब उसका कमज़ोर होना नहीं है. औरत अपने ऊपर जुल्म सह सकती है लेकिन बच्चों पर अत्याचार उसकी बर्दाश्त से बाहर का काम है और जया का विद्रोह भी बच्चों की खातिर ही सामने आया. जया की सफलता सम्पूर्ण स्त्री जाति की सफलता की द्योतक है. संदेश है औरतज़ात को, कि सीमा से ज़्यादा बर्दाश्त मत करो. बल्कि मैं तो कहूंगी कि गलत बातों को, किसी के ग़लत रवैये को कभी बर्दाश्त ही मत करो. एक शानदार उपन्यास के लिये रश्मि को बधाई. उपन्यास में कथ्य और शिल्प दोनों ही मजबूत हैं. क्षेत्रीय बोली का पुट उपन्यास को ज़्यादा सजीव और विश्वसनीय बनाता है.

सम्वाद पात्रों के अनुकूल है. कहीं –कहीं प्रूफ़ की ग़लतियां हैं, जो उपन्यास के प्रवाह के चलते क्षम्य हैं. उपन्यास पाठक को बांधे रखता है."
वंदना के ब्लॉग पर भी यह पोस्ट पढी जा सकती है .
http://wwwvandanablog.blogspot.in/2015/12/blog-post.html
अमेज़न के इस लिंक पर किताब उपलब्ध है .
http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi…/…/9384419192

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

काँच के शामियाने’ – साधना वैद्य जी की नज़र से

साधना जी एक  संवेदनशील कवियत्री  हैं और  सामयिक  विषयों  पर भी उनकी कलम  खूब  चलती  है. बहुत  ही  गहराई  से हर  विषय  का  विश्लेष्ण करती  हैं. उनके  'सुधिनामा ब्लॉग'  पर उनकी रचनाएं पढी  जा  सकती हैं . 
अपनी  कहानियों  और आलेख पर उनकी  सार्थक टिप्पणियों  की  हमेशा कायल  रही  हूँ. उनकी टिप्पणी विषय  को  एक  नया  अर्थ  देती  है .
बहुत  आभार  उनका ,इस उपन्यास  का  इतनी गहराई  से अवलोकन करने के लिए.


हाल ही में रश्मि रविजा जी का उपन्यास ‘काँच के शामियाने’ पढ़ कर समाप्त किया है ! कुछ उनके प्रखर लेखन के ताप से और कुछ काँच के शामियानों के नीचे खड़ी मौसमों की बेरहम मार झेलती उपन्यास की नायिका जया की व्यथा कथा की आँच से मैं स्वयं को भी झुलसा हुआ ही पा रही हूँ ! इस उपन्यास के बारे में क्या कहूँ ! जया के जीवन का हर प्रसंग लेखिका ने जैसे अकथनीय दर्द की सियाही में अपनी कलम को गहराई तक डुबो कर लिखा है !


‘काँच के शामियाने’ एक नारी प्रधान उपन्यास है ! कहानी की नायिका जया एक अत्यंत प्रतिभासंपन्न, कोमल, समझदार, संवेदनशील कवि हृदया युवती है जिसका विवाह एक बहुत ही गर्म मिजाज़ के युवक राजीव से कर दिया जाता है जो विवाह से पहले जया से कई बार भांति-भांति से अपना प्रेम निवेदन करता है और हर बार जया के द्वारा इनकार कर दिए जाने के बाद अपनी माँ के हाथों शादी का प्रस्ताव भेजता है ! एक पितृहीन कन्या के लिये किसी प्रशासनिक अधिकारी का रिश्ता स्वयं चल कर आये भारतीय समाज में इससे अधिक सुख की बात लड़की के घरवालों के लिये और क्या हो सकती है ! लिहाज़ा बिना अधिक खोज खबर लिये वर पक्ष की टेढी मेढ़ी माँगों और व्यंग तानों को सुनते सहते झेलते हुए भी जया की शादी राजीव से कर दी जाती है ! राजीव और उसके परिवार वालों का असली रूप शादी के बाद सामने आता है ! जिसे देख कर जया एकदम से स्तब्ध और आतंकित हो जाती है ! यह उपन्यास अनिच्छित, असफल एवं बेमेल विवाह के बंधन में बँधी एक स्त्री के अपने नये घर में स्वयं को स्थापित करने की और एक मरणासन्न रिश्ते को जिलाए रखने के लिये किये जाने वाले सतत संघर्ष की दुःख भरी गाथा है !

