'प्रभात खबर 'की पत्रिका सुरभि में मेरी लिखी कवर स्टोरी
जब
तपती धरती पर बारिश की फुहारें पड़ती है और ठंढी हवाएं चलने लगती हैं तो सबके मन प्राण
शीतल हो जाते हैं. शायद ही कोई ऐसा हो, जिसके चहरे की तनी रेखाएं कोमल ना पड़ जाएँ
और चेहरे पर मुस्कराहट लिए वह ‘सावन’ का स्वागत ना करे. यही खुशनुमा अहसास दिलाने
के लिए फिल्मों में भी सावन के गीत शुमार किये जाते रहे हैं . पहले पारिवारिक
फ़िल्में ज्यादा बनती थीं और उसमे सुख दुःख ,मिलन-विछोह जैसी भावनाएं समान रूप से
समाहित रहती थीं . कभी मिलन तो कभी विरह को सावन के गीतों के माध्यम से व्यक्त किया
जाता था . दरअसल सावन एक मूड को परिलक्षित करता है ,एक माहौल के निर्माण का. जब
प्रिय पास नहीं हो और उसकी याद दिल में जागे ,ऐसे में सावन का मौसम हो तो रिमझिम
बारिश के साथ विरह ज्वाला और भी तेज हो जाती है. और फिल्म निर्देशक एक प्यारे से
गीत के साथ ऐसे दृश्य को जीवंत कर देते हैं .
1944
में ‘रतन’ फिल्म में दीनानाथ मधोक का लिखा और जोहराबाई अम्बालावाली का गाया यह गीत
बहुत पसंद किया गया .संगीत निर्देशन नौशाद का था और यह फिल्म उनकी पहली म्यूजिकल
हिट मानी जाती है.
“रुमझुम
बरसे बदरवा ,मस्त ह्वायें आईं
पिया
घर आजा, आजा ओ मेरे राजा
सावन
कैसे बीते रे ,मैं यहाँ तुम कहाँ
हमको याद ना आये रे, याद सताए तेरी “
हमको याद ना आये रे, याद सताए तेरी “
महाकवि कालीदास ने सावन के बादलों से बिनती की थी कि वह कवि की दशा का बयान ‘कवि पत्नी’ से करे . वैसे ही 1955 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘आज़ाद ‘ में मीनाकुमारी सावन के बादलों से याचना करती है. राजेन्द्र कृष्ण के बोलों को संगीत से संवारा ‘सी रामचन्द्र ‘ ने ,आवाज़ कंठ कोकिला लता मंगेशकर की
जा
री जा री ओ कारी बदरिया
मत
बरसो री मोरी नगरिया
परदेस
गए हैं सांवरिया
1960 में आई फिल्म जिसका नाम ही था ‘बरसात की रात ‘ .इस फिल्म में भी नायिका की शिकायत है,
‘गरजत बरसत सावन आयो रे
लायो ना संग हमारे बिछड़े बलमवा
सखी क्या करू हाय .
साहिर लुध्यान्वी के शब्दों को रोशन ने ऐसे संगीत में बाँधा कि यह गीत अमर बन
गया है.
सावन के गीतों में केवल अपने प्रिय को ही नहीं .अपने बिछड़े गाँव , झूले झूलती
सखियाँ ,लहलहाते खेत सबको याद किया जाता है. 1963 में रिलीज़ हुई फिल्म बंदिनी का
यह गीत आज भी आँखें भिगो देता है .शैलेन्द्र के मर्मस्पर्शी शब्दों को सचिन देव
बर्मन ने उतने ही मार्मिक धुन में बाँधा है. आशा भोंसले की आवाज़ में गाया यह ग़ीत
सबके मन में एक टीस जगा जाता है .
