बुधवार, 29 दिसंबर 2010

गोवा की रंगीनियाँ क्रिसमस में

राजेश,शशि, नवनीत,निखिल और मैं
मैने अपनी रेल यात्रा के  संस्मरण कई बार लिखे हैं....मेरी विदाउट रिजर्वेशन और विदाउट  टिकट वाली  यात्रा संस्मरण पढ़, समीर जी ने टिप्पणी भी की थी."अब कुछ और बचा हो जैसे रेल की छत पर बैठ कर यात्रा करना आदि तो वो भी सुना ही डालो लगे हाथ. :) "
ऐसी नौबत तो खैर नहीं आई, कभी ...(और अब क्या आएगी )

पर कई बार कार,बस, और प्लेन की यात्रा भी किन्ही ना किन्ही वजह से यादगार बन गयी है...एक बार इन्ही दिनों  मैं गोवा में थी...हर साल ये दिन जरूर याद आ जाते हैं. मुंबई से पास होने की वजह से कई बार गोवा जाना हुआ है.(वैसे राज़ ये है कि Three men in my house को यही destination ज्यादा पसंद है...एकदम इन्फोर्मल सा वातावरण , shorts में काम चल जाता है ....ज्यादा कपड़े नहीं  पहनने पड़ते..और समंदर का आकर्षण तो है ही )

वंदना अवस्थी दुबे ,प्रवीण पाण्डेय जी और भी कई लोगो के संस्मरण पढ़े हैं,गोवा से सम्बंधित.

 पर मेरी सलाह है किसी को गोवा जाना हो तो क्रिसमस के आस-पास ही प्लान करे. मौसम खुशनुमा होता है. सैलानियों की चहल -पहल होती है और हवाओं में ही एक रवानगी होती है. मेरी सबसे यादगार गोवा-यात्रा क्रिसमस के दौरान वाली  ही है.

इसलिए भी कि बस की यात्रा भी बहुत रोमांचक रही...एक सीमा तक भयावह भी.


हमलोग तीन परिवार ने स्लीपर  बस से गोवा जाने का प्लान किया. स्लीपर बस में ट्रेन की तरह  ऊपर वाली सीट गिरा दें तो दोनों तरफ की सीट मिलकर एक बड़ा सा चौरस बेड बन जाता है. साइड बर्थ भी था ट्रेन की तरह ही. सफ़र बहुत मजे में कट रहा था. सब लोग... बिहारी,मराठी, और बंगाली व्यंजनों  का आनंद लेते हुए...कभी कार्ड खेलते तो कभी अन्त्याक्षरी जमती. बच्चे भी अपने ग्रुप में मगन थे. बिलकुल पिकनिक जैसा  माहौल. ग्यारह के करीब  हमलोग सोने गए.

मैने अपने लिए साइड बर्थ चुनी {औरत त्याग की मूरत....:( } .लेकिन ये पता नहीं था ट्रेन और बस की साइड बर्थ में इतना फर्क है. बस, तेज रफ़्तार से घाटियों के बीच से गुजर रही थी..बार-बार टर्न लेती और मुझे लगता...मैं, अब गिरी की तब गिरी .नींद आनी तो दूर, पलकें तक नहीं झपक रही थी. पास वाले हैंडल  को जोर से पकड़ रखा था कि कहीं गिर ना जाऊं. वरना पूरी यात्रा में मेरा मजाक बनता रहता. वैसे ही हिचकोले खाते रास्ता तय हो रहा  था...और अचानक अजीब सी गड़गडाहट सी आवाज़ हुई बस के इंजिन से...और तेजी से किनारे की तरफ जाती बस अचानक रुक गयी. सबलोग इस आवाज़ से जाग गए. ड्राइवर ने बताया कुछ खराबी आ गयी है और किसी तरह उसने बस रोकी है. जब हमारे ग्रुप के पुरुषों ने उतर कर देखा तो पाया,बस का सामने वाला एक पहिया रास्ते के बिलकुल किनारे था और नीचे गहरी खाई थी. बस, कुछ इंचो से नीचे लुढ़कने से बची थी .


रात के दो बज रहे थे. सुबह होने में काफी वक्त था. उस पर से निखिल वैद्य ने नीचे उतर कर देखा और कहा कि 'बस' एक पीपल के पेड़ के नीचे रुकी हुई है. और आज अमावस्या है. पीपल के पेड़ पर भूत रहते हैं. शशि और रेखा की हालत तो वैसे ही  खराब  हो गयी. वो तो मुझे भूत से डर नहीं लगता,वरना खिड़की के पास मेरा ही बेड था. अचानक पीछे से एक गाड़ी बस से  कुछ इंच की दूरी  से निकली. तब सबका ध्यान गया कि हमारी 'बस', पतली सी सड़क पर तिरछी होकर रुकी थी. और उसकी हेडलाईट,टेल-लाईट  सब खराब हो चुके थे . अगर अँधेरे में  किसी दूसरी गाड़ी से पीछे से जरा सा भी धक्का लगता तो बस  गहरी खाई में चली जाती. इन पुरुषों को एक उपाय सूझा. इनलोगों  ने हमारे पर्स से छोटा आईना लिया और बस के पीछे जाकर खड़े हो गए. जहाँ किसी गाड़ी की आवाज़ आती ये लोग शीशा चमकाते,दूसरी गाड़ी की हेडलाईट पड़ते ही शीशा चमक उठता और उन्हें हमारी बस का पता चल जाता. पूरी रात,नवनीत (मेरे पतिदेव) ,निखिल और राजेश, और बस के ड्राइवर,कंडक्टर भी बारी-बारी से शीशा चमकाते रहे.


सुबह हुई तो देखा,हमलोग बीच जंगल में हैं. काफी दूर एक छोटी सी चाय की दुकान मिली. वहाँ  हमलोगों ने उनलोगों से बहुत ही महंगे दामो में पानी खरीद कर एक-एक ग्लास पानी से किसी तरह ब्रश किया और चाय पी. वैसे वे बेचारे भी काफी दूर से पानी ढो कर लाते थे. .बच्चों की तो मस्ती शुरू हो गयी,...वे वहीँ धमाचौकड़ी  मचाने लगे.. कभी पेड़ पर चढ़ते..कभी पत्थरों के पीछे छुपते. हमलोगों को गोवा पहुँचने  की टेंशन के साथ ,बच्चो पर भी ध्यान रखना पड़ रहा था.


पीछे से आती गाड़ियों से लिफ्ट माँगने का सिलिसला शुरू हुआ. बाकी लोग तो दो-दो ,तीन-तीन के ग्रुप में थे. उन्हें आनेवाली गाड़ियों में जगह मिल गयी.पर हमारा बारह लोगो का ग्रुप था. इतनी जगह तो किसी भी गाड़ी में नहीं थी.फिर कंडक्टर को पैसे देकर आगे भेजा...और उस से कोई सुमो या मिनी बस  किराए पर लाने को कहा गया. तब तक गाड़ी के  इंतज़ार में हम भी जंगल में मंगल मनाते रहे.


एक बार गाड़ी आ जाने पर शाम तक हमलोग गोवा पहुँच गए. होटल  की बुकिंग तो पहले से ही कर रखी थी. इतनी थकान के बावजूद, हमलोग फ्रेश होकर तुरंत ही बीच की तरफ निकल लिए.

क्रिसमस में गोवा की रौनक देखते  ही बनती है .हर घर के बाहर रंग-बिरंगी बत्तियों की झालर, और बड़ा सा स्टार लगा हुआ  था.वहाँ  की हवा में ही कुछ ऐसी उमंग और ऐसा उछाह था कि कुछ ही घंटो बाद पूरे ग्रुप ने एकमत से निश्चय किया कि क्रिसमस ही नहीं न्यू इयर भी गोवा में ही मनाएंगे .  इन दिनों विदेशी सैलानियों का हुजूम भी गोवा का रुख करता है. हालांकि यह भी पढ़ा कहीं कि गोवा आना सबसे सस्ता पड़ता है उन्हें, इसीलिए वहाँ के निम्न और मध्य वर्ग गोवा का रूख करते हैं.

वहाँ देखा ,हर होटल के सामने एक शेड बना एक्स्ट्रा चेयर्स लगा कर होटल का एक्सटेंशन कर दिया गया था. ऐसी ही एक जगह ,एक विदेशी महिला को  चाय के ग्लास में 'पाव' डुबो कर खाते देखा. चारो तरफ ,म्युज़िक बजता रहता है...और लोग सड़को पर ही डांस करने लगते हैं. कई विदेशी महिलाएँ अकेली भी आई थीं. और लोकल लड़के उनके लिए गाइड का काम कर रहे थे. देखा मैने, वे उनके साथ ही समंदर में जातीं, होटल में साथ बैठ खाना भी खातीं. रेत पर बियर की बॉटल भी शेयर करतीं. कुछ भी एन्जॉय करने को एक साथी तो होना ही चाहिए,चाहे वो अजनबी...गोअन गाइड ही क्यूँ ना हो.


बियर तो गोवा में शायद पानी की तरह बहती है. मेल-फिमेल का कोई विभेद  नहीं. किसी पुरुष ने एक बियर ऑर्डर की नहीं कि वेटर दो ग्लास लेकर हाज़िर हो जायेगा.एक कपल शायद हनीमून के लिए  आया था. लड़की अपने  पीले रंग के  सिंथेटिक सूट और दो लम्बी चोटियों में लगे लाल मोटे रबर-बैंड के साथ लगता था, किसी यू.पी या बिहार के गाँव से सीधी उठ  कर आ गयी थी.पर जिस आत्मविश्वास के साथ वो बियर सिप कर रही थी,वो मुझे हैरान कर दे रहा था.


गोवा की प्राकृतिक सुन्दरता के बारे में तो इतना लिखा जा चुका है कि नया क्या लिखूं...हाँ, वहाँ एक बहुत ही सुन्दर जलप्रपात है "दूधसागर" वहाँ
  बहुत कम लोग जाते हैं. पर उस जलप्रपात तक पहुँचने कि यात्रा बहुत ही रोमांचक है....आधी दूरी तक एक वाहन ...फिर उसके बाद खुली हुई जीप और फिर  पैदल ही काफी दूरी तय करनी पड़ती है......जिसमे लकड़ी के पुल भी पार करने होते हैं. झरने के आनंद से ज्यादा उस यात्रा का आनंद  उठाने के लिए  जाना चाहिए.

क्रिसमस के दौरान रिवर क्रूज़ की रौनक भी थोड़ी सी ज्यादा थी. मांडवी नदी पर तैरता छोटा सा जहाज , रंग बिरंगी रोशनी में नहाया हुआ था और डेक पर बड़े, बूढे,बच्चे सब तेज संगीत पर थिरक रहे थे. सैंटा क्लॉज़ का ड्रेस पहने व्यक्ति किसी को बैठने ही नही दे रहा था. हमारे ग्रुप पर कुछ ख़ास ही मेहरबान था.और ग्रुप के बाकी सबलोग मुझपर मेहरबान थे. वो दिन ही कुछ ऐसा था. मेरे बर्थडे पर मुझे क्वीन या प्रिंसेस की तरह फील करवा आराम से बैठे रहने देना चाहिए था.पर  जरा सा सबकी  नज़र बचा कर  सांस लेने बैठती  ..और कोई ना कोई उठा ही देता .
 
