दामिनी / निर्भया के साहस और बलिदान ने हमारे देशवासियों को जैसे सोते से जगा दिया है। अब ये बात दीगर है कि कब तक ये आँखें खुली रह पाती है। नए क़ानून का निर्माण , मौजूद कानूनों को सख्ती से लागू करना, दोषियों को कड़ी सजा देना , महिला पुलिस की नियुक्ति जैसी बातें हो रही हैं .कितनी तत्परता से इन्हें लागू किया जाएगा , ये कितनी सफल होगीं .यह तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा।
पर इस आन्दोलन ने इतना जरूर किया है कि जो विषय परिवार के बीच वर्जित था। जिस पर बात करने से लोग कतराते थे। चर्चा करते भी थे तो बड़े ढंके छुपे शब्दों में ,अब खुलकर इस पर बात हो रही है। कम से कम समाज यह स्वीकार तो कर रहा है कि इस तरह की व्याधि समाज में व्याप्त है। रुग्ण मानसिकता वाले लोग समाज में हैं। लडकियां यह सब झेल रही हैं। अगर किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ होती है तो दोष उस लड़की का नहीं है, चुप उसे नहीं रहना है बल्कि उस अपराधी को चुप कराना है . पर अब तक बिलकुल उल्टा होता आया है। लडकियां भी इसे शर्म का विषय मान कर चुप रहती आयी हैं और दुराचारियों की हिम्मत इस से बढ़ी ही है।
अमेरिका में रहने वाली एक भारतीय लड़की ने बहुत ही व्यथित और आक्रोशित होकर अपने अनुभव शेयर किये हैं। वह उन्नीस वर्ष की थी, एक शाम बस से घर लौट रही थी। पास खड़े एक आदमी ने उसे हाथ लगाया उसने जोर से चिल्ला कर विरोध प्रकट किया और उस आदमी को डांटा . उसके साथ पहले भी जब किसी ने ऐसी हरकत की थी ( पब्लिक ट्रांसपोर्ट में यह आम है ) उसके चिल्लाने पर कंडक्टर उस आदमी को बस से उतार देता था। वह खुश हो जाती कि 'उसने विरोध किया, उस आदमी को सजा मिली और अब वह ऐसी हरकत नहीं करेगा।'
इस बार भी वह लड़की कुछ ऐसी ही अपेक्षा कर रही थी पर इस कंडक्टर ने कहा, "दूसरी जगह जाकर खड़ी हो जाओ"
उस लड़की ने कहा, "मैं क्यूँ दूसरी जगह जाऊं?? आप इसे बस से उतरने के लिए कहिये" और उसी वक़्त पास खड़े उस आदमी ने उस लड़की को चूम लिया " पूरी बस चुपचाप तमाशा देखती रही . ये लड़की गुस्से में चिल्लाती रही,वह आदमी मुस्कुराता रहा और बस के लोग चुपचाप देखते रहे (उसमें महिलायें भी होंगी ) पर यह उनकी बहन या बेटी नहीं थी ,इसलिए सब चुप थे। उसके लगातार गुस्सा करने पर कंडक्टर ने उस लड़की को ही बस से उतार दिया।
इस लड़की ने बस का नंबर नोट किया। घर आकर पिता को बताया .पिता उसे लेकर पुलिस स्टेशन जाना चाहते थे पर उसकी माँ ने कहा 'एक टीनेज लड़की को लेकर पुलिस स्टेशन जाना ठीक नहीं, और फिर लोग पता नहीं क्या बातें बनाएं' (माँ का सोचना भी गलत नहीं था, समाज ही ऐसा है ) पुलिस स्टेशन फोन किया गया कि उनके पास बस का नंबर है वे ड्राइवर और कंडक्टर के खिलाफ रिपोर्ट लिखाना चाहते हैं . पिता को बार बार अपने 'गजटेड अफसर' होने का जिक्र करना पड़ा तब उनकी बात सुनने को कोई तैयार हुआ। दस मिनट बाद एक महिला पुलिस ऑफिसर ने फोन करके कहा, " अगर हम FIR फाइल करते हैं तो वो आदमी तो पकड़ा नहीं जाएगा, हमें ड्राइवर और कंडक्टर को सस्पेंड करना पड़ेगा . ड्राइवर और पुलिस ने अपने युनियन में शिकायत कर दी तो वे स्ट्राइक पर चले जायेंगे .फिर स्ट्राइक की बात अखबारों में आएगी, आपका नाम आएगा, बेकार बदनामी होगी ,मेरी सलाह है भूल जाइये इस घटना को "
जब उसने कॉलेज में इस घटना के बारे में बताया तो एक लड़के ने उसके पीठ पीछे कहा, "पागल है क्या ये लड़की, इस तरह की बातें कोई बाहर में करता है ??", यही सबसे बड़ी गलती है हमारे समाज की। जो ऐसी हरकते करे ,उसे कुछ न कहा जाए बल्कि शायद वह अपने दोस्तों में शेखी भी बघारे 'आज तो उसने ऐसा किया' पर जिसके साथ ऐसी हरकत की जाए वह लड़की चुप रहे। उस लड़की ने ये भी लिखा है कि इसके पहले कि ये पढ़ते हुए लोग सोचने लगें कि मैंने क्या पहना हुआ था जो उस आदमी ने ऐसी हरकत की तो ये बता दूँ कि मैंने सलवार कुरता दुपट्टा पहना हुआ था "
शायद ये सब पढ़ते हुए यह ख्याल भी आये लोगो के मन में कि वह लड़की , कंडक्टर की बात मान कर दूर क्यूँ नहीं खड़ी हो गयी ? अब भुगते जैसा दामिनी के लिए भी लोगो ने कहा, उसे आत्मसमर्पण कर देना चाहिए था, उसने उस बस में लिफ्ट ही क्यूँ ली? लोग ये नहीं सोचते कि पूरी भरी बस में से लोगो ने उस आदमी को पीट क्यूँ नहीं दिया। कम से कम वह आगे ऐसी हरकत करने से तो डरता पर छोड़ देने से तो उसे और बढ़ावा ही मिल गया।
आखिर लडकियां कब तक ऐसी हरकतों को नज़रंदाज़ कर दूर जाकर खड़ी होती रहें। अगले कितने साल, अगली कितनी सदी तक???
