कुछ व्यस्तताएं चल रही हैं...नया कुछ लिख नहीं पा रही...और ध्यान आया यह रचना पढवाई जा सकती है. ब्लॉगजगत में मेरी दूसरी पोस्ट थी यह...कम लोगो की नज़रों से ही गुजरी होगी.....कभी कॉलेज के दिनों में लिखा था,यह ...दुख बस इस बात का है कि आज इतने वर्षों बाद भी यह उतना ही प्रासंगिक है.इसकी एक भी पंक्ति पढ़ ऐसा नहीं लगता कि यह तो गए जमाने की बात है. अब नहीं होता ऐसा..
हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ
जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
"लावारिस पड़ी उस लाश और रोती बच्ची का क्या हुआ,
मत पूछ यार, इस देश में क्या क्या न हुआ
जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ
खाकी वर्दी देख क्यूँ भर आयीं, आँखें माँ की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ
तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ
मत पूछ यार, इस देश में क्या क्या न हुआ
जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ
खाकी वर्दी देख क्यूँ भर आयीं, आँखें माँ की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ
तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ
हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ
जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
कलम की राह बस एक किस्सा बयाँ हुआ