पिछली पोस्ट में मैने आपत्ति जताई थी..,टी.वी. सीरियल्स में दिखाए जा रहे उन दृश्यों पर जो कभी हमारी संस्कृति का अंग थे ही नहीं.
टिप्पणियों में एक बात पर अधिकाँश लोगो ने जोर दिया कि महिलाएँ ये सब देखना पसंद करती हैं...वे बड़े चटखारे लेकर बिना पलक झपकाए देखती हैं...और इसीलिए सीरियल निर्माता ये सब दिखाते हैं.
मैने टिप्पणियों के उत्तर में भी इस प्रश्न पर विचार करने की कोशिश की कि आखिर महिलाएँ टी.वी. सीरियल्स देखना...इतना पसंद क्यूँ करती हैं?? फिर लगा विस्तार से इस विषय पर पोस्ट ही लिखनी चाहिए
जैसा मेरा खयाल है कि महिलाएँ टी.वी. सीरियल्स मजबूरी में देखती हैं. उनके पास मनोरंजन के दूसरे साधन नहीं हैं. समय काटने का भी कोई बेहतर उपाय नहीं है.
आजकल सबलोग अपने-अपने घरो में सिमटते जा रहे हैं. बस किसी अवसर पर ही लोगो का मिलना-जुलना होता है. पहले की तरह महिलाएँ मिलकर अचार-बड़ियाँ-पापड़ नहीं बनातीं. पहले गाँव-मोहल्ले में किसी लड़की की शादी तय हुई और पूरा महल्ला या गाँव ही लग जाता था, शादी की तैयारियों में. कहीं महिलाएँ घर के कामो से बचे समय में पेटीकोट, ब्लाउज की सिलाई में जुटी हैं...तो कहीं कशीदाकारी में तो कहीं लड़की को दिए जाने वाले तरह-तरह के हस्तकला से निर्मित वस्तुएं बनाने में. इन सबके साथ, मंगल-गीत...हंसी मजाक भी चलता रहता था. शादी...जन्मोत्सव....तीज-त्योहा
शादी-ब्याह ना हो तब भी महिलाओं को घर के काम में ही काफी वक्त लग जाता था. तब ये गैस के चूल्हे...मिक्सी..अवन नहीं हुआ करते थे. ब्रेड, मैगी या बाज़ार का रेडीमेड नाश्ता उपलब्ध नहीं था . जो भी नाश्ता बनाना हो वे अपने हाथों से ही बनाया करती थीं. इन सबके बाद भी बचे हुए समय पर वे सिलाई मशीन पर काफी काम किया करती थीं...पेटीकोट-ब्लाउज...लड़कियों की फ्रॉक, सलवार-कमीज़....पजामे सबकी सिलाई घर पर ही की जाती थी. पचास के दशक में शायद हर घर में फूल कढ़े रूमाल और तकिये के गिलाफ जरूर नज़र आते थे. क्रोशिये का भी काफी काम किया जाता था. और यह सब सिर्फ शौक के तहत नहीं...हर महिला इन कामो में रूचि लेती थी या फिर उन्हें लेनी पड़ती थी.( कहीं पढ़ा था कि कढाई-बुनाई मेंटल थेरेपी का भी काम करती है. ). लिहाज़ा इन सब कामो में उलझी महिलाओं को खुद के लिए भी वक्त मयस्सर नहीं था.
पर आज परिदृश्य बदल गए हैं. गाँव में भी अब गैस के चूल्हे पहुँच गए हैं. मिक्सी..अवन..टोस्टर अब घंटो का काम मिनटों में निपटाने लगे हैं. बच्चों के लिए माँ, तरह-तरह के व्यंजन बनाने को तैयार है पर बच्चों को मैगी चाहिए. अब शायद माँ, तकिये के गिलाफ पर फूल काढ दे तो बच्चे सर रखने को तैयार ना हों. घर पर सिले कपड़े पहनने का चलन करीब-करीब बंद ही हो गया है.वजह ये भी है कि बाज़ार में ,उस से कम पैसों में बिना मेहनत के रेडीमेड कपड़े उपलब्ध हैं.
शादी-ब्याह में भी अब सब कुछ कॉन्ट्रेक्ट पर होने लगा है...करीब पंद्रह साल पहले मैंने गाँव में एक शादी अटेंड की थी और वहाँ, खाने का कॉन्ट्रेक्ट किसी एक को...मंडप सजाने का दूसरे को...और स्टेज सजाने का किसी तीसरे को दिया गया था. मिलजुल कर काम करनेवाली प्रथा ही विलुप्त सी हो गयी है.
जिन महिलाओं के बच्चे छोटे हैं, उनके लालन-पालन में उनका काफी समय निकल जाता है.परन्तु जब बच्चे हाइ-स्कूल में पहुँच जाते हैं तो महिलाओं के पास ढेर सारा खाली वक्त बच जाता है. अब बच्चे अपना सारा काम खुद करने लगते हैं. स्कूल छोड़ने -लाने की जिम्मेवारी से भी निजात मिल जाती है. पढ़ाई के लिए ज्यादातर ट्यूशन जाते हैं.
