नारी ब्लॉग पर एक लंबा विमर्श हुआ। रचना जी ने एक लड़के का पत्र प्रकाशित किया है, उसने पत्र में जो भी लिखा है उसकी मुख्य बातें यूँ हैं,
मै उसे अपने दोस्तों के बीच में नहीं ले जा पाता हूँ क्युकी मुझे उसके बोलचाल का तरीका पसंद नहीं आता हैं . वो साथ में बैठ कर ड्रिंक इत्यादि भी सही तरीके से कम्पनी के लिये भी नहीं ले पाती हैं ..
मुझे उस लड़की मे कोई रूचि नहीं हैं .
मेरे लिये जिन्दगी में क्या ऑप्शन अब हैं ?
क्या मुझे ना चाहते हुए भी इस रिश्ते की आजन्म ढोना होगा ??
लेकिन सबसे बड़ी बात कि ये बेमेल वाली स्थिति पैदा ही क्यूँ होने दी जाए?? लडकियां क्यूँ हीन रहें?? उन्हें भी लड़कों की तरह महानगर भेजकर पढ़ाया जाए , नौकरी करने के अवसर दिए जाएँ (आजकल हो भी रहा है ,पर बहुत ही कम प्रतिशत में ) फिर उन्हें भी कोई नीचा नहीं दिखा पायेगा . और न ही किसी को उनसे शिकायत होगी।
"मेरे माता-पिता ने तकरीबन 1 साल पहले मेरा विवाह उन्होने बलिया में रहने वाली एक लड़की से तय किया था, मेरी इच्छा नौकरी करने वाली और दिल्ली में रहने वाली लड़की से शादी करने की थी पर मै अपने पिता के आगे नहीं बोल पाया ,उस लड़की का मेंटल मेकप मेरी सोच से बिलकुल नहीं मिलता हैं . उसको खाना बनाना बिलकुल नहीं आता हैं .
मेरे कहने से उसने वेस्टर्न कपड़े पहनने शुरू करदिये हैं लेकिन उसकी बोल चाल मे कोई फरक नहीं हैं .मै उसे अपने दोस्तों के बीच में नहीं ले जा पाता हूँ क्युकी मुझे उसके बोलचाल का तरीका पसंद नहीं आता हैं . वो साथ में बैठ कर ड्रिंक इत्यादि भी सही तरीके से कम्पनी के लिये भी नहीं ले पाती हैं ..
मुझे उस लड़की मे कोई रूचि नहीं हैं .
मेरे लिये जिन्दगी में क्या ऑप्शन अब हैं ?
क्या मुझे ना चाहते हुए भी इस रिश्ते की आजन्म ढोना होगा ??
अब मेरे लिये क्या जिन्दगी मे सब रास्ते बंद हो गए जो मुझे जीवन साथी से ख़ुशी मिल सके .
आज कल मे सुबह 6 बजे घर से जाता हूँ , और शाम को 10 बजे के बाद आता हूँ
आज कल मे सुबह 6 बजे घर से जाता हूँ , और शाम को 10 बजे के बाद आता हूँ
उस लड़के को सबने अपनी अपनी समझ से सलाह दी . वहां सारे कमेन्ट पढ़े जा सकते हैं।
टिप्पणियों में यह भी कहा गया, ये आजकल की आम समस्या है क्यूंकि माता -पिता लड़कों को पढने के लिए तो महानगर में भेज देते हैं पर उनकी शादी छोटे शहर की अपनी पसंद की लड़की से कर देते हैं। जिनका मानसिक स्तर लड़के से कम होता है और उनकी आपस में नहीं निभती .
