सोमवार, 16 जुलाई 2012

आखिर कुछ पुरुषों/लड़कों के अंदर ही एक जानवर क्यूँ निवास करता है...

गुवाहाटी में जो कुछ भी उस शाम एक बच्ची के साथ हुआ...ऐसी घटनाएं साल दो साल में हमारे महान देश के किसी शहर के किसी सड़क पर घटती ही रहती हैं. बड़े जोरो का उबाल आता है...अखबार..टी.वी...फेसबुक..ब्लॉग पर बड़े तीखे शब्दों में इसकी भर्त्सना की जाती है. ऐसे लड़कों को मृत्युदंड देना चाहिए...सरेआम कोड़े लगाने चाहिए...वगैरह वगैरह...फिर सबका ध्यान किसी नेता या अभिनेता से जुड़ी ख़बरों की तरफ मुड जाता है और फिर ये आक्रोश.. ये बहस.. अगली किसी घटना के घटने तक मुल्तवी हो जाती है. ऐसी घटनाओं की पुनरावृति ना हो...ये घटना आखिर क्यूँ घटी..इसकी  जड़ में क्या है..जिसका समूल नाश किया जाए...इन सबपर दिमाग खपाने का शायद समय भी नहीं है, सबके पास और ना ही इसकी जरूरत समझी जाती है.

पर कब तक चलेगा यह सब? आखिर ऐसा लड़कियों के साथ क्यूँ होता है??...ऐसी हरकतें कर के..लड़कों को कौन सा सुख मिल जाता है?
कुछ लोगो की सोच है कि लडकियाँ ही इसकी जिम्मेदार हैं...वे कम कपड़े पहनकर अगर निकलेंगी..तो पुरुषों के अंदर का जानवर तो जागेगा ही. सर्वप्रथम तो यह बिलकुल बेतुकी बात है..(.सलवार कुरते और साड़ी पहने होने के बावजूद रेप की कितनी घटनाएं हुई हैं...इस से कोई अनजान नहीं  ) और उस पर से उस लड़की ने स्कर्ट पहना था.. एक टीशर्ट और उसके ऊपर कार्डिगन भी था. तो क्या लडकियाँ सिर्फ सलवार कुरते या बुर्के में ही घूमें? और ऎसी  ही स्कर्ट पहनकर अगर किसी पुरुष के मित्र या रिश्तेदार की बेटी उसके सामने आती है तो उसके अंदर का जानवर क्यूँ नहीं जागता ? उस अंदर के जानवर को पता है...अगर यहाँ वो जाग गया तो उस जानवर के पालक  की खैर नहीं. यानि कि किसी भी पुरुष के अंदर का जानवर उसके इशारे पर सोता और जागता है. उन बीस लड़कों में से क्या किसी ने कभी किसी और लड़की को स्कर्ट पहने नहीं देखा था? और जब देखा था तो फिर उस वक़्त उसके अंदर का जानवर सोया क्यूँ रहा? 

गाँवों में स्त्री-पुरुष मिलकर खेतों में काम करते हैं. घुटनों तक साड़ियाँ  उठा कर लडकियाँ/औरतें धान की रोपनी करती हैं...घास छीलती हैं... आस-पास पुरुष भी होते हैं..उनके अंदर का जानवर तो नहीं जागता. ऐसे ही आदिवासी महिलाएँ तो एक ही साड़ी से अपना तन ढंकती हैं. जंगलों में घूमती हैं...उनके समुदाय के पुरुषों के अंदर का जानवर भी सोया ही रहता  है. महानगरों में भी... खासकर मुंबई में, सड़कों पर लडकियाँ..स्कर्ट और शौर्ट्स में सरेआम घूमती दिखती हैं...यहाँ के पुरुषों के अंदर का जानवर भी निद्रा में लिप्त रहता है तो क्या बात है कि सिर्फ कुछ पुरुषों के अंदर का जानवर ही मौका देखकर जाग जाता है या यूँ कहना सही होगा कि सिर्फ उनके  अंदर ही कोई जानवर सांस लेता है .

 इसका सिर्फ एक ही कारण नज़र आता है कि ये लोग लड़कियों को एक इंसान.. एक अलग अस्तित्व की तरह नहीं बल्कि एक शिकार की तरह देखते हैं. क्यूंकि लडकियाँ उनके लिए अजूबा बनी रहती हैं. बचपन से ही ना उन्हें लड़कियों के साथ  खेलने का मौका मिलता है...ना ही पढ़ने का...ना बातचीत करने का...ना ही मिलने-जुलने का. लड़कियों से इनका interaction...  मेलजोल एक रिश्ते में बंधा हुआ ही होता है. माँ..बहन..पत्नी..भाभी...दोस्त की पत्नी..और उनके प्रति उनका व्यवहार भी एक दायरे में  निश्चित होता है. ऐसे लोगों को जब एक अजनबी लड़की मिलती है तो इन्हें पता ही नहीं होता..उसके साथ कैसा व्यवहार करना है?? और यहीं से eve  teasing  यानि छेड़छाड़  की शुरुआत  हो जाती है. चलते समय धक्का मार देना...बस में चढ़ते-उतरते..टकरा जाना...मौका मिलते ही हाथों पर हाथ रख देना...फब्तियां कसना...इन्हें अजनबी लड़कियों के साथ बस ऐसा ही व्यवहार करना आता है.

अगर बचपन से ही ये सह शिक्षा वाले स्कूल में पढ़ें तो ऐसे व्यवहारों पर काफी हद तक रोक लग सकती है. वहाँ लड़के-लडकियाँ साथ में पढेंगे..खेलेंगे..कूदेंगे...स्कूल के वार्षिक प्रोग्राम में भाग  लेंगे. तो जाने-अनजाने कितनी ही बार इनके हाथ भी टकरायेंगे..एक-दूसरे से धक्का भी लगेगा...और ऐसे लड़कों को पता चल जाएगा..कि मात्र टकरा जाने से या धक्का मार देने से मन या शरीर के तार झनझना नहीं उठते. उनके बीच बातचीत होगी तो लड़के/लड़कियों दोनों को ही ये आभास होगा कि वे दोनों किसी अलग ग्रह के वासी नहीं हैं...बल्कि उनकी सोच.. चीज़ों को देखने का नजरिया ..एक जैसा  ही है. इस से एक दूसरे के प्रति आदर की भावना भी उत्पन्न होगी. और जब लड़कों के मन में ..लड़कियों के लिए आदर...अपनापन की भावना होगी तो फिर ये eve  teasing  और जिसकी परकाष्ठा लड़कियों के कपड़े फाड़ने जैसी घटाओं के साथ होती है..वे नगण्य हो जायेंगी.

आज  जब लडकियाँ ..उच्च  शिक्षा हासिल करने लगी हैं...ऑफिस में काम करने लगी हैं...अपने सहपाठियों के साथ मिलकर पार्टी करने लगी हैं तो बहुत जरूरी है कि पूरे समाज में ही ज्यादा से ज्यादा लड़के-लड़कियों को आपस में मिलने-जुलने का अवसर दिया जाए. और ये अवसर सह-शिक्षा को बढ़ावा देकर ही संभव है. कालांतर में भी इस से दोनों ही पक्षों को बहुत मदद मिलेगी  आपस में बिना किसी हिचकिचाहट के मिल कर काम कर सकेंगे..अपनी राय रख सकेंगे...एक दूसरे की समस्याएं समझ सकेंगे. 

सह-शिक्षा में थोड़ी बहुत अनचाही घटनाएं भी घट सकती हैं. किशोर होते लड़के/लड़कियों का एक दूसरे के प्रति सहज आकर्षण. पर यह तो बिना को-एड स्कूल में पढ़े भी संभव है. मोहल्ले में...कॉलोनी में भी इतने बंधन के बावजूद प्रेम-कथाएं परवान चढ़ती रहती हैं. वैसे ही  को-एड स्कूल में भी इक्का-दुक्का घटनाएं ही ऐसी होती हैं. ऐसा नहीं होता कि को-एड स्कूल के सारे लड़के-लड़की एक दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं. बल्कि एक दूसरे के प्रति दोस्ताना भाव ज्यादा रहता है. 

अगर गुवाहाटी में घटी , इस तरह की घटनाओं से डरकर लड़कियों को घर में बंद किया जाने लगा...उनके बाहर जाने पर रोक लगाया जाने लगा  तो फिर इस तरह की घटनाएं होती ही रहेंगी. क्यूंकि जितना ही लोग..लड़कियों को आजादी से घूमते देखने के आदी होंगे..उतना ही उनके लिए स्वीकार करना आसान होगा. यहाँ मुंबई में ज्यादातर ऑटो रिक्शा वाले....सिक्योरिटी गार्ड बिहार..यू.पी...असाम..नेपाल  के ही हैं. पर उनके सामने से शौर्ट्स..मिनी स्कर्ट में लडकियाँ गुजरती रहती हैं...पर वे  वे आँख उठा कर भी नहीं देखते..क्यूंकि वे आदी हो चुके हैं...उन्हें कुछ अलग सा नहीं लगता. बाजारों में..सडकों पर भी  लड़कियों/औरतों को धक्के नही मारे जाते हैं...क्यूंकि वहाँ घूमती स्त्रियों/लड़कियों  का प्रतिशत पुरुषों/लड़कों के बराबर ही होता है. पर यही बात सभी शहरों के लिए नहीं कही जा सकती जो बहुत ही दुखद है. 

अगर गाँव में खेतों में काम करने वाली लडकियाँ...जंगलों में घूमती आदिवासी लडकियाँ....महानगरों में बस-ट्रेन-बाजार से गुजरती लडकियाँ इस  eve teasing  की शिकार नहीं होतीं...तो फिर बाकी जगहों की लड़कियों ने क्या गुनाह किए हैं कि उन्हें ऐसी स्थितियों से दो-चार होना पड़ता है.




139 टिप्‍पणियां:

  1. रश्मि काफ़ी हद तक सही है तुम्हारी बात मगर हमने कितनी बार देखा है कि हाई प्रोफ़ाइल सोसाइटी के लडके भी रेप करने से बाज नही आते तो क्या उनकी परवरिश सह शिक्षा के माहौल मे नही हुयी? या उनका वास्ता लडकियों से नही पडा ? ये एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सबके अपने दृष्टिकोण होंगे मगर कहीं ना कहीं हमारे संस्कारों मे ही कोई कमी है तभी आज लडकि्यों को सिर्फ़ एक प्रोडक्ट माना जाता है नही तो ऐसी घटनायें नही घटतीं जबकि देखा गया है कि कोई भी वर्ग के लोग हों ये घटनायें सबमे ही घट रही हैं तो सोचने वाली बात ये है कि इसके जिम्मेदार कौन हैं और कैसे इस समस्या से निजात पायी जाये।

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    1. तुम्हारी बात बिलकुल सही है, वंदना....हाइ-प्रोफाइल सोसायटी या हर सोसायटी में कुछ ऐसे जानवर होते हैं...जो रेप जैसे कुकर्म कर गुजरते हैं..
      यहाँ मैने eve-तेअसिंग.. छेड़छाड़...जैसी बातों पर ज्यादा तवज्जो दी है...और मुझे ऐसा ही लगा कि सह-शिक्षा होने पर शायद ऐसी हरकतों में कमी आए.

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  2. आखिर एक विशेष वर्ग के पुरुषों/लड़कों के अंदर ?

    माने ?

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    1. यहाँ वर्ग-विशेष से अर्थ...किसी धर्म-सम्प्रदाय..जाति से जुड़ा हुआ नहीं है..वर्ग-विशेष माने ऐसे वर्ग के लोग...जिनके अंदर का जानवर..अपनी पहचान की स्त्रियों को देखकर सोया रहता है...पर किसी अनजान-असुरक्षित लड़की को देख कर झट जाग जता है..और अपने खूनी पंजे निकाल झपट पड़ता है.

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    2. यही बात तो मैने पोस्ट में भी लिखी है...

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    3. शीर्षक से कन्फ्यूजन हो रहा था सो इशारा किया ! टिप्पणी बाद में करने आऊँगा !

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    4. आपकी और दराल जी की टिप्पणियों से ऐसा लगा कि शीर्षक से लग रहा है किसी वर्ग की बात हो रही है...इसीलिए शीर्षक ही बदल दिया.
      वैसे पोस्ट में तो एक्सप्लेन कर ही दिया था...

      जब भी समय मिले...आपका स्वागत है

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    5. मैं अभी ये कहने की स्तिति में तो नहीं हूँ कि ऐसी घटना के लिए वर्ग विशेष ही जिम्मेवार होता है, पर मेरा मानना ये है अधिकतर ऐसी घटनाओं के लिए वर्ग विशेष ही जिम्मेवार होता है

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    6. दीपक जी,
      यहाँ किसी ख़ास वर्ग की बात नहीं हो रही....बल्कि उनलोगों से आशय है...जो लड़कियों की इज्जत करना नहीं जानते .
      आपका आशय कुछ और है तो स्पष्ट लिखते तो बेहतर होता...

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    7. शीर्षक से संदेहात्मक संदेश पर अली सैयद साहब की सजग तत्परता विचारणीय रही और विषय स्पष्ट भी हुआ।

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    8. मैने तो पोस्ट करने के घंटे भर के अंदर ही शीर्षक बदल दिया था..

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  3. बहुत बढ़िया रश्मि जी.....
    आपने उस हादसे पर कुछ अलग लिखा....
    आपके नज़रिए से पूरी तरह सहमत हूँ....
    ये विकार एक खास वर्ग के पुरुषों/लड़कों में हैं..
    कारण आपने बखूबी लिखा है...
    अब निवारण भी हो जाए तो क्या कहने..
    अनु

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    1. शुक्रिया अनु,

      हाँ, निवारण हो जाए तो क्या कहने..

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  4. andar ke janwar ko jagane ke liye 'kishori' hai
    to andar ke insan jagane ke liye kaisa 'numaish'
    chahiye....

    pranam.

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    1. संजय जी
      अच्छा सवाल किया | जो जानवर जाग रहे थे उनके जवाब की प्रतीक्षा है |

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    2. सञ्जय जी को एक तर्क शृंखला वाली कविता 'पशुता' सुनाने की इच्छा हो रही है :


      यदि पशु न होता

      तो पशुता न होती

      पशुता न होती तो मन शांत होता

      मन शांत होता क्या रति भाव होता
      रति भाव से ही तो सृष्टि बनी है

      रति भाव में भी तो पशुता छिपी है

      है पशुता ही मनुष्य को मनुष्य बनाती.

      वरना मनुष्य देव की योनि पाता

      अमैथुन कहाता, अहिंसक कहाता

      तब सृष्टि की कल्पना भी न होती

      संसार संसार होने ना पाता

      होता यहाँ पर भी शून्य केवल.

      अतः पशु से ही संसार संभव.


      .......... इस कविता में मैंने 'पशु' और 'पशुता' का पक्ष लिया है...

