रविवार, 27 अक्तूबर 2013

हमें अपने आंसू पोंछकर मुस्कराना ही होगा ,डॉ. कौसर...आपके लिए

दुनिया में नए नए लोगों से मुलाक़ात होती है . कुछ लोगों से आपके विचार मिलते हैं ,आपकी दोस्ती होती है फिर दोनों अपने अपने काम में उलझ जाते हैं ,दोस्ती की डोर इलास्टिक सी खींच जाती है पर टूटती नहीं और जब एक झटके से एक सिरा छूट जाता है, तब दूसरा सिरा थामे रहने वाले को इतनी गहरी चोट लगती है कि उम्रभर उस से उबरना असंभव हो जाता है.
 

ऐसा ही कुछ अपने अज़ीज़ मित्र प्रसिद्द मनोविज्ञानिक 'डॉ. कौसर अब्बासी 'के जाने के बाद महसूस हो रहा है, जिन्हें नियति के क्रूर हाथों ने चालीस बसंत भी नहीं देखने दिए और एक मैसिव हार्ट अटैक देकर हम सबसे दूर कर दिया .

करीब सात वर्ष पहले मैंने ऑर्कुट पर एक कम्युनिटी ज्वाइन की थी, 'BOOK LOVERS COMMUNITY '. ..उस कम्युनिटी में लोग अपनी पढ़ी किताबों पर अपने विचार रखते. एक एक पुस्तक पर दिनों चर्चा चला करती थी .वहीँ
डॉ. कौसर से किताबों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ .उन्होंने मुझे Brida  और  Many Lives Many Masters  किताब पढने की सलाह दी. मैंने सीधा कह दिया, "मैं इस तरह की किताबें  नहीं पढ़ती"  फिर भी उन्होंने बहुत समझाकर कहा, "पढ़ कर देखिये रिग्रेट नहीं करेंगी " .और सचमुच अफ़सोस  नहीं हुआ. मैंने भी कई लोगो को उस किताब को पढने की सलाह दी .मेरे ब्लॉग की  एक पाठिका  ने तो हाल में बताया कि उसने वो किताब पढ़कर फेसबुक पर ' Brian Weiss ' के  fans की एक  कम्य्नुनिटी भी  ज्वाइन की और Brian Weiss से एक बार चैट भी की (और हमें पता भी नहीं ऐसी कोई कम्युनिटी भी है ).  किताबों पर काफी बातें हुईं और कौसर और मैं अच्छे दोस्त बन गए .
 

उन्ही दिनों मेरे बेटे  टीनेज में प्रवेश कर रहे थे और उनकी बदलती आदतें , उनके tantrums  से मैं अक्सर दुखी और परेशान होकर कौसर से जिक्र करती. दोस्त होने के नाते सहानुभूति के दो शब्द की अपेक्षा रखती  थी, पर वो सीधा कहते ,"सॉरी मैम...आइ विल आलवेज़ बी विद चिल्ड्रेन " और दस मिनट में ही उनकी बातों से मुझे बच्चों के नज़रिए से चीज़ों  को देखने में मदद मिलती और मन शांत हो जाता .कभी मैं कह भी देती , "आप मेरे दोस्त हैं या बच्चों के?.हमेशा उनका पक्ष लेते हैं " वे कहते ,"दोस्त तो आपका ही हूँ, इसीलिए चाहता हूँ ,बच्चों और आप के बीच  दूरी न आये और वे आपको कभी गलत न समझें " मेरे बेटों से मेरे मित्रवत व्यवहार का बहुत सारा श्रेय  डॉ .कौसर को जाता है. उन्होंने मेरे बेटों  से भी बात की थी और कहा था," मेरा नंबर सेव कर लो, जब कभी मम्मी डांटे,मुझसे शिकायत करना " मैं उनका ट्रिक समझ गयी  थी, वे चाहते थे  कि जब भी कभी उन्हें ऐसा लगे कि  मम्मी-पापा से कोई बात शेयर नहीं कर सकते, उनसे बात कर लें और साथ ही ये कोशिश भी कर गए थे कि वे माता-पिता से सब शेयर करें  ,बेटे बहुत खुश  थे क्यूंकि उन्होंने, उन्हें  Hi buddy कहकर संबोधित किया था और खुद को अंकल कहने से मना कर दिया था .
 
डॉ.कौसर अपने काम में निष्णात थे , पूरे हफ्ते नागपुर में पेशेंट देखते और अक्सर सन्डे को मुंबई  से किसी पेशेंट के लिए बुलावा आ जाता  . हाल  में ही उन्होंने बहुत ही बड़ा और ख़ूबसूरत क्लिनिक बनवाया था , और मैंने उसकी फोटो देख ,पेशेंट के वेटिंग रूम वाली फोटो पर मजाक में कमेन्ट किया था , ' इन कुर्सियों पर किसी को न बैठना पड़े " बुरा माने बिना उन्होंने एक स्माइली चिपका दी थी .इसके साथ ही नागपुर की हर सामाजिक गतिविधियों में शामिल होते थे . कितने समारोहों के चीफ गेस्ट , कही झंडा फहराने जाना , कहीं क्विज़ कम्पीटीशन कंडक्ट करना, अक्सर प्रोग्राम होस्ट करना ,कॉन्फ्रेंस  में भाग लेना , कभी आमलोगों के लिए वर्कशॉप  कभी जेल के कैदियों के लिए वर्कशॉप . समारोह में तिलक लगा कर उनका स्वागत किया जाता . दूसरे धर्म  के होते हुए भी तिलका लगवाते हुए ,हमेशा उनका दाहिना हाथ सर पर होता . वे दूसरे धर्म का सिर्फ सम्मान ही नहीं करते थे बल्कि उसके रिवाज का भी ध्यान रखते थे .
 
इन सबके बीच विदेश से भी किसी कॉन्फ्रेंस में पेपर पढने के लिए बुलावा आ जाता. अखबारों के लिए आलेख लिखते. टी.वी पर सलाह देते . मानसिक बीमारी को अक्सर लोग पागलपन समझ लेते हैं . डॉ. कौसर इस धारणा के निर्मूलन के लिए कटिबद्ध थे ,इस से सम्बंधित  ढेरों आलेख अखबार में लिखते ,हाल में ही  TOI में उनका आलेख आया था  social stigma  is  main hurdle in treating schizophrenia , इतना सारा काम वे कर लेते थे मानो  जैसे उनके लिए दिन में चौबीस नहीं बहत्तर घंटे होते थे .