इसमें दो ही प्रमुख पात्र हैं एक नायिका जया और दूसरा, चाहे उसे नायक कह लें या खलनायक, उसका पति राजीव ! बाकी सारे पात्र इन्हीं दोनों किरदारों के परिवार के सदस्य हैं जिनकी भूमिकाएं विशेष महत्वपूर्ण नहीं हैं ! ससुराल पक्ष के लोग जया को व्यंग तानों उलाहनों से छलनी करते रहने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते और मायके वाले उसे समाज का भय और अपनी असमर्थता का नकारात्मक पहलू दिखा पति के जुल्मो सितम को खामोशी से सहने और बेहतर भविष्य के लिये आशान्वित रहने की सतत सलाहें देने से कभी नहीं चूकते !

ससुराल में रह कर जया परिवार वालों की हर गलत सही बात का पालन कर स्वयं को उत्सर्जित करती जाती है ! अपने मन की अभिलाषाओं, इच्छाओं और सपनों को धो पोंछ कर जीवन की स्लेट से वह बिलकुल मिटा डालती है ! इस पर भी किसीके मुख से जब प्यार, प्रशंसा, सराहना के दो बोल उसे सुनने को नहीं मिलते तो वह कितनी क्षुब्ध और निराश हो जाती है इसका बहुत ही मार्मिक चित्रण लेखिका ने इस उपन्यास में किया है ! सम्मान, प्यार, प्रशंसा चाहे ना मिले इस स्थिति को भी निर्विकार हो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन गृह प्रवेश के साथ ही जया जिस तरह से अपमान, तिरस्कार और हिंसा का सामना करती है वह दिल को दहला जाता है ! क्या नारी का प्राप्य यही है इस समाज में ?

यह सोच कर मन बहुत अवसादग्रस्त हो जाता है कि आज भी हमारी शिक्षा कितनी बौनी, निष्प्रभावी, और व्यर्थ ही है कि राजीव जैसे लोग व्यवस्था के शिखर पर पहुँच कर डिप्टी कलेक्टर तो बन जाते हैं लेकिन उनकी मानसिकता और व्यवहार किसी अभद्र, गँवार, बगैर पढ़े लिखे जाहिल आदमी की तरह ही बना रहता है ! विवाह के बाद जया का इस क्रूर, लालची, हृदयहीन इंसान की अमानुषिकता और अन्याय को चुपचाप झेलते रहना पाठकों के मन को भारी कर जाता है ! स्वार्थी और लालची ससुराल वालों की उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान और समाज के नीति नियमों की श्रंखलाओं से बँधे मायके वालों की पारंपरिक सोच के बीच में पिसती नारी की मनोदशा को लेखिका ने बखूबी बयान किया है ! लेकिन एक बेटी, बहू, पत्नी चाहे कितनी भी असहाय, दब्बू और निरीह हो, एक माँ अपने बच्चों के लिये कितनी सबल, दृढ़ और साहसी हो सकती है जया के व्यक्तित्व में आया यह प्रत्यावर्तन कहीं दूर तक मन को सहला जाता है ! माँ अपने बच्चों की रक्षा के लिये घायल शेरनी भी बन सकती है जया ने इसे सिद्ध करके दिखा दिया !

इतने कठिन संघर्ष के बाद जया का राजीव से अलग हो जाने का फैसला सुखद बयार की भाँति लगता है ! समाज की दकियानूसी सोच से निर्मित मायके और ससुराल के काँच के शामियानों के अंदर रह कर अपनी निजता और स्वाभिमान को खोने के बाद जया अपनी संकल्प शक्ति से खुद के लिये एक नया शामियाना तैयार करती है जिसके नीचे वह अपना और अपने प्यारे बच्चों का भविष्य सँवार सके उन्हें बेहतर ज़िंदगी दे सके ! अपने इस नये नीड़ में सुकून भरी सुबह शामों में कविता लिखने की उसकी भूली बिसरी प्रतिभा उसमें महत्वाकांक्षाओं को अंकुरित करती है और वह जैसे अपनी कीमत पहचान कर आत्मविश्वास से भर उठती है ! कठिन जीवन यात्रा में उसकी रचनात्मकता जैसे किसी लंबी सी खोह के अंदर ओझल हो छिप गयी थी ! वही पूरी भव्यता और इन्द्रधनुषी सौंदर्य के साथ जब पुन: उद्भूत होती है तो उसे सर्वश्रेष्ठ कवियित्री के पुरस्कार से अलंकृत कर जाती है और उसे समाज में प्रतिष्ठा, प्रशंसा और प्रसिद्धि सभी प्राप्त हो जाते हैं जिसकी वह आरंभ से ही अधिकारी थी ! जया की यह श्रेष्ठ उपलब्धि हर नारी के मन में आशा, हर्ष और आत्मसम्मान की भावना का संचार कर जाती है !

