{ धोबी-घाट फिल्म के ऊपर कई पोस्ट लिखी जा चुकी है....पर जब से यह फिल्म देखी है...इस पर कुछ लिखने से खुद को नहीं रोक पायी...अब जिन्होंने ये फिल्म अब तक नहीं देखी और देखने का इरादा रखते हों ...वे इस पेज के के राइट टॉप कॉर्नर में बने क्रॉस पर क्लिक कर लें :)}
अरुण (आमिर खान) एक पेंटर है. हर कलाकार की तरह परले दर्जे का मूडी. अपनी दुनिया में डूबा हुआ.....ना किसी का अंदर आना पसंद ना खुद इस से बाहर निकलना चाहता है. और ऐसा लगता नहीं कि वो कुछ मिस कर रहा हो......अकेलेपन की मजबूरी कई लोगो की होती है...पर सब उसे एन्जॉय नहीं करते. पर अरुण अपने अकेलेपन..अपनी उदासी...को शिद्दत से जीता है.....बिना किसी शिकयत के. {अरुण के पास तो इस उदासी की एक वजह है...उसका डिवोर्स हो चुका है.परन्तु कई युवा भी इस मनस्थिति को एन्जॉय करते हैं. एक ख़याल आता है...कहीं यह उनका ओढा हुआ अवसाद तो नहीं...और वे उसे सच मान बैठते हैं...पर यह सिर्फ ख़याल ही है :)}
अरुण , एक बार अपनी ही पेंटिंग की प्रदर्शनी में जाता है और वहाँ उसकी मुलाक़ात अमरीका से आई हुई शाय(मोनिका डोंगरा) से होती है. जो एक इन्वेस्टमेंट बैंक में काम करती है...पर भारत को करीब से देखने और असली भारत की तस्वीरें लेने के लिए आई हुई है. कुछ शराब का सुरूर...इतने दिनों से किसी वार्तालाप से महरूम किसी लड़की की नजदीकियां....अरुण के मन की परतें खुलती जाती हैं और घर पर म्युज़िक...पेंटिंग्स..अलबम...ढे
लेकिन, सुबह अरुण अपनी दुनिया में लौट चुका हैं...वैसे ही अपनेआप में गुम. जबकि शाय पर रात का सुरूर तारी है..मुस्कान उसके चेहरे से मिटती नहीं. लेकिन अरुण आँखे मिलाने को भी तैयार नहीं...बड़े अजनबीपन से उसे चाय के लिए पूछता है ...और जब शाय को सॉरी बोलता है ...तो वह नाराज़ हो जाती है...कि अरुण को अपने मन का यूँ खोल कर रखने का ....वे ख़ूबसूरत पल बिताने का ....इन सबका अफ़सोस है..और वह वहाँ से चली जाती है.
.शाय की मुलाकात एक धोबी, मुन्ना(प्रतीक बब्बर) से होती है. मुन्ना का चरित्र बिहार ,यू.पी से आए हज़ारो युवको का प्रतिनिधित्व करता है...मुन्ना, कवियों -लेखकों की तरह गाँव को याद कर उदास नहीं होता क्यूंकि उसे गाँव के साथ ही याद आता है कि वहाँ भूख बहुत लगती थी और खाना नहीं मिलता था...आठ साल की उम्र में मुंबई आया और यहाँ के एक होटल में पेटभर कर खाना और मार दोनों खाया. फिर धोबी का काम करने लगा. अमेरिका से आई शाय, भेदभाव नहीं जानती..मुन्ना को भी अपने साथ की कुर्सी पर बिठा चाय का ऑफर कर देती है. पर उसकी बाई उसके लिए तो महंगे कप में पर मुन्ना के लिए एक ग्लास में चाय लेकर आती है...शाय पहले तो चेहरे के भाव से नाराज़गी प्रकट करती है..फिर वो ग्लास अपने लिए उठा लेती है..यही सब दृश्य हैं जो किरण राव के निर्देशन की बारीकियों की तारीफ़ करने को मजबूर कर देते हैं. मुन्ना शाय का कैमरा देखकर अपना एक पोर्टफोलियो तैयार करने का आग्रह करता है...फिल्म में इस बिंदु को भी छुआ है कि कैसे छोटे शहर वालों के मन में खुद को एक बार परदे पर देखने का सपना पलता रहता है. शाय कहती है..इसके बदले उसे ,धोबी घाट लेकर जाना पड़ेगा ..और वो वहाँ की तस्वीरें लेगी.