पर इतने काम के बीच भी अपने दस साल के बेटे 'अमान' के स्कूल  के स्पोर्ट्स डे, एनुअल डे ,उसका कोई फंक्शन ,मकर संक्रांति को उसके साथ छत पर पतंग उडाना ..उसके  हॉकी मैच देखने जाना ,अपनी पत्नी भावना के साथ वैकेशन पर जाना , उनके साथ पिकनिक ,पार्टी अटेंड करना ...नहीं टालते .फेसबुक पर उनकी इन सारी गतिविधियों की ढेर सारी फ़ोटोज़ हैं , (जिनकी तरफ देखना भी अब मुश्किल लगता है ) बिलकुल हाल की एक पार्टी की बड़ी प्यारी सी फोटो है, अपनी पत्नी
डॉ. भावना को घुटनों के बल बैठ कर फूल देकर प्रपोज़ कर रहे हैं . जबकि असलियत अचनाक ही  प्रपोज़ कर दिया  था .  डॉ. भावना ने बताया था . एक दिन वे कौसर के क्लिनिक आयी थीं और डॉ. कौसर .ने मुझसे चैट करवाई थी.पर उन दिनों भावना की टाइपिंग स्पीड ज्यादा नहीं थी और उन्होंने  मुझसे फोन पर बात करना बेहतर समझा...फोन नंबर एक्सचेंज हुए और लम्बी बात हुई. (कौसर पेशेंट देखने चले गए थे )   उन्होंने अपनी शादी का किस्सा सुनाया .  भावना और  कौसर मेडिकल कॉलेज में साथ पढ़ते थे और बेस्ट फ्रेंड्स थे . धीरे -धीरे कौसर को अहसास होने लगा कि भावना से अच्छी जीवनसंगिनी उन्हें नहीं मिलेगी. उन्होंने प्रपोज़ किया पर भावना ने रिफ्युज़ कर दिया . कौसर ने उनके इनकार का  सम्मान किया , क्यूंकि उन्हें पता था एक हिन्दू लड़की का किसी मुस्लिम लड़के से शादी का निर्णय कितना मुश्किल  है. पर दोस्ती कायम रखी और कुछ महीनों  बाद भावना ने स्वीकार कर लिया . इस नवम्बर में उनकी शादी  को   बारह साल हो जाते . क्या डॉ. कौसर को ये अहसास था कि उनके  पास समय कम है, इसीलिए शायद जो ज़िन्दगी लोग अस्सी बरस में भी नहीं जी पाते, डॉ. कौसर ने  चालीस से भी कम उम्र में जी ली.

एक दिन
डॉ. कौसर पत्नीश्री के साथ समय बिताने के लिए छुट्टी लेकर बैठे थे पर नेट पर टाइम पास  कर रहे थे .मेरे पूछ्ने पर बताया कि ,"एक बच्चे ने इसी वक़्त दुनिया में आना तय कर लिया है, इमरजेंसी आ गयी है , इसलिए भावना को उसके स्वागत  के लिए हॉस्पिटल  जाना पड़ा ." मैंने थोड़ी खिंचाई की , "अच्छा है , साइकियाट्रिस्ट को कभी  इमरजेंसी कॉल्स नहीं आते " कौसर तो हंस कर टाल गए पर शायद ईश्वर को मेरी यह बात नहीं जमी  ,और मुझे सच्चाई से रु ब रू करवा दिया . थोड़ी देर में ही कौसर ने कहा , "एक इमरजेंसी है..सुसाइड केस है, जाना पड़ेगा "  दो घंटे में वे वापस भी आ गए  और बताया कि 'एक लड़की ने खुद को कमरे में बंद कर लिया था और कलाई की नस काटने की धमकी दे रही थी ." फिर इन्होने बात की और आधे घंटे के अन्दर उसने दरवाजा खोल दिया. मुझे आश्चर्य  हुआ..'ऐसा क्या कहा आपने ??" उन्होंने भी हंस कर कहा, ""इसी की तो पढ़ाई की  है ..ट्रेनिंग ली है...वो सुसाइड से ज्यादा अटेंशन सीकर बिहेवियर था " यह बता कर वे तो कुछ पढने -लिखने में लग गए पर मैं देर तक सोचती रही ,क्या बात की होगी ,क्या कहा होगा...जो लड़की मान गयी "
 

पर बात करने का हुनर तो उनका ऐसा था जो एक बार मिले वो दोस्त बने बिना न रह सके , बातों बातों में वे इतनी कोट करने लायक बातें  बोल जाते थे कि मैं कभी कभी कह देती..'ये सब याद कर रखा है..या आपका खुद का है ??" और वे अपने चिर परिचित अंदाज़ में कहते .."सब मिला जुला है..बातों का ही तो खाते हैं, भाई ". यह उनका तकिया कलाम था . इन सात वर्षों की दोस्ती में कभी डॉ. कौसर से मेरी कोई अनबन ,कोई मनमुटाव नहीं हुआ . पर शायद एक मैं ही ऐसी नहीं थी, उनके दोस्त भी उनके बारे में यही कहते थे , सब उनकी जिंदादिली , उनके उदार ह्रदय की ही बात  करते थे .एक बार उनके दोस्त ने उनके बारे में लिखा था ,"  I know this animal since last 17 years....and never saw him getting angry.. Very genuine person and very approachable!!! I can find him whenever i need him.. Always willing to help!          और मैंने उसे पढ़ उनसे पूछ लिया था , "क्या आपको सचमुच  कभी गुस्सा नहीं आता ." और उन्होंने कहा , "बिलकुल आता है..getting angry is normal but when n where that is important ' शायद यही फौलो करते होंगे ,इसीलिए किसी को उनके गुस्से से परेशानी नहीं होती होगी .