      समाज में 'बलात्कार' चाहे कैसा भी हो बुरा है, त्याज्य है, ... सभ्यता पर कलंक है.

      वह चाहे 'स्त्रियों के साथ हो' अथवा 'स्वस्थ परम्पराओं के साथ' मनमानी किसी भी क्षेत्र में स्वीकार नहीं.

      इस पर चर्चा करने दोबारा लौटूँगा.

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  5. pata nahi kyon main aapki baaton se sahmat nahi ho pa raha....!! aise kukrit karne wale logo ko mujhe nahi lagta koi jimmedar hai... kyonki bahut se su-sanskrit aur sabhrant logo ke family se jude purushon ko bhi hamne news me suna hai badtamij karte ya rape jaise sangeen jurm se judte.... aur ye bhi aap nahi kah sakti ki aadiwasi ya gaon me mahilayen jo khet me kam karti hain, unke saath bura vyawahar nahi hota, main ek gramin parivesh me pala hoon, aur maine dekha hai, kaise unke saath kya kya hota hai.. aur aisa ochhaa karya sirf jamindar ya paise wale unke saath nahi karte, balki jisko mauka mila wo aise karya me lipt ho gaya....! un gaon tak media ka camera bhi nahi pahuch pata....!! fir bhi jindagi chal rahi hai, aur ummid karte hain.... ek behtar bharat ka nirman hoga....!!

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    1. aapko meri baaton se asahmat hone ka poora adhikaar hai

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    2. रश्मि जी,

      जहाँ तक मुझे लगता है...'मुकेश सिन्हा जी की आपकी भावना से विरोध नहीं है, जिन बातों से विरोध है वे शायद ये हैं :

      — समाज में जिसको मौक़ा मिलता है वह दुष्कर्मों में ऊर्जा लगाता है. उसके इस 'मौके' पर शोध होना चाहिए कि कोई क्यों किसी का शीलभंग करनेको उतावला हो जाता है.

      कई कारण हो सकते हैं... 'प्रेम त्रिकोण' में तीसरे का या तीसरे के प्रति व्यवहार समान नहीं होता, भरपूर उपेक्षा पाकर वह भावों पर संतुलन नहीं कर पाता और दुष्कर्म घटित होता है.

      इन स्थितियों पर नियंत्रण कुछ तरीकों से ही किया जा सकता है :

      - समाज के सामूहिक पर्वों के माध्यम से.... परस्पर परिचय और मेलजोल बढ़ाकर.

      - समाज की कठोर दंड-व्यवस्था के ज़रिये.... सार्जनिक अपमान किये जाने का भय बनाकर.

      - भेदभाव रहित व्यवस्था भी इन दुष्कर्मों को रोकने में अच्छी भूमिका निभाएगी.

      ... अन्य भी तरीके हो सकते हैं... जो समाज के हितचिन्तक सोच सकते हैं...

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  6. पढ़ लिया है... टिप्पणी बाद में दूंगी

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  7. सब यह अपनी सोच पर है ..सिर्फ कपड़ों का कारण दे कर इस तरह की घटनाओं को बार बार दोहराना .हमारे सो क्लाड सभ्य कहे जाने वाले समाज पर बार बार पड़ने वाला एक तमाचा है ..जब तक मानिसकता नहीं बदलेगी तो यह सब भी नहीं बदल सकता है ..और इस बार की घटना में भी यही देख कर अजीब लगा की कमाल है एक के अन्दर का जानवर क्यूँ वहां इकट्ठे हुए इतने जानवरों को ही जगाता है .बाकी देखते हुए लोगो की इंसानियत को नहीं ...

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    1. सबसे सख्त जरूरत लोगों की मानसिकता बदलने की ही है.

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  8. आप सही कह रही हैं कि अभी कुछ लोग महिलाओं को सार्वजनिक स्‍थानों पर देखने के आदि नहीं है। पहले घूंघट हटा तो बवाल मचा फिर सर से पल्‍लू हटा तो मचा। इसलिए कुछ दिनों बाद समाज को समझ आने लगेगा। बस हमें अपनी संतानों को खासकर लड़कों को संस्‍कारित करने की आवश्‍यकता है। लड़के होने के नाम पर उन्‍हें अनावश्‍यक छूट नहीं देनी चाहिए।

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    1. @संतानों को खासकर लड़कों को संस्‍कारित करने की आवश्‍यकता है।

      सौ प्रतिशत सहमत

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  9. रश्मि जी , ऐसा कोई विशेष वर्ग नहीं होता . कोई भी इन्सान शैतान बन सकता है . यह उसके अपने ऊपर नियंत्रण पर निर्भर करता है या संस्कारों पर . या फिर कानून के डर पर . हालाँकि सह शिक्षा से बेशक फर्क पड़ता है . उच्च समाज में अलग तरह की समस्याएं होती हैं जिसमे जिम्मेदारी लड़के लड़की दोनों की होती है .

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    1. विशेष वर्ग से अर्थ ऐसे ही लोगो से है..जिनके अंदर एक शैतान छुपा रहता है.

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  10. बहुत शर्मनाक घटना है ये. अफ़सोस तब और बढ जाता है, जब हम केवल शर्मिंदा हो के रह जाते हैं :(

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    1. वही तो..सिर्फ शर्मिंदा होने से काम नहीं चलेगा...कुछ ठोस निर्णय लेने होंगे.

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  11. क्यूंकि जितना ही लोग..लड़कियों को आजादी से घूमते देखने के आदी होंगे..उतना ही उनके लिए स्वीकार करना आसान होगा. यहाँ मुंबई में ज्यादातर ऑटो रिक्शा वाले....सिक्योरिटी गार्ड बिहार..यू.पी...असाम..नेपाल के ही हैं. पर उनके सामने से शौर्ट्स..मिनी स्कर्ट में लडकियाँ गुजरती रहती हैं...पर वे वे आँख उठा कर भी नहीं देखते..क्यूंकि वे आदी हो चुके हैं...उन्हें कुछ अलग सा नहीं लगता.

    @ यदि कार्य बहुतायत में होने से लोग उसके 'आदी' हो जाते हैं और उसे आसानी से स्वीकार कर लेते हैं.... तभी शायद योरोप और अमेरिका जैसे देशों में 'रेप' जैसे दुष्कर्म बहुतायत में होने से वहाँ के लोग उनके होते रहने के 'आदी' हो चुके हैं... शायद उसे अब दुष्कर्म नहीं समझा जाता और उसे स्वीकार भी कर लिया गया है.

    क्या किसी कार्य को तभी स्वीकारा जाये जब उसके होने की बहुतायत होने लगे?

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    1. @तभी शायद योरोप और अमेरिका जैसे देशों में 'रेप' जैसे दुष्कर्म बहुतायत में होने से वहाँ के लोग उनके होते रहने के 'आदी' हो चुके हैं... शायद उसे अब दुष्कर्म नहीं समझा जाता और उसे स्वीकार भी कर लिया गया है.

      पता नहीं..आप क्या कहना चाह रहे हैं...हमारे देश में ऐसे दुष्कर्म नहीं होते...क्या हमारा देश विमुक्त है ऐसे अपराधों से?

      @क्या किसी कार्य को तभी स्वीकारा जाये जब उसके होने की बहुतायत होने लगे?

      यहाँ किसी भी कार्य के लिए नहीं कहा जा रहा...बल्कि लड़कियों की आजादी की बात हो रही है...क्या बदलाव नहीं आ रहा है?? पहले औरतें चौबीसों घंटे ज्यादातर साड़ी ही पहनती थीं ...अब सलवार कुरता ,गाउन पहनने लगी हैं...लडकियाँ सलवार कुरता की जगह ज्यादातर जींस-स्कर्ट पहनने लगी हैं...स्कूल कॉलेज में उनके शिक्षा ग्रहण करने का प्रतिशत बढ़ा है...ऑफिस में काम करने का प्रतिशत बढ़ा है...और जितना ज्यादा प्रतिशत बढेगा...उतनी ही आसानी से इसे स्वीकार किया जाने लगेगा.

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    2. प्रतुल जी, आपने सौलाह आने सची बात की साधुवाद.

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    3. दीपक जी,
      आप प्रतुल जी की बातों से सहमत हैं और उन्हें साधुवाद दे रहे हैं...तो उन्हें दिया गया प्रत्युत्तर आपके लिए भी है.

      हटाएं
    4. प्रतुल जी,
      आपने ये किस आधार पर कह दिया कि योरोप और अमेरिका में यह दुष्कर्म बहुतायत से होता है और यहाँ के लोग इसके आदी हो गये, और रेप विदेशी समाज में स्वीकार्य है...
      आपका यह कथन सर्वथा निर्मूल है...मैं रहती हूँ विदेश में पिछले १७ सालों से...किसी लड़की को भरे बाज़ार में वस्त्रहीन करते किसी mob को न देखा है न ही सुना है...आज तक मैंने अपने आस-पास ऐसी हरकत होते नहीं देखी है...रेप यहाँ भी होते हैं, और उसकी ऐसी है कि आप सोच भी नहीं सकते..
      आपके लिए यहाँ दे देती हूँ...ये Canadian Government की रूलिंग है..

      Rape and Attempt to Commit Rape (Rape and Attempt to Commit Rape)
      The Criminal Code, 1892, S.C. 1892, c. 29, s. 266.
      [Rape defined.]
      266. Rape is the act of a man having carnal knowledge of a woman who is not his wife without her consent, or with consent which has been extorted by threats or fear of bodily harm, or obtained by personating the woman’s husband, or by false and fraudulent representations as to the nature and quality of the act.
      2. No one under the age of fourteen years can commit this offence.
      3. Carnal knowledge is complete upon penetration to any, even the slightest degree, and even without the emission of seed. R.S.C., c. 174, s. 226.

      [Punishment for rape.]
      267. Every one who commits rape is guilty of an indictable offence and liable to suffer death, or imprisonment for life. R.S.C., c. 162, s. 37.

      [Attempt to commit rape.]
      268. Every one is guilty of an indictable offence and liable to seven years’ imprisonment who attempts to commit rape.

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    5. Sorry Rashmi I missed one word..
      रेप यहाँ भी होते हैं, और उसकी ऐसी सजा है कि आप सोच भी नहीं सकते..
      आपके लिए यहाँ दे देती हूँ...ये Canadian Government की रूलिंग है..

      हटाएं
    6. चलिये रश्मि और अदा के बाद में प्रतुल जी के कमेन्ट को दिशा देती हूँ
      प्रतुल जी ने ये नहीं कहा हैं की विदेशो में रेप ज्यादा होते हैं
      प्रतुल जी का कहना हैं की क्युकी विदेशो में कम कपड़े में लडकियां होती हैं { यानी विदेशो के खुले पन को इंगित किया हैं } और वो स्वीकार्य हैं { यानी नगनता स्वीकार्य हैं } इस लिये अगर किसी लड़की का रेप होता हैं { यानी नग्नता की प्रतिक्रिया } तो वो लड़की भी समाज को को स्वीकार्य होती हैं वहां रेप के बाद लड़की साथ क़ोई सोशल स्टिग्मा नहीं होता हैं , समाज में उसका स्थान नहीं बदलता हैं

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    7. life imprisonment in Canada is 25 years not 14 years as in India.

      रश्मि के कहने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है, कि अगर छोटी उम्र से ही बच्चे को-एडुकेशन में पढ़ते हैं, तो बड़े होने पर, बच्चों के मन में उतनी जिज्ञासा नहीं होती है, एक दूसरे के बारे में जानने की, बनिस्पत इसके कि एकदम से हठात लड़का-लड़की एक-दूसरे के सामने आ जाएँ...और बिना मतलब भावना में बह जाएँ...

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    8. रचना,
      आपने प्रतुल जी की टिप्पणी को दिशा देने की अच्छी कोशिश की है...
      लेकिन आपकी दिशा से हमारी दिशा नहीं मिल रही..
      यदि कार्य { रेप } बहुतायत में होने से लोग उसके {रेप के} 'आदी' हो जाते हैं और उसे {रेप को } आसानी से स्वीकार कर लेते हैं.... तभी शायद योरोप और अमेरिका जैसे देशों में 'रेप' जैसे दुष्कर्म बहुतायत में होने से वहाँ के लोग उनके {रेप के } होते रहने के 'आदी' हो चुके हैं... शायद उसे {रेप को } अब दुष्कर्म नहीं समझा जाता और उसे {रेप को} स्वीकार भी कर लिया गया है.
      मेरी नज़र में ये, most ridiculous कमेन्ट है...

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    9. मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा था अदा...इसीलिए मैने कहा कि "पता नहीं..आप क्या कहना चाह रहे हैं..."

      बिना सच्चाई जाने कुछ भी कैसे बोल देते हैं...और लोग उन्हें साधुवाद दे ,उनका समर्थन भी कर जाते हैं...

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    10. अदा जी और रश्मि जी
      आप दोनों उस कमेन्ट में कही बात को "सही " समझ सके इस लिये दिशा दी यानी interpret कर दिया
      मैने उसे सहमति नहीं दी हैं
      मै आप को ये दिखा रही थी की आज भी लोग भारत में यही मानते हैं की अगर नगनता स्वीकार्य होगयी हैं क्युकी सब नग्न हैं {लडकिया } तो रेप भी स्वीकार
      हो जायेगे जैसे जैसे रेप ज्यादा होगे , लोग इसको स्वीकार करना शुरू करदे गे .
      अगर हमे अपनी संस्कृति को बचाना हैं तो हमको लड़कियों की नगनता को रोकना होगा { बाई द वे ये मै नहीं कह रही ये कमेन्ट कह रहा हैं मैने अपनी समझ से बस उसको interpret किया हैं } अगर हम उसको नहीं रोकेगे तो हमे रेप को भी समाज का हिस्सा मानना होगा

      प्रतुल जी
      सॉरी पर घूमी हुई बात को सीधा कर दिया , गलत हो तो अपनी बात को फिर से समझाये क्युकी मेरी समझ से आप का तर्क गलत हैं

      हटाएं
    11. पता नहीं..आप क्या कहना चाह रहे हैं...हमारे देश में ऐसे दुष्कर्म नहीं होते...क्या हमारा देश विमुक्त है ऐसे अपराधों से?

      @@ दोबारा पढ़ने पर ... हाँ, मुझे भी लग रहा है कि मैंने बात स्पष्ट नहीं कही.

      मेरी आपत्ति केवल इतनी सी है कि .... क्या हम किसी 'बदलाव' को इसलिये स्वीकार लें अथवा मान्यता दें कि वह बहुतायत में हो रही है अथवा उसके होने का एक वर्ग समर्थन कर रहा है?

