संस्मरणों की रेल में डब्बे तो जुड़ते जा रहे हैं...पर इंजन अब तक दूसरे ब्लॉग पर ही मौजूद है. हाँ ! उस पोस्ट को इंजन कह सकते हैं, जिसने मेरे लेखन को ब्लॉग जगत की तरफ मोड़ा.
हिंदी ब्लॉग जगत के विषय में पता नहीं था पर चवन्नी चैप का लिंक मिला था...जिसे मैं अक्सर पढ़ लिया करती थी. एक बार वहाँ हिंदी फिल्मो से सम्बंधित किसी के संस्मरण पढ़े और मेरा भी मन हो आया कि अपने अनुभवों को भी कलमबद्ध करूँ. मैने भी अपने संस्मरण लिख कर अजय(ब्रहमात्मज) भैया को भेज दिए (.हाँ, वे मेरे भैया भी हैं.) उन्हें पसंद आई और उन्होंने पोस्ट कर दी. उस पोस्ट पर काफी कमेंट्स आए पर उस से ज्यादा लोगों ने भैया को फोन करके उस पोस्ट की चर्चा की.(आज भी,वो पोपुलर पोस्ट के रूप में दिखती है)
रंगनाथ सिंह जी का एक लाइन का कमेन्ट याद है,
"मैं तो मैडम की सरस और प्रवाहमय हिन्दी पर ही मुग्ध हुआ। संस्मरण भी बेहतरीन है।
मैं उसे बार-बार देखती,मुझे तो भरोसा ही नहीं था ,इतने वर्षों बाद ठीक से हिंदी भी लिख पाउंगी.किन्ही आलोक महाशय ने भी लिखा था....good write up here , loved some brilliant Hindi words used by you since we dont find them around much these days..... log to matlab bhi nahi samajh paate....... jaanane ki baat to door ki kaudi hai इन टिप्पणियों ने मेरे आत्मविश्वास को बहुत बल दिया. उसके बाद अजय भैया के बार-बार कहने पर मैंने "मन का पाखी' ब्लॉग बना लिया.
वहाँ एकाध संस्मरण लिखे जिसे पढ़कर चंडीदत्त शुक्ल जी ने और भी संस्मरण लिखने को प्रेरित किया. इसके साथ ही आप सब भी लगातार उत्साहवर्द्धन करते रहे और मैं इन संस्मरण में डब्बे जोडती जा रही हूँ :)
(इन सबका जिक्र मैं कई बार कर चुकी हूँ..शायद आप सब... सुन कर बोर हो गए होंगे ,पर मेरे पास , उनका आभार व्यक्त करने को शब्द कम हैं.... जिन्होंने नई राह दिखाई और उस पर चलकर ही आज आपलोगों के समक्ष अपना लिखा रख पा रही हूँ )
तो ये रहा मेरे संस्मरण रुपी रेल का इंजन :)
फिल्मे आज भी मैं काफी देखती हूँ पर हमेशा लोगो को और शायद खुद को भी यही कैफियत देती हूँ --टाइम पास का अच्छा जरिया है.....आखिर रोज रोज कहाँ जाया जा सकता है...एक अच्छी आउटिंग हो जाती है .वगैरह... वगैरह. पर हिंदी टाकिज में लोगो के संस्मरण पढ़ते पढ़ते मैंने भी अपनी यादों के गलियारे में झांक कर देखा तो पाया कि अरे! अपने मन में फ़िल्मी प्रेम के बीज तो मैं होश सँभालने से पहले ही बो चुकी थी और वक़्त के साथ उसकी शाखाएं ,प्रत्याशाखायें बस फैलती ही चली गयीं. यह सिर्फ टाइम पास नहीं फिल्मो के प्रति मेरी गहन आसक्ति ही है जो उम्र के हर दौर में, मेरे कदम थियेटर की तरफ मोड़ देती है .
