शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

'बस यूँ ही' (ब्लॉग ) अमित जी ने 'कांच के शामियाने ' पढ़कर कुछ लिख भी दिया

मुझे अपने उपन्यास 'काँच के शामियाने ' को लेकर कुछ शंकाएं थीं कि शायद पुरुषों और युवा लड़कों को यह उतना पसन्द नहीं आएगा ।जब  कोई इनबॉक्स में सूचित करता था कि उसे उपन्यास मिल गया है तो मैं कह भी देती थी कि ये एक स्त्री विषयक उपन्यास है ...पता नहीं आपको कितना पसन्द आएगा । 
पर काफी लड़कों ने मैसेज किया कि वे एक बैठक में ही पढ़ गए और उन्हें किताब पसंद आई .
 Amit Kumar Srivastava जी ने भी जब फेसबुक वॉल  पर लिखा कि उन्होंने 'कांच  के शामियाने ' बुक  कर दी है  तो मुझे थोडा आश्चर्य हुआ .फिर ये भी सोचा,...'मंगवा तो ली है पर महीनों लगायेंगे पढने में . पर उन्होंने दो तीन दिनों में ही खत्म कर दी और  उपन्यास के विषय में इतना  सारगर्भित लिख कर एक सरप्राईज़ भी दे दिया . शुक्रिया अमित जी .
अपने ब्लॉग "बस यूँ ही ....अमित " पर उन्होंने काफी उत्कृष्ट कवितायें , संस्मरण ,आलेख लिखे हैं..आजकल 'खिडकियों' पर शोध जारी है .
                "काँच  के  शामियाने "


कांच दो तरह के होते है । एक साधारण सा , जो चोट लगने पर टूट कर बिखर जाता है और संपर्क में आने वाले व्यक्ति को रक्त रंजित भी कर डालता है , दूसरा कांच जो गाड़ियों के विंड स्क्रीन पर लगा होता है जो दो परतों को चिपका कर बनाया जाता हैं । इसके बीच चिपकने वाला पदार्थ भरा होता है ,जो कांच के टूटने की स्थिति में उस को बिखरने नहीं देता और न ही संपर्क में आने वाले को चोट पहुँचती है । 

"कांच के शामियाने" में जिस कांच का इस्तेमाल हुआ है वह दूसरे प्रकार का है जो टूटने पर भी सारे टुकड़ों को अपने में समेटे हुए है और इसे बिखरने से रोकने में भूमिका बच्चों की हैं जो दोनों कांच के बीच ग्लू सरीखे टिके हुए हैं ।
वैवाहिक जीवन सरल और सफल होने के लिए सौंदर्य अथवा सम्पन्नता महत्वपूर्ण नहीं होते , यद्दपि प्रतीत ऐसा होता तो है । अगर ऐसा होता तो डायना के सौंदर्य और प्रिंस चार्ल्स के वैभव के मध्य भी सामंजस्य स्थापित हो गया होता ।
दरअसल सारा सार अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच उपजे भावनाओं का ही है और कुछ नहीं ।
इन्ही उपेक्षाओं और अपेक्षाओं के बीच द्वन्द की कहानी जीवंत की है बेहद रोचक और वास्तविक अंदाज़ में Rashmi जी ने ।
इस उपन्यास को पढ़ना प्रारम्भ करते ही एक चलचित्र सा तैरने लगता है आँखों के सामने जिसे फिर छोड़ने का मन नहीं करता ।
कहानी बिहार की पृष्ठभूमि में जरूर लिखी गई है पर प्रासंगिक पूरे पुरुष जगत के लिए है ।
बस एक शिकायत है लेखिका से कि कहानी में एक पात्र अमित नाम का भी है जिसे दुष्ट दर्शाया गया है बस पढ़ते समय उसी चरित्र को पचाना थोडा मुश्किल लगा ।
यह समीक्षा कतई नहीं है । लेखिका के हुनर के समक्ष मेरा कुछ भी लिखना गौण है । बस अच्छा लगा इसे पढ़ कर और भीतर ही भीतर कुछ कचोट भी हुई न जाने क्यों । बस इसीलिए इतना सा लिख दिया ।


इन लिंक्स पर यह उपलब्ध है 

सोमवार, 2 नवंबर 2015

सारिका सक्सेना ('अनकही बातें' ब्लॉग ) की नजर में 'काँच के शामियाने '

