कला
सिनेमा प्रेमी में शायद ही कोई ऐसा होगा ,जिसकी दस मनपसन्द फिल्मों में
गुरुदत्त की किसी फ़िल्म का नाम न हो।उनकी फ़िल्में मील का पत्थर समझी जाती
है ।एक बेहद संवेदनशील निर्देशक ,कलाकार के रूप में उनके लाखों प्रशन्सक
हैं।और जब कोई व्यक्ति मशहूर होता है तो उसके प्रोफेशनल ज़िन्दगी से पर्दे
हटाकर ,उसके व्यक्तिगत जीवन में झाँकने की भी लगातार कोशिश चलती रहती है ।
और जब परदा हटता है, तो अपने प्रिय कलाकार को अति साधारण कमजोरियों से युक्त जान , प्रशंसक निराश ही होते हैं ।कुछ ऐसा ही सच दिखाने की कोशिश की है ,"गर्दिश में तारे " नाटक के निर्देशक 'सैफ हैदर हसन' और प्रोड्यूसर 'मनहर गांधी' ने ।साहिर और अमृता की प्रेमकहानी पर उन्होंने एक नाटक पेश किया था ,'एक मुलाक़ात '। तीन मशहूर असफल प्रेम कहानियों पर आधारित नाटकों की trilogy बना रहे हैं ।उसमें दूसरी कड़ी ,गुरुदत्त और गीत दत्त की प्रेमकहानी पर आधारित है। हालांकि इस नाटक में पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं पर घटनायें सारी सच्ची हैं ।
अब तक वहीदा रहमान और गुरुदत्त के अफेयर के विषय में पढ़ा था ।गीता दत्त से मुलाक़ात,प्यार ,शादी का किस्सा अनजाना ही था और नाटक देखने के बाद भी अनजाना ही रहा ।क्यूंकि नाटक शादी के बाद की उनकी ज़िन्दगी पर केंद्रित है ।
गीता दत्त की आवाज़ के जादू में बंधकर गुरुदत्त ने उनसे प्यार किया था ।बहुत मुश्किल से गीता दत्त की माँ ने शादी की इज़ाज़त दी ।पर शादी के बाद वे एक टिपिकल पति की तरह चाहते थे कि अब गीता दत्त गाना छोड़कर सिर्फ घर और बच्चे सम्भालें ।गीता दत्त को सिर्फ गुरुदत्त की फ़िल्म में ही गाने की इज़ाज़त थी ।गीता दत्त का कलाकार मन घुटने लगा ।गुरुदत्त नई नई फ़िल्में बनाकर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते रहे और गीतादत्त गाना छोड़कर शराब में डूबती गईं ।उनका मन कभी गृहस्थी और बच्चों की देखभाल में नहीं लगा ।और इस बात से चिढ़कर गुरुदत्त उन्हें काले नीले निशान की सौगात देते रहे ।
गुरुदत्त नई अभिनेत्री की तरफ आकृष्ट हुए तो गीत दत्त,उनके ही लेखक मित्र के प्यार में पड़ गईं । 'कागज़ के फूल ' फ़िल्म की असफलता , घर का तनाव, नई अभिनेत्री की बेरुखी ने मिलकर गुरुदत्त को आत्महत्या की तरफ धकेला तो कुछ वर्ष बाद शराब ने गीता दत्त की जान ले ली ।शराब ने उनकी आवाज़ तो पहले ही खराब कर दी थी ।
नाटक में गुरुदत्त का यह निगेटिव पक्ष रखते हुए ,निर्देशक की कोशिश रही कि गीता दत्त को और भी नकारात्मक दिखाए ।हमारे देश में कोई स्त्री अगर अपने बच्चों और गृहस्थी की परम्परागत तरीके से देखभाल नहीं करती तो बुरी औरत यूँ ही बन जाती है ।गुरुदत्त की आत्महत्या की जांच करने आये पुलिस इंस्पेक्टर के साथ फ्लर्ट करती गीता दत्त को दिखाना बिलकुल गले नहीं उतरा ।
नाटक के शुरू में ही पुलिस इंस्पेक्टर को अपना परिचय देते हुए गीता दत्त कहती हैं ," मैं अपने माँ बाप के कई सपने साकार करने का ख्बाब देखने वाली बेटी ।
एक लूज़र माँ
एक फ्लॉप बीवी
एक एवरेज ऐक्ट्रेस
एक बेमिसाल गायिका हूँ "
यूँ तो पात्रों के नाम काल्पनिक थे पर घटनाओं में लोगों के असली नाम लिए जाते हैं ।जब राजकपूर के साथ गुरुदत्त ने सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' देखी और दोनों ने अफ़सोस किया कि उनका फ़िल्म निर्माण बेकार है अगर ऐसी कोई फ़िल्म नहीं बनाई ।दिलीप कुमार का भी जिक्र है कि कैसे ज्यादा पैसे की मांग को लेकर वादे के बाद भी वे शूटिंग के लिए नहीँ आए और फ़िल्म छोड़ दी ।
छत से लटकता बड़ा सा झूमर ,ग्रामोफोन पर गूंजती गीत दत्त की आवाज़ ,शराब की बोतलें और पास पड़ा रॉकिंग चेयर उस वक्त का माहौल रचने में कामयाब हुए हैं ।आरिफ ज़कारिया और सोनाली कुलकर्णी ने अच्छा अभिनय किया है ।पर फिल्मों में हमेशा संजीदा से धीमे बोलते गुरुदत्त की छवि कुछ और ही बनी हुई थी जो निजी ज़िन्दगी में जोर जोर से बोलते और थोड़े हाइपर गुरुदत्त से मेल नहीं खाती थी ।
