गुरुवार, 6 मार्च 2014

एक रचनात्मक सांझ

गत रविवार २ मार्च २०१४ को गोरेगांव मुम्बई में 'अवितोको साहित्य संध्या 'के तहत  एक साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन हुआ. हर महीने के प्रथम रविवार को  ऐसे एक आयोजन की  योजना है ,जहाँ साहित्य के प्रत्येक  विधा ,कहानी -कविता-नाटक-संगीत पर विमर्श हो, सृजनधर्मियों को  एक प्लेटफॉर्म  मिले जहां वे आपस में मिलजुल कर साहित्यिक गतिविधियों ,समाजक स्थितियों सहित अन्य विषयों पर चर्चा कर  पायें . इस गोष्ठी का आयोजन 'अजय ब्रह्मात्मज एवं विभा रानी' के निवास स्थान पर हुआ. इस आयोजन में दो युवा कथाकाकारों की  कहानी का पाठन  होने वाला था और कहानी लेखक भी वहां उपस्थित रहने वाले थे . हर लिखने-पढने में रूचि रखने वालों को इस तरह के साहित्यिक समागम की प्रतीक्षा रहती है. 

मुझे भी इस आयोजन में शामिल होने की आतुरता से प्रतीक्षा  थी . मैं समय से कुछ पहले ही पहुँच गयी और मुझे लगा शायद  सबसे पहले पहुँचने वाली मैं ही हूँ.पर वहाँ काफी लोग पहले से उपस्थित थे, मोहल्ला लाइव के अविनाश दास,  सिने अभिनेता 'प्रणय नारायण, युवा कथाकार सारंग उपाध्याय (जिनकी कहानी का पाठन होने वाला  था ) सचिन श्रीवास्तव और कई लोग उपस्थित थे . जब विभा रानी ने सबसे परिचय कराने के क्रम में कहा, 'ये अविनाश हैं' और 'ये रश्मि हैं' तो हमलोगों ने एक दूसरे को रस्मी नमस्ते कहा फिर जब उन्होंने आगे जोड़ा ये रश्मि रविजा हैं तो अविनाश जी ने रविजा पर जोर देते हुए कहा 'ओह ये  रश्मि रविजा हैं' और तब मैंने भी पहचान कर कहा, 'अच्छा तो आप अविनाश दास हैं' .ब्लॉग के माध्यम से बहुत पहले ही परिचय हो चुका था पर पहली बार मिले थे और सिर्फ फर्स्ट नेम से नहीं पहचान पाए थे .

विभा रानी ने भी एक रोचक घटना का जिक्र किया ,काफी लोग अब भी  नहीं जानते कि प्रसिद्द फिल्म समीक्षक 'अजय ब्रह्मात्मज 'और लेखिका ,कवियत्री, मंच कलाकार विभा रानी  पति -पत्नी हैं. (मुझसे भी कई लोग पूछ चुके हैं ) पत्र-व्यवहार के जमाने में 'ज्ञानरंजन 'जी से विभा जी और अजय जी दोनों का पत्रव्यवहार होता था .एक बार ज्ञानरंजन जी ने विभा रानी को पत्र  लिखा कि 'अजय ब्रह्मात्मज भी शायद आपके घर के आस-पास ही रहते हैं उन्हें अमुक सन्देश दे दीजियेगा "
विभा रानी ने जबाब दिया कि 'वे उनके घर में ही रहते हैं और उनके पति हैं' . ज्ञानरंजन जी पत्र पढ़कर बहुत देर तक हँसते रहे कि उन्होंने पता पढ़ कर ये तो जान लिया था कि दोनों जन आस-पास ही रहते हैं पर फ़्लैट नंबर पर ध्यान नहीं दिया था :)