यह फिल्म प्रेम शायद विरासत में मिला है क्यूंकि मेरे जन्म से पहले ही, मेरे घर में 'धर्मयुग' 'Illustrated Weekely ' और 'Blitz ' के साथ एक फ़िल्मी पत्रिका 'माधुरी ' भी आती थी। जिसे हमने देखा भर है पढ़ा नहीं क्यूंकि जब हम भाई बहन पढने लायक हुए तो 'नंदन' 'पराग' 'चंदा मामा' तो आने शुरू हो गए पर माधुरी बंद कर दी गयी. पापा ने पत्रिका तो बंद कर दी पर फिल्मे दिखाना नहीं बंद किया. पापा की पोस्टिंग पटना के पास एक छोटी सी जगह 'हरनौत' में थी. शायद वहां कोई पिक्चर हॉल नहीं था क्यूंकि पापा हमें फिल्मे दिखने 'बिहार शरीफ' ले जाते थे. वहां हमने 'कई फिल्मे देखीं...नाम खुद तो याद नहीं,पर पापा- मम्मी की बातचीत से पता चला था ...अनमोल मोती' ' नन्हा फ़रिश्ता' 'जिगरी दोस्त' जैसी फिल्मे देखी गयीं थीं. कुछ दृश्य जरूर याद हैं. औक्टोपस से लड़ते जितेन्द्र, एक प्यारी सी रोती नन्ही बच्ची और कई सारे खिलौनों से उसे बहलाने की कोशिश करते तीन डरावने लोग और पूरे कपड़ो में (शायद) नहाती एक लड़की . 'हरनौत' में हमारा घर पहली मंजिल पर था और गलीनुमा सड़क के पार ठीक हमारे घर के सामने एक अंकल रहते थे.पापा और वे अंकल अक्सर अपनी अपनी बालकनी में खड़े होकर बाते किया करते थे. उन अंकल के पास एक प्रोजेक्टर था. कभी कभी वे अपनी बालकनी में सफ़ेद चादर लगाते और प्रोजेक्टर से फिल्मे दिखाते थे.आस पड़ोस के लोग हमारी बालकनी में बैठकर उस फिल्म का आनंद लेते.पर कौन सी फिल्म होती थी क्या नाम थे ,मुझे कुछ याद नहीं ,बस परदे पर हिलती डुलती कुछ सफ़ेद काली मानव आकृतियाँ ही याद हैं .
फिर पापा का ट्रांसफ़र 'मोतीपुर' हो गया जो मुजफ्फरपुर के पास एक छोटा सा क़स्बा था।वहीँ पर मेरे 'फिल्म प्रेम' का बीज अनुकूल हवा,पानी,खाद,पाकर पल्लवित पुष्पित होने लगा. घर से दस कदम की दूरी पर एक छोटा सा थिएटर था. उस थिएटर में मम्मी,पापा तो नहीं जाते थे पर मुझे और मेरे दो छोटे भाइयों को कभी नौकर .कभी चपरासी तो कभी महल्ले के बाकी बच्चो के साथ फिल्म देखने की इजाजत थी .छोटा सा हॉल था जिसमे लेडीज़ क्लास अलग था और सारे बच्चे भी वहीँ बैठते थे. जैसा अमूमन उन दिनों छोटे शहरों में होता था, इस थिएटर में भी 'जेनरेटर' की व्यवस्था नहीं थी.यानी बिजली गयी तो फिल्म बंद. बिजली चले जाने पर हमारी पलटन शोर मचाती,दौड़कर घर आ जाया करती थी. पर हम घर के अन्दर नहीं आते ,बाहर ही उधम मचाया करते और जैसे ही बिजली आती,दौड़कर फिर हॉल की तरफ सरपट भागते. एक बार काफी देर तक बिजली नहीं आयी तो मम्मी ने घर के अन्दर आकर खाना खाने का आदेश दिया. अभी हमने खाना शुरू किया ही था कि बिजली आ गयी और हम थाली छोड़कर भागे. छोटे भाई ने तो जूठे हाथ तक नहीं धोये थे ,मम्मी ने जबरदस्ती पकड़कर धुलवाये . उसका एक हाथ से सरकती पैंट संभाले पीछे-पीछे रोते हुए आना,अब तक आँखों के सामने है
मेरे लाल,बैजू बावरा,धर्मपुत्र जैसी कई ब्लैक एन व्हाइट फिल्म देखी वहां . एक बार उस थिएटर में 'राजेश खन्ना' और वहीदा रहमान' अभिनीत 'खामोशी' फिल्म लगी. मम्मी को ये फिल्म देखनी थी सो उन्होंने पड़ोस में रहने वाली वीणा दी के साथ नाईट शो जाने का प्लान बनाया. मैंने और मेरे सबसे छोटे भाई, 'पुष्कर' ने भी बहुत जिद की. मम्मी ने 'पुष्कर' को तो मना कर दिया पर मुझे ले जाने को मान गयीं. भाई जोर जोर से रोने लगा तो फूलदेव उसे छत पर बहलाने ले गया. मैं जैसे ही उनलोगों के साथ जाने को निकली कि पापा ने कहा "ये क्यूँ जा रही हैं? इन्हें क्या समझ आएगा?" और मैं नहीं गयी. वो गर्मियों के दिन थे और हम छत पे सोया करते थे.आज भी याद है,कैसे हम दोनों भाई बहन एक दूसरे के गले में बाहें डाले,सुबकते सुबकते सो गए थे.
