खासकर महानगरों में यह समस्या ज्यादा है .अक्सर फ़्लैट में रहने की वजह से माता-पिता के साथ बच्चे कम ही रहते हैं.
इन सबके बावजूद आए दिन , लूट-पाट के लिए वरिष्ठ नागरिकों की ह्त्या की घटनाएं बढती जा रही हैं. अभी हाल में ही मुंबई पुलिस विभाग की तरफ से यह घोषणा की गयी है कि हर एक पुलिसकर्मी एक वृद्ध को adopt कर लेगा. उनकी सुरक्षा...उनके आराम उनकी सुविधा का ख्याल रखेगा. हमेशा उनसे मिलकर उनका हाल-चाल लेता रहेगा. फिर भी ये कहा जा रहा है कि यह कदम शत प्रतिशत कारगर सिद्ध नहीं होगा क्यूंकि वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बहुत ज्यादा है, जबकि पुलिसकर्मियों की कम. फिर भी कुछ फर्क तो पड़ेगा.
पर ऐसे में अगर एक साथी का साथ छूट जाए तो दूसरे के जीवन में किस कदर अकेलापन घर कर लेगा,यह कल्पनातीत है . मुंबई जैसे महानगर में तो असहनीय ही है. सरकार की तरफ से कई कदम उठाये जा रहे हैं. वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक हेल्पलाइन है. जहाँ दो पुलिसकर्मी चौबीसों घंटे लगातार फोन पर उपलब्ध रहते हैं. वरिष्ठ नागरिक उन्हें अपनी समस्याएं बताते हैं. ज्यादातर वे लोग सिर्फ कुछ देर तक बात करना चाहते हैं. कभी कभी यह कॉल दो दो घंटे तक की हो जाती है. अपने युवावस्था के सुनहरे दिन, छोटी-मोटी तकलीफें, रोजमर्रा की मुश्किलें ,इन्ही सबके विषय में बात करते हैं,वे.
इन सबके बावजूद आए दिन , लूट-पाट के लिए वरिष्ठ नागरिकों की ह्त्या की घटनाएं बढती जा रही हैं. अभी हाल में ही मुंबई पुलिस विभाग की तरफ से यह घोषणा की गयी है कि हर एक पुलिसकर्मी एक वृद्ध को adopt कर लेगा. उनकी सुरक्षा...उनके आराम उनकी सुविधा का ख्याल रखेगा. हमेशा उनसे मिलकर उनका हाल-चाल लेता रहेगा. फिर भी ये कहा जा रहा है कि यह कदम शत प्रतिशत कारगर सिद्ध नहीं होगा क्यूंकि वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बहुत ज्यादा है, जबकि पुलिसकर्मियों की कम. फिर भी कुछ फर्क तो पड़ेगा.
कुछ वरिष्ठ नागरिक जिनके बच्चे ज्यादातर विदेशों में हैं और अपने पैरेंट्स की देखभाल के लिए अच्छी रकम खर्च करने को तैयार रहते हैं. उनके लिए भी कुछ सुविधाएं हैं. सारी सुख सुविधा से परिपूर्ण 'ओल्ड एज होम्स ' हैं. जहाँ उनका अपना कमरा होता है.एक पर्सनल सर्वेंट होते/होती है. बढ़िया खान-पान की व्यवस्था ,स्वास्थ्य सुविधाएं, मनोरंजन के साधन और बातें करने को संगी-साथी भी होते हैं. करीब तीन लाख डिपोजिट और हर महीने सोलह हज़ार की रकम देनी पड़ती है. आम लोगों की तो इतना खर्च करने की हैसियत नहीं होती. पर हाँ,जिनके पास पैसे हैं, वे इन सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं. पर फिर भी एक ख्याल आता है..वहाँ बंधी बंधाई रूटीन होती है. एकरस दिनचर्या होती है. ज्यादातर लोग पूजा-पाठ में ही समय व्यतीत करते हैं.
हमारे धर्म में भी चौथा आश्रम 'वानप्रस्थ' का कहा गया है. पर कुछ ऐसा नहीं लगता जैसे बस अपने दिन गिन रहे हों ??..जाने का इंतज़ार कर रहे हों? पर फिर यह भी है..देखभाल..सुखसुविधा...मनोरं जन..संगी-साथी भी मिल जाते हैं.
पिछले कुछ वर्षों से जीवन की इस शाम की गहराती कालिमा को कुछ कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं. २००१ में नातुभाई पटेल ने एक संस्था की स्थापना की जिसके द्वारा अकेले पड़ गए वरिष्ठ नागरिकों के शादी के प्रयास किए गए. कई जोड़ों ने ब्याह किए पर नातुभाई पटेल को यह देख बहुत दुख हुआ कि कई शादियाँ टूट गयीं, कहीं पुत्रवधू ने नई सास को नहीं स्वीकार किया ,कहीं संपत्ति का विवाद छिड़ गया. जब २०१० में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दे दी तो २०११ में 'श्री लक्ष्मीदास ठक्कर' ने नागपुर में 'ज्येष्ठांचे लिव-इन रिलेशनशिप मंडल ' की संस्था द्वारा पुनः प्रयास किए कि वरिष्ठ नागरिक बिना विवाह किए एक दूसरे के साथ, रहकर बाकी का जीवन एक दूसरे के साथ बिताएं. उनके इस प्रयास को काफी सफलता मिली.