मैंने यूँ ही नहीं कहा कि अपनी कहानी को पुस्तक के रूप में देखने का सपना ब्लॉग पाठकों ने ही बोया था ।Sarika Saxena मेरे ब्लॉग की शुरूआती पाठकों में से हैं ।मेरे ब्लॉग की पहली फॉलोवर ।फिर वो खूबसूरत कलाकृतियाँ बनाने में व्यस्त हो गई ।मेरा ब्लॉग पर लिखना छूट गया और राब्ता भी कम हो गया ।मुझे पता भी नहीं था उसने किताब मंगवाई है ।कल पढ़ कर मुझे ये मैसेज किया Got my copy of kanch ke shamiyane today....finished it in just one sitting....can't tell u how many times i cried....will write the detailed review later....i can tell you just one thing now...आप कलम की जादूगर हैं.....just keep writing....congratulations once again...
और आज ब्लॉग पर ये पोस्ट लिखी है ।
मेरी तो आँखें नम हो गईं smile emoticon
"आज बहुत दिनो बाद इस ब्लाग पर कुछ लिखने बैठे हैं, असल में ये रश्मि दी से और अपने आप से किया वादा था की उनकी लिखी किताब पर हम प्रतिक्रिया ज़रूर लिखेंगे, तो बस आज वक्त निकालकर लिखने बैठ ही गये है| रश्मि दी ने जब अपने ब्लाग "मन का पाख़ी" पर अपनी कहानियाँ लिखना शुरू किया था तो हम उनके पहले पाठकों में से थे, बड़े अधिकार से और कभी ज़िद करके उनसे और कहानियाँ लिखने की गुज़ारिश करते थे| उनसे अपनी किताब प्रकाशित करवाने का आग्रह भी करते थे| और आज जब ये उपन्यास "काँच के .शामियाने" हमारे हाथ में है तो ये थोड़ी बहुत अपनी भी उपलब्धि लग रही है| यूँ इस आभासी जगत में ज़्यादा लोगों से मित्रता नहीं है हमारी पर रश्मि दी से कभी ज़्यादा बातें न करके भी एक प्यारा सा रिश्ता है जो हमें उनसे जोड़े रखता है, और आज अपनी दी की किताब प्रकाशित हुई देख कर हमारा गर्वित होना तो बनता है| रश्मि दी के इस पहले उपन्यास के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई! हमारी दुआ है की ऐसी ढेरों किताबे हमें आने वाले समय में पढ़ने को मिलें| आप यूँ ही लिखती रहें और आपकी कलम का जादू यूँ ही चलता रहे|
तो अब आते हैं इस उपन्यास पर| इस उपन्यास का शीर्षक हमें बहुत ही उपयुक्त लगा| शामियाना चाहें कपड़े का हो या काँच का कभी स्थायी नहीं होता| लड़की के जीवन की ही तरह जो बाबुल के घर कहे जाने वाले एक शामियाने से निकलकर एक दूसरे शामियाने, जिसे पति का घर कहा जाता है, में जाती है साथी साथ निभाने वाला मिल जाए तो ये शामियाना एक पक्का स्थायी घर बन जाता है नहीं तो बन जाता है काँच का शामियाना जो ज़िंदगी की धूप को संग्रहित कर और भी मन प्राण दग्ध कर जाता है|
इस उपन्यास का समर्पण भी हमें बहुत ही सुंदर, सटीक और सारगर्भित लगा| यूँ ज़्यादातर लेखक अपनी पुस्तक के समर्पण में दुनियाभर के लोगों के नाम लिख देते है, जो कतई आकर्षित नहीं करता| पर इस उपन्यास का तीन पंक्तियों का समर्पण बहुत ही प्रभावशाली है |:-
उन सभी के नाम ,जिनकी बातें अनसुनी,अनदेखी और अनजानी रह गयीं|
उपन्यास में अध्याय के शीर्षक बहुत ही रचनात्मक और अपने आप में कुछ कहानी सी कहते लगते हैं| हर अध्याय के साथ नायिका जया का बदलता स्वरूप सामने आता है| शादी से पहले एक सामान्य चंचल सी लड़की जया पिता की मृत्यु से एक गंभीर ज़िम्मेदार लड़की में बदल जाती है, जो बिना विवाह किए अपनी माँ की देखभाल करते हुए अपना जीवन बिताना चाहती है|
अगले अध्याय में जया के विवाह के समय समाज के शक्तिशाली खोखले नियमों को वर्णन मिलता है| विवाह से पहले ही जया के ससुराल वालो के इरादों का पता चलने के बाद भी उसका विवाह वहीं होता है|
खैर कहानी के बारे में ज़्यादा न लिखते हुए अब चरित्रों पर आते है| कहानी की नायिका जया एक बहुत ही आम सी लड़की है जो बहुत उँचे सपने नहीं देखती, यथार्थ के धरातल पर रहकर समझौता करने और परिस्थिति को अनुकूल बनाने की वो भरपूर कोशिश करती है| जया के चरित्र को लेखिका ने अपनी कलम से कुछ यूँ बुना है कि उसके सुख दुख पाठक को अपने लगते है| अपने बच्चों के लिए ही जीवन जी रही जया के जीवन में एक एसा मुकाम भी आता है कि वो अपने बच्चों के साथ आत्महत्या का निर्णय ले लेती है|
जया के इस संघर्ष की ही यह कहानी है, जो बार बार आँखों को नम कर जाती है| पाठक की आँखो को भिगो देना ही एक लेखक की सबसे बड़ी सफलता है, और ये रश्मि दी ने बखूबी किया है|
एक और चरित्र जिसने हमें प्रभावित किया वो है जया की दूसरी बहन सीमा | यूँ बहुत छोटा सा रोल है उसका पर वो जया की तकलीफ़ को बिना बताए बस देख कर ही समझ जाती है
और जया के पति राजीव के चरित्र के बारे में तो हम सोचना या लिखना भी नहीं चाहते| वैसे ये भी लेखक की सफलता है की कोई पात्र इतना नापसंद लगे की उसके बारे में कुछ कहना भी नागवार लगे| कहानी इतनी अपनी आसपास की लगती है की लगता ही नहीं की कोई उपन्यास पढ़ रहे है, नायिका के साथ उसके सुख दुख में सुखी दुखी होते जब हम कहानी के सुखद अंत में पहुचते हैं तो यह अहसास भी सुखद लगता है की चलो अंधेरे के बाद रौशनी ने जया की ज़िंदगी में भी दस्तक दे ही दी|
इन लिंक्स पर यह उपन्यास उपलब्ध है
http://www.infibeam.com/Books/kanch-ke-shamiyane-rashmi-ravija/9789384419196.html

http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi-Ravija/dp/9384419192

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