शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

हंगामा है क्यूँ बरपा... 'वैलेंटाइन डे'.. एक दिन ही तो है...

पिछली कुछ  पोस्ट्स में बड़ी गंभीर बातें हों गयीं...आगे भी एक लम्बी कहानी पोस्ट करने का इरादा है...(पब्लिकली  इसलिए कह दिया ताकि कहानी पोस्ट करने में अब और देर ना कर सकूँ :)} पर इसके बीच कुछ हल्की-फुलकी बातें हो जाएँ . 

'वेलेंटाइन डे' अभी-अभी गुजरा है......अखबार..टी .वी...सोशल नेटवर्क...सब जगह इसके पक्ष-विपक्ष में बातें होती रहीं...पक्ष में तो कम..जायदातर आलोचना ही होती रही कि 'प्यार का एक ही दिन क्यूँ मुक़र्रर है'..वगैरह..वगैरह...पर इतना हंगामा क्यूँ है बरपा..इस एक दिन के लिए......यूँ भी कोई भी कपल...कितने बरस ये वेलेंटाइन डे मनायेगा?..एक बरस...दो बरस...इस से ज्यादा बार 'वेलेंटाइन डे' की किस्मत में एक कपल का साथ नहीं लिखा होता...जन्मदिन या वैवाहिक वर्षगाँठ  जरूर सालो साल मनते रहते  हैं.

जून २०११ को एक मित्र की शादी हुई. १३ फ़रवरी २०११ यानि वैलेंटाइन डे के एक दिन पहले ...उनकी प्रेमिका ने मुंबई से हैदराबाद कोरियर करके  Bournville chocolate  का एक डब्बा भेजा .उस चॉकलेट के विज्ञापन में यह संदेश रहता था.."यु हैव टु अर्न इट "..यानि की इस चॉकलेट के हकदार बनने के लिए आपको कुछ  करना होगा. वे मित्र महाशय हैदराबाद से फ्लाईट ले १४ फ़रवरी की सुबह...मुंबई पहुँच हाथों में फूलों का गुलदस्ता लिए अपनी माशूका के दर पर हाज़िर .साबित कर दिया कि वे उस चॉकलेट के हकदार हैं. 

इस बार वैलेंटाइन डे की पूर्वसंध्या पर हमने पूछा.." कल क्या ख़ास प्रोग्राम है?" 
बोले.."कुछ नहीं..पत्नी तो मायके में है"
"पर पिछले साल भी तो वो मायके में ही थी" मैने कह दिया.
"वीकडेज़ है...छुट्टी कहाँ.." उनका अगला जबाब था.
"लास्ट इयर भी तो वीकडेज़ ही था.." मैं कहाँ छोड़ने वाली थीं..
"तब और बात थी..." स्क्रीन के पार दिखा नहीं..पर खिसियानी सी हंसी जरूर होगी उनके चेहरे पर.
"इस बार भी छुट्टी तो ली ही जा सकती है" मुझे मजा आ रहा था उन्हें ग्रिल करने में.
"अभी ड्यू डेट के समय तो लेनी ही पड़ेगी ना...इसलिए छुट्टियाँ बचा रहा हूँ.." मुझे पता था उनकी पत्नी 'फैमिली वे' में हैं.
आगे मैं कुछ कहती कि "गौट टु गो "..कहकर उन्होंने जान छुड़ा ली.
यही एक साल पहले वैलेंटाइन डे कैसे बिताया..उसके किस्से वे विस्तार से सुना रहे थे और अब...उस दिन के जिक्र से ही जान छुडाने लगे थे. 

ऐसे ही कुछ और किस्से ध्यान में हैं...कैसे शादी के दूसरे-तीसरे साल...पहली बार वैलेंटाइन डे पर दिए गए कार्ड और गिफ्ट्स देखकर गुजरते हैं...पर हम तो अपनी कथा सुनाने जा रहे हैं...जिन लोगों ने वैलेंटाइन डे सेलिब्रेट किया होता है...उनका तो ये हाल है..जिन्होंने इस चिड़िया का नाम ही शादी के कई साल बाद सुना होता है...उनका ये दिन कैसे गुजरता है...:)

(दो साल पुरानी पोस्ट  है..पर एक फ्रेंड के पूछने पर कि 'कैसा रहा आपका वैलेंटाइन डे? 'उसे ये लिंक दिया तो दुबारा फिर से पढ़कर बड़ी हंसी आई...अब अकेले हंसने का क्या मजा...आप सब भी साथ दीजिये..:)}

(इतने छोटे थे..जब कार्ड बनाया था )
काफी साल पहले की घटना है, जब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे पर मुंबई में 'वैलेंटाइन डे' की धूम कुछ ऐसी ही रही होगी, तभी तो इनलोगों ने अपने टीचर से पूछा होगा कि ये 'वैलेंटाइन डे' क्या बला है? और टीचर ने इन्हें बताया कि आप जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं , इस दिन,उसे कार्ड ,फूल और गिफ्ट देकर विश करते हैं. अब बचपन में बच्चों की सारी दुनिया माँ ही होती है (एक बार छुटपन में मेरे बेटे ने एक पेंटिंग बनायी थी जिसमे एक घर था और एक लड़का हाथों में फूल लिए घर की तरफ जा रहा था...मैंने जरा उसे चिढ़ा कर पूछा ,"ये फूल, वह किसके लिए लेकर जा रहा है?" और उसने भोलेपन से कहा था,"अपनी ममी के लिए" ) . अब टीचर की इस परिभाषा पर दोनों बच्चों ने कुछ मनन किया और मेरे लिए एक कार्ड बनाया और गुलदस्ते से एक प्लास्टिक का फूल ले कर कार्ड के साथ सुबह सुबह मेरे तकिये पर रख गए...पता नहीं दोनों इतनी सुबह उठ कैसे गए....मेरी आँखें खुली तो दोनों भागते हुए नज़र आए और दरवाजे से झाँक रहे थे.

