फिल्म उडान देखने की योजना तीन बार बनी पर हर बार कुछ ना कुछ अड़चन आती गयी आखिरकार आज देख ही ली,और मन को झकझोर गयी यह फिल्म. कई लोगों ने समीक्षा की होगी और अपनी अपनी नज़र से देखा होगा.
पर मुझे पूरी फिल्म में यही लगता रहा,अगर माँ ना हो तो एक बच्चे की ज़िन्दगी कैसी अज़ाब हो जाती है.१७ वर्षीय रोहन आठ साल तक हॉस्टल में अकेला रहता है और उसके पिता उस से मिलने नहीं जाते.माँ जिंदा होती तो यह संभव था? वो और उसके चार दोस्त हॉस्टल से भागकर सिनेमा देखने जाते हैं. वहाँ एक उम्रदराज़ व्यक्ति को एक स्त्री के साथ प्रेम प्रदर्शन करते देख आवाजें कसते हैं और वह आदमी उनका वार्डेन निकलता है,ये दोस्त भागते हैं, एक दोस्त के पैर में मोच आ जाती है ,पर उसके कहने पर भी ये उसे छोड़ कर नहीं भागते और पकडे जाते हैं. स्कूल से इन्हें निकाल दिया जाता है.
और अब असली कहानी शुरू होती है, रोहन घर आता है तो पता चलता है उसका छः साल का एक छोटा भाई भी है. जिसे शायद जन्म देते ही उसकी माँ गुज़र गयी थी. राम कपूर रोहन के स्नेहिल चाचा हैं.उनके घर पर रोहन के भविष्य की बात होती है और उसके पिता अपना फैसला सुनाते हैं कि उसे आधे दिन उनकी फैक्ट्री में काम करना होगा और उसके बाद इंजीनियरिंग कॉलेज में पढाई करनी होगी .रोहन कहता है, उसे इंजिनियर नहीं बनना ,वह साहित्य पढना चाहता है और उसके पिता उसपर हाथ उठाते हैं...कि 'एक तो स्कूल से निकाल दिया गया,अब जबाब देता है'. वह भागता है तो उसे गिराकर उसके पिता मारते हैं .चाचा किसी तरह बीच-बचाव करते हैं.
उसके पिता बहुत सख्त हैं वे कुछ नियम समझाते हैं...घर में रहना है तो उन्हें पापा की जगह सर कह कर बुलाना होगा, नीची नज़र कर बात करनी होगी, किसी बात का उल्टा जबाब नहीं देना होगा और फैक्ट्री में काम और इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई करनी होगी (यहाँ निर्देशक ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि बिना बारहवीं पास किए कोई बच्चा कैसे इंजीनियरिंग में कॉलेज में दाखिला ले सकता है?? उसके पिता कहते हैं ,उन्हें कई जगह हाथ जोड़ने पड़े,सिफारिश करनी पड़ी...फिर भी यह नामुमकिन सा लगता है. इतनी ख़ूबसूरत और यथार्थवादी फिल्म के निर्माता-निर्देशक से इस चूक की उम्मीद नहीं थी हालांकि इस से फिल्म के कथानक पर कोई असर नहीं पड़ता)
सुबह सुबह वे रोहन को उठा जॉगिंग के लिए ले जाते हैं, पुश-अप्स करवाते हैं और छोटा बेटा अर्जुन, स्टॉप वाच लिए अकेला गेट पर खड़ा उनकी टाइमिंग पर नज़र रखता है. यह फिल्म मुख्य पात्र 'रोहन' के गिर्द घूमती है पर वह छोटा मासूम अर्जुन काफी सहानुभूतियाँ बटोर ले जाता है.रोहन के तो फिर भी हॉस्टल में मित्र थे पर यह छोटा बच्चा तो अकेला, उस तानाशाह पिता की ज्यादतियां सहता रहा.
