शाहिद मिर्ज़ा जी की शरारत
मेरे एक परिचित नसीम खान (नाम बदला हुआ है) अपनी बेग़म (जो घर से बाहर हमेशा बुर्के में रहती हैं) के साथ ईद की खरीददारी करते हुए बाज़ार में मिल गए. दुआ सलाम के दौरान एकाएक मुझे शरारत सुझी,
और बड़ी संजीदगी के साथ नसीम ख़ान से पूछा- ’भाभी के पास कई बुर्के हैं क्या’
उनका जवाब भी इसी अंदाज़ में मिला ’हां कई हैं....क्यों?”
मैंने कहा- ”बस ऐसे ही पूछ लिया....वो परसो आप बाइक से जा रहे थे तो भाभी को सुरमई रंग के बुर्के में देखा था”
मेरी इस शरारत पर वो बस हलके से मुस्कुरा दिए और खरीददारी में मशगूल हो गए.
तब तो बात आई-गई हो गई, लेकिन रात में नसीम भाई का फोन आया...कहने लगे ये तुमने हमारे घर में क्या हंगामा करा दिया....लो तुम ही समझाओ अपनी भाभी को....परसो मेरे साथ कौन थी और कैसे बुर्के में थी...
अब क्या बताएं..कि भाभी को ये समझाने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी कि यूंही मज़ाक किया था.
चलते चलते अपना एक शेर भी हाज़िर है-
सुनाते रहना परियों की कहानी
ये बचपन उम्र भर खोने न देना
अगले ब्लॉगर्स मीट में सब विवेक जी से अपनी आइसक्रीम दूर ही रखें.
मैं तो बेटे के साथ ही बच्चा बन जाता हूँ, और हम दोनों की सबसे मनपसंद चीज है मीठा, फ़िर वह कुछ भी हो बस मीठा होना चाहिये जैसे कि गुड़, चाकलेट, केक, मिठाई, आईसक्रीम कुछ भी।
मैं अपने मीठे में से शेयर करना बिल्कुल पसंद नहीं करता हूँ और न ही मेरा बेटा, परंतु जब भी आईसक्रीम आती है तो मेरा बेटा फ़टाफ़ट अपनी आईसक्रीम खत्म कर लेता है, और फ़िर हमें प्रवचन देता है कि अपनी चीजें शेयर करके खानी चाहिये, हम हर बार अपनी आईसक्रीम शेयर कर लेते हैं।
|
विवेक जी अपने सुपुत्र हर्ष के साथ |
एक दिन फ़िर आईसक्रीम आई तो हमने जल्दी जल्दी अपनी आईसक्रीम खत्म कर ली और फ़िर अपनी चम्मच बेटे के पास लेकर पहुँच गये कि चलो अब हमसे अपनी आईसक्रीम शेयर करो, बेटे हमारा मुँह देख रहा था और फ़िर चुपचाप अपनी आईसक्रीम में से १-१ बाईट खिलाता रहा, फ़िर जब बहुत ही अति हो गई तो हमसे बोला कि नहीं बच्चे शेयर नहीं करते केवल बड़े शेयर करते हैं।
हम भी अपनी चम्मच लेकर उनकी आईसक्रीम के पास डटे रहे कि नहीं हम तो शेयर करके ही खायेंगे। और जब तक आईसक्रीम खत्म नहीं हो गई तब तक अपने बेटे के साथ बच्चा बनकर उसकी आईसक्रीम खाते रहे।
रवि धवन के हनुमान बम और अनार बम
ब्लॉग सभा में सबके सामने अपनी ही ठांय करना मजेदार लग रहा है। साथ ही बच्चों वाले काम के बारे में बताते-बताते यह भी महसूस किया अब आगे से कुछ न कुछ बच्चों वाले काम करते ही रहना है। क्या पता, फिर से ठांय करनी पड़ जाए। और कोई कह दे 'तू बच्चा है क्या।'