      इसी 'न्याय' से यदि सोचा जाये तो समाज में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जिसे मान्यता दे देनी चाहिए.... 'व्यवसाय में झूठ बोलना ग़लत नहीं', 'प्रेम और जंग में सब जायज है', 'राजनीति में आकर व्यक्ति भ्रष्ट हुए बिना नहीं रह सकता', 'शिक्षा वही ठीक है जो विद्यार्थी को रोज़गार दिलाये, अच्छा चरित्र बनाकर उसका क्या कोई लाभ नहीं', जैसी मान्यताएं आज़ समाज में जबर्दस्त तरीके से पैठ बनाती जा रही हैं. यदि आज 'स्त्री के बदलते पहनावे को मान्यता दे दी जाये' तो क्या-क्या होगा, एकबार उसपर विचार करिये :

      — धीरे-धीरे 'वधुओं के द्वारा विवाह सामारोह में भी सांस्कृतिक पहनावे से रुचि घटती चली जायेगी'.

      — साड़ियों का न केवल व्यवसाय चौपट हो जायेगा.... (वर्तमान में इस व्यवसाय की दुर्दशा होनी शुरू हो भी गई है).... अपितु भारतीयता की पहचान कराने वाली पौशाकें विलुप्त हो जाएँगी.

      — किसी भी पौशाक का व्यक्ति के मानस पर सीधा प्रभाव पढ़ता है.... 'लंगोट' कसकर केवल 'दंड-बैठक' लगाने की इच्छा करती है... 'पाजामा' पहनने वालों की इच्छा कभी दौड़ने की नहीं करती, लेटकर आराम करने की करती है, 'धोती' पहनने वाले स्वभावतः स्वाभिमानी होते हैं, उनमें यह भाव कभी-कभी अहंकार का रूप भी ले लेता है.

      — स्त्रियों के पहनावों पर आप एक बार मुक्तभाव से शोध करें.... अन्यथा सभी के अनुभवप्ररक विचारों को आमंत्रित करें... मेरा इतना अनुरोध है कि इस चर्चा में विरोधी विचारों को भी सुनने का साहस दिखाया जाये तो चर्चा से बहुत कुछ निष्कर्ष निकलेंगे.


      आपके वैचारिक लेखों का विरोध नहीं है... मेरा कहना इतना ही है कि 'वर्तमान भारतीय समाज एकाधिक संस्कृतियों का और समझों का सम्मिश्रण है'.

      एक 'सही' बात को दूसरा किस ढंग से सोचता है... इसे समझना होगा, यदि हमने दूसरे पक्ष को समझने का अवसर नहीं लिया तो 'पहनावे' से बिगड़ने वाली स्थितियों पर नियंत्रण नहीं कर पायेंगे.

      फिर लौटूंगा.

      पहले की प्रतिक्रिया में बहुत कमियाँ हैं... 'शीघ्रता में ऐसे संवेदनशील विचारों पर प्रतिक्रिया देने से बचना चाहिए.' आगे ध्यान रखूँगा.

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    12. @यदि आज 'स्त्री के बदलते पहनावे को मान्यता दे दी जाये' तो क्या-क्या होगा, एकबार उसपर विचार करिये :

      मान्यता की अनुमति मांग कौन रहा है??..लडकियाँ/औरतें अपने स्व-विवेक से निर्णय लेने में सक्षम हैं. उनके ऊपर जो अच्छा लगता है...वे वही पहनती हैं...लोग चाहे कितना भी विरोध कर लें...अपने पहनावे का निर्णय वे अपने स्व-विवेक से ही लेती हैं. और कालांतर में लोगों को स्वीकार करना ही पड़ेगा...और ये विरोध के स्वर तब इतने क्षीण पड़ जायेंगे कि किसी को सुनाई भी नहीं देंगे.

      आप मुझे ये बताएँ....पहली बार जब स्त्री ने सर पर से आँचल हटाया होगा....घूँघट करने से मना कर दिया होगा..तो क्या इसका भरपूर विरोध नहीं किया गया होगा?? पर आज ये सबको स्वीकार्य है ना?

      जब महिलाओं ने साड़ी के साथ ही स्लीवलेस ब्लाउज पहनना शुरू किया होगा..तो क्या सुनने को नहीं मिले होंगे...कि उद्दीपन होंगे...अंदर का जानवर जाग जाएगा...वगैरह..वगैरह...पर आज यह आम है.

      मैं यहाँ indecent कपड़ों की वकालत नहीं कर रही...पर हर घटना को लड़कियों के कपड़े से जोड़ देना कहाँ तक उचित है???

      हटाएं
    13. च च च, धोतियों का न केवल व्यवसाय चौपट हो जायेगा.... (वर्तमान में इस व्यवसाय की दुर्दशा होनी शुरू हो भी गई है).... अपितु भारतीयता की पहचान कराने वाली पौशाकें विलुप्त हो जाएँगी.
      चिन्ताजनक बात है। आशा है आप इस व्यवसाय को बनाए रखने में अपना व अपने बेटों का सहयोग दे रहे होंगे।
      घुघूती बासूती

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    14. प्रतुल जी
      हमरा देश इतना बड़ा है की यहाँ नग्नता के बहुत सारी परिभाषा है | यहाँ दक्षिण भारत में बिल्कुल भी पर्दा प्रथा नहीं है सर पर पल्ला रखना तो दूर की बात है पर किसी उत्तर भारतीय के लिए सर पर पल्ला ना लेना नग्नता होगी तो राजेस्थान में बस सर पर पल्ला लेना चेहरा ना ढकना नग्नता है वहा तो पुरा चेहरा ढंकना ही सही माना जाता है उसी राजेस्थान की महिला का ब्लाउज जो पीछे से बस बांधने के लिए होता है ( मै फिल्मो की बात नहीं कर रही हूँ मैंने खुद देखा है वहा के गांव में और मुंबई में कई वहा के गांव से घूमने आई महिलाओ को पहने देखा है ) को उत्तर भारत में नग्नता कहा जायेगा तो हरियाणा में तो हम सभी के उन सभी कपड़ो को नग्नता कहा जायेगा जिसमे शरीर का पुरा आकर दिखता है जैसे कुर्ता हमारे ब्लाउज वहा पर महिलाए शर्ट नुमा पहनती है जिसमे शरीर का बिल्कुल भी आकर नहीं दिखता है आप किस नग्नता की बात कर रहे है | मात्र ३० साल पहले तक दर्जी से सिले कपडे पहने जाने को भी पाप कहा जाता था हमारे भारतीय परंपरा के एक वर्ग में महिलाए सिर्फ साड़ी ही पहनती थी | अब बताइये किस नग्नता की बात कर रहे है आप वैसे इस पर घुघूती जी ने काफी पहले एक अच्छी पोस्ट लिखी थी |

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    15. 'घूघती' जी से मुझे पूरी उम्मीद है कि उन्होंने अपने विवाह में 'साड़ी' या किसी अन्य पारंपरिक पौशाक को पहनने में अरुचि दिखायी होगी.

      याद रहे : 'फैशन' में बदलाव .... 'बाजारवाद' की देन है न कि ये कोई सुसुप्त क्रान्ति का परिणाम है.

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    16. मैं रहती हूँ विदेश में पिछले १७ सालों से...

      @ "हम यहाँ का और आप वहाँ के नमक का हक अदा करें."

      कुछ सनातन भारतीयता के चश्मे को उतारना नहीं चाहते... और कुछ केनेडियन सुरक्षा सुविधाओं पर इतराते हैं.


      मैंने तो जन्म से किसी को रेप हरकत करते करते नहीं देखा, मतलब ४० सालों से... इसका मतलब 'ये' कार्य मेरे आसपास नहीं होते... हाँ, 'रेपसोंग' गाकर लड़के-लड़कियों को किलकारियाँ मारते जरूर देखा है.

      छेड़छाड़ की हरकतों पर पीटे जाते लोग मैंने भी जरूर देखे हैं... उनसे अनुमान जरूर लगाया है कि समाज में ये सब हो रहा है.

      हिन्दी हिन्दुस्तान अखबार के सम्पादक रहे स्व. श्री विद्यासागर जी (दिल्ली) तो समाज में चल रहे ऐसे कार्यों पर भरोसा ही नहीं कर पाते थे ... तो इसका मतलब ये तो नहीं कि समाज उनकी कल्पनाओं के ठीक अनुरूप ही था.

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    17. आप मुझे ये बताएँ....पहली बार जब स्त्री ने सर पर से आँचल हटाया होगा....घूँघट करने से मना कर दिया होगा..तो क्या इसका भरपूर विरोध नहीं किया गया होगा??

      @@ ये बात sahii है... हम apnii sankeerntaaon के kaaran ghar की striyon को 'baadhy' करते हैं... कुछ baadhytaayen uchit hotii हैं... और कुछ pratibandh anuchit भी होते हैं.

      @ 'maan' apnii betii की shaariirik samasyaa को jaankar uspar कुछ 'baadhytaayen' lagaatii है. yadi 'maan' को iskii fikar नहीं hotii तो ghar की any badii-boodhi mahilaayen maargdarshan kartii हैं... jise nayii peedhii उनकी 'tokaataakii' कहकर upekshaa kartii है.

      हटाएं
    18. @@ behoodaapan तो poore vastron से भी zaahir हो saktaa है और shaaleentaa kam kapdon में भी sthir rah saktii है.

      [comment likh paane में problem हो रही है... isliye hinglish ही sweekaaren.]

      हटाएं
    19. प्रतुल वशिष्ठ जी,
      आपकी उम्मीदों पर खरे न उतरने का मुझे बेहद खेद है।
      घुघूती बासूती

      हटाएं
    20. मैं रहती हूँ विदेश में पिछले १७ सालों से...

      @ "हम यहाँ का और आप वहाँ के नमक का हक अदा करें."

      इसमें क्या शक़, हम यहाँ के नमक का हक़ पूरी ईमानदारी से अदा कर रहे हैं, और अपने संस्कारों को सुरक्षित रखते हुए, बहुत शान्ति का जीवन भी जी रहे हैं, हमारी भूल है कि भारत में भी ऐसा ही कुछ हो, यह बताने कि कोशिश करते हैं, वहाँ कुछ न भी बदले तो व्यक्तिगत रूप से हमारे स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पढने वाला है, लेकिन ये हमारी आदत है, कि कहीं, कुछ भी अच्छा नज़र आ जाता है, दिल से चाहते हैं, हमारे अपनों को भी वही सब मिल जाए ..
      बड़ी अच्छी बात है, भारत में लोग जाग रहे हैं, अपने नमक के हक़ की अदाएगी करने को अब तत्पर हैं, हम भी यही देखना चाहते हैं...और देखने का मौका भी मिलेगा ही हमें...


      कुछ सनातन भारतीयता के चश्मे को उतारना नहीं चाहते... और कुछ केनेडियन सुरक्षा सुविधाओं पर इतराते हैं.

      अच्छी चीज़ें अपने पास हों तो इतराना मानवीय गुण है, बहुत स्वाभिवक है, कुछ लोग ख़ुद को महा-प्रबुद्ध समझ कर इतराते फ़िरते हैं...


      मैंने तो जन्म से किसी को रेप हरकत करते करते नहीं देखा, मतलब ४० सालों से... इसका मतलब 'ये' कार्य मेरे आसपास नहीं होते... हाँ, 'रेपसोंग' गाकर लड़के-लड़कियों को किलकारियाँ मारते जरूर देखा है.

      नहीं देखा तो अफ़सोस की बात है, वरना हिन्दुस्तान की २० भाषाओं में, छपने वाले अखबारों की करोड़ों प्रतियों में ऐसे समाचारों की कमी नहीं, भारत के हज़ारों कोर्ट में ऐसे लाखों केस चल रहे हैं, आए दिन, टेलीविजन पर इसका सीधा प्रसारण भी हो ही रहा है, हाँ चश्मदीद गवाह बनने का सौभाग्य नहीं मिला होगा...
      लेकिन हमारे यहाँ के रोज़मर्रा के अख़बार और टेलीविजन न्यूज़ ऐसी ख़बरों से ज़रा महरूम ही रहते हैं...हाँ कभी-कभार अगर, ऐसी ख़बर आ जाए तो थोड़ी रौनक आ जाती है, न्यूज़ चनेल्स में, हिन्दुस्तानियों की नज़र में Canada के टेलीविजन चैनल्स बोरिंग ही कहे जायेगे, लेकिन ऐसा ही है...

      वैसे यहाँ के लोग खिलखिलाते हुए, 'रैप सोंग्स' बहुत गाते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में 'रेप' इस कदर हावी है, कि इसे वहाँ लोग 'रेप सोंग' समझ लेते हैं...क्या किया जाए, मानसिकता बदलने में ज़रा वक्त तो लगेगा ही..

      हटाएं
    21. @ हमारी भूल है कि भारत में भी ऐसा ही कुछ हो, यह बताने कि कोशिश करते हैं, वहाँ कुछ न भी बदले तो व्यक्तिगत रूप से हमारे स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पढने वाला है, लेकिन ये हमारी आदत है, कि कहीं, कुछ भी अच्छा नज़र आ जाता है, दिल से चाहते हैं, हमारे अपनों को भी वही सब मिल जाए ..

      ये बहुत बड़ी भूल है,अदा...जितनी जल्दी सुधार लो..उतना ही अच्छा होगा...
      कभी मैने भी एक पोस्ट 'जिसमे बच्चों के एग्जाम सेंटर में घोर अव्यवस्था का जिक्र था..सबलोग एक दूसरे पर गिरते पड़ते...भाग रहे थे.' पर कमेन्ट में कह दिया था.."
      मुंबई में ऐसे भी क्यू का चलन है…अगर सिर्फ चार लोग ही किसी ऑफिस के बाहर खड़े हों फिर भी अपने आप ही क्यू बना लेते हैं…और मुंबई भी किसी भी उत्तर भारत के शहर की तरह ही एक आम शहर है….काफी लोग उत्तर भारत के ही हैं…यहाँ आकर वे, ये सारे नियम-कायदे अपनी मर्जी से अपना लेते हैं…फिर हर जगह शांतिपूर्ण तरीके से कोई काम क्यूँ नहीं निबटा सकते.

      इस पर एक जनाब ने उत्तर दिया था...."
      यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद? इस टिप्पणी को हटाया नहीं जाय, ऐसी फरमाइश कर रहे हैं। अब पूरा करने , न करने का काम तो मालिक का है…

      और ब्लॉग के owner ने इस लाठी लेकर दौड़ने वाली बात का सिर्फ एक स्माइली से जबाब दिया था..
      "टिप्पणी बनी है। हटाने की बात नहीं है। "

      हटाएं
  12. मुझे एक बात समझ में नहीं आती, एक भी पुरुष, अभी तक यह क्यों नहीं कह रहा है, मैं स्वयं को बदलूँगा, चाहे कुछ भी हो जाए, न मैं ख़ुद ऐसा काम करूँगा, न ही अपने सामने ऐसा कुछ भी ग़लत होने दूँगा...अभी तक इस तरह का कोई कमेन्ट, ऐसा कोई प्रण या ऐसा विश्वास दिलाता हुआ पुरुष नज़र नहीं आया है...
    कहीं ऐसा तो नहीं, ऐसा दुष्कर्म करना पुरुष समाज में 'पुरुषार्थ' का प्रतीक हो, और हम महिलाएं इससे अन्भिज्ञं हैं ??? मुझे सोचना पड़ रहा है..

