मंगलवार, 5 मई 2015

गुलज़ार से छोटी सी मुलाकात : ब्लॉग वापसी का बायस



दोस्त न हों तो हमारा क्या हो
25 अप्रैल ,शनिवार की सुबह (जब मेरे घर में आधी रात होती है क्यूंकि उसकी पहली रात के 2 बजे शाम के छः बजते हैं ) मैंने आराम से तीनो अखबार पढ़े और फिर घर के काम काज में लग गई. दोपहर में रोजी के साथ शॉपिंग जाना था . एक बजे के करीब सीमा का फोन आया ," मुंबई मिरर  में देखा , आज 4 बजे इनफिनिटी मॉल में गुलज़ार की एक बुक लांच है ,चलना है ?"

अखबार तो मैंने पूरा पढ़ा था पर आखिर के विज्ञापन वाले पन्ने  पढने की आदत ही नहीं ,ये जरूरी सूचना भी छूट गई थी. पर मैंने 'हाँ 'कहने में एक पल भी नहीं लगाया . रोज़ी की तरफ से भी  खुद ही सोच लिया कि उसकी बोलने-पढने-लिखने की भाषा इंग्लिश है तो क्या हिंदी आर्ट फ़िल्में उसे पसंद आती हैं .ये प्रोग्राम भी अच्छा लगेगा .
अब मशीनी रफ्तार में काम निबटा ढाई बजे निकल गई . पर मुंबई की ट्रैफिक ,पौने चार बजे पहुंची तो शुक्र मनाया लेकिन मॉल के गेट बंद ,यानि पार्किंग फुल .सडक के किनारे जहाँ जगह  मिली वहाँ से टर्निंग थी. पूरा डर था गाड़ी tow हो जायेगी . गज़ब की असमंजस, गुलज़ार को रु ब रु देखने  का अवसर और हम बेबस .लगा लौट ही जाना पड़ेगा .सीमा को फोन किया ,जो दूसरी तरफ से आने वाली थी .उसने बताया, उन्होंने जान बूझकर एक गेट बंद कर रखा है , पार्किंग मिल जायेगी पर थोड़ी दूर जाकर यू टर्न लेकर दूसरी गेट से आना पड़ेगा . इन सबमे चार बज गए और मैंने घोर स्वार्थी बन प्रार्थना की कि गुलज़ार की गाड़ी भी ट्रैफिक में फंस जाए और वे देर से आयें .


कभी कभी स्वार्थी होना अच्छा होता है :)...गुलज़ार और विशाल भारद्वाज को आने में देर हुई और तब तक आराम से मैं सीमा के रोके हुए सीट पर दूसरी कतार में टेबल के बिलकुल सामने आसन जमा चुकी थी. गुलज़ार ,विशाल भारद्वाज और बुक के  एडिटर 'शांतनु .' आये और सामने बैठ गए . कोई ताम झाम नहीं .न बुके से स्वागत , न फोटो खिंचवाने का दौर . बिलकुल दस कदम की दूरी पर धवल कुरते पैजामे में धवल कांति वाले गुलज़ार बैठे थे .आँखों पर सुनहरी कमानी का  चश्मा, हाथ में काली बेल्ट वाली घड़ी , होठों पर हल्का स्मित लिए वे आयोजक द्वारा दिया जा रहा अपना परिचय सुन रहे थे और मैं सोच रही थी ,यहाँ सारे गुलज़ार के फैन्स ही इकट्ठे हैं. कौन उनके बारे में नहीं जानता .क्यूँ टाइम वेस्ट कर रहा है. गुलज़ार को माइक पकडाए . और वही हुआ , गुलज़ार ने अपनी छोटी कविताओं के संग्रह 'प्लूटो 'के विषय में बताया कि क्यूँ इसका नाम प्लूटो रखा है.
"'प्लूटो' से जब प्लैनेट का रुतबा छिना तो मुझे बहुत दुख हुआ. अपने सोलर सिस्टम का सबसे छोटा ग्रह-प्लूटो. साइंसदान कभी उसे प्लैनेट मान लेते हैं, कभी निकाल देते हैं. प्लूटो कहीं न कहीं मुझे अपने जैसा लगता है. मुझे तो बहुत पहले घरवालों ने अपनों में गिनना छोड़ दिया था. कहा- "बिजनेस फैमिली में यह मिरासी कहां आ गया" जहां मैं  जन्मा, वहां का भी नहीं रहा. लोग भी कभी शायर मानते हैं तो कभी कह देते हैं कि "अरे कहां, वह तो फिल्मीं गाने लिखता है" इसलिए मैंने अपनी सारी छोटी-छोटी नज़्मों को प्लूटो के नाम कर दिया, हिंदी में यह पहले ही प्रकाशित हो चुका है .इसका अंग्रेजी अनुवाद निरुपमा दत्त ने किया है ."