“अबके बरस भेज भैया को बाबुल
“अबके बरस भेज भैया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाये रे “
सावन के गीतों में केवल विरह-विछोह ही नहीं व्यक्त होता ,जब प्रिय पास हों तो
सावन का मौसम मन में उमंगे जगा देता है. हर्ष और उल्लास में लिपटे मन के लिए सावन
में यह पृथ्वी स्वर्ग सी सुंदर बन जाती है .जाहिर है, ऐसे मनोभावों को व्यक्त करने
वाले गीत भी अलग मिजाज़ के होंगे .आज भी बारिश की पहली फुहार पड़ते ही 1960 की फिल्म
‘परख’ का यह गीत दिलो-दिमाग पर दस्तक दे जाता है . शैलेन्द्र के लिखे इस गीत की
धुन बनाई है सलिल चौधरी ने और गाया है लता मंगेशकर ने
“ ओ सजना बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई
नयनों में प्यार लाई ...ओss सजना “
मोहम्मद रफ़ी और गीता दत्त की आवाज़ में 1960 कि ही फिल्म काला पत्थर का यह गीत बहुत ही खुशनुमा सा है
"रिमझिम के तराने लेकर आई बरसात
याद आये किसी से वो पहली मुलाक़ात "
याद आये किसी से वो पहली मुलाक़ात "
1958 में फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी ‘ का भी एक चुलबुला सा गीत है, ‘इक लड़की
भीगी भागी सी ...सोई रातों में जागी सी “घनघोर बारिश हो रही है और उसमें मधुबाला
की कार खराब हो जाती है .मेकैनिक किशोर कुमार के नटखटपन और भीगी हुई मधुबाला के
दिव्य रूप ने इस गीत को अमर कर दिया है. स्क्रीन पर देखने और स्क्रीन से अलग सुनने
में भी यह गीत बहुत प्यारा लगता है. मजरूह सुलतानपूरी ने लिखा, किशोर कुमार ने
गाया और एस.डी. बर्मन ने इसे सुरों में ढाला है.
1955 में बनी फिल्म ‘श्री चार ४२० ‘ के इस गीत में बारिश का जिक्र नहीं है
.परन्तु गीत सुनते ही एक छाता के अंदर भीगते राजकपूर और नर्गिस की छवि साकार हो
जाती है .रास्ते से रेनकोट पहने तीन बच्चे गुजरते हैं जो राजकपूर के बेटे-बेटी ही
थे .मन्ना डे और लता मंगेशकर ने शैलेन्द्र के लिखे गीत को गाया है और संगीत शंकर
जयकिशन का है .
“प्यार हुआ ,इकरार हुआ है
प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल
कहता है दिल ,रस्ता मुश्किल
“प्यार हुआ ,इकरार हुआ है
प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल
कहता है दिल ,रस्ता मुश्किल
मालूम नहीं है, कहाँ मंजिल “
1960 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बरसात की रात’ के इस गीत में बारिश का ही जिक्र है
पर फिल्माए गए दृश्य में बरसात कहीं नहीं है .बल्कि नायक एक रेडियो स्टेशन पर नज्म
पढ़ रहा है और नायिका रेडियो पर सुन रही है पर गीत सुनते हुए श्रोता की आँखों में बरसते
सावन में एक भीगी लडकी की छवि ही तैर जाती है.
“जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात
एक अनजान हसीना से मुलाकात की रात “
सावन के सुहाने मौसम पर आधारित कई गीत आये पर 1967 की फिल्म ‘मिलन ‘ के इस गीत
को अतिशय लोकप्रियता मिली .इस गीत में सावन के महीने का पूरा सौन्दर्य उभर आया है
.
”सावन का महीना पवन करे शोर
जियरा झूमे ऐसे जैसे बनमा नाचे मोर “
सावन में सिर्फ प्यार, मिलन, विरह जैसी भावनाएं ही नहीं मचलती बल्कि संगी साथियों
संग झूला झूलने , मेहँदी लगाने, गीत गाने ,मेले जाने के लिए भी मन उमगता है .1967
की फिल्म ‘आया सावन झूम के ‘ के इस गीत में इसी ख़ुशी का इजहार है ,
“बदरा छाये कि झूले पड़ गए
“बदरा छाये कि झूले पड़ गए
हाय कि मेले लग गए
कि आया सावन झूम के”
प्रेमी जोड़े जब सपनों की दुनिया में
खोकर अपने घर की कल्पना करते हैं तब भी मनभावन सावन को जरूर याद रखते हैं .’ 1970
की फिल्म जीवन मृत्यु का यह गीत बहुत ही कर्णप्रिय है
झिलमिल सितारों का आंगन होगा
रिमझिम बरसता सावन होगा “
1970 की ही फिल्म ही “अभिनेत्री” का नटखट सा यह गीत बहुत मधुर है .