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    1. अदा जी
      मै भी बस इस तरह की ही कुछ टिप्पणिया खोजने का प्रयास कर रही हूं अभी तक मुझे तो नहीं मिले पर हा लड़की के कपड़ो की बात उठानी शुरू हो गई है |

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    2. अदा जी द्वारा कितना घनघोर 'संशय' व्यक्त हुआ है!!! .... अपने अब तक के किये समस्त दुराचार याद हो आये.

      हटाएं
    3. मैं कैसे 'स्त्री-रक्षा' का प्रण करूँ या विश्वास दिलाऊँ :

      — जिसने टीवी पर देखी फिल्मों में 'स्त्री को बचाने' वाले द्वारा बाद में उसी से विवाह करते देखा हो.

      — यहाँ 'स्त्री-रक्षा' का मतलब समाज उससे कोई-न-कोई संबंध (चक्कर) देखकर सोचता है.

      — 'विष्णु-प्रभाकर' अपने 'अर्ध-नारीश्वर' उपन्यास में स्त्री-मनोविज्ञान को उजागर करते हुए एक घिनौना सत्य लिखते हैं कि 'मालकिन महिला अपने नौकर द्वारा किये बलात्कार की स्मृति को सुखद ठहराती है.'

      — जहाँ 'लज्जा' संकुचन में नहीं विदीर्ण होने में प्रफुल्लित होती हो ... तब रक्षा में उठे हाथ दुविधा में पड़ जाते हैं.

      — जहाँ मित्रता के नाम पर स्त्री-पुरुष अपनी सब दूरियाँ समाप्त कर देते हैं. तब 'रक्षा' को उठी सहसा आवाजें मात्र नौटंकी प्रतीत होती हैं.


      ... शेष बाद में.

      हटाएं
    4. मैं कैसे 'स्त्री-रक्षा' का प्रण करूँ या विश्वास दिलाऊँ :

      — जिसने टीवी पर देखी फिल्मों में 'स्त्री को बचाने' वाले द्वारा बाद में उसी से विवाह करते देखा हो.

      @ अच्छा, तो ये बात है ! बड़ा फ़िल्मी जीवन जीते हैं लोग ..फिर तो पुरुषों को किसी भी 'स्त्री को बचाने' में बहुते बड़ी कठिनाई है, क्योंकि बाद में जिस स्त्री को वो बचा लिया है, उससे विवाह करना पड़ सकता है, भारी प्रॉब्लम है..बचाओ भी और शादी भी करो...और अगर कोई पहले से शादी-शुदा हो तो और भारी समस्या है...
      हाँ ठीक है, हम समझ गए हैं अब...आपका धन्यवाद
      लेकिन पुरुषों को किसी स्त्री के साथ बदसलूकी करने के लिए तो कोई रोक-टोक नहीं है न...काहे से कि इसके लिए ऐसी किसी भी यातना से नहीं गुजरना पड़ता है...


      — यहाँ 'स्त्री-रक्षा' का मतलब समाज उससे कोई-न-कोई संबंध (चक्कर) देखकर सोचता है.

      @ अच्छा अब बात समझ में आई, तभी कोई गोवाहाटी में कोई उस लड़की को बचा नहीं रहा था, क्योंकि सबको इस बात का डर था, कहीं कोई ये न कह दे, ज़रूर इसका चक्कर उस लड़की के साथ है...
      अरे हम दिल से धन्यवाद करते हैं, बात को बहुत अच्छे से आपने समझाया..


      — 'विष्णु-प्रभाकर' अपने 'अर्ध-नारीश्वर' उपन्यास में स्त्री-मनोविज्ञान को उजागर करते हुए एक घिनौना सत्य लिखते हैं कि 'मालकिन महिला अपने नौकर द्वारा किये बलात्कार की स्मृति को सुखद ठहराती है.'

      @हिन्दुस्तान में ले दे के यही एक उपन्यास उपलब्ध है, स्त्री-मनोविज्ञान के लिए, इसी उपन्यास का उद्धरण लेना अच्छा लगा, एक विष्णु प्रभाकर जी के उपन्यास के एक उद्धरण से सारी मालकिनों के मनोविज्ञान को समझ जाना भी बड़ी बात है, सब थोड़े ही न इतने समझदार हैं...बात बड़ी अच्छी लगी ...

      — जहाँ 'लज्जा' संकुचन में नहीं विदीर्ण होने में प्रफुल्लित होती हो ... तब रक्षा में उठे हाथ दुविधा में पड़ जाते हैं.

      अच्छा...! ६ महीने की बच्ची की लज्जा, ५ साल की बच्ची की लज्जा, ८५ साल की वृधा की लज्जा, संकुचन में आती है या विदीर्ण में आकर प्रफुल्लित होती है ??

      — जहाँ मित्रता के नाम पर स्त्री-पुरुष अपनी सब दूरियाँ समाप्त कर देते हैं. तब 'रक्षा' को उठी सहसा आवाजें मात्र नौटंकी प्रतीत होती हैं.

      जब मित्रता वश स्त्री-पुरुष के बीच कोई दूरियाँ रहीं ही नहीं, तब स्त्री को रक्षा की ज़रुरत भी नहीं होगी...तब आप अगर गए तो ज़रूर नौटंकी हो जायेगी...

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    5. @ अदा जी,
      आपकी भूल नहीं आप वही बताते हैं जो आप जानते हैं... यहाँ न जाने कितने ही विकल्प मौजूद हैं जो मनुष्यमात्र के लिये समान स्वतंत्रता की वकालत करते हैं.

      - 'अपराध करने पर' शारीरिक यातना पुरुष अपराधियों के बनिस्पत स्त्री अपराधियों को कमतर थी. 'मृत्युदंड' देने से पहले सजा के एकाधिक प्रावधान थे, यथा अपराधी को पश्चाताप होना, उसका प्रायश्चित करना, क्षमा माँगना, क्षमा न होने पर अभिशप्त जीवन जीना अर्थात सामाजिक बहिष्कार, देश-निष्कासन.... आदि.

      कठोरतम दंड-व्यवस्थाओं वाले संविधान भी रहे हैं, जिसमें अपराध की संवेदनशीलता को देखकर न्याय(सजा) का विधान था. आज 'मानवाधिकार आयोग' में बैठे लोग 'मृत्यु' की सजा को पचा नहीं पाते.. उसे उम्रकैद में बदलने की हिमायत करते हैं... और अधिकांश अपराधी उम्रकैद में मज़े करते हैं... ये सब दबाव में किया जाता है. यहाँ आज न्याय-वयवस्था दबाव में काम करती है. 'मानवाधिकार वालों में इतनी अधिक मानवता होती है कि वे अन्य पशु-पक्षियों को भोजन में लेना तो पसंद करते हैं लेकिन 'क्रूर और वहशी दरिन्दे' की सजा को कम करने में लगे रहते हैं.

      - भारत तमाम संस्कृतियों वाला देश है और न जाने कितने ही मतावलंबी एक ही विषय पर अलग-अलग राय (मानसिकता) रखते हैं... कनाडा जैसे देश की तरह जनसंख्या जुटाया हुआ देश नहीं है. यहाँ कि स्थितियाँ जटिल हैं और शायद वहाँ की उतनी नहीं...

      .... आपके दिये सभी तर्क लाजवाब हैं... फिर भी मेरी 'राष्ट्रीयता' मुझ पर कुछ इस कदर हावी रहती है कि मेरी उक्तियाँ 'परदेशराग अलापने वालों' पर व्यंग्यात्मक बन जाती हैं...क्षमा.

      आप मनोज कुमार की 'पूरब-पश्चिम' देखिएगा. :) इतराना आ जायेगा :)
      ... अब यही पूँजी बची है यहाँ के लोगों पर... 'वास्तविक पूँजी को लुटेरे पहले भी लूटते रहे हैं और अभी भी ये क्रम जारी है.:(

      हटाएं
    6. @ अदा जी, संगीत शास्त्र में 'रेप सोंग' गायन का 'अतिद्रुतम' भेद है... यदि मुझ पर सुनाने की सुविधा होती तो जरूर आपको अपनी सामाजिक कविताओं का 'अतिद्रुतम' रूप सुनाता.

      मेरे लिये तो 'रेप' और 'रैप' एक बराबर रहा ... समझ की कमी के कारण अंतर न कर सका. मुझे लगा 'रेप' काम का ऐसा 'आवेग' है जिसे 'रेपिस्ट' थाम नहीं पाता और सीमानों को लांघ जाता है... मैं 'आवेग' को 'द्रुतता' से जोड़कर समझता रहा.

      बहरहाल, मुझे सुज्ञ जी की बाद की टिप्पणियों में तत्व नज़र आ रहा है.... चर्चा को विषयांतर ले जाने की बजाय 'मुद्दे' पर कुछ सारगर्भित पढ़कर विचारने का मन बना रहा हूँ.

      कहा-सुना माफ़ करना....

      हटाएं
    7. संगीत शास्त्र में 'रेप सोंग' गायन का 'अतिद्रुतम' भेद है.

      भूल सुधार :

      'रेप सोंग' ही को संगीत शास्त्र में गायन का 'अतिद्रुतम' भेद कहा जाता है.

      हटाएं
    8. .. आपके दिये सभी तर्क लाजवाब हैं... फिर भी मेरी 'राष्ट्रीयता' मुझ पर कुछ इस कदर हावी रहती है कि मेरी उक्तियाँ 'परदेशराग अलापने वालों' पर व्यंग्यात्मक बन जाती हैं...क्षमा.

      मेरी राष्ट्रीयता आपकी राष्ट्रीयता से कहीं से कम नहीं है, गाँधी ने अपने जीवन काल का बहुत बड़ा समय विदेश में ही बिताया था, और अपनी राष्ट्रीयता उन्होंने, भारत में नहीं विदेश में ही रह कर, दिखाना शुरू भी कर दिया था, उनकी क्रांति भारत से नहीं साउथ अफ्रीका से शुरू हुई थी...आपको क्या लगता है कि बापू अगर साउथ अफ्रीका नहीं जाते तो, असहयोग आन्दोलन कि शुरुआत भी हो पाती ?
      अगर मुझे भारत की चिंता न होती तो मैं भी, चुप रह कर तमाशा देखती...आपने पढ़ा तो होगा ही..'निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय'...हम जैसों की बातें ज्यादा मायने रखतीं हैं, क्यों ? क्योंकि :
      हमने दोनों दुनिया देखी हैं, इसलिए हमारे लिए तुलना करना थोड़ा सा आसान होता है...
      हमें भारत से उतना ही प्रेम है जितना आपको


      आप मनोज कुमार की 'पूरब-पश्चिम' देखिएगा. :) इतराना आ जायेगा :)
      ... अब यही पूँजी बची है यहाँ के लोगों पर... 'वास्तविक पूँजी को लुटेरे पहले भी लूटते रहे हैं और अभी भी ये क्रम जारी है.:(

      मनोज कुमार कि फिल्म हन देख चुके हैं, और उस सायराबानू और इस सायराबानू में बहुत फर्क है...:):)
      पहली बात, हमारे बाल वैसे नहीं हैं :)
      हम भारत में पैदा हुए हैं
      भारत की सुगंध हम साथ लेकर न सिर्फ़ चलते हैं, जहाँ तक हो सके हम उसे फैलाने की कोशिश करते हैं, आज तक कनाडियन गंध हम पर हावी नहीं हुआ था..मुझे भारत को और भारतीयता को समझने की ज़रुरत नहीं, वो मेरे लहू में दौड़ती रहती है...
      और हम इस बात पर इतराते हैं..:)

      हमारी पूँजी हमने अपनी कमजोरियों की वजह से गंवाई है, अब जो पूँजी बची है उसे आपलोग वहाँ बचायेंगे...हम जो पूँजी लेकर आए आए हैं हम उसका यहाँ विस्तार ही कर रहे हैं..हर शहर में हिंदी स्कूल खुल रहे हैं, यहाँ के पार्लियामेंट में हर साल दिवाली सभी कनाडियन प्राईम मिनिटर और मिनिस्टर्स के साथ मनाया जाता है, बाकायदा पार्लियामेंट के अन्दर लक्ष्मी पूजा होती है...और सबसे पहली पूजा जब हुई थी मेरी कम्पनी और मेरे रेडियो प्रोग्राम ने उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था...ये मेरे लिए गर्व की बात है..

      आपकी जानकारी के लिए यह भी बता दूँ..आप जिसे 'रेप सोंग' कह रहे हैं, जो दरअसल 'रैप सोंग' है, उसका अविर्भाव भारत में ही हुआ है...और यह भी बता दूँ कि मैं बहुत अच्छी 'रैप सिंगर" हूँ :)

      हटाएं
    9. मुझे आपके उत्तरों से संतुष्टि हुई और प्रसन्नता भी.

      हटाएं
  13. बात परिधान या लड़की व्यवहार की नहीं है ....बस घुमा फिर कर सब कुछ औरतों के हिस्से ही डाला जाय यह मानसिकता है.....

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    उत्तर
    1. बस यही बात है...लड़कियों के साथ कोई भी बदसलूकी हो...दोषी उन्हें ठहरा दो

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  14. काफी सारे प्रश्न उठ रहे हैं आपकी इस पोस्ट को पढ़कर ....क्या कहा जाये स्थितिस्पष्ट नहीं है लेकिन फिर भी आपने जो सुझाब दिए हैं वह काबिले तारीफ हैं .....!

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    उत्तर
    1. केवल राम जी,

      रश्मि जी इस चर्चा को कराने के लिये धन्यवाद की पात्र हैं... जिन्होंने अपनी विचारोत्तेजना वाले आलेख से सभी पाठकों को आंदोलित किया हुआ है. उनकी बात को पुष्ट करने को जिसमें कई विदूषी महिलायें सहयोग भी दे रही हैं.

      हटाएं
    2. शुक्रिया केवल राम जी..
      आपका भी शुक्रिया प्रतुल जी.

      हटाएं
  15. रश्मि जी
    हम जब तक समग्र समाज की मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक कुछ भी नहीं बदल सकता है , आप सह शिक्षा की बात कर रही है यहाँ तो उसका भी जम कर विरोध होता है लडके लड़की की मित्रता का भी विरोध होता है यहाँ तक कहा जाता है की दोनों को दूर रखो क्योकि पेट्रोल और चिंगारी को करीब लायेंगे तो आग लगेगी ही , ऐसे में कौन आप के समाधान का सर्थन करेगा | यहाँ तो इस तरह की घटाओ को मौके के रूप में देख जाता है ताकि उनके पास और उदाहरन हो लडकियों को घरो में कैद करने के लिए या लड़कियों की आजादी की बात करने वालो से कहने के लिए की दखो आप लोगों की सोच के कारण लड़की के साथ क्या क्या हुआ | इस जानवर को बांध कर जू में रखा जाना चाहिए या किसी एकांत टापू पर भेज देना चाहिए ( मै तो जंगल बोली थी किन्तु किसी ने टोका की वहा भी आदिवाशी महिलाए होते है ये जानवर उन पर भी मौका देख टूट पड़ेगा ) वैसे सच कहूँ तो ये जानवर बहुत ही कमजोर और डरपोक है जो मौका और कमजोर को देख कर बाहर आता है मुझे लगता है की हमें अपनी बेटियों को ऐसे जानवरों का शिकार करना उनकी अक्ल ठिकाने लगाना सिखा देना चाहिए |

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    उत्तर
    1. ठीक है...जो लोग सह-शिक्षा...लड़के /लड़कियों के मिलने जुलने पर आपत्ति करते हैं...वे ही बताएँ कि आखिर समाधान क्या है??