खासकर उन महिलाओं के पास ज्यादा वक्त होता है,जिनके बच्चे शहर से बाहर पढ़ने चले जाते हैं. ऐसी महिलाओं में अक्सर, empty nest syndrome देखे जाते हैं.(जैसे पक्षियों के बच्चे घोंसला छोड़ उड़ जाते हैं ) उनके पास अब बहुत सारा वक्त होता है...और साथ में अकेलेपन का अहसास भी. अक्सर वे अवसादग्रस्त भी हो जाती है. और टी.वी. सीरियल्स के पात्रों से इस कदर जुड़ जाती हैं कि उनके दुख-दर्द..हंसी-ख़ुशी उन्हें अपनी सी लगने लगती है.
महिलाओं के पास अब वक्त तो बच जाता है. परन्तु इस वक्त के साथ क्या किया जाए..इसकी प्लानिंग किसी के पास नहीं है. लिहाजा वे टी.वी. देखकर ही समय काटती हैं. कई महिलाएँ कहती हैं...'हमें टी.वी. देखना नहीं पसदं...इतने समय में हम कुछ पढ़-लिख लेते हैं " पर सबको पढ़ने-लिखने का शौक नहीं होता. सबका IQ लेवल अलग है. अगर वे टी.वी. देखकर ही समय काटना पसंद करती हैं तो हमसे कोई कमतर नहीं हैं.
कई पुरुष, कह बैठते हैं..." जरूरी काम पड़े रह जाते हैं...और वे टी.वी. देखती रहती हैं." काम तो वे हर हाल में निबटाती ही होंगी......शायद समय की उतनी पाबन्द नहीं हों. पर अगर दूसरा पक्ष देखा जाए तो उनका घरेलू काम कितना बोरिंग है...और वे इसे वर्षों से करती आ रही हैं. अब तक..मनों धूल साफ़ कर चुकी होंगी...लाखों रोटियाँ बना चुकी होंगी...कितने ही क्विंटल दाल-चावल-सब्जी बना चुकी होंगी. इनके बीच अगर कुछ इंटरेस्टिंग बदलाव मिले तो वे निश्चय ही आकर्षित हो जायेंगीं.
घुघूती जी ने पिछली पोस्ट की टिप्पणी में कहा था कि "सीरियल तो अफ़ीम हैं.देखो और संसार की चिंताओं से मुक्त हो यहाँ के पात्रों के दुखों को जियो." परन्तु अफीम की एडिक्शन की तरह ही टी.वी. का एडिक्शन भी नहीं होना चाहिए. ईश्वर हर किसी को कोई ना कोई गुण प्रदत्त करता ही है. महिलाएँ अपने जीवन के Best Year घर-परिवार संभालने में लगा देती हैं. तो अब उनके पति-बच्चों की बारी है कि वे उन्हें कोई शौक अपनाने या किसी तरह का कार्य करने को प्रेरित करें.
म्युज़िक..बागबानी...सिलाई...कढाई...पेंटिंग...योगा...कई सारे शौक होते हैं...जो प्रोत्साहन के अभाव में असमय ही कुम्हला गए होते हैं. अब, जब उनके पास समय है...फिर से उनके शौक को पल्लवित-पुष्पित किया जा सकता है. कुछ नया सीखा भी जा सकता है..सीखने की कोई उम्र नहीं होती...(हम सबने भी आखिर इस उम्र में कंप्यूटर चलाना सीखा,ना ) परन्तु हमेशा सबके लिए सोचती महिला..शायद ही अपने लिए कभी, खुद सोचे...और संकोच भी घेरे रहता है,उन्हें...इसलिए प्रोत्साहन की बहुत जरूरत है.
हमने पश्चिमी जीवन-शैली तो अपना ली है...पर ये नहीं अपनाया...कि वहाँ किसी भी काम को छोटा नहीं समझा जाता.
मुंबई में ही देखती हूँ....महिलाएँ तरह-तरह के काम करती हैं..चाहे वो आर्थिक कारणों से करती हों...या समय के सदुपयोग के लिए ही. घर से इडली-चटनी...नीम-आंवले-करेले का जूस ...या घर की बनी रोटी-सब्जी की सप्लाई. बहुत सारे लोग देर से ऑफिस से आते हैं...या फिर अकेले रहते हैं...वे हमेशा होटल से ज्यादा घर के बने खाने को तरजीह देते हैं. बच्चों की बर्थडे पार्टी का ऑर्डर....टिफिन सर्विस तो एक बढ़िया बिजनेस है ही. फूलों के पौधों की नर्सरी खोलना...या योगा सीखकर...दूसरों को सिखाना...सिलाई-कढाई सिखाना....ट्यूशन, ड्राइंग क्लासेस..प्ले स्कूल...डे-केयर......कितनी ही सारी चीज़ें हैं..जिनमे खुद को व्यस्त रखा जा सकता है. और पुरुषों को भी इसमें हेठी नहीं समझनी चाहिए कि वे क्या इतना नहीं कमाते कि पत्नी को काम करना पड़े. कई काम शौक के लिए भी होते हैं.
हर शहर -कस्बे में समाज-सेवी संगठनो का भी गठन होना चाहिए...जहाँ महिलाएँ जाकर अपना कुछ योगदान कर सकें...
हमारे राष्ट्र के उत्थान के लिए भी जरूरी है कि स्त्रियों का भी इसमें योगदान हो. उन्होंने अपने बच्चों का सही ढंग से लालन-पालन कर देश को अच्छे नागरिक तो दिए...लेकिन अब उनकी दूसरी पारी शुरू होती है...और उसमे यूँ निष्क्रिय बैठ सिर्फ..टी.वी. देखना सही नहीं है...स्कोर बोर्ड पर कुछ दिखना चाहिए.
maza aa gaya..nice post!