इनलोगों के स्कूल जाने के बाद मैंने सोचा,कुछ अलग सा करूँ.? बच्चों ने कार्ड दिया है तो कुछ तो करना चाहिए और मैंने सोचा..जब मेहमान आते हैं तभी ढेर सारी,डिशेज बनती हैं. क्रौक्रीज़ निकाली जाती हैं. सफ़ेद मेजपोश बिछाए जाते हैं..चलो आज सिर्फ घर वालों के लिए ये सब करती हूँ. मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ पर घर में बाकी सब नौनवेज़ के शौक़ीन हैं.सोचा,एक ना एक दिन तो बनाना शुरू करना ही है,आज ही सही....मैंने पहली बार फ्रोजेन चिकेन लाया और किसी पत्रिका में से रेसिपी देख बनाया. स्टार्टर से लेकर डेज़र्ट तक. बच्चे समझे कोई डिनर पर आ रहा है...जब ये लोग शाम को खेलने गए तब मैंने सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ भी निकाल कर लगा दी. दोनों बेटे बड़े खुश हुए और मैंने देखा किंजल्क मेरी महंगी परफ्यूम प्लास्टिक के फूलों पर छिड़कने लगा,. जब मैंने डांटा तो बोला,'मैंने टी.वी. में देखा है,ऐसे ही करते हैं"...जाने बच्चे क्या क्या देख लेते हैं.मैंने तो कभी नोटिस ही नहीं किया.

खैर सब कुछ सेट करने के बाद मैंने पतिदेव को फोन लगाया. उनके घर आने का समय आठ बजे से रात के दो बजे तक होता है. हाँ, कभी मैं अगर पूरे आत्मविश्वास से सहेलियों को बुला लूँ...कि वे तो लेट ही आते हैं तो वे आठ बजे ही नमूदार हो जाएंगे  या फिर कभी मैं अगर बाहर से देर से लौटूं तो गाड़ी खड़ी मिलेगी नीचे. ये टेलीपैथी यहाँ उल्टा क्यूँ काम करती है,नहीं मालूम. :(

फोन पर कहा....."आज तो बाहर चलेंगे,मैंने खाना नहीं बनाया है.'
 वे बोले, "अरे, कहाँ इन सब बातो में पड़ी हो"..
मैंने कहा "ना....when u r in rome do as romans do इसलिए खाना तो बाहर ही खायेंगे". 
 'मुझे लेट होगा बाहर से ऑर्डर कर लो'.
(स्कूल के दिन )
"'ठीक है, पर बच्चे वेट कर रहें हैं,सुबह कार्ड बना कर दिया है, डिनर तो साथ में ही करेंगे' " ...फिर या तो मैं फोन करती या मुझे फोन करके बताया जाता कि,अभी थोड़ी देर और लगेगी. आखिर 11 बजे मैंने कहा,"अब अगर एक बजे आयेंगे तब भी एक बजे ही सब डिनर करेंगे" और फोन रख दिया 

बच्चों को तो मैंने खिला दिया ,उनका साथ भी दिया और इंतज़ार करने लगी. पति एक
बजे ही आए और आते ही बोला, "तुमने ऐसा एक  बजे कह दिया की देखो एक ही बज गए" 
कहीं पढ़ा था, "workaholic hates surprises "अब तो यकीन भी हो ही गया .

वो दिन है और आज का दिन है,सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ मेहमानों के आने पर ही निकलते हैं. 


कुछ साल बाद एक बार 14th feb को ही मेरे बच्चों के स्कूल में वार्षिक प्रोग्राम था. दोनों ने भाग लिया था.मुंबई में जगह की इतनी कमी है कि ज्यादातर स्कूल सात मंजिलें होते हैं. स्कूल कम,5 star होटल ज्यादा दीखते हैं. क्लास में G,H तक devision होते हैं, लिहाज़ा वार्षिक प्रोग्राम भी ३ दिन तक चलते हैं और रोज़ दो शो किये जाते हैं,तभी सभी बच्चों के माता-पिता देख सकते हैं. उस बार भी इन दोनों को दो शो करने थे यानि सुबह सात से शाम के ६ बजे तक स्कूल में ही रहना था. मुझे फर्स्ट शो में सुबह देखने जाना था,और उसके बाद मैं घर पर  अकेली रहने वाली थी.

यूँ ही झींक रही थी कि अकेली रहूंगी,खुद के लिए क्या बनाउंगी ,क्या खाऊँगी..पतिदेव ने दरियादिली दिखाई और कहा, 'मेरा ऑफिस रास्ते में ही है,प्रोग्राम के बाद वहीँ चली आना,लंच साथ में करते हैं'."मैंने चारो तरफ देखा, ख़ुदा नज़र तो नहीं आया पर जरूर आसपास ही होगा, तभी यह चमत्कार संभव था, वरना ऑफिस में तो बीवी का फोन तक उठाना मुहाल है. और यहाँ लंच की दावत दी जा रही थी.जरूर पिछले जनम में मैंने गाय को रोटी खिलाई होगी.:)

खैर प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद मेरी सहेली ने मुझे ऑफिस के पास ड्रॉप कर दिया और हम पास के एक रेस्टोरेंट में गए. वहाँ का नज़ारा देख तो हैरान रह गए. पूरा रेस्टोरेंट कॉलेज के लड़के लड़कियों से खचाखच भर हुआ था. हम उलटे पैर ही लौट जाना चाहते थे पर हेड वेटर ने this way sir ...please this way कह कर रास्ता रोक रखा था. पति काफी असहज लग रहें थे,मुझे तो आदत सी थी. मैं अक्सर सहेलियों के साथ इन टीनेजर्स की  भीड़ के बीच CCD में कॉफ़ी पी आती हूँ.  बच्चों के साथ ' Harry Potter ' की सारी फ़िल्में भी देखी हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं थी. पर नवनीत का चेहरा देख ,ऐसा अलग रहा था कि इस समय 'इच्छा देवी' कोई वर मांगने को कहे..तो यही मांगेंगे कि 'मुझे यहाँ से गायब कर दे.'. वेटर हमें किनारे लगे सोफे की तरफ चलने का इशारा कर रहा था. पर नवनीत के पैर जैसे जमीन से चिपक से गए थे. मुझे भी शादी के इतने दिनों बाद पति के साथ कोने में बैठने का कोई शौक नहीं था,पर सुबह से सीधी बैठकर पीठ अकड सी गयी थी, सोफे पर फैलकर आराम से बैठने का मन था. शायद नवनीत मेरा इरादा भांप गए और दरवाजे के पास छोटी सी एक कॉफ़ी टेबल से लगी कुर्सी पर ही बैठ गए, जैसे सबकी नज़रों के बीच रहना चाहते हों. वेटर परेशान था,'सर इस पर खाना खाने में मुश्किल होगी',...'नहीं..नहीं हमलोग कम्फर्टेबल हैं..जल्दी ऑर्डर लो.