रोहन को कवितायेँ और कहानियाँ लिखनी पसंद थीं.जो कि अक्सर अपने बेटे के लिए बड़ा सपना देखने वाले मध्यमवर्गीय पिता को नागवार गुजरता है. बस यहाँ रोहन के पिता कुछ ज्यादा सख्त हैं और उसके बचाव या उसके मन की बात समझने वाली माँ भी नहीं है.रोहन फैक्ट्री में काम करता है और कॉलेज में अकेला इधर उधर बैठा ,कविताएँ लिखा करता है.या फिर एक बड़े से मैनहोल में सर घुसा अपने पिता की बातें जोर जोर से दुहरा कुछ सुकून पाने की कोशिश करता है.
एक बार चाचा के साथ,ये लोग पिकनिक पर जाते हैं और चाचा रोहन के लेखन की तारीफ़ करते हुए उसे इक कविता सुनाने के लिए कहते हैं.रोहन के पिता मना करते हैं फिर भी वे सिफारिश करते हैं कि,"भैया वह इतना अच्छा लिखता है , उसने नॉवेल भी लिख रखी है." रोहन अपने मन की बात कविता में ढाल कर बहुत सुन्दर ढंग से कहता है...जिसका सार यही है कि "आपने आँखों के परदे हटाकर कभी देखने की कोशिश ही नहीं की कि मैं क्या चाहता हूँ " पर उसके पिता कहते हैं .."यह कविता 'सरिता' या 'गृहशोभा' में छप जाएगी या कोई अठन्नी देकर चला जायेगा ,इस से ज्यादा कुछ नहीं होगा " हर लिखने-पढने वाले का शौक रखनेवालों को जीवन के किसी मोड़ पर ऐसी बातें सुनने को मिल ही जाती हैं. हर मध्यमवर्गीय माता-पिता को यह डर लगा रहता है कि कहीं उनका बच्चा ,कविता-कहानी में उलझ कर अपना कैरियर ना चौपट कर ले.
जहाँ इतनी कठोरता ,इतनी बंदिशें होती हैं वहाँ कुंठा भी अपने रास्ते ढूंढ लेती है और रोहन पिता के पर्स से पैसे चुराकर रात में कार निकाल एक बार में चला जाता है,वहाँ उसके कुछ सीनियर उसकी रैगिंग करना शुरू करते हैं पर फिर दोस्त बन जाते हैं. (यह दृश्य कुछ कमजोर लगा...हंसी भी नहीं आई) दोस्तों के साथ अक्सर वह रात में घूमना शुरू कर देता है.एक बार बार में मार-पीट भी कर लेता है और अपने पुराने दोस्तों को फोन करके बताता है. इस उम्र में यह थ्रिल शायद सबसे अच्छी लगती है. एक दोस्त कहता है.."पापा तो कुछ बोलते ही नहीं,न्यूजपेपर पढ़ते रहते हैं और माँ,मुहँ फुलाए रहती है...बात ही नहीं करती ' यह स्थिति किसी भी बच्चे के लिए बहुत त्रासदायक है.
रोहन अपने दोस्तों से कहता भी है, कि वह जब हर सब्जेक्ट में फेल हो जायेगा तो उसे इंजिनियर कैसे बनायेंगे? और वह सचमुच फेल हो जाता है.इधर उसका छोटा भाई स्कूल में चिढाये जाने पर दो लड़कियों को मारता है. उसकी कुंठा भी तो कहीं निकलेगी? प्रिंसिपल उसके पिता को फोन करती है कि उसे आकर घर ले जाएँ.पिता की बिजनेस मीटिंग चल रही है और लाखों की डील फाइनल होनेवाली है.पर उसे छोड़ उन्हें स्कूल जाना पड़ता है,उस बच्चे को वह इतना मारते हैं कि वह बेहोश हो जाता है और उसे हॉस्पिटल में भरती करना पड़ता है.पर वह रोहन से और डॉक्टर से झूठ कहते हैं कि वह सीढियों से गिर गया है. (निर्देशक ने इतनी मेहरबानी की कि यह दृश्य दिखाए नहीं,उसकी पीठ पर पड़े निशानों से पता चला) पर रोहन वह निशान देख,समझ जाता है. उसके पिता रोहन को छोटे भाई का ख्याल रखने को कह 3 दिन के लिए कलकत्ता चले जाते हैं.हॉस्पिटल में रोहन , छोटे भाई को कविताएँ,कहानियाँ सुनाया करता है और धीरे धीरे दूसरे पेशेंट्स, नर्स,डॉक्टर,तमाम लोग रूचि से उसकी कहानियाँ सुनने लगते हैं. इसी बीच उसके पिता उसका रिजल्ट लेकर आते हैं और उसे खींच कर उठा कर ले जाते हैं और बहुत बुरा-भला कहते हैं.
