मुंबई में होली हम उत्तर-भारतीयों का महत्वपूर्ण त्योहार है. और इस बार की होली तो कुछ ख़ास ही रही क्यूंकि ठीक होली के एक दिन पहले और एक दिन बाद ब्लॉगर बंधुओं से भी मिलने का सुयोग जुटा. १९ मार्च २०११ को मुंबई विश्वविद्यालय परिसर में शरद कोकास जी की दीर्घ कविता 'पुरातत्ववेत्ता' पर लिखी डा. विजया की समीक्षात्मक पुस्तक का विमोचन समारोह था. आभार शरद जी, आभा मिश्रा जी और बोधिसत्व जी का...जिनके सौजन्य से मुझे भी इस समारोह में शामिल हो, इतने सारे दिग्गज कवियों ,लेखकों,पत्रकारों से रु-ब-रु होने का सुअवसर मिला.
शरद जी और बोधिसत्व जी के प्रिय मित्र कवि नरेश चंद्रकर जी (इनकी एक बेहतरीन कविता शरद जी ने यहाँ पोस्ट की है ) बड़ौदा से सुबह ही बोधिसत्व जी के घर पधार चुके थे . मैं, आभा जी, नरेश जी,बोधिसत्व जी जब समारोह स्थल नेहरु ग्रंथालय पहुंचे तो शरद जी नीचे ही इंतज़ार में खड़े थे. उनकी मंशा थी कि उनके मित्रों के बिना कार्यक्रम शुरू ना हो...और जब कवि ही मंच पर उपस्थित ना हो तो कार्यक्रम कैसे शुरू हो सकता है :)बोधिसत्व जी एवं शरद जी |
सरस्वती वंदना और दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ.मुंबई विश्विद्यालय के प्राध्यापक डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे. प्रोफ़ेसर मनोहर जी ने कार्यक्रम का उदबोधन किया. श्री ज्ञानरंजन जी किन्ही कारणवश तशरीफ़ नहीं ला सके थे...उनका आशीर्वाद स्वरुप पत्र पढ़ कर सुनाया गया. सबसे पहले डा. विजया ने अपने विचार रखे. उन्होंने बताया कि जब उन्होंने शरद कोकास की कविता 'पुरातत्ववेत्ता ' पढ़ी तो उनका मन बहुत उद्वेलित हो गया. करीब चार-पांच महीने तक उनके दिमाग में यह कविता चलती रही. वे किचन में हों....या कहीं भी हों ...कविता की पंक्तियाँ लगातार उनके मन में प्रतिध्वनित होती रहतीं. उन्हें लगा जब उन्हें ये कविता इतना उद्वेलित कर रही है तो इसे लिखते वक्त कवि किस यंत्रणा से गुजरा होगा. और उन्होंने इस कविता की विस्तृत समीक्षा लिखने का निश्चय किया. उन्होंने शरद जी से संपर्क किया . शरद जी ने सहर्ष स्वीकृति दे दी .
इसके बाद शरद जी ने कविता की रचना प्रक्रिया पर बातें की. उन्होंने बताया कि ५३ पेज की इस लम्बी कविता की शुरुआत मात्र तीन पंक्तियों से हुई थी .जब वे कविता लिखने बैठे तो उन्हें लगा कि उनकी कविता का यह केंद्रीय पात्र केवल पुरातत्ववेत्ता नहीं है बल्कि वह एक लेखक , कवि , इतिहासकार तथा चिन्तक भी हो सकता है .आम लोगो में इतिहासबोध उत्पन्न करना तथा चीजों को वैज्ञानिका द्रष्टिकोण से देखने की क्षमता उत्पन्न करना ही उनका उद्देश्य है
शरद जी को इस बात का भी मलाल था कि आम आदमी 'पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा किए जा रहे महत्वपूर्ण कार्य की सार्थकता नहीं समझता. उन्होंने अपने अनुभव बताए कि कैसे पुरातत्ववेत्ता कहीं खुदाई करने जाते हैं तो लोग-बाग़ समझते हैं..."वे सोना ढूँढने आए हैं " और जब वे कोई टूटा बर्तन या टूटी ईंट मिलने पर खुश होते हैं तो लोग कहते हैं.."अच्छा! ठीकरो मिल्यो है " शिक्षित लोगों को भी इनके कार्य की महत्ता का अंदाजा नहीं है.