जब मैंने ब्लॉग बनाया ,शायद इसकी सबसे ज्यादा ख़ुशी
डॉ. कौसर को हुई थी. वे मेरे सिर्फ होम मेकर होने से बहुत नाखुश थे . अक्सर कहते ,"आपमें इतना पोटेंशियल है ,आप समाज को बहुत कुछ दे सकती हैं " मैं कह देती, " बेटों का पालन-पोषण कर दो अच्छे  नागरिक तो दिए समाज को " और वे तुरंत कहते, "एक अच्छा नागरिक समाज से छीनकर ??...ये तो घाटे का सौदा हुआ ...तीन लोग कंट्रीब्यूट कर सकते थे "  इसीलिए मुझे फिर से लिखते देख वे बहुत खुश होते थे . दसवीं के बाद ही हिंदी पढने-लिखने से नाता टूट गया था उनका, फिर भी डॉ. कौसर ने मेरे ब्लॉग के पोस्ट पढ़े , ब्लॉग पर डाली मेरी पहली नॉवेल  भी पढ़ी ,और अपने अंदाज़ में एक पंक्ति में ही पूरा सार समेट दिया ," take off and landing was perfect and journey was beautiful too "  मैं उनसे कभी मिली नहीं थी , उनकी रिश्तेदार नहीं थी ,कोई बहुत पुरानी बचपन की दोस्ती भी नहीं थी  और न नॉवेल ही कोई मास्टरपीस था पर उन्हें किसी का भी उत्साह बढाने , उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देने का जूनून था,उन्हें  .फेसबुक पर भी अक्सर मेरे , स्टेटस ,मेरी पोस्ट के लिंक से ब्लॉग पर जाकर पोस्ट पढ़ लेते और दो लाइन में इन्बौक्स में मेसेज जरूर छोड़ देते.

कोई व्यक्ति भी दस मिनट भी उनसे बातें करने के बाद ,अपने को गुणों का खान समझने लगता ,इतने positive vibes मिलते ,थे उनसे. . अपनी, अपनी फ्रेंड्स की , समाज से सम्बंधित कई  उलझनों के बारे में उनसे चर्चा की है और उन्होने हमेशा ध्यान से सुन कर हल सुझाए . दोस्तों के लिए वे बस एक फोन कॉल की दूरी पर  थे, कितने भी व्यस्त हों कॉल बैक जरूर करते थे , मेल का रिप्लाई जरूर करते थे ,चाहे पार्किंग लॉट में गाडी खड़ी कर मेल भेजना पड़े .
.
पर क्या कभी ये सब मैंने उनसे कहा  ? नहीं ,हम जरूरत ही नहीं समझते . जब लोग हमारे  आस-पास होते हैं तो बस खिंचाई , नोंक झोंक...चिढाना-खिझाना  यही सब चलता है ...उनके चले जाने के बाद लगता है...कितना कुछ रह गया, कहना ...काश कहा होता .

मैं जब भी किसी फिल्म, किताब या  व्यक्ति के बारे में लिखती हूँ, तो उनकी नेगेटिव साइड जरूर ढूंढती हूँ. पर मुझे कोशिशों के बाद भी
डॉ. कौसर के विषय में कुछ नहीं मिल रहा . इसलिए नहीं कि वे मेरे दोस्त थे..इसलिए नहीं कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं ...बस कुछ लोग होते ही ऐसे हैं. ..उनकी FB वॉल देखकर ऐसा लग रहा है, दोस्तों ने अपने दिल निकाल कर रख दिए हैं...सब इतना मिस कर रहे हैं, जिसे शब्दों  में बयान करना मुश्किल है . 'डॉ. भावना' और 'अमान' से बढ़कर हमारा दुःख नहीं है ...पर उनके चले जाने का दर्द  हम सबको भी उतना ही महसूस हो रहा है .

एक बार बातों के दरम्यान उन्होंने मुझसे पूछा था, मेरे लिए दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है ?
मैने क्या जबाब दिया मुझे नहीं याद  पर
डॉ. कौसर का जबाब याद  है , "I love to make people happy
 anyone
  anywhere
if i make a crying one smile i really love it.  सबके चहरे पर स्माइल लाने वाला ..इतने चेहरों को रुला कर  चला गया...अब इन चेहरों पर कौन लायेगा स्माइल??.... कैसे आएगी कोई  स्माइल ??

पर हमें अपने आंसू पोंछकर मुस्कराना ही होगा...अपना दुःख पीना ही होगा ... कौसर के लिए ...वे किसी को भी दुखी नहीं देख सकते थे .आप जहाँ भी हैं ,जिस जहां में हैं
डॉ. कौसर, हमेशा खुश रहें . हम अपने दुःख से आपको दुखी नहीं होने देंगे ...अलविदा डॉक्टर .  डॉ. कौसर के जीवन की कुछ और झलकियाँ ,जिनमें अब और तस्वीरें नहीं जुड़ेंगी  














मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

दिमाग के परदे पर देर तक चलती रहनेवाली फिल्म : शाहिद

वकील शाहिद आज़मी
बड़े दिनों से किसी फिल्म पर नहीं लिखा...पर हाल-फिलहाल में कोई ऐसी फिल्म भी नहीं देखी जो परदे पर देखने के बाद ,देर तक दिमाग के परदे पर भी चलती रहे. यह फिल्म थी 'शाहिद' एक सच्चे व्यक्ति के जीवन पर आधारित सच्ची कहानी ,जो वैसी की वैसी ही फिल्माई गयी है .
फिल्म 'शाहिद' मुंबई के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता 'शाहिद आजमी' के जीवन से प्रेरित है, जिन्होंने गलतियां की ,उन्हें सुधारा और पैसे का लालच न कर उन गरीब लोगों की सहायता के लिए आगे आये जिनका कोई नहीं था. सात साल के अपने वकालत के कैरियर में उन्होंने 17 लोगों को झूठे मुक़दमे से छुड़ा कर बरी करवाया और अपनी इसी कोशिश में २०१० में स्वार्थी लोगों के गोली के शिकार भी हो गए.
निर्देशक हंसल मेहता ने इतनी ईमानदारी से यह फिल्म बनाई है कि उनके परिवार जनों ने भी कहा कि यह  फिल्म
९५% 'शाहिद आज़मी' के जीवन से जुडी सच्ची घटनाओं पर आधारित है.