मुन्ना अपने छोटे से कमरे में एक्सरसाइज़ कर अपनी बॉडी बनाता है और मॉडल की तरह अलग-अलग पोज़ में तस्वीरें खिंचवाता है. शाय अपनी हंसी रोकते हुए उसकी तस्वीरें लेती हैं..पर असली खूबसूरती उन तस्वीरों में है जो वह उसके कपड़े..धोते...फैलाते..तह करते और ...और इस्त्री करते हुए लेती है. पानी की उड़ती बूंदें और सफ़ेद झक्क कमीज़ के बीच ली मुन्ना की वे तस्वीरें mesmerizing हैं. शाय मुन्ना के साथ..सब्जी मंडी..मच्छी बाज़ार...झुग्गी-झोपडी..हर जगह जाती है. और ये सारी शूटिंग रियल लोकेशन पर की गयी हैं...जहाँ के सारे लोग कोई एक्टर नहीं असली लोग हैं. शाय का यूँ खुलकर बातें करना, उसके साथ बेझिझक घूमना, मुन्ना को उसके प्रति आकृष्ट करता है.
पर शाय अरुण को नहीं भूल पाती....क्यूंकि उसे विश्वास नहीं होता...एक रात मन और तन से इतना करीब आ गया व्यक्ति ..सुबह होते ही अजनबी कैसे बन जा सकता है.वह किसी ना किसी बहाने उसे दूर से देखती रहती है और एक बार अरुण अचानक से सामने आ कर उसे अपने घर पर चाय की दावत देता है.....और अपने उस दिन के व्यवहार के लिए सॉरी भी बोलता है..तभी...मुन्ना कपड़े देने आता है. शाय को आमिर के साथ यूँ घुलमिलकर बातें करते देख उसे जलन होती है...और वह भाग जाता है....शाय को अपने प्रति मुन्ना की भावनाओं का अहसास है...वह उसके पीछे जाकर उसे मनाने की कोशिश करती है.
इस फिल्म के सबसे ज्यादा डायलॉग 'यास्मीन' (कीर्ति मल्होत्रा) के हिस्से आए हैं. अरुण जब इस घर में शिफ्ट होता है तो उसे एक छोटे से बक्से में कुछ तस्वीरें और वीडियो कैसेट मिलते हैं. जो इस घर में उससे पहले रहनेवाली यास्मीन के हैं. यास्मीन मुंबई से जुड़े अपने सारे अनुभव इन कैसेट्स में अपने भाई को भेजने के लिए रिकॉर्ड करती रहती है. यास्मीन आँखों में हज़ारो सपने लिए यू.पी.के एक छोटे से कस्बे से मुंबई आती है. शुरू में उसकी आवाज़ बहुत चहक भरी होती है...मैरीन ड्राइव...गेट वे...लोकल ट्रेन सबके बारे में उत्साह से अपने भाई को बताती है.... धीरे -धीरे अपने जीवन की एकरसता से उसकी आवाज़ पर उदासी की परत चढ़ती जाती है...और वो सवाल करती है..."शादी को इतना जरूरी क्यूँ समझा जाता है"
यास्मीन पर अपने शौहर की बेरुखी का राज़ ज़ाहिर हो जाता है. कई बार बरसो से मुंबई में रहनेवाले यहाँ शादी भी कर लेते हैं और फिर माता-पिता के दबाव में अपनी जातिवाली से उनकी पसंद की लड़की भी ब्याह लाते हैं.यास्मीन आखिरी रेकॉर्डिंग करती है...और अपने भाई से कहती है.."मैने बहुत कोशिश की,पर अब हार गयी हूँ....अम्मी-अब्बू को संभालना और कहना मुझे माफ़ कर दें."