शरद जी ने यह कविता सबसे पहले...अपने अग्रज कविवर बन्धु "लीलाधर मंडलोई ' को पढ़ने के लिए भेजी. और सबसे पहले यह कविता अपने मित्र नरेश चंद्रकर को सुनाई, रात में उन्होंने यह कविता सुनानी शुरू की और कब सुबह के पांच बज गए दोनों मित्रों को पता ही नहीं चला. इस तरह इस कविता के प्रथम पाठक 'लीलाधर मंडलोई ' जी और प्रथम श्रोता नरेश चंद्रकर जी बने . श्री ज्ञानरंजन जी ने इसे 'पहल' पत्रिका में प्रकाशित किया. अशोक बाजपेयी जी...लाल बहादुर वर्मा ..कवि वसंत त्रिपाठी ने इस पर समीक्षा लिखी थी. लाल बहादुर वर्मा जी ने इसे साहित्य के साथ-साथ इतिहास की पाठ्य-पुस्तक बनाने की जरूरत पर भी बल दिया. जब विजया जी ने इस पर समीक्षा लिखने की बात कही तो शरद जी को लगा...आठ-दस पेज की समीक्षा होगी.पर जब डा. विजया ने २०० पृष्ठ की समीक्षा लिखकर भेजी तो कवि भी आश्चर्यचकित रह गए. उनलोगों ने सिर्फ पांच बार पत्रव्यवहार किए और शरद कोकास , डा. विजया से विमोचन के एक दिन पहले ही पहली बार मिले.
शरद जी ने बड़े जोशीले स्वर में कविता के शुरू के दो तीन पन्नो का पाठ किया...लोगों ने तो बार-बार ' बहुत खूब' कह कर प्रशंसा की ही. साथी कवि बोधिसत्व जी एवं नरेश जी ने भी कहा कि अपनी कविता का बहुत ही सुन्दर पाठ किया उन्होंने...ये पंक्तियाँ खासकर बहुत पसंद आयीं सबको.
इतिहास तो दरअसल माँ के पहले दूध की तरह है
जिसकी सही खुराक पैदा करती है ,हमारे भीतर
मुसीबतों से लड़ने की ताकत
दुख सहन करने की क्षमता देती जो
जीवन की समझ बनाती है वह
हमारे होने का अर्थ बताती है,हमें
हमारी पहचान कराती जो हमीं से
कवि नरेश जी ने कविता पर विचार रखते हुए कहा कि वे कविता में इतना खो गए थे कि सुनते-सुनते पूरी रात बीत गयी और उन्हें पता ही नहीं चला.
कवि विजय कुमार ने इसे एक कालजयी कविता बताते हुए कहा कि इस कविता का महत्व आनेवाले कई बरसों तक रहेगा समीक्षा के विषय में उन्होंने कहा कि पोएटिक लोजिक ,सातत्य वा साधारणीकरण इस समीक्षा की विशेषता है .
कवि बोधिसत्व जी ने कविता की प्रशंसा की और कहा कि "वे भी इस कविता पर कुछ लिखने को इच्छुक हैं"...उन्होंने यह वायदा भी कर डाला कि "अगर २०११ में वे इस कविता पर कुछ नहीं लिखते तो फिर उन्हें किसी आयोजन में ना बुलाया जाए. "
कार्यक्रम के अध्यक्ष लीलाधर मंडलोई जी (जो दूरदर्शन के महानिर्देशक भी हैं ) ने डा.विजया की भूरी-भूरी प्रशंसा की कि अहिन्दीभाषी होकर भी हिंदी की एक कविता पर इतनी विस्तृत समीक्षा लिखी.और पुस्तक में विषय के अनुरूप दुर्लभ चित्र भी प्रकाशित किए हैं. कविता की भूमिका लीलाधर जी ने ही लिखी है..और वहाँ वे कविता पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं. यहाँ भी वे काफी-कुछ कहना चाहते थे.पर उनकी फ्लाईट का समय हो चला था ..इस वजह से उन्हें जाना पड़ा.