उस लड़की ने आगे लिखा है, "पिछले आठ साल से वह इस घटना को भूलने की कोशिश कर रही है। पर उस आदमी की वह हरकत और उपहास भरी हंसी वह भूल नहीं पायी है। उस आदमी को सजा देना चाहती है,उसकी हंसी छीन लेना चाहती है ". वह इतनी दुखी है कि कहती है ,'अच्छा है अब मैं अमेरिका में हूँ और मैं नहीं चाहती कि वापस लौटूं और अपनी बेटी को ऐसे माहौल में बड़ा करूँ ?"
क्या हम उसे ऐसा सोचने के लिए स्वार्थी कह सकते हैं ? नहीं कह सकते क्यूंकि हम सब यहाँ स्वार्थी हैं। जब तक खुद पर न गुजरे निरपेक्ष बने रहते हैं।
उस लड़की को यह सब झेले तो आठ साल ही हुए हैं, इसके मुकाबले एक छोटी सी घटना ही है ,पर उस घटना को पच्चीस साल हो गए हैं फिर भी मुझे अक्सर ख्याल आता है कि लोग ऐसे उदासीन कैसे हो सकते हैं ?
मैं कॉलेज में थी और 'तिलैया सैनिक स्कूल' में पढनेवाले अपने भाई से मिलकर माँ के साथ बस से 'तिलैया' से 'रांची' जा रही थी। बस में चढ़ी तो बस बिलकुल खाली सी थी। बहुत कम लोग थे पर जितने भी लोग थे, पूरी बस में पसरे हुए थे। सबने विंडो सीट ली हुई थी। हर सीट पर अकेला आदमी बैठा था पर खिड़की के पास।माँ ने, सबसे आग्रह किया कि किसी दूसरे के साथ बैठ जाएँ . विंडो सीट मुझे दे दें, मैं खिड़की के पास बैठ जाती , माँ मेरे बगल में बैठ जातीं तो मैं सुरक्षित रहती .पर एक आदमी भी अपनी सीट से नहीं उठा, उदासीन सा सर उठा कर दूसरी सीट की तरफ इशारा करता, 'उनसे कहिये न, उठने को ' वो आदमी दूसरे से कहता पर कोई अपनी जगह से नहीं हिला क्यूंकि उनके घर की कोई लड़की तो थी नहीं, वे क्यूँ परवाह करें। कंडक्टर ने माँ से कहा ,आप बीच में बैठ जाइये लड़की को किनारे बिठा दीजिये " पर मुझे उन सबको देख कर इतना गुस्सा आया था कि मैं बस से उतर गयी और दूसरे बस का इंतज़ार करने लगी कि उसमें तो कोई महिला यात्री होगी। दूसरी बस में महिला यात्री भी मिल गयीं और मुझे विंडो सीट भी। मेरे दो घंटे जरूर बर्बाद हो गए।
पर यह घटना मुझे अक्सर याद आती है, आखिर उस बस में सवार लोग एक संस्कारवान मध्यमवर्गीय परिवार से ही होंगें पर इतने उदासीन कैसे हो सकते हैं ?
सरकार से नए कानून बनाने की , दोषियों को कड़ी सजा देने की ,महिलाओं के सुरक्षित माहौल की मांग तो हम जरूर कर रहे हैं पर इस से पहले हमें एक समाज के रूप में जागना होगा। अपने परिवार से आगे बढ़कर सोचना होगा।
यह प्रण लेना होगा, किसी भी पब्लिक प्लेस पर किसी लड़की को कोई तंग करे तो गर्दन घुमा कर दूसरी तरफ नहीं देखने लगेंगे बल्कि चारों तरफ एक बार नज़र घुमा कर पहले ही देख लेंगे कि कोई लड़की अपने पास किसी की उपस्थिति से असुविधाजनक तो महसूस नहीं कर रही .
रास्ते के किनारे किसी घायल को पड़े देख नज़रें फेर आगे नहीं बढ़ेंगे, ये नहीं सोचेंगे कि अभी घर जाकर जल्दी सोना है क्यूंकि कल ऑफिस जाना है, बच्चों को सुबह स्कूल भेजना है। एक दिन बच्चे स्कूल नहीं गए, बॉस की डांट खा ली तो ज़िन्दगी नहीं रुक जायेगी पर समय पर किसी की मदद नहीं की तो उनकी ज़िन्दगी जरूर चली जायेगी। जितने लोग इस आन्दोलन में शामिल हुए , अपनी प्रतिक्रियाएं दीं , दुखी हुए अगर उतने लोग ही अपने आस-पास का माहौल बदलने की शुरुआत कर दें तो कुछ तो बदलेगा .
इन सबके लिए कोई कानून बनाने की जरूरत नहीं है।
हम थोड़ी सी अपनी संवेदनाएं जगायेंगे , दूसरों की मदद के लिए आगे आयेंगे ,अपनी सोच बदलेंगे तो आस-पास अपने आप बदलने लगेगा। और दुनिया रहने लायक बनने लगेगी तब इस देश की कोई बेटी दुखी होकर नहीं कहेगी कि 'मुझे अपने वतन नहीं लौटना.'