    धीरे धीरे फिल्म, टी.वी.पत्रकारिता, थियेटर से जुड़े लोग आते गए जिनमे सुदेशना द्विवेदी, शेषनाथ पांडे ,श्रीराम डाल्टन ,दीप्ति मिश्र,रवि शेखर,विनु विनय, श्याम डांगी,संजय झा मस्तान ,प्रेम शुक्ल,राम गिरधर, रवि वैद्य ,शशि शर्मा, निवेदिता बौंठियाल, सरिता हुसैन आदि  प्रमुख हैं. समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ विभा रानी ने कार्यक्रम की रुपरेखा बतायी और परिचय का दौर शुरू हुआ . सबने अपना परिचय दिया . प्रखर पत्रकार सुदेशना द्विवेदी,जो धर्मयुग से जुडी हुई थीं और धर्मयुग की  सह सम्पादक रह चुकी थीं ,पुरानी  परिचित और बहुत अपनी सी लगीं क्यूंकि धर्मयुग मेरा सबसे  अज़ीज़ रहा है और पढने-लिखने में जो भी थोड़ी बहुत रूचि है इसका पूरा  श्रेय धर्मयुग को ही है. प्रणय नारायण ने 'सारंग उपाध्याय की कहानी 'नीम की पत्तियां ' पढ़ीं . अविनाश दास ने इस कार्क्रम के लाइव प्रसारण की व्यवस्था की थी और  कई लोगों द्वारा यह कार्यक्रम लाइव देखा जाने लगा . 

'नीम की पत्तियाँ '  कहानी की नायिका एक अधेड़ स्त्री 'दया' है जो अपनी तीन किशोरी बेटियों के साथ नीम के पत्तों के गट्ठर लेकर ट्रेन से मुंबई के बाज़ार में बेचने के लिए आती है. ट्रेन में उसे तरह तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है. उसे तीन युवा बेटियों की भी चिंता लगी रहती है. इस पूरी ट्रेन यात्रा का और दया की  मनस्थिति का बहुत ही सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है. ऐसा लगता है हम भी ट्रेन के उसी डब्बे में सवार होकर सबकुछ महसूस कर पा  रहे हैं. कहानी का अंत बहुत ही प्रभावशाली  है और बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य से रूबरू करवाता है जब दया की बेटी अपनी माँ की तरह टी टी को रिश्वत में कुछ रुपये नहीं बल्कि रिजर्वेशन का टिकट देती है और इतनी विषम परिस्थितियों में भी अपनी लड़कियों को मुस्कुराते देख दया के चेहरे पर भी मुस्कान आ जाती है. " कहानी  पर सबने अपने विचार रखे और कई लोगों ने बताया कि उनलोगों ने भी ट्रेन में महिलाओं को इस तरह की परेशानियों का सामना  करते देखा है .इतना तो निश्चित है अब जब बाज़ार में स्त्रियाँ दातुन , पत्ते या लकड़ी बेचती दिखेंगी तो यह कहानी  जरूर याद आएगी और यह ख्याल भी जरूर आएगा कि  लोगों की जरूरत पूरी करने और अपने लिए दो पैसे कमाने  के लिए ये स्त्रियाँ इतनी परेशानियां उठाती हैं .(शायद इनसे अब मोल-भाव भी कम की जाए ) . सारंग उपाध्याय से इस कहानी  की रचना प्रक्रिया के विषय में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि कई बार उन्होंने अपनी यात्रा में इन स्त्रियों को भाग भाग  कर ट्रेन में चढ़ते और टी.टी. की डांट सुनते देखा है. वहीँ से उपजी  है यह कहानी .