मूड का तो सत्यानाश हो चुका था..और पतिदेव पूरे समय गुस्से में थे, बीच बीच में बोल पड़ते "इन बच्चों को देखो,कैसे पैसे बर्बाद कर रहें हैं:..माँ बाप बिचारे किस तरह पसीने बहा कर पैसे कमाते हैं और इनके शौक देखो'.वगैरह..वगैरह" ...मैंने चुपचाप खाने पर ध्यान केन्द्रित कर रखा था. ज्यादा हाँ में हाँ मिलाती तो क्या पता कहीं खड़े हो एक भाषण ही ना दे डालते वहाँ. वेटर ने डेज़र्ट के लिए पूछा तो उसे भी डांट पड़ गयी,'"अरे टाईम कहाँ है, जल्दी बिल लाओ"..

जब बाहर निकल, गाड़ी में बैठी तो नाराज़गी का असली कारण पता चला, उन्हें लग रहा था कि सब सोच रहें होंगे वे भी ऑफिस से किसी के साथ लंच पर आए हैं. मन तो हुआ कह दूँ कि,'ना..जिस तरह से आप सामने वाली दीवार घूर रहे थे और चुपचाप खाना खा रहे थे,सब समझ गए होंगे हमलोग पति-पत्नी ही हैं.'...या फिर कहूँ 'ठीक है अगली बार से पूरी मांग भरी सिंदूर और ढेर सारी चूड़ियाँ पहन कर आउंगी ताकि सब समझ जाएँ कि आपकी पत्नी ही हूँ.'पर शायद उनके ग्रह अच्छे थे,ऑफिस आ गया और मेरी बात मुल्तवी हो गयी.

दूसरे दिन सहेलियों को एक दूसरे से पता चला और सबके फोन आने शुरू हो गए,सबने चहक कर  पूछा ,"'क्या बात है...सुना,पति के साथ 'लंच डेट' पर गयी थी,कैसा रहा?'..और मेरा पूरा अगला दिन सबको ये किस्सा सुनते हुए बीता.आज यहाँ भी सु
ना दिया.

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

"देवी' शब्द के प्रयोग पर देवियों और सज्जनों के दृष्टिकोण

मर्लिन मनरो के नाम की  बिल्डिंग 
कोई आलेख या पुस्तक पढ़कर उसके अंश  अपने ब्लॉग पर शेयर करने पर सिर्फ दूसरों से ये जानकारी बांटने का संतोष ही नहीं मिलता...बल्कि उनमे कुछ और नई जानकारियाँ भी जुड़ जाती हैं. अविनाश चन्द्र  बड़े अच्छे कवि हैं...और एक सजग पाठक भी. उन्होंने मर्लिन मनरो वाली पोस्ट पढ़ कर बताया कि उन्होंने भी पुष्पा भारती द्वारा लिखी यह पुस्तक पढ़ रखी  है पर अब उसका नाम 'शुभागता' से बदलकर 'प्रेम पियाला' रख दिया गया है. मैने प्रथम संस्करण पढ़ा था जो १९७० में छपी थी और तब मूल्य था  ८ रुपये.   'शुभागता' कितना सुन्दर और साहित्यिक नाम है..पर यह नया नाम शायद प्रकाशकों ने मार्केटिंग को ध्यान में रख कर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए रखा  हो. पता नहीं पुष्पा जी की राय ली गयी थी या नहीं.... शायद ली भी गयी हों और वे भी मान गयीं हों.

समीर लाल जी ने भी एक बड़ी रोचक जानकारी दी. उन्होंने बताया कनाडा में मर्लिन मनरो नाम की एक बिल्डिंग भी बनी है...जिसका निर्माण उनकी देहयष्टि के अनुरूप रखने  की कोशिश की गयी है. उन्होंने उस बिल्डिंग की तस्वीर भी भेजी .(बाईं  तरफ तस्वीर देखी जा सकती है.)

एक और रोचक वाकया हुआ इस पोस्ट के साथ....एक सज्जन ने इस पोस्ट के शीर्षक पर आपत्ति करते हुए एक मेल भेजा...

आदरणीय रश्मि जी 
आपकी पोस्ट " सौन्दर्य देवी : मर्लिन मनरो " देखी आपने काफी विस्तृत जानकारी दी है . मर्लिन मनरो के विषय में ...लेकिन एक व्यक्ति विशेष के लिए देवी शब्द का प्रयोग करना अच्छा नहीं लगा .....इस विषय से तो आप अवगत ही हैं कि हमारे यहाँ " देवी " शब्द कितना पवित्र और कितना गहरा प्रभाव रखता है ....इसलिए ऐसे के प्रयोग के लिए हमें संवेदनशील होने के साथ - साथ इनकी महता का भी ध्यान रखें तो बेहतर है .....! 

मेरा मन दुविधा में पड़ गया...क्या सचमुच मैं गलत हूँ??....'सौन्दर्य  देवी' लिखना सही नहीं है? और मैने सोचा मित्रों की राय ली जाए...जैसा उन सबका विचार होगा..उसीके अनुसार शीर्षक में संशोधन किए जाएंगे. मैने यह मेल उन सज्जन का नाम लिए बगैर फेसबुक पर शेयर कर दी ( वे सज्जन भी चाहते तो कमेन्ट  में अपनी बात कर सकते थे पर उनकी इच्छा किसी विवाद की नहीं थी..इसीलिए उन्होंने मेल किया...इसलिए मुझे भी लगा...उनका नाम लेना उचित नहीं होगा ) 

वहाँ मित्रों ने इतना मनन कर के इतनी अच्छी प्रतिक्रिया दी...कि 'देवी' शब्द पर एक अच्छा-खासा शोध ही हो गया. और लगा...इसे अपने ब्लॉग दोस्तों से भी  शेयर करना चाहिए.आप भी देखें..

Aradhana Chaturvedi अपनी-अपनी सोच है. मुझे तो इसमें कोई आपत्ति नज़र नहीं आती.  .असल में 'देवी' शब्द पवित्र है या सांकेतिक यह उसके प्रयोग पर निर्भर करता है. हमारेयहाँ सुंदरता की देवी 'रति' है और देवता 'कामदेव'. 'रति' को तो उतना पवित्र नहीं माना जाता. 

Rashmi Prabha यह शब्द मर्लिन मुनरो के सौन्दर्य के लिए प्रयुक्त है ... 
और असीम सौन्दर्य हो तो सौन्दर्य की देवी से तुलना अतिशयोक्ति नहीं ...

Sangita Puri सभी महिलाओं के उपनाम में 'देवी' शब्‍द सुशोभित रहता है 

Sonal Rastogi मुझे इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं लगती ...लोग अपने नाम के साथ 
देवता शब्द लगा लेते है उनसे पवित्रता का certificate 
कोई नहीं माँगता ....खैर वो बेहद खूबसूरत थी.