      लड़कियों को अब घर में बंद कर के तो नहीं रखा जा सकता....उन्हें खुद को सर से पैर तक ढक कर रखने के लिए तो नहीं कहा जा सकता...उनके साथ कोई दुराचार होता है..तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से पूरे देश में खबर फ़ैल जाती है तो फिर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति ना हो..इसके लिए क्या किया जाए...वही लोग कुछ उपाय सुझाएँ .
      मेरी भी पहली प्रतिक्रया यही हुई थी कि लड़कियों की अगली पूरी पीढ़ी को लड़ाकू बना दिया जाए. कोई कंधे पर हाथ भी रखने की कोशिश करे तो पलट कर उसका जबड़ा तोड़ दें ये...उनकी तरफ आँखें उठाएँ तो उसकी आँखें निकाल लें.
      जब ये लोग सुधरने का नाम नहीं लेंगे ..अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तो फिर यही उपाय बाकी रह जाएगा.

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    2. अंशुमाला जी,

      मैं आपसे 'मानवीय स्वभाव' पर बात करता हूँ...

      घर के एक गमले में बहुत परिश्रम के बाद एक पौधा बड़ा हुआ उसमें सुन्दर फूल लगा. उसे उसकी पालक 'सुन्दर युवती' ने सहेजकर रखा.

      जब वह 'युवती' किसी धार्मिक यात्रा पर गयी और उसने रास्ते में लगे 'एक अत्यंत सुन्दर फूल' को देखा, जो प्रकृति की शोभा बढ़ा रहा था, उसे तुरंत तोड़ लिया और कुछ देर सूंघा, बालों में गूंथा, मनभर जाने पर उसकी पंखुरी-पंखुरी नोचकर अपनी चलती कार से बाहर फैंक दिया............ क्या यह 'युवती' द्वारा किया 'सौन्दर्य के साथ बलात्कार' नहीं?

      मुझे लगता है.... हम सभी को 'निर्ममता' को त्यागने के लिये अपनी संस्कृति का पुनःअध्ययन करना चाहिए... जहाँ पुष्प-चयन का संस्कार है, तोड़ने की वकालत नहीं.

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    3. प्रतुल जी
      कभी कभी हम जिस दृष्टिकोण संकेत से अपनीबात कहते है उसे पाठक ठीक से नहीं पकड पाते है आप की टिप्पणी मुझे कुछ कुछ समझ तो आ रही है किन्तु पूरी तरह से नहीं यदि बिना संकेतो के थोडा और खुल कर कहे तो मै जवाब बिना शंका के दे सकुंगी |

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    4. कहीं प्रतुल जी का ये कहना तो नहीं कि फूल को सिर्फ घर के अंदर गमले में ही खिलना चाहिए किसी धार्मिक यात्रा के रास्ते पर नहीं..वरना उसके तोड़ लिए जाने...उसकी पंखुरी नोच कर फेंक दिए जाने की आशंका बनी रहती है...:)

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    5. @ अंशुमाला जी,

      फिर से कहता हूँ....

      - कोई सौन्दर्य को संजोता है... कोई उसे डिस्प्ले किये रहता है. इसे इस तरह भी कह सकते हैं... कोई बालों को गूँथने को ही बाल-सँवारना कहता है, तो कोई उसे करीने से बिखेरकर ही उसे सँवारना कहता है.

      - कोई चाहता है कि उसके सौन्दर्य को केवल एक से सराहना मिले... कोई चाहता है 'जो देखे उसे सराहे'... इसे अब अपने माध्यम से कहता हूँ... मैंने कुछ कवितायें लिखी हैं.. जिसे अन्यों से बाँटना चाहता हूँ. लेकिन कुछ और भी लिखी हैं... जो अत्यंत निजी हैं... जिसे केवल पत्नी की प्रशंसा चाहिए, अन्यों की नहीं.

      - बुरके से झाँकता हुआ चेहरा ध्यान खींचेगा, वस्त्र पहने हुए लोगों के बीच नागा व्यक्ति आकर्षण का केंद्र होगा, नंगों के बीच लंगोटधारी भी अलग पहचान बना लेगा....

      अब इतिहासकारों के विकासवादी चश्मे से उस समय की कल्पना करो, जब मनुष्य सभ्यता की सीढियाँ चढ़ रहा था :

      - क्या नग्न आदिमानव और मानवियों के बीच पत्ते लगाए हुए 'मानवी' पीटी गयी होगी?

      - क्या पशुओं की खाल लपेटे हुए मानव और मानवियों के समाज में 'जूट' या 'सूत' के वस्त्रों का फैशन अपनाने वाले लोगों का तिरस्कार हुआ होगा?

      - क्या वस्त्रों से जुड़े हुए व्यवसाय उन्नत होने पर ही रीति-रिवाजों का चलन हुआ होगा?... और फिर न जाने क्या हुआ ये दौड़ उलटी शुरू हो गयी... क्या इसे सभ्यता की सीढियाँ चढ़ना कहें या उतरना?

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    6. हम किसी भी व्यक्ति को उसके चेहरे से पहचानने के अभ्यस्त होते हैं... न कि उसके अंगों से.

      अब यदि किसी से हम संवाद करते हैं....तो उसका आभासिक चित्र मानस में स्वभाविक रूप से ले आते हैं.... कोई व्यक्ति मौखिक भाषा का अधिक प्रयोग करता है तो कोई शारीरिक भाषा को तरजीह देता है. अधिक शीशा देखने वाले, और बार-बार बाल सँवारने में रुचि लेने वाले, बिना वजह मुस्कुराने वाले और बात-बात पर खिलखिलाने वाले 'सम्प्रेषण' में क्या संप्रेषित करते हैं... इसके अर्थ निकालने वाले ही अनर्थ कर जाते हैं.

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  16. रश्मि जी आपकी यह पोस्‍ट बहुत जल्‍दबाजी में लिखी गई प्रतीत होती है। और उन पर जो टिप्‍पणियां आ रही हैं वे भी उसी श्रेणी की लग रही हैं।
    जो तर्क आपने दिए हैं या जो समाधान आपने सुझाए हैं वे भी मासूमियत से भरे लगते हैं।

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    उत्तर
    1. राजेश जी,...
      जब से इस घटना के बारें में पढ़ा/जाना...मेरे दिमाग में यही बातें चल रही थीं. मुझे तो समाधान की दिशा में पहला कदम लगा यही लगा.
      कुछ ठोस कदम आप भी सुझा दें.

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    2. bhavishya apnae samaadhan khud daegaa ladkiyon ko hamae bas har samay ek dusrae kae saath hona chahiyae

      jis din ham , ham mae sae har koi jo mahila haen ,
      galti mahila kaa keh kar , mahila kae saath hongi , apnae aapsi kisi bhi vivaad ko bhul kar , us din hamari betiyaan khud surakshit hongi


      gaur keejiyae ek ajnabi purush samudaay , jo aaps me bilkul nitant aparchit haen kitni aasani sae ek bachchi ko sadak par gher laetaa haen , un purusho kaa aapsi rishta kyaa haen ???

      aur ham sab naari ek jagah ho kar bhi kabhie ek sur me baat nahin karti ek dusrae sae nahin judtii

      purush samaaj sae swikriti nahin chahtaa , ham samaj ko khush karnae me unki swikriti paanae mae vishwaas kartii haen

      chahey iskae liyae ham kitni bhi alag thalg kyun naa pad jaaye

      just think

      हटाएं
    3. जो कार्य उत्साह से किया जाये ... वह 'वरिष्ठों' को जल्दबाजी लगती है.

      और जो 'उत्साही' कार्य करने की योजना ही बनाता रह जाये ... उसके 'क्रियान्वयन' पर उसका 'उत्साह' ठंडा पड़ जाता है. :)

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  17. उत्तर
    1. बहुत ही सटीक प्रश्न शिवम,
      जब आदमी ही जानवर बन जाए..फिर उसे सजा कौन दे..??

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  18. स्‍वाभाविक आकर्षण, कुंठाओं के दबाव में मानसिक विकृति बन जाता है.

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    उत्तर
    1. isai liye bachhon ko larka-larki ke chasme se dekhna band kar dena hoga aur purblicly jo bimarsha chal raha hai oose pratham
      pathshala yane ke 'ghar' se suru karne honge.....

      pranam.

      हटाएं
    2. @संजय जी,
      यह व्यक्तिगत बात है...पर जब आपने 'घर से शुरू करने की बात कही' तो सोचा शेयर कर ही लूँ.

      मेरे दो बेटे हैं...मेरे घर के पास ही बहुत ही प्रतिष्ठित Don Bosco Boy's School है. उसमे बड़े बेटे को एडमिशन भी मिल जाता....(छोटा तब बहुत छोटा था ) पर मैं adamant थी कि इन्हें co- ed school में ही डालना है क्यूंकि घर में भी लड़की नहीं है...अगर स्कूल में भी लड़की नहीं होगी तो फिर इनका स्वस्थ मानसिक विकास नहीं होगा.

      पड़ोसी ,रिश्तेदार सबका विचार था कि ये मेरी बेवकूफी है..कि पास के इतने अच्छे स्कूल में ना डालकर मैं दूर के स्कूल में डाल रही हूँ. पर मेरे पति की भी इस से सहमति थी.
      ऐसा नहीं है कि Boys school या Girls School में पढ़ने वाले सारे ही लड़के/लड़की संकोची होते हैं...पर co-ed स्कूल वालों से इनका प्रतिशत जरूर ज्यादा होता है.

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    3. ऐसा नहीं है कि Boys school या Girls School में पढ़ने वाले सारे ही लड़के/लड़की संकोची होते हैं...पर co-ed स्कूल वालों से इनका प्रतिशत जरूर ज्यादा होता है.

      @ 'प्रतिशत' की बात से पूरा सहमत हूँ. दोनों ही स्थितयों के कुछ अच्छे परिणाम हैं और कुछ बुरे माने जा सकते हैं. मैं अपनी बात कहता हूँ.

      - प्राथमिक स्कूल की केवल पहली कक्षा लड़कियों के साथ पढ़ा.

      - 'दूसरी' कक्षा से लड़के-लड़कियों का स्कूल दो पालियों में बँट गया.

      - छठी स्कूल में पहुँचे, जो 'सह-शिक्षा' स्कूल था... लेकिन नवीं कक्षा से संयुक्त कक्षाएँ लगती थीं.

      - नवीं में पहुँचते-पहुँचते वह स्कूल भी दो पालियों में बँट गया.

      - १२वी कक्षा तक किसी कन्या से बात तक नहीं की. ममेरी बहनों से राखी बँधवाने के अलावा... वहाँ भी आवासीय दूरी के साथ संवाद की भी एक दूरी बनी रही.

      - बी.ए. कक्षा में 'कवितायें' लिखने लगा था... जो कह नहीं पाता था उसे लिखना लगा था मैं.... शायद यहाँ फ्रायड का 'क्षतिपूर्ति का सिद्धांत' लगाया जाये... जिसकी संभावना हो सकती है.

      - एम्.ए. तक संकोची स्वभाव ने मन ही मन समाज में सर्व-स्वीकृत संबंधों को बनाना शुरू कर दिया. साथ ही साथ स्त्रियों के प्रति संकुचित सोच निर्माण में मेरी मदद 'आर्य समाज' के 'चरित्र निर्माण शिविरों ने की.... (याद रहे 'आर्य समाज' को 'स्त्री-शिक्षा' और 'स्त्री के साथ जुड़ी कुरीतियों' से मुक्ति के सन्दर्भ में याद किया जाता है).

      - ऑफिस में स्त्रियों के साथ काम करने से, और निजी व्यवसाय में उनसे व्यवहार बनाने से मेरे भीतर की संकीर्णताएँ जरूर समाप्त हुईं... और फिर अपने विवाह के बाद स्त्री-पक्ष की अन्य जरूरतों को महसूस भी किया... फिर भी 'स्वतंत्रता' के नाम पर 'मनमानी' पर मैं आज भी उबाल खा जाता हूँ. क्या मेरी शिक्षा दोषपूर्ण है?

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    4. कोई भी शिक्षा कभी भी दोषपूर्ण नहीं होती...आपकी भी हरगिज नहीं है.

      @फिर भी 'स्वतंत्रता' के नाम पर 'मनमानी' पर मैं आज भी उबाल खा जाता हूँ.
      कैसी मनमानी...??
      और स्वतंत्रता तो कभी किसी की जागीर तो होती नहीं...इसलिए उबाल खाने जैसी बात नहीं होनी चाहिए.
      किसी की स्वतंत्रता का हनन करने पर...जरूर उबाल खा जाने की बात समझ में आती है.

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  19. माफ़ करना रश्मि , मैं आदि होने /ना होने को कारण मानने से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ .

    आदि हो जाने का क्या मतलब है , मुझे यही समझ नहीं आया . क्या ये लोंग अपने घर में अपनी माँ -बहनों-भाभी -चाची-या अन्य महिला रिश्तेदारों के साथ नहीं रहते ? बच्चे कैसे शिक्षा प्राप्त करें यह अलग बात है , वे साथ पढ़ते हैं , लिंग विभेद के बिना आपस में बातचीत करते हैं , इसलिए उन्हें एक दूसरे से बात करने में संकोच नहीं होता , यह बिलकुल अलग बात है . इसका इव टीजिंग से कोई वास्ता नहीं है. स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार किसी व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है .
    इस दृष्टिकोण से हर धर्म के साधू -सन्यासी , ब्रह्मकुमारी , सिस्टर या नन, अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी आदि, इन सभी को दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए.

    मेरी समझ से दुराचरण के दोष से बचने के लिए स्त्री -पुरुषों को एक दूसरे के शरीर का आदि बनाये जाने की बजाय आत्मनियंत्रण सीखने /सिखाने की आवश्यकता अधिक है . विभिन्न समाजों में स्त्रियों या लड़कियों को यह बहुत समय से सिखाया जाता रहा है , इसलिए पुरुषों के प्रताड़ित होने की संख्या ना के बराबर रही है. यदि हम सामाजिक संतुलन के लिए स्त्रियों को दुर्व्यवहार अथवा अभद्र से बचाना चाह्ते हैं तो पुरुषों को भी उसी मात्रा में संयम और आत्मनियंत्रण सीखने और सिखाये जाने की आवश्यकता अधिक है ना कि स्त्रियों को और अधिक बंदिशों में रहने /रखने अथवा उघाड़ने की सीख दिए जाने की .