उसके पिता कहते हैं,अब वे दूसरी शादी कर लेंगे, अर्जुन को हॉस्टल भेज देंगे और उसे कॉलेज के बदले पूरा समय अब फैक्टरी में बिताना होगा.
रोहन अपने दोस्तों को फोन करता है.वे बताते हैं कि तीनो दोस्त एक दोस्त के पिता के रेस्टोरेंट में काम करते हैंऔर काफी मुनाफा हो रहा है.वे उस से भी कहते हैं "तू भी बॉम्बे आ जा..सब मिलकर मजे करेंगे" वह दूसरे दोस्तों को भी बात करने को बुलाता है..पर रोहन अपनी ज़िन्दगी की परेशानियों से इतना दुखी है कि दोस्तों की ख़ुशी से चहकती आवाज़ सुन नहीं पाता और फोन रख देता है.यह दृश्य बहुत ही टचिंग है. और रजत बरमेचा ने बहुत ही मार्मिक अभिनय किया है.
पिता की शादी की बात सुनकर छोटा भाई समझाने आता है और कहता है,अर्जुन को हॉस्टल मत भेजिए, हमें दे दीजिये.इसपर वह उन्हें बहुत भला-बुरा कहते हुए व्यंग्य कर देते हैं कि "तुम्हारा अपना बच्चा तो कोई है नहीं" छोटा भाई जाने लगता है तो रोहन उनके पीछे दौड़ता है, कि मुझे भी अपने साथ ले चलिए. पर वे उसे समझाते हैं कि उसे अर्जुन के लिए इस घर में रुकना चाहिए.अर्जुन का और कोई नहीं. जब वह लौटता है तो देखता है...उसके पिता उसकी लिखी कविताओं और कहानियों की कॉपियाँ जला रहें हैं. (यह वो सीन था, जब मैने आँखों पर हाथ रख लिए ...नहीं देख पायी यह दृश्य ,अक्सर जब खून-खराबे का दृश्य हो तो मैं नहीं देख पाती...पहली बार महसूस हुआ कि लिखी इबारतें भी वही महत्त्व रखती हैं....हालांकि बाद में ख़याल आया कि उस बच्चे के चेहरे का एक्सप्रेशन देखना चाहिए था कि कितना निभा पाया वह इस दृश्य को...वैसे निराशा नहीं होती...उसने जैसे इस पात्र को जिया है )
उसके पिता,एक बच्ची की माँ से मिलवाते हैं कि वे उस से शादी करने जा रहें हैं. सब मिलकर रोहन की 18th birthday मनाते हैं. पिता , दादा जी की घड़ी रोहन को विरासत में देते हैं इस ताकीद के साथ कि वह हमेशा चलती रहें. रोहन के सीनियर्स उसे कहते हैं कि क्या वह ज़िन्दगी भर,अपने पिता की फैक्ट्री में नौकरी करेगा, छुप कर कवितायेँ लिखेगा और लड़कियों की तरह रोयेगा.रोहन एक झील के पास कार लेकर जाता है और एक रॉड ले गाड़ी के सारे शीशे और गाड़ी को भी तोड़ डालता है.यहाँ एक भी डायलौग नहीं है पर रोहन की पूरी body language बोलती है कि "अब और उसे कोई क्या सजा देगा...कर लो जो करना है"
एक पुलिसमैन उसे पुलिस स्टेशन ले जाता है.उसके पिता आते हैं,पूछते हैं "वो कहाँ है? रोहन आशा भरी नज़रों से उन्हें देखता है. पुलिसमैन उसकी तरफ इशारा करता है तो वे कहते हैं "ये नहीं...मेरी गाड़ी" रोहन को गंदे दीवारों और गंदे कम्बल में लॉक-अप में रात गुजारनी होती है.