उपन्यास की भाषा सबसे अधिक रोचक है ! परस्पर वार्तालाप में संवादों की बानगी देखते ही बनती है ! हर विवरण इतना रोचक और सजीव है कि पाठक स्वयं को उस दृश्य विशेष में सम्मिलित ही पाता है ! यह उपन्यास बिहार के आम मध्यम वर्ग की मानसिकता का बखूबी प्रतिनिधित्व करता है ! रश्मि जी ने इस उपन्यास के साथ हिंदी साहित्य जगत में अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई है !
उनका हार्दिक अभिनन्दन तथा ‘काँच के शामियाने’ की अपार सफलता के लिये उन्हें अनंत शुभकामनायें ! 

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

रंजू भाटिया की कलम से 'कांच के शामियाने ' का अवलोकन

रंजू भाटिया हिंदी ब्लॉग जगत में 2006 से ही सक्रिय हैं . मुझसे बहुत सीनियर :) 
'कुछ मेरी  कलम से ' उनका ब्लॉग है. वे एक संवेदनशील कवियत्री हैं . उनकी  कवितायें  पत्र-पत्रिकाओं  में प्रकाशित  होती रहती हैं और बहुत सराही  जाती हैं . पाक कला में भी बहुत निपुण हैं .कई स्वादिष्ट रेसिपी भी पत्रिकओं के माध्यम से शेयर  करती रहती हैं...अपने बारे में कहती हैं .... 
मेरे बारे में मैं क्या लिखूं ?
ज़िन्दगी के बारे में लिखती बस मेरी कलम ,खाना बनाना ,खाना और घूमना कविता करते हुए शौक बाकी बोलेंगे मेरे लिखे हुए लफ़ज़ और आप जो कुछ पढ़ेंगे और फिर कहेंगे:)
ज़िन्दगी का सार सिर्फ इतना
कुछ खट्टी कुछ कडवी सी
यादों का जहन में डोलना
और फिर उन्ही यादों से
हर सांस की गिरह में उलझ कर

वजह सिर्फ जीने की ढूँढना !!
उनका बहुत शुक्रिया ,समय निकाल कर इस उपन्यास को इतनी बारीकी से पढ़ा और समीक्षा की .
पुनः आभार :)
                               कांच के शामियाने 

" उन सभी के नाम ,जिनकी बातें अनसुनी ,अनदेखी और अनकही  रह गयी "कांच  के शामियाने " का पहला पन्ना और पढ़ने के बाद  लगा कि किसी  के लफ़्ज़ों ने तो उन दिलों की बात कह ही दी जो शायद कभी कह ही न सके ,मैं ,वो या कोई  भी अन्य स्त्री ,आज जिस समाज में हम रहते हैं और जहाँ स्त्री स्वंत्रता का  दावा किया जाता है ,वहां बहुत बदलाव होते हुए भी ,इस लिखे उपन्यास सा सच मौजूद है , आज औरत घर ,बाहर सब तरफ  की जिम्मेदारी बखूबी संभाल रही है ,पर हमारे समाज में पुरुष मन से उस बात को नहीं निकाल पा रही है कि वही सर्वेसर्वा है हर बात का चाहे औरत कितनी भी काबिल क्यों न  हो। ...

