भावना शेखर एक प्रतिष्ठित कवयित्री , कहानीकार और शिक्षिका हैं । शहर दर शहर विभिन्न साहित्यिक आयोजनों में शिरकत करती हैं यानि कि अति व्यस्त रहती हैं। भावना को आराम से खरामा खरामा चलते शायद ही किसी ने देखा हो, भागती ही रहती हैं
इतनी व्यस्तता के बीच भी इतवार की एक दोपहर 'काँच के शामियाने' के नाम कर दी और इतनी सारगर्भित टिप्पणी लिखी है ।
बहुत बहुत शुक्रिया,भावना
बहुत बहुत शुक्रिया,भावना
काँच के शामियाने
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एक पेंडिंग फ़ाइल की तरह बार बार मुझे याद दिलाती यह किताब जिसके दो पन्ने ही पढ़ पाई थी... कल रात से आज दोपहर तक तीन सिटिंग में कांच के शामियाने के भीतर बाहर घूम आई। शुरू से अंत तक सचमुच काँच का फर्श, कांच की दीवारें और छत भी काँच की, यही तो रहा सदियों से औरत का जीवन...ज़माने की बेधती निगाहों से कितनी ही बार चटकता है, कितनी ही किरचें चुभती हैं, लहूलुहान तलवों से चलते जाना है अग्निपथ पर... उफ़ करने का अधिकार नहीं...आत्मा पर बैंडेज बांधकर एक मुखौटे के पीछे छिपा लेना है किस्मत के गूमड़ों को। पूरा उपन्यास एक औरत की पीड़ा का आख्यान है। जया की पीड़ा विवाह संस्था के भीतर घुटती आकांक्षाओं का दस्तावेज़ है। नाज़ों से पली बेटी पराए घर जाती है और तन मन झोंक देती है उस घर के दरोदीवार को अपनाने में पर उसके साथ हुआ पाशविक व्यवहार पाठक को उद्वेलित करता है और जया के धैर्य और सहनशीलता पर कई बार पाठक झुंझला भी उठता है। आज ऐसा कहाँ होता है.... पर होता है, आज भी होता है --- यही तस्वीर पेश करता है यह उपन्यास। औरत का जीवन मायके और ससुराल, इन दो किनारों के बीच बहती अनुशासित नदी सा है जिसे न तटबन्ध तोड़ने की आज़ादी मिलती, न कोई उसे नई धारा में फूटने का हौंसला बख्शता। अपनी सलीब खुद ही उठानी पड़ती है।
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एक पेंडिंग फ़ाइल की तरह बार बार मुझे याद दिलाती यह किताब जिसके दो पन्ने ही पढ़ पाई थी... कल रात से आज दोपहर तक तीन सिटिंग में कांच के शामियाने के भीतर बाहर घूम आई। शुरू से अंत तक सचमुच काँच का फर्श, कांच की दीवारें और छत भी काँच की, यही तो रहा सदियों से औरत का जीवन...ज़माने की बेधती निगाहों से कितनी ही बार चटकता है, कितनी ही किरचें चुभती हैं, लहूलुहान तलवों से चलते जाना है अग्निपथ पर... उफ़ करने का अधिकार नहीं...आत्मा पर बैंडेज बांधकर एक मुखौटे के पीछे छिपा लेना है किस्मत के गूमड़ों को। पूरा उपन्यास एक औरत की पीड़ा का आख्यान है। जया की पीड़ा विवाह संस्था के भीतर घुटती आकांक्षाओं का दस्तावेज़ है। नाज़ों से पली बेटी पराए घर जाती है और तन मन झोंक देती है उस घर के दरोदीवार को अपनाने में पर उसके साथ हुआ पाशविक व्यवहार पाठक को उद्वेलित करता है और जया के धैर्य और सहनशीलता पर कई बार पाठक झुंझला भी उठता है। आज ऐसा कहाँ होता है.... पर होता है, आज भी होता है --- यही तस्वीर पेश करता है यह उपन्यास। औरत का जीवन मायके और ससुराल, इन दो किनारों के बीच बहती अनुशासित नदी सा है जिसे न तटबन्ध तोड़ने की आज़ादी मिलती, न कोई उसे नई धारा में फूटने का हौंसला बख्शता। अपनी सलीब खुद ही उठानी पड़ती है।
रश्मि रविजा ने कोई नई बात नहीं कही पर आज के नवलेखन में जब नए नए मुद्दों में यह मूल मुद्दे छूट रहे हैं, इस पौराणिक दर्द को बयां करना ज़रूरी है जो औरत की प्रगति के तिलस्मी आंकड़ों को तोड़ता है क्योंकि ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि औरत आज भी कांच के शामियाने में रह रही है। सदियों से पुरुष की सामंती वृत्ति के अंकुश तले दबी रहने को अभिशप्त हैं ग्रामीण, कस्बाई और शहरी स्त्रियाँ। लोकापवाद और समाज के उपालम्भ आज भी औरत को पंख नहीं खोलने देते।
रश्मि का सबसे बड़ा अस्त्र उसकी पात्रों के अनुरूप इस्तेमाल की गयी ठेठ आंचलिक भाषा है। जो समूचे कथानक को एक सच्चाई बख्शती है। आधी आबादी की सीधी सच्ची दास्तान पढ़ते हुए आंखों की कोर भीग भीग जाती है। किताब पढ़ते पाठक को अपने इर्द गिर्द किसी न किसी जया का अक्स उभरता दिखता है। यही कहानी की सफलता है। रश्मि रविजा ने औपन्यासिक शिल्प की चकाचौंध से परे मानवीय सम्वेदना को जगाने वाला एक सहज उपन्यास रचा है जो उनके अनायास सृजन के प्रतिफल सरीखा है। जिसे हाल में महाराष्ट्र सरकार का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है। लेखिका को खूब बधाई और शुभकामनाएँ।