Satish Pancham रश्मि प्रभा जी के कमेंट को मेरा भी कमेंट माना जाय। वैसे भी कई जगह 
देखने में आया है कि नाटकों आदि में पात्र आपसी 
 सम्बोधन में - देवी.......से शुरूवात करते हैं फिर सामने वाला कैसा भी चारित्रिक दोषरहित/ 
सहित क्यों न हो।

Vandana Gupta देवी शब्द का प्रयोग धार्मिक दृष्टि से नही किया गया दूसरी बात ये हमारी 
संस्कृति है पहले लोग नाम के साथ देवी शब्द लिखा  
करते थे जो सम्मानसूचक होता था तीसरी बात सुन्दरता की देवी एक प्रशंसात्मक सांकेतिक 
प्रयोग है जो किसी वास्तव मे सुन्दर रूप को कहा जाता 
है तो इसमे देवी का शब्द का अर्थ अलग हो जाता है इसलिये अलग अलग दृश्यों मे अलग अलग 
अर्थ होते हैं जिन्हे एक दूसरे से नही जोडना चाहिये।

Satish Pancham फूलन देवी भी एक नाम...:)

सर्वाधिक विस्तार से सलिल जी ने लिखा..

Salil Varma देवी (एक संबोधन):

हमारे देश की यह भी परम्परा है कि हम किसी भी व्यक्ति को सम्मान देकर संबोधित करते हैं. 
वह व्यक्ति उस सम्मान के योग्य है कि नहीं, यह बात 
दीगर है. देवियों और सज्जनों एक ऐसे ही संबोधन का प्रतीक है.. आवश्यक नहीं कि जिन्हें हम 
संबोधित कर रहे हैं वे सज्जन ही हों.

देवी (आचरण):
हमारे देश की यह परम्परा भी है कि हम देवी-देवताओं के नाम पर अपने बच्चों के नाम रखते हैं/
थे. यदि देवी शब्द पर इतनी आपत्ति है तो लक्ष्मी 
और राम कृष्ण जैसे नामों पर भी आपत्ति होना चाहिए. क्योंकि ऐसे नामों वाले कितने ही 
व्यक्ति भ्रष्ट, दुराचारी और पापी देखे जा सकते हैं. 

देवी (नाम का एक भाग):
हमारेदेश की यह परम्परा रही है कि हम अपने नाम के साथ ‘कुमार’ जैसे शब्द जोडते हैं.. अब 
इसके लगाने से वह व्यक्ति राजकुमार हो जाए ऐसा 
नहीं है. वैसे ही ‘देवी’ (उमा देवी) आदि भी नाम के भाग के रूप में स्वीकार लिए गए हैं, चाहे वह 
स्त्री वास्तव में देवी हो या नहीं.

देवी (आध्यात्मिक):
ओशो अपने प्रत्येक प्रवचन के अंत में कहते हैं कि अंत में मैं आप सबों के अंदर स्थित परमात्मा 
को नमस्कार करता हूँ. यह भी हमारे देश की 
परम्परा है कि हम प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा का अंश स्वीकार करते हैं. ऐसे में किसी को देवी 
कहना उसके अंदर स्थित देवी को सम्मान देना ही है.

देवी (उपमा):
हमारे देश की परम्परा रही है कि हम देवी-देवताओं को सर्वगुणसंपन्न मानते हैं. पश्चिम में भी 
ग्रीक गौड और ग्रीक गौडेस् जैसे शब्द अप्रतिम सुंदरता 
के लिए उपमास्वरूप प्रयुक्त होते रहे हैं. इसलिए मर्लिन मुनरो को सौंदर्य की देवी कहना (जो कि 
वो थीं) भूल नहीं है.. बालिकी जिन्हें आपत्ति है वे 
इसे कृपया ग्रीक-गौडेस् का भावानुवाद मान सकते हैं!

Vani Sharma salilji ke jawab ke baad kya bacha kahne ko ...devi shabd kisi bhi 
stri ke liye prayukt hota hai,iska uski 
khoobsurati ya charitra se koi sambandh nahi hai !

Vandana Awasthi Dubey कमाल है!! लोग इतना शाब्दिक अर्थ क्यों लेते हैं? और हर 
चीज़ को धर्म से क्यों जोडने लगते हैं? तुम्हारी पोस्ट में 
मर्लिन को देवी नहीं बताया गया बल्कि उसे सौंदर्य की देवी कहा गया है, जो कहीं से ग़लत नहीं 
है. सौंदर्य की उपासना तो जग-जाहिर है, और 
उपासना देवी की ही की जाती है :) :)

मैने ये सारे कमेंट्स कॉपी-पेस्ट कर उक्त सज्जन को प्रेषित कर दिया...पर उनके प्रत्युत्तर ने 
एक बार फिर मुझे उलझन में डाल दिया.

उन्होंने लिखा :
मैंने सिर्फ ध्यान दिलाया था ....जो मुझे लगा ....यहाँ मेरा आशय यह नहीं था .......नाम के साथ हमारे भारत में " देवी"  शब्द का प्रयोग किया जाता है ...... और यह है हमारे देश में महिलाओं के सम्मान के कारण ....आप थोडा उस व्यक्ति के मन को ध्यान में रखिये जिसे इनके बारे में जानकारी नहीं है ...आज से ५० साल बाद आपके ब्लॉग का यह सन्दर्भ कहीं कोई प्रयोग करना चाहे तो वह तो यही कहेगा न .... " मर्लिन मुनरो " को भारत में सौन्दर्य की देवी कहा जाता है ..आज के प्रसंग और भावनात्मक प्रसंग में यह सब ठीक है ...लेकिन वृहत परिप्रेक्ष्य में यह सही नहीं लगा मुझे .....! इस विषय में बहुत सी बातें कही जा सकती हैं लेकिन अभी इतना ही काफी है .....

सतीश पंचम जी यूँ भी फेसबुक पर कह रहे थे...

Satish Pancham ओ बादशाओ...ते बादशाओ दे संगी साथियो......हुण बस वी करो 
यारो....जिन्ने मेल लिखिया सी ओदी ओपिणियन तां आउंदी 
नईं.......तुसी लोकी किन्ना बोलोगे :)
ऐस देवी मर्लिन मुनरो दे चक्कर विच बौद्धिकता कुछ ज्यादा ही खर्च हो गई :)


तो मैने उनका ये जबाब वहाँ रख दिया...इस बार लावण्या शाह जी ने विस्तार से अपने विचार रखे. ऊपर जिन ब्लोगर्स ने  अपने विचार रखे हैं...वे हम सबके परिचित हैं. लावण्या  जी का भी अपना ब्लॉग है..पर वे ज्यादा सक्रिय  नहीं हैं.  लावण्या शाह जी..प्रसिद्द गीतकार पंडित नरेंद्र शर्मा जी की  सुपुत्री हैं. अक्सर फेसबुक पर उनकी अल्बम में लता मंगेशकर दिलीप कुमार आदि  के साथ उनकी तस्वीर देखने को मिल जाती है. आजकल वे अमेरिका में रहती हैं.