"कांच  के शामियाने" उपन्यास एक डायरी के पन्नो सा है जिसमे वक़्त  की चाल पर  जया का चरित्र आज भी शहर ,कस्बे ,गांव में बसी औरतों  के दर्द को ब्यान करता है ,जो समाज को प्रगतिशील होने का दावा करते हुए आईना दिखाती हैं ,पिता की लाड़ली बेटी माँ से अधिक समाज के लिए चिंता का विषय बन जाती है और फिर माँ बुढ़ापे और जिम्मेवारी की दुहाई दे कर बेटी की न नुकर  नहीं सुनती और शादी के लिए जोर देती रहती है ,अब यदि आज के वक़्त जिस में शहर के हालात या लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में देखा जाए तो यह सम्भव नहीं लगेगा जोर जबरदस्ती वाला मामला पर यह भी सच है कि उचित लड़का मिलते ही लड़की ब्याहने और जैसा भी है वही बसने को कहा जाता है अधिकतर ,हाँ कुछ केसेस अपवाद हो सकते हैं।  जया भी पढ़ लिख कर माँ की सेवा करना चाहती है ,शादी की सोच उसके मन  में नहीं पर पड़ोस के राजीव की माँ  जब अपने बेटे के लिए उसका रिश्ता ले के आती है तो जया की माँ को जैसे घर बैठे चिंता से मुक्ति मिलती लगती है ,भाई बहन के लिए अफसर लड़का हर तरह से योग्य नजर आता है और जया की आवाज़ इन सब में खो जाती है ,लड़के वालों की  दहेज़ की मांगे भी तब जया के घर वालों की आँखों के आगे पर्दा डाल देती हैं ,और कोई माने या माने आज प्रगति का दावा होते हुए भी यही सच्चाई है। लड़की की आवाज़ आज भी क्यों दबा दी जाती है ?शादी उसकी है ,जीवन उसका है पर समाज परिवार उसका फैसला करते हैं ,क्यों ?शादी के बाद इतनी प्रताड़ना ,इतनी कठोरता ,क्रूरता ,सब जानते हुए भी लड़की को वहीँ रहने के लिए मजबूर करना पढ़ते हुए एक क्रोध भर देता है। राजीव जैसा बुना हुआ चरित्र जो कहीं अपने ही किसी कपम्प्लेक्स का शिकार है ,आज भी हमें आस पास ही दिखता है। "बेटी तो धरती होती है और धरती की तरह सब सहती है "माँ के जया को समझाते कथन दिल में बेबसी  से    अधिक झंझोर देते है ,पढ़ते हुए दिल करता है कि उस माँ को कहूँ की बेटी की पीड़ा  को समझो उसको सहने की उस हद तक न ले जाओ कि वह खुद के अस्तित्व को ही मिटा दे ,इसी हालात  से गुजरते हुए तीन बच्चे उसके जीवन में एक उम्मीद की किरण लाते हैं ,और वही उसको उस नरक और मानसिक बीमार पति से छुटकारा दिलवाने का साहस बनते हैं।  

उपन्यास जब शुरू किया बहुत जगह  पढ़ते हुए गुस्सा भी आया कि आखिर इतनी बेबसी क्यों बुनी रश्मि ने अपने लफ़्ज़ों में ,पर कुछ सत्य हर किसी की ज़िन्दगी के कहीं  न कहीं करीब होते हैं ,सो  खत्म  किये बिना आप इसको रख नहीं सकते ,यही "रश्मि रविजा "द्वारा लिखे इस उपन्यास की उपलब्धि है। पूरे उपन्यास में हर चरित्र के साथ साथ वहां लिखे गए माहौल को भी मैंने शब्दों के साथ साथ महसूस किया , रहन सहन ,खाना पीना ,जया का रोना ,सहन करना ,रूद्र जया के पहले बच्चे की ख़ुशी और राजीव की असहनीय गाली ,मार ने अपने साथ साथ चलाये रखा ,कहीं कहीं किसी पुराने उपन्यास जैसे पढ़ने का भी एहसास हुआ।

रश्मि रविजा के शब्दों के जादू से ब्लॉग की दुनिया से परिचित हूँ ,इसी जादू ने अपनी मोहकता यहाँ भी बनाये रखी ,बस कुछ जगह लगा कि कुछ चरित्र जैसे माँ ,सास एक औरत होते हुए भी उस दर्द को क्यों नहीं महसूस करवाये रश्मि ने ,चाहे आखिर में जया की माँ ने उसका साथ पूरा निभाया ,पर लगता है कि माहौल को बदलने के लिए अब इस तरह के चरित्र गढ़ने होंगे ,जहाँ सहन करना सम्भव नहीं वहां परिवार उस मुकाम पर आ के साथ न दे जब सहनशीलता खत्म होने के कगार पर हो ,वही से साथ दे जहाँ से शुरू में लगे कि यह अन्याय है ,राजीव जैसे चरित्र  के लोग असहनीय है और इसको नहीं सहना है। यह उपन्यास था जहाँ अंत सुखान्त हुआ पर असल में हर बार यही हकीकत नहीं होती।कहीं कहीं बार बार शब्दों का दुहराव भी है जो थोड़ा सा बोझिल लगता है। पर फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेता है।  

