बुधवार, 27 जनवरी 2010

निर्मल साफ़ पानी सा बच्चों का ये मन...

अक्सर कई ब्लोग्स पर देखा है और मुंबई ब्लॉगर्स मीट में एक साथी ब्लॉगर ने भी बताया कि वे अक्सर इमेल में आये अच्छे विचारों या बोध कथाओं या चुटकुलों का हिंदी रूपांतरण कर अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर देते हैं. मुझे भी एक ख़याल आया पर यहाँ स्थिति थोड़ी सी अलग थी.. एक घटना हुई और करीब साल भर बाद ,ठीक उस से मिलता जुलता एक मेल मेरे पास आया.और देख सुखद आश्चर्य हुआ...कहने को देश,भाषा संस्कृति सब अलग हैं...पर पूरे विश्व में मनुष्य की संवेदनाएं एक जैसी ही हैं.पहले घटना का जिक्र करती हूँ फिर इमेल का. कुछ साल पहले की घटना है.मेरे छोटे बेटे कनिष्क के स्कूल में फुटबाल टूर्नामेंट्स शुरू हो गए थे.पर इस बार मुझे थोड़ी राहत थी क्यूंकि पास में ही रहने वाली मेरी सहेली का बेटा भी फ़ुटबाल टीम में शामिल हो गया था.और हमने तय किया कि मैच ख़त्म होने के बाद ये दोनों बच्चे एक साथ ऑटो से आ सकते हैं.वरना मुझे ही लेने जाना पड़ता था.हमने आपस में बात करके दोनों को ५०-५० रुपये दे दिए थे.ताकि मन हो तो कुछ खा लेँ.वैसे हम टिफिन तैयार करके देते थे.पर घर का बना, कब भाता है,बच्चों को. दिन में ३ बजे के करीब इनलोगों ने फोन किया कि हम मैच खेल कर स्कूल पहुँच गए हैं और अब ऑटो से घर आ रहें हैं.हमने जल्दी जल्दी खाना गर्म किया कि बच्चे भूखें होंगे.देर हो रही थी,पर यही सोचा कि शायद ऑटो नहीं मिल रहा होगा. बेटे ने घर में कदम रखा और जब मैंने कहा जल्दी से नहा कर कपड़े बदलो और खाना खा लो तो उसने बोला,'मैं तो अभी अभी CCD (Coffee Cafe Day ) में खा कर आ रहा हूँ". CCD मेरे घर से चार कदम की दूरी पर है और वहाँ से चार कदम पर मेरी सहेली का घर.मैंने आश्चर्य से पूछा,'यहाँ आ कर खाया तुमलोगों ने??"...अब कनिष्क चुप. दरअसल पहली बार अकेले आने का मौका मिला.पास में पैसे भी थे.और मैच ख़तम होते ही कोच ने स्कूल बस में बिठा दिया.इन्हें पैसे खर्च करने का मौका ही नहीं मिला. जाहिर है मुझे गुस्सा आना ही था और उसे जम कर डांट पड़ी.तभी मेरी सहेली का भी फ़ोन आया,'सुना रश्मि ,क्या किया इन दोनों ने?"..थोड़ी देर हम फ़ोन पर ही इनकी शैतानी का जिक्र करते रहें फिर फ़ोन रख कर अपने अपने बेटे की तरफ मुखातिब हो गए,डांटने को. थोड़ी देर बाद जब वह फ्रेश हो कर आया तब मैंने पूछा,'तुमलोगों ने CCD में खाया क्या?" क्यूंकि वहाँ तो एक कॉफ़ी ही ६५ रुपये की मिलती है.और इनके पास ज्यादा पैसे तो थे नहीं.धूल धूसरित दोनों को CCD वालों ने अन्दर ही कैसे आने दिया ,यही आश्चर्य था.पर ऐसी जगहों पर आपने टूटी चप्पल या फटे कपड़े पहने हों कोई फर्क नहीं पड़ता अगर आपको अच्छी अंग्रेजी आती हो.कनिष्क ने बताया २० रुपये ऑटो में देने के बाद इनके पास ८० रुपये बचे थे.ये लोग 'मेन्यु कार्ड' गौर से पढ़ रहें थे और कुछ इनकी जेब के लायक मिल ही नहीं रहा था.तब एक वेटर ने पास आकर पूछा,'आपलोगों का बजट क्या है?' इनके बताने पर उसने सलाह दी या तो ४० रुपये की पेस्ट्री ले लो या ३५ रुपये का सैंडविच.मैंने पूछा,'हम्म तो तुमलोगों ने पेस्ट्री ली होगी.'क्यूंकि सैंडविच तो ये दोनों घर में भी खाना पसंद नहीं करते.कनिष्क ने बताया ,'नहीं हम लोगों ने सैंडविच लिया. क्यूंकि फिर वेटर को टिप देने के पैसे कहाँ से बचते और उसने हमारी इतनी मदद की थी.इसलिए दस रुपये हमने टिप में दे दिए" इमेल में अमरीका के एक 8 साल के बच्चे का जिक्र था,उसने अपने पिग्गी बैंक से सारे चेंज ले जाकर काउंटर पे रखे.वेटर ने भी उसकी मदद की गिनने में.उसने आइक्रीम कोन का दाम पूछा.वेटर ने बोला.इतने में आ जायेगा.फिर उसने आइसक्रीम कप का दाम पूछा.उसका मूल्य थोड़ा कम था.उसने आइसक्रीम कप ऑर्डर किया.वेटर को थोड़ा आश्चर्य हुआ.फिर भी उसने कप ले जाकर उसे दिया.उस बच्चे ने आइसक्रीम खाया और जाने लगा तो बाकी चेंज टेबल पर टिप के रूप में छोड़ कर चला गया. दुनिया के किसी कोने में हो सारे बच्चों के दिल यकसाँ होते हैं.धीरे धीरे वक़्त की धूप उन्हें मजहब,देश,रंग की लकीरें खींचना सीखा देती है.और बंद कर देती है, उन दिलों को अलग कटघरों में. निर्मल साफ़ पानी सा होता है,इनका मन ...और इनमे तरह तरह के विचारों को धोकर इसे कितना प्रदूषित कर देते हैं हम. कहीं पढ़ा एक शेर याद आ रहा है, "बच्चो के छोटे हाथो को चांद सितारे छूने दो चार किताबे पढ़ लिख कर ये भी , हम जैसे हो जायेंगे"