बर्थडे का जिक्र आ  ही गया. सोचा था लास्ट  इयर की सरप्राइज़ पर तो पोस्ट लिख ही डाली  थी. उसके पहले मिले  सरप्राईज्स पर भी एक पोस्ट लिखी थी. इस बार ब्लॉग पर जिक्र नहीं करुँगी {रहेगा ही क्या, नया करने को ...:)} पर कुछ नई और मजेदार बातें हो ही गईं. एक तो बेटे ने अपने फेसबुक का स्टेटस  लगा दिया, " टुडे इज माइ मॉम्स बर्थडे " और उसके छः सौ फ्रेंड्स में से छुट्टियों में ज्यादातर ऑनलाइन रहते हैं.....दिन भर उसका फोन ,FB के अपडेट्स से टुनटुनाता   रहा, . मेरे फोन ने भी अच्छी संगत दी.:)

कुछ फोन कॉल्स  ने भी चौंका दिया. सुदूर कश्मीर की घाटियों और सात समंदर पार से ब्लॉगर मित्र के कॉल्स ,एक्स्पेक्ट नहीं किए  थे . ब्लॉग, इमेल, फेसबुक, एस.एम.एस से तो बधाइयां मिली हीं...अब जिन्हें नहीं पता था. ये पोस्ट पढ़ कर दे डालेंगे :). ऐसे ही थोड़े ना कहते हैं..
.ये दिल मांगे मोर 

पर मजेदार रहा..मेरी फ्रेंड्स का गिफ्ट. उनलोगों ने मुझे एक किलो प्याज ,गिफ्ट किया. अब इस पर   हंसू या रोऊँ..समझ में नहीं आया...(रोना तो पड़ेगा ही छीलते हुए )


दरअसल कुछ ही दिनों पहले ऐसे ही, मैने फोन पर थोड़ी शान बघारी,"पता है, मैं प्याज डालकर सब्जी बना रही हूँ"
"कितनी रिच हो ना..".राजी मेनन का जबाब था
"और क्या... हम नॉर्थ इंडियंस तो बिना प्याज के कुछ भी नहीं बनाते."..थोड़ा और रौब जमाया

और इनलोगों ने मुझे प्याज गिफ्ट करना तय कर लिया. मैने कहा था, गिफ्ट करते हुए फोटो भी लूंगी और ब्लॉग पर लिख दूंगी...वे और खुश हो गयीं..."हाँ, सब सोचेंगे .... कितना थॉटफुल  गिफ्ट दिया है,हमने" .पर गप-शप में फोटो लेना  ही भूल गयी...हाँ , प्याज की फोटो जरूर ले ली :) आधा किलो प्याज पहले से ही पड़ा था घर में यानि कि डेढ़ किलो प्याज मेरे घर में हैं....Thanx friends for making me feel like a queen :)


आप सबो का नव वर्ष ,हर्षोल्लास से भरा मंगलमय हो..नव-वर्ष की असीम शुभकामनाएं 

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

काली कॉफी में उतरती साँझ


थके कदमो से...
घर के अंदर  घुसते ही
बत्ती  जलाने का भी मन नहीं हुआ 


खिड़की के बाहर उदास शाम,
फ़ैल कर पसर गयी है
मुस्कुराने का नाटक करने की ज़रूरत नहीं आज
जी भर कर जी लूं, अपनी उदासी को
कब  मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका!
अपने मन को जिया जा सके
मनमुताबिक!


मोबाइल .... उफ़्फ़!!!
उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल
....कहीं छीन ना लें!!
साइलेंट पर रख दूं
लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार ही दूं ..
ब्लैक कॉफी के साथ ये उदासी ....
एन्जॉय  करूं ... इस शाम को...!

सारे कॉम्बिनेशन सही हैं
धूसर सी साँझ ...
अँधेरा कमरा ...
ये उदास मन 
..... और काली  कॉफी!! 


शाम के उजास को अँधेरे का दैत्य
लीलने लगा है
आकाश की लालिमा, समाती जा रही है उसके पेट में
दैत्य ने खिड़की के नीचे झपट्टा मार
थोड़ी सी बची उजास भी हड़प ली
छुप गए उजाले नाराज़ होकर

घुप्प अँधेरा फैलते ही
तारों की टिमटिमाहट
से सज गई
महफ़िल आकाश की
जग-मग करने लगें हैं, जो
क्या ये तारे 
हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं?
या कभी उदास भी होते हैं!!
मेरी तरह!!

इन्ही तारों में से एक तुम भी तो हो
पर ...
मुझे उदास देख क्या कभी खुश हो सकते थे तुम?

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

खेल में बच्चों का भविष्य और सचिन के गीले पॉकेट्स


   
'जीवन में खेल का महत्व' इस विषय पर हम सबने अपने स्कूली जीवन में कभी ना कभी एक लेख लिखा ही होगा.पर बड़े होने पर हम क्या इस पर अमल कर पाते हैं?अपने बच्चों को 'खेल' एक कैरियर के रूप में अपनाने की इजाज़त दे सकते हैं? हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते. कई मजबूरियाँ आड़े आ जाती हैं. हमारे देश में खेल का क्या भविष्य है और खिलाड़ियों की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है. पर अगर आपके बच्चे की खेल में रूचि हो,स्कूल की टीम में हो, और वह अच्छा भी कर रहा हो तो माता-पिता के सामने एक बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है.
 

स्कूल का नया सेशन शुरू होता है और हमारे घर में एक बहस छिड़ जाती है,क्यूंकि हर खेल की टीम का पुनर्गठन होता है और मैं अपने बेटे को शामिल होने से मना करती हूँ. जब तक वे छोटी कक्षाओं में थे,मैं खुद प्रोत्साहित करती थी,हर तरह से सहयोग देती थी. इनका मैच देखने भी जाती थी.कई बार मैं अकेली दर्शक होती थी. दोनों स्कूलों के टीम के बच्चे,कोच,कुछ स्टाफ और मैं. छोटे छोटे रणबांकुरे,जब ग्राउंड की मिटटी माथे पे लगा,मैच खेलने मैदान में उतरते तो उनके चेहरे की चमक देख, ऐसा लगता जैसे युद्ध के लिए जा रहें हों . मैंने,मैच के पहले कोच को 'पेप टॉक' देते सुना था और बढा चढ़ा कर नहीं कह रही पर सच में उसके सामने 'चक दे' के शाहरुख़ खान का 'पेप टॉक' बिलकुल फीका लगा था, फिल्म डाइरेक्टर के साथ में 'नेगी' थे, अच्छे इनपुट्स तो दिए ही होंगे.फिर भी मुझे नहीं जमा था.
पर जब बच्चे ऊँची कक्षाओं में आ जाते हैं,तब पढाई ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगती है. .क्यूंकि पढाई पर असर तो पड़ता ही है.जिन दिनों टूर्नामेंट्स चलते हैं. २ महीने तक बच्चे किताबों से करीब करीब दूर ही रहते हैं.और एक्जाम में 90% से सीधा 70 % पर आ जाते हैं.ऐसे में
बड़ी समस्या आती है.क्यूंकि भविष्य तो किताबों में ही है.(ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है).एक लड़के को जानती हूँ.जो ज़हीर और अगरकर के साथ खेला करता था. रणजी में मुंबई की टीम में था. १२वीं भी नहीं कर पाया. आज ढाई हज़ार की नौकरी पर खट रहा है...और यह कोई आइसोलेटेड केस नहीं है.ज्यादातर खिलाड़ियों की यही दास्तान है.यह भी डर रहता है,अगर खेल में बच्चों का भविष्य नहीं बन पाया तो कल को वे माता-पिता को भी दोष दे सकते हैं कि हम तो बच्चे थे,आपको समझाना था.और कोई भी माता पिता ऐसा रिस्क लेंगे ही क्यूँ??बुरा तो बहुत लगता है एक समय इनके मन में खेल प्रेम के बीज डालो और जब वह बीज जड़ पकड़ लेता है तो उसे उखाड़ने की कोशिश शुरू हो जाती है. इस प्रक्रिया में बच्चों के हृदयरूपी जमीन पर क्या गुजरती है,इसकी कल्पना भी बेकार है.

अगर उन्हें किसी खेल के विधिवत प्रशिक्षण देने की सोंचे भी तो मध्यम वर्ग के पर्स पर यह अच्छी खासी चपत होती है. coaching.traveling, bat, football ,studs,stockings,pads .... . लिस्ट काफी लम्बी है.
पता नहीं सचिन तेंदुलकर के गीले पौकेट्स की कहानी कितने लोगों को मालूम है? सचिन के पास एक ही सफ़ेद शर्ट पेंट थी.सुबह ५.३० बजे वे उसे पहन क्रिकेट प्रैक्टिस के लिए जाते.फिर साफ़ करके सूखने डाल देते और स्कूल चले जाते,स्कूल से आने के बाद फिर से ४ बजे प्रैक्टिस के लिए जाना होता.तबतक शर्ट पेंट सूख तो जाते पर पेंट की पौकेट्स गीली ही रहतीं.(मुंबई में कपड़े फैलाने की बहुत दिक्कत है,फ्लैट्स में खिड़की के बाहर थोड़ी सी जगह में ही पूरे घर के कपड़े सुखाने पड़ते हैं,यहाँ छत या घर के बाहर खुली जगह नहीं होती..उन दिनों उनके पास वाशिंग मशीन नहीं थी,और सचिन खुद अपने हाथों से कपड़े धोते थे,क्यूंकि उनकी माँ भी नौकरी करती थीं.वैसे भी सचिन अपने चाचा,चाची के यहाँ रहते थे,क्यूंकि उनका स्कूल पास था. चाचा-चाची ने उन्हें अपने बेटे से रत्ती भर कम प्यार नहीं दिया)इंटरव्यू लेने वाले ने मजाक में यह भी लिखा था, क्या पता सचिन के इतने रनों के अम्बार के पीछे ये गीले पौकेट्स ही हों,इस से एकाग्रता में ज्यादा मदद मिलती हो.

20/20 वर्ल्ड कप के स्टार रोहित शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं.रोहित शर्मा मेरे बच्चों के स्कूल SVIS से ही पढ़े हुए हैं. ये पहले किसी छोटे से स्कूल में थे.एक बार समर कैम्प में SVIS के कोच की नज़र पड़ी और उनकी प्रतिभा देख,कोच ने रोहित शर्मा को SVIS ज्वाइन करने को कहा.पर उनके माता-पिता इस स्कूल की फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे. कोच डाइरेक्टर से मिले और उनकी विलक्षण प्रतिभा देख डाइरेक्टर ने सिर्फ पूरी फीस माफ़ ही नहीं की बलिक क्रिकेट का पूरा किट भी खरीद कर दिया,रोहित शर्मा ने भी निराश नहीं किया. 'गाइल्स शील्ड' जिस पर 104 वर्षों तक सिर्फ कुछ स्कूल्स का ही वर्चस्व था.SVIS के लिए जीत कर लाये. मिस्टर लाड को कोचिंग के अनगिनत ऑफर मिलने लगे.बाद में तो एक कमरे में रहने वाले रोहति शर्मा ने मनपसंद कार की नंबर प्लेट 4500 के लिए 95,000Rs. RTO को दिए.(एक ख्याल आया,राज ठाकरे ,इन्हें मुम्बईकर मानते हैं या नहीं क्यूंकि रोहित शर्मा के पिता भी कुछ बरस पहले कानपुर से आये थे )

सचिन और रोहित शर्मा हर कोई तो नहीं बन सकता.पर जबतक हम बच्चों को मौका देंगे ही नहीं खेलने का,उनकी प्रतिभा का पता कैसा चलेगा?..जब कभी मैं बोलती हूँ,सचिन ढाई घंटे तक एक स्टंप से दीवार पर बॉल मारकर प्रैक्टिस करते थे. बच्चे तुरंत पलट कर बोलते हैं हमें तो दस मिनट में ही डांट पड़ने लगती है.
खेल के मैदान से बड़ी ज़िन्दगी की कोई पाठशाला नहीं है.मैंने देखा है, कैसे इन्हें ज़िन्दगी की बड़ी सीख जो मोटे मोटे ग्रन्थ नहीं दे सकते. खेल का मैदान देता है.एक मैच हारकर आते हैं,मुहँ लटकाए,उदास....पर कुछ ही देर बाद एक नए जोश से भर जाते हैं,चाहे कुछ भी हो,हमें अगला मैच तो जीतना ही है. यही ज़ज्बा मैंने खेल से इतर चीज़ों के लिए भी नोटिस किया है.
दूसरों के लिए कैसे त्याग किया जाए,और उस त्याग में ख़ुशी ढूंढी जाए,बच्चे बखूबी सीख जाते हैं.गोल के पास सामने बॉल रहती है,पर इन्हें जरा सी भी शंका होती है,अपने साथी को बॉल पास कर देते हैं,वो गोल कर देता है,उसे शाब्बाशी मिलती है,कंधे पर उठाकर घूमते हैं,अखबार में नाम आता है.और उसकी ख़ुशी में ही ये खुश हो जाते हैं.
 

आज टीनेजर बच्चों को टीचर तो दूर माता-पिता भी हाथ लगाने की नहीं सोच सकते.पर गोल मिस करने पर,या कैच छोड़ देने पर कोच थप्पड़ लगा देता है,और ये बच्चे चुपचाप सर झुकाए सह लेते हैं.एक बार भी विरोध नहीं करते.
समानता का पाठ भी खेल से बढ़कर कौन सिखा सकता है? अभी कुछ दिनों पहले पास के मैंदान में ही अंडर 14 का मैच था. आमने सामने थे,धीरुभाई अम्बानी स्कूल,(जिसमे शाहरुख़,सचिन,सैफ,अनिल,मुकेश अम्बानी के बच्चे पढ़ते हैं) और सेंट फ्रांसिस (जिसमे मध्यम वर्ग के घर के बच्चों के साथ साथ,ऑटो वाले और कामवालियों के बच्चे भी पढ़ते हैं...स्कूल अच्छा है,और fully aided होने की वजह से फीस बहुत कम है.) धीरुभाई स्कूल का कैप्टन था शाहरुख़ का बेटा और सेंट फ्रांसिस का कैप्टन था एक ऑटो वाले का बेटा.जिसकी माँ,मोर्निंग वाल्क करने वालों को एक छोटी से फोल्डिंग टेबल लगा,करेले,आंवले,नीम वगैरह का जूस बेचती है. हम भी, कभी कभी सुबह सुबह मुहँ कड़वा करने चले जाते हैं. उसने उस दिन लड्डू भी खिलाये,बेटे की टीम जीत गयी थी. निजी ज़िन्दगी में ये बच्चे एक साथ कभी बैठेंगे भी नहीं पर मैंदान में धक्के भी मारे होंगे,गिराया भी होगा,एक दूसरे को..
अफ़सोस होता है...यह सबकुछ जानते समझते हुए भी हम मजबूर हो जाते हैं...क्यूंकि दसवीं में जमकर पढाई नहीं की तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा.और फिर किसी वाईट कॉलर जॉब हंटिंग की भेड़ चाल में शामिल कैसे हो पायेंगे ,ये नन्हे खिलाड़ी

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

हम उत्तर भारतीय क्या दे सकते हैं ,इन सवालों के जबाब ??