पर ये समस्या आजकल की नहीं है। कुछ दिनों पहले ही सतीश पंचम जी ने अपनी पोस्ट में श्रीलाल शुक्ल जी के उपन्यास 'अज्ञातवास' का जिक्र किया है .जिसमे उस उपन्यास का नायक हू ब हू इसी समस्या से ग्रस्त है .और ये किताब पचास साल पहले लिखी गयी है।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र एक विधुर रजनीकान्त है, जिसने कि अपनी पत्नी को इसलिये छोड़ रखा था कि वह गाँव की थी,रहने-बोलने का सलीका नहीं जानती थी। एक दिन जबरी अपने पति रजनीकान्त के घर आ डटी कि मुझे रहना है आपके साथ लेकिन रजनीकान्त ने डांट दिया। उसे साथ नहीं रखने की ठानी लेकिन एक दो दिन करके रहने दिया। रजनीकान्त बाहर जाता तो घर के दरवाजे, खिड़कियां बंद कर जाता कि कहीं बाहर निकली तो लोग इस गंवारन को देखेंगे तो क्या सोचेंगे। दो चार दिन तक ताला बंद करके जाने के बाद कहीं से कोई शिकायत नहीं सुनाई पड़ी तो मिस्टर रजनीकान्त बिना ताला लगाये ऑफिस जाने लगे। उधर क्लब मे इन्हें चिंता लगी रहती कि लोग उनकी पत्नी के बारे में सुनेंगे, उनके शादी-शुदा होने के बारे में सोचेंगे तो क्या सोचेंगे।
धीरे धीरे रजनीकान्त महाशय कुछ अंदर ही अंदर खिंचे खिंचे से रहने लगे। उधर लोगों को धीरे धीरे पता लगा कि इनकी श्रीमती जी आई हुई हैं। एक दिन उनका मित्र गंगाधर अपनी पत्नी को लेकर इनके यहां आ पहुंचा। मजबूरी में भीतर से पत्नी को बुलवाना पड़ा। ड्राईंग रूम में चारो जन बातें करने लगे। मित्र की पत्नी श्रीमती रजनीकान्त से गांव देहात की बातें पूछतीं, मकई,आम के बारे में चर्चा करतीं। सभी के बीच अच्छे सौहार्द्रपूर्ण माहौल में आपसी बातचीत चलती रही। श्रीमती रजनीकान्त भी सहज भाव से बातें करती रहीं लेकिन मिस्टर रजनीकान्त को लग रहा था जैसे उनके मित्र की पत्नी जान बूझकर उनकी पत्नी से गांव देहात की बातें पूछकर मजाक उड़ा रही है, खुद को श्रेष्ठ साबित कर रही है। उनकी नजर मित्र की पत्नी के कपड़ों पर पड़ी जो काफी शालीन और महंगे लग रहे थे जबकि अपनी पत्नी की साड़ी कुछ कमतर जान पड़ रही थी। जिस दौरान बातचीत चलती रही महाशय अंदर ही अंदर धंसते जा रहे थे कि उनकी पत्नी उतनी शहरी सलीकेदार नहीं है, गांव की है और ऐसी तमाम बातें जिनसे उन्हें शर्मिंदगी महसूस हो खुद ब खुद उनके दिमाग में आती जा रही थीं।"
पचास साल पहले एक पुरुष के मन में अपनी गाँव की पत्नी को लेकर ये हीन भावनाएं थीं। उसे अपनी पत्नी बिलकुल पसंद नहीं थी लेकिन फिर भी वह उस से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से बाज नहीं आया।
उस उपन्यास में आगे लिखा है," उसके कुछ दिनों बाद एक रात शराब के नशे में अपनी पत्नी से जबरदस्ती कर बैठे। पत्नी लाख मना करती रही कि आपको उल्टी हो रही है, आप मुझसे दूर दूर रहते हैं फिर क्यों छूना चाहते हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद पत्नी को शराब के नशे में धुत्त होकर प्रताड़ित किया। अगले दिन रजनीकान्त महाशय की पत्नी ने घर छोड़ दिया और जाकर मायके रहने लगी।
यह उपन्यास 1959-60 के दौरान लिखा गया है . और कहानी -उपन्यास में वही सब आता है, जो उस समय समाज में घट रहा होता है।
आज 2013 में उस लड़के के पत्र में भी यह जिक्र है , " हम पूरे एक साल में भी कभी एक साथ अकेले कहीं घुमने नहीं गए क्युकी मेरी इच्छा ही नहीं होती उसके साथ कहीं भी जाने की { हनीमून पर हम बस 1 हफ्ते के लिये गए थे }"
यहाँ भी इस लड़के को अपनी पत्नी सख्त नापसंद है, पर उसके साथ हनीमून जरूर मना आया। इसमें उस लड़की का गंवारपन आड़े नहीं आया .