स्क्रीन ब्लैंक हो जाता है और आमिर की नज़र...छत की कुण्डी से लटकते तार पर जाती है...
हिन्दू- मुस्लिम एकता......गैंगवार...ड्रग्स का धंधा, अधेड़ अमीर औरतों के शगल जिगोलो...रात में चूहे मारते rat killers....रेलवे ट्रैक के पास बसी बस्तियां...इन सबका, जो मुंबई के अहम् अंग हैं...फिल्म में ,हल्का सा रेफरेंस है. मुन्ना अपने जिगरी दोस्त सलीम के परिवार को ही अपना परिवार मानता है..सलीम काला धंधा करता है..और उस विवाद में ही दूसरे गैंग के लोग उसकी हत्या कर देते हैं और पुलिस के भय से सलीम के परिवार को दूर किसी फ़्लैट में शिफ्ट कर देते हैं.
मुन्ना और आमिर दोनों ने घर बदल लिया है...शाय दोनों को ढूंढती रहती है और एक दिन उसे मुन्ना मिलता है जो सारी हकीकत बताता है. वो शाय से कहता है..कि :लगता है तुम्हे अरुण से प्यार हो गया है.." शाय उस से संपर्क में रहने का वादा ले...विदा लेती है. और उसकी कार आँखों से ओझल होने के बाद, मुन्ना को जैसे होश आता है..वो ट्रैफिक में किसी तरह दौड़ते हुए उसकी कार के समीप पहुँच खिड़की नीचे करने को कहता है......दर्शक समझते हैं...शायद अब वो..अपने प्यार का इज़हार कर देगा..लेकिन नहीं...वो शाय को आमिर के नए घर का पता दे देता है. इसके बाद का शॉट बेहतरीन है...मुन्ना के झुके कंधे आत्मविश्वास से चौड़े हो जाते हैं. और चेहरे पर एक आत्मसंतोष से भरी कॉन्फिडेंट स्माइल होती है और चाल में लापरवाही. कुछ सार्थक करने के अहसास से लबरेज़.
सभी कलाकारों ने जैसे अभिनय ना करके उन पात्रों को जिया है .किरण राव के बेहतरीन निर्देशन को कॉम्प्लीमेंट किया है. सुन्दर फिल्मांकन ने. मुंबई की मूसलाधार बारिश को खूबसूरती से कैप्चर करते हुए..मुन्ना की टपकती छत और उसी बारिश में भीगते हुए उसके छत पर प्लास्टिक बिछाने के दृश्य किसी फिल्म के नहीं...सच्चे से लगते हैं.
agtaa hai dekhnee padegee ab to
जवाब देंहटाएंरश्मि जी ..
जवाब देंहटाएंआमिर खान कि कोई मूवी मैं छोडती नहीं ...आपका निर्देश मान इस पोस्ट के राईट कॉर्नर के क्रॉस को क्लिक करने से पहले अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना आवश्यक समझा :) :) .... आपकी शुरू की पंक्तियों ने इस मूवी को देखने की लालसा बहुत बढ़ा दी है... मूवी देखने के बाद वापस आउंगी पोस्ट पर ...आपकी समीक्षा को अपने नजरिये से विश्लेषण करने के लिए ..तब तक के लिए विदा ..शुभकामनाएं
पता नहीं क्यों 'धोबी घाट' इम्प्रेस नहीं कर पायी... अधूरी सी फिल्म है... कई कहानी को लेकर चली फिल्म कहीं नहीं पहुँचती है.. शायद बहुत गूढ़ रूप से कही गयी है सब बातें... मेरा तो मानना है कि यदि किरण जी की ये फिल्म नहीं होती तो आमिर इसे नहीं करते... ठीक कह रही हैं आप... एबस्ट्रेक्ट कविता की तरह फिल्म है.. दिमाग लगाना पड़ेगा.. देखी है इस लिए कह रहा हू...