अपनी  एक कहानी में मैने जिक्र किया था कि कैसे , छोटे शहरों से आकर महानगरो में बसे लोग ,अपने बच्चों के ऊपर ज्यादा  ही प्रतिबन्ध लगाते हैं , और जैसे उन्हें एक जिद सी होती है लोगो को दिखाने की कि मेरे बच्चों को महानगर की हवा छू भी नहीं गयी है...वे बहुत ही आज्ञाकारी हैं ..और हमारी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करते. कुछ ऐसा ही उदाहरण हाल  में ही देखने  को मिला. और यह मेरी पिछली पोस्ट से भी  सम्बंधित है...जैसे  कि माता-पिता, ने फिल्मो में काम करने की इजाज़त तो दे दी..पर यह अंकुश हैं कि हर तरह के रोल नहीं करने हैं. इसी तरह ,आजकल लड़कियों को उच्च -शिक्षा की... मनपसंद नौकरी की...यहाँ तक कि प्रेम विवाह तक की इजाज़त है पर शर्त ये है कि प्रेम अपनी ही जाति के युवक से करो...हाल में ही पढ़ी शरद कोकास जी की  कविता की ये पंक्तियाँ याद हो आयीं, 
           
     

अपने आसपास
उसने बुन लिया है जाल संस्कारों का
उसने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की
जंगल में बहने वाली हवा
एक अच्छे दोस्त की तरह
मेरे कानों में फुसफुसाते हुए गुज़र जाती है
दोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है

बस फर्क ये है कि यहाँ जंगल की हवा फुसफुसाती नहीं बल्कि अभिभावक  स्पष्ट शब्दों में बरज देते हैं.


मेरी एक परिचिता हैं. सहेली भी कह सकती हूँ परन्तु हमारी मुलाक़ात  बहुत ही कम  होती है. साल में मुश्किल से 3,4 अवसर आते होंगे,जब  हम मिल बैठ कर बातें करे. मुंबई में नौकरी वाली  स्त्रियाँ सुबह 8 बजे घर से निकलती हैं और शाम 7,8 के पहले घर नहीं लौट पातीं. छुट्टी का दिन,सबके लिए परिवार का दिन होता है और नौकरी वाली  महिलाओं के सैकड़ों काम राह तक रहें होते हैं. लिहाजा आते-जाते मिल लिए तो बस रास्ते में ही दो मिनट बात हो जाती है,बस . एक दिन उन्होंने कहा कि वे घर पर आएँगी, उन्हें कुछ जरूरी बात करनी है.


मुझे अपने आस-पास की घटनाओं के बारे में लिखते  देख,किसी ने कहा था आपने लोगों के घर में hidden camera  लगवा रखा है क्या ? ऐसा तो नहीं है पर शायद कहानियाँ खुद मुझे ढूँढती हुईं, मुझ तक पहुँच जाती हैं. :)


मिसेज़ जेनिफर  (कल्पित  नाम) का बेटा एक प्रतिष्ठित विमान सेवा में काम करता है. वहाँ एक एयरहोस्टेस से उसका अफेयर हुआ. एयरहोस्टेस उत्तर-भारत की है. उसके पिता कर्नल हैं. उन्होंने इस सम्बन्ध पर कड़ी आपत्ति जताई और बेटे को जान से मारने की धमकी दे डाली. जेनिफर ने  तीन साल पहले ही अपने पति को खोया है. घर में सिर्फ वो और उनका  बेटा है, बेटी की शादी हो चुकी है. वो भी मुंबई में ही थोड़ी दूरी पे रहती है. जेनिफर मुझसे पूछ रही थी, टी.वी. अखबार में तो पढ़ती रहती हैं पर "क्या सचमुच, यू.पी. में 'ऑनर किलिंग' प्रचलन में है और उनके बेटे को खतरा है? " मैं उनके सामने तो सीधी बैठी थी पर अंदर ही अंदर मेरा सर शर्म से झुका जा रहा था. किस बिना पर मैं उन्हें ये आश्वाशन दूँ कि नहीं घबराने की कोई बात नहीं, उत्तर-भारत में ये सब नहीं होता. वो लड़के के साथ-साथ लड़की के लिए भी चिंतित थीं. वो कई बार उनके घर आ चुकी थी और उन्हें पसंद भी थी. मैने पूछा,"आपको कोई आपत्ति नहीं?" तो कहने लगीं  कि उनकी भी इच्छा तो थी कि कैथोलिक लड़की ही बहू बन कर घर आए पर अगर उनके बेटे को ये लड़की पसंद है तो उन्हें भी पसंद है,आखिर ज़िन्दगी, उन दोनों  को साथ गुजारनी है.


उन्होंने कई बार लड़की के पिता से बात करनी चाही.लड़के ने मिलना चाहा पर वे लोंग बात करने को भी तैयार नहीं. अपनी ही बेटी को  टॉर्चर  करने लगे  और उसकी नौकरी छुडवा उसे अपने नेटिव प्लेस पर भेजने को आमादा हो गए. विमान-सेवा में भी बात कर दोनों की ड्यूटी का समय बदलवा दिया ताकि दोनों मिल ना सकें .आखिर लड़की ने कहा कि ,' इस लड़के से रिश्ता तोड़ लिया  है" फिर भी उसका मोबाइल फोन जब्त कर लिया  और उसे कहीं भी आने-जाने की मनाही कर दी. सिर्फ जो कार पिक-अप करने आती, उस से एयरपोर्ट जाती और फिर घर वापस. उसकी माँ रोज आलमारी में उसका एक-एक कपड़ा उठा चेक करती थी की कहीं उसने 'सेल फोन' ,छुपा कर तो नहीं रखा. पर आज के बच्चे 'तू डाल-डाल तो मैं पात-पात'... लड़के ने उसे किसी के हाथो 'सेल फोन' भिजवाया जिसे वह अपने जूते में छुपा कर रखती थी और सिर्फ घर से एयरपोर्ट के रास्ते में उनसे बात करती थी....ये सब बताने  के साथ-साथ व्यग्रता से वे मुझसे पूछतीं, "सचमुच पढ़े-लिखे लोग तो ऑनर किलिंग नहीं करते,ना ...मेरे बेटे को तो कुछ नहीं होगा."


मैने किसी तरह उन्हें अस्श्वस्त किया कि ," नहीं.. ऐसा कुछ नहीं होगा" पर मैं सोच रही थी, आज के युग में भी  लड़की, "लंदन, पेरिस, अमेरिका जा सकती है पर अपनी मर्जी से शादी नहीं कर  सकती." 


बीच-बीच में वे बाहर मिल जातीं ,बताती रहतीं..एक इतवार को  उन्होंने  बताया ,"सबकुछ वैसा ही है..पर लड़की के पैरेंट्स  को विश्वास हो गया है कि वो अब उनके बेटे से नहीं मिलती.और इसीलिए उनलोगों ने उसे एक सहेली के बर्थडे में जाने की इजाज़त दे दी और वो उनलोगों से मिलने आज उनके घर पर आई थी. वे , दोनों की कोर्ट मैरेज करवाने की सोच रही थीं. और पहली बार मुझे पता चला कि 'क्रिश्चियन लोगो के लिए कोर्ट मैरेज  के कुछ अलग कानून हैं' .


दूसरे दिन सोमवार की दोपहर यूँ ही मैने खिड़की से देखा, जेनिफर की बेटी परेशान सी अपनी छोटी सी बच्ची को लेकर धूप में खड़ी थी. . पूछने पर बताया कि माँ के ऑफिस से आने का इंतज़ार कर रही है .मैने अपने घर पर बुला लिया तब उसने बताया कि कल वो लड़की यहाँ आई थी,यह बात उसकी बेस्ट फ्रेंड ने उसके माता-पिता को बता दी. और वे लोंग उसपर बहुत  नाराज़ हुए. उसकी नौकरी छुडवा उसे गाँव  भेज रहें थे.तो उसने बहुत रो-धो कर  अंतिम बार एक फ्लाईट पर जाने की इजाज़त मांगी और एयरपोर्ट से सीधा लड़के के पास आई है. दोनों उसके घर के इलाके के पुलिस स्टेशन में गए हैं ताकि कहीं 'अपहरण का इलज़ाम ना लगा दें ' थोड़ी देर बाद हैरान-परेशान सी माँ भी आ गयीं. बेटी ने हँसते हुए ही पर विद्रूपता से कहा, "उसके माता-पिता को अपने समाज में बदनामी का डर था कि सब हसेंगे कि लड़की ने कैथोलिक लड़के से शादी कर ली...अब क्या कहेंगे जब सब हसेंगे , लड़की घर से भाग गयी"


इन दोनों की कोर्ट  मैरेज हो गयी...दस दिनों तक अपना फ़्लैट छोड़, ये लोग,रिश्तेदारों के घर रहें..."हमलोगों को भी नज़र रखने को कहा था कि कोई हमारे बारे में पूछने तो नहीं आता" वाचमैन को सख्त ताकीद थी, 'किसी अनजान को कुछ नहीं बताने की ' पर सब ठीक रहा . जेनिफर ने बड़े शौक से मेरे साथ जाकर मंगलसूत्र ख़रीदा कि "आखिर आपलोगों के धर्म में मंगलसूत्र का महत्त्व  है , लड़की को कोई अफ़सोस ना हो" उसके माता-पिता ने कोई अवांछित कदम तो नहीं उठाया पर बेटी के अकाउंट से उसके अब तक के कमाए चार  लाख रुपये निकाल लिए .

रविवार, 12 दिसंबर 2010

'.गे' का रोल करना क्या कोई अपराध है??

युवराज पाराशर
ज्यादातर लिखने-पढनेवाले लोंग छोटे शहरो से ही आते हैं...और बड़े गर्व से कहते हैं...'मैं तो छोटे शहर का हूँ' या किसी की तारीफ़ में भी कहते हैं..'उसके अंदर एक छोटे शहर का आदमी है'. मैं भी यह जुमला जब-तब अपने महानगर में जन्म-पले बढे दोस्तों के ऊपर फेंक देती हूँ. वे लोंग कहते/कहती भी  हैं, इतने वर्ष  महानगर में रहने के बाद भी खुद को छोटे शहर का कहती हो...मेरा  रेडीमेड जबाब होता है..' ग्रोइंग एज' तो वहीँ गुजरा .पर कभी -कभी छोटे शहर की  कुछ मानसिकता बहुत दुखी कर जाती है और सोचने पर मजबूर  कर देती है क्या छोटे शहर का सब-कुछ उजला-साफ़-धुला-पुंछा  ही है?

कुछ दिनों पहले 'आगरा' शहर की  एक खबर पढ़ी. वहाँ  का एक नवयुवक, मुंबई के ग्लैमर वर्ल्ड में अपनी जगह बनाने आया. उसने प्रतिष्ठित 'Gladrags competition भी जीता. यह प्रतियोगिता सर्वश्रेष्ठ पुरुष मॉडल  के चुनाव के लिए की जाती है. (लड़कियों के लिए सुपर मॉडल  प्रतियोगिता  होती है जिसे सबसे पहले 'विपाशा बसु' ने जीता था और आज वे एक सफल अभिनेत्री  हैं) उसने कई बड़ी कंपनियों  के लिए मॉडलिंग  की परन्तु अंततः फिल्मो में काम करना ही उनका लक्ष्य होता है.
युवराज  पाराशर को भी एक फिल्म मिली, "डोंट नो वाई, ना जाने क्यूँ. " यह फिल्म 'गे रिलेशनशिप' पर आधारित थी. इसी विषय पर एक अंग्रेजी फिल्म बनी थी." ब्रोकबैक माउन्टेन" इस फिल्म को पूरी दुनिया में बहुत सराहा गया. इसे  कई ऑस्कर अवार्ड भी मिले. यह हिंदी फिल्म भी इसी पर आधारित थी.