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

ब्लॉग जगत एक सम्पूर्ण पत्रिका है या चटपटी ख़बरों वाला अखबार या महज एक सोशल नेटवर्किंग साईट ?


जब पहली बार ब्लॉग जगत से नाता जुड़ा तो ऐसा लगा जैसे पुरानी पत्रिकाओं की दुनिया में आ गयी हूँ.सब कुछ था यहाँ,कविताएं,कहानियां,गंभीर लेख,सामयिक लेख,खेल ,बच्चों और नारी से जुडी बातें. पर कुछ दिन बाद ऐसा लगने लगा..कि यह उच्चकोटि की एक सम्पूर्ण पत्रिका है या चटपटी ख़बरों से भरा बस एक समाचारपत्र??
और उस समाचार पत्र का भी Page 3 ही सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है जिसमे ब्लॉग जगत के स्टार लोगों की रचनाएं होती है.

कोई भी विवादस्पद लेख हो या किसी विषय पर विवाद हो तो बहुत लोग पढ़ते हैं.पर कोई सृजनात्मक लेख हो तो उसके पाठक बहुत ही कम हैं.जबकि हमारी कामना है कि ब्लॉग के सहारे हिंदी को अच्छा प्रचार और प्रसार मिले.यहाँ ज्यादा लिखने वाले वही हैं जो लोग अच्छे हिंदी साहित्य का मंथन कर चुके हैं.अगर वे लोग भी स्तरीय लेखन को बढ़ावा नहीं देंगे तो आने वाली वो पीढ़ी जो नेट और ब्लॉग के सहारे हिंदी तक पहुंचेगी,उन्हें हिंदी में उच्चकोटि की सामग्री कैसे उपलब्ध होगी?