"कांच  के शामियाने " में इस शामियाने शब्द का अर्थ सार्थक हुआ घर तो कभी बना ही नहीं ,एक शामियाना  ही बन सका बस जो बना और बिखर गया ,रोचक उपन्यास है आपने अब तक नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़े। रश्मि को मेरी तरफ से इस सफल उपन्यास की बहुत बहुत बधाई। अगले का इंतज़ार शुरू :)

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

सरसों से अमलतास के बहाने सूर्यबाला जी से एक मुलाक़ात

एक प्रोग्राम में 'Chitra Desai पास बैठी थीं, बात चीत हुई...हम साथ ही बाहर निकले .अन्य मित्रों के साथ एक टपरी पर चाय पी .चित्रा जी का घर मेरे घर के रास्ते में ही था तो उन्हें ड्राप करने का प्रस्ताव रखा ,चित्रा जी ने आगे का रास्ता समझाया ,फिर थोड़ी देर बाद मुझे मैसेज किया कि 'सुरक्षित घर पहुँच गई ना'...ड्राइव करते समय मैसेज नहीं देख पाई तो फिर उन्होंने कॉल ही किया .इतनी देर में ही इतनी आत्मीयता पनप आई थी .उनसे काफी बातें हुई थीं ,कई बार पति और बच्चों का जिक्र भी आया . फेसबुक का जिक्र तो आना ही था:) जब घर आकर उनका प्रोफाइल देखा तो पता चला, वे तो प्रख्यात अभिनेता 'अनंग देसाई' की पत्नी हैं, जिन्हें हम जमाने से फिल्मों और टी वी सीरियल में देखते आ रहे हैं . किसी अभिनेता से दूर दराज का रिश्ता हो तब भी लोग शो ऑफ करने से नहीं चूकते . चित्रा जी की ये सादगी छू गई .
जब उन्होंने अपने प्रथम कविता संग्रह ,'सरसों से अमलतास ' के लोकार्पण समारोह में बुलाया तो जाना ही था . चित्रा जी और अनंग जी के मित्रों से पूरा हॉल भरा हुआ था .फिल्मों और टी वी के भी कई कलाकार थे . पर विशेष आकर्षण 'सूर्यबाला जी ,सुधा अरोड़ा जी और राम जेठमलानी जी थे .चित्रा जी वकील हैं और राम जेठमलानी उनके वरिष्ठ सहयोगी और घनिष्ठ मित्र भी हैं .
कार्यक्रम की शुरुआत में सीमा भार्गव की नाट्य मंडली ने चित्रा जी की कविताओं को स्टेज पर जीवंत कर दिया . बचपन में उनके मन में घुमड़ते भावों, बदलते परिवेश , जीवन में आते परिवर्तन , कभी सुख..कभी परेशानी सबका सामना करते हुए सृजनरत रहना और उनसे नए अनुभव लेकर और निखर जाना सब सजीव हो उठा.
पुस्तक का लोकार्पण करते हुए ,'राम जेठमलानी' जी ने ईमानदारी से स्वीकारा कि वे हिंदी भाषा नहीं पढ़ पाते और सही रूप से बोल भी नहीं पाते ,उनके परिवार में अब तक कोई कवि नहीं हुआ है फिर भी चित्रा जी के स्नेह से उन्होंने ये आमन्त्रण स्वीकार किया है. उन्होंने कहा, "धर्मान्धता विश्व के उपर एक संकट के रूप छाया हुआ है . मैंने हिन्दू, मुस्लिम, क्रिश्चन , बुद्धिज्म हर धर्म के ग्रन्थ पढ़े हैं .कोई भी धर्म नफरत नहीं सिखाता , पर अतिवादी अपनी तरह से धर्म की व्याख्या कर लेते हैं . सिर्फ प्यार ही विश्व को बचा सकता है, इसलिए प्यार की कवितायें लिखनी चाहियें." उन्होंने चित्रा जी से आग्रह भी किया कि अगले कविता संग्रह में हर कविता सिर्फ प्यार पर हो " 93 वर्ष में उनकी आवाज़ का जोश और कथ्य की गंभीरता पर उम्र की छाया भी नहीं दिखती .
मुंबई विश्वविद्यालय की अंग्रेजी की प्राध्यापिका ,भाग्यश्री वर्मा ने चित्रा जी की कविताओं पर अपने विचार रखे और एक कविता का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रस्तुत किया.
'सुधा अरोड़ा' जी ने कहा, 'किसी महिला की किताब प्रकाशित होती है तो मुझे बहुत ख़ुशी होती है क्यूंकि महिलायें कई जिम्मेदारियों का वहन करते हुए लिखती है . कुछ महिलाएं देर से लिखना शुरू करती हैं ,पर उसके पहले वे नौकरी ,घर -गृहस्थी, बच्चों की जरूरते पूरी करते हुए कविता को जी रही होती हैं ."
'सूर्यबाला जी' ने चित्रा जी की कविताओं पर विस्तार से बात की और कहा उनकी कवितायें विद्रोह की कवितायें नहीं हैं .वे पंख फैला आकाश भी नाप लेना चाहती हैं और नीड़ भी बनाए रखना चाहती हैं.जैसे आंगन में नीम के पेड़ पर डला झूला हो जिसपर बैठ पेंग मार क्षितिज छू लेने का अहसास हो और फिर वापस आंगन में सुरक्षित आ जाएँ .अपनी बिब्बी (चित्रा जी की माँ और नानी ) को समर्पित कविता का ख़ास जिक्र किया ,जिसमे स्त्री जीवन की त्रासदी का जिक्र है , शादी के बाद .बस के ऊपर रखे सन्दूक में कई साल की फसलें कैद हो लड़की के साथ चली जाती हैं, कुछ दिनों बाद ससुराल वालों की मांग पर कुछ और फसलें कैद हो चली जाती हैं. पर फिर लड़की भरीपूरी लौटती है और उनकी मांग पूरी करने से इनकार कर देती है ,अब उसके पास उसकी बेटी है, जिसे वो पूरा आकाश देती है . सूर्यबाला जी ने इस बात पर जोर दिया , स्वतंत्रता अर्जित की जाती है ,उसकी मांग नहीं की जाती ...और यह सब चित्रा जी की कविताओं में है .चित्राजी यह सब सुनते भावुक हो उठीं .
राजकमल के प्रकाशक 'अशोक माहेश्वरी जी और नवनीत के सम्पादक, 'विश्ववनाथ सचदेव जी ने कहा, चित्रा जी की एक कविता पढने के बाद ,और पढने की इच्छा जाग उठती है और लगातार कई कवितायें पढ़ ली जाती हैं. कविताओं में मन के हर मौसम नजर आते हैं .
चित्रा जी ने सबका आभार प्रकट करते हुए ,सबके मन में उठते प्रश्नों का उत्तर भी दिया कि ,'कविता संग्रह के लोकार्पण में उन्होंने राम जेठमलानी जी को क्यूँ आमंत्रित किया . तीन साल पहले विश्व शान्ति के उद्देश्य से किये गए एक सम्मेलन में जिसमे पाकिस्तान के वकील भी आमंत्रित थे , जेठमलानी जी ने 'चित्रा जी से अनुरोध किया था कि वे मंच से एक कविता पढ़ें . इस कविता पाठ ने चित्रा जी को बहुत आत्मविश्वास दिया , उनमें उत्साह जगाया .वे कविताओं की दुनिया में फिर से लौटीं और उनमें अपना संकलन प्रकाशित करवाने की इच्छा जागी .इन सबका श्रेय जेठमलानी जी को है .
मंच का संचालन 'अनंग देसाई' जी ने किया पर वे पूरे समय परिप्रेक्ष्य में बने रहे . ये चित्रा जी का कार्यक्रम था और उहोने उन्हें उत्सव मूर्ति बने रहने दिया . वे सिर्फ वक्ताओं को आमंत्रित करते और फिर श्रोताओं के बीच जाकर बैठ जाते . चित्रा जी ने अपनी एक कविता में दाम्पत्य जीवन के सामंजस्य पर बहुत सुंदर लिखा है
जब तुम सिमट गए
तो हमने आकाश फैला दिया
जब हम बौने हुए तुमने अपना कद बढ़ा लिया