भारत में 'गे संबंधो' पर बनी यह पहली सीरियस फिल्म थी. 'दोस्ताना' वगैरह में भी इस विषय को लिया गया है,पर वहाँ कॉमेडी है और उसके नायक सचमुच 'गे' नहीं हैं. इस फिल्म को सिडनी फिल्म फेस्टिवल,लंडन फिल्म फेस्टिवल, न्यूयार्क फिल्म फेस्टिवल में दिखाने के लिए चुना गया. सिडनी फिल्म फेस्टिवल में इसे "viewer's choice award ' भी मिला.स्वीडन,आयरलैंड,
नॉर्वे, टर्की, फिलिपिन्स आदि कई  देशों में इसे वहाँ की  भाषा में डब करके दिखाया गया. फिल्म के दोनों हीरो, युवराज पाराशर और कपिल शर्मा को कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लेक्चर के लिए भी बुलाया गया.

लेकिन  युवराज पाराशर के घरवालो को उसकी इस सफलता से किंचित भी प्रसन्नता नहीं हुई. युवराज पाराशर  ने पहले तो अपने घरवालो से यह बात छुपाये रखी कि वह एक 'गे' का रोल कर रहा है. पर जब फिल्म रिलीज़ होने के बाद घर वालो को पता चला कि उसने एक 'गे' का रोल किया है तो वह बहुत नाराज़ हुए. अपने बेटे से सारे नाते तोड़ लिए, यही नहीं उसके पिता ने एक कदम आगे जाकर कोर्ट में  'युवराज पाराशर ' को बेदखल भी कर दिया. पिताजी ने अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि ,"उसकी माँ रो रो कर बेहाल हो गयी है...वो डिप्रेशन में है. रिश्तेदार और पड़ोसी हमारा मजाक उड़ाते हैं. हमारा घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. अब कोई लड़की उस से शादी नहीं करेगी. इसीलिए मैं यह कदम उठाने को मजबूर हो गया हूँ" और अपने ही बेटे का परित्याग  कर दिया. वे चाहते तो गर्व से अपने बेटे की सफलता से लोगो को अवगत करवा सकते थे. उन्हें सच्चाई बता सकते थे. बाकी लोगो के मस्तिष्क  पर छाया भ्रम दूर कर सकते थे.


सर्वप्रथम तो उनकी अनुमति से या फिर अपनी मर्जी से ही बेटे ने जब ग्लैमर वर्ल्ड में कदम रख ही दिया तो इस तरह की बातों के लिए उन्हें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए था. और बेटे को बेदखल करते वक्त उन्होंने यह भी नहीं सोचा, कि उसकी दुनिया वैसे ही कठिन और संघर्ष भरी है. उसपर से उन्होंने उसका एक मानसिक सहारा भी छीन लिया. वह भी बिना किसी अपराध के. एक 'गे लड़के' का रोल करना क्या अपराध की  श्रेणी में आता है?


वैसे भी इस विषय को लेकर लोगो में बहुत भ्रांतियां हैं. मैने कई लोगो को कहते सुना है कि यह सब पश्चिम की देन है..हमारी संस्कृति में यह सब कभी नहीं था. पर अगर नहीं था तो 'समलैंगिक' शब्द कैसे बना? एक बार एक सहेली से बात हो रही थी, वो कैथोलिक है और 'रायपुर' से है. उसका कहना था, कि उसके माता-पिता और उसके सास-ससुर जानते ही नहीं कि इस तरह के सम्बन्ध भी होते हैं या ऐसे शब्द भी हैं. मुझे लगता है,अवगत तो सब हैं पर इसके बारे में बात नहीं करते या फिर ना जानने का दिखावा करते हैं. यानि कि पाखण्ड . इस्मत चुगताई ने शायद १९४० में लेस्बियन संबंधो  पर आधारित एक कहानी लिखी थी 'लिहाफ' उसके लिए उन्हें काफी विरोध सहने पड़े. पर अब 2010 है...और मानसिकता वहीँ की
वहीँ .

जबकि महानगरो में ,कम से कम से कम मुंबई में लोग खुले विचार के हैं. मेरे बेटे को नाटको का शौक  है. उसने एक नाटक फेस्टिवल में भाग लिया था. उसका रोल एक जमूरे का था. और तेल लगे बाल, घुटनों तक की पैंट पहने उसने बेलौस अच्छी एक्टिंग की थी. एक दूसरे नाटक में एक बच्चे ने एक 'गे' का रोल किया था.' गोल्ड मेडल ' उस 'गे' का रोल करनेवाले को मिला. कई लोगो में मतभेद था कि 'जमूरे' ने ज्यादा अच्छी एक्टिंग की थी.माँ होने के नाते स्वाभाविक है मुझे भी ऐसा ही लगता. पर फिर मैने सोचा,एक तो उस लड़के ने ऐसा रोल करने की हिम्मत की, जबकि वह बच्चा सिर्फ सत्रह साल का था. और दूसरे इस से जागरूकता भी बढ़ेगी और लोंग इसे अस्पृश्य नहीं मानेंगे. उसके मेडल रिसीव करते ही हॉल तालियों से गूँज  उठा और इसमें उसके माता-पिता की तालियाँ भी शामिल थीं

 

आखिर ऐसा क्या है कि एक ही तरह की घटना एक जगह तो माता-पिता से तालियाँ दिलवाती हैं और दूसरी तरफ बेदखली? जबकि आज संचार साधनों के माध्यम से पूरा विश्व ही एक गाँव बन गया है. फिर मानसिकता में यह अंतर क्यूँ है? जबकि मेरा निजी अनुभव यह है कि पत्र-पत्रिका, छोटे शहरो वाले लोग ज्यादा पढ़ते हैं. वहाँ हर नुक्कड़ कोने पर पत्रिकाओं की दुकान मिल जायेगी. जबकि यहाँ मुंबई में या तो स्टेशन पर मिलेंगी या कहीं दूर-दराज किसी एक जगह पर. पढने का कतई शौक नहीं है यहाँ के लोगो को. पर वह एक अलग मुद्दा है. छोटे शहरो में आज भी नवयुवक ज्यादातर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे होते हैं और उसके लिए उन्हें पत्रिकाएं पढनी ही पढ़ती हैं. लेकिन जब वहाँ के लोंग , इतनी पत्रिकाएं पढ़ते हैं फिर वो जागरूकता  क्यूँ नहीं है? चीज़ों को स्वीकारने की विशाल हृदयता क्यूँ नहीं है?? आजकल तो टी.वी. के माध्यम से भी हर तरह की  खबर घर-घर पहुँच रही है. फिर भी इस तरह की घटनाएं देखने को मिलती हैं. यह बहुत ही दुखद है.

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

छोटी सी ये दुनिया...पहचाने रास्ते हैं...

शिल्पी(बीच में ) JNU के अपने गैंग के साथ 
मेरी छोटी बहन 'शिल्पी' JNU से फिलॉसफी में पी.एच.डी कर रही है और 'जानकी देवी कॉलेज' में 'एड हॉक लेक्चरर' भी है...(मुझे तो समझ नहीं आता इतनी छोटी सी लड़की की बातें बाकी बच्चे कैसे सुन  लेते हैं.....ये भी तो उनमे से एक ही लगती है). शादी में JNU से उसके  कई फ्रेंड्स आए थे और शादी का सारा कार्यभार 'शिल्पी और उसके फ्रेंड्स ने ही संभाल रखा था. ये बच्चे सुबह से देर रात तक शादी की तैयारियों में व्यस्त रहते. कभी सुबह सुबह सब्जी  मंडी जा कर ढेर सारी सब्जी लाते..तो कभी फूलवाले , मिठाईवाले या फिर टेलर के पास दौड़ लगाते. इतना अच्छा लगा देख,'शुचि' (bride to be) को पार्लर लेकर उसका चौथी कक्षा में मिला दोस्त अनुज जा रहा था...आज,अनुज ड्राइव कर रहा था और दोनों मुझे वो किस्से सुना रहें थे जब स्कूल  में अनुज,उसकी बड़ी बहन नमिता,  शिल्पी और शुचि एक ही रिक्शे में स्कूल जाते थे. शुचि-नमिता एक क्लास में थे और शिल्पी -अनुज एक क्लास में. चारो आमिर खान के  फैन...उसका नया पोस्टर या ऑडियो कैसेट आते ही टूट  पड़ते...अनुज को पोहा पसंद था ,उसने पहले से ही  कह रखा था.. 'शुचि दी.. मेरे लिए जरूर बचा कर रखना" और शुचि लंच-बॉक्स में  उसके लिए बचा कर ले आती थी. दोनों याद कर रहें थे..कितने अच्छे दिन थे बस रिजल्ट के एक दिन पहले टेंशन होता...बाकी सारे समय मस्ती. लकी हैं वे लोंग..जिनकी, बचपन की दोस्ती यूँ लगातार बनी रहती है.


शिल्पी के  एक फ्रेंड सत्येन ने रंग-बिरंगे दुपट्टों को पता नहीं कैसे मोड कर बड़े ख़ूबसूरत  फूलों का रूप दिया था. और संगीत वाले दिन पूरे हॉल को उन दुपट्टों से सजाया था. मेरी भी सीखने  की तमन्ना थी पर वक्त ही नहीं मिला..वरना एक पोस्ट भी लिख देती उसपर. जब उस से ये बात कही.तो कहने लगा, "ओह! मैं एक सेलिब्रिटी बनने से चूक गया" .जो भी काम सामने दिखे उसे  ये लोंग बिना किसी का इंतज़ार किए झट से पूरा कर देते . सत्येन, अफज़ल, ललित,पवन,जावेद,अनुज  (और नाम मुझे याद नहीं आ रहें ) तुम सबो को तन और मन  से ख़ूबसूरत लड़की जीवनसंगिनी के रूप में मिलेगी ...ऐसा शाहरूख खान ने DDLJ में कहा था कि लड़की की शादी में काम करने से ख़ूबसूरत दुल्हन मिलती है :)


पवन मेराज
शादी के दो  दिन पहले शिल्पी ने बताया कि आज  उसका एक फ्रेंड आ रहा है 'पवन मेराज' वो भी एक ब्लॉगर  है. मेरी उत्सुकता जगी. पूछने पर बताया कि वह नई, आधुनिक कविताएँ लिखा करता है. पवन ने मिलते ही कहा,'हाँ मैं आपको जानता हूँ...आपका ब्लॉग देखा है' अब यह नई बात नहीं रह गयी थी.  परिचय करवाते ही एक उत्सुकता होती है, कि लोंग पूछेंगे...".कहाँ रहती हैं..क्या करती हैं?" उसके अधिकाँश फ्रेंड्स...एक लाइन में बात ख़तम कर देते,'हाँ... आपको जानते हैं' .:(. मैने पवन से यूँ ही पूछ लिया, ' अशोक कुमार पाण्डेय..और शरद कोकास का ब्लॉग पढ़ते हो?"..लगा कविताओं में रूचि है..तो उन्हें जरूर पढता होगा. और वह कहने लगा..."वे दोनों तो मेरे बड़े  भाई जैसे हैं . शरद भैया  हमेशा गाइड करते हैं. अशोक भैया से तो अक्सर  मिलना होता है. वे कदम-कदम पर मेरा मार्गदर्शन करते हैं. कोई भी बड़ा निर्णय मैं उनकी राय के बिना नहीं लेता." .पवन ब्लॉग पर ज्यादा सक्रिय नहीं है...उसकी दूसरी बहुत सारी गतिविधियाँ हैं. उस से साहित्य जगत की ही बातें होती रहीं. हाल में ही 'वसुधा' पत्रिका में उसकी एक लम्बी कविता छपी है. उसने चौदह साल की उम्र से कविताएँ लिखनी शुरू  कर दी थीं...और पवन को अपनी  सारी कविताएँ कंठस्थ हैं. उर्दू का भी उसे अच्छा ज्ञान है और एडवेंचरस भी काफी है...सेल्समैनशिप  से लेकर पत्रकारिता तक आजमा चुका है...अभी तो एक अच्छी सी नौकरी में है.