एक लेखक मित्र ने सलाह दी 'असली लेखन तो पत्रिकाओं में ही हैं." उनकी बातें सही हो सकती हैं पर हम जैसों का क्या, जिन्हें हिंदी पढने लिखने का मौका बस ब्लॉग जगत में ही मिलता है.हिंदी पत्रिकाएं तो देखने को भी नहीं मिलतीं...उसमे शामिल होने का सपना हम कहाँ से देख सकते हैं? मुंबई में किसी भी स्टॉल पर अंग्रेजी, मराठी,गुजरती,मलयालम की पत्रिकाएं भरी मिलेंगी..पर हिंदी की नहीं..."अहा! ज़िन्दगी" माँगने पर वह गुजराती वाली 'अहा ज़िन्दगी' बढा देता है और' वनिता' मांगने पर मलयालम 'वनिता'.जब मैंने अपने पपेर वाले को धमकी दी कि अगर वह ये दोनों पत्रिकाएं नहीं लाकर देगा तो उसे पैसे नहीं मिलेंगे..तब उसने ये दोनों पत्रिकाएं देना शुरू किया.बीच बीच में भूल ही जाता है.दक्षिण भारत के शहरों में और प्रवासी भारतीयों के लिए तो बस ये ब्लॉग जगत ही हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है. अच्छा स्तरीय पढने को वे भी आतुर रहते हैं पर अच्छे लेखन को प्रोत्साहन ही नहीं मिलता.जब एक दो लेख,कविता या कहानी के बाद भी अच्छी प्रतिक्रियाएँ नहीं मिलेंगी तो लेखक यूँ ही हताश हो जाएगा. और आगे लिखने की इच्छा ही नहीं रहेगी.और क्षति होती है,अच्छा पढने की चाह रखने वालों की.

लोग कहते हैं,बलोग्जगत अभी शैशवकाल में है.पर अंग्रेजी में कहते हैं,ना morning shows the day .इसलिए अभी से ही ब्लॉगजगत में उच्च कोटि के लेखन को प्रोत्साहन देना होगा. अगर स्तरीय लेखन की नींव सुदृढ़ नहीं होगी तो हम ब्लॉग के सहारे हिंदी के उज्जवल भविष्य की कामना कैसे कर सकते हैं.??हिंदी सिर्फ बोलचाल की भाषा बन कर रह जायेगी.और इसके लिए क्या प्रयत्न करना है? हमारा बॉलिवुड और अनगिनत टी.वी.चैनल तो यह काम बखूबी अंजाम दे रहें हैं.

यह भी तर्क दिया जाता है, सबकी रुचियाँ अलग होती है...पर अगर अच्छा लेखन परोसा ही नहीं जायेगा तो रुचियाँ विकसित कैसे होंगी?

ब्लॉग जगत एक सोशल नेटवर्किंग साईट जैसा ही लगने लगा है.जिसकी नेटवर्किंग ज्यादा अच्छी है.उसका लिखा,अच्छा-बुरा सब लोग पढ़ते हैं.उसके हर पोस्ट की चर्चा भी होती है और बाकी लोगों को उस पोस्ट के बारे में पता चलता है. अब ये नेटवर्किंग का स्किल सबके पास नहीं होता.सबकी पोस्ट पर कमेन्ट करो सबसे आग्रह करो,अपनी रचनाएं पढने की.और कई लोगों के पास इतना समय भी नहीं होता.कितनी ही अच्छी रचनाएं कहीं किसी कोने में दुबकी पड़ी होती हैं.और किसी की नज़र भी नहीं पड़ती क्यूंकि उनके रचयीताओं के पास इतना वक़्त नहीं होता.

अगर स्तरीय लेखन को हम बढ़ावा नहीं देंगे तो फिर हम लोगों से यह अपेक्षा भी नहीं कर सकते कि ब्लॉग्गिंग को गंभीरता से लिया जाए.

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

बदलते वक़्त की जरूरत


इस तस्वीर में ये दोनों लडकियां हमारी और आस पास की बिल्डिंग से कचरा उठाती हैं.और उसके बाद बिल्डिंग के प्रांगण में झाड़ू लगाती हैं.आज सुबह यूँ ही इनपर नज़र पड़ी और मैंने गौर किया कि जो लड़की जींस में थी, वो आराम से अपने काम को अंजाम दे रही थी पर जिसने सलवार कुरता पहन रखा था,वो कभी अपनी चुन्नी संभालती ,कभी अपने कपड़े. चुन्नी उसने सामने लपेट कर बाँध रखी थी पर वह बार बार खुल जा रही थी.जींस वाली लड़की अपना काम ख़त्म कर किनारे खड़ी हो उसका इंतज़ार करने लगी.

ये लडकियां सातवें माले पर लिफ्ट से बडा सा ड्रम लेकर जाती हैं और फिर हर फ्लोर से कूड़ा उठा..ड्रम सीढियों से घसीटते हुए नीचे तक लेकर आती हैं.मैं सोचने लगी,यहाँ भी ये जींस वाली लड़की को ज्यादा आसानी हुई होगी.ये बिचारी अपनी चुन्नी और कपड़े संभालते हुए कितनी मुश्किल से अपना काम ख़त्म कर पायी होगी.उसके कपड़े भी काफी गंदे हो गए थे.