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया समीक्षा.
जवाब देंहटाएंलगता है फिल्म देखनी ही पड़ेगी.
बिल्कुल सही लफ़्ज़ इस्तेमाल किये हैं आपने,रश्मि जी। वाकई ये फ़िल्म पर्दे पर लिखी एक नज़्म सी ही है। बहुत सादे से लहज़े में बहुत कुछ कहा (या कहूँ उस से भी ज्यादा अनकहा सा) छोड़ती है फ़िल्म जिसका प्रभाव बहुत देर तक रहता है जेहन में।
जवाब देंहटाएंएक बेहद उम्दा फ़िल्म और बेहतरीन निर्देशन से सजी फ़िल्म को आपके अन्दाज़-ए-बयाँ ने और दिलकश बना दिया है। बहुत शुक्रिया।
बिल्कुल सही लफ़्ज़ इस्तेमाल किये हैं आपने,रश्मि जी। वाकई ये फ़िल्म पर्दे पर लिखी एक नज़्म सी ही है। बहुत सादे से लहज़े में बहुत कुछ कहा (या कहूँ उस से भी ज्यादा अनकहा सा) छोड़ती है फ़िल्म जिसका प्रभाव बहुत देर तक रहता है जेहन में।
जवाब देंहटाएंएक बेहद उम्दा फ़िल्म और बेहतरीन निर्देशन से सजी फ़िल्म को आपके अन्दाज़-ए-बयाँ ने और दिलकश बना दिया है। बहुत शुक्रिया।
अरुण जी से पहले बतिया लें ...
जवाब देंहटाएंऐसे ही समीक्षक ने नहीं कहा कि यह कविता है।
कवि लोग गूढ रूप से ही तो सीधी सी बात को रखते हैं।
और आप जैसे कवि से बेहतर इस बात को कौन समझ सकता है।
मैं तो दो-तीन बार पढ गया।
जवाब देंहटाएंसीनेमा देखने का मज़ा आ गया। कहानी भी समझ गया।
बहुत अच्छी, रोचक और सरस समीक्षा।
मैंने तो फिल्म देखी नहीं पढ़ ली है ब्लॉग पर | सभी अपना नजरिया बता रहे है ये तो फिल्म देखने ( पढ़ने ) का एक अलग ही मजा हो गया | संजय लीला भंसाली भी अपनी फिल्मे पेंटिंग की तरह और सुभाष घई अपनी फिल्मे कविता की तरह बनते है पर अब आम लोगों को ये पुरानी कविता और आधुनिक पेंटिंग समझ नहीं आती है |
जवाब देंहटाएंयह फिल्म जबसे देखी है दिमाग में चल ही रही है और खत्म होने का नाम ही नहीं लेती ।
जवाब देंहटाएंअजी हमारे यहां यह धोबी घाट नही मिलता, बस बाशिंग मशीन मिलती हे इस लिये यह फ़िल्म केंसिल, आप ने बहुत सुंदर ढंग से ओर विस्तार से इस की स्टोरी बताई, अच्छी लगी, लेकिन देखने के लायक नही, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंदो बातें पढने के बाद मैं फिल्म देखने नहीं गया. पहला किरण राव का बयान जिसके बाद किसी ने ट्विट किया 'तीर चलाओ और जहाँ लगे वहां घेरा बनाकर कह दो कि ये मेरा टार्गेट था !'
जवाब देंहटाएंदूसरा मेरे दोस्त ने कहा 'ये फिल्म उन्हें ही अच्छी लग रही है जिन्हें कम्प्लेक्स है और वो ये नहीं मान सकते कि ऐसी आर्ट फिल्में वो अप्रेसियेट नहीं कर सकते.'