'हाल में तो कुछ नहीं किया। चार माह पूर्व मैं अपने चार साल के भतीजे और ढाई साल की भतीजी को लेकर पार्क में घूमने चला गया। भतीजे को प्यार से हनुमान बम और भतीजी को अनार बम कहकर बुलाते हैं। नाम से पता चल गया होगा कि दोनों कितने खतरनाक होंगे। तो जी, पार्क में पहुंचते ही दोनों ने दौड़ लगाना, दूसरों के पाले में घुसकर सामान उठाकर लाना और हल्ला मचाना शुरू कर दिया। मुझे भी जाने क्या सुझा, मैं भी उनके साथ घुटनों पर रेस लगाने लगा। अपने साथ लाया सारा सामान चॉकलेट, पॉपकॉर्न और फुलवडिय़ां पूरे पार्क में हम तीनों ने बिखेर कर रख दी। कुछ मिनटों बाद मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है यार। इधर-उधर देखा तो आसपास के लोग हमें घूर रहे थे। मैंने सोचा, बेटा गड़बड़ हो गई इन शैतानों के चक्कर में। मैंने चुपके से पार्क में बिखरे सामान को समेटा और दोनों को स्कूटी पर बैठाकर वापस घर लौटने में ही समझदारी दिखाई। एक ने तो बोल ही दिया था 'पागल' हैं तीनों। पर मेरे नजरिए में वो पागलपन के कुछ पल बड़े मजेदार थे।
दीदी आपकी परिचर्चा ने अंतर्मन को झकझोर दिया। हमारे दोनों बम भले ही आज शैतानियां कर रहे हैं। पर दोनों का
बचपना भी कब तक रहेगा। वो भी एक दिन हमारी तरह {समझदार (?)} हो जाएंगे।
अरे रश्मि जी ! ये तो आप ने मेरा प्रिय विषय याद दिला दिया ,ये जीवन का वो दौर है जिसे हम प्रतिदिन ,प्रतिपल याद करना और जीना चाहते हैं लेकिन ज़िम्मेदारियों और हालात के बोझ तले
ये सुखद एहसास दबने लगता है ,फिर भी मैं तो अक्सर ही जीवन के इन बहुमूल्य क्षणों को जीने की कोशिश करती रहती हूं ,जब मेरा बच्चा छोटा था तो उस के बहाने से मैं ग़ुब्बारे लाया करती थी जब कि उसे कभी शौक़ नहीं था और मैं उस के बहाने से खेलती थी ,आज भी मैं खिलौनों की दुकानों की ओर आकर्षित हो जाती हूं
मैं गोवा में हूं और यहां बारिश बहुत होती है ,बरसात के मौसम में हमारे यहां काग़ज़ों का बहुत इस्तेमाल होता है कश्तियां बनाने के लिये ,हालांकि यहां बारिश का पानी रुक नहीं पाता लेकिन फिर भी मैं बारिश के तेज़ होते ही जल्दी जल्दी काग़ज़ी कश्तियां ले कर नीचे भागती हूं और अगर थोड़ी दूर भी उसे बहता हुआ देख लूं तो जो ख़ुशी मिलती है वो बयान नहीं कर सकती ,
मुझे ऐसी कोई ’एक’ बात याद नहीं जो मैं यहां लिख सकूं ,क्योंकि जब भी समय मिला मैंने अपना बचपन जीने की कोशिश की कभी बारिश में नाव चला कर कभी ग़ुब्बारे और छोटी छोटी कारें खेल कर ,कभी अपने बच्चे के प्रोजेक्ट का नन्हा सा घर बना कर ,कभी उस के साथ उस के खेलों में हिस्सा लेकर ,बस अलग अलग वक़्तों में अलग अलग तरीक़े अपना कर