जवाब देंहटाएंएकदम राप्चिक पोस्ट :)
जवाब देंहटाएंवैसे एक पहलू ये भी है कि यदि महिलायें इस तरह के सिरियल्स बंद कर दें देखना तो इस तरह के उहूं...इहूँ.. रोने-कलपने वाले सिरियल कब के बंद हो जाते लेकिन फिर वही कि आखिर देखें तो क्या देखें। अब दूरदर्शन से किसी का लगाव रहा नहीं वरना तो पहले दुपहरीया में ही अच्छे अच्छे सिरियल आते थे दूरदर्शन पर....अब क्या हाल है दूरदर्शन का मुझे नहीं पता :)
बहुत ही सधा हुआ आलेख ....... एनालिसिस बहुत ही शानदार ढंग से किया है आपने..
जवाब देंहटाएं...महिलाएँ टी.वी. सीरियल्स मजबूरी में देखती हैं. उनके पास मनोरंजन के दूसरे साधन नहीं हैं. समय काटने का भी कोई बेहतर उपाय नहीं है...
जवाब देंहटाएंयह भी नि:संदेह एक कारण है.
बहुत ही सही विश्लेषण !!
जवाब देंहटाएंसही विश्लेषण
जवाब देंहटाएंअब उनके पति-बच्चों की बारी है कि वे उन्हें कोई शौक अपनाने या किसी तरह का कार्य करने को प्रेरित करें.
जवाब देंहटाएंकोशिश तो यही है जी
प्रणाम
लेख बहुत बढिया लगा, प्रेरक भी
जवाब देंहटाएंफूल-पत्ती कढाई और पेंटिंग वाली चद्दरें-तकिये भी याद आ गये :)
बहुत बढिया विश्लेषण्………रोचक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंपर बहुत से सीरियल ऐसे हैं जो जमीन से जुड़े भी हैं और मनोरंजक भी।
जवाब देंहटाएंआपसे १०० % सहमत हूँ ... दूसरी पारी में भी एक अच्छा स्कोर बनाना जरुरी है ... पर फिर भी अगर टी वी देखना ही है ... तो और भी बहुत कुछ है सिवाए सास बहु के ... थोड़ी रूचि पैदा करने वाली बात है !
जवाब देंहटाएंबढ़िया पोस्ट !
टी वी देखने में तो कोई बुराई नहीं , बशर्ते कि काम छोड़कर न देखा जाए ।
जवाब देंहटाएंहाउस वाइव्ज के लिए भी बढ़िया साधन है टाइम पास करने का ।
लेकिन ज्यादा देर तक देखने पर स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है ।
इसलिए एक संतुलन बनाना आवश्यक है ।
वैसे हम तो ब्लोगिंग तभी कर पाते हैं जब पत्नी जी सास बहु के सीरियल देख रही होती है । :)
अजी भारत मे "टी.वी. देखना महिलाओं का शौक हे मजबूरी नही, क्योकि हम यहां रह कर भी सारा काम खुद करते हे, मेरी बीबी घर पर ही रहती हे, कभी नोकरी नही की, लेकिन उस के पास भी समय बहुत कम होता हे टी वी देखने के लिये, जब कि यहां ना बर्तन साफ़ करने हे ना कपडे धोने हे, लेकिन ओरत को घर मे बहुत से काम होते हे ओर भी, भारत मे जब मे अपने ही घर मे जाता हुं तो खाना बनाने से ले कर साफ़ सफ़ाई के लिये माईयां ही माईया हे, लेकिन घर के किसी भी हिस्से को ध्यान से देखे तो धुल ही धुल होती हे, जिसे हम दो दिन मे साफ़ कर देते हे,अगर यही महिलाये घर के सारे काम करे तो इन्हे जिम जाने की जरुरत भी ना पडे, बिमार भी कम हो, लेकिन इन्हे टी वी देख कर लडाई के नये नये गुर सीखने होते हे, आज की लडकियां खाना नही बना सकती, क्योकि पढ रही होती हे? तो क्या पहले लडकियां अनपढ होती थी, अजी पहले भी ओर आज भी संस्कारी घरो की लडकिया पढाई के संग संग घर का काम भी बाखुबी करती हे, बाकी बहाने बाजी ही हे, घरो मे हजारो काम हे, अगर इन्हे रोजाना किया जाये तो समय बीताते बीताते नही लगती, ओर अगर बच्चो को घर पर ही स्वादिष्ट खाना बना मिले तो वो बाजार का गन्द नही खायेगे.... लेकिन जब घर के काम के लिये रुचि हो तब ना
जवाब देंहटाएंआपका यह आलेख सोचने को मजबूर करता है. मुझे ऐसा लगता है कि खाली समय में टीवी के ये सीरीयल देखना भी एक लतियल आदत के समान होती होगी.
जवाब देंहटाएंरामराम.
भारत मे "टी.वी. देखना महिलाओं का शौक हे मजबूरी नही, 90 % सहमत हूँ ..
जवाब देंहटाएंमुझे तो टी.वी.सीरिअल्स में कोई ज्यादा बुराई नज़र नहीं आती.जब सब कुछ बदल रहा है तो महलाओं के शौक क्यों न बदले.क्रिकेट मैच देखने में आपको बुराई नहीं है क्या.