पहली पूरी फिल्म जो मुझे याद है वो थी 'उपहार' जो हमने अपने पुरे परिवार के साथ मुजफ्फरपुर के 'शेखर टाकीज 'में देखी थी।फिल्म बहुत ही अच्छी लगी थी और आज भी हमारी पसंदीदा फिल्मो में से एक है. अभी भी मुझे याद है जया भादुड़ी को स्लेट पर 'क ख ''लिखते देख मेरे छोटे भाई ने कैसे चिल्ला कर कहा था 'अरे!! इतनी बड़ी हो गयी है और इसे लिखना भी नहीं आता?' सब लोग मुड कर देखने लगे थे और मैं शर्म से पानी पानी हो गयी थी. मुजफ्फरपुर ले जाकर हमें चुनिन्दा बच्चों वाली फिल्मे ही दिखाई जाती.वहां के 'शेखर' 'दीपक' 'अमर' 'प्रभात' टाकिज में कई फिल्मे देखीं जैसे परिचय,बावर्ची, कोशिश अनुराग,सीता गीता...आदि
इन फिल्मो के देखने के बाद तो मैं जया भादुड़ी की जबरदस्त फैन हो गयी. किसी भी पत्रिका में उनकी छपी फोटो या आर्टिकल देखती तो तुंरत काटकर जमा कर लेती. हाल में ही मैंने 'सुकेतु मेहता' की लिखी किताब 'Maximum City 'पढ़ी ..उसमे उन्होंने अमिताभ बच्चन के ड्राईंग रूम में लगी एक पेंटिंग का जिक्र किया है जिसमे कुछ बच्चे बायस्कोप देख रहे हैं. (शायद सुकेतु मेहता को भी ये नहीं पता (वरना अपनी किताब में इसका जिक्र वो जरूर करते) कि दरअसल वो पेंटिंग नहीं है बल्कि सत्यजित राय की फिल्म महानगर के एक दृश्य की तस्वीर है जिसमे उन बच्चों में फ्रॉक पहने जया भादुरी भी हैं. ये फोटो भी मैंने किसी पत्रिका से काटकर अपने संकलन में शामिल कर ली थी और काफी दिनों तक मेरे पास थी. जया, भादुड़ी से बच्चन बन गईं, फिल्मो में काम करना छोड़ दिया पर मेरी loyalty वैसी ही बनी रही. जब एक फिल्म फेयर अवार्ड में उन्होंने मंच पर से कड़क आवाज में सारे नए अभिनेता,अभिनेत्रियों को उनकी अनभिज्ञता पर जोरदार शब्दों में डांट पिलाई (क्यूंकि किसी अभिनेत्री ने सुरैया के निधन की खबर सुनकर बड़ी अदा से यह पूछा था "वाज सुरैया मेल औ फिमेल?")तो उनके प्रति आदर और बढ़ गया .ऐसे ही एक बार सिमी गरेवाल के टॉक शो में जया कुछ बता रही थीं और अमिताभ ने बार बार 'अ..अ' कहते हुए उन्हें टोकने की कोशिश तो की पर पूरी तरह टोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाए तो बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ,इतना बड़ा सुपरस्टार जिसे हिंदुस्तान में तो क्या विश्व में भी कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता पर हमारी आइडल ने कोई भाव ही नहीं दिया .खैर ये लिबर्टी जया ने शायद उनकी पत्नी होने के नाते ली थी.लेकिन उनका प्रखर व्यक्तित्व समय के साथ कभी धूमिल नहीं हुआ.