मेरा मानना है कि जीवन के अंतिम क्षणों तक हर व्यक्ति में एक बच्चा छिपा होता है जो उसे समय समय पर अपने होने का एहसास दिलाता रहता है ,अब ये हम पर निर्भर है कि हम उसे जगा कर रखें या थपक थपक कर सुला दें ,अगर जगा कर रखेंगे तो ये हमें रोने नहीं देगा , हमें परेशानियों में भी ख़ुश रहने की शक्ति देगा ,मेरी कोशिश तो यही होगी कि इस जज़्बे को हमेशा सहेज कर रखूं
हैप्पी बर्थडे राजेश उत्साही जी (बिलेटेड ही सही )
बात तबकि है जब हम तीसरी कक्षा में पढ़ते थे। मप्र के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के एक छोटे से रेल्वे स्टेशन इकडोरी पर पिताजी की नियुक्ति थी। गांव कोई दो-तीन किलोमीटर दूर था स्टेशन से। गांव का नाम रघुनाथपुर था। रेल्वे स्टेशन के आसपास बस स्टाफ के चार पांच परिवार ही रहते थे। यह वह दौर था जब चम्बल के बीहडों में माधोसिंह और मोहरसिंह जैसे दस्यु सरदारों के नाम से सारा इलाका कांपता था। सो हर गांव में सुरक्षा के लिए पुलिस की एक अतिरिक्त टुकड़ी हमेशा रहती थी।
दिवाली की रात थी। हम रेल्वे प्लेटफार्म पर फटाके फोड़ने में जुट थे। पिताजी ने ग्वालियर से रस्सी बम लाकर दिए थे। सुनसान होने के कारण फटाकों की आवाज बहुत तेज गूंज रही थी। मैंने एक बाद एक करके आठ दस बम फोड़ डाले।
थोड़ी देर बाद क्या देखता हूं कि पांच-छह पुलिस वालों का दल गांव की तरफ से दौड़ता चला आ रहा है। जब दल पास पहुंचा तो मुझे देखकर उन्होंने कहा, ‘अरे मुन्ना तुम हो।’ मैंने सोचा भला इन्हें मेरा नाम कैसे पता चला। बचपन में मुझे घर में मुन्ना ही कहा जाता था। ये तो बाद में समझ आया कि छोटे लड़कों को मुन्ना और लड़कियों को मुन्नी सामान्य तौर पर कहा जाता है।
खैर मुझे कुछ बात समझ में नहीं आई। तभी उनमें से एक बोला, ‘मुन्ना अब फटाके चलाना बंद कर दो।’
मैंने कहा, ‘क्यों।’
‘अरे बेटा गांव वाले समझ रहे हैं कि डाकू आ गए हैं। सब डर के मारे अपने अपने घरों में बंद हो गए हैं। तुम्हारे फटाकों की आवाज सुनकर वे अपनी पूजा-पाठ भी भूल गए हैं।’ उनकी बात सुनकर मैं फटाके चलाना भूल गया।
कोई दिवाली याद रहे न रहे पर यह दिवाली भुलाए नहीं भूलती। और मित्रों आप में से कई जान चुके होंगे और जिन्होंने न जाना हो वे जान लें कि अपन चाचा जी से एक दिन पहले पैदा हुए थे। यानी 13 नवम्बर को। तो अपन को हैप्पी बर्थ डे बोलना मांगता
यहाँ निकुंज की soccer क्लास के अंत के दिन (हर सीजन के ) ये लोग पेरेंट और बच्चों के बीच एक गेम रखते हैं, किसी का पिता तो किसी की माँ तो किसी के ग्रांड पेरेंट्स एक पक्ष में रहते हैं तो बच्चे दूसरे पक्ष में ! उस दिन बच्चों के उत्साह देखने का रहता है , और हम लोग भी अपनी पूरी ताकत जीत के लिए झोंक देते हैं पर बच्चों की टीम हमें जीतने ही नहीं देती एक भी बार - इस समय जब निकुंज (और अन्य) बच्चों की टीम जीतती है तो हार में भी खुशी का वो अहसास होता है जिसको शब्दों की सीमा में नहीं बाँध सकता !