हालांकि यह सब आसान नहीं रहा. सम्मलेन के संस्थापक बताते हैं, वरिष्ठ नागरिकों और उनके परिवारजनों की काउंसलिंग करनी पड़ती है .क्यूंकि अभी समाज इसे सहजता से नहीं स्वीकार पाता. मुंबई के कमला दास ने दो साल पहले अपनी पत्नी को खो दिया है और वे इस तरह के सम्बन्ध में बंधना चाहते हैं. लोगों के विरोध पर वे कहते हैं, "युवजन क्या जाने कि अकेलापन क्या होता है..वे तो सारा समय मोबाइल के द्वारा या लैपटॉप के द्वारा किसी ना किसी से कनेक्टेड रहते हैं. मुश्किल हम जैसे लोगों के लिए है, जिनके लिए पहाड़ से दिन काटने मुश्किल हो जाते हैं "
विट्ठलभाई ने तीस साल की शादी के बाद अपनी पत्नी को खो दिया पिछले चार साल से वे अकेले हैं. उनके पुत्र-पुत्रवधू उनसे अलग फ़्लैट में रहते हैं. वे काफी अकेलापन महसूस करते थे. अब वीनाबेन के साथ वे लिव-इन रिलेशनशिप में हैं और काफी खुश हैं. उन्हें एक दूसरे से कोइ अपेक्षाएं नहीं हैं. दोनों एक दूसरे की आदत नहीं बदलना चाहते. बस साथ रहते हैं. वीनाबेन का भी कहना है..'अपने पति की मृत्यु के बाद पहली बार वे सुरक्षित महसूस कर रही हैं. पहले वे खाना खाना..अपनी दवाई लेना भूल जाती थीं. अब वे अपना और विट्ठलभाई का भी ध्यान रखती हैं कि अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें. दोनों एक दूसरे का ख्याल रखते हैं." वे कहती हैं.."मैने समाज के सामने कुछ साबित करने के लिए यह कदम नहीं उठाया है. बल्कि अपनी जिंदगी को आरामदायक बनाने के लिए ऐसा निर्णय लिया. जब मैं शादी शुदा थी और जब पति को खो दिया तब भी समाज तो कुछ ना कुछ कहता था...इसलिए समाज की क्या परवाह करें "
विट्ठलभाई का कहना है , "दुबारा शादी करने से ज्यादा सुविधाजनक है , लिव-इन रिलेशनशिप में रहना ..मुझे अपने बेटों को समझाने में छः महीने लग गए. उन्हें चिंता थी कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी संपत्ति कहीं वीनाबेन को ना मिल जाए. जबकि वे जानते थे मैं कितना अकेला हूँ, फिर भी उन्हें सिर्फ संपत्ति की ही चिंता थी." वीनाबेन की दोनों बेटियों ने माँ के इस निर्णय का समर्थन किया. नातुभाई पटेल ने २०११ में अहमदाबाद में ऐसे सम्मलेन आयोजित किए और कई वरिष्ठ नागरिकों ने लिव-इन रिलेशनशिप में रहने का निर्णय किया. २०१२ में श्री पटेल ने रायपुर, इंदौर, भोपाल में ऐसे कई सम्मलेन किए गए और हर शहर में इस सम्मलेन में करीब ३०० वरिष्ठ नागरिक शामिल हुए. उन्होंने कहा, 'इस व्यवस्था में दोनों पक्षों का एक दूसरे की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता. सारे नियम और शर्तें एक कागज़ पर लिखे जाते हैं और उस पर दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर किया जाता है. पर कई पुरुष स्वेच्छा से अपनी मृत्यु के बाद लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली संगिनी के लिए कुछ रकम छोड़ जाने का प्रावधान करते हैं. पर इसकी बाध्यता नहीं है.'
तिरसठ वर्षीय 'सरयू केतकर' , जो पुणे ज्येष्ठ लिव-इन रिलेशनशिप मंडल की महिला शाखा की अध्यक्षा हैं, वे कहती हैं.."हमें महिलाओं की भावनात्मक काउंसलिंग करनी पड़ती है...क्यूंकि अक्सर पति की मृत्यु के बाद उन्हें ज्याद उपेक्षाएं झेलनी पड़ती हैं. और उनके लिए ऐसे कदम उठाना बहुत ही मुश्किल होता है. हमलोग ग्रुप्स को पिकनिक पर ले जाते हैं ताकि वे एक दूसरे से बातें कर सकें...एक दूसरे को समझ सकें. अक्सर महिलाएँ अपने पति को छोड़कर किसी परपुरुष के संपर्क में आती ही नहीं. उनके कोई पुरुष दोस्त नहीं होते...इसलिए उन्हें परपुरुष से बात करने में झिझक सी होती है. "
अभी तक मुझे भी व्यक्तिगत रूप से ,ऐसा ही लगता था..अगर जीवन की सारी जिम्मेवारियाँ पूरी हो गयी हैं. बच्चे अपने पैरेंट्स का ख्याल रखते हैं तो फिर उन्हें दुबारा किसी जीवनसंगी की क्या जरूरत है? पर MID Day अखबार में छपे एक आलेख और इंटरनेट पर बिखरी हुई सम्बंधित सामग्री ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. अब अगर कोई वरिष्ठ नागरिक ऐसा निर्णय लेते हैं तो उनके इस निर्णय के प्रति आदर ही रहेगा,मन में.