जवाब देंहटाएंबहुत ही विचारोतेजक आलेख लिखने के लिए शुभ कामनाएं.
विषय विशेषज्ञता के अभाव में कमेन्ट से फिलहाल परहेज कर रहा हूं ! यूं समझिए घायल की गति घायल जाने के नारे के साथ !
जवाब देंहटाएंघुघूती जी के कमेन्ट का अलबत्ता इंतज़ार रहेगा :)
एक्चुअली राजा और राडिया ने 'देशहित' के काम इस कदर बराबरी से निपटाये हैं कि कन्फ्यूज हो गया हूं मैं :)
जवाब देंहटाएंएक सीरियस बात ये कि,सीरियल्स जिनका कि आप जिक्र कर रही हैं उन्हें देखने से बेहतर खुदकुशी करना पसंद करूं पर जो नेता और नेत्रियां ,अफसर और अफसरानियां वगैरह वगैरह 'देशहित' में,घर से बाहर निकल कर कर रहे हैं उसे देखने /सुनने से पहले वोही सीरियल्स देखना पसंद करूंगा :)
बहुत सुन्दर और विचारपूर्ण आलेख लिखा है आपने
पर मैं भी अपनी वैषयिक अल्पज्ञता के चलते मजबूर हूं ! सो नो कमेन्ट प्लीज !
निम्नमध्यमवर्गीय और मध्यमवर्गीय घरों में टीवी मनोरंजन का एक साधन है। जो भी उसे देख रहा है चाहे वह महिला हो या कोई और वह उसकी आजकी जरूरत बन गया है। इसलिए इसे कम से कम मजबूरी में देखना तो नहीं कहा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएं*
बिलकुल सहम्त हूँ तभी तो ब्लागिंग जिन्दाबाद।
जवाब देंहटाएंलगभग हर बात पे सहमत हूँ आपके!
जवाब देंहटाएंबाकी तो पता ही है आपको की ऐसे पोस्ट पे मुझे कमेन्ट सूझता नहीं... :)
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जवाब देंहटाएंरश्मि जी ,
आपके द्वारा दिए गए सभी तर्कों / कारणों से सहमत हूँ। एक बड़ा प्रतिशत महिलाओं का मजबूरी में टीवी देखता है ।लेकिन फिर भी मुझे लगता है महिलाएं आलसी भी होती हैं , कुछ सकारात्मक करने के बारे में सोचती ही नहीं । स्वाभिमान के साथ जीना ही नहीं चाहती । अनावश्यक कार्यों में अपना समय नष्ट करतीं हैं लेकिन समाज कों योगदान देने जैसा कार्य नहीं करना चाहतीं।
सबसे बड़े दुःख कि बात है कि महिलाओं कों पढने में ज़रा भी रूचि नहीं होती । अखबार पढने , अच्छे periodicals पढने और इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारियों से परहेज़ करती हैं। जागरूकता कि कमी है महिलाओं में। और अफ़सोस कि उन्हें जागरूक करने कि जिम्मेदारी जिस पिता , भाई और पति पर होती है , वो भी अपने आप में बेहद व्यस्त होते हैं। उन्हें चाहिए कि पत्नी के बोरिंग कामों में उनका हाथ बटाएं और अपने साथ कुछ thrilling कार्यों में पत्नी कों शामिल करें । फिर देखिये कैसे स्त्रियों का रूटीन बदलता है ।
यहाँ थाईलैंड में एक से एक Educated महिला हैं , लेकिन दुखद बात ये है कि घरेलू कामों के बाद , सारे दिन टीवी देखेंगी , फिर शाम कों पार्क में इकठ्ठा होकर गोष्ठी करेंगी । जाने कितना बतियायेंगी आलू , गोभी और पर-निंदा।
आजकाल इन महिलाओं ने तीन चार 'किटी-पार्टीज़' बना रखी है । इन अमीरों के चोचलों और वक़्त कि बर्बादी से जब मैंने इनकार किया तो किटी में शामिल न होने के कारण मुझे 'असामाजिक' का तमगा दे दिया।
महिलाएं अपनी इमेज के लिए खुद जिम्मेदार हैं। जिनके पास पति अच्छा कमा रहा है , वो तो सबसे ज्यादा आलसी हैं। कुछ करना ही नहीं चाहती । महिलाएं जिस तरह से बहुमूल्य समय नष्ट करती हैं , पुरुष नहीं करते ।
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@दिव्या
जवाब देंहटाएंमैं नहीं मानती कि महिलाएँ आलसी होती हैं....घर में कोई बीमार हो...या शादी-ब्याह हो...कोई पार्टी हो...बच्चों के इम्तहान हों...पति को मुहँ अँधेरे ट्रेन-बस-फ्लाईट पकडनी हो....वे सुबह उठ कर सारी तैयारी करती हैं.कामवाली छुट्टी पर हो.....घर का सारा काम करती हैं... रात-रात भर जाग कर नन्हे बच्चों को बड़ा करती हैं......आलसी कैसे हो गयीं??
हाँ, जब सिर्फ खाना बनाना या कपड़े समेटने या डस्टिंग करनी हों.....तो हो सकता है.इस काम को थोड़ी देर के लिए टाल दें....वे कोई मशीन तो नहीं...