यही वजह है कि आज की पीढ़ी परंपरागत परिधानों से ज्यादा सुविधाजनक परिधानों को ज्यादा तरजीह देने लगी है.

कई लोग इसे पाश्चात्य का प्रभाव मानते हैं.और ऐसे परिधानों की आलोचना करते हैं.पर इसे पहनने वाले की रूचि पर छोड़ देना चाहिए.अगर वह इसमें comfortable महसूस करती है.तो इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए.जब परिस्थितियाँ इतनी बदल गयी हैं.महिलायें घर के बाहर निकल हर तरह का काम करने लगी हैं तो कैसे उम्मीद की जाती है कि पोशाक तो उन्हें वही पुरानी धारण करनी चाहिए.सुबह सुबह जरूरी काम निपटा,पति और बच्चों का टिफिन तैयार कर जब स्त्रियों को जल्दी से ऑफिस भागना होता है तो उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे अच्छे से साड़ी बांधे,लिहाजा,सलवार कुरता या जींस ही उन्हें आसान लगता है.

और साड़ी शायद कैसे भी बाँधी जा सकती है.पहले भी तो सारी महिलायें चाहे जितनी भी जल्दी हो साड़ी ही पहनती थीं. लेकिन आज स्त्रियों में सौन्दर्यबोध भी जाग गया है.वे हमेशा प्रेसेंटेबल दिखना चाहती हैं.अगर साड़ी ही बांधें तो उसे पूरी खूबसूरती से.पहले कहाँ स्त्रियाँ ब्यूटीपार्लर जाती थी.पर अब यह जरूरी आदतों में शुमार हो गया है.

इसलिए इस परिवर्तन को खुले दिल औ दिमाग से अपनाना चाहिए. हाँ,कुछ किशोरियां आधुनिकता के नाम पर ऐसे वस्त्र पहन लेती हैं,जिन्हें स्वीकार करना मुश्किल होता है.पर ऐसी किशोरियों और युवतियों का प्रतिशत बहुत कम है.और यह दौर भी बहुत कम दिनों के लिए रहता है....शादी और बच्चों के बाद खुद ही उनकी रूचि में परिवर्तन आ जाता है.

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

उफ्फ यह जाति की दीवार !!

कहते हैं 'Truth is stranger than Fiction ' .इस घटना पर यह उक्ति पूर्णतः खरी उतरती है.

काफी पहले की घटना है,मेरे गाँव से एक छोटे से लड़के को एक उच्च वर्ग वाले अपने शहर नौकर के तौर पर ले गए.उन दिनों ऐसा चलन सा था.पिता खेतों में काम करता और उनके बच्चे शहरों में किसी ना किसी के घर नौकर बन कर जाते.अब तो यह चलन समाप्तप्राय है.नयी पीढ़ी के नौजवान खुद ही पंजाब,असाम जाकर मजदूरी करते हैं. पर बीवी बच्चों को आराम से रखते हैं.

खैर, ऐसे ही हमारे 'शालिक काका' का बेटा 'शिव ज्योति ' किसी के साथ शहर गया और दो दिनों बाद ही वहाँ से भाग निकला.उसे ना शहर का नाम पता था,ना अपने घर का पता और वह गुम हो गया.गाँव में जब पता चला तो बहुत हंगामा मचा.उन महाशय के घर के सामने शालिक काकी (हम उन्हें यही,कहते थे) ने जाकर बहुत गालियाँ दीं.उन दिनों ऐसा ही करते थे,जिस से नाराजगी हो उसके घर के सामने जाकर चिल्ला चिल्ला कर खूब गालियाँ दीं जाती थीं.और बाकी पूरा गाँव तमाशा देखता था.'शालिक काका' ने भी अपने बाल और  दाढ़ी,मूंछ बढा ली थी . लोग कहते , उन्होंने कसम खाई है कि जिस शख्स की वजह से उनका बच्चा गुम हो गया है., उसका क़त्ल करने के बाद ही कटवाएँगे. उन महाशय का, जो 'शिव ज्योति ' को गाँव से लेकर गए थे का गाँव आना बंद हो गया.