चित्रा जी को एक सफल समारोह की बधाई एवं इस पुस्तक की अनेक शुभकामनाएं ,
मेरे लिए भी यह कार्यक्रम ख़ास रहा . सूर्यबाला जी से मुलाक़ात हो सकी .धर्मयुग में जिनकी कहानियाँ पढ़ते हुए ही कहानी में रूचि जागी और बाद में लिखना भी शुरू किया . उनके लिखे संस्मरण कहानियाँ.सब, अब तक याद हैं . अपनी किताब उन्हें देना ,मेरे लिए सौभाग्य की बात थी . मैंने हॉल में अँधेरे में ही अंदाज़े से उसपर कुछ लिखा ,डर था ,ऐसा ना हो कार्यक्रम खत्म होते ही वे चली जाएँ ..( कार्यक्रम शुरू होने के पहले सूर्यबाला जी से बातें हुई थीं.पर तुरंत ही अपनी किताब देना अच्छा नहीं लगा था ) पर इतनी बड़ी लेखिका होते हुए भी , सूर्यबाला जी, सुधा अरोड़ा दी में इतनी सहजता है कि उनके समक्ष मन नतमस्तक हो जाता है,.मैंने बाद में एक तस्वीर खिचवाने की भी इच्छा जाहिर की . उनलोगों ने खुद कहा, 'यहाँ अन्धेरा है ,तस्वीर अच्छी नहीं आएगी...इधर आ जाओ " और फिर दो तीन जगह बदलकर जहाँ अच्छी रौशनी थी ,वहां खड़ी हुईं . मुझे जोर देकर बीच में खड़े होने के लिए कहा .सूर्यबाला जी को आभास है कि अपनी किताब से किसी को कितना प्यार होता है .उन्होंने 'कांच के शामियाने' बिलकुल सामने कर लिया . बाद में मैंने तस्वीर देखी तो गौर किया smile emoticon . कितना कुछ सीखा जा सकता है ,इन महान लेखिकाओं से ..सादर नमन उन्हें .


मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

हर चौथे घर की कहानी : रश्मि तारिका का अवलोकन

एक लंबे इंतज़ार के बाद रश्मि रविजा जी का उपन्यास "काँच के शामियाने " मिला।सच पूछो तो अक्सर उनके स्टेटस उनकी पोस्ट्स फेसबुक पर पढ़ती रहती हूँ।मुम्बई जाकर भी मिलना मयस्सर नहीं हुआ।अब अगर जाना होगा तो इंशाअल्लाह ज़रूर मिलूँगी।
काँच के शामियाने पढ़ने की लालसा व्यस्त होने के बावज़ूद भी लगी रही।कल पढ़ना आरम्भ किया तो अनवरत पढ़ती गई। उपन्यास की नायिका जया की मासूमियत अंत तक बांधे रखती है ।यही मासूमियत एक अनोखा मोड़ लेती है जब अपनी बेटी की लिखी पंक्तियाँ पढ़ती है कि "मैं जीना चाहती हूँ ..मैं दुनिया देखना चाहती हूँ।" अपने बच्चों के लिए जया का राजीव से अलग हो जाना जब कि उसके अपने मायके वाले भी उसके साथ नहीं थे। शारीरिक व् मानसिक प्रताड़ना कोई भी नारी एक हद्द तक ही झेल सकती है।जया ने अपने पहले बच्चे के लिए हर अत्यचार सहा।पर अपने विश्वास और हिम्मत के बलबूते पर बच्चे की रक्षा कर पाई।अहंकारी पति का घर छोड़ने के बाद भी पति द्वारा हर कदम पर मुश्किलों के जाल बिछाने ,ऑफिस ,बैंक और कोर्ट में मर्दों की फितरत और उनकी वाहियात नज़रों से बचती हुई जया अपने अस्तित्व को बचाए रखने में कामयाब हो गई।
बेशक यह हर चौथे घर की कहानी हो ,बेशक हर नारी की व्यथा हो ,बेशक किसी माँ की हिम्मत की दास्तां हो लेकिन "काँच के शामियाने "की नायिका " जया "की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी ।अगर दस लड़कियों में से एक भी "जया"बन जाए तो आने वाली पीढ़ी की चार "जया" पहले ही खड़ी हो जाएँगी ....अत्याचारों के खिलाफ अपनी जंग लड़ने के लिए।तब शायद कोई राजीव जैसा अहंकारी और स्वार्थी व्यक्ति किसी भी जया से उलझने की हिम्मत नहीं कर पाएगा।
"मेरे लिए काँच के शामियाने नारी के सम्मान और हिम्मत और सहनशीलता की शक्ति का स्वरुप है ।"
रश्मि रविजा सखी , उपन्यास की भाषा शैली जितनी सुन्दर है उससे अधिक उसके अध्याय अपने सुन्दर शीर्षक के साथ प्रभावित करते हैं ।मेरी दुआ है तुम आगे भी ऐसे ही और उपन्यास लिखती रहो।हम पढ़ते रहें । आमीन !!