उपन्यास में आगे लिखा है , " उधर रजनीकान्त एक अन्य शहरी महिला की ओर आकर्षित हुए जोकि अपने पति को छोड़ चुकी थी। दोस्तों के बीच शराबखोरी चलती रही। इनके दोस्तों में एक फिलासफर, एक डॉक्टर, एक अभियंता। सबकी गोलबंदी। इसी बीच खबर आई कि उस रोज छीना-झपटी और नशे की हालत में हुए सम्बन्ध से पत्नी गर्भवती हो गई है। बाद में पता चला कि एक लड़की हुई है। दिन बीतते गये और एक रोज खबर आई कि पत्नी की तबियत बहुत खराब है। श्रीमान रजनीकान्त किसी तरह अपने उस पत्नी को देखने पहुंचे लेकिन पत्नी बच नहीं पाई। उसका निधन हो गया। अब रजनीकान्त को भीतर ही भीतर यह बात डंसने लगी कि उन्होंने उसकी कदर नहीं की। दूसरा विवाह नहीं किया।
आज के युग में भी इस तरह पत्नी को तिरस्कृत करने वालों का यही हाल न हो। पत्नी या तो दुनिया से चली जाती है या आजीवन दुखी रहती है। पर पति भी कोई सुखी नहीं रह पाता
ये बेमेल विवाह शायद हमेशा से होते आये हैं। लड़के अपनी पसंद की पत्नी तो चाहते हैं, पर माता -पिता के सामने खुल कर बोल नहीं पाते। ये आदर्श बेटे की इमेज बनाये रखना उन्हें महंगा पड़ता है और उनमें इतना धैर्य और संयम भी नहीं होता, कि गाँव से या छोटे शहर से आयी लड़की को थोडा प्यार से नए तौर-तरीके सिखाएं और अपना आगामी जीवन सुन्दर बनाएं .
और ऐसा नहीं है कि लड़कियों को भी हमेशा मनचाहा पति ही मिल जाता है, पर वे मुहं नहीं खोलतीं। और ख़ुशी ख़ुशी एडजस्ट करने की कोशिश करती हैं .
अंशुमाला ने अपनी टिपण्णी में जिक्र किया है, " व्यापारिक घरानों में अधिकांशतः लडकियां बहुत ज्यादा शिक्षित होती हैं। लड़के अक्सर अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर दूकान संभालने लगते हैं। ऐसी अनेक शादियाँ होती हैं, जहाँ पत्नी ,पति से ज्यादा शिक्षित होती है। फिर भी वह सामंजस्य स्थापित कर लेती है। "
वैसे अपवाद दोनों ही स्थितियों में होते हैं .
पर ये बेमेल विवाह तभी रुकेंगे। जब माता-पिता अपनी मर्जी लड़के/लड़कियों के ऊपर नहीं थोपेंगे। लड़के भी संकोच छोड़कर अपनी पसंद की जीवनसंगिनी चुनने में सहयोग करेंगे .
लडकियां आत्मनिर्भर होंगी तो 'दहेज़ के लिए 'ना' भी कह सकेंगी। वरना अधिक दहेज़ देकर भी अपनी कमतर बेटियों के लिए सुयोग्य वर ढूंढें जाते हैं। पर तब लड़कों को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए . लेकिन वे शिकायत तब भी करते हैं, जैसा उस लड़के ने अपने पत्र में यह भी लिखा है, " शादी पूरे रीति रिवाजो से हुई थी , यानी दान दहेज़ के साथ . लेकिन वो दान दहेज़ तो सब मेरे अभिभावक के पास हैं और मेरी पत्नी जिस से मेरा सामंजस्य कभी नहीं हो सकता मेरे पास हैं .
वैसे , इसके लिए तो दोषी वही है। पर दहेज़ क्या ज़िन्दगी भर काम आती है ?? शादी का नाम ही सामंजस्य है। चाहे दो लोगो ने एक जैसी पढाई की हो, एक से वातावरण में पले हों। एक सी आर्थिक स्थिति हो, फिर भी दोनों के स्वभाव और रुचियाँ अलग होती है . सुख भोगने की कल्पनाएँ और दुःख सहने की क्षमता अलग होती है। इसलिए आपसी सामंजस्य के बिना कोई भी शादी नहीं निभती .
अदा ने उस लड़के को उचित सलाह दी है ,
"शादी ही क्यूँ दुनिया का हर रिश्ता समझौता ही होता है, जब तुम अपने माँ-बाप से समझौता कर सकते हो, तो फिर अपनी पत्नी से क्यूँ नहीं। "