इसके बाद तो इतनी अफवाहें उड़ने लगीं, जितनी धूल भी किसी  कच्ची मिटटी पर चलती कोई बस भी क्या उड़ाएगी .रोज नए किस्से.कोई कहता,  शिव ज्योति (वैसे उसके नाम का सही उच्चारण कोई नहीं  करता...कुछ लोग 'सिजोती' कहते पर ज्यादातर लोग 'सिजोतिया' ही कहते)  को सर्कस में देखा है,कोई कहता किसी बाज़ार में तो कोई कहता किसी प्लेटफ़ॉर्म पर.ढोंगी बाबाओं की भी खूब बन आई.पता बताने के बहाने उस गरीब से खूब रुपये ऐंठते.

ऐसे ही एक बार गाँव में साधुओं का एक दल आया. उसमे से एक किशोर साधू का चेहरा थोडा बहुत शिव ज्योति से मिलता था. फिर क्या पूरा गाँव उसके पीछे.संयोग से मैं भी उन दिनों गाँव गयी हुई थी.बड़े भाई' राम ज्योति' ने उस साधू का हाथ कस कर पकड़ रखा था.हमारे गाँव में उस जाति विशेष में कुछ ऐसी ही प्रथा थी.,बड़े बेटे का नाम 'राम' पर रखते और छोटे बेटे का 'शिव' पर . गाँव के सारे बच्चे, बड़े उसे घेर कर खड़े.सैकड़ों सवाल उस से पूछे जाते.और हर सवाल का मतलब अपनी तरह से लोग निकाल लेते.उस से पूछा "ये पास वाले खेत किसके हैं.?"..उसने कहा,"मालिक के"..और पूरा गाँव अश अश कर उठा क्यूंकि मेरे दादाजी को सबलोग मालिक कह कर बुलाते थे.आस पास के खेत उनके ही थे.ऐसे ही उसके शरीर पर के सारे चिन्ह लोगों को शिव ज्योति से मिलते जुलते लगे.

दिन भर यह तमाशा होता रहा.हार कर उसने मान लिया कि वही 'शिव ज्योति' है और कहा" ठीक है,चलो घर चलता हूँ".घर जाकर उसने खाना खाया अच्छे से बातें कीं और जब सब लोग सो गए तो रात के अँधेरे में उठ कर भाग निकला.उस फूस की झोपडी में कोई मजबूत दरवाजे और ताले तो थे नहीं.

सबने शालिक काका को समझाया जाने दो ,वो साधू बन गया है.संसार त्याग दिया है.अब उसे घर बार का मोह नहीं.शालिक काका ने भी अपनी जटा से निजात पा ली.और अब उनके बेटे को यहाँ वहाँ देखने के किस्से भी बंद हो गए.उन ढोंगी बाबाओं को जरूर तकलीफ हुई होगी.

काफी सालों बाद,संयोग से मैं गाँव में ही थी.उन्ही दिनों एक १७,१८ साल का एक सुन्दर नवयुवक अच्छे शर्ट पेंट,जूते पहने एक सज्जन के साथ नमूदार हुआ.उस से नाम और परिचय पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ी क्यूंकि वह अपने भाई की कार्बन कॉपी लग रहा था.पूरे गाँव में शोर मच गया.
हमारे घर के बाहर के बरामदे में उसे कुर्सी दी गयी बैठने को,जबकि उसके पिता और भाई जिंदगी भर जमीन पर ही बैठते आए थे.पर वेश भूषा को ही तो इज्जत मिलती है.

उस सज्जन ने बताया कि बरसों पहले वह लड़का उन्हें अपनी मिठाई की दुकान के पास बैठा मिला था.जब दो तीन दिन लगातार उसे एक ही जगह पर बैठा देखा तो पूछताछ की पर उसे कुछ भी मालूम नहीं था.उन्हें दया आ गयी और दुकान पर छोटे मोटे काम के लिए रख लिया.धीरे धीरे उस से अपनापन हो गया और अपने बेटे जैसा मानने लगे.उसे स्कूल भी भेजा.पर उसने आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी.

इन सज्जन की एक बेटी थी...अब ये सोचने लगे कि शिवज्योति की शादी अपनी बेटी से कर दें.पर अपने देश में शादी में सबसे पहले देखी जाती है 'जाति'.और उन्हें इस लड़के की जाति का कुछ पता नहीं.लड़के को अपना घर तक याद नहीं.उसे सिर्फ इतना याद था कि उसके गाँव के स्टेशन का नाम 'पिपरा' है और स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एक बरगद का पेड़ है.और पेड़ के सामने उसके मामा का घर.इतने से सूत्र से वे महाशय ढूंढते हुए सही जगह पहुँच गए.उन्हें लगा बरगद का पेड़ हर जगह तो नहीं होता.और उनका सोचना सही ही था.