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    उत्तर
    1. वाणी ,
      आदी होना मैने सिर्फ कपड़ों के सन्दर्भ में ही नहीं कहा...लड़कियों का स्कूल -कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करने का ..ऑफिस में काम करने का जितना ज्यादा प्रतिशत होगा...लोगों के लिए उनका अस्तित्व स्वीकार करना उतना ही आसान होगा...क्यूंकि वे उनकी उपस्थिति के आदी हो जायेंगे.

      @स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार किसी व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है .
      इस दृष्टिकोण से हर धर्म के साधू -सन्यासी , ब्रह्मकुमारी , सिस्टर या नन, अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी आदि, इन सभी को दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए.

      स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार बेशक व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति पर ही निर्भर करता है...पर जैसा कि गुवाहाटी में हुआ या अन्य जगहों पर भी समय समय पर हो चुका है..वहाँ कोई व्यक्ति विशेष नहीं था...एक ग्रुप था लोगो का. जो बस किसी तरह एक नारी शरीर को छू लेना चाहते थे...उसे बेपर्दा कर देना चाहते थे.

      साधू-सन्यासी....नन -ब्रदर..की बातें मैं नहीं करना चाहती..समय-समय पर उनसे जुड़ी ख़बरें भी आती ही रहती हैं.

      @अविवाहित स्त्री- पुरुष , विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी आदि, इन सभी को दुराचारी या विपरीत लिंग के प्रति अभद्र हो जाना चाहिए.

      अविवाहित स्त्री-पुरुष या विभिन्न कारणों से एक दूसरे से दूर रहने वाले पति- पत्नी ...कोई एकांतवास में नहीं जीते....इनका विपरीत जेंडर से मिलना-जुलना होता ही रहता है. मिलने-जुलने का अर्थ कोई संबंद्ध बनाना नहीं होता..एक सहज-सामान्य व्यवहार होता है.

      @इसका इव टीजिंग से कोई वास्ता नहीं है.
      तुम्हारी अपनी सोच है वाणी...उसका सम्मान करती हूँ पर मुझे एग्जैक्टली ऐसा ही लगता है कि को- एड में पढ़ने वाले किशोर या फिर बचपन से ही लड़कियों के साथ आपस में मिलने-जुलने खेलने -कूदने वाले किशोर ...ईव-टीजींग में कम लिप्त होते हैं. बनिस्पत कि उनके जो हमेशा लड़कियों को बस दूर दूर से ही देखते हैं .

      संयम रखने की बात तो मैने पोस्ट के शुरुआत में ही कही है..कि आखिर वही लोग, अपनी जानी-पहचानी स्त्रियों को देखकर तो आत्म-संयम रखते हैं...पर अनजान स्त्रियों को देख ,उनके अंदर की पशुता भड़क जाती है.

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  20. शर्मनाक घटना की बढ़िया विवेचना...

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  21. काम गंदे सोंच घटिया
    कृत्य सब शैतान के ,
    क्या बनाया ,सोंच के
    इंसान को भगवान् ने
    फिर भी चेहरे पर कोई, आती नहीं शर्मिंदगी !
    क्योंकि अपने आपको, हम मानते इंसान हैं

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  22. सुनने से परे भी कोई मरता है, जानकारी में भी भेड़िये घूमते हैं - शान से . देश के कर्णधार बन्दुक चलानेवाले और दरिन्दे हैं ............. कब तक ? जब तक हम अपनी जान के भय से परे नहीं होते .

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  23. जब तक अध्यात्म चिंतन सिर्फ बड़े- बूढों का काम और पश्चिमीकरण को प्रगति का प्रतीक माना जाता रहेगा, इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी... राक्षस तो हर युग और समाज में होते है और होते रहेंगे... इसका समाधान सिर्फ यही है कि प्रत्येक लड़की अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ हो, जिसके लिए स्कूलों में और अलग से उन्हें कराटे का प्रशिक्षण दिया जाये...

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    उत्तर
    1. @इसका समाधान सिर्फ यही है कि प्रत्येक लड़की अपनी रक्षा करने में स्वयं समर्थ हो, जिसके लिए स्कूलों में और अलग से उन्हें कराटे का प्रशिक्षण दिया जाये...

      शुक्रिया गायत्री जी..आज की सबसे बड़ी जरूरत यही है.

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  24. भारतीय समाज के सरकारी स्कूलों में लडकियाँ 'कराटे शिक्षक' के रूप में पुरुष शिक्षक चाहेंगी अथवा महिला शिक्षिका?

    माँग के रूप में यह बात सही है कि छात्राओं को आत्मरक्षा के लिये प्रशिक्षित किया जाये... लेकिन एक समय के बाद घर-बार की जिम्मेदारियों में फँसकर अच्छेभले सीखे-सिखाये लोग भी अचानक बनी स्थितियों में परास्त हो जाते हैं..... कहते हैं न कि ... एक अकेले शेर तक को १० जंगली कुत्ते मिलकर मार डालते हैं. मुझे लगता है कि शिक्षा सब के लिये हो... और शिक्षा अर्थोंमुखी की बजाय मूल्योंमुखी हो. मूल्यपरक शिक्षा, चरित्र निर्माण करने वाली शिक्षा, राष्ट्रीय संसाधनों को सुरक्षा देने वाली शिक्षा सभी को निर्भय करेगी.. और समाज में दुष्कर्मों पर नियंत्रण को 'दंड-वयस्था' बहुत ही सख्त होनी चाहिए.

    कुछ हद तक 'पीड़ित की इच्छानुरूप', और दोषी की आयु और सुधार की गुंजाइश को देखते हुए 'सजा' का प्रावधान होना चाहिए.

    पुरानी सहिंताओं में मैंने कहीं पढ़ा है :

    दंड-व्यवस्था के पैमाने क्या हों ?

    — एक ही अपराध की सजा 'शिक्षित' (ब्राहमण) को अधिक और कमतर शिक्षा वाले को 'न्यून' का विधान था.

    — शीलभंग किये के दोषी व्यक्ति को .... 'लोह की तप्त नग्न मूर्ति' से लिपटने की सजा थी... मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में एक पुस्तक पढी थी... 'स्मृतियों में नारी' उसमें मनु सहिंता जैसी कई सहिंताओं का उल्लेख है... मुझे लगता है कि पूर्व में जो न्याय-व्यवस्था (दंड-व्यवस्था) थी वह तार्किक है... बस उसके प्रति समस्त पूर्वाग्रह छोड़कर उसे समझने की ज़रूरत है.

    आज जो 'पुरुषवादी व्यवस्था' के विरोधी स्वर उठ रहे हैं...उसे एक अन्य दृष्टिकोण से भी विचारना होगा.... स्वभावतः पुरुष शक्ति में स्त्री से 'बीस' रहा रहा है इसलिये उसने ही समाज के लिये 'संविधान' और आचार-सहिन्ताएं बनायीं. इसका ये मतलब नहीं कि उसने स्त्री के बिना परामर्श के यह सब किया होगा. कुलमिलाकर जितने भी अपराध व दंड से जुड़ी व्यवस्थाएं हैं उसके केंद्र में स्त्री ही रही है. संपत्ति और अन्य अधिकारों की बातें बाद की हैं.

    ..अभी इतना ही..

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  25. मानसिकता बदलने का काम अगर शुरू से ही किया जाय ... बचपन से ही घर और स्कूल से नैतिक, अनेतिक या आपसी सद्भाव ... जिसे मोरल साइंस भी कह सकते हैं की शिक्षा दी जाए तो कुछ हद तक इस पास काबू पाना आसान होगा ... हां ये शिन्षा अब १० वीं कक्षा तक जरूरी होनी चाहिए ...

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  26. रश्मि जी की बात से सहमत हूँ...एक सकारात्मक सा आलेख...
    अभी तीन महीने पहले ही महानगर मुंबई के एक पोश इलाके में रहना हुआ...
    पूरा एक वीक.वहाँ देखा की सभी छोटे-बडे राहदारी हर छोटी-बडी दूकनों वाले,
    ओटो वाले, ठेले वाले वगैरा... किसी में भी लड़कियों को देखकर घूरना या वैसी
    ही कोई जिग्यासा देखने को न मिली.. सुंदर से सुंदर लड़कियाँ व महिलाएं अपनी
    मनपसंद की वेषभूषा में इतने सहज हिरते-फिरते नज़र आए की आश्वस्तता ही वहाँ
    महसूस हुई ...लड़कियों मैं भी वहाँ वैसा कोई इस्यू था ही नहीं, सभी अपने
    आपमें अपनी दिनचर्या में मग्न...

    जबकि उसके उलट छोटे से शहर में कभी कभार ही दिख जाती सुघड-सुंदर लड़की
    या महिला को जिस तरह घूरा जाता है की लड़कियाँ इस विकृति भरे व्यवहार को
    अपने ऊपर झेल असहज और अस्वस्थ हो जाती है...ऐसी परिस्थिति में उसका काम
    पतली सी दोर पर बामबू लिए चलते नट सा हो जाता है....पर फिर भी वे यह सब कुछ
    निभा लेती है, और ऐसा सबकुछ झेल लेना उसकी आदत सा बन जाता है ...और इस
    तरह वे अपने बाहर के काम निपटा लेती है..

    लड़के-लड़कियों का सह-शिक्षण भी एक सारपूर्ण उपाय है, जहां परस्पर की मानवीय
    पहचान और दोस्ताना सा माहौल बनता है...रश्मि जी से यहाँ पूरी तरह से सहमत हूँ...
    क्यों कि फ़िलहाल तो यह भी एक कारगर व अनुभूत उपाय है...

    पर गुवाहाटी जैसी घटनाओं का पुनरावर्तन न हो वही प्राथमिकता हम सभी की और
    सभी संलग्न संस्थाओं जी होने चाहिए...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शुक्रिया..मेरे विचार से साम्यता रखने के लिए.

      कई शहरों में सुन्दर सुघड़ लड़की को ही नहीं...किसी भी लड़की को घूरा जाता है.
      कितनी ही सहेलियों ने अपने अनुभव बांटे हैं...कि बहुत दिनों बाद अपने शहर जाती हैं तो लोगों को यूँ घूरते देख,उन्हें लगता है...शायद जान-पहचान का कोई व्यक्ति है..वो नहीं पहचान रही हैं. पर वो उनकी तरफ इस तरह देख रहा है..इसका अर्थ जरूर उन्हें जानता है.
      हफ्ता लग जाता है..वहाँ के इस तरह घूरने वाली मानसिकता को समझने में.
      जबकि वे सलवार कुरता -दुपट्टे में होती हैं...जींस में नहीं.

      हटाएं
  27. मुझे तो प्रतुल जी की इतनी भारी भरकम बातें समझ में ही नहीं आईं...
    कहाँ से समझ पाऊँगी, कोई युवती अगर फूल तोड़ ले, तो फूल के सौन्दर्य का बलात्कार कर देती है
    मेरे हिसाब से तो सारी महिलाओं को एक फिल्म देखनी चाहिए 'ENOUGH' जेनिफ़र लोपेज की बहुत ही अच्छी फिल्म है..उससे कुछ सीख लेनी चाहिए,
    उसके बाद भी अगर काम नहीं बना तो फिर 'PROVOKED' तो है ही, ऐश्वर्या राय की ;)

    जवाब देंहटाएं
  28. संस्कार, मानसिकता, सोच, कुंठा से इतर बहुत से सामाजिक बदलाव भी इन घटनाक्रमों के कारक हैं
    मसलन
    आधुनिक नशीले पदार्थों/ पोर्न फिल्मों का सहजता सुगमता से सर्वत्र उपलब्धता
    एकल परिवारों की परंपरा
    पर्यावरण का बदलाव
    आदि आदि (यह 'आदि' टिप्पणियों में लिखा गया आदि नहीं है)

    भले ही उलटा मामला हो, ज़रा एक तरफ दिल्ली की उमा खुराना वाले मामले में ध्यान दीजिएगा जो इससे मिलता जुलता ही था. तात्कालिक कारण कुछ भी हो
    वर्षों बाद पता चला कि वे निर्दोष है

    जवाब देंहटाएं
  29. स्‍वस्‍थ मानसिकता वाले लोगों के सम्‍मुख लडकियों या महिलाओं को कोई कठिनाई नहीं ..

    पर गलत मानसिकता रखने वाले लोगों से बचकर रहना ही श्रेयस्‍कर हे ..

    आपके द्वारा सुझाए गए उपाय अच्‍छे लगें ..
    एक नजर समग्र गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष पर भी डालें ..

    जवाब देंहटाएं
  30. aaj he apka post padha, and I agree with you. I was saying the same thing to my friend few days ago, Yaha US mein har roj chote chote kapde pehne huye ladkiya dikhti hai, to koi palat ke nahi dekhta, kyunki dekhne ke aadi ho jate hai, lekin India mein sab kuch dhaank chupa ke rakhte hai, jisse logon mein ek curiousity ho jati hai ki parde ke peeche kya hai, aur waise bhi I feel India mein men ki mansikta ek sex starved wali mentality hai, jo tabhi badlegi jab ladkiyon ko dhankne chupane wali cheej na samajhke, ek insan samjha jayega, ghar mein equality di jayegi , har umr ki aurat ko respect dena sikhaya jayega, school mein bhi sikhya jaye ki kaise behave kiya jata hai ladkiyon ke saath. Aur sabse uper, laws strong honge aur unper sakhti se amal hoga. lekin jahan political offfice mein baithne wale khuleaam porn dekh rahe hai, unse kya ummeed kar sakte hai ? Bahut mushkil hai yeh sab theek karna. aur ek addition isi comment mein, kyun naa hamare khali baithe bujurg aur youth students jisme ladkiyan aur gharelu mahilayein bhi include ki jaaye saath milke apne apne shehron mein aise group banaye, jo apne apne gali mohallon mein galat hoti baaton ki nigrani kare aur fir un logon ko baatcheet se hal kare yaa agar jaruri ho to police mein shikayat kare. Sab milkar kaam karenge tab shayad in ghatiya mentality ke logon ke dil mein dar baithega aur yeh sochenge koi bhi buri harkat karne se pehle. I was actually thinking that facebook should be put in use for creating such groups for each city and town and people should get together in every town to initiate this.

    जवाब देंहटाएं
  31. meri pichli badi see comment delete ho gayi, off.
    so I was thinking people in India, from each and every town and city specially youths, older people who have retired and housewifes get together and create groups for neighborhood watch, where they keep an eye in each of their neighborhood and as soon as they spot something wrong happening, they get together and take action, wether its talking to the people commiting it, or involving the police whichever is needed. Over here its called neighborhood watch. Is tarah se logon mein ek dar rahega aur kuch bhi karne se pehle wo das bar sochenge. Especially the young boys and men with dirty mentality. Market place ho to shopkeepers should keep a vigilent as well. The whole society needs to work together to get rid of this evil.