उसके बाद गुलज़ार अपनी सोज़ भरी आवाज़ में छोटी छोटी नज्मों की बौछार से सबको  भिगोते रहे .उनके पढने का अंदाज ए बयाँ कुछ ऐसा था, मानो  रूह से महसूस करके पढ़ रहे हों और वो नज्म सबकी रूह तक पहुँच रही थी. श्रोताओं के उपर से गुजरती उनकी निगाह एक उड़ते हुए पल को मेरे ऊपर भी पडती और ऐसा लगता वो पल वहीँ फ्रीज़ हो जाए . कुछ अपनी प्रसिद्ध नज्में भी पढ़ीं ..'मुझको भी एक तरकीब सिखा दे ,यार जुलाहे...' और भी कई . फिर उन्होंने कहा ,अब विशाल भारद्वाज भी कुछ सुनाएँ . पर विशाल भारद्वाज ने कविता नहीं...गुलज़ार से अपने रिश्ते के विषय में बताया कैसे वे अपना मानस पुत्र मानते हैं . शांतनु    ने भी गुलज़ार से अपनी पहली मुलाक़ात और अपने सम्बन्धो का जिक्र किया .
एक बुक स्टोर में यह प्रोग्राम था .सारी कुर्सियां भर चुकी थीं और काफी लोग खड़े थे .फेमिना की एडिटर रह चुकी 'सत्या शरण' बिलकुल हमारे पास खड़ी थीं .गुलज़ार की नजर उन पर पड़ी और वे उनसे कहीं बैठने का आग्रह करने लगे. पर यहाँ तो सब गुलज़ार के फैन की हैसियत से आये थे,एक समान थे .एक व्यक्ति ने पीछे से उठ कर कुर्सी देनी भी चाही,पर वे नहीं बैठीं .फिर आयोजकों ने ही एक एक्स्ट्रा कुर्सी भिजवाई .
गुलज़ार की कविता पाठ के दौरान जब आयोजक लोगों से ताली बजाने को कहते तो बीच में ही रुक कर गुलज़ार ने झिडक दिया था ,"लोगों को अच्छा लगेगा तो वे खुद बजायेंगे...ये कोई मदारी का खेल नहीं हो रहा कि आप ताली बजाने को कह रहे हैं. " और फिर जब बीच बीच में तालियाँ  बजतीं तो आयोजक से कहते, "देखिये आपने नहीं कहा न..फिर भी लोग ताली बजा रहे हैं " आयोजक बेचारा झेंप जाता .बीच बीच में फोटो लेने वाले और रेकॉर्डिंग करने वाले को भी टोक देते ,"प्लीज़ बंद कर दीजिये ...ये आपके पास भी नहीं रहने वाला, फेसबुक या यू  ट्यूब पर चला जाएगा ,बेहतर है ध्यान से सुने " .मैं बिलकुल सामने ही थी,इसलिए ऐसी हिमाकत नहीं की थी. शुरू में ही कुछ फोटो लेकर फोन रख दिया था .गुलज़ार ने ये भी कहा,"वो एक कहावत है .."बहू को कहा जाता है, बेटी को सुनाने के लिए "ऐसा ही सोचिये और सबलोग बंद कर दीजिये .