पर इसके बाद जो कुछ भी हुआ...वह कल्पना से परे है.शालिक काका लड़के वाले बन गए और उन महाशय से जब जाति पूछी तो उनकी जाति शालिक काका की जाति से नीची थी.बस इनके भाई बन्धु सब कहने लगे नीचे घर की लड़की कैसे घर में लायेंगे?? मेरे दादाजी प्रगतिशील विचारों वाले थे .उन्होंने समझाने की बहुत कोशिश की.पर शालिक काका की बड़ी बड़ी काल्पनिक मूंछे निकल आई थीं.और उसपे ताव देते हुए, वे बेटे के बाप के गुरूर में मदमस्त थे. शिव ज्योति भी अपने आपको इतने लोगों के आकर्षण का केंद्र बना देख, उन सज्जन के किये सारे अहसान भुला बैठा.और बिलकुल श्रवण कुमार बन गया .नीची निगाह किये यही कहता रहता,'जो ये लोग बोलें'.जैसे आजकल के लड़के दहेज़ लेने के नाम पर श्रवण कुमार बन जाते हैं और सर झुकाए कहते हैं,"'हमें तो कुछ नहीं चाहिए,माता-पिता जानें".वे सज्जन,आँखों में आंसू भरे वापस लौट गए.

कुछ दिन तो शिव ज्योति गाँव का हीरो बना घूमता रहा.हर बड़े घर वाले लोग उसे अपने घर बुलाते .कुर्सी पर बिठाते,सारी कहानी सुनते.
घर की महिलाएं भी उसे आँगन में बुला उसकी खूब खातिर तवज्जो करतीं. पर कुछ ही दिन चला ये.सब फिर सबलोग अपने काम में मशगूल हो गए.शिवज्योति को गाँव का कठिन जीवन रास नहीं आया और वह बगल के शहर भाग गया और वहाँ अब रिक्शा खींचने लगा.

इस जाति की दीवार ने उस से एक अच्छे जीवन का सुख हर लिया.

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

जब जगजीत सिंह इस दर्द से रु-बरु हुए तो अकिंचन ब्लॉगर्स किस खेत की गाजर,मूली,शलजम??


आजकल ब्लॉग जगत में दो 'हॉट' टॉपिक चल रहें हैं. एक 'नारी' और दूसरी 'टिप्पणी'.रोज ही एकाध पोस्ट इन दोनों विषयों पर देखने को मिल जाती है.मैंने सोचा,मैं भी बहती गंगा में हाथ धो डालूं.वैसे भी यह पोस्ट 'वाणी गीत' की पोस्ट का एक्सटेंशन भर है.कहीं पढ़ा,ये वाकया मुझे बाद में याद आया वरना वहीँ कमेंट्स में लिख देती.

एक बार प्रसिद्द ग़ज़ल गायक 'जगजीत सिंह; का प्रोग्राम दिल्ली में था.वे अपने साजिंदों के साथ मंच पर पहुंचे.हॉल खचाखच भरा हुआ था. श्रोताओं में टाई सूट में सजे, बड़े बड़े ब्यूरोक्रेट्स थे.माहौल बिलकुल अफसराना लग रहा था.जगजीत सिंह भी बड़े उत्साह में थे. सिर्फ बड़े बड़े अफसरानों के सामने ग़ज़ल पेश करने का उनका यह पहला मौका था. उन्हे लगा बहुत ही सुखद अनुभव होगा, यह तो.उन्होंने एक ग़ज़ल गाना शुरू किया.ग़ज़ल ख़त्म हो गयी.हॉल में वैसा ही ही सन्नाटा पसरा था,जैसा ग़ज़ल शुरू करने के पहले था.दूसरी ग़ज़ल शुरू की.ख़त्म हो गयी.वैसी ही शांति बरकरार.शायद टाई सूट में सजे लोगों को ताली बजाना नागवार गुजर रहा था.अब जगजीत सिंह से रहा नहीं गया.उन्होंने तीसरी ग़ज़ल शुरू करने से पहले कहा..."अगर आप लोगों को ग़ज़ल अच्छी लग रही है. तो वाह वाह तो कीजिये.यहाँ आप किसी मीटिंग में शामिल होने नहीं आए हैं.सूट पहन कर ताली बजाने में कोई बुराई नहीं है.अगर आप ताली बजाकर और वाह वाह कर मेरा और मेरे साजिंदों का उत्साह नहीं बढ़ाएंगे तो ऐसा लगेगा कि मैं खाली हॉल में रियाज़ कर रहा हूँ."