अशोक जी बिटिया वेरा के साथ
जब मैने शिल्पी को यह सब बताया  कि ' अशोक कुमार पाण्डेय अच्छे मित्र हैं..पवन उन्हें बड़े भाई की तरह मानता है' तो  शिल्पी बड़े जोर से चौंकी .."तुम अशोक भैया को कैसे जानती हो..?" (अशोक जी से मित्रता का  भी दिलचस्प किस्सा है. उन्होंने शायद कुछ सामयिक विषयों पर  मेरी टिप्पणियाँ देख मुझे "जनपक्ष' ज्वाइन करने का आमंत्रण  भेजा था. मैने 'जनपक्ष' ब्लॉग चेक किया और पाया वहाँ तो बड़े बड़े साहित्यकारों...पत्रकारों के गंभीर आलेख  थे .और मैने  अशोक जी को जबाब भेज दिया कि "वहाँ तो बड़ा गंभीर साहित्य लिखा जाता है..जबकि मैं तो बहुत हल्का-फुल्का लिखती हूँ, क्या कंट्रीब्यूट करुँगी? " अशोक जी का जबाब आया "गंभीर साहित्य  क्या होता है?" और मैने मजाक में  लिख डाला, "बोरिंग सा.." दरअसल सोचा ,'कौन से मेरे मित्र हैं...बुरा भी मान जायेंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.' पर अशोक जी ने बुरा नहीं माना और उनका दो तीन स्माईली  के साथ जबाब आया कि "गंभीर साहित्य हमेशा बोरिंग नहीं होता " और मानती हूँ इस बात को...शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने 'जनपक्ष' से परिचय करवाया और कुछ बहुत ही उत्कृष्ट आलेख पढने को मिले. ) शिल्पी  को तो बता दिया..पर अब मेरी बारी थी पूछने की कि वो कैसे जानती है,उन्हें  तो बताने लगी.."मैं तो उनके घर पर दो दिन रही भी हूँ...जब वह ग्वालियर कोई परीक्षा देने गयी थी तो अशोक जी के घर पर ही रुकी थी " (रिश्तेदारों से कई साल बाद मिलो तो कितना कुछ घट चुका होता है उनके जीवन में... कितने नए रिश्ते बन गए होते हैं...पता भी नहीं चलता )


शिल्पी, अशोक जी की ..किरण भाभी की (अशोक जी की पत्नी किरण पाण्डेय अच्छी बैडमिन्टन प्लेयर है....नेशनल लेवल पर बैडमिन्टन खेल चुकी हैं,पर तब वे 'किरण विश्वकर्मा' थीं. ) और उनकी प्यारी बिटिया 'वेरा' की छोटी सी उम्र में समझदारी भरी कई बातें बताती रही. शिल्पी ने एक रोचक बात बतायी कि वे लोंग यूँ ही चर्चा कर  रहें थे कि 'बचपन की   कौन सी हसरत बाकी है...जो अब तक नहीं की' { अगली परिचर्चा के लिए एक नया आइडिया भी मिल गया :) } शिल्पी ने कहा.."उसे 'बबल गम' से गुब्बारे बनाने नहीं आते " और वेरा ने तुरंत उसे सिखाने का बीड़ा उठा लिया..सिखाया ही नहीं...अगले दिन ताकीद की कि ढेर सारे बबल गम्स लेकर आइयेगा आपको प्रैक्टिस करानी है. :)


जब मुंबई लौट कर ये सब बातें अशोक जी को बताईं तो उनका चौंकना लाज़मी था ...अच्छा था हम चैट कर रहें थे वरना जिस तरह से वे चौंके थे अगर फोन पर बताती तो फोन उनके हाथों से गिर,अपनी  सदगति को प्राप्त हो गया होता:). उन्होंने कहा  " दुनिया कितनी छोटी है, न "..सच में दुनिया कितनी छोटी है ..और खूबसूरत  भी...फिर भी लोंग प्यार से एक-दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ नहीं बढाते बल्कि सामने हाथ बांधे , टेढ़ी गर्दन किए... तिरछी  नज़रों से देखते रहते हैं..{कितने ही चेहरे घूम गए नज़रों के सामने ..:) :) }

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

एक मुख़्तसर सी मुलाकात.......महफूज़ के साथ

लखनऊ  में बहन की शादी तय होने की खबर सुनते ही ,मैने लखनऊ जाने का प्लान बना लिया था. और लखनऊ जाऊं और महफूज़ से ना मिलूं ये तो मुमकिन ही नहीं.  महफूज़ के साथ हुए हादसे के बाद तो मिलने की इच्छा और भी बलवती हो गयी कि अपनी आँखों से देख लूँ..वो बिलकुल ठीक तो है.
पर गिरिजेश राव जी की तरह महफूज़ से भी यही कहा कि शादी की गहमागहमी से फ्री होते ही खबर करती हूँ. शादी संपन्न हो जाने के बाद मेरे पास दो दिन थे. इन्ही दो दिनों में महफूज़ से मिलने की  सोच रखा था .पर हुआ यूँ कि बारात वाले दिन मैं अपना मोबाइल चार्ज करना ही भूल गयी. दूसरे दिन बहन की विदाई के बाद बातें करते कब सो गयी पता ही नहीं चला. (दो तीन दिनों से सुबह तीन-चार बजे सोना...और शादी की रात का जागरण तो था ही ) मोबाइल स्विच्ड ऑफ हो चुका था. रात में ख्याल आया तो चार्जर लगाया.

 दूसरे दिन सुबह स्विच ऑन करते ही महफूज़ के मेसेज आने शुरू हो गए..."आप कहाँ है?"..."आप लौट तो नहीं गयीं"..."प्लीज़ कॉल मी"...अब जाकर अपनी लापरवाही  का अहसास हुआ .उस दिन तो महफूज़ से मिलना था. तुरंत  कॉल बैक किया.  पता चला, महफूज़ फोन कर-कर के परेशान था और मराठी में रेकॉर्डेड मेसेज सुन और परेशान हो गया कि शायद मैं बिना मिले लौट गयी.(ऐसा भला कैसे हो सकता है ) यह सुन और भी अफ़सोस हुआ कि उसने अपनी बहन आएशा के साथ घर आने का प्लान किया हुआ था. आएशा से भी मिलने का सुनहरा  अवसर गँवा दिया था, मैने. आज का दिन तो था पर मेरी शॉपिंग पूरी बाकी थी. चिकन के कुरते...टॉप, सलवार-सूट ,साड़ियों की ढेर सारी खरीदारी करनी थी और शाम की ट्रेन थी. हिचकते हुए महफूज़ से कहा तो उसने कहा ."कोई बात नहीं शॉपिंग ख़तम कर के घर आ जाइए फिर मुझे कॉल करिए .मैं घर पर मिलने आ जाऊँगा." मन ही मन सौ बार थैंक्स कहा उसे.

पर घर से 'अमीनाबाद  मार्केट' बहुत दूर था उस पर से  घर से निकलने में भी देर हो गयी. शादी के घर से निकलना  कितना मुश्किल होता है,सबको आभास होगा...कहीं कोई बहन,मौसी अटैची खोले बैठी होती है..और दूसरी कहती है."जरा ये साड़ी तो देखो..कितनी सुन्दर लग  रही है"...वहाँ ठिठकते हुए, आगे बढ़ो..तो कोई जेवर दिखा रहा होता है...कहीं कोई बच्ची प्यारा सा डांस कर रही होती है,  दो पल  को कदम रुक  ही जाते हैं.....दरवाजे से निकलने  को ही होते हैं कि कोई  काम करनेवाला  फरमाइश कर देता है..'जरा किचन से ये निकाल  कर दे दो" अब या तो खुद उनका काम कर दो..या किसी को ढूंढ कर सौंप दो...सब पूरा कर बाहर निकलो ..तो कुछ
एक्चुअली मैं शादी में इसमें बिजी थी..
बना बनाया जो मिल रहा था :)

बुजुर्ग, कुर्सी लगाए बैठे होते हैं..देखते ही आवाज़ देंगे.."जरा देखो तो कब से चाय के लिए कहा था...लाया क्यूँ नहीं अब तक.." अब वापस पूरी दूरी तय कर चाय के लिए ताकीद करने जाओ.. ..आप सोचते हैं,जल्दी से ऑटो ले निकल  जाएँ..पर किसी घर वाले की नज़र पड़ जाती है..और वे पीछे पड़ जाते हैं.."अरे इतनी गाड़ियां हैं..ऑटो से क्यूँ जाओगी...अरे जरा उसको बुलाओ..वो नहीं है..तो फलां को बुलाओ."....अब इंतज़ार करो..गाड़ी और ड्राइवर का..तो कहने का अर्थ ये कि इन सब अडचनों को पार करते हुए हमें मार्केट के लिए निकलने में दोपहर हो  गयी.

लखनऊ  की ट्रैफिक तो सुब्हानल्लाह ...कोई भी किधर से गाड़ी लिए घुसा चला आता है. वैसे ये boasting  नहीं है.पर मुंबई जैसी systematic  traffic कहीं नहीं है. हैदराबाद जैसे मेट्रो में भी देखा है...कोई extreme right lane से सीधा left turn ले लेता है. राम-राम करके मार्केट पहुंचे...और जल्दी-जल्दी खरीदारी शुरू की. दुकानदार सोच रहें होंगे ,'ऐसे कस्टमर रोज आएँ'. हम चार कुरते देखते और उसमे से दो सेलेक्ट कर लेते.  एक नज़र घड़ी पर थी और एक नज़र कपड़ों पर. शो केस में लगी कितनी ही पोशाकें ललचा रही थीं (अभी भी आँखों के सामने घूम रही हैं :( ) पर समय की कमी के कारण उन्हें ट्राई नहीं कर पायी.

महफूज़ का फोन भी आ रहा था."घर कब पहुँच रही हैं?"  पांच बज चुके थे .और घर जाकर सामान पैक कर वापस स्टेशन के लिए निकलना था. पौने आठ  की ट्रेन थी. किसी तरह शॉपिंग ख़तम की और ईश्वर से प्रार्थना  करते कि कोई ट्रैफिक जैम ना मिले ,घर की तरफ चले.

मेरे आने के कुछ ही देर बाद महफूज़ मियाँ भी अवतरित हो गए...एक सुन्दर सा बुके और मिठाई का पैकेट लिए. उसे बिलकुल स्वस्थ देख, सच बहुत ही ख़ुशी हुई . वही सदाबहार हंसी थी चेहरे पर...किसी अजनबियत की तो कोई गुंजाईश थी ही नहीं. पिछले एक साल में दोस्ती के हर रंग देख लिए हैं. महफूज़ को देखते ही मैने कह दिया.."तुम तो इतने छोटे लगते हो...अभी दो-चार साल शादी  ना करो तब भी "मोस्ट एलिजिबल बैचलर" का खिताब कहीं जाने वाला नहीं." ये चॉकलेट,मिठाई, बुके का जिक्र करना मुझे ठीक नहीं लग रहा. पर वे लोंग लाए थे तो कहना तो पड़ेगा ही..वैसे  ये सब  जरूरी नहीं ..मैने तो उनलोगों को कुछ भी नहीं दिया... बस  शादी की मिठाई ही ऑफर की ..वो भी मौसी की दी हुई....और हाँ एक और चीज़ दिया ....वो था...धन्यवाद  :).

....और ' शिखा, महफूज़  लाल रंग की टीशर्ट पहन कर नहीं आया था.:) ' मैं और शिखा, महफूज़ के  लाल रंग के ऑब्सेशन पर उसकी काफी खिंचाई करते हैं. {पता नहीं, पुरुषों को क्यूँ ये खब्त है कि वे रेड कलर में ज्यादा स्मार्ट दिखते हैं ...अब सारे पाठक अपनी रेड कलर की शर्ट, टी-शर्ट, कुरते  याद कर रहें होंगे...आपलोग कॉन्शस मत होइए, बेहिचक पहनिए :)

 पर महफूज़ से आराम से बैठकर बात तो हो ही नहीं सकी. कभी मैं भाग कर रिश्तेदारों को विदा करने जाती...कभी समान संभालती..कभी महफूज़ से दो बातें करती...महफूज़ को बड़ा अफ़सोस था, ' मेरे ममी-पापा से नहीं  मिल सका' वे स्टेशन के लिए निकल चुके थे. और मुझे अफ़सोस हो रहा था कि वक्त ही नहीं है...जरा

वैसे ,मैने  इतना सारा काम भी किया
आराम से बैठ कर बातें करें. बातों से ज्यादा बस अफ़सोस ही प्रकट होता रहा. एक घंटा  कैसे निकल गया  पता ही नहीं चला. कैमरा ऊपर ही पड़ा था पर एक फोटो लेने की भी याद नही रही...जबकि इतने भाई-बहन सामने थे..कोई भी खींच  देता. बहनों ने मेरे सारे समान  एक जगह जुटा दिए थे. पैकिंग भी कर रही थीं. पर एक बार देख कर सब लॉक तो मुझे ही करना था. इधर मौसी की पुकार भी चल रही थी, "कुछ तो खा लो" बड़े बेमन से महफूज़ को विदा कहा. अब अगली बार सब सिस्टमैटिक होगा. मोबाइल चार्ज करना हरगिज़ नहीं भूलूँगी.