इसके अलावा सर्वश्री रामजी तिवारी , वेद राही , राम प्रकाश द्विवेदी , त्रिभुवन राय सभी वक्ताओं ने एक स्वर से कहा कि यह कविता हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और लिखने वालों को प्रेरणा भी देती है कि कविता की लम्बाई की चिंता किए बिना अपनी इच्छानुसार वे अपने भावों को शब्द दे सकते हैं..एक ना एक दिन उसका मूल्य साहित्य जगत जरूर समझता है. और हिंदी साहित्य भी समृद्ध होता है. ज्ञानरंजन जी की प्रशंसा भी की गयी कि उन्होंने इतनी लम्बी कविता को प्रकाशित किया. हिंदी से इतर भाषा वाले भी हिंदी-साहित्य की ओर उन्मुख हो रहे हैं...यह हिंदी के लिए शुभ-संकेत है. और सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ समीक्षक का कवि से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था..सिर्फ कविता की उत्कृष्टता ही उन्हें समीक्षा लिखने को प्रेरित कर गयी. ऐसी ही परम्परा होनी चाहिए. कार्यक्रम में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि विनोद दास , अनूप सेठी , ओम शर्मा , तथा मराठी के साहित्यकार ,प्रकाश भाताम्ब्रेकर,सुश्री सुमनिका सेठी ,डॉ.वसुंधरा तारकर , मुक्ता नायडू नीरा नाहटा और अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे .
कार्यक्रम की समाप्ति पर चाय-नाश्ते के साथ फोटो-सेशन का दौर चला. शरद जी और बोधिसत्व जी के प्रशंसक/प्रशंसिकाएं उनके साथ तस्वीर खिंचवाने को आतुर थे. शरद जी को बार-बार अपनी प्लेट नीचे रख देनी पड़ रही थी...पता नहीं वे अपनी प्लेट की सामग्री ख़त्म भी कर पाए या नहीं :)
कवि बोधिसत्व जी ने कविता की प्रशंसा की और कहा कि "वे भी इस कविता पर कुछ लिखने को इच्छुक हैं"...उन्होंने यह वायदा भी कर डाला कि "अगर २०११ में वे इस कविता पर कुछ नहीं लिखते तो फिर उन्हें किसी आयोजन में ना बुलाया जाए. "
कार्यक्रम के अध्यक्ष लीलाधर मंडलोई जी (जो दूरदर्शन के महानिर्देशक भी हैं ) ने डा.विजया की भूरी-भूरी प्रशंसा की कि अहिन्दीभाषी होकर भी हिंदी की एक कविता पर इतनी विस्तृत समीक्षा लिखी.और पुस्तक में विषय के अनुरूप दुर्लभ चित्र भी प्रकाशित किए हैं. कविता की भूमिका लीलाधर जी ने ही लिखी है..और वहाँ वे कविता पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं. यहाँ भी वे काफी-कुछ कहना चाहते थे.पर उनकी फ्लाईट का समय हो चला था ..इस वजह से उन्हें जाना पड़ा.
आभा मिश्रा जी मैं, शरद जी |
मैं ,नरेश जी, शरद जी, आभा जी |
पर पूरे कार्यक्रम के दौरान सबसे नयनाभिराम दृश्य रहा ...समकालीन कवियों का आपसी स्नेह. स्कूली बच्चों सा एक-दूजे के कंधे से उनकी बाहें हट ही नहीं रही थीं. तस्वीरों में आप बानगी देख सकते हैं:)
शरद जी और लेखिका डा. विजया |
शरद जी , बोधिसत्व जी एवं नरेश चंद्रकर जी |