    जवाब देंहटाएं
  32. दुखद घटना है, जितनी भर्त्सना की जाये, कम है।

    जवाब देंहटाएं
  33. देर से आ पाया, छुट्टियां खत्म मतलब ब्लागिंग गति अवरोध, प्रारम्भ :)

    रश्मि जी ,
    बेहतर होता जो कमेन्ट करने वाले मित्र अपनी ओर से समस्या के निदान के उपाय सुझाते, जैसे व्यक्तिगत रूप से मैं कहूंगा कि आपका सुझाया सहशिक्षा वाला वक्तव्य ठीक तो है, वो लंबी रेस का घोड़ा है, पर आज के बिगड़े हुए हालात में सुधार के लिए लंबा इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिये इसलिये अभी उससे भी ज्यादा ज़रुरी है 'कठोर और त्वरित दंड वाली व्यवस्था'...खैर वक़्त की किल्लत है इसलिये दो बातें कह कर भागूंगा !

    (१)
    प्रतुल जी की कविता पढ़ते हुए ख्याल आया सो पूछ रहा हूं , क्या जानवर / पशु बलात्कार करते हैं ?

    मतलब ये कि मैंने उन्हें अपने पार्टनर (चाहे जो भी हो) की अनुनय विनय करते तथा सहमति की प्रतीक्षा करते देखा है इसलिये पूछ रहा हूं कि क्या उनका मैथुन, इंसानों के बलात्संग समान है ?

    (२)
    नये ज़माने में पुरानी संहिताओं का औचित्य ?

    अगर सारा समाज, इन संहिताओं का अनुगामी होता, उनका अक्षरशः पालन कर रहा होता, लड़कियों से छेड़छाड़ के इतर, जीवन के हर पक्ष में उनका मान रख रहा होता तो ये सवाल नहीं करता !

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    1. (२)
      नये ज़माने में पुरानी संहिताओं का औचित्य ?

      @ नये ज़माने में पुरानी विरासत को स्वीकारने का औचित्य.

      - चाहे वह विज्ञान द्वारा मिली सुविधाएं ही क्यों न हों?

      - चाहे वह समाज द्वारा मिली 'मान्यताएं' ही क्यों न हों? 'विवाह', 'गुरु-शिष्य परम्परा', 'संस्कार' आदि.

      क्या हम ६० का वर्ष हो जाने पर बचपन की स्मृतियों का त्याग कर पाते हैं? क्या बचपन के अनुभवों का लाभ हम बड़े होने पर नहीं लेते?

      "क्या बचकाना सवाल है??"

      हटाएं
    2. मतलब ये कि मैंने उन्हें अपने पार्टनर (चाहे जो भी हो) की अनुनय विनय करते तथा सहमति की प्रतीक्षा करते देखा है इसलिये पूछ रहा हूं कि क्या उनका मैथुन, इंसानों के बलात्संग समान है ?
      @ घरेलू पशुओं के बलात्कार की कोई सुनवाई नहीं.. आवारा पशुओं में ये सब 'सहमती' माना जाता है. और जंगली पशुओं में फिर भी 'जंगल का क़ानून' मान्य है.

      कम कहा अधिक समझें.... चर्चा काफी विषयांतर कर चुका हूँ, अब नहीं...

      हटाएं
    3. आपने जिन संहिताओं का ज़िक्र किया था उनमें विज्ञान भी शामिल था क्या ? संस्कार, विवाह वगैरह वगैरह तो मैं पढ़ाता ही हूं प्रतुल जी !

      फिलहाल आग्रह ये कि बचकाने सवाल का आपने जो भी उत्तर दिया, वो देखा उसके लिए धन्यवाद , अब विषयान्तर ना ही करिये :)

      हटाएं
    4. बड़ा ही अच्छा हो, अली जी..अगर त्वरित और कठोर दंड वाली व्यवस्था कायम हो...और ऐसी हरकतों की तुरंत कठोरतम सजा दी जाए ..पर अफ़सोस हमारे देश में ऐसा होता नहीं....जबतक विदेशियों के साथ कुछ ना घटा हो...और विदेशी दूतावासों का दबाव ना हो.

      इसलिए वही उपाय करने होंगे कि लड़के/पुरुष इस तरह की हरकतें करने की सोचें ही ना...ऐसे उपाय लम्बी रेस का घोडा ही सही...पर इफेक्टिव हों .

      हटाएं
    5. अफ़सोस हमारे देश में ऐसा होता नहीं……आपने सही कहा रश्मि जी, हमारे देश क्या समग्र विश्व में नहीं हो पाता। त्वरित और कठोर दंड वाली व्यवस्थाएं सैंकडों वर्षों से संसार में विद्यमान है, कहीं पर भी समूचा समाधान नहीं हो पाया उलट वे व्यवस्थाएं स्वयं असंगत, अन्याय, आतंक एवं हिंसा-प्रतिहिंसा में बदल गई।

      मानव को निरंतर सभ्य से और सभ्य, विकसित से और सुसंस्कृत बनाना ही सुखद परिणाम दे सकता है। इस लक्ष्य से ऐसे लम्बी रेस के घोडे, मंथर किन्तु इफेक्टिव और श्रेष्ठ उपाय हो सकते है।

      हटाएं
  34. व्यक्तिगत मेल पर मिली रचना जी की एक बात से सहमत हूँ....

    कि मैंने चर्चा को केवल 'पौशाक' तक सीमित कर दिया है और अनचाहे रूप से 'चर्चा' समाज में हुए दुष्कृत्य से ध्यान हटा रही है.

    @ इस संबंध में इतना ही कहूँगा... कि "मैं मुद्दे को हर दृष्टिकोण से सोच लेना चाहता हूँ. शायद इससे ठोस निष्कर्ष पर पहुँच पाऊँ."

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  35. @@ अब केवल उस मुद्दे पर कहता हूँ :

    १] मुझे क्यों 'सामूहिक बलात्कार' जैसी घटनाएँ झकझोरती नहीं ....

    - kyaa merii samvednaayen sookh gayii हैं?

    - yaa fir, electronik meediaa द्वारा darshaayii जाने waalii घटनाएँ atiyokti hotii हैं? kaii baar meediaa ही inhen praayojit करता है... मेरे paas ekaadhik udaaharan हैं :

    १] 'dahej kes का doshii banaakar baaraat vaapas bhejane waalii एक nirbheek yuvatii' ने san 2000 के आसपास kaafii surkhiyaan batorii thiin, यहाँ तक कि baad में use chunaav ladne तक का ofar milaa था. jabki asliyat ठीक ulat thii..'maan shaardaa' और uske putr को dahej maang के kes में kaaraawaas huii...aathviin kakshaa में paath रूप में use jagah भी मिली...jabkii hakiikat कुछ और thii. जो bataate हुए भी ( अलग से milane पर uske chaachaa तक को) sharam aa रही thii.

    2] 'ignoo में vaais chaanslar के khilaaf damdaar khabar banaane के लिये teevee chenal के kemaraamen ने bheed jutaayii और shaant khadii bheed को uksaate हुए kahaa कि "ऐसे nyooz नहीं bantii... kuch हो-hallaa karo, कुछ naarebaajii karo, pathraaw karo, कुछ vivaadaaspad bolo...tabhii tumhen kavrez milegii.... hamen क्यों bulaayaa है bekaar में यहाँ.. हम पर bahut kaam है.. हम yayaan shaant khadii bheed को filmaane नहीं aaye."

    3] lokal netaaon तक maannaa है कि 'votaron में apnii ahmiyat banaaye rakhne के लिये कुछ-na-कुछ करते rahnaa chaahiye'. jaise lootpaat, bijalii-paanii-sadak की samsyaa. तो samajh leejiye कि bade स्तर की raajneeti kyaa-kyaa naatak karwaatii है. mukhy muddon से bhatkaane के लिये haadase karwaanaa, samitiyon का gathan, tabaadale, istefe maangna aadi... ये smasyaa पर kaarrvaaii hotii है.



    *comment को vistaar ... baad में..

    जवाब देंहटाएं
  36. ये बहुत गंभीर समस्या है . इसको ख़त्म करने का कोई एक हल नहीं . सबसे ज्यादा प्रयत्न घर से होना चाहिए. लडको में इस जानवर कि पैठ कहाँ से शुरू होती है ? जन्म से तो कोई बालक जानवर के साथ ( महिलायों के प्रति विकृत मानसिकता ) लिए हुए पैदा नहीं होता . चलिए एक अपने ही जीवन कि घटना बताती हूँ. उस समय में कोई 10 th क्लास में रही हुंगी . मेरे पड़ोस में एक एक धनि परिवार रहता है . बरसों से जवारत jewelry कि शॉप है. स्टेट के कई मुख्य नगर में कारोबार हो ता है. उस वक़्त उनका बड़ा बेटा ३.५ - ४ साल का रहा होगा . उन्होंने उसके मुंडन अवं b'day पर भव्य पार्टी का आयोजन किया . पुराने पडोसी होने के नाते हम सब वहां गए . कार्यक्रम से विदा होने के समय मेरी माताजी उनकी पत्नी से बात कर रही थी . मैं अपनी छोटी बहन के साथ खड़ी थी . तभी उनके लड़के ने मुझे देखहुए गालियाँ बोलनी शुरू कर दी . ऐसी गालियाँ जो कम से कम उस वक़्त मैं उन शब्दों से परिचित नहीं थी . अब जानती हूँ कि ये गालियाँ Taxi Drivers देते हैं. जो कुछ समझ पाई वो भी कोई सुन्दर वचन तो थे नहीं. मैं अवाक् खड़ी उसे देखे जा रही थी. उसकी माँ यानि उन सज्जन कि पत्नी जिनसे मेरी माताजी बात कर रही थी चुप चाप खड़ी रहीं . पहले तो मरी माताजी इस इंतज़ार में थीं कि शायद ये अपने लड़के को टोके . पर वो ऐसे खड़ी थी जैसे ये सामान्य सी बात हो .फिर मेरी माताजी ने पहल करते हुए उसे समझाया . बेटा , ऐसा नहीं कहते , बहन है ये . बहेने तो बहुत काम आतीं हैं . इतना सुन कर वो लड़का शांत हो गया . ये घटना आज तक मैं भूल नहीं पाती. २ कारणों कि वजह से. पहला कारण ये ..कि उनकी पत्नी को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ .. कि मेरा ४ साल का बेटा किन जगहों पे जाता है जो ये अपशब्द सीख गया ! कोई जागरूक माँ इतनी लापरवाही तो नहीं बरतेगी . २ कारण आखिरी लाइन में लिखा है :-) .
    वो कोई १९९३ -९४ कि बात होगी . उस वक़्त तक omkara , Ganges of wassypur , Dirty picture जैसी फिल्मे रिलीज़ नहीं होती थी जो कि घर बैठे बच्चे ये सब सीख जाएँ . अब ये सोचने कि बात है वो लड़का जो ४ साल में दुनिया भर कि गालियाँ सीख गया , कॉलेज तक आते आते क्या ना देख / सीख चूका होगा ? कॉलेज के सामने जो लड़के फालतू खड़े रह के फब्तियां कसते रहते हैं .. सब अच्छे भले घरों से आते हैं . ८०% माँ बाप सब जानते हैं पर नज़र अंदाज़ कर जाते हैं.
    --------
    " I am proud of my mother . she has charismatic character "

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  37. बरसों पहले एक निबंध पढा था "नाखून क्यों बढते हैं?" नाखूनों का बढना पशुता की निशानी है। नाखून स्मरण दिलाते हैं कि मनुष्य पहले पशु था।

    गुवाहाटी में जो कुछ हुआ वह घोर निंदनीय है। ऐसे कृत्यों की सजा कठोर होनी चाहिए । समाज को भी ध्यान रखते हुए दुष्कर्मियों का सामाजिक बहिष्कार करना चाहिए। जब तक दंड का भय नहीं होगा, तब तक इस तरह की घटनाओं से रुबरु होना पड़ेगा।

    रश्मि जी, वर्तमान सामाजिक दूर्दशा पर आपका आलेख चिंतन करने को मजबूर करता है।

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  38. सभी चिंतक बंधु समस्या के निदान, उपाय, समाधान चिल्ला रहे है किन्तु कोई भी समाधान के विचारबीज भी प्रस्तुत नहीं कर रहा। सभी विचारों के खण्ड़न मण्ड़न में ही लगे है। इतने गम्भीर विषय पर समग्र दृष्टिकोण से विचार मंथन और विमर्श होना चाहिए।

    अन्यथा लोगों को हिंसक प्रतिशोध के अलावा कोई राह सुझाई नहीं देती। और अराजकता हो या हिंसा किसी भी सभ्य समाज में अच्छा निदान नहीं है।

    इन्हें जानवर कहना जानवरों का अपमान है, जानवर भी कामांध होकर समय-असमय यौन शोषण नहीं करते। अनुकूलता देखकर ही जोडा बनाते है और वंश विस्तार के लिए गर्भाधान की सम्भावना पर ही मैथुनरत होते है। वे विज्ञान की खोज को आधार बनाकर, सहज सामान्य कहकर, प्रकृति प्रदत्त आवेगों के नाम पर कामेच्छाओं का दुरपयोग नहीं करते।

    मानव में यह बिमारी अगर स्वछंदता की है तो उपाय भी अनुशासन में होना चाहिए। विशेषकर पुरूषों की मानसिकता में उछ्रंखलता सहज भोग्य है तो आत्मसंयम का महिमामण्डन और प्रसार ही उपाय हो सकता है।

    कुछ अन्य विचारों के साथ बादमें आता हूँ………

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    उत्तर
    1. अन्तिम पैरा को सुधार देता हूँ…………
      मानव में यह बिमारी जब स्वछंदता की है तो उपाय निश्चित ही अनुशासन में होना चाहिए। विशेषकर पुरूषों की मानसिकता में उछ्रंखलता सहज भोग्य है और लोक-लज्जा का भय कम। इसलिए आत्मसंयम का प्रारम्भ भी पुरूषों से होना चाहिए। चरित्र व आत्मनियंत्रण का महिमामण्डन और प्रसार व प्रधान्य एक उपाय हो सकता है।

      हटाएं
  39. 1- रश्मि जी द्वारा अनु्दित ‘सहशिक्षा’ निश्चित ही लोगों के सभ्य और सभ्यत्तर प्रगति में योगदान हो सकता है। मैं सहशिक्षा का पक्षधर हूँ। और यह हो भी रहा है, लेकिन यही वर्तमान स्थिति का समाधान नहीं इसके लाभ दूर भविष्य में है।

    2- माता पिता द्वारा घर में संस्कार। यहां कुछ अनुशासन अपेक्षित है। बडी मुश्किल यहाँ यह है कि संस्कारों के अनुशासन को स्वतंत्रतता में बाधक मान लिया जाता है। दूसरा भले माता-पिता अच्छी बाते बताए, मानना न मानना युवाओं के स्वतंत्र विचारशीलता में निहित होता है। इसीलिए माता-पिता द्वारा प्रस्तावित कुछ बंधनो को अनुभवजन्य ज्ञान मान कर स्वीकार्य मानना चाहिए। उस समय बाहरी चिंतको द्वारा भी उन्हें स्वतंत्रता की ढाल उपलब्ध नहीं करवानी चाहिए।

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    उत्तर
    1. सही कहा सुग्य जी,

      वर्तमान स्थिति में सह-शिक्षा समाधान नहीं...पर आखिर त्वरित समाधान है क्या?
      उन लड़कों को कठोर दंड दिए जाएँ...ऐसी इच्छा तो सबकी है..पर हमारे कानून में attempt to rape या molestation के लिए कठोर सजा का प्रावधान नहीं है. अगर फास्ट ट्रैक कोर्ट के तहत उन्हें सजा दी भी जाए तो क्या सजा मिलेगी? और उसके बाद भी हाइ-कोर्ट...सुप्रीम कोर्ट में अपील की गुंजाइश भी रखी गयी है. कानून में बदलाव लाने होंगे...कठोर क़ानून बनाने होंगे...फिर उनका कार्यान्वयन..यह भी एक बहुत लम्बी प्रक्रिया है.