महफूज़ से तो घंटे भर की ही मुलाकात थी..पर उसकी लाई स्पेशल मिठाई ,मेरे साथ मुंबई तक आई. गुझिया के आकार की मिठाई जिसकी पूरी पेठे की थी और अंदर खोया और ड्राई फ्रूट्स  भरा था..जरूर वहाँ की स्पेशियालिटी होगी क्यूंकि यहाँ मुंबई में नहीं मिलती. ट्रेन में मैने को-पैसेंजर्स को ऑफर किया...तो सब नाम पूछने लगे. अब मुझे तो पता ही नहीं था.(अब भी नहीं पता :( ) अली और अब्बास ने तो बस अंदर का खोया खाया और आउटर कवरिंग को चॉकलेट का रैपर समझते रहें. उनके  डैडी ने कितना कहा..'इसे भी खा जाओ...ये खाने की चीज़ है"...पर वे नहीं माने.. रैपर समझ फेंकने ही वाले थे कि डैडी जी ने उदरस्थ  कर लिया.

अपनी सहेलियों को भी खिलाया....उन्होंने  इसे अच्छा नाम दिया.."ये तो बिलकुल पान की तरह है.:)"  मेरे बच्चों ने भी कहा..'आंटी ने सही कहा...बिलकुल पान जैसा है.." और मेरे अंदर की माँ ने गंभीर होकर पूछ लिया.."तुमलोगों को कैसे पता..पान का स्वाद.....कब खाया?"  दोनों ने एक स्वर में कहा.."शादी में खाए हैं...." हाँ! शादी..में बच्चों को चाय-कॉफी-पान की छूट मिल जाती है. पटना  में अटेंड की एक शादी याद आ गयी...वहाँ बिलकुल एक नौटंकी कलाकार की तरह सजा-धजा एक पान वाला था...जो घूम घूम कर कुछ नृत्य जैसी मुद्राएँ बनाते हुए सबको अपने हाथों से पान खिला रहा था. नए से नए तरीके इंट्रोड्यूस हो रहें हैं.

महफूज़ ने बताया इस 'पान वाली  मिठाई' को  ऑनलाइन भी ऑर्डर कर सकते हैं...अब आप में से जो भी ऑर्डर करे..मेरा कमीशन मत भूलियेगा....आखिर मैने ही इसके बारे में बताया है आप लोगों को .:)

 (एक और ब्लॉगर  से मिलने का दिलचस्प किस्सा ..अगली पोस्ट में )

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

डा.कलाम से एक मुलाक़ात....मेरी नहीं ...मेरी ममता भाभी की

अपनी ममता भाभी का  जिक्र मैं कई बार अपनी पोस्ट में कर चुकी हूँ...लेखन की दुनिया में वापसी उनके सतत प्रोत्साहन से ही संभव हुआ. अपने पहले ब्लॉग का नाम...उसका परिचय सब ,पहले उन्हें ही दिखाया...उनके आश्वासन पर ही मूर्त रूप दिया उसे . वे लगातार मेरा उत्साह -वर्द्धन करती रहती हैं. पहले तो नियमित टिप्पणियों के माध्यम से भी अपने विचार बताती रहती थीं. पर आजकल वे काफी व्यस्त हैं.फिर भी मेरी सारी पोस्ट और कहानियाँ वे जरूर पढ़ती हैं.

कुछ ही महीने पहले उन्होंने रायपुर के   DPS  स्कूल में अंग्रेजी शिक्षिका के रूप में ज्वाइन किया है. कल ही फेसबुक पर उनकी फोटो डा. कलाम के साथ देखी और उनसे आग्रह कर डाला कि 'प्लीज़ प्लीज़...इस मुलाक़ात का ब्यौरा वे लिख कर मुझे भेजें.' इसे मैं अतिथि पोस्ट के रूप में प्रकाशित करना चाहती हूँ. और घोर आश्चर्य बिना एक ड्रम मक्खन लगाए जरा सी मनुहार से वे मान गयीं. उनके शब्दों में ही पूरा  विवरण.

अतिथि पोस्ट : ममता कुमार

क्रीम साड़ी में भाभी
उस दिन पूरे स्कूल  में गहमा-गहमी थी,आखिर डा. कलाम  आ रहे थे ,सारी टीचर्स  बच्चे सभी उत्साहित  थे ।लेकिन मेरी कुछ वैसी प्रतिक्रिया नहीं थी. इन VIP `s के आने से होता भी क्या है? बहुत सारा हन्गामा,बहुत सारा excitement और finally बहुत सारी problem । दर्शन तो इनके ऐसे होते हैं जैसे तिरुपति मे बालाजी के दर्शन के लिए घंटो लाइन में  खडे रहो और फिर दर्शन के नाम पर एक झलक।

लेकिन डॉक्टर कलाम  ने मेरी पूरी सोच ही बदल दी। एक तो वो काफी समय पर आये,(भारतीय समय को ध्यान मे रखते हुए) और आकर काफी लोगो से व्यक्तिगत रूप से  मिले।हम सारी टीचर्स  red carpet के एक तरफ़ पंक्तिबद्ध  खडी थीं । थोडी थोडी दूर पर रुक कर डा. कलाम  सब से कुछ  न कुछ  बात कर रहे थे। मुझसे  उन्होने पूछा "Are you a great teacher ?"अपनी क्लास  मे  मै बच्चो को कई  बार डपट  लगाती हूँ  कि साधारण प्रश्न का भी वे उत्तर नहीं देते ।लेकिन उस समय मुझे  भी कुछ नही सूझा । जब मेरे बगल से 'संकरी' (सह-शिक्षिका ) ने कहा "trying to be " तब जाकर कुछ समझ  मे आया। डा. कलाम  को शायद उत्तर  मुझसे  ही चाहिए था।वह् मुझे  देखकर फिर बोले "hmmmm ?"
मैने कह दिया "Trying to be with the guidance of our seniors "{after all ,Principal  वही खड़े  थे :)) फिर उन्होने एक ग्रीक टीचर  की कहानी सुनायी ,सॉरी  ,नाम मुझे  याद नही क्योकि तब भी मुझे  समझ   नही आया था।आखिर डा. कलाम  भी तो हमारे अन्य दक्षिण भारतीय वासियों  की तरह  अपने खास accent मे english बोलते हैं। उन्होने कहा "There was a great greek teacher ....................He said once ,"give me a child for seven years ,after that no God no devil can change him ,....that is the confidence that you  have ." इतना कह कर God bless you  कह कर वह आगे बढ़ गए

.जाने के बाद भी एक सुखद एहसास बाकी रहा क्योंकि उनका एक ख़ास अंदाज है ,वो लोगो से इस अंदाज में बात करते है जैसे वह इंसान उनके लिए कितना ख़ास है. इसी तरह हम सब पर अपना जादू बिखेरते हुए वे स्टेज  पर चले गए,वहां पर वैसे तो हर चीज को वे बहुत gracefully लेते रहे पर यह बहुत स्पष्ट था कि वे बच्चों से interact करने में ज्यादा interested हैं.और जब उनकी स्पीच का समय आया तो पूछिये मत.......इतनी energy इतना commitment शायद ही आज तक किसी में देखा हो मैंने. Posh English schools से लेकर economically weaker section के बच्चों तक को involve करके सबको ऐसा एहसास दिलाया जैसे वे ख़ास उसी इंसान से बाते कर रहे हैं. हम सब की  तालियाँ बंद होती उसके पहले ही वे वहां से निकल गए ,अगला कार्यक्रम मेडिकल कॉलेज में होना था जिसका समय हो चला था .
बस मेरी तरफ से इतना ही ,मैं कोई writer  तो हूँ नहीं कि इस incident को खूबसूरत शब्दों के लिफाफे में डालकर आपके सामने रखूँ बस जो हुआ वही लिख दिया.

--- ममता कुमार 

(पिछली पोस्ट पर एक बेकार की बहस ने सारा ज़ायका बिगाड़ दिया और मैं कुछ भी नहीं लिख पायी...ऐसे में भाभी की भेजी ये पोस्ट एक खुशनुमा झोंके की तरह लगी....शुक्रिया भाभी :)
एकाध दिन में अगली पोस्ट लिखती  हूँ.)

सोमवार, 29 नवंबर 2010

स्वघोषित आलसी पर वक्त के पाबन्द : गिरिजेश राव

ये अब्बास या अली नहीं..गिरिजेश जी के सुपुत्र हैं 'अरिन्दम'
रेल का सफ़र हर बार कुछ यादगार लम्हे,दृश्य जरूर दे जता है. इस बार भी हाल  में ही मुंबई से लखनऊ(रिटर्न भी ) की यात्रा में बहुत कुछ संजोने जैसा मिला. साइड बर्थ पर मेहंदी और महावर रचे हाथ-पैर को समेटे सकुचाई सी एक नव-ब्याहता दुल्हन बैठी थी. पति बेख्याल सा खिड़की से बाहर देख रहा था. उनके बीच की अपरिचय की दीवार अभी टूटी नहीं थी (पर इस मोबाइल के जमाने में भी?? ....थोड़ा अचम्भा सा भी हुआ.) पर दोनों ने खिड़की से बाहर देखते हुए , खामोशी से अपना नाश्ता ख़त्म किया . और ताजा-ताज़ा बने दुल्हे ने भारी परदे सरका दिए और उपरी बर्थ पर जाकर सो गया .

दुल्हन परदे  की ओट से हमारी बर्थ की तरफ झांकती रही क्यूंकि यहाँ तो दो वर्षीय 'अली' और पांच वर्षीय 'अब्बास' ने उधम  मचा रखा था . 'अली' की चॉकलेट की फरमाईश अब रूदन का रूप ले रही थी और अम्मी 'अजरा' अपने सलवार-कुरते-दुपट्टे के ऊपर बुरका ओढ़े हैरान-परेशान सी चॉकलेट वाला बैग तलाश रही थी. मैने अपने बैग से निकाल एक 5-स्टार ऑफर किया और 'अली' ने एक प्यारी सी मुस्कान दे चॉकलेट  ले ली. अब मुझे भी ये चॉकलेट किसी ने बच्ची समझ कर दिया था और
'गिरिजेश राव जी' ने मुझे बड़े एहतियात से कैडबरी का वो सेलिब्रेशन पैकेट खोलते देख कह दिया था, "लगता है आप चॉकलेट नहीं खातीं " (जो सच था..मेरे भाई कहते हैं...'इसीलिए मीठा भी नहीं बोलती' :) )

गिरिजेश जी से हाल में ही परिचय हुआ था जबकि  उनकी लेखनी से परिचय तो ब्लॉग जगत में शामिल होते ही हो गया था. चैट पर थोड़ी बहुत बात-चीत होने लगी थी. वैसे वे अति-व्यस्त व्यक्ति हैं..एक ग्रन्थ (प्रेम-ग्रन्थ:)) लिखने में जुटे हुए हैं. एक बार बहुत ही रोचक बात कही उन्होंने, "हम दोनों एक दूसरे का लिखा नहीं पढ़ते हैं पर लिखते शानदार हैं :)


सोचा, अक्सर 'हलो ' तो हो ही जाती है..बता दूँ उनके शहर आ रही हूँ. सुनकर बोले, 'समय मिले तो मिलते हैं " {कर्ट्सी में इतना तो उन्हें कहना ही था :)} मैने भी हाँ कह दिया,पर साथ में बता दिया 'पता नहीं शादी की गहमागहमी में मौका मिलेगा या नहीं' . मौसी की बेटी की शादी में शामिल होने लखनऊ  पहुंची थी.कई रिश्तेदारों से पांच साल  के बाद मिल रही थी. लखनऊ जाते ही उन्हें कॉल कर के अपने लखनऊ पहुँचने की खबर तो दे दी परन्तु मिलने का समय निकालना मुश्किल ही लग रहा था. भाभी जी ने घर बुलाने की भी बात की. पर गिरिजेश राव जी ने मित्र धर्म निभाते मेरी मजबूरी उन्हें बता दी ...शुक्रिया गिरिजेश जी..पर अगली बार भाभी जी से मिलना पक्का रहा.