नेहरु जी के साथ पंडित नरेंद्र शर्मा 
Lavanya Shah कुछ तो लोग कहेंगें ...लोगों का काम है कहना :-)
मार्लिन मुनरो को वीनस = [ मतलब ग्रीक मायथोलोजी वाली ] से तुलना करते हुए उस के अप्रतिम व प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए अमरीका में 
लोकप्रियता हासिल हुई है - अमरीकी मीडीया का भी हाथ है इस में और अमरीकी प्रजा का 
झुकाव ऐसे व्यक्ति के प्रति अधिक् रहता है जो कम उम्र 
का हो, सुंदर हो और जिसकी मौत हो गयी हो ..उदाहरणात " एल्विस प्रेस्ली " ( गायक + 
कलाकार ) और लेडी डायना -- मार्लिन मुनरो भी इसी तरह 
आज भी अमरीकी प्रजा में बेहद लोकप्रिय हैं - अब बात आती है उन्हें ' देवी ' कहने की या न कहने की -- तो जिसे शी जानकारी पानी है उसे रीसर्च कर लेना भी आवश्यक है ! रश्मिजी रविजा जी को अपनी बात , अपनी तरह कहने की आज़ादी होनी ही चाहिए ...और भारत के करोड़ों [ साक्षर या 

फेसबुक या हिन्दी ब्लॉग जैसे माद्य्मों से जुड़े लोग मार्लिन मुनरो के लिए भ्रामक धारणा मान लेंगें या नहीं उसकी जिम्मेदारी रश्मि जी के लेखन पर ही निर्भर रह गयी तब तो यही कहूँगी कि , साक्षर होने के लिए अपनी राय बनाने से पहले किसी भी विषय को परखने के प्रयास अवश्य करें ] तथास्तु ! 

Lavanya Shah एक बात और भी जोड़ना चाहूंगी कि विशुध्ध भारतीय संदर्भ में अग्र ' देवी ' 
शब्द कोयी कहता है तब ' देवी ' पूजनीया माता 
भवानी , अम्बिका , सरस्वती ' को भी कहते हैं और आर्यावर्त में संभाषण के दौरान ' देवी ' पत्नी 
से भी कहा गया है -- अप्सराओं को भी यही संबोधन से पुकारा गया है ...ऐसे भी उदाहरण हैं कि , ' देवी ' कहलानेवाली ' मेनका अप्सरा ' ने शंकुंत्ला का त्याग किया और इंद्र दरबार में लौट गयीं थीं ...सो, ' देवी ' जो प्राचीन काल में प्रयुक्त शब्द रहा है उसे आज २१ वीं सदी में हम किस तरह लें ...और इस प्रयोग का उपयोग , ' रचनाकार ' की अपनी इच्छा पे निर्भर रहेगा चूंकि , व्यक्ति को अपनी बात, अपने अंदाज़ में कहने की सम्पूर्ण स्वतंत्रता है ..भारतीय संस्कृति व विरासत अपनी मजबूत जड़ों की बदौलत , किसी के अभिप्राय या मतानुसार नहीं बनेगी या बिगड़ पायेगी ..हां , हरेक पाठक को बस १, या २ मिनट ध्यान देकर 
चलते बनना ये तो ' समझ ' को परिष्कृत करने का सही आधार नहीं बनाना चाहीये ...पहले कहा 
उसे पुनः कहूँगी , ' शोध ' जारी रखें और दीमाग के 
दरवाज़े खुले रखें ताकि , ज्ञान , नयी बात , नये विचार भी प्रवेश पा सकें ..हमेशा विद्यार्थी , 
शोधार्थी बने रहना आवश्यक है ...और हां, ये मत मेरा 
अपना है , दूसरों को मुझसे अलग मत रखने की पूरी स्वतंत्रता है ... 

लता मंगेशकर के साथ लावण्या शाह जी 
सभी साथियों का एक बार फिर कोटिशः धन्यवाद, अपने विचार रखने के लिए.
पर इन सबके विचार पढ़ते हुए एक ख्याल और आया मेरे मन में...ये सारे लोग तो मेरे  मित्र हैं और कहते हैं मित्रता सामान विचार वालों में ही होती है. वैसे भी फेसबुक पर मैं मित्रों को add करने में बहुत कंजूस हूँ. उनका प्रोफाइल चेक कर...उनका वाल पढ़कर ही उनकी फ्रेंड्स रिक्वेस्ट स्वीकार करती हूँ. ..जाहिर हैं उन सबकी सोच मेरे जैसी ही है. 

पर ब्लॉग एक खुला मंच है...यहाँ कोई भी ये पोस्ट पढ़ सकता है...और अपनी राय रख सकता है.
जिनलोगो को 'देवी' शब्द के प्रयोग से एतराज हो..वे भी अपनी बात कह सकते हैं. 

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

सौन्दर्य देवी : मर्लिन मनरो (२)



पिछली पोस्ट में  मर्लिन मनरो के बचपन के संघर्ष और एक सफल मॉडल बन जाने के बाद बिना किसी समझौते के फिल्मो में रोल पाने के लिए संघर्ष का जिक्र था...अब आगे की जीवन -कथा.

मर्लिन मनरो की कार  चोरी हो गयी थी...उनके कमरे का किराया ...दुकानों का बहुत सारा उधार बाकी था और उनके पास ना तो काम था और ना पैसे. वे अपने एक मित्र फोटोग्राफर के पास मदद के लिए गयीं. उसने एक कैलेण्डर के लिए उनके कुछ चित्र खींचे...और उस चित्र की वजह से उन्हें एक फिल्म भी मिली पर वह भी सफल नहीं हुई. पर इसके बाद एक फिल्म में मर्लिन को छोटा सा रोल मिला...और वह फिल्म बहुत सफल रही. पर उसका निर्देशक उनसे बिलकुल खुश नहीं था..और फिल्म-निर्माण के दौरान वह चाहता था मर्लिन किसी तरह यह फिल्म छोड़ दे..क्यूंकि मर्लिन संवाद अदायगी और अभिनय अपने तरीके से करना चाहती थीं. उस फिल्म में मर्लिन का नाम तक नहीं था...लेकिन हर समीक्षक ने उस सुनहरे बालों वाली अनाम लड़की के काम की चर्चा जरूर की. मर्लिन जब एक स्टार बन गयीं तब जब भी वो फिल्म प्रदर्शित की जाती 'मर्लिन मनरो' का नाम सबसे पहले और बड़े अक्षरों में लिखा होता.