हम अक्सर कहीं पढ़ते हैं कि कमउम्र के नौजवान गुमराह होकर पाकिस्तान द्वारा चलाये गए कैम्प में शामिल हो जाते हैं ,पर जब उनका मोहभंग हो जाता है, फिर भी उन्हें वहाँ से निकलने की कोई राह नज़र नहीं आती. शाहिद आज़मी भी ऐसे ही एक नौजवान थे जो  मुंबई के १९९३ के दंगों का नज़ारा देख , सोलह वर्ष की उम्र में भागकर पाकिस्तान द्वारा चलाये गए कैम्प में शामिल हो गए पर वहाँ के क्रियाकलाप देख बहुत जल्दी समझ गए कि वो गलत थे और जान की परवाह न कर भाग निकले. मुम्बई में आकर सामान्य जीवन जीने की कोशिश करने लगे और अपनी छूटी पढ़ाई दुबारा शुरू की, लेकिन पुलिस एक दिन उन्हें आतंकवादी होने के शक में जेल में डाल देती है. जेल में कैदियों को यातना देने वाले दृश्य बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्वक फिल्माए गए हैं. वहाँ की असलियत भी पता चल जाती है, और घबरा कर आँखें  भी नहीं बंद करनी पड़तीं . जेल में उन्हें अच्छे  बुरे दोनों तरह के लोग मिलते हैं ,एक जो उनका ब्रेनवाश कर फिर से जेहादी बनाना चाहते हैं, और दुसरे के .के मेनन जैसे लोग जो उन्हें पढाई जारी रखने के लिए प्रेरित करते हैं . (के.के. मेनन मेरे फेवरेट एक्टर हैं, पर उनका रोल बहुत छोटा था पर इम्प्रेसिव था ) ज़िन्दगी में भी तो हमें ऐसे ही लोग मिलते हैं पर यह व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है कि वो किसका साथ चुने और किसकी बात सुने .
 

शाहिद जेल में और जेल से छूटने के बाद भी लगन से अपनी पढ़ाई करते हैं और वकालत पास कर ,पैसे के लालच में झूठे मुक़दमे न लड़ कर गरीबों के मुक़दमे लड़ते हैं , जिनके पास फीस देने के पैसे नहीं होते और अक्सर जिन्हें बिना किसी ठोस सबूत के केवल शक के बिना पर जेल में डाल दिया जाता है. अपने कार्य में उन्हें बहुत विरोध भी सहना पड़ता  है, फोन पर लगातार धमकियां भी मिलती हैं, कभी चेहरे पर कालिख भी मल दी जाती है.फिर भी वे पीछे नहीं हटते और आखिरकार एक गैंगस्टर की गोलियों के शिकार हो जाते हैं.
फिम शाहिद में राजकुमार यादव


फिल्म में राजकुमार यादव ने जैसे 'शाहिद आज़मी' के किरदार को अभिनीत नहीं किया बल्कि जिया है . सुना है ,उन्होंने  शाहिद आज़मी के भाइयों से कई बार मिलकर उनकी बौडी लैंग्वेज़ ,उनके चलने का अंदाज़, उठने बैठने का तरीका, मैनरिज्म सीखने की  कोशिश की . फिल्म में  एक और चीज़ बहुत अच्छी लगी , शाहिद आज़मी के भाइयों का बल्कि पूरे परिवार का आपस में प्यार.(जो सच में भी होगा )  शाहिद के बड़े भाई, हर कदम पर उनका  साथ देते हैं, उन्हें जेल से छुडाने से लेकर , उनकी पढ़ाई का खर्च , वकालत पास कर लेने के बाद उनका ऑफिस सेट अप करने का खर्च. वे  लोन पर लोन लेते जाते हैं पर शाहिद की मदद करते हैं. और शाहिद भी एक आम इंसान हैं, भगवान नहीं...इसलिए उनमें मानवीय कमजोरियां भी हैं. परिवार वालों को बिना बताये ,वे एक तलाकशुदा महिला ,जो एक बच्चे की माँ भी है, मरियम से प्यार और शादी भी कर लेते हैं. अपने बड़े भाई पर परिवार का सारा बोझ डाल, वे अपने काम में लगे होते हैं और मरियम के साथ रहने लगते हैं. शायद समाज के लिए..दूसरों के लिए,गरीबों के लिए  कुछ करने का ज़ज्बा रखने वालों का अपना परिवार उपेक्षित ही रहता है. मरियम और उसके बच्चों को भी वे समय नहीं दे पाते .
कोर्ट रूम के दृश्य बहुत ही वास्तविक लगते हैं . आमलोग जो फिल्मों और टी.वी. से ही कोर्टरूम से परिचित हैं उन्हें न यहाँ साफ़ सुथरे बड़े से विटनेस बॉक्स दिखेंगे ,न जज के हथौड़े  की ठक ठक और न ही वकीलों का योर ऑनर कहते चीखना-चिल्लाना . वकीलों की आवाज़ भी तेज होती है...बहस तीखा होता है, एक दूसरे पर छींटाकशी भी होती है पर सब कुछ नकली नहीं बल्कि बहुत ही सहज लगता है. जज भी यहाँ उतने हेल्पलेस नहीं लगते और उनके प्रति भी सम्मान जागता है, मन में .

बहुत ही कम बजट में बनी यह यथार्थवादी फिल्म , शायद फिल्म में मनोरंजन ढूँढने वालों को पसंद न आये .पर ऐसी फ़िल्में देखनी चाहियें क्यूंकि समाज में ऐसे लोगों के विषय में हम बस अखबारों में चंद सतरें पढ़ते हैं और भूल जाते हैं...जब कोई निर्माता-निर्देशक हिम्मत कर उनके  जीवन को परदे पर उतारता है तब हमें,उनके विषय में विस्तार से  पता चलता है और फख्र भी होता है कि समाज में ऐसे लोग भी होते हैं.
फिल्म के हर कलाकार ने बहुत ही अच्छा काम किया है. मरियम के रोल में 'प्रभलीन संधू 'और बड़े भाई के रूप में 'मोहम्मद जीशान अय्यूब, का अभिनय बहुत प्रभावशाली है .


इस फिल्म को देखकर  हम शाहिद आज़मी को उनके किये काम  के विषय में जान पा रहे हैं ,पर उनका परिवार जो उन्हें भीतर-बाहर से जानता था , यह फिल्म देखने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. शाहिद आज़मी के छोटे भाई 'खालिद आज़मी ' भी वकालत करते हैं और शाहिद  आज़मी के ही नक्श-ए-कदम पर चलकर गरीबों के हक के लिए काम कर रहे हैं .