1970 की ही फिल्म ही “अभिनेत्री” का नटखट सा यह गीत बहुत मधुर है .
“ओ घटा सांवरी
थोड़ी थोड़ी बावरी
हो गई है बरसात क्या
हर सांस है बहकी हुई
अबकी बरस ये बात क्या “
1979 में फिल्म मंजिल का यह गीत “रिमझिम गिरे सावन.. सुलग सुलग जाए मन “जैसे
हर बरखा प्रेमी के दिल की बात कहता प्रतीत होता है . इसी वर्ष रिलीज़ हुई फिल्म ‘जुर्माना
‘ का यह गीत भी बहुत बहुत मधुर है ,”सावन के झूले पड़े हैं...तुम चले आओ “
आने वाले वर्षों में फिल्म का स्वरुप बदलता गया .पारिवारिक फिल्मों की जगह एक्शन और प्रतिशोध की फिल्मों
ने ले ली . गीत-संगीत का रुप भी बदल गया . अब तेज संगीत पर गाने की धुनें बनने
लगीं .गीत के बोल गौण हो गए .और इसका असर सावन पर आधारित गीतों पर भी पड़ा. फिल्मों
से सावन का माहौल गायब होने लगा .पर बारिश फिर भी बनी रही . 1982 में रिलीज़ हुई
फिल्म ‘नमकहलाल ‘ का यह गीत बहुत मशहूर हुआ पर सुमधुर गीतप्रेमियों को नहीं लुभा
सका
“आज रपट जाएँ तो हमें न उठइयो
हमें जो उठइयो तो खुद भी रपट जीयो “
ऐसा ही गीत 1983 की फिल्म बेताब का भी है बारिश में भीगते नायक नायिका हैं पर
गीतों की वो खूबसूरती गायब है
“बादल यूँ गरजता है, डर कुछ ऐसा लगता है
“बादल यूँ गरजता है, डर कुछ ऐसा लगता है
चमकी चमक के लपक लपक के
ये बिजली हम पर गिर जायेगी “
अब फिल्मों में बारिश भी होती, गीत गाते नायक नायिका भी भीगते ,पर गीत कालजयी
नहीं बन पाता .1994 में आई फिल्म ‘मोहरा’ का ये गीत उस वक्त फिल्म के साथ बहुत हिट
हुआ था .
“टिप टिप बरसा पानी
पानी ने आग लगा दी “
“टिप टिप बरसा पानी
पानी ने आग लगा दी “
अब ज्यादातर फिल्मों की पृष्ठभूमि शहर की होती .गीतों में झूले, लहलहाते खेत
,घुमड़ते बादल गायब होने लगे . सडकों पर बरसते पानी का ही दृश्य फिल्माया जाता . 1997
में फिल्म ‘दिल तो पागल है ‘ में शाहरुख और माधुरी बच्चों एक साथ झमाझम बरसते पानी
में ये गाना गाते हैं
“कोई लडकी है ,जब वो हंसती है
बारिश होती है
छनर छनर छुम छुम “
फिर भी बीच बीच में कुछ सुमधुर गीत आये .गुलज़ार का लिखा फिल्म इजाज़त का गीत
...
”छोटी सी कहानी से
बारिशों के पानी से
सारी वादी भर गई “
सुरेश वाडेकर की सोज़ भरी आवाज़ में गाया शिव हरी के संगीत से सजा फिल्म ‘चांदनी’
का यह गीत बहुत ही कर्णप्रिय है
“लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है “
‘गुरु’ फिल्म का गीत ‘बरसों रे मेघा बरसों ‘ का फिल्मांकन और गीत दोनों ही
बहुत खुबसूरत हैं .
फिल्म ‘फ़ना’ ...बूंदों की साजिश है ‘ भी बारिश को बखूबी चित्रित करता है .
पिछले तीन दशक से हमारे समाज की रूपरेखा भी बदल गई है . लोग गाँव छोड़कर
शहरों में बसने लगे हैं .आपसी रिश्ते- नाते-दोस्त कम होते जा रहे हैं .अब
पहले सा प्यार ,अपनापन ,दोस्ती जैसी भावनाएं जिंदगी से विदा हो गईं हैं
इंसान अपने आप में सिमटता जा रहा है. जिंदगी मशीनी होती जा रही है और इन
सबका अक्स हमारी फिल्मों पर भी नजर आया .