प्रसिद्ध निर्देशक जोसेफ मेकिविक्स ने मर्लिन को अपने फिल्म "ऑल अबाउट ईव " में नायिका का रोल दिया और यह फिल्म बहुत ही सफल हुई...मर्लिन एक स्टार बन चुकी थीं. उन्हें फिल्मे मिल रही थीं..और सुपर हिट भी हो रही थीं. उनकी मुलाकात बेस बॉल  के मशहूर खिलाड़ी  'जो डीमैगियो ' से हुई....मुहब्बत परवान चढ़ी और जल्द ही दोनों ने शादी कर ली. उन्होंने अपने हनीमून के लिए जापान जैसा शांत देश चुना. पर अब मर्लिन विश्व की सबसे लोकप्रिय और प्रसिद्द अभिनेत्री बन चुकी थीं. जापान में सड़क के दोनों तरफ खड़े लाखो जापानियों ने 'मारि..लिन'....'मारि..लिन'..के नारों से गगन गुंजा  दिए.उन्होंने जापान जैसे शान्ति पसंद कम बोलने वालों को भी मुखर बना दिया. सिर्फ चार सालों में उनकी जिंदगी इतनी बदल गयी थी.

मर्लिन मनरो एवं जो डीमैगियो '     
परन्तु स्वामित्व,पौरुष और अधिकार भरा 'जो डीमैगियो ' ..मर्लिन के इस प्रसिद्धि से असम्पृक्त था. उसे  मर्लिन के अभिनेत्री रूप में कोई दिलचस्पी नहीं थी. वह मर्लिन को एक सीधी-साधी गृहणी के रूप में देखना चाहता था. गृह-कलह शुरू हो गए ..मर्लिन नींद की गोलियाँ लेने लगीं. और १९५४ में वे दोनों अलग हो गए. बिजली की सी यह खबर पूरे हॉलीवुड में फ़ैल गयी और उसके घर के सामने पत्रकारों का जमघट लग गया. उसकी हर हंसी..हर रुदन..हर पीड़ा..हर मित्रता और हर कलह...करोड़ों लोगों की चर्चा का विषय बन जाते. करोड़ों आँखें..करोड़ों जबानें, लाखों कलमें और हज़ारो पत्रिकाएं उसके जीवन के हर क्षण को आम जनता के चौराहे की चर्चा का विषय बना देतीं. पर इन करोड़ों भीड़ से जुड़ी वह बिलकुल अकेली थी.

'जो डीमैगियो ' से अलग होने के बाद अपने अभिनय-कला को और मांजने के लिए ऊन्होने ,प्रख्यात रुसी कथा-लेखक और नाटककार 'चेखव' के भतीजे 'माइकेल चेखव' से बहुत दिनों तक अभिनय की शिक्षा ली. इसके बाद प्रसिद्ध स्टूडियो के निर्देशक 'स्ट्रासबर्ग' से भी अभिनय की बारीकियां सीखनी शुरू कर दी. प्रसिद्द नाटककार आर्थर मिलर, स्ट्रासबर्ग के अच्छे मित्र थे.

मर्लिन को पढ़ने का शौक  था और वह प्रसिद्द नाटककार आर्थर मिलर की गहरी प्रशंसिका थी. एक पार्टी में उनसे मिली थी.पर आर्थर ने उसे नज़रंदाज़ सा कर दिया था. एक दिन स्ट्रासबर्ग का फोन आया कि 'आर्थर मिलर' उनसे मिलना चाहते  हैं. स्ट्रासबर्ग के घर पर अक्सर उनकी मुलाकातें होने लगीं. वे स्ट्रासबर्ग के परिवार के साथ द्वीप पर छुट्टियाँ मनाने भी जाने लगे. पर मर्लिन उन्हें एक देवता की तरह ही पुजती थी. एक बार स्ट्रासबर्ग की पत्नी ने उन्हें लेकर कुछ मजाक किया तो मर्लिन ने कहा,"वे मेरे श्रद्धा के पात्र हैं" .तब स्ट्रासबर्ग ने बताया , "उन्हें श्रद्धा की नहीं बल्कि इस समय मैत्री और संवेदना की जरूरत है..क्या तुम उन्हें यह सब दे पाओगी?"  आर्थर मिलर के साहित्य पर कम्युनिस्ट आन्दोलन का गहरा प्रभाव था. अपने पहले दो नाटक, ' ऑल माइ संस' और "डेथ ऑफ अ सेल्समैन ' से वे विश्व प्रसिद्धि पा चुके थे. लेकिन अपने यहूदी होने और इस राजनीतिक रुझान के कारण उन्हें अमेरिका में एक जांच-कमिटी के सामने पेश होना पड़ा था. उन्होंने दो नए नाटक लिखे थे , "द कृसिविल " और " अ व्यू फ्रॉम द ब्रिज ' जब ब्रॉडवे में खेले जाने के पहले इस नाटक की पाण्डुलिपि महान अमेरिकन नाटककार " क्लिफर्ड औदेट्स' को दिखा कर राय पूछी गयी कि "क्या इसमें कोई राजनितिक संदेश है?"
तो उन्होंने कहा, "ये तो मुझे नहीं पता पर इस वर्ष के अंदर-अंदर उनका वैवाहिक जीवन टूट जायेगा" 

मर्लिन मनरो एवं  आर्थर मिलर 
यह सुन लोग हतप्रभ रह गए क्यूंकि मिलर के विवाह को बीस वर्ष हो चुके थे . उनकी पत्नी ग्रेस मिलर उनकी साहित्यिक सलाहकार थीं. उन्होंने मिलर के प्रारम्भिक संघर्ष के दिनों में उनकी बहुत सहायता भी कि थी. पर उन्हें हमेशा ये अहसास दिलाती रहती कि मिलर का  निर्माण, उनकी साहित्यिक कृति ..आर्थिक सुरक्षा सब ग्रेस की देन  है. वह रोमन कैथोलिक थीं और मिलर की यहूदी माँ को कभी सम्मान और अपनापन नहीं दे पायी. मर्लिन से मिलने के पहले ही आर्थर मिलर का अपनी पत्नी से भावात्मक सम्बन्ध ख़त्म हो चुके थे और वे बहुत बेचैन और अकेले थे.