आखिरकार लौटनेवाले दिन उन्होंने कहा ,"मैं स्टेशन आता हूँ" और वे समय से स्टेशन पहुँच  गए थे . पर मुझे ही सबसे विदा लेते काफी देर हो गयी. अच्छा हुआ ट्रेन १०-१५ मिनट लेट थी और हमें दो बातें करने का मौका मिल गया..वरना सिर्फ 'हाय' और 'बाय' ही होती. ग्यारहवीं में पढने वाला मेरा कजिन 'कान्हा' जो स्टेशन भी आया था. बहुत उत्सुक था, "तुमलोग एक दूसरे को जानते नहीं...कभी मिले नहीं...कैसे पहचानोगे?..क्या बातें करोगे ?...शर्ट का कलर पूछा है, क्या दी?"... हा हा

गिरिजेश जी ने ही उसकी उत्सुकता शांत की, कि 'फोटोग्राफ्स  देखे हैं'. हमने आसानी से एक-दूसरे को पहचान लिया. उस दिन लखनऊ स्टेशन पर एक ही समय  अलग अलग  प्लेट्फौर्म पर मेरे रिश्तेदार ,दिल्ली,बनारस,रांची,पटना जाने वाली  ट्रेन के इंतज़ार में खड़े थे . मम्मी-पापा की पटना जाने वाली  ट्रेन थोड़ी लेट हो गयी और पापा हमारे वाले प्लेट्फौर्म पर आ गए. गिरिजेश जी से परिचय करवाते हुए मन में सोया बरसो पुराना  डर जाग उठा. जब हम तीनो भाई-बहन अपने दोस्तों से परिचय करवाते डर जाते थे कि पापा सवालों की बौछार ना कर दें..."पिछले एग्जाम में कितने परसेंट मिले थे??...अगले में कितने मिलने की आशा है,??....कैसी तैयारी है??....आदि आदि." उसपर से यह सब बताते उए किसी ने कुछ गलत बोल दिया..तो और मुसीबत. एक बार मेरे भाई के एक फ्रेंड ने कहा, "मुझे अपने grand father से मिलने गाँव जाना है ' पापा ने तुरंत पूछा...."maternal या paternal....सिर्फ grand father बोलने से कैसे चलेगा ?"

एकाध सवाल तो गिरिजेश  जी को भी झेलने ही पड़े. पर मैने तुरंत यह कह कर उनका इम्प्रेशन जमा दिया कि "ये सबकी वर्तनी की 'अशुद्धियाँ' सही करते रहते हैं " मुझे पता था, पापा शुद्ध बोलने और शुद्ध लिखने पर बहुत जोर देते हैं. फिर अखबारों में लिखी जाने वाली भाषा के गिरते स्तर पर चर्चा होने लगी. तभी मेरी ट्रेन व्हिसिल देकर सरकने लगी और ज़िन्दगी में पहली बार मैं चलती हुई ट्रेन में चढ़ी (ये अनुभव भी क्यूँ बाकी रहे? )


मुंबई लौटने पर मैने गिरिजेश जी से पूछा, "पापा ने आपकी क्लास तो नहीं ली ?" कहने लगे.."नहीं नहीं..बहुत भले आदमी हैं " (सबके पापा भले आदमी ही होते हैं ) पर आगे जो उन्होंने कहा वो तो आठवां आश्चर्य था. कहा,"आपकी तारीफ़ कर रहें थे ". मेरी तारीफ़??....कोई और तारीफ़ करे तो वो भी कभी ना बताएं. कभी मेरी स्कूल की प्रिंसिपल ने मेरी तारीफ़ की थी और वो बात मुझे पता चली,जब मैं एम.ए. कर रही थी. वह भी किसी से पापा कह रहें थे और मैं बाहर से आती हुई अपना नाम सुन,बरामदे में ही रुक गयी थी. अच्छा हुआ सुन लिया वरना सारी ज़िन्दगी उन्हें 'शुष्क हृदय  वाली  कठोर अनुशासन प्रिय प्रिंसिपल' ही समझती रहती. सौ तो नाम रखे थे, हमने उनके .कभी -कहीं  चुपके से बातें सुन लेना भी फायदेमंद होता है.:)


मैने थोड़ा और लालच दिखाया और गिरिजेश जी से कहा ,"आप भी मेरी थोड़ी तारीफ़ कर देते....पापा जरा खुश हो जाते "

वे बोले, "किया ना..कहा कि आपको काफी लोंग पढ़ते हैं ...और आपसे डरते भी हैं "
ख़ुशी के मारे मेरे पैर जमीन से उठने ही वाले थे कि उन्होंने वापस धरातल पर ला दिया ,यह कह कर कि "डरते हैं.. यह नहीं कहा" :(

कह ही दिया होता जरा इम्प्रेशन जम जाता. ...पर मैं सोच रही थी, जरूर मेरे सब-कॉन्शस माइंड ने यह पूछा होगा..'कितनी भी उम्र हो जाए...माता-पिता की नज़रों में अपनी पहचान की लालसा बनी ही  रहती है '

 

(सबके मन में उठते सवाल का जबाब अगली पोस्ट में..महफूज़ से मुलाकात हुई या नहीं :))

बुधवार, 17 नवंबर 2010

आज जानिये,शाहिद मिर्ज़ा, विवेक रस्तोगी, रवि धवन, राजेश उत्साही, इस्मत जैदी,राम त्यागी और मेरे भी :( बचपने के किस्से

शाहिद मिर्ज़ा जी की शरारत  

मेरे एक परिचित नसीम खान (नाम बदला हुआ है) अपनी बेग़म (जो घर से बाहर हमेशा बुर्के में रहती हैं) के साथ ईद की खरीददारी करते हुए बाज़ार में मिल गए. दुआ सलाम के दौरान एकाएक मुझे शरारत सुझी,
और बड़ी संजीदगी के साथ नसीम ख़ान से पूछा- ’भाभी के पास कई बुर्के हैं क्या’
उनका जवाब भी इसी अंदाज़ में मिला ’हां कई हैं....क्यों?”
मैंने कहा- ”बस ऐसे ही पूछ लिया....वो परसो आप बाइक से जा रहे थे तो भाभी को सुरमई रंग के बुर्के में देखा था”
मेरी इस शरारत पर वो बस हलके से मुस्कुरा दिए और खरीददारी में मशगूल हो गए.
तब तो बात आई-गई हो गई, लेकिन रात में नसीम भाई का फोन आया...कहने लगे ये तुमने हमारे घर में क्या हंगामा करा दिया....लो तुम ही समझाओ अपनी भाभी को....परसो मेरे साथ कौन थी और कैसे बुर्के में थी...
अब क्या बताएं..कि भाभी को ये समझाने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी कि यूंही मज़ाक किया था.  
चलते चलते अपना एक शेर भी हाज़िर है-
 
सुनाते रहना परियों की कहानी
ये बचपन उम्र भर खोने न देना


 अगले ब्लॉगर्स मीट में सब विवेक जी से अपनी आइसक्रीम दूर ही रखें.

मैं तो बेटे के साथ ही बच्चा बन जाता हूँ, और हम दोनों की सबसे मनपसंद चीज है मीठा, फ़िर वह कुछ भी हो बस मीठा होना चाहिये जैसे कि गुड़, चाकलेट, केक, मिठाई, आईसक्रीम कुछ भी।
 

मैं अपने मीठे में से शेयर करना बिल्कुल पसंद नहीं करता हूँ और न ही मेरा बेटा, परंतु जब भी आईसक्रीम आती है तो मेरा बेटा फ़टाफ़ट अपनी आईसक्रीम खत्म कर लेता है, और फ़िर हमें प्रवचन देता है कि अपनी चीजें शेयर करके खानी चाहिये, हम हर बार अपनी आईसक्रीम शेयर कर लेते हैं।
विवेक जी अपने सुपुत्र हर्ष के साथ

एक दिन फ़िर आईसक्रीम आई तो हमने जल्दी जल्दी अपनी आईसक्रीम खत्म कर ली और फ़िर अपनी चम्मच बेटे के पास लेकर पहुँच गये कि चलो अब हमसे अपनी आईसक्रीम शेयर करो, बेटे हमारा मुँह देख रहा था और फ़िर चुपचाप अपनी आईसक्रीम में से १-१ बाईट खिलाता रहा, फ़िर जब बहुत ही अति हो गई तो हमसे बोला कि नहीं बच्चे शेयर नहीं करते केवल बड़े शेयर करते हैं।

हम भी अपनी चम्मच लेकर उनकी आईसक्रीम के पास डटे रहे कि नहीं हम तो शेयर करके ही खायेंगे। और जब तक आईसक्रीम खत्म नहीं हो गई तब तक अपने बेटे के साथ बच्चा बनकर उसकी आईसक्रीम खाते रहे।
 
रवि धवन के हनुमान  बम और अनार बम
 

ब्लॉग सभा में सबके सामने अपनी ही ठांय करना मजेदार लग रहा है। साथ ही बच्चों वाले काम के बारे में बताते-बताते यह भी महसूस किया अब आगे से कुछ न कुछ बच्चों वाले काम करते ही रहना है। क्या पता, फिर से ठांय करनी पड़ जाए। और कोई कह दे 'तू बच्चा है क्या।'
 
'हाल में तो कुछ नहीं किया। चार माह पूर्व मैं अपने चार साल के भतीजे और ढाई साल की भतीजी को लेकर पार्क में घूमने चला गया। भतीजे को प्यार से हनुमान बम और भतीजी को अनार बम कहकर बुलाते हैं। नाम से पता चल गया होगा कि दोनों कितने खतरनाक होंगे। तो जी, पार्क में पहुंचते ही दोनों ने दौड़ लगाना, दूसरों के पाले में घुसकर सामान उठाकर लाना और हल्ला मचाना शुरू कर दिया। मुझे भी जाने क्या सुझा, मैं भी उनके साथ घुटनों पर रेस लगाने लगा। अपने साथ लाया सारा सामान चॉकलेट, पॉपकॉर्न और फुलवडिय़ां पूरे पार्क में हम तीनों ने बिखेर कर रख दी। कुछ मिनटों बाद मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है यार। इधर-उधर देखा तो आसपास के लोग हमें घूर रहे थे। मैंने सोचा, बेटा गड़बड़ हो गई इन शैतानों के चक्कर में। मैंने चुपके से पार्क में बिखरे सामान को समेटा और दोनों को स्कूटी पर बैठाकर वापस घर लौटने में ही समझदारी दिखाई।  एक ने तो बोल ही दिया था 'पागल' हैं तीनों। पर मेरे नजरिए में वो पागलपन के कुछ पल बड़े मजेदार थे।
 
दीदी आपकी परिचर्चा ने अंतर्मन को झकझोर दिया। हमारे दोनों बम भले ही आज शैतानियां कर रहे हैं। पर दोनों का
 बचपना भी कब तक रहेगा। वो भी एक दिन हमारी तरह {समझदार (?)} हो जाएंगे।

 इस्मत जैदी का अहद ए तिफ़्ली .....


अरे रश्मि जी ! ये तो आप ने मेरा प्रिय विषय  याद दिला दिया ,ये जीवन का  वो दौर है जिसे हम प्रतिदिन ,प्रतिपल याद करना  और जीना चाहते हैं लेकिन ज़िम्मेदारियों और हालात के बोझ तले 
ये सुखद एहसास दबने लगता है ,फिर भी मैं तो अक्सर ही जीवन के इन बहुमूल्य क्षणों को जीने की कोशिश करती रहती हूं ,जब मेरा बच्चा छोटा था तो उस के बहाने से मैं ग़ुब्बारे लाया करती थी जब कि उसे कभी शौक़ नहीं था और मैं उस के बहाने से खेलती थी ,आज भी मैं खिलौनों की दुकानों की ओर आकर्षित हो जाती हूं 
मैं गोवा में हूं और यहां बारिश बहुत होती है ,बरसात के मौसम में हमारे यहां  काग़ज़ों का बहुत इस्तेमाल होता है कश्तियां बनाने  के लिये ,हालांकि यहां बारिश का पानी रुक नहीं पाता लेकिन फिर भी मैं बारिश के तेज़ होते ही जल्दी जल्दी काग़ज़ी कश्तियां ले कर नीचे भागती हूं और अगर थोड़ी दूर भी उसे बहता हुआ देख लूं तो जो  ख़ुशी मिलती है वो बयान नहीं कर सकती ,
मुझे ऐसी कोई ’एक’ बात याद  नहीं  जो मैं यहां लिख सकूं ,क्योंकि जब भी समय मिला मैंने अपना बचपन जीने की कोशिश की  कभी बारिश में नाव चला कर कभी ग़ुब्बारे  और छोटी छोटी कारें खेल कर ,कभी अपने बच्चे के प्रोजेक्ट का नन्हा सा घर बना कर ,कभी उस के साथ उस के खेलों में हिस्सा लेकर ,बस अलग अलग वक़्तों में अलग अलग तरीक़े अपना कर 
मेरा मानना है कि जीवन के अंतिम क्षणों तक हर व्यक्ति में एक बच्चा छिपा होता है जो उसे समय समय पर अपने होने का एहसास दिलाता रहता है  ,अब ये हम पर निर्भर है कि हम उसे जगा कर रखें या थपक थपक कर सुला दें ,अगर जगा कर रखेंगे तो ये हमें रोने नहीं देगा , हमें परेशानियों में भी ख़ुश रहने की शक्ति  देगा ,मेरी कोशिश तो यही होगी कि इस जज़्बे को हमेशा सहेज कर रखूं 