अनावश्यक कार्यों में अपना समय नष्ट करतीं हैं लेकिन समाज कों योगदान देने जैसा कार्य नहीं करना चाहतीं।
कैसे और क्या करें...समाज में योगदान??....कोई जरिया है??....इसीलिए मैने शहर-कस्बों में सामाजिक सेवा के लिए संगठनो की जरूरत पर जोर दिया है...कई महिलाओं के मन में होता है ....गरीब बच्चों को पढ़ाएं...लड़कियों/महिलाओं को सिलाई कढाई सिखाएं...वृद्धों की देखभाल करें...पर कैसे??..कहाँ ?? छोटे शहरों में इस तरह की संस्थाएं नहीं हैं... और कहीं होती भी हैं...महिलाएँ जाना भी चाहती हैं...पर पति..घर के और सदस्य नहीं जाने देते और घर में कलह ना हो..ये सोच वे भी चुप हो जाती हैं.
पढ़ने की रूचि ना होने पर मैं यही कहूँगी कि सबकी रूचि नहीं होती...उनकी किसी और चीज़ में रूचि हो सकती है....और सिर्फ महिलाएँ ही क्यूँ....बहुत सारे पुरुषों की भी पढ़ने में रूचि नहीं होती...अखबार वे इसलिए पढ़ लेते हैं कि ऑफिस जाने से पहले, दूसरा कुछ काम होता ही नहीं उनके पास करने को. इसकी गणना पढ़ने में दिलचस्पी से नहीं करनी चाहिए.
थाईलैंड की महिलाओं की बात तो नहीं जानती..पर यहाँ भी एजुकेटेड महिलाएँ ये सब करती हैं...क्यूँ??..इसका विश्लेषण मैने पोस्ट में कर ही दिया है.
और पार्क में इकट्ठे होकर मिलने जुलने..बतियाने को मैं बिलकुल व्यर्थ नहीं मानती. mental relaxation के लिए यह भी बहुत जरूरी है...आपस में मिलजुल कर बातचीत करने से हम जितना सीख सकते हैं...उतना कभी भी कमरे में बंद हो किसी किताब पढ़ने या इंटरनेट सर्फ़ करने से नहीं सीख सकते....
रही बात 'किटी-पार्टी' की...तो अब ये अमीरों के चोंचले नहीं रह गए हैं...इसपर एक पोस्ट लिखना कब से ड्यू है. ...:)..उसपर तुम्हारे विचार का इंतज़ार रहेगा.
महिलाएं जिस तरह से बहुमूल्य समय नष्ट करती हैं , पुरुष नहीं करते ।
ऐसा इसलिए लगता है क्यूंकि ...पुरुष ऑफिस जाते हैं.....छुट्टी के दिन वे घर में कितना अपने समय का सदुपयोग करते हैं...ये सबको पता है.
महिलाएँ सुबह पांच बजे से बारह बजे तक...बिना आराम किए घर के सारे काम निबटाती हैं...यानि कि सात घंटे ... रात में दो घंटे किचन में देती ही हैं..बीच के समय में ,वे टी.वी. देखती हैं..इसपर सबकी नज़र पड़ती है...पर वो नौ घंटे का काम किसी को नहीं दिखता.
पुरुष, नौ से पांच बजे तक ऑफिस में काम करते हैं...वही आठ घंटे...जबकि बीच में दोस्तों से गप-शप..कैफेटेरिया में चाय-कॉफी भी होती है...पर ये आठ घंटे का काम सबको दिखता है....
इसलिए तो नहीं क्यूंकि इसके पैसे मिलते हैं???
रश्मि जी
जवाब देंहटाएंआप की कुछ बातो से सहमत हु किन्तु कुछ से नहीं क्योकि टीवी तो वो महिलाए भी देखती है जो बहार जा कर काम भी करती है और घर का काम भी करती है टीवी महिलाओ के लिए सिर्फ मजबूरी नहीं है और कुछ पुरुष भी उसी तन्मयता से उसे देखने में उनका साथ देते है | टीवी मनोरंजन का साधन है और परिवार में सभी उसे मनोरंजन के लिए देखते है महिलाओ को उससे अलग न कीजिये | मुझे तो लगता है की घरेलु महिलाओ को तो और भी ज्यादा मनोरंजन की जरुरत है क्योकि घर में रह कर और एक बोरिंग रूटीन में उन्हें इसकी और जरुरत हो जाती है | सभी के मनोरंजन का तरीका अलग होता है जिन्हें जो आसानी से मिलाता है वो उसी से अपना मनोरंजन करती है चाहे टीवी हो या सहेलियों के साथ गप्पे हो या कुछ और |
मनोरंजन का सबको अधिकार है, और जिन महिलाओं को धारावाहिक देखना पसंद हैं, उन्हें देखना ही चाहिये, लेकिन प्रसारित होने वाले अधिसंख्य धारावाहिकों को देखना, छूट जाने पर अफ़सोस होना, और किसी से मिलने पर उन्हीं की चर्चा करना, यानि पूरी तरह धारावाहिकमय हो जाने पर मुझे आपत्ति है. अगर महिलाएं खाली समय में कुछ और क्रियेटिव वर्क करें, तो अच्छा हो.