मर्लिन को स्ट्रासबर्ग द्वारा यह सब पता चलने पर जैसे उन्हें जीवन का  उद्देश्य मिल गया. वह किसी के लिए सार्थक बन सकती है. उनकी भी किसी को जरूरत हो सकती है...यह अहसास नया था.  वह मिलर के करीब आ गयी. मिलर उन्हें अपने परिवार से मिलवाने ले गए. मर्लिन उनके माता-पिता के साथ काफी दिन रहीं. वे मिलर की माँ से सीख नए-नए व्यंजन बनातीं ..सुबह -सुबह नंगे पैर लॉन में चलतीं और वहाँ बैठकर आर्थर के पिता से यहूदी धर्म की बातें सुनतीं.दोनों ने विवाह करने का निर्णय ले लिया.

विवाह के दिन सुबह से ही उनके घर के  सामने सैकड़ों पत्रकारों की भीड़ इकट्ठी हो गयी. तपती धूप में भूखे प्यासे....इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस,इटली के पत्रकार अपने कैमरे के साथ डटे रहे. पर मर्लिन और मिलर उनसे बचने को घर से सुबह ही निकल गए थे..पर दो पत्रकारों ने उनका पीछा किया और उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया. मर्लिन और आर्थर उन्हें उठा कर अस्पताल में ले गए...दूसरे दिन इटली की उस पत्रकार की मौत हो गयी. फिर भी पत्रकारों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा.

शादी के बाद अपनी अगली फिल्म की शूटिंग के लिए मर्लिन आर्थर के साथ, इंग्लैण्ड रवाना हो गयीं. मर्लिन अपनी फिल्म में व्यस्त हो गयीं और आर्थर अपने लिखने -पढ़ने में. पर पत्रकार मर्लिन से आर्थर के नए लिखे जा रहे किताब के विषय में और आर्थर से मर्लिन की फिल्मो के विषय में पूछते रहते. मर्लिन गर्भवती हुईं..पर उनका गर्भपात हो गया. आर्थर ने उनकी बहुत देखभाल की. मर्लिन जब वापस फिल्मो की शूटिंग के लिए लौटीं तो आर्थर उसकी फिल्मो में  काफी रूचि लेने लगे. मर्लिन को कौन सी ड्रेस पहननी चाहिए...कौन सी फिल्म स्वीकारे..कैसे संवाद बोले...किस पत्रिका को इंटरव्यू दे. सब आर्थर तय करने लगे. 

मर्लिन आर्थर के लेखक व्यक्तित्व पर मोहित हुई थीं और उनका सम्मान करती थीं. अपनी खुशामद में यूँ लगे देखना नहीं चाहती थीं. वे बचपन से पिता के स्नेह से वंचित थीं...उन्हें ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो उनपर शासन करे. अब उनके पास सबकुछ था...अकूत धन-वैभव .. मान-सम्मान और प्यार करने वाला पति..लेकिन यह सब पाकर वो ज्यादा लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होती जा रही थीं. प्रोड्यूसर-डायरेक्टर-पत्रकार किसी से भी लड़ लेतीं...आर्थर को उनकी तरफ से माफ़ी मांगनी पड़ती. 

आर्थर ने मर्लिन के लिए एक फिल्म की कहानी लिखी "मिसफिट". पर मर्लिन को लगा यह फिल्म पुरुष पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है....उसकी भूमिका काफी कम है. उसके कहने पर भी आर्थर  ने कहानी नहीं बदली...मर्लिन ने कई बार सबके सामने आर्थर का अपमान भी कर दिया कि वे कभी फिल्म-लेखन नहीं कर सकते. उन दोनों में  तनाव बढ़ता गया. यह शादी भी टूट गयी. आर्थर से जब इसकी वजह पूछी गयी तो उन्होंने कहा, "मर्लिन में  खुद को तोड़-फोड़ डालने की वहशी प्रवृत्ति है. इसी के वशीभूत उसने यह सब किया है...थोड़े दिनों बाद खुद को यह तकलीफ देकर वह ठीक हो जाएगी. और हम पहले की तरह रहने लगेंगे"

आर्थर से सम्बन्ध-विच्छेद के बाद कई लोग उसके जीवन में आए  पर प्यार उन्हें " पीटर लोफार्ड' से हुआ. जबकि 'पीटर लोफार्ड' विवाहित था और वो जानती थी कि पीटर कभी भी अपनी पत्नी को नहीं छोड़ सकता क्यूंकि पीटर की पत्नी अमेरिका  के राष्ट्रपति 'कैनेडी' की बहन थीं.  इस गम में वो चौबीसों घंटे शराब में डूबी रहने  लगीं...नींद की गोलियाँ खाने लगीं... वे बहुत परेशान रहने लगीं और एक बार मानसिक रोगों के अस्पताल में भी खुद ही भर्ती हो गयीं..वहाँ से एक बार कूद कर जान देने की भी कोशिश की पर बचा ली गयीं. अभिनय पर असर पड़ने लगा...वे अपनी लाइंस भूल जातीं...शूटिंग पर नहीं पहुँचती और एक बार निर्माता बहुत नाराज़ हुए जब वे हफ़्तों बीमारी का बहाना कर शूटिंग पर नहीं पहुंची लेकिन राष्ट्रपति कैनेडी के जन्मदिन की पार्टी में शरीक हुईं और राष्ट्रपति के लिए 'हैप्पी बर्थडे भी गाया " न्यूयार्क से लौट कर भी वे शूटिंग कैंसल करती रहीं. निर्माता- निर्देशकों ने उनपर ५००,००० डॉलर के नुकसान का दावा कर दिया. और उनका  रोल एक दूसरी अभिनेत्री को दे दिया. 

इस खबर ने मर्लिन को अंदर से तोड़ दिया..अब तक वे तेइस सफल फिल्मो में काम कर चुकी थीं और उन निर्माता-निर्देशकों को करीब बीस करोड़ डॉलर का फायदा हुआ था. बड़े से बड़े पुरस्कार उन्होंने जीते थे. बेइंतहा दौलत कमाई थी..पर अब यह उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं. उन्हें यह चिंता भी थी  कि  अब उनका फिगर भी पहले की तरह नहीं रह गया था और उन्होंने खुद को एक कमरे में कैद कर लिया. जून १९६२ में उन्हें नोटिस दिया गया था और दो ही महीने बाद ४ अगस्त १९६२ को उन्होंने अत्यधिक नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या कर ली.