फिर तो अपने सारे संकोच ताक पे रख कर उन अफसरानों ने खुल कर सिर्फ वाह वाह ही नहीं की और सिर्फ ताली ही नहीं बजायी.जगजीत सिंह के साथ गजलों में सुर भी मिलाये.अपनी फरमाईशें भी रखी.वंस मोर के नारे भी लगाए.जगजीत सिंह की ली गयी चुटकियों पर खूब हँसे भी.जगजीत सिंह अपने प्रोग्राम में बीच बीच में गजलों को बड़े मनोरंजक ढंग से एक्सप्लेन भी करते हैं.उनके प्रोग्राम में जाने का मौका मिला है...देखा है मैंने कैसे श्रोता हंसी से दोहरे हो जाते हैं.इन श्रोताओं ने भी गजलों का पूरा रसास्वादन लिया और उस शाम को एक यादगार शाम बना दी.

यही बात टिप्पणियों के साथ भी है.अगर पढने वाले चुपचाप पढ़कर बिना अपनी प्रतिक्रिया दिए चले जाएँ तो ऐसा लगेगा जैसे यह ब्लॉग पर नहीं ,किसी डायरी में लिखा जा रहा है.टिप्पणियों पर इतनी बातें हो चुकी हैं कि कुछ भी और कहूँगी तो दुहराव सा लगेगा.

फिर भी इतना कहना चाहूंगी कि सबकी पसंद अलग अलग होती है.किसी को कवितायें अच्छी लगती है,किसी को समसामयिक विषय तो किसी को धर्मविषयक बातें.हर ब्लॉग का पाठक वर्ग अलग होता है.इसलिए टिप्पणियों की गिनतियों पर तो कभी नहीं जाना चाहिए.क्यूंकि फिर तो 'उम्दा लेख' ,'सार्थक लेख' ,भावपूर्ण रचना', 'अच्छी लगी रचना' या 'nice ' जैसे कमेंट्स ही मिलेंगे.'रश्मि प्रभा' जी ने भी ऐसे कमेंट्स पर एक बार एक पोस्ट लिखी थी,"कंजूसी
कैसी??"
उन्होंने लिखा था ,'इस बधाई ने मुझे हताश कर दिया है, इस
नज़्म के लिए बधाई क्यूँ?..मेरी बेटी ने कहा,'दिमाग अभी चल रहा है,इसकी बधाई' "...पाठकगन (जो साथी ब्लौगर बन्धु ही हैं)...कहेंगे बहुत demanding है ये लिखने वाले?..अब थोडा तो होंगे,ना..स्वान्तः सुखाय ही सही पर लिखने में थोड़ी मेहनत तो लगती है.ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का कहना है " ये पाठक नहीं उपभोक्ता हैं,कुछ ग्रहण करते हैं यहाँ से"...फिर तो कुछ देना भी चाहिए.ये टिप्पणियाँ पारिश्रमिक जैसी ही हैं.

पर जो लोग अपनी रूचि से पढ़ते हैं और उन्हें रचना अच्छी या बुरी जो भी लगे..बताना जरूर चाहिए. यह नहीं कि कभी बाद में चैट या मेल पर बताएं कि आपकी पोस्ट तो बड़ी अच्छी लगी.अरे दो मिनट वक़्त निकाल कर वहीँ बताओ ना.अब सोचिये अगर जगजीत सिंह जी का प्रोग्राम वे लोग चुपचाप सुन लेते और कभी एयरपोर्ट या कहीं और उनसे मुलाकात होती तो उनके कानो में कह जाते,आपकी ग़ज़ल बड़ी अच्छी लगी थी.

मैं इतने महान गायक की तुलना ब्लॉगर्स के साथ नहीं कर रही.पर यहाँ संवेदनाएं एक सी हैं.अगर इतने महान गायक को यह दर्द हुआ तो हम अकिंचन ब्लॉगर्स किस खेत की गाज़र मूली शलजम हैं?

रविवार, 10 जनवरी 2010

शिक्षको को अब निभानी पड़ेगी काउंसिलर्स की भी भूमिका


मेरी पिछली पोस्ट 'खामोश और पनीली आँखों की अनसुनी पुकार" पर कई मिश्रित प्रतिक्रियाएँ मिलीं.कुछ लोग मेरी बात से सहमत थे,कुछ को ऐतराज़ हुआ और कुछ लोग इस लेख को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाए.