जवाब देंहटाएंसच है पढने का शौक सबको नहीं होता. लेकिन बाग़वानी या बच्चों के लिये हॉबी क्लासेस जैसे काम तो किये ही जा सकते हैं. ज़्यादा जगह न होने पर तमाम गमलों में ही पौधे लगा के उनकी देखभाल करें, खाली समय कैसे भर जायेगा, पता ही नहीं चलेगा.
बढिया पोस्ट.बधाई.
परन्तु हमेशा सबके लिए सोचती महिला..शायद ही अपने लिए कभी, खुद सोचे...और संकोच भी घेरे रहता है,उन्हें...इसलिए प्रोत्साहन की बहुत जरूरत है
जवाब देंहटाएंसुपर परफेक्ट लेख ....बेहतरीन .. गहराई के साथ सुन्दर विश्लेषण
सन्नाट आलेख एवं विश्लेषण
जवाब देंहटाएंसहज और सुगम हो कर प्रभावी है आपकी यह अपनी, उनकी...
जवाब देंहटाएंहर एक की बैटरी चार्ज करने वाला आलेख है रश्मि जी ! इस विषय पर सबके पास ग्रन्थ भर कहने के लिये मटीरियल होगा ! टी वी महिलायें शौक से देखती हैं या मजबूरी में, देखती हैं तो क्यों देखती हैं, जो देखती हैं वह उन्हें देखना चाहिए या नहीं इस विषय पर इतना कहा सुना जा सकता है कि टिप्पणी बॉक्स छोटा पड़ जायेगा ! आपकी सभी बातों से सहमत हूँ ! अपनी दूसरी पारी में घटिया सीरियल्स देखने की बजाय महिलाओं को कुछ सकारात्मक और स्तरीय कार्य करने चाहिए लेकिन इसके लिये पुरुषों का सहयोग और प्रोत्साहन भी उतना ही अपेक्षित है जो ऑफिस से घर लौटने के बाद केवल न्यूज़ चैनल्स एवं पलंग से ही सरोकार रखते हैं ! क्या उन्होंने कभी पत्नी की खुशी नाखुशी, पसंद नापसंद पर ध्यान दिया है ? बहुत बढ़िया एवं विचारोत्तेजक आलेख ! बधाई एवं आभार !
जवाब देंहटाएंआपने सारे विकल्प बता दिए, लेकिन पहले हर घर में साहित्य पढ़ा जाता था आज साहित्य दूर होता जा रहा है। पहले धर्मयुग और हिन्दुस्थान हर घर की जरूरत था लेकिन आज पत्रिकाएं या तो राजनैतिक दृष्टिकोण को लिए हैं या फिर फिल्मों को। ऐसे में महिला की बौद्धिक स्तर पीछे छूटता जा रहा है। उपन्यासों और कहानी संग्रहों का पढ़न तो न के बराबर हो गया है। कम पढ़ी-लिखी महिलाएं धार्मिक पुस्तके भी खूब पढ़ती थी लेकिन अब वे भी दूर हो गयी हैं। इसलिए यह समय साहित्य की वापसी का समय है बस प्रकाशक यदि थोडा विज्ञापन करें तो।
जवाब देंहटाएं@राज जी,
जवाब देंहटाएंमैं मानती हूँ..विदेश में रहकर भी भाभी जी घर का काफी काम करती हैं...पर आपलोग वीकेंड्स पर बाहर जाते होंगे,ना?? पिकनिक...पार्टियां...दूसरे समारोह...इन सबमे शिरकत करते होंगे...
लेकिन मध्यमवर्गीय भारतीय महिलाओं को ये सब मयस्सर नहीं है...इसलिए मनोरंजन के लिए उनकी टी.वी. पर ज्यादा निर्भरता है....जिसे दूर किया जाना चाहिए.
@अंशुमाला जी,
जवाब देंहटाएंपिछली पोस्ट की टिप्पणियों में कई लोगो ने कहा कि महिलाएँ ज्यादा टी.वी. देखती हैं...आपने भी कहा कि "मेरे पति बहुत खुश होते है कहते है भला हो इन धारावाहिकों का जो देश के उन गिने चुने पतियों में हूं जिनके पास टीवी का रिमोर्ट रहता है और खाना पानी जब चाहो मिल जाता है नहीं तो लोगों को धरावाहिक ख़त्म होने या ब्रेक तक रुकना पड़ता है |"
यहाँ आशय दूसरी महिलाओं के टी.वी. सीरियल्स देखने से ही है ना??
इसीलिए मैने महिलाओं के ही टी.वी. सीरियल्स देखे जाने पर पोस्ट लिखी. वरना बच्चे ,पुरुष...कामकाजी महिलाएँ भी टी.वी. देखती हैं....पर उनके जीवन में इसके अलावा भी बहुत कुछ है.
@वंदना
जवाब देंहटाएंसच कहा...महिलाओं को दूसरे शौक अपनाने चाहिए....पर मुझे लगता है..इसके लिए उन्हें पति और घरवालों का भरपूर समर्थन और प्रोत्साहन मिलना चाहिए जबकि अक्सर लोग हतोत्साहित ही कर बैठते हैं.
मेरी एक कजिन को सिलाई का शौक था...उसने मुश्किल से समय निकाल ,अपनी नन्ही सी बिटिया के लिए सुन्दर फ्रॉक सिला...उत्साह से पति और सास को दिखाया .पति ने एक उचटती नज़र डाली और टी.वी. पर नज़रें जमाये कहा...'पचास रुपये में इस से सुन्दर फ्रॉक बाज़ार में मिल जाते हैं'....सास ने दस कमियाँ निकालीं...ये ठीक नहीं सिला...वो ठीक नहीं सिला...और उसने सिलाई मशीन बंद कर दी...जिसपर वर्षों से धूल जम रहा है.