अब इसके बाद मुझे लगा कि मैं समझ नहीं पाऊं शायद :)
वास्तविक जीवन में ऐसी दसियों कहानी एक साथ चलती हैं। सुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएं@अभिषेक...
जवाब देंहटाएंइसी आशय का कमेन्ट पढ़ा था,आपका कहीं...तब भी नहीं पता था....कि किरण राव का एक्चुअली बयान था, क्या क्यूंकि उनके कई इंटरव्यूज़ देखें..पता नहीं किसकी बात हो रही हैं..
और विश्वास कीजिए...ऐसा बिलकुल नहीं है....फिल्म सचमुच अच्छी लगी...कोई फॉर्मूला फिल्म नहीं है...बहुत कुछ आपके इमैजिनेशन पर छोड़ दिया गया है...आप खुद देख कर डिसाइड कीजिए.
कोई सफाई नहीं है..पर ऐसा होता तो 'अनुरणन' या मीनाक्षी भी उतनी ही अच्छी लगती.
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जवाब देंहटाएंइसकी पूरी कहानी सुनी थी , अब तुम्हारे शब्दों के माध्यम से देख भी ली ...
जवाब देंहटाएंहम फ़िल्में कम देखने वालों के लिए समीक्षाएं उपयोगी होती हैं !
अभी फिल्म देखने का इरादा तो किया नहीं था, इसलिए यहां फिल्म की बातें (बिना दाएं-बाएं) पढ़ ली. फिल्म की पृष्ठभूमि में मायानगरी महानगर मुंबई है, लेकिन अपने परिवेश से अलग जिंदगी के जद्दोजहद (स्थान कोई भी हो) में हर व्यक्तित्व के ऐसे पहलू खुलते हैं, जिनका अनुमान करना मुश्किल होता है.
जवाब देंहटाएंआपने तो पूरी कथा ही बान्च दी :) सबके बस का नहीं -प्रोफेसनल समीक्षक के वश का ही !
जवाब देंहटाएंआमिर की फिल्म है तो नायाब तो होगी ही। कब देखने को मिलेगी यह पता नहीं।
जवाब देंहटाएंहमने तो देखी नही बस तुम ही दिखा देती हो यहाँ………इतना ही काफ़ीहै…………सही है तुम अलग नज़रिये से फ़िल्म देखती हो तभी इतनी सुन्दर समीक्षा कर पाती हो।
जवाब देंहटाएं@अरुण जी,
जवाब देंहटाएंजैसा कि मैने पढ़ा है....किरण राव 'आमिर' को इस फिल्म में लेने को तैयार नहीं थीं...उनकी स्टार स्टेटस की वजह से....उन्हें लगता था...फिल्म के कथानक,निर्देशन से हटकर सारा ध्यान 'आमिर के अभिनय' पर केन्द्रित हो जाएगा...आमिर को काफी कन्विंस करना पड़ा उन्हें....इस फिल्म के रोल के लिए में.....यह बात फिल्म के बाकी सहकलाकारों ने कही है. इसलिए पब्लिसिटी स्टंट नहीं कह सकते.
पर आमिर ने एक कन्फ्यूज़ से व्यक्ति की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है. जो खुद तो...अकेला रहना चाहता है..पर ज़िन्दगी से भरपूर,'यास्मीन' की ज़िन्दगी से जुड़ जाता है...यहाँ तक कि उसे अपना म्यूज बना कर पेंटिंग की नई सिरीज़ शुरू कर देता है...उसके दुख में दुखी...और उसकी ख़ुशी में मुस्कुरा पड़ता है...क्या पता शायद.... अकेलापन पसंद करनेवालों का सच यही होता हो ..
dekhna hi padega. tabiyat thik hote hi dekhi jayegi ye movie, shukriya
जवाब देंहटाएं@अंशु जी,
जवाब देंहटाएंबात आम और ख़ास की नहीं है....किसी फिल्म से लोगो को निराशा इसलिए होती है कि वे कोई अपेक्षा लेकर जाते हैं....और वह फिल्म उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती. विशुद्ध मनोरंजन के लिए कोई यह फिल्म देखेगा..तो जरूर निराशा होगी.