इसके बाद आया असली सरप्राइज़ कि आपलोग गुलज़ार साब से सवाल पूछ सकते हैं. हाथ उठायें . मैंने ये तो सोचा ही नहीं था .जल्दी से दिमाग चलने लगा, क्या पूछा जाए और मैंने हाथ उठा दिया . तीसरा नम्बर ही मेरा था .गुलज़ार की लिखी एक लाइन मुझे बहुत पसंद है, "मुश्किल है, आकाश पर चलना, तारे पैरों में चुभते हैं " मैंने फेसबुक और ब्लॉग पर भी लोगों से पूछा था कि इसकी अगली लाइन या पूरी नज़्म बताएं ' कोई नहीं बता पाया था और ईश्वर ने मौक़ा दिया कि सीधा लिखने वाले से ही पूछ लिया जाए . वे बोले, " नज़्म तो नहीं है ...न कोई गीत है. ये एक त्रिवेणी की अंतिम लाइन है पर मुझे याद नहीं आ रहा " फिर विशाल भारद्वाज की तरफ मुड़ कर बोले,.." ये आपका जिम्मा रहा ,आप वो त्रिवेणी ढूंढ कर इन्हें भेज दीजिये " (जैसे विशाल भारद्वाज को दूसरा काम नहीं :) ) फिर उन्होंने आगे बोला, " ये त्रिवेणी तो नहीं याद पर त्रिवेणी कैसे लिखना शुरू किया, ये आपको बताता  हूँ . दो पंक्तियाँ  होती हैं और तीसरी पंक्ति दोनों को सम अप करती है .जैसे गंगा -जमुना सरस्वती . कमलेश्वर जब सारिका के सम्पादक थे तो उन्होंने सारिका में छापना शुरू किया. लोगों को पसंद आया तो इसके संग्रह भी निकले. "
मैंने थोडा ढीठ बनकर ये भी कह दिया ,"पर ये विधा आपसे शुरू होकर आप तक ही रह गई है ...और लोग नहीं लिखते " इस पर गुलज़ार ने कहा, "पाकिस्तान में बहुत प्रचलित है, वहां बहुत लोग लिखते हैं. बाकायदा 'त्रिवेणी सम्मेलन ' होता है. " फिर मेरे आग्रह पर एक त्रिवेणी भी सुनाई (जो मैं बिलकुल भूल गई हूँ ) .मुझसे कहा, 'मेरे किसी त्रिवेणी संग्रह में ढूंढिए वो त्रिवेणी मिल जायेगी" .तब तक एक लड़की ने हाथ उठा कर एक त्रिवेणी संग्रह दिखाया (औटोग्राफ लेने के लिए लाइ होगी ) गुलज़ार ने कहा, 'इन्हें दे दीजिये प्लीज़ ' मैं शुक्रिया कह कर बैठ गई . वो त्रिवेणी संग्रह पीछे से मुझ तक आ गई. दूसरे सवाल-जबाब के दौरान मैं एक एक पन्ना पलट गई.पर उसमे नहीं था .गुलज़ार भी एकाध बार इधर देख लेते थे कि मिली क्या आखिर में मैंने निराशा से हाथ से इशारा किया की नहीं है. तो उन्होंने खुलकर मुस्करा  कर जैसे आश्वस्त किया कोई बात नहीं "
(जब फेसबुक पर इसका जिक्र किया तो मेरी एक नियमित पाठक और छोटी बहन सी ‘नेहा शर्मा’ ने बताया ये पंक्तियाँ फिल्म आस्था के एक गाने की हैं . दोनों पंक्तियाँ ये हैं .
'मुश्किल है आकाश पे चलना तारे पैरों में चुभते हैं
सपनों में सोकर देखा है,सपने आँख में कब रूकते हैं!'
थैंक्स नेहा, वहां होती तो गुलज़ार सुन कर खुश हो जाते, किसी ने इतने धयान से सुना और याद रखा है. वे तो हज़ारों नज़्म लिख चुके हैं,कितना याद रखेंगे )