सुबह उसे छोड़ दिया जाता है.वह अपने घर जाता है, तैयार होता है और बैग ले निकल पड़ता है. पिता की नई पत्नी और उसके रिश्तेदार घर में बैठे होते हैं.पिता के पूछने पर कहता है ,"मैं घर छोड़ कर जा रहा हूँ"
"मेरी शादी से खुश नहीं हो ??"
" खुश हूँ कि अब आपकी भड़ास कहीं और निकलेगी ..और अर्जुन को बेल्ट से मार खाकर हॉस्पिटल नहीं जाना पड़ेगा " रोहन सबके सामने कह देता है.
पिता उसके पीछे दौड़ते है और सीढियों पर उसे मारते हैं,इस बार रोहन भी पलट कर एक जोर का पंच उन्हें देता है.पिता उसके पीछे दौड़ते हैं...और एक लम्बी चेज़ होती है,पिता-बेटे के बीच.आखिरकार इतने जॉगिंग के बाद भी पिता की उम्र सामने आ जाती है और वे रोहन को नहीं पकड़ पाते. रोहन दिन-भर घूमता हुआ,अपने चाचा के घर जाकर उन्हें बताता है...कि मैं बॉम्बे (हाँ,इस फिल्म में मुंबई नहीं कहा गया है..और लगता है..राज ठाकरे के कानों तक नहीं पहुंची )
जा रहा हूँ,मैं चौकीदारी कर लूँगा पर वापस घर नहीं जाऊंगा"
वह माँ के साथ अपने बचपन की फोटो देखता है...सोचता रहता है और सुबह अपने घर की तरफ आता है.वहाँ अर्जुन हॉस्टल जाने के लिए तैयार बैठा है और उसके पिता ऑटो लाने गए हैं.रोहन पिता की दी हुई घड़ी और एक चिठ्ठी रखता है, जिसमे लिखा है
"मैं इस कूड़ेदान में अर्जुन को नहीं छोड़ सकता, उसे अपने साथ ले जा रहा हूँ और उसका भविष्य उज्जवल बनाऊंगा.आप अपने नए परिवार के साथ खुश रहिये"
प्यार (पर इस शब्द का अर्थ तो आपको पता नहीं )
आपका बेटा
रोहन
और अर्जुन पहली बार हँसते, बात करते, उछलते हुए सड़क पर अपने बड़े भाई का हाथ पकडे चल रहा है...यही है नई ज़िन्दगी की तरफ उनकी उडान.
इस फिल्म का लेखन और निर्देशन बेमिसाल है. एडिटिंग भी कमाल की है.एक भी सीन फ़ालतू नहीं लगता. कठोर पिता की भूमिका में "रोनित रॉय' का अब तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है.राम कपूर अपनी छोटी सी भूमिका में फिल्म की बोझिलता कम करते हैं. रोहन के किरदार में "रजत बरमेचा' और अर्जुन के किरदार में 'आयान बोरादिया' ने बहुत ही बढ़िया अभिनय किया है पर इसका श्रेय निर्माता 'अनुराग कश्यप' एवं निर्देशक 'विक्रमादित्य मोतवाणी' को जाता है. सुना है रजत को एक महीने तक टी.वी. ,मोबाइल और अपने दोस्तों से दूर रखा गया ताकि वह इस बच्चे रोहन जैसा महसूस कर सके. जो उसने बखूबी किया है.उसके चेहरे के भाव ही बोलते हैं.
शायद 'पिता' का इतना कठोर होना थोड़ी अतिशयोक्ति लगे .पर दुनिया में इतना कुछ घटता रहता है कि किसी बात पर अब हैरानी नहीं होती.बस यही दुआ है ईश्वर से कि किसी बच्चे की माँ छीन लें तो सिर्फ उसका शरीर ही ले जाएँ.उसका ह्रदय उसके पिता के दिल में स्थापित कर दें.