      अनुशासन..संस्कार...आत्मनियंत्रण की बात आपने बिलकुल सही कही...पर यह तो हमेशा से हमारी संस्कृति का अंग रहा है...फिर हमसे कहाँ भूल हो गयी कि बच्चे इतने उछ्रंखल हो गए??

      और मैने सह-शिक्षा की बात सिर्फ इस गुवाहाटी प्रकरण पर ही नहीं कही है...छेड़छाड़ की मनोवृति पर कही है..जो हमारे पूरे देश में व्याप्त है...और सारी लडकियाँ इस से त्रस्त हैं.

      हटाएं
    2. @..पर यह तो हमेशा से हमारी संस्कृति का अंग रहा है...फिर हमसे कहाँ भूल हो गयी कि बच्चे इतने उछ्रंखल हो गए??

      बहुत ही भयंकर भूल हो गई रश्मि जी, अक्षम्य अपराध ही कहिए :( सर्वाधिक कुशल संस्कृति को हमनें किताबों बंद कर दिया, जटील मंत्र समझकर जाप तक सीमित कर दिया। प्रमादी बनकर सरलता के लिए कर्मकाण्ड उपजा लिए। संस्कार जीवन में उतारने की जगह अनुष्ठान निभाकर समझने लगे संस्कार परिपूर्ण हुए।

      इसप्रकार विस्मृत संस्कारी बनकर बाहर से आने वाली जंगली संस्कृति की ओर आकृषित होने लगे, उसके कायल बनकर अपनाने लगे क्योंकि वे संस्कार सहज भोग्य थे,रास आने लगे।

      किताबें विदेशी ले गए, समझे, श्रेष्ठ सभ्यता के संस्कार!! वे सभ्य बनने लगे। आदर, धैर्य, समता, अनुशासन, आत्म-नियंत्रण, अहिंसा सब कुछ इमानदारी से अपनाने लगे। हमें वे पुनः श्रेष्ठ, सदाचारी, स्वतंत्र, व्यवहारी, सुघड़ प्रतीत होने लगे। हमारी ही संस्कृति और ललचाई दृष्टि से उनकी तरफ ताकने को अभिशप्त!!

      और उनके कुदरती आवेगों के प्रति स्वतंत्रता वाली प्राचीन (जंगली) अवधारणाएं अपनाकर बच्चे उछ्रंखल हो गए।

      हटाएं
    3. @सभी चिंतक बंधु समस्या के निदान, उपाय, समाधान चिल्ला रहे है किन्तु कोई भी समाधान के विचारबीज भी प्रस्तुत नहीं कर रहा।
      ------
      मेरे उस घटना के उल्लेख करने का ये मकसद ये बताने का था कि पहली जिम्मेदारी माता पिता कि होती है . स्कूल बाद में आता है .बच्चे स्कूल के बाद कहाँ जा रहे हैं , उनको किस तरह का माहौल मिल रहा है इस पर parents को बहुत निगाह रखनी चाहिए.
      Precaution is better than cure . परहेज से बीमारी नहीं होती . अगर बीमारी हो गयी तो फिर उपचार करना ज़रूरी है .
      जैसा रश्मि जी और १, २ लोगों ने कहा co-education के बारे में ...ये एक तरह का Precaution है .
      मेरा कहना कि माता पिता को बच्चों पर निगाह रखना और समय समय पर सही दिशा देना ....ये भी Precaution में आता है.
      अब फिर भी लड़के छेड़खानी करते हुए दीखते हैं तो फिर इसका cure है कठोर & त्वरित सजा . ..
      इसके अलावा लड़कियों को self -defense education कि training school & colleges में देने का प्रावधान होना चाहिए .
      जो कि Precaution & cure दोनों है .

      शायद मेरी पिछली कमेन्ट में ठीक से बात प्रस्तुत ना हो सकी .

      हटाएं
    4. @
      आपकी पिछली टिप्पणी भी बहुत अच्छी थी....आपने उदाहरण सहित बताया था कि कैसे बचपन से ही माता-पिता अगर बच्चे के आचरण पर नज़र ना रखें तो उसके दुष्परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं...चार साल का बच्चा जो गालियाँ दे सकता है...वो युवावस्था में क्या क्या कर सकता है....इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है.
      पहली पाठशाला घर ही होती है और घर से मिले संस्कार हमेशा साथ रहने चाहियें .
      और सहमत हूँ..Precaution is always better than cure .
      great to know that u hv a wonderful Mom and she has instilled good values in u...convey my regards :)

      हटाएं
    5. @और मैने सह-शिक्षा की बात सिर्फ इस गुवाहाटी प्रकरण पर ही नहीं कही है...छेड़छाड़ की मनोवृति पर कही है..जो हमारे पूरे देश में व्याप्त है...और सारी लडकियाँ इस से त्रस्त हैं.
      मैं जानता हूँ रश्मि जी, आपके आलेख का अभिप्राय ही सर्वव्यापी छेड़छाड़ की मनोवृति और मानसिकता के स्थायी हल की तरफ है और ऐसे ही सर्वसाधारण सुझाव प्रस्तुत करने का प्रयास है।

      @माता पिता की जिम्मेदारी………

      4- माता-पिता द्वारा संस्कार देना भी बडा कठिन कार्य है, दुष्वार है। उनके लिए संस्कार पोषण दुधारी तलवार नहीं चौधारी तलवार है। इसके लिए माता-पिता पर असीमित दबाव होता है। विभिन्न संचार माध्यमों द्वारा ही हिंसा, आक्रोश, प्रताड़ना और अश्लीलता का अनवरत प्रवाह!! पास पडौस, मित्र व सम्बंधियों के प्रगतिशील कहलाते बच्चे!! सामाजिक बदलाव और अधैर्य और मनमौज को मिलता प्रोत्साहन!! सहज उपलब्ध अनुभवजन्य ज्ञान का निरादर, और उसी ज्ञान को जोखिम उठाकर अनुभव लेने की जिद!! तनाव में जीते मातापिता हर क्षण जागृत नहीं रह पाते।
      और उन बच्चों का क्या जिनको संस्कार देने के लिए संरक्षक ही नहीं होते अथवा इतने गहन समझदार नहीं होते या भयंकर दुष्परिणामों की कल्पना भी नहीं कर पाते?

      मात्र मातापिता यह दबाव नहीं उठा सकते, समस्त समाज को सभ्यता की चिंता करनी होगी, प्रत्येक युनिट को सहायक माहोल देना होगा कि माता पिता कर सके।

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    6. आपके विचार सराहनीय हैं...काश इस पर गंभीरता से चिंतन करें हर माता-पिता.
      ये टिप्पणियाँ तो अलग से एक पोस्ट बन सकती हैं.

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    7. आप सुधार सुझाते हुए अनुमति दें तो पोस्ट बनाकर अपने ब्लॉग सुज्ञ पर सजा दूँ :)

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    8. आपकी टिप्पणियाँ हैं...इसमें हमारी अनुमति की बात कहाँ से आ गयी........सारे कमेंट्स विचारपरक हैं..आप जरूर इसे पोस्ट का रूप दें.

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  40. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  41. 3- युवतियों के कपडे: निश्चित ही कम कपडे छेड-छाड का कारण नहीं है। मैं मानता हूँ कपडे लडकी को अपनी इच्छा और सुविधा के अनुसार ही पहनने चाहिए। लेकिन छोटे, कम या अंगदिखाउ कपडों का चुनाव अपनी बेटी क्यों कर रही है जान लेने में हर्ज ही क्या है? अभी अभी युवानी में कदम रखती लड्की जब शॉपिंग में छोटे व अंग-दिखाउ कपडे पसंद करने लगे तो माता पिता को अवश्य प्रश्न करना चाहिए कि ‘यह कपडे ही क्यों?’ तो जवाब में जो बात उभर कर आएगी कि उसे पहनने की अनुमति दी जाय या टाल दी जाय। जब लडकी कहे ‘यही आज फैशन है’, या ‘मेरी सभी मित्र ऐसे पहनती है इसलिए’ या ‘यह कपडे प्रभावशाली है’ तो माता पिता को चेत जाना चाहिए और बिना संस्कृति का भाषण पिलाए, उसे कुछ समय के लिए रोक लेना चाहिए, । कितु यदि वह आत्मविश्वास से कहे कि ‘ये कपडे मेरे लिए अधिक सुविधाजनक है’ तो थोडी सी सावधानियों की बात करते हुए अनुमति दे देनी चाहिए। क्योंकि पहली दशा में अवयस्क प्रदर्शन भाव है। जो समस्या खडी कर सकता है। समझदार लोग तो उन वस्त्रों को सहज परिधान के स्वरूप में लेते है किन्तु जो कुंठित है जिनकी जानवर संज्ञा से बात की जा रही है वे तो मूढ़ ही है न? वे इसे अंगप्रदर्शन या ‘इसे फर्क नहीं पडता’ के रूप में लेते पाए जाते है। जब तक ऐसे तत्व नहीं सुधरते, सावधानी तो रखनी ही पडेगी।

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  43. 4- युवा होते बच्चों को(विशेष युवक)उन 'रागरंगी विचारकों' के विचारों से दूर ही रखना चाहिए जो यह संदेश फैलाते है कि ‘आकर्षण सहज स्वाभाविक है’, ‘आवेग कुदरती है’ ‘इन्हें रोकना कुंठा को जन्म देता है।‘ ‘प्यार हो जाता है।‘ ‘कामभावना वैज्ञानिक सत्य है।‘ ‘खिंचाव अवश्यंभावी है।‘ यह सब बातें सत्य होते हुए भी त्वरित-युवा होते मन को आत्मनियंत्रण के प्रति शिथिल बना देती है। वस्तुतः उनमें यह धारणा स्थायी हो जाती है कि ‘इन आवेगों पर कोई जोर नहीं’ ‘ऐसी सभी की तीव्र इच्छा होगी’, ‘संयम को तोडना असामान्य नहीं है।‘ ‘चरित्र से च्युत होना कोई बड़ी बात नहीं’। जबकि आत्मसंयम का भाव इसी आयु-अवधी में प्रगाढ़ होना चाहिए। गम्भीर चिंतन का अभ्यास भी इसी उम्र से प्रारम्भ हो जाना चाहिए। जबकि उन संदेशों से होता उलट है सहजता की ओट में बेफिक्री पनपती है। स्वभाविकता के बहाने स्वछंदता पनपती है। यदि किसी युवा को कोई पसंद करने वाला ही ना मिले तो उसमें कुंठा की गांठ पड़ जाती है। वह समझता है जब प्रणयभाव इतना सहज, सामान्य, स्वभाविक है तो अभी तक उस पर मर मिटने वाला कोई क्यों नहीं आया? आकर्षण-विकर्षण जिज्ञासाएं पर स्वयं को परखने लगता है। पाने की महत्वाकांक्षा प्रबल हो उठती है। आखिर समग्र अस्तित्व जो दांव पर लग जाता है। अन्तत: ऐसा कर बैठते है जो कुदरती होते हुए भी नहीं होना चाहिए। इसीलिए आत्मसंयम अनिवार्य बन जाता है ऐसी दशा में आत्मसंयम में सफलता ही नहीं, आत्मसंयम में संघर्ष भी विपरितलिंगी के प्रति सम्मान भाव में वृद्धि कर देता है।

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  44. ह्म्म्म कमेंट्स में काफी कुछ कहा जा चुका है, अब सारे कमेंट्स पढने ही होंगे :)

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  45. हाँ गौरव....तुमने जो पहली टिप्पणी में कहा था.." समझ नहीं आया...' उसके जबाब में मैं यही कहने वाली थी कि पोस्ट और मेरी टिप्पणियाँ पढो..मैं क्या कहना चाह रही हूँ...ये समझ में आ जाएगा...उस से सहमत या असहमत होने का चुनाव तुम्हारा है.

    पर कम से कम तुमने ये कहा था.."समझ नहीं आया' दूसरे लोगों की तरह co-ed को Porn films, MMS scandal, Rave Partiess, Bar brawl से जोड़ कर नहीं देखा था

    (सॉरी कुछ व्यस्तताओं की वजह से देर से जबाब दे रही हूँ )

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  46. नारी पर अत्याचार पुराना है और उस पर शोर शराबा भी पुराने समय से होता आ रहा है. किस काल में नारी सुरक्षित रही है ? जो अब हो जायेगी.

    जिस लड़की पर पर बीती , उस पर बीत गयी. ब्लागर ऐसे कर्म करते नहीं हैं और जो करते हैं वे ब्लॉग पढ़ते ही नहीं. जिन्हें सुधारना है उन तक यह आवाज नहीं पहुँच रही है.
    अपने देस में यह सब चलता ही रहेगा और विदेश में नारी का शोषण दूसरे रूप में हो रहा है. वहाँ शादी की आस में ही 'लिव इन रिलेशन' में उमर कट जाती है और जिस खुशनसीब का ब्याह होता है तो उस के ब्याह में उस के बच्चे भी तालियाँ बजाते हैं. बाकी के बच्चे सड़क पर आवारा घूमते हैं.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सत्य गौतम जी,
      @ किस काल में नारी सुरक्षित रही है ? जो अब हो जायेगी.
      हाँ, तो इसका अर्थ है...कि नारी को सुरक्षित होना ही नहीं चाहिए. वो तो कभी सुरक्षित रह ही नहीं सकती.

      @पाबला जी,
      आपने भी सत्य गौतम जी के इस कथन का समर्थन किया है..तो आपकी भी यही राय होगी.

      हटाएं
    2. रश्मि जी, मैंने सम्पूर्ण, समग्र कथन पर अपनी प्रतिक्रिया दी है , किसी एक वाक्य पर नहीं

      हटाएं

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