 हैप्पी बर्थडे राजेश उत्साही जी (बिलेटेड ही सही )
बात तबकि है जब हम तीसरी कक्षा में पढ़ते थे। मप्र के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के एक छोटे से रेल्‍वे स्‍टेशन इकडोरी पर पिताजी की नियुक्ति थी। गांव कोई दो-तीन किलोमीटर दूर था स्‍टेशन से। गांव का नाम रघुनाथपुर था। रेल्‍वे स्‍टेशन के आसपास बस स्‍टाफ के चार पांच परिवार ही रहते थे।
 यह वह दौर था जब चम्‍बल के बीहडों में माधोसिंह और मोहरसिंह जैसे दस्‍यु सरदारों के नाम से सारा इलाका कांपता था। सो हर गांव में सुरक्षा के लिए पुलिस की एक अतिरिक्‍त टुकड़ी हमेशा रहती थी।
 दिवाली की रात थी। हम रेल्‍वे प्‍लेटफार्म पर फटाके फोड़ने में जुट थे। पिताजी ने ग्‍वालियर से रस्‍सी बम लाकर दिए थे। सुनसान होने के कारण फटाकों की आवाज बहुत तेज गूंज रही थी।  मैंने एक बाद एक करके आठ दस बम फोड़ डाले।
 थोड़ी देर बाद क्‍या देखता हूं कि पांच-छह पुलिस वालों का दल गांव की तरफ से दौड़ता चला आ रहा है। जब दल पास पहुंचा तो मुझे देखकर उन्‍होंने कहा, ‘अरे मुन्‍ना तुम हो।’ मैंने सोचा भला इन्‍हें मेरा नाम कैसे पता चला। बचपन में मुझे घर में मुन्‍ना ही कहा जाता था। ये तो बाद में समझ आया कि छोटे लड़कों को मुन्‍ना और लड़कियों को मुन्‍नी सामान्‍य तौर पर कहा जाता है।
 खैर मुझे कुछ बात समझ में नहीं आई। तभी उनमें से एक बोला,  ‘मुन्‍ना अब फटाके चलाना बंद कर दो।’
 मैंने कहा, ‘क्‍यों।’
 ‘अरे बेटा गांव वाले समझ रहे हैं कि डाकू आ गए हैं। सब डर के मारे अपने अपने घरों में बंद हो गए हैं। तुम्‍हारे फटाकों की आवाज सुनकर वे अपनी पूजा-पाठ भी भूल गए हैं।’ उनकी बात सुनकर मैं फटाके चलाना भूल गया।
 कोई दिवाली याद रहे न रहे पर यह दिवाली भुलाए नहीं भूलती। और मित्रों आप में से कई जान चुके होंगे और जिन्‍होंने न जाना हो वे जान लें कि अपन चाचा जी से एक दिन पहले पैदा हुए थे। यानी 13 नवम्‍बर को। तो अपन को हैप्‍पी बर्थ डे बोलना मांगता
  
बच्चों के साथ बच्चों सी शरारत राम त्यागी जी की 
 
यहाँ निकुंज की soccer क्लास के अंत के दिन (हर सीजन के ) ये लोग पेरेंट और बच्चों के बीच एक गेम रखते हैं, किसी का पिता तो किसी की माँ तो किसी के ग्रांड पेरेंट्स एक पक्ष में रहते हैं तो बच्चे दूसरे पक्ष में ! उस दिन बच्चों के उत्साह देखने का रहता है , और हम लोग भी अपनी पूरी ताकत जीत के लिए झोंक देते हैं पर बच्चों की टीम हमें जीतने ही नहीं देती एक भी बार - इस समय जब निकुंज (और अन्य) बच्चों की टीम जीतती है तो हार में भी खुशी का वो अहसास होता है जिसको शब्दों की सीमा में नहीं बाँध सकता !
 
जब बच्चो के साथ WII गेम खेलता हूँ तो बस दोनों बाप बेटो में जो लड़ाई होती है उसका शोर तो बगल वाले घर तक भी जाता है और तब मेरी पत्नी को कहना ही पडता है की डैडी से मत लड़ो वो तो बच्चों से भी ज्यादा बच्चे हो जाते हैं,  जब निकुंज जीतने वाला होता है तो उसको  चिड़ा चिड़ा कर हराने में जो मजा आता है उसको क्या बयां करूँ, हाँ अंत में स्पोर्ट्स में हार मेरी ही होती है पर ये हार भी निराली होती है - आनंद देने वाली हार 
 
एक बचपन का किस्सा याद आ रहा है,  तब शायद में और मेरी बुआ का लड़का दोनों ही आठवीं कक्षा में थे, दो भाई एक कक्षा में थे तो ज़रा दादागिरी भी चलती थी. एक बार मास्साब को कक्षा के दरवाजे पर खड़े होकर उनके सेवक बनकर बोल दिया कि पधारिये महाराज !!  और पूरी क्लास हंस पड़ी फिर क्या था मास्साब का गुस्सा असमान पर और मुंह लाल , जड़ दिए कई डंडे और तमाचे धडाधड  :(  ऐसे तैसे पीरियड पूरा हुआ  तो जब मास्साब निकल गए तो जैसा होता है कि एक लडके ने चिडाने के कोशिश करी तो तब तो कुछ नहीं बोला, और बाद में मैं और मेरा भाई उसे बाहर दोस्त बनाकर ले गए और उसकी धुनाई कर दी , लड़का गोरे रंग का था तो मुंह लाल हो गया और बाटा के जूतों के निशान साफ उसकी व्यथा परिलक्षित कर रहे थे , बाद में घर तक बात आई तो घर पर फिर हम दोनों की खिंचाई हुई  - अब सोचता हूँ तो बड़ा मजाकिया किस्सा लगता है :-)  
 
तंगम और राजी 
मेरी  नहीं, ये सब 'राजी' और 'तंगम' की कारस्तानी थी

जब भी कोई कह देता है..'बिलकुल बच्चों जैसी हरकतें हैं'....' बच्ची हो बिलकुल ' तो एक पल को ठिठक कर अपना बड़ों वाला लबादा ओढ़ लेती हूँ फिर पता नहीं कब वो लबादा खिसक जाता है और युज़ुअल सेल्फ में लौट  आती हूँ.... अगली बार टोके जाने तक :)

पर ये बचपना खासकर तब अपने शिखर पर होता है जब सिर्फ सहेलियों या  कजिन्स या  बच्चों का साथ हो. पिकनिक जाने पर दौड़कर झूला लूट लेना, बच्चों वाली see-saw पर जबरदस्ती किसी तरह बैठ जाना और एक सहेली को ऊपर ही टंगे रहने देना...चाहे वो कितना भी चिल्लाये. कोरस में गाना गाना तो चलता ही रहता है.
अभी हाल में ही कुछ सहेलियाँ और  बच्चे एक वाटर पार्क में गए. वहाँ हमारी शरारतें  देख, बच्चे दूर छिटक गए. शायद ईश्वर से मना रहें थे कि कोई पूछ ना बैठे, ये आपकी  मॉम्स हैं ??  :) (अब बड़े हो गए हैं तो उन्हें अपनी freedom भी चाहिए होंगी.)

वहाँ हमने wave pool  में गोल घेरा बनाकर घूमते हुए सारे नर्सरी राइम्स गा डाले. ऊँची ऊँची तेजी से घूमती राइड्स पर जोर से चिल्लाने की छूट भी थी. अब उम्र हो गयी है तो क्या , डर तो लगता ही है. पर पति और बच्चों के साथ उस तरह तो नहीं चिल्ला पाते, सहेलियों के साथ तेज आवाज़ में चीखते रहें और डर भी इतना कम हो गया कि २,३, बार एक ही राइड पर गए.{ आपलोग  भी आजमा सकते हैं...जोर से चिल्लाते रहने पर सचमुच डर नहीं लगता :)} पर सबसे मजा हमने लेज़ी रिवर में किया (लेज़ी रिवर एक लम्बा  सा पूल होता है जिसपर आप एक बड़ी सी ट्यूब पर अधलेटे से  होते हैं और वह धीरे धीरे बहती रहती है) वहाँ हम सबने एक दूसरे के हाथ पकड़ एक लम्बी सी चेन बना ली और किसी को भी आगे आने ही नहीं देते थे. दरअसल हमारे ग्रुप को देख, बाकी लोगों के चेहरे पर भी लम्बी सी मुस्कान खींची हुई थी.
पद्मजा,लवीना,शर्मीला,मैं और वैशाली


इस तरह के मौके तो अक्सर आ ही जाया करते हैं पर कभी कभी ये बचपन वाली हरकतें बहुत एम्बैरेसिंग भी हो जाती हैं. हम सहेलियों की एक आदत है. किसी का बर्थडे हो तो बाकी सब एक साथ 'हैपी बर्थडे '  गाकर उसे विश करते हैं. कभी-कभी सड़क के किनारे बच्चों के स्कूल बस का इंतज़ार करते हुए भी. दूर से ही बर्थडे गर्ल को आते देख  ,हम गाना शुरू कर देते हैं . हमारे बच्चे मुहँ फेर कर खड़े हो जाते हैं. एक बार मैं और 'राजी' कार से मॉर्निंग वाक के लिए गए थे (अब, इसमें हंसने जैसा क्या है...जब ज्यादा फल सब्जी  लानी हो तो कार लेकर जाना ही पड़ता है ) अपनी वाक  ख़त्म कर, सारी खरीदारी कर हम घर की तरफ आने लगे तो याद आया, आज 'वैशाली' का बर्थडे है. बस मैने किनारे गाड़ी खड़ी की और ध्यान नहीं दिया कि वो जगह सीनियर सिटिज़न की थी ( यहाँ जगह जगह शेड बने हुए हैं, वहाँ कुछ बेंच और अखबार सीनियर सिटिज़न के लिए रखे  होते हैं )जैसे ही मोबाइल का   स्पीकर ऑन कर हम दोनों ने 'हप्पी बर्थडे' गाना शुरू किया .दो बुजुर्ग गाड़ी के सामने आ कर कुछ - कुछ  बोलने लगे. अंदर जाने का रास्ता कार ने ब्लॉक कर रखा था . शीशे ऊपर होने की वजह से सुनायी तो नहीं दे रहा था. पर आँखों  और हाथों की मुद्राओं से लग रहा था, वे बड़े गुस्से में हैं. अब बीच में गाना कैसे रोकें? खैर जल्दी से गाना ख़त्म कर  विश किया, सुना भी दिया ,'तेरी वजह से डांट पड़ रही है' और गाड़ी लेकर भागी. ऐसे ही महिला ड्राइवर बदनाम होती हैं..दो बातें और जुड़ गयीं.

शर्मीला, वैशाली,मैं,तंगम और अनीता
पर सबसे ज्यादा अंक ले गयी, तंगम के साथ की गयी हरकत ने. उस दिन 'राजी' (हमारी योगा टीचर ) के बिल्डिंग की लिफ्ट बंद थी और योगा क्लास में सिर्फ मैं और तंगम थे. सातवीं मंजिल से हमें सीढियां उतर कर आना था. दो सीढ़ी उतरते ही मैने तंगम को टोका, "क्या बच्चों जैसा  धप धप करके चल रही हो....बहुत आवाज़ कर रही हैं तुम्हारी चप्पलें" उसने शैतानी से थोड़ी और आवाज़ की .मैं  हंसने लगी  तो मेरा हाथ पकड़ कर बोली, "लेट्स, डू इट टुगेदर " और फिर हम दोनों, बच्चों की तरह चप्पल  फटकारते धप धप आवाज़ करते सीढियां उतरने लगे. हर फ्लोर पर  सशंकित हो देखते ,'अभी कोई दरवाजा खुलेगा'. और अपनी स्थिति का ख्याल ना कर हम सामने वाले का सोचने लगते कि वे बच्चों की जगह दो महिलाओं को देखेंगे तो क्या हालत होगी उनकी ?. पर किस्मत अच्छी थी, एक भी दरवाज़ा नहीं खुला और हंसी से दोहरे होते हम बिल्डिंग से बाहर निकल आए. वाचमैन भी हमें हैरानी से देख रहा था.ग्राउंड फ्लोर से एक आंटी भी पर्दा खिसका कर देखने लगी, 'इन पागलों सी हंसी का राज़ क्या है'

पर ये सारा आइडिया तंगम का था, मेरा नहीं ,(तंगम  के बनाए स्वादिष्ट केक और चौकलेट्स की तस्वीरें इस लिंक पर देखी  जा सकती  हैं) हाँ! इस परिचर्चा का आइडिया  मैने चुरा लिया वहाँ से.

{आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया, इस 'परिचर्चा' को सफल बनाने के लिए.
आप  लोगों ने समय  निकाल कर अपने संस्मरण हमसे बांटे  और फिर सबने पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया भी दी. सबको कोटिशः धन्यवाद .

अब यह परिचर्चा इतनी पसंद आई तो फिर आपलोग तैयार रहें...कभी भी कोई सवाल आपके इनबॉक्स में टपक पड़ेगा :)}

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...