इस तरह के कई उदाहरण हैं...कोई प्ले स्कूल के लिए मना कर देता है...जितना वेतन मिलेगा वो सब...आने-जाने....ड्रेस-चप्पल...बाई में खर्च हो जायेगा..क्या फायदा..घर बैठो.
कोई हाथ से बनी वस्तुओं पर कहते हैं....इस से कम पैसे में चीज़ें बाज़ार में मिल जाती हैं....इसलिए घरवालों का समर्थन...प्रोत्साहन...उत्साहवर्द्धन बहुत जरूरी है.
रश्मिजी महिलाओं की कमी या मजबूरी कहिये इसे... लेकिन वास्तव में यह बाज़ार की घुसपैठ है घरों तक... महिलाएं स्वाभाविक रूप से इमोसनल होती हैं.. यह अच्छाई भी और कमजोरी भी.. इस कमजोरी का फायदा बाज़ार सोच समझ कर उठा रहा है... वास्तव में महिलायें अच्छी चीज़ें भी देखेंगी लेकिन बशर्ते की उन्हें दिखाई जाए... जब दूरदर्शन अपने शैशावास्वस्था में था याद करिए बेहतरीन सीरियल्स आते थे और लोग उन्हें देखते भी थे.. लेकिन दूरदर्शन की अकर्मण्यता के कारण निजी चैनलों की बाढ़ आयी.. और फिर दर्शको के मनोविज्ञान का गंभीर अध्यनन और सर्वेक्षण हुआ ... जैसे पत्रिकाओं के पर्सनल समस्या के कालम प्रायोजित से होते हैं.. वैसे ही ये सीरिअल हो गए हैं और दर्शक के मूल में छुपी हिंसा, कुंठा आदि आदि है.. उसको भुनाया जा रहा है... गुलज़ार साहब को प्रेमचंद के उपन्यास पर सीरियल बनाने के लिए ५०,००० प्रति एपिसोड दिए जाते थे .. तो उन्होंने छोड़ दिया... श्याम बेनेगल को डीडी ने निर्माताओं के पैनल में नहीं रखा.. ऐसे में जो कुछ हो रहा है वह सही है. इसमें महिला की मजबूरी नहीं हमारे व्यवस्था की कमी है ... जो परोसा जा रहा है उस से अलग जाकर कुछ करने के लिए बहुत हिम्मत की जरुरत है...
जवाब देंहटाएंरश्मि जी ,
जवाब देंहटाएंटीवी देखना अपने आप में एक दुनिया में सिमटे रहने जैसा है ..कई बार मैंने महसूस किया है . जब मैं किसी होममेकर से बात करती हूँ तो लगता है वो भावनात्मक रूप से पात्रों से जुड़ गई है ..उनकी ख़ुशी में हँसती है और दुःख में रोती है और ये दुनिया कई बार उन्हें वास्तविक दुनिया से अलग भी कर देती है ..मैं ये नहीं कहती ये सब के साथ होता है ..पर ये होता है .
कुछ दिन पहले एक परिचित से मैं अपने ऑफिस के बाद मिलने गई कुछ देर बात करने के बाद मेरी उपस्थिति मानो रही नहीं टीवी पर कार्यक्रम शुरू होने से पहले मुझे आगाह कर दिया ७.३० पर फलां सीरियल आता है हम तो मिस नहीं कर सकते ... ये वही थी जो मेरे ना आने के ताने मुझे समय समय पर देती थी ..... अपमानित सा महसूस हुआ और अब शायद मैं कबी उनसे ऐसे मिलने ना जाऊं
बडी सी टिप्पणी लिखी, गायब हो गई>
जवाब देंहटाएंफ़िर लिखूँगी फ़ुरसत से.
घुघूती बासूती
तुम्हारी पोस्ट और उसपर आये कमेन्ट के बाद कुछ कहने को बचता ही नहीं है ...
जवाब देंहटाएंफिर भी ..
शादी के बाद कभी बोर होने की फुर्सत ही नहीं मिली ...घर और बच्चों की जिम्मेदारी , रोज ही कोई नया काम निकल आता है , और फिर इतने सारे शौक ...ढेर सारा पढना , रेडिओ सुनना , नयी रेसिपी सीखना ,बागवानी और अब तो इन्टरनेट जिंदाबाद ...
सास बहू वाले आम सीरियल पसंद नहीं है ...रियल लाइफ में ही बहुत कुछ देख लिया है :):), मगर दो-तीन सीरियल जरुर देखती हूँ क्योंकि वे बहुत ही हलके- फुल्के हैं और भरपूर मनोरंजन करते हैं ...
समाज सेवी संगठन का तुम्हारा सुझाव बहुत ही अच्छा है ...बच्चों के एक्जाम के बाद इस पर कुछ काम करना है , ठान रखा है !
बहुत अच्छी पोस्ट और इतने ही अच्छे कमेंट्स!
I don't understand why watching tv has to be justified.I love watching tv,even the so-called regressive serials and I don't need anybody's approval to do so...........