फिल्म शुरू और ख़त्म इसी पंक्ति से होती है ,जो कितना सही प्रतीत होता है..."ज़ुल्म सहने वालों और ज़ुल्म करने वालों दोनों का कोई मजहब नहीं होता. मरता भी इंसान है और मारता भी इंसान है "


गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

देवी के द्वार पर देवियों की ही अधिक भीड़ क्यूँ ??

अभी मध्यप्रदेश में भगदड़ में 115 लोगों   की  मौत हुई. कितने पुरुष और कितनी स्त्रियाँ इस हादसे की शिकार हुईं...सही आंकड़े तो मुझे नहीं पता पर टी.वी. पर ब्लर्ड तस्वीरों में भी लाल -पीले -हरे रंग ही ज्यादा दिख रहे थे. जाहिर हैं महिलाओं की साड़ियों के रंग थे . भगदड़ में वैसे भी महिलायें और बच्चे ही ज्यादा हताहत होते हैं. शारीरिक रूप से वे लोग ज्यादा कमजोर होते हैं .पर एक सच यह भी है देवी दर्शन के लिए जाने वालों में महिलाओं की संख्या ही ज्यादा होती है. 

कहीं भी देवी दर्शन हो, पूजा हो ..माता की  चौकी हो...महिलायें ही अधिक संख्या में शामिल होती है . इन तथाकथित गुरुओं के यहाँ जाने वालों में भी महिलायें ही ज्यादा होती हैं. जब आसाराम काण्ड ,प्रकाश में आया तो कई  जगह पढने को मिला, उनके प्रवचनों में महिलायें ही अधिक संख्या में उपस्थित होती थीं .  ये सवाल भी उठाये जाते हैं, स्त्रियों के साथ शोषण भी होता है और फिर भी बेवकूफ की तरह स्त्रियाँ ही सैकड़ों की संख्या में उनके भक्तों में शामिल होती हैं. 
 
गाँव-क़स्बों में औरतें जिन दयनीय हालात में जी रही होती हैं कहीं न कहीं उनका कारण भी वह नसीब या पिछले जन्म को मानने लगती हैं और धार्मिक अंधविश्वासों की चपेट में आकर अपने  वर्तमान और अगले जन्म की तकलीफों को दूर करने के फेर में पड़ जाती हैं . उन्हें अपने दुखों से छुटकारे का दूसरा उपाय नज़र नहीं आता. वे करुणा से इतनी भरी होती हैं कि ईश्वर से अपने पति और बच्चों के बुखार तक को ठीक करने की खातिर जाने कितने कर्मकाण्ड करने को तैयार रहती हैं, जबकि खुद को कैंसर भी हो तो यूँ ही मजाक में उड़ा देती हैं.  

जिस घर में जितनी अधिक समस्या, वहां की अशिक्षित या अल्पशिक्षित महिलायें उतनी ही अधिक धर्म के नाम पर अंधविश्वास की तरफ़ झुकी होती हैं, ज़रा किसी को कुछ हुआ नहीं कि थैलाछाप या छुटभैये देवी देवताओं से लेकर बालाजी और केदारनाथ तक के देवताओं से मनौतियाँ  मांगने लगती हैं .

इन सबकी वजह  अशिक्षा ,तार्किक बुद्धि का अभाव , धार्मिक आस्था तो है ही. इसके साथ ही  उनकी दैनंदिन की एकरसता भी एक वजह है. ज्यादातर मध्यमवर्गीय स्त्रियाँ नौकरीपेशा नहीं हैं और बचपन से वे वही काम कर रही हैं,घर संभालना...खाना बनाना , घर के सदस्यों की देखभाल . उनके जीवन में गहन नीरसता व्याप्त हो जाती है.  हमारे यहाँ कभी भी मनोरंजन के लिए जीवन में कोई स्थान नहीं होता. आजकल टी.वी. आया है...पर वो भी तो घर के अन्दर ही देख सकती  हैं . घर से बाहर जरा अच्छे कपडे पहन कर ,तैयार होकर निकलें ऐसा मौक़ा बहुत कम मिलता है. पिकनिक, पार्टियों का कोई प्रचलन नहीं  है. गरीबी तो एक वजह है ही. पर हमारे कल्चर में भी यह शामिल नहीं है. जब दूसरे देशों का साहित्य पढ़ती हूँ  तो पाती हूँ, वहाँ गाँव-गाँव में भी हॉल बने होते हैं, जहां सप्ताहांत में या महीने में एकाध बार ,स्त्री पुरुष मिलजुलकर गाते -बजाते -नाचते हैं .और उसके बाद रिफ्रेश होकर फिर से अपने रूटीन काम में लग जाते हैं.


हमारे यहाँ भी दूसरे रूप में यह सब विद्यमान था . पहले गाँव -कस्बों में किसी की शादी की  तैयारियां ही पंद्रह दिन चलती थीं.  स्त्रियाँ अपने घर का काम ख़तम कर शादी ब्याह वाले घर में काम संभालतीं . मंगलगीत गाते हुए पापड, बड़ियाँ,अचार बनातीं ....हंसी-मजाक के साथ -साथ सिलाई -कढ़ाई का काम चलता रहता .ढोलक की थाप पर नाच-गाना होता था ,पर अब वे सब कहीं पीछे छूट गए हैं. संयुक्त परिवार से एकल परिवार होते जा रहे हैं. मनोरंजन के नाम पर बस एक टी.वी. का सहारा . पर उस से कितना मनोरंजन होता है, यह सबको ज्ञात है. बल्कि टी.वी. मोबाइल ने घर वालों की ही आपस में बातचीत बंद करवा कर रखी है. फिर रूटीन में थोड़े से बदलाव के लिए यही पूजा-पाठ ,धरम करम , माता की  चौकी , गुरुओं के प्रवचन सुने जाते हैं.
 इन सबमें शामिल होने  के लिए न तो घरवाले न ही रिश्तेदार उन्हें बातें सुनाते हैं. वरना यही महिलायें अगर फिल्म देखने ,पार्टी-पिकनिक के लिए जाने लगें तो उन्हें सौ बातें सुननी पड़ेंगीं .