मैंने यह कहीं नहीं कहा कि इसके जिम्मेवार शिक्षक हैं और यह देखने की जिम्मेवारी उनकी है कि बच्चा डिप्रेशन में ना जाए.बच्चों के डिप्रेशन और आत्महत्या के लिए उनका परिवार और सामजिक परिवेश ही ज्यादा जिम्मेवार है.पर मेरा ये मानना जरूर है कि टीचर बच्चों के सबसे करीब होते हैं,इसलिए वे ज्यादा मददगार साबित हो सकते हैं.

ख़ुशी हुई यह देख कि कुछ स्कूल अधिकारी भी ऐसा ही समझते हैं. Times Of India के 9 जनवरी के अंक में एक लेख छपा है." Schools ask Teachers to be Counsellors too " इस लेख में भी टीचर्स की विशेष जिम्मेवारियों का ही उल्लेख है.बच्चों में बढ़ता डिप्रेशन और आत्महत्या की घटनाएं देख,स्कूल अधिकारी भी घबरा गए हैं और पूरी कोशिश कर रहें हैं कि उनके स्कूल में कोई ऐसी घटना ना हो. और इसके लिए वे अपने स्कूल के टीचर्स की मदद चाहते हैं.क्यूंकि स्कूल टीचर्स ही बच्चों के व्यवहार में आए बदलाव पर नजदीकी नज़र रख सकते हैं...और जरा भी शंका होने पर उसे वे काउंसलर के पास लेकर जा सकते हैं.

और इसीलिए,करीब करीब सारे स्कूल में काउंसिलर्स हैं लेकिन फिर भी स्कूल के ट्रस्टी ,प्रिंसिपल अपने टीचर्स की तरफ सहायता के लिए देख रहें हैं.

Holy Family School में सात टीचर्स को काउंसिलर्स की प्रशिक्षण दी गयी है,जबकि उनके स्कूल में दो कौंसिलार्स हैं.पर उनका मानना है कि टीचर बच्चों के ऊपर अच्छी तरह नज़र रख सकते हैं क्यूंकि,उनका बच्चों से रोज का मिलना होता है.

The Archdiocese Board of Education (ABE) जिनके अन्दर 150 स्कूल हैं.उनलोगों ने भी हर स्कूल से कुछ टीचर्स का चयन कर उन्हें प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया है ताकि वे बच्चों में डिप्रेशन के लक्षणों को पहचान सकें और उन्हें उस से बाहर लाने में मदद कर सकें.

"जमनाभाई नरसी स्कूल" ने सबसे नायाब तरीका निकला है,बच्चों का ध्यान रखने का.उन्होंने अपने स्कूल में एक स्पेशल सेल बनाया है जिसमे ९वी से १२वी कक्षा तक के कुछ बच्चों का चयन किया जाता है.और उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है.ये बच्चे अपने जूनियर क्लास के बच्चों और अपने साथियों पर नज़र रखते हैं और किसी बच्चे के व्यवहार में कोई भी बदलाव देखते हैं या उन्हें 'आत्महत्या' को लेकर मजाक करते भी सुनते हैं तो काउंसिलर के पास ले जाते हैं.

प्रत्येक स्कूल ने शिक्षकों को यह निर्देश दिया है कि बच्चों में यह भावना भरने की कोशिश करे कि "पढाई में अच्छा नहीं करने वाले लोग भी ज़िन्दगी में आगे चलकर बहुत अच्छा करते हैं.सफलता,असफलता जीवन के दो पहलू है..सिर्फ अच्छे नंबर लाना ही सबकुछ नहीं".

अभिभावकों को भी अपने बच्चों के लिए 'प्लान बी' हमेशा तैयार रखना चाहिए ताकि एक में कामयाबी ना मिले तो बच्चा अवसाद के गर्त में ना डूब जाए. बच्चों की ज़िन्दगी में हमेशा एक से ज्यादा लक्ष्य होने चाहिए.

इन स्कूलों के तर्ज़ पर ही अगर भारत का हर स्कूल यह अपनाने की कोशिश करे तो कुछ बच्चों के होठो की खोयी हुई मुस्कान फिर से लौट आएगी और असफल होने पर या किसी और तरह के दुःख का सामना वे पूरे हौसले के साथ कर पायेंगे क्यूंकि उनके कमजोर नन्हे हाथों को सहारा देने के लिए हमेशा तैयार रहेगा एक स्नेहसिक्त मजबूत हाथ.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...