मुझे अपने उपन्यास 'काँच के शामियाने ' को लेकर कुछ शंकाएं थीं कि शायद पुरुषों और युवा लड़कों को यह उतना पसन्द नहीं आएगा ।जब कोई इनबॉक्स में सूचित करता था कि उसे उपन्यास मिल गया है तो मैं कह भी देती थी कि ये एक स्त्री विषयक उपन्यास है ...पता नहीं आपको कितना पसन्द आएगा ।
पर काफी लड़कों ने मैसेज किया कि वे एक बैठक में ही पढ़ गए और उन्हें किताब पसंद आई .
Amit Kumar Srivastava जी ने भी जब फेसबुक वॉल पर लिखा कि उन्होंने 'कांच के शामियाने ' बुक कर दी है तो मुझे थोडा आश्चर्य हुआ .फिर ये भी सोचा,...'मंगवा तो ली है पर महीनों लगायेंगे पढने में . पर उन्होंने दो तीन दिनों में ही खत्म कर दी और उपन्यास के विषय में इतना सारगर्भित लिख कर एक सरप्राईज़ भी दे दिया . शुक्रिया अमित जी .
Amit Kumar Srivastava जी ने भी जब फेसबुक वॉल पर लिखा कि उन्होंने 'कांच के शामियाने ' बुक कर दी है तो मुझे थोडा आश्चर्य हुआ .फिर ये भी सोचा,...'मंगवा तो ली है पर महीनों लगायेंगे पढने में . पर उन्होंने दो तीन दिनों में ही खत्म कर दी और उपन्यास के विषय में इतना सारगर्भित लिख कर एक सरप्राईज़ भी दे दिया . शुक्रिया अमित जी .
अपने ब्लॉग "बस यूँ ही ....अमित " पर उन्होंने काफी उत्कृष्ट कवितायें , संस्मरण ,आलेख लिखे हैं..आजकल 'खिडकियों' पर शोध जारी है .
"काँच के शामियाने "
कांच दो तरह के होते है । एक साधारण सा , जो चोट लगने पर टूट कर बिखर जाता है और संपर्क में आने वाले व्यक्ति को रक्त रंजित भी कर डालता है , दूसरा कांच जो गाड़ियों के विंड स्क्रीन पर लगा होता है जो दो परतों को चिपका कर बनाया जाता हैं । इसके बीच चिपकने वाला पदार्थ भरा होता है ,जो कांच के टूटने की स्थिति में उस को बिखरने नहीं देता और न ही संपर्क में आने वाले को चोट पहुँचती है ।
कांच दो तरह के होते है । एक साधारण सा , जो चोट लगने पर टूट कर बिखर जाता है और संपर्क में आने वाले व्यक्ति को रक्त रंजित भी कर डालता है , दूसरा कांच जो गाड़ियों के विंड स्क्रीन पर लगा होता है जो दो परतों को चिपका कर बनाया जाता हैं । इसके बीच चिपकने वाला पदार्थ भरा होता है ,जो कांच के टूटने की स्थिति में उस को बिखरने नहीं देता और न ही संपर्क में आने वाले को चोट पहुँचती है ।
"कांच के शामियाने" में जिस कांच का इस्तेमाल हुआ है वह दूसरे प्रकार का है जो टूटने पर भी सारे टुकड़ों को अपने में समेटे हुए है और इसे बिखरने से रोकने में भूमिका बच्चों की हैं जो दोनों कांच के बीच ग्लू सरीखे टिके हुए हैं ।
वैवाहिक जीवन सरल और सफल होने के लिए सौंदर्य अथवा सम्पन्नता महत्वपूर्ण नहीं होते , यद्दपि प्रतीत ऐसा होता तो है । अगर ऐसा होता तो डायना के सौंदर्य और प्रिंस चार्ल्स के वैभव के मध्य भी सामंजस्य स्थापित हो गया होता ।
दरअसल सारा सार अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच उपजे भावनाओं का ही है और कुछ नहीं ।
दरअसल सारा सार अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के बीच उपजे भावनाओं का ही है और कुछ नहीं ।
इन्ही उपेक्षाओं और अपेक्षाओं के बीच द्वन्द की कहानी जीवंत की है बेहद रोचक और वास्तविक अंदाज़ में Rashmi जी ने ।
इस उपन्यास को पढ़ना प्रारम्भ करते ही एक चलचित्र सा तैरने लगता है आँखों के सामने जिसे फिर छोड़ने का मन नहीं करता ।
कहानी बिहार की पृष्ठभूमि में जरूर लिखी गई है पर प्रासंगिक पूरे पुरुष जगत के लिए है ।
बस एक शिकायत है लेखिका से कि कहानी में एक पात्र अमित नाम का भी है जिसे दुष्ट दर्शाया गया है बस पढ़ते समय उसी चरित्र को पचाना थोडा मुश्किल लगा ।
इस उपन्यास को पढ़ना प्रारम्भ करते ही एक चलचित्र सा तैरने लगता है आँखों के सामने जिसे फिर छोड़ने का मन नहीं करता ।
कहानी बिहार की पृष्ठभूमि में जरूर लिखी गई है पर प्रासंगिक पूरे पुरुष जगत के लिए है ।
बस एक शिकायत है लेखिका से कि कहानी में एक पात्र अमित नाम का भी है जिसे दुष्ट दर्शाया गया है बस पढ़ते समय उसी चरित्र को पचाना थोडा मुश्किल लगा ।
यह समीक्षा कतई नहीं है । लेखिका के हुनर के समक्ष मेरा कुछ भी लिखना गौण है । बस अच्छा लगा इसे पढ़ कर और भीतर ही भीतर कुछ कचोट भी हुई न जाने क्यों । बस इसीलिए इतना सा लिख दिया ।
इन लिंक्स पर यह उपलब्ध है