देख ली न आपलोगों ने बानगी, जया की बात निकली तो फिर दूर तलक गयी।लौटते हैं अपने हिंदी टाकिज की ओर.फिर मैं हॉस्टल में रहने चली गयी. फिल्म देखना करीब,करीब बंद. पर हॉस्टल में मेरे फ़िल्मी ज्ञान का सिक्का जम गया क्यूंकि मैं जब छुट्टियों में घर जाती तो 'धर्मयुग' में नयी नयी फिल्मों की समीक्षाएं पढ़कर अपनी उर्वर कल्पनाशक्ति से ऐसा खाका खींचती कि सब समझते ,मैं वह फिल्म देखकर आयी हूँ जबकि मैंने कोई ब्लैक एन व्हाइट या कोई सुपर फ्लॉप रंगीन फिल्म देखी होती,एक हमारी सिनियर थीं ,चंद्रा दी, वो भी फिल्मो की शौकीन थीं और सचमुच में फिल्मे देखा करती थीं.एक बार उन्होंने किसी फिल्म के एक दृश्य की चर्चा की और मैं इधर उधर देखते हुए बात बदलने की कोशिश करने लगी.वो समझ गईं ,मैंने वो फिल्म नहीं देखी है ,पर शुक्रगुजार हूँ उनकी,उन्होंने मेरी पोल नहीं खोली.:)
कुछ सालों बाद,पापा का ट्रान्सफर समस्तीपुर हो गया।यहाँ पापा अपने काम में काफी व्यस्त हो गए और फिल्मों में उनकी दिलचस्पी ख़त्म सी हो गयी. हालाँकि समस्तीपुर में तीन अच्छे सिनेमा हॉल थे. सपरिवार फिल्म देखना तो बंद हो गया पर मम्मी कभी कभी फिल्म दिखाने ले जातीं. एक बार अचानक हमलोगों ने 'नूरी' फिल्म देखने का प्लान किया. झटपट रिक्शा लेकर भोला टाकिज पहुंचे और टिकट लेकर अन्दर चले गए. परदे पर 'पूनम ढिल्लों' के ताजे खिले मासूम चेहरे की जगह जब रेखा की तीखे नैन नक्श वाली सांवली सलोनी सूरत नज़र आयी तो तसल्ली हुई,चलो हमने फिल्म मिस नहीं की,ये तो ट्रेलर चल रहा है.पर जब काफी देर तक ट्रेलर ख़त्म नहीं हुआ तो हमें शक हुआ कि 'नूरी' फिल्म बदल चुकी है.हमने जल्दबाजी में सामने लगे पोस्टर पर नज़र ही नहीं डाली और अन्दर चले आये. अब बगलवाले से पूछें कैसे? कितना बेवकूफ समझेंगे हमें.तभी अमिताभ बच्चन ने 'खून पसीने की जो मिलेगी तो खायेंगे.....' गाना शुरू किया और हम समझ गए ये फिल्म है 'खून पसीना' समस्तीपुर में एक सहेली बनी 'सीमा प्रधान' जो ठीक भोला टाकिज के सामने रहती थी. {पिछले कुछ साल से हम बिछड़ गए हैं....हर समस्तीपुर वाले से दोस्ती का हाथ बढ़ाती हूँ कि शायद उसका पता मिल जाए...पर अब तक निराशा ही हाथ लगी है..:(}
उसके साथ मैंने बहुत सारी फिल्मे देखीं. भोला टाकिज में रविवार को मार्निंग शो सिर्फ लड़कियों के लिए रिजर्व रहता था. उस शो में फिल्मे देखने का अपना ही मजा था. शोर मचाना, कमेंट्स करना, जोर जोर से गाने गाना, कई लड़कियां तो सिटी भी बजाती थीं,यानी 'पूरा अपना राज़' एक बार पड़ोस में रहने वाली सुधा और बिंदिया को मार्निंग शो में एक फिल्म देखनी थी,वो लोग मुझसे भी जिद करने लगीं,चलने को. पर मैं सीमा को इत्तला नहीं कर पायी थी. मुझे याद है,सुबह सुबह मैं उसके घर जा धमकी. सीमा सो रही थी,उसे बिस्तर से उठाया,किसी तरह ५ मिनट में तैयार होकर,वह हमारे साथ फिल्म देखने आ गयी. ऐसा था उन दिनों फिल्मो का बुखार. पर हमलोग गिनी चुनी अच्छी फिल्मे ही देखते थे और परीक्षा के आस पास फिल्मों का नाम भी नहीं लेते थे,शायद इसीलिए हमारे अभिभावकों ने कभी मना भी नहीं किया.हाँ!अगर कभी पापा, घर में फिल्मो की चर्चा करते सुन लेते तो जरूर कहते "तीन घंटे हॉल में और बाकी तीन घंटे घर में,ये गलत बात है" और हम सब चुप हो जाते.