इसके बाद 'श्रीराम डाल्टन' ने गौरव सोलंकी की कहानी ," बच्चों के पहुँच से दूर " पढ़ी . यह कहानी एक बच्चे की कहानी  है जो अपने घर में ही काफी विसंगतियां देखता है. बच्चा ,अपनी  माँ के साथ बहुत खुश है पर माँ दूसरे बच्चे को जन्म देते वक़्त बीमार पड़ जाती है और उसकी देखरेख के लिए मौसी आ जाती है. उसकी मौसी और उसके पिता में अवैध रिश्ता कायम हो जाता है और पिता चौकीदारी  के लिए बच्चे को एक रुपया देकर कमरे के बाहर बिठा कर रखता है. एक दिन बच्चा उत्सुकतावश कमरे में झाँक  लेता है तो पिता  बुरी तरह उसकी पिटाई करते हैं. माँ रजाई में मुहं छुपा कर रोती रहती है .बच्चे को अपने माता-पिता दोनों के प्रति आक्रोश है कि पिता अपनी गलती छुपाने के लिए उसकी पिटाई करते  हैं और माँ उसकी रक्षा नहीं  कर पाती . फिर माँ ठीक हो जाती है, मौसी की बेईज्जति करके उसे वापस भेज देती है. फिर सबकुछ पहले जैसा हो जाता है ये तीनो लोग समान्य रूप से रहने लगते हैं पर बच्चा  इसे स्वीकार नहीं कर पाता. उसे महसूस होता है कि यह सब नकली है . और एक दिन, एक पुडिया जिसमे चूहे मारने की दवा थी और जिसपर लिखा था 'बच्चों के पहुँच से दूर रखें ',अपने पिता के दूध के ग्लास में डाल देता है .पिता की मृत्यु हो जाती है और बच्चा पुलिस के डर से कह देता है कि उसने माँ को दूध में उस पुडिया में से कुछ डालते हुए देखा था . बच्चा अपने कारनामे के इतने भयंकर परिणाम की गंभीरता नहीं समझता है पर वह अपनी तरह से अपना आक्रोश प्रकट करता है " 

कहानी के अंत ने सबको चौंका दिया और इस पर काफी चर्चा हुई . सबका मानना था कि बच्चों को कोई गंभीरता से नहीं लेता . इस विषय पर चिंता व्यक्त की गयी कि बच्चों को केंद्र में रखकर उनकी मनस्थिति को पढ़कर बहुत कम रचनाएं हुयी हैं. बल्कि बच्चों के लिए भी न कहानियाँ  लिखी जाती हैं न ही फिल्मे बनती हैं . थियेटर से जुडी 'सरिता हुसैन ', ने चिंता व्यक्त की कि वे बच्चों के लिए कोई नाटक करना भी चाहती हैं तो उन्हें पंचतंत्र की कहानियों की शरण लेनी पड़ती है क्यूंकि बच्चों के लिए कुछ नहीं लिखा जा रहा . अजय ब्रह्मात्मज जी से भी पूछा गया कि "बच्चों के लिए फ़िल्में क्यूँ नहीं बनती ?" अजय जी ने बताया कि 'फिल्म निर्माण एक बहुत ही महँगी प्रक्रिया है और बच्चों की फिल्म बनाकर पैसे नहीं कमाए जा सकते इसीलिए फ़िल्मकार कोशिश नहीं करते .'गौरव ने इसकी रचना प्रक्रिया के विषय में बताया कि अपने छात्र जीवन में ही उन्होंने एक खबर पढ़ी थी कि एक पिता अपनी बेटी को एक रुपया देकर दरवाजे के बाहर चौकीदारी के लिए बैठा देता था . उस लड़की के मन में क्या भाव आते होंगे .यही सब सोच गौरव को इस कहानी  को लिखने की प्रेरणा मिली . 

इधर साहित्य चर्चा होती रही और एक सुयोग्य मेजबान का धर्म निभाते हुए अजय ब्रह्मात्मज जी ने सबके लिए चाय बनायी . 

सभी लोगों ने  एक रचनात्मक सांझ उपलब्ध करवाने के लिए .विभा रानी और अजय ब्रह्मात्मज का ह्रदय से धन्यवाद किया .सभी लोग आपस में मिलकर और एक साहित्यिक चर्चा के रसास्वादन का अवसर पाकर बहुत प्रसन्न थे . अगली बैठक में कवितायें पढ़ी जायेंगी और उनपर चर्चा होगी. अभी से ही उस शाम का इंतज़ार शुरू हो गया है .  

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