अपना ही अनुभव बताती हूँ. मुझे फिल्मों का शौक है, यह तो मेरे ब्लॉग  पोस्ट्स से ही ज्ञात होता है . सहेलियों के साथ फिल्मे देखने जाना .एक दुसरे के बर्थडे पर साथ मिलकर लंच के लिए जाना हमें अच्छा लगता है  . हम सब FB पर अपनी आउटिंग की तस्वीरें भी डाला करते थे . मुझ सहित मेरी हर सहेली को रिश्तेदारों से सुनना पड़ा..."ये लोग तो मजे करती हैं...बस घूमती  रहती हैं " इतनी दूर बैठे रिश्तेदारों को क्या पता कि हम घर की जिम्मेवारियों से मुहं घुमा कर या  सारी जिम्मेवारियां पूरी कर के जाते हैं ?? पर उन्हें तो उंगलियाँ उठाने से मतलब . वैसे हमें परवाह नहीं होतीं, पर बेकार के व्यंग्य कौन सुने ,यह सोच हमने तस्वीरें डालनी ही बंद कर दीं . आज  भी हमारे समाज में स्त्रियों का हँसना -बोलना, खुश रहना, घूमना-फिरना सहज स्वीकार्य नहीं है.

पर यही अगर तीर्थस्थान ,मंदिर, पूजा-पाठ के लिए स्त्रियाँ जाएँ तो लोग ऊँगली नहीं उठाएंगे . बल्कि शायद धरम-करम करने के लिए तारीफ़ ही मिले. इसलिए स्त्रियों को दोष देना कि वे बाबाओं के प्रवचन में जाती हैं...व्यर्थ के कर्मकांड करती हैं...फ़िज़ूल है. सारी स्त्रियों को अच्छी शिक्षा मिले , वे भी व्यस्त रहें , उन्हें भी मनोरंजन के मौके मिलते रहे तो इन सबमें ,उनका शामिल होना शायद कम हो जाए .

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

लेखा-जोखा चार बरस का

कई ब्लॉग्स पर साइड बार में लेबल लगा देखती हूँ , अच्छा लगता है देख, सारा लेखा-जोखा रहता है  वहां, किस विषय पर कितना लिखा गया . उन पोस्ट्स तक पहुंचना भी आसान  .जब भी नज़र पड़ती है ,  सोचती हूँ , 'हां ! मुझे भी ऐसा करना है ' पर मुझे लिखने के सिवा सारे काम सरदर्द लगते हैं . या कहूँ, परम आलसी हूँ इन सबमे , कई बार मित्रों ने कोई कहानी पढ़ कर कहा है , "इसे फलां पत्रिका में भेज दीजिये ." और मैंने उस वक्त तो हामी भर दी ...पर फिर टलता ही गया .उस वक़्त मुझे pdf file बनानी  भी नहीं आती थी, एक बार एक  कवि मित्र ने अपनी सदाशयता दिखाते हुए उस कहानी  की pdf file बना कर भी भेज दी ,उस प्रतिष्ठित पत्रिका की इमेल आई डी के साथ ..पर हमारा कल भेजने का प्लान कभी आज में तब्दील नहीं हो पाया .( अभी बच्चे होते तो इस बात के लिए कितनी डांट सुन जाते और मैं जैसे शान से बता रही हूँ ,नहीं...बता नहीं रही  ये बस loud thinking ...जैसा है :). पहले ही स्वीकार चुकी हूँ, ब्लॉग्स पर लिख लिख कर सोचती हूँ  ) . वजह, बस वही बुरी आदत.... सब कुछ समेटने के चक्कर में कुछ न कुछ या शायद बहुत कुछ तो फिसल ही जाता है , हाथों से :(

खैर आज का दिन तो उदासी का नहीं , क्यूंकि पिछले 21 सितम्बर को , ब्लॉगजगत में प्रवेश किये मुझे चार साल हो गए. और ये भूमिका इस लिए लिखी कि लेबल लगाने में तो थोडा वक़्त लगेगा (अगर मैं उस कार्य की शुरुआत करूँ ) .पर तीव्र इच्छा थी कि इन चार सालों में क्या क्या लिख डाला है, ज़रा एक बार बही खाता उलट-पुलट तो लूँ .और ये इतनी  मेहनत वाला काम कर ही डाला (ढेर सारे ब्रेक लेकर ) . देखकर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी भी हुई और थोडा संतोष भी ...चाहे और काम में किये हों पर कागज़ काले करने में कोई कोताही नहीं की .

 

कहानी - 10
उपन्यासिका या लम्बी कहानी - 9 (17,14,14,4,3,2,2,2 ) किस्तों वाली .
कविता -9
सामजिक आलेख - 63
संस्मरण -- 86
स्त्री सम्बन्धी आलेख -31
बच्चों सम्बन्धी आलेख -- 15
खेल सम्बन्धी -- 11
फिल्म सम्बन्धी -- 21
 

इन सबके अलावा, कुछ व्यंग्य ,अखबारों में पढ़ी किसी खबर से सम्बंधित पोस्ट्स , परिचर्चाएं, अतिथि पोस्ट , नाटक और किताबो से सम्बंधित पोस्ट, ..इत्यादि हैं.

पर साथ में यह भी सच है कि हर वर्ष पोस्ट्स की संख्या कम होती जा रही है . (यहाँ हम यह कह कर निकल सकते हैं कि अब लिखने में quality  आ गयी है, इसलिए  quantity पर असर पड़ा है. जबकि सच ये है कि हम सुधरने वालों में से नहीं हैं, जैसी पहली दूसरी तीसरी लिखी थी, आज चार सौ पोस्ट लिखने के बाद भी ,कुछ बदलाव नहीं आया (ऐसा हम नहीं ज़माना कहता है.. ज़माना अर्थात हमारे पाठक. अब हमारे लिए तो वही ज़माना यानि हमारे संसार हैं ) .