@अमितेश जी,
जवाब देंहटाएंशायद आप मेरे ब्लॉग पर पहली बार आए हैं...और फिल्मो से सम्बंधित मेरी पहली पोस्ट पढ़ी है....मैं ऐसे ही लिखती हूँ..चाहे वो फिल्म 'मोनालिसा स्माइल' हो...'एरिन ब्रोकोविच' या फिर 'टर्निंग थर्टी'....पूरी फिल्म में कहाँ, क्या अच्छा/बुरा लगा...कहानी आ ही जाती है :)
डिस्क्लेमर डाल ही देती हूँ...अब अपनी अपनी मर्जी है,पढने की
आमिर का चरित्र मुझे ऐसा ही लगा...आपको दूसरा लगा हो..नज़र-नज़र की बात है.
और सही कहा...काले धंधा नहीं काला धंधा..Thanx for the correction..am grateful :)
@अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंसबके बस का नहीं -प्रोफेसनल समीक्षक के वश का ही !
समीक्षा??...वो भी प्रोफेशनल??...ये समीक्षा नहीं है...बस मुझे फिल्म कैसी लगी...कहाँ...क्या अच्छा..क्या बुरा लगा...किस बात से क्या याद आया...बस यही सब लिखती हूँ.
कहानी के विषय में तो आप पहले भी ऐतराज़ जता चुके हैं....पर मेरा ब्लॉग...मेरी मर्ज़ी :):)
और इस कब्रिस्तान में कैसे आ गए आप....हमलोग तो अब मृतक हैं...हमारा तो तर्पण भी हो चुका...:):)
रश्मि जी फिल्मे कम देखता हूँ कम समझता भी हूँ... हो सकता है कि इसलिए फिल्म कम समझ आई हो.... लेकिन आमिर से लगान, मंगल पाण्डेय, पीपली लाइव आदि के बाद जैसी अपेक्षा थी, फिल्म वैसी नहीं थी... आमिर एक रचनाकार होने के कारण चरित्र में जो संवेदनशीलता होनी चाहिए थी वह नहीं है या जटिल संवेदनशीलता है या छद्म संवेदनशीलता है... वह टेप में छिपी चिट्ठी को अपना विषय बना लेते हैं लेकिन उस से जुड़ते नहीं है.. यह असंवेदनशीलता है चरित्र का.. वरना डर कर मकान बदलने की बजाय यास्मीन की आत्महत्या की बात कम से कम उसके भाई इमरान तक पहुचाते... या कोशिश भर करते... यह उनके तलाक लेने/पाने का प्रायश्चित होता... .. यह कहानी की त्रुटी है.. यह फिल्म उच्चमध्य वर्ग के लिए है जिसके लिए गरीबी एक विषय है.... मनोरंजन है... फिल्म का शीर्षक धोबी-घाट केवल भीड़ थियेटर तक खींचने के लिए है..
जवाब देंहटाएं@अरुण जी,
जवाब देंहटाएंफिल्म ना समझ पाने जैसी बात नहीं है...सबका अपना दृष्टिकोण...अपनी पसंद होती है.
बस एक बात का उल्लेख करना चाहती हूँ...'आमिर यास्मीन के बारे में पता लगाने की कोशिश करते हैं...वे वाचमैन से पूछताछ करते हैं...यास्मीन की कामवाली बाई 'लता' के बारे में भी पता लगाने को कहते हैं कि शायद उस से कुछ सुराग मिल सके.वे वाचमैन को पैसे भी देते हैं.'
मैं उस कैरेक्टर को डिफेंड नहीं कर रही...पर हर तरह के लोग हैं दुनिया में... ढेर सारी खामियों और अच्छाइयों के साथ.
थोड़ी पेचीदा होते हुए भी ईमानदारी भरी थी !