फिल्मों से गाँव , लहलहाते ,खेत हरियाली गायब हो गई .अब फिल्मों में दौड़ती गाड़ियां, आग उगलते हथियार, आक्रोश से भरा हीरो और पश्चिमी धुन पर थिरकते ढाई सौ लोगों के साथ नृत्य करते नायक नायिकाएं ही नजर आने लगे. इन फिल्मों में सावन के गीतों की गुंजाइश ही नहीं बची . जब नायिका बादल को उलाहना देती है , नायक बारिश में भीगी अपनी प्रेमिका को याद करता है या कोई बहन अपने पिता से सावन में अपने भैया को भेजने की अर्ज करती है. अब फिल्मों में ऐसी सिचुएशन ही नहीं होती .सब कुछ इंस्टैंट और तेज गति से होने लगा है .अब बारिश पर गीतकार ,संगीतकार से ज्यादा कैमरामैन का प्रभाव नजर आता है. ढेर सारे छाते के बीच लम्बा रेनकोट पहने कोई खूनी, घनघोर बारिश के बीच हुआ मर्डर ..पानी के साथ बहता खून या फिर पारदर्शी वस्त्रों में नाचती नायिका. ...इन सबके बीच,पहले वाली कोमल भावनायें नज़र नहीं आती ,जिसपर आधारित गीत अमर हो जाते थे .
और जब विछोह का दर्द या मिलन की खुशी गीतों में नहीं होती तो वे गीत दिल की गहराइयों में अपनी जगह नहीं बना पाते. यही वजह है कि पुराने गीतों के तुलना में आज के गीत बहुत फीके नजर आते हैं और जब तक फिल्म चलती है, तभी तक गीत भी बजते हैं और फिर गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं .
फिल्मों से गाँव , लहलहाते ,खेत हरियाली गायब हो गई .अब फिल्मों में दौड़ती गाड़ियां, आग उगलते हथियार, आक्रोश से भरा हीरो और पश्चिमी धुन पर थिरकते ढाई सौ लोगों के साथ नृत्य करते नायक नायिकाएं ही नजर आने लगे. इन फिल्मों में सावन के गीतों की गुंजाइश ही नहीं बची . जब नायिका बादल को उलाहना देती है , नायक बारिश में भीगी अपनी प्रेमिका को याद करता है या कोई बहन अपने पिता से सावन में अपने भैया को भेजने की अर्ज करती है. अब फिल्मों में ऐसी सिचुएशन ही नहीं होती .सब कुछ इंस्टैंट और तेज गति से होने लगा है .अब बारिश पर गीतकार ,संगीतकार से ज्यादा कैमरामैन का प्रभाव नजर आता है. ढेर सारे छाते के बीच लम्बा रेनकोट पहने कोई खूनी, घनघोर बारिश के बीच हुआ मर्डर ..पानी के साथ बहता खून या फिर पारदर्शी वस्त्रों में नाचती नायिका. ...इन सबके बीच,पहले वाली कोमल भावनायें नज़र नहीं आती ,जिसपर आधारित गीत अमर हो जाते थे .
और जब विछोह का दर्द या मिलन की खुशी गीतों में नहीं होती तो वे गीत दिल की गहराइयों में अपनी जगह नहीं बना पाते. यही वजह है कि पुराने गीतों के तुलना में आज के गीत बहुत फीके नजर आते हैं और जब तक फिल्म चलती है, तभी तक गीत भी बजते हैं और फिर गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं .
आजकल के युवा ‘मीका सिंह’ के इन गीतों पर थिरक रहे हैं .जिसमें बस सावन शब्द के लिए ही प्रयुक्त किया
गया है .इस से सजीले सावन का कोई सम्बन्ध नहीं .
“सावन में लग गई आग
दिल मेरा हाय “
दिल मेरा हाय “
निश्चय ही फिल्मों में या उनके गीतों में पहले वाली मधुरता अब नहीं रही . वैसे
तो फिल्म ‘दिल दिया दर्द लिया ‘ के इस गीत का ही अनुसरण करना चाहिए . दिलीप कुमार
और वहीदा रहमान पर यह खुबसूरत गीत फिल्माया गया है
“सावन आये या ना आये
जिया जब झूमे सावन है “
जिया जब झूमे सावन है “