अब चार सौ पोस्ट से याद आया ,पिछले साल तीसरी सालगिरह वाली पोस्ट लिखी थी तो  राजन और अविनाश चन्द्र   ने ध्यान दिलाया  कि तीन साल में तीन सौ से ऊपर पोस्ट लिख ली यानि हर साल, एक सेंचुरी . इस बार तो अपेक्षाकृत कम लिखा है, इसलिए सेंचुरी की उम्मीद तो नहीं थी . पर 'मन का पाखी' के 116 पोस्ट्स और इस ब्लॉग के  286  मिलकर 400 का आंकडा पार कर ही गए.. वो अलग बात है कि कुछ एक्स्ट्रा रन तो ओवरथ्रो की वजह से मिले हैं. यानि अब कहानी  दोनों ब्लॉग पर पोस्ट करना शुरू कर दिया है .पर हम तो स्कोर बोर्ड यानी डैशबोर्ड जो दिखाएगा ,वही देख ,खुश  होने वाले हैं (आज के जमाने में खुश होने का मौक़ा इतना कम जो मिलता है, जहां मौक़ा मिले, झट  से खुश हो लिया जाए :)}


अब ब्लॉगजगत के विषय में सबका कहना है कि लोग अब कम लिख रहे हैं , फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय  हो गए हैं. इसमें कोई शक नहीं कि रौनक कुछ कम तो हुई है , पर वैसा ही जैसे किसी महल्ले के पुराने लोग महल्ला छोड़ कहीं और बसेरा बना लेते हैं, कभी-कभी अपने पुराने महल्ले में भी झाँक लेते हैं .पर उसी महल्ले में नए लोग आयेंगे, उनकी लेखनी से गुलज़ार होगी वह जगह.


एक बार बोधिसत्व जी के यहाँ, युनुस खान, प्रमोद सिंह, अनिल जन्मेजय, जैसे हमसे काफी पहले के ब्लॉगर्स इकट्ठे हुए थे. वे लोग चर्चा कर रहे थे ,'अब ब्लॉगजगत में वो मजा नहीं आता, सारे पुराने लोग चले गए ' जबकि मेरे लिए उस वक़्त ब्लॉगजगत में काफी हलचल रहती थी. और जिनलोगो का जिक्र वे लोग कर रहे थे, उन्हें तो हमने पढ़ा भी नहीं था .


फेसबुक पर सक्रिय तो मैं भी हूँ, पर फेसबुक किसी घटना ,किसी विषय का जिक्र करने,फोटो शेयर करने  तक ही सीमित है. घटना का विश्लेषण तो ब्लॉग पर ही किया जा सकता है. और मुझ जैसे लोगों को जिन्हें लम्बी पोस्ट लिखने की आदत है ,ब्लॉगजगत का ही सहारा है . हाँ, टिप्पणियों पर फर्क पड़ा है पर यहाँ हमें चुप ही रहना चाहिए. मैं खुद ही ज्यादा ब्लॉग्स नहीं पढ़ पाती और टिप्पणियाँ भी नहीं कर पाती . सॉरी दोस्तों :(


दोस्तों से ध्यान आया , कुछ बड़े  अच्छे दोस्त दिए हैं ब्लॉगजगत ने . कुछ तो मुझसे आधी उम्र के हैं, मेरे बच्चों से कुछ ही साल बड़े . पर बड़ी गंभीरता से मेरा लिखा पढ़ते हैं और अपनी बेबाक राय भी देते हैं. अब ब्लॉग के जरिये ही वे दोस्त बने वरना इन उम्र वालों से मेरा परिचय बस "हलो आंटी...हाउ आर यू ' से ज्यादा नहीं  होता . उनसे विमर्श , उनकी दुनिया में झाँकने  का अवसर भी प्रदान करता  है, जो मेरे लेखन को समृद्ध ही करता है.  और कई बार लोग मेरे ब्लॉग  का परिचय यह कह कर भी देते हैं , "युवा मानसिकता वाले इस ब्लॉग को ज्यादा पसंद करते हैं " .अब यह बात जिस भी अर्थ में कही जाती हो, हम तो इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेते हैं. :)

कुछ ऐसे भी  पाठक हैं जो पिछले चार साल से मुझे लगातार बहुत ध्यान से पढ़ रहे हैं {कुछ तो पहली पोस्ट से ,उनके धैर्य को सलाम :)}...और अपने विचार भी रख रहे हैं . बड़ा वाला थैंक्यू आप सबका.

उन सबका भी बहुत बहुत शुक्रिया  जो मेरे ब्लॉग पे आते रहे, जाते रहे..कभी कभी आते रहे.. नहीं भी आते रहे :)....सफ़र तो चलता रहेगा भले ही लिखने की रफ़्तार धीमी  हो जाए, अगले साल सेंचुरी न बने पर की बोर्ड का साथ तो नहीं छूटने वाला ....अब खुद ही कह देते हैं...आमीन !!
:)
 
(ब्लॉग की पहली , दूसरी , तीसरी  सालगिरह पर भी बाकायदा पोस्ट लिख रखी है )

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

पश्चिमी देशों द्वारा हल्दी ,नीम के औषधीय गुण एवं बासमती की खुशबू को अपना बताने की साजिश

कई गुदड़ी के लाल. की....धूल में खेलकर बड़े हुए पैरों के आसमान छूने की कहानियाँ सुनी हैं,पढी हैं  .पर किसी ऐसे ही व्यक्ति के श्रीमुख से उनकी जीवन कथा सुनना एक अनोखा अनुभव रहा .
बेटे का दीक्षांत समारोह था .अक्सर ऐसे समारोह में बस बच्चों को गाउन पहने डिग्रियां ग्रहण करते हुए देखना ही रुचिकर लगता है  वरना लम्बे लम्बे भाषण उबासियाँ लेने पर मजबूर कर देते हैं . पर जैसे ही मुख्य अतिथि के परिचय में दो शब्द कहा गया और उनकी उपलब्धियों में कुछ ऐसी बातों का जिक्र था जिनकी जानकारी मेरे लिए  बिलकुल नयी थी. मुख्य अतिथि  'डॉक्टर रघुनाथ माशेलकर ' जब छात्र-छात्राओं  और उनके अभिभावकों को   संबोधित करने आये  तो पूरा हॉल सतर्क हो गया..और बीच बीच में बजती तालियाँ इस बात की द्योतक थीं कि सबलोग रुचिपूर्वक ध्यान से सुन रहे हैं.