जवाब देंहटाएंसही बात है आपकी, वैसे ममताजी की ऊपर वाली टिपण्णी अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंsandesh to badhiyaa hai ...
जवाब देंहटाएंटीवी देखना शौक और मजबूरी इस पर तो लंबी बहस हो सकती है, परंतु हाँ विश्लेषण बहुत अच्छा किया है।
जवाब देंहटाएंये शौक नहीं नशा भी हो सकता है, परंतु केवल महिलाओं में ही नहीं, पुरुषों में भी।
वैसे भी महिलाओं के पास घर का इतना काम होता है कि उन्हें टीवी देखने का समय भी मिलता होगा।
मैंने एक कविता लिखी थी, जिसमें घरेलू महिला की सोच बतायी थी, कि अगर तुम्हें ५ दिन काम करके २ दिन आराम मिलता है तो क्या हमें नहीं मिलना चाहिये ? तुम ये दो दिन भी ऑफ़िस में ही रहा करो घर पर रहते हो तो कितनी फ़रमाईशें करते हो, कि मुझे समय ही नहीं मिल पाता।
अब तक तीन पारा पढा हूं, और यह शेयर करने का मन कर गया कि सही कहा आपने कि हमारे जमाने में दीदी को इतना काम करते देखता था कि उस जमाने अगर टीवी होता तो शायद वो उसे भी इगनोर करती।
जवाब देंहटाएंग़लती से छूट गई यह पोस्ट! बहुत देर हो गई..लेकिन एक घटना मैं भी शेयर करना चाहुँगा.. अभी पीछे मेरी माता जी की आँख का ऑपरेशन हुआ, और जब डॉक्टर ने उनको बुलाया तो पहला प्रह्न उन्होंने यही पूछा कि टीवी कब से देख सकती हूँ.. मेरे घर पर आई.पी.टी.वी. है, जिसमें हफ्ते भर के प्रोग्राम वो जब चाहे देख सकती हैं.. लेकिन उनके सीरियल के समय अगर कोई दूसरा चैनेल कोई देखना चाहे तो आफ़त... एक ऐडिक्ट की तरह समय होते ही टीवी केसामने होती हैं वो.. बिना घड़ी देखे कब सात बजे उनको पता चल जाता है...
जवाब देंहटाएंइसमें कई बातें हैं।
जवाब देंहटाएंएक वो जो मज़बूरी में टीवी देखती हैं।
मेरी मां, जो गांव में रहती है, और कोई साधन ही नहीं समय पास करने के लिए। पापा थे तो कुछ उनसे बात वात करके उनका समय कट जाता था।
अब ... तो टीवी ही सहारा है।
एक मेरी बीवी (उसे पता न चले) जिन्हें टीवी ने मज़बूर कर दिया है उसे देखने के लिए।
ये सीरियल ... सच में नशा ही है।
अब बच्चे या तो कॉलेज स्कूल होते हैं, और हम दफ़्तर। तो गृहिणियों को क्या ... लग गए टीवी में।
कुछ दिनों के बाद ... टीवी का वायरस उसे छोड़ता ही नहीं।
.... और अंत में मैं खुद खूब टीवी देखता हूं, और मेरी पसंद
जवाब देंहटाएंमैं ललिया देखता हूं, पसंद करता हूं
मैं डांस वाले सभी रियलिटी शो देखता हूं
मैं विधाता देखता हूं
मैं कॉमेडी सर्कस देखता हूं
मैं फ़िल्में देखता हूं
मैं न्यूज़ कम देखता हूं
मैं सब के सजन रे.., लपता गंज, और एफ़ अई आर देखता हूं, तेंदुलकर भी
और सारा सारा दिन क्रिकेट भी देखता हूं, इसका मतलब क्या मैं दफ़्तर, घर के काम या ब्लोगिंग नहीं करता।
जी ...ये सब भी करता हूं।
अब आएं शौक या मज़बूरी के मूल प्रश्न पर ...
जवाब देंहटाएंमैं अपने अनुभव, और अपने घर तक ही बात रखूंगा, बाक़ी की आपने शौक या मज़बूरी होगी।
मैंने मां, बहन और बीवी का उदाहरण दिया ... इन तीनों के लिए देखता हूं ये मज़बूरी ही है।
शौक से मेरी बीवी तो अभी भी .... यू नो बेटर!
टी वी पर सोप ओपेरा देखना एक स्त्रैण कर्म है ही इसे क्या राशेनालायिज करना:)
जवाब देंहटाएंये सीरियल्स तो उच्च मध्य वर्ग की महिलाओं (काउच पोटेटोज) के चोचले हैं! :)
जवाब देंहटाएंdefinitely leisure should be utilised for some concrete work but if there is some time to spare, there is nothing wrong in viewing TV. morever excess of anything is bad,be it tv ,net or even blogging.
जवाब देंहटाएं@ घुघूती बासूती ,
जवाब देंहटाएंअरे मैं तो आपके भरोसे बैठा था !
सही कहा आपने रश्मि जी
जवाब देंहटाएंलेकिन रोने-पीटने और सास बहू वाले प्रोग्राम ही क्यों, इस पर भी कुछ लिखिए.
रश्मि जी !! इस बुद्धू बक्से के बारे में आपने जो लिखा है वह काफी उपयोगी एवं अपेक्षित है ..
जवाब देंहटाएंविषय पर सटीकता से लिखना आप ने बैखुबी निभाया आभार .