जवाब देंहटाएंdekh nahi paayi hun, ab dekhni hogi
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और उत्सुकता जगाने वाली समीक्षा है रश्मि जी ! आमिर खान बेहतरीन अभिनेता हैं इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकतीं ! यह फिल्म भी ज़रूर देखनी है यह तो पहले से ही तय था, आपकी समीक्षा ने अधीरता में इजाफा कर दिया है ! साभार !
जवाब देंहटाएंअब आपने इतनी तारीफ़ की है तो देख लेंगे धोबी घाट भी :)
जवाब देंहटाएंaap ne to meri utsukta is film ke prati bada di hai. main ise dekhana to chahta tk tha lekin itna exited nahi tha. thanks
जवाब देंहटाएंरश्मिजी
जवाब देंहटाएंअभी देख नहीं पाई हूँ पर हाँ ,आपकी पोस्ट पढ़कर देखने की उत्सकुता जग उठी है |
वैसे एक बात जरुर है अगर फिल्म नहीं भी देख पाते तो आपके जरिये बहुत अच्छी तरह से देख पाते है कही कोई बात होती है तो फिल्म की ,तो हाँ में हाँ मिला ही देते है क्योकि जेहन में अच्छी तरह बस जाती है कहानी ,निर्देशन अदाकारी |
मैं ऐसा ही लिखती हूं यह कहना बहुत आसान है...वस्तुतः आत्ममुग्धता की यह प्रवृति घातक है...
जवाब देंहटाएंआमिर ख़ान से विरक्ति सी हो गई है पिछले एपिसोड (पीपली लाइव)के बाद.. लिहाजा फिल्म देखने का इरादा तो नहीं..
जवाब देंहटाएंएक और पेंटिंग देखकर निराशा हुई थी, रावण. फर्स्ट हाफ में संतोष शिवन की पेंटिंग और इंटर्वलोपरांत मणि रत्नम की व्याख्या. बीच में बहुत कुछ!!
आपने सूंदर और वृहत समीक्षा की है!!
आपने संकेतों से भरी कहानी के कई पर्त खोले हैं ... अलग अलग टुकड़ों में बनती हुयी कहानी को बांधना इतना आसान नहीं था ... पर अंत में कहानी इक बिन्दु पर आ कर सब कुछ समझा देती है ... येअही खूबी है इस फिल्म में .. वैसे सच कहो तो देखने में बोर ही लगी ... फिल्म का शोर ज्यादा था ... असल इतनी अच्छी नहीं .....
जवाब देंहटाएंअरे सफाई क्यों... मैं आपको नहीं कह रहा था. कमेन्ट लिखते वक्त लगा था कहीं आपको ऐसा ना लगे कि मैं आपको कह रहा हूँ. मैं अक्सर फिल्में दोस्तों के रिकमेंडेशन पर ही देखता हूँ (अगर पहले ही दिन ना देख लूं तो). और एक दोस्त ने ये बात कही तो याद रह गयी. बाकी किरण राव के इस बयान पर वो ट्विट था. मजाक में बड़े अच्छे ट्विट करते हैं वो. चटपटे से. और ये भी मुझे याद रह गया था :)
जवाब देंहटाएंआपकी ही तरह कुछ और दोस्तों ने भी ऐसे रिव्यू दिए हैं. फिल्म तो देखूंगा ही देर सवेर. अब अकेले यहाँ मन भी नहीं होता देखने जाने का, कोई साथ जाने वाला मिल गया/गयी तो देख आऊंगा :)
exceptionally well made film...
जवाब देंहटाएंयास्मिन की आखरी चिट्ठी एकदम से झकझोरकर रख देती है...
मेरी भी पहली रिअक्सन यही थी इस फिल्म को देख कर....एक कविता सी लगी ये फिल्म...
http://anaugustborn.blogspot.com/2011/01/mumbai-diaries-dhobi-ghat-review-and.html
जवाब देंहटाएंshayad aapko ye bhi pasand aaye.