'रघुनाथ माशेलकर जी ' ने अपने विषय में बताया कि उन्होंने छः वर्ष  की उम्र में अपने पिता को खो दिया था .उनकी माता जी उन्हें लेकर काम ढूँढने मुंबई आ गयीं . वे छोटे मोटे काम करने लगीं और रघुनाथ जी को एक सरकारी स्कूल में दाखिल करा दिया . वे बॉम्बे सेन्ट्रल के प्लेटफॉर्म पर अपनी पढ़ाई किया करते थे . वे बता रहे थे तब साढ़े दस बजे गुजरात जाने वाली लास्ट ट्रेन मुंबई सेन्ट्रल से छूटती और उसके बाद प्लेटफॉर्म पर शान्ति होती, तब वे रात के दो बजे तक पढ़ाई करते . दसवीं की बोर्ड परीक्षा में वे राज्य में ग्यारहवें स्थान पर आये थे. पर फिर भी वे आगे पढाई न कर काम की तलाश में थे क्यूंकि उनकी माता जी उनकी पढ़ाई का खर्च उठाने में असमर्थ थीं. उसी वक्त 'टाटा ग्रुप' ने उन्हें अगले छः साल तक के लिए  प्रतिमाह साठ रुपये महीने की छात्रवृत्ति प्रदान की .रघुनाथ जी ने आगे की पढ़ाई जारी रखी और  मुंबई यूनिवर्सिटी से १९६६ में केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और १९६९ में  इसी विषय में पी.एच.डी किया.


विदेश के कई विश्वविद्यालयों में लेक्चर दिए. भारत के विज्ञान और तकनीक  विभाग में नियम बनाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है. देश-विदेश में उन्हें करीब ५० से ज्यादा अवार्ड और कई विश्विद्यालयों ने उन्हें मानक डॉकट्रेट की उपाधि प्रदान की है ,वे  अनगिनत वैज्ञानिक कमिटियों के मेंबर रह चुके है . उन्हें 1991  में पद्मश्री और 2006 में पद्मविभूषण प्रदान किया गया . 

उन्होंने अपने भाषण में एक बहुत ही रोचक वाकये का जिक्र किया। अमेरिका में हर वर्ष विज्ञान,साहित्य, समाज-सेवा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम करने वाले पूरे विश्व से चुने गए  एक व्यक्ति को एक अवार्ड दिया जाता है. अब तक सात-आठ भारतीयों को भी यह अवार्ड मिल चुका  है। संभवतः  २०१०  में रतन  टाटा को यह अवार्ड मिला था और उसके अगले ही वर्ष 'रघुनाथ मालेश्कर ' को यह अवार्ड प्रदान किया गया. वहाँ  एक परिपाटी है कि  अवार्ड लेने वाला व्यक्ति वहां रखी  एक पुस्तिका में अपने हस्ताक्षर करता है। किसी करणवश 'रतन टाटा ' उस वर्ष  अवार्ड लेने नहीं जा सके ,और अगले वर्ष रघुनाथ  माशेलकर ' के साथ ही यह अवार्ड ग्रहण किया और उस पुस्तिका के एक ही पन्ने पर दोनों महारथियों ने हस्ताक्षर किये.  माशेलकर  जी ने कहा , "इसी टाटा ग्रुप की छात्रवृत्ति से मैंने शिक्षा ग्रहण की और ५० साल बाद टाटा ग्रुप के मालिक और उनकी आर्थिक मदद से पढ़े हुए एक व्यक्ति ने समकक्ष  रूप से यह अवार्ड ग्रहण किया।  

उन्होंने  ये भी जिक्र किया कि  एक बार किसी कॉन्फ्रेंस में सबसे  पूछा गया , कि  सबसे  महत्वपूर्ण फॉर्मूला क्या है ? किसी ने आइन्स्टाइन  का e = mc square बताया किसी ने   न्यूटन का F = ma बताया पर रघुनाथ जी ने कहा, मेरे लिए   e = f का फ़ॉर्मूला सबसे महत्वपूर्ण है यानि Education = Future . अच्छी  शिक्षा ही बेहतर भविष्य दे सकती है। वे इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि  "knowledge is wealth and knowledge  creates wealth" 

माशेलकर जी ने बहुत सारे महत्वपूर्ण अनुसंधान किये हैं जो मुझ जैसी  सामान्य बुद्धि वाली  की समझ में नहीं आने वाले। विज्ञान के छात्र ही समझ सकते हैं। यहाँ विस्तार से इसका जिक्र है।
 
पर हमारे लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण रही कि हल्दी के औषधीय गुण, जिसे हमारे  देश में हज़ारो साल से जाना जाता है और प्रयोग में लाया जाता है।  इस जानकारी को एक पश्चिमी   देश ने अपने नाम से पेटेंट करवा लिया था।  माशेलकर जी ने इसके लिए लम्बी लड़ाई लड़ी , पुराने ग्रंथों से कई साक्ष्य प्रस्तुत किये ,उसके बाद पुराने निर्णय को बदलकर भारत के नाम से इसे पेटेंट करवाया गया . इसी तरह बासमती चावल में  खुशबू की खोज को  भी texas ने अपने नाम से पेटेंट करवा लिया था। नीम के औषधीय गुण को भी पश्चिमी देश अपनी खोज बता रहे थे।  माशेलकर जी के प्रयासों से इन निर्णय  को बदलकर भारत के नाम से पेटेंट करवा लिया गया।  

माशेलकर जी ने यह भी जिक्र किया कि 'रेडियो' का आविष्कार 'जगदीश  चन्द्र बोस' ने किया था। सिस्टर निवेदिता ने उनसे आग्रह भी किया, अपने नाम से पेटेंट करवाने का पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया और आज इतिहास में रेडियो के आविष्कारक के रूप में मार्कोनी का नाम दर्ज है। इसी वजह से माशेलकर जी ने intellectual property को रजिस्टर कवाने पर बहुत जोर दिया और इसके लिए बहुत काम किया 
माशेलकर जी के  नेतृत्व में  CSIR ने सिर्फ तीन वर्षों में अमेरिका में पेटेंट किये गए अनुसंधानों में ३०%-४०% भारत के नाम दर्ज करवाए। 

डॉक्टर रघुनाथ माशेलकर ने अपनी मेहनत  और लगन से अपने बुरे दिनों का सामना किया और उन्हें परास्त किया।  आज भी विज्ञान और तकनीक  के क्षेत्र में वे कई महत्वपूर्ण पदों पर उसी मेहनत ,लगन ,दूरदर्शिता और देशभक्ति की भावना से काम कर रहे हैं। 

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...