जब बच्चो के साथ WII गेम खेलता हूँ तो बस दोनों बाप बेटो में जो लड़ाई होती है उसका शोर तो बगल वाले घर तक भी जाता है और तब मेरी पत्नी को कहना ही पडता है की डैडी से मत लड़ो वो तो बच्चों से भी ज्यादा बच्चे हो जाते हैं, जब निकुंज जीतने वाला होता है तो उसको चिड़ा चिड़ा कर हराने में जो मजा आता है उसको क्या बयां करूँ, हाँ अंत में स्पोर्ट्स में हार मेरी ही होती है पर ये हार भी निराली होती है - आनंद देने वाली हार
एक बचपन का किस्सा याद आ रहा है, तब शायद में और मेरी बुआ का लड़का दोनों ही आठवीं कक्षा में थे, दो भाई एक कक्षा में थे तो ज़रा दादागिरी भी चलती थी. एक बार मास्साब को कक्षा के दरवाजे पर खड़े होकर उनके सेवक बनकर बोल दिया कि पधारिये महाराज !! और पूरी क्लास हंस पड़ी फिर क्या था मास्साब का गुस्सा असमान पर और मुंह लाल , जड़ दिए कई डंडे और तमाचे धडाधड :( ऐसे तैसे पीरियड पूरा हुआ तो जब मास्साब निकल गए तो जैसा होता है कि एक लडके ने चिडाने के कोशिश करी तो तब तो कुछ नहीं बोला, और बाद में मैं और मेरा भाई उसे बाहर दोस्त बनाकर ले गए और उसकी धुनाई कर दी , लड़का गोरे रंग का था तो मुंह लाल हो गया और बाटा के जूतों के निशान साफ उसकी व्यथा परिलक्षित कर रहे थे , बाद में घर तक बात आई तो घर पर फिर हम दोनों की खिंचाई हुई - अब सोचता हूँ तो बड़ा मजाकिया किस्सा लगता है :-)
|
तंगम और राजी |
मेरी नहीं, ये सब 'राजी' और 'तंगम' की कारस्तानी थी
जब भी कोई कह देता है..'बिलकुल बच्चों जैसी हरकतें हैं'....' बच्ची हो बिलकुल ' तो एक पल को ठिठक कर अपना बड़ों वाला लबादा ओढ़ लेती हूँ फिर पता नहीं कब वो लबादा खिसक जाता है और युज़ुअल सेल्फ में लौट आती हूँ.... अगली बार टोके जाने तक :)
पर ये बचपना खासकर तब अपने शिखर पर होता है जब सिर्फ सहेलियों या कजिन्स या बच्चों का साथ हो. पिकनिक जाने पर दौड़कर झूला लूट लेना, बच्चों वाली see-saw पर जबरदस्ती किसी तरह बैठ जाना और एक सहेली को ऊपर ही टंगे रहने देना...चाहे वो कितना भी चिल्लाये. कोरस में गाना गाना तो चलता ही रहता है.
अभी हाल में ही कुछ सहेलियाँ और बच्चे एक वाटर पार्क में गए. वहाँ हमारी शरारतें देख, बच्चे दूर छिटक गए. शायद ईश्वर से मना रहें थे कि कोई पूछ ना बैठे, ये आपकी मॉम्स हैं ?? :) (अब बड़े हो गए हैं तो उन्हें अपनी freedom भी चाहिए होंगी.)
वहाँ हमने wave pool में गोल घेरा बनाकर घूमते हुए सारे नर्सरी राइम्स गा डाले. ऊँची ऊँची तेजी से घूमती राइड्स पर जोर से चिल्लाने की छूट भी थी. अब उम्र हो गयी है तो क्या , डर तो लगता ही है. पर पति और बच्चों के साथ उस तरह तो नहीं चिल्ला पाते, सहेलियों के साथ तेज आवाज़ में चीखते रहें और डर भी इतना कम हो गया कि २,३, बार एक ही राइड पर गए.{ आपलोग भी आजमा सकते हैं...जोर से चिल्लाते रहने पर सचमुच डर नहीं लगता :)} पर सबसे मजा हमने लेज़ी रिवर में किया (लेज़ी रिवर एक लम्बा सा पूल होता है जिसपर आप एक बड़ी सी ट्यूब पर अधलेटे से होते हैं और वह धीरे धीरे बहती रहती है) वहाँ हम सबने एक दूसरे के हाथ पकड़ एक लम्बी सी चेन बना ली और किसी को भी आगे आने ही नहीं देते थे. दरअसल हमारे ग्रुप को देख, बाकी लोगों के चेहरे पर भी लम्बी सी मुस्कान खींची हुई थी.