वो गुलज़ार का सीधा मेरी  तरफ देखते हुए बोलना, वक़्त जैसे वहीँ फ्रीज़ हो गया है रूह उन्हीं लमहों में अटकी हुई है "
अच्छा हुआ मैंने जल्दी हाथ उठा दिया . सिर्फ पांच सवाल ही लिए गए ,उसके बाद किताब पर टोग्राफ लेने के लिए क्यू बन गई. मैं गुलज़ार की ' रात पश्मीने की  ' ले गई थी .इन अंग्रेजी में अनूदित नज्मों की किताब खरीदने की जरूरत नहीं थी पर मैंने ये सोचकर ले लिया, बच्चे तो गुलज़ार की उर्दू मिश्रित हिंदी समझ  नहीं पायेंगे. शायद इसे कभी पढ़ें .गुलज़ार अपनी 'एक रात पश्मीने की ' देख शायद ज्यादा खुश हुए उस पर बड़ा सा हस्ताक्षर किया. तारीख भी डाली .

उसके बाद मैं उनके पीछे जाकर खड़ी हो गई .एक लड़की ने फोटो खिंचवाने के लिए पूछा, पर बड़े प्यार से वे बोले, "अच्छा नहीं लगता...रहने दो " उनकी बहू  को बोलकर बेटी को सुनाने वाली बात याद थी .मैंने भी फिर आग्रह नहीं किया. एक तरफ विशाल भारद्वाज खड़े होकर बड़े आराम से सबसे बातें कर रहे थे ,फोटो खिंचवा रहे थे . सीमा बार बार बोल रही थी, 'गुलज़ार  जबतक साइन कर रहे हैं, उनसे बातें करते हैं...फोटो खींचते हैं " पर मैं हिली ही नहीं .गुलज़ार का आभा मंडल कुछ ऐसा था  कि निकलने का मन ही नहीं हो रहा था .
सभी किताबों पर साइन कर गुलज़ार उठे सीधा विशाल भारद्वाज को कुहनी से पकड़ा और प्रवेश द्वार की तरफ चल दिए . सॉरी सीमा , विशाल भरद्वाज के साथ तुम्हारी तस्वीर रह ही गई :(
यूँ तो गुलज़ार के चमकते चेहरे  , दमदार आवाज़ पर उम्र की कोई छाया तक नहीं थी पर चलते हुए गुलज़ार के कदम कुछ कमजोर से लगे .और तब अहसास हुआ अस्सी बसंत देख चुके हैं वे. पर शायद देर तक बैठे रहने का असर हो क्यूंकि हाल में ही  उन्होंने अपने क्लब का टेनिस टूर्नामेंट जीता है .ईश्वर उन्हें लम्बी उम्र दे .

हम सबको घर जाने की जल्दी थी. पर इतने शानदार अनुभव को एक कॉफ़ी पर डिस्कस न किया जाए तो कैसे चैन आये. कॉफ़ी पीते मैंने सीमा से कहा , 'तुम्हारी अच्छी आदत है, मैं तो अखबार  के पिछले चार पन्ने छोड़ ही देती हूँ ..पढ़ती भी नहीं "
सीमा ने कहा, "अरे मैं कहाँ पढ़ती हूँ ...वो तो अखबार रख कर मैं कुछ करने लगी तभी पंखे की हवा से पन्ने पलट गए और मैंने गुलज़ार की तस्वीर देखी तो वो खबर पढ़ी और तुम्हे फोन किया :)
तो सीमा को ये सूचना देने के लिए, रोजी को मेरे साथ वहां तक आने के लिए और हाँ, पंखे को भी पन्ना पलटने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद :)

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