मैं स्कूल हॉस्टल से कॉलेज हॉस्टल में आ गयी.पर वह हॉस्टल था या जेल? आज भी नहीं सोच पाती, कैसे हम महीनो उस चारदीवारी में कैद रहते थे? जहाँ कालेज गेट तक जाने की इजाज़त नहीं थी,उन दिनों वार्डेन से छुट्टी लेकर बाहर जाने की भी अनुमति नहीं थी.पर हम उसी दुनिया में खुश रहते थे.कभी कभी मेरी लोकल गार्जियन बुआ अपने घर ले जाती और अपनी बेटी के साथ ले जाकर सिनेमा भी दिखा लातीं.
एक बार मुझे कालेज से भी फिल्म देखने जाने का मौका मिला था।जब मैं फाईनल इयर में थी.कालेज फेस्टिवल को सफल बनाने में हमने बहुत मेहनत की थी. रात दिन एक करके पोस्टर बनाए थे. स्टाल लगवाए थे. एक लेक्चरार राधिका दी कि देखरेख में सारा इन्तजाम हम छह लड़कियों ने किया था.प्रिंसिपल बहुत खुश हुईं और हमें इनामस्वरूप राधिका दी के संरक्षण में एक फिल्म देखने कि अनुमति दी.राधिका दी को शायद ज्यादा रूचि नहीं थी. उन्होंने प्रिंसिपल से तो कुछ नहीं कहा पर हमलोगों से बोलीं 'तुमलोग चली जाना ,मुझे कुछ काम है ' बाकी सारी लड़कियां ख़ुशी से उछल पड़ीं और कल नून शो में कौन सी फिल्म देखी जाए,इसका प्लान करने लगीं. पर मैं डर गयी क्यूंकि बाकी सब लड़कियां dayscholar थीं अकेली मैं ही हॉस्टल से थी. डर लगा अगर किसी जान पहचान वाले ने देख लिया तो सोचेंगे, मैं हॉस्टल से भागकर फिल्मे देखती हूँ.सहेलियों ने समझाया भी 'अगर पूछे तो सच बता देना, प्रिसिपल ने खुद परमिशन दी है'पर मुझे पता था,सामने से कोई नहीं पूछेगा,सब एक दुसरे को बताएँगे और सारे रिश्तेदारों में बात फ़ैल जायेगी और अगर मम्मी ,पापा तक बात पहुँच गयी तो समझो, शामत.
सहेलियों ने इसका भी हल ढूंढ निकाला।किसी लड़की से चार घंटे के लिए बुरका उधार लेने की बात भी कर डाली.शायद फिल्म देखने से भी ज्यादा थ्रिल, बुरका पहनने का था ,मैं भी सहर्ष तैयार हो गयी.सब बहुत उत्साहित थे और तय किया, एक बार हॉस्टल चलकर बुर्के का ट्रायल कर लिया जाए ताकि सड़क पर चलने में कोई परेशानी न हो.सब सहेलिया भी एक एक बार पहन कर देखना चाहती थीं.हमारे कालेज के कॉमन रूम में एक रैक पर लड़कियां अपना बुरका रखती थीं.हमने उस लड़की से इजाज़त लेकर बुरका लिया और हॉस्टल कि तरफ प्रस्थान किया.पर जैसे ही मैंने बुरका पहनने का उपक्रम किया,पसीने और परफ्यूम की मिलीजुली गंध का ऐसा झोंका आया कि मेरी सांस रूकती सी लगी.फिर तो किसी ने भी बुरका पहन कर देखने का साहस नहीं किया. हम एक दूसरे पर उसे गोल करके फेंकते रहे और पेट पकड़ कर हँसते रहे मैंने जीवन में बुरका पहनने और कॉलेज से जाकर सिनेमा देखने का एकमात्र सुनहरा मौका खो दिया.
(जारी...)