|
पद्मजा,लवीना,शर्मीला,मैं और वैशाली |
|
इस तरह के मौके तो अक्सर आ ही जाया करते हैं पर कभी कभी ये बचपन वाली हरकतें बहुत एम्बैरेसिंग भी हो जाती हैं. हम सहेलियों की एक आदत है. किसी का बर्थडे हो तो बाकी सब एक साथ 'हैपी बर्थडे ' गाकर उसे विश करते हैं. कभी-कभी सड़क के किनारे बच्चों के स्कूल बस का इंतज़ार करते हुए भी. दूर से ही बर्थडे गर्ल को आते देख ,हम गाना शुरू कर देते हैं . हमारे बच्चे मुहँ फेर कर खड़े हो जाते हैं. एक बार मैं और 'राजी' कार से मॉर्निंग वाक के लिए गए थे (अब, इसमें हंसने जैसा क्या है...जब ज्यादा फल सब्जी लानी हो तो कार लेकर जाना ही पड़ता है ) अपनी वाक ख़त्म कर, सारी खरीदारी कर हम घर की तरफ आने लगे तो याद आया, आज 'वैशाली' का बर्थडे है. बस मैने किनारे गाड़ी खड़ी की और ध्यान नहीं दिया कि वो जगह सीनियर सिटिज़न की थी ( यहाँ जगह जगह शेड बने हुए हैं, वहाँ कुछ बेंच और अखबार सीनियर सिटिज़न के लिए रखे होते हैं )जैसे ही मोबाइल का स्पीकर ऑन कर हम दोनों ने 'हप्पी बर्थडे' गाना शुरू किया .दो बुजुर्ग गाड़ी के सामने आ कर कुछ - कुछ बोलने लगे. अंदर जाने का रास्ता कार ने ब्लॉक कर रखा था . शीशे ऊपर होने की वजह से सुनायी तो नहीं दे रहा था. पर आँखों और हाथों की मुद्राओं से लग रहा था, वे बड़े गुस्से में हैं. अब बीच में गाना कैसे रोकें? खैर जल्दी से गाना ख़त्म कर विश किया, सुना भी दिया ,'तेरी वजह से डांट पड़ रही है' और गाड़ी लेकर भागी. ऐसे ही महिला ड्राइवर बदनाम होती हैं..दो बातें और जुड़ गयीं.
|
शर्मीला, वैशाली,मैं,तंगम और अनीता |
पर सबसे ज्यादा अंक ले गयी, तंगम के साथ की गयी हरकत ने. उस दिन 'राजी' (हमारी योगा टीचर ) के बिल्डिंग की लिफ्ट बंद थी और योगा क्लास में सिर्फ मैं और तंगम थे. सातवीं मंजिल से हमें सीढियां उतर कर आना था. दो सीढ़ी उतरते ही मैने तंगम को टोका, "क्या बच्चों जैसा धप धप करके चल रही हो....बहुत आवाज़ कर रही हैं तुम्हारी चप्पलें" उसने शैतानी से थोड़ी और आवाज़ की .मैं हंसने लगी तो मेरा हाथ पकड़ कर बोली, "लेट्स, डू इट टुगेदर " और फिर हम दोनों, बच्चों की तरह चप्पल फटकारते धप धप आवाज़ करते सीढियां उतरने लगे. हर फ्लोर पर सशंकित हो देखते ,'अभी कोई दरवाजा खुलेगा'. और अपनी स्थिति का ख्याल ना कर हम सामने वाले का सोचने लगते कि वे बच्चों की जगह दो महिलाओं को देखेंगे तो क्या हालत होगी उनकी ?. पर किस्मत अच्छी थी, एक भी दरवाज़ा नहीं खुला और हंसी से दोहरे होते हम बिल्डिंग से बाहर निकल आए. वाचमैन भी हमें हैरानी से देख रहा था.ग्राउंड फ्लोर से एक आंटी भी पर्दा खिसका कर देखने लगी, 'इन पागलों सी हंसी का राज़ क्या है'
पर ये सारा आइडिया तंगम का था, मेरा नहीं ,(तंगम के बनाए स्वादिष्ट केक और चौकलेट्स की तस्वीरें इस लिंक पर देखी जा सकती हैं) हाँ! इस परिचर्चा का आइडिया मैने चुरा लिया वहाँ से.
{आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया, इस 'परिचर्चा' को सफल बनाने के लिए.
आप लोगों ने समय निकाल कर अपने संस्मरण हमसे बांटे और फिर सबने पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया भी दी. सबको कोटिशः धन्यवाद .
अब यह परिचर्चा इतनी पसंद आई तो फिर आपलोग तैयार रहें...कभी भी कोई सवाल आपके इनबॉक्स में टपक पड़ेगा :)}