स्क्रिप्ट इतनी ढीली ढाली थी कि अच्छा निर्देशन भी नाटक में कोई जान नहीं ला सका ।
और जब परदा हटता है, तो अपने प्रिय कलाकार को अति साधारण कमजोरियों से युक्त जान , प्रशंसक निराश ही होते हैं ।कुछ ऐसा ही सच दिखाने की कोशिश की है ,"गर्दिश में तारे " नाटक के निर्देशक 'सैफ हैदर हसन' और प्रोड्यूसर 'मनहर गांधी' ने ।साहिर और अमृता की प्रेमकहानी पर उन्होंने एक नाटक पेश किया था ,'एक मुलाक़ात '। तीन मशहूर असफल प्रेम कहानियों पर आधारित नाटकों की trilogy बना रहे हैं ।उसमें दूसरी कड़ी ,गुरुदत्त और गीत दत्त की प्रेमकहानी पर आधारित है। हालांकि इस नाटक में पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं पर घटनायें सारी सच्ची हैं ।
अब तक वहीदा रहमान और गुरुदत्त के अफेयर के विषय में पढ़ा था ।गीता दत्त से मुलाक़ात,प्यार ,शादी का किस्सा अनजाना ही था और नाटक देखने के बाद भी अनजाना ही रहा ।क्यूंकि नाटक शादी के बाद की उनकी ज़िन्दगी पर केंद्रित है ।
गीता दत्त की आवाज़ के जादू में बंधकर गुरुदत्त ने उनसे प्यार किया था ।बहुत मुश्किल से गीता दत्त की माँ ने शादी की इज़ाज़त दी ।पर शादी के बाद वे एक टिपिकल पति की तरह चाहते थे कि अब गीता दत्त गाना छोड़कर सिर्फ घर और बच्चे सम्भालें ।गीता दत्त को सिर्फ गुरुदत्त की फ़िल्म में ही गाने की इज़ाज़त थी ।गीता दत्त का कलाकार मन घुटने लगा ।गुरुदत्त नई नई फ़िल्में बनाकर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते रहे और गीतादत्त गाना छोड़कर शराब में डूबती गईं ।उनका मन कभी गृहस्थी और बच्चों की देखभाल में नहीं लगा ।और इस बात से चिढ़कर गुरुदत्त उन्हें काले नीले निशान की सौगात देते रहे ।
गुरुदत्त नई अभिनेत्री की तरफ आकृष्ट हुए तो गीत दत्त,उनके ही लेखक मित्र के प्यार में पड़ गईं । 'कागज़ के फूल ' फ़िल्म की असफलता , घर का तनाव, नई अभिनेत्री की बेरुखी ने मिलकर गुरुदत्त को आत्महत्या की तरफ धकेला तो कुछ वर्ष बाद शराब ने गीता दत्त की जान ले ली ।शराब ने उनकी आवाज़ तो पहले ही खराब कर दी थी ।
नाटक में गुरुदत्त का यह निगेटिव पक्ष रखते हुए ,निर्देशक की कोशिश रही कि गीता दत्त को और भी नकारात्मक दिखाए ।हमारे देश में कोई स्त्री अगर अपने बच्चों और गृहस्थी की परम्परागत तरीके से देखभाल नहीं करती तो बुरी औरत यूँ ही बन जाती है ।गुरुदत्त की आत्महत्या की जांच करने आये पुलिस इंस्पेक्टर के साथ फ्लर्ट करती गीता दत्त को दिखाना बिलकुल गले नहीं उतरा ।
नाटक के शुरू में ही पुलिस इंस्पेक्टर को अपना परिचय देते हुए गीता दत्त कहती हैं ," मैं अपने माँ बाप के कई सपने साकार करने का ख्बाब देखने वाली बेटी ।
एक लूज़र माँ
एक फ्लॉप बीवी
एक एवरेज ऐक्ट्रेस
एक बेमिसाल गायिका हूँ "
यूँ तो पात्रों के नाम काल्पनिक थे पर घटनाओं में लोगों के असली नाम लिए जाते हैं ।जब राजकपूर के साथ गुरुदत्त ने सत्यजीत रे की 'पाथेर पांचाली' देखी और दोनों ने अफ़सोस किया कि उनका फ़िल्म निर्माण बेकार है अगर ऐसी कोई फ़िल्म नहीं बनाई ।दिलीप कुमार का भी जिक्र है कि कैसे ज्यादा पैसे की मांग को लेकर वादे के बाद भी वे शूटिंग के लिए नहीँ आए और फ़िल्म छोड़ दी ।
छत से लटकता बड़ा सा झूमर ,ग्रामोफोन पर गूंजती गीत दत्त की आवाज़ ,शराब की बोतलें और पास पड़ा रॉकिंग चेयर उस वक्त का माहौल रचने में कामयाब हुए हैं ।आरिफ ज़कारिया और सोनाली कुलकर्णी ने अच्छा अभिनय किया है ।पर फिल्मों में हमेशा संजीदा से धीमे बोलते गुरुदत्त की छवि कुछ और ही बनी हुई थी जो निजी ज़िन्दगी में जोर जोर से बोलते और थोड़े हाइपर गुरुदत्त से मेल नहीं खाती थी ।
स्क्रिप्ट इतनी ढीली ढाली थी कि अच्छा निर्देशन भी नाटक में कोई जान नहीं ला सका ।