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

निवेदिता श्रीवास्तव के झरोखे से 'कांच के शामियाने '

निवेदिता श्रीवास्तव एक बहुत ही संवेदनशील  पाठिका हैं . पुस्तकों से उन्हें बेइंतहा प्यार है .अच्छी खासी संख्या में किताबें जुटा अपने घर में एक उत्कृष्ट लाइब्रेरी भी बना रखी है  .अपने ब्लॉग 'झरोखा' पर  प्यारी कवितायें लिखती हैं . फेसबुक पर अक्सर गहन सोच वाले  अर्थपूर्ण कोट  भी शेयर करती हैं . दो प्यारे  बेटों का  लालन पालन  कर उन्हें ऊँची शिक्षा दिला , देश का एक अच्छा  नागरिक  बनाने में उनकी महत्वपूर्ण  भूमिका रही है . दोनों बेटे IIT से पास आउट कर अब ऊँची नौकरियों में हैं . बड़े बेटे ने XLRI से मैनेजमेंट भी किया है . अब वे अपना अधिकाँश  समय साहित्य के रसास्वादन में गुजारती  हैं.
एक बार उन्होंने जब फेसबुक पर पुस्तक मेला से खरीदी कुछ किताबों  की तस्वीर शेयर की थी तो मैंने लिख दिया था ,इन किताबों के विषय में भी लिखा करो . मुझे  नहीं  पता था कि ये मेरा सौभाग्य होगा कि शुरुआत वो मेरी किताब से ही करेंगी :)

रश्मि रविजा के उपन्यास "काँच के शामियाने" को कई बार पढ़ गयी ....... पहली बार के पढ़ने में ही रेशमी धागों की छुवन का एहसास जाग गया था .......... . एक ऐसे रेशमी छुवन का एहसास जो अपने रचनात्मक प्रवीणता से सहज ही गतिमान रखता है ,फिसलाता सा … पर उस के छोर पर एक नामालूम सी गाँठ लगी है ,जो मन को भटकने नहीं देती और कथानक के प्रवाह को एक सतत गति भी देती है ....
रश्मि ने स्त्री मन के हर पहलू को बड़ी ही नफ़ासत से रचा है ……… "जया" में अधिकतर स्त्रियों के मन के तार बज उठते हैं .... न्यूनाधिक रूप से सब में वो समाहित है … किशोर मन सारे शोख रंग अपने दामन में संजोना चाहता है ,पर सच का दूसरा रूप सामने आने पर कदम लड़खड़ा तो जाते हैं पर जीवन की जिजीवषा विजयी होती है ....
हर चरित्र अपने अनूठे मनोविज्ञान से आकर्षित भी करता है और प्रश्न भी करता है ...…. राजीव एक खोखले अहं के साथ जीवन जीता है तो जया तराजू के पलड़ों को साधती धुरी सा .... पढ़ते हुए जब मन एक अंधियारे खोह सा लगने लगता है तभी संजीव एक प्राण - वायु के झोंके सा मन झंकृत कर जाता है …
भाषा की बात करूँ तो थोडे से आंचलिक शब्द भी हैं ,पर वो कथन की गति के प्रवाह में सहज ही लगते हैं .... कई वाक्य तो एकदम से सूत्र वाक्य से लगते हैं ,जो अपनेआप में सम्पूर्ण हैं ....
१ - क्यारी में आँसुओं से सींचे ,दृढ़ निश्चय का खाद पाकर खिले ये तीन फूल ( बच्चों के लिए लिखा है )
२ - वो दोनों दो अलग - अलग ध्रुव की तरह हैं
३ - बच्चे तो गीली मिटटी समान होते हैं
४ - अधिकार तो किसी घर पर नहीं होता । बस शामियाने से तान दिए जाते हैं सर पर । वो भी काँच के शामियाने जो ज़िंदगी की धूप को संग्रहित कर और भी मन प्राण दग्ध कर जाते हैं ।
रश्मि के लेखकीय कौशल की मैं पहले ही बहुत सराहना करती थी ,पर अब इस उपन्यास को बार - बार पढ़ते हुए उसकी लेखनी का अभिनंदन करना चाहती हूँ …
रश्मि ने कुछ समय पहले एक बार मझे ये सुझाव भी दिया था कि किताबें पढ़ने के बाद ये लिखूं कि वो मुझ को कैसी लगी ,तो रश्मि ये काम तुम्हारे उपन्यास के साथ ही पहली बार करने का प्रयास किया है … अब मेरा ये प्रयास तुमको कैसा लगा ये तो तुम ही बेहतर बताओगी .... निवेदिता

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...