कुछ जानकार लोगो का कहना है कि उन्होंने पीटर को फोन पर कहा  कि "मैने नींद की गोलियाँ खा ली हैं...कुछ ही देर में जहर मेरे शरीर में फ़ैल जायेगा. पर मैं जीना चाहती हूँ..मेरी मदद करो.." पर पीटर ने कहा कि, " मैं एक शादी-शुदा आदमी हूँ....मेरी इज्जत पर आंच आएगी....नहीं आ सकता..किसी के साथ एक डॉक्टर को भेजता  हूँ.." पर ना कोई आदमी आया ना कोई डॉक्टर .

उनकी मृत्यु की खबर सुन..लाखों लोग फूट-फूट कर रोये...समाचार पत्र..पत्रिकाएं उनके चित्रों और उनपर लिखे आलेखों से भरे रहने लगे. बरसों तक उनके नाम के सैकड़ों पत्र... पत्रिकओं के ऑफिस में आते रहे. इतने लोग जिसे जी जान से प्यार करते थे..वो अकेलेपन से त्रस्त होकर दुनिया छोड़ गयी.  पागलखाने में रह रही उसकी माँ  को जब ये खबर मिली तो उसने भी फांसी लगा आत्महत्या कर ली. आर्थर ने सुनकर इतना ही कहा, "ये तो होना ही था " पर जो डीमैगियो ' फूट फूट कर रोया...और कहा.."उफ्फ! यह क्या हो गया...अब मैं क्या करूं?..काश वो जानती होती कि मैं उसे कितना प्यार करता हूँ " मर्लिन का अंतिम संस्कार भी उसी ने किया और मर्लिन के मेकअप मैन...उसके बाल और कपड़ों की देखभाल करने वालों के पास जाकर मिन्नतें की कि मर्लिन  के  शव का वैसा ही श्रृंगार करें जैसी वह अपने प्रसिद्धि के दिनों में दिखती थी. 

कहते हैं...वैक्स वुड मेमोरियल पार्क में जहाँ 'मर्लिन मनरो ' दफ़न है सप्ताह में तीन बार माली ताजे गुलाब चढ़ा जाता है और उसके पैसे जो डीमैगियो 'भेजता है. उसका कहना था वह जबतक जिन्दा रहेगा फूल बराबर चढ़ते रहेंगे .
(शुभागता पुस्तक से साभार )

"शुभागता"
लेखिका  पुष्पा भारती 
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकशन 


मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

सौन्दर्य देवी : मर्लिन मनरो ( 1 )


 भले ही ज्यादा लोग  अंग्रेजी फ़िल्में ना देखते हों. या देखते भी हों तो मर्लिन मनरो की फ़िल्में ना देखी हों पर उनके नाम और अप्रतिम रूप से जरूर परिचित हैं.(  उनकी तस्वीर देख अपनी हिंदी फिल्मो की अदाकारा 'मधुबाला' की याद आती हैं . संयोग ही है कि आज (१४ फ़रवरी )मधुबाला का जन्मदिन भी है.) मर्लिन मनरो का  सफलता की चोटी पर पहुंचना और फिर मात्र ३६ वर्ष की आयु में ख़ुदकुशी कर लेना बहुत ही रहस्यमय सा लगता...और रहस्य के आवरण में लिपटे उनके जीवन के विषय में जानने की इच्छा थी , जो इस पुस्तक 'शुभागता' द्वारा पूरी हुई. इस पुस्तक में पुष्पा भारती जी ने विश्व के कुछ प्रसिद्द लेखक,कवि अदाकार... 'चार्ल्स डिकेंस', 'रिल्के', 'एच.जी.वेल्स' ,'मर्लिन मनरो', 'चेखव' और 'दौस्तोवस्की'  के जीवन के अनजाने पहलुओं पर प्रकाश डाला है.

१ जून १९२६ को जन्मीं 'मर्लिन मनरो' का नाम ' नोरमा जीन बेकर था' . उन्होंने अपने पिता को सिर्फ फ्रेम में जड़े एक तस्वीर के रूप में जाना था...वे एक अनब्याही माँ  की संतान थीं. . उनकी माँ हॉलीवुड में 'कोलंबिया पिक्चर्स' में निगेटिव काटने का काम किया करती थीं. और आस-पास रहने वाले फिल्म लाइन से जुड़े हर तकनीशियन की  तरह उनका भी बस एक ही सपना था 'उनकी बेटी बड़ी होकर सुपर स्टार बने'. नोरमा की माँ को उसके पिता द्वारा धोखा दिए जाने पर दिमाग पर  गहरा सदमा लगा था और अक्सर उसे दौरे पड़ते थे. उसकी एक सहेली ग्रेस..'नोरमा' का ख्याल रखती थी. उसे नृत्य और संगीत की शिक्षा लेने स्कूल भेजती थी. परन्तु एक दिन नोरमा की माँ को दौरा पड़ा और उसने अपनी सहेली ग्रेस पर ही चाक़ू से हमला कर दिया. पुलिस ने उन्हें पकड़ कर पागलखाने में डाल दिया .

नोरमा की बदकिस्मती के दिन शुरू हो गए. नोरमा को अनथालय में भर्ती कर दिया गया. वहाँ से एक दंपत्ति ने उसे गोद ले लिया. पर उसकी नई माँ बहुत ही बुरा व्यवहार करती...उससे जूठे बर्तन मंजवाती ..फर्श साफ़ करवाती....इतनी नन्ही सी बच्ची की ये दुर्दशा देख..उसके नए पिता ने उसे किसी और को गोद दे दिया. इस नए घर में दिन में तीन बार चर्च में प्रार्थना करनी पड़ती. नृत्य-संगीत वर्जित था . नोरमा को गाते या नृत्य करते देख लेने पर उसे बहुत डांट पड़ती .एक दिन उस पर एक हार के चोरी का इलज़ाम लगा कर बहुत प्रताड़ना दी गयी. एक दूसरी स्त्री दया कर उसे अपने घर ले गयी....जहाँ उसकी तीन बेटियाँ पहले से थी..वे सब उसे बहुत तंग करतीं. 

उसने वह घर भी छोड़ दिया उस वक्त नोरमा महज आठ साल की थी .पर वह नौकरी कर ..पैसे कमाना चाहती थी  उसने एक नवदंपत्ति के यहाँ नौकरी कर ली...वह किचन में मदद करती...बर्तन धोती..घर की सफाई करती पर वो यहाँ खुश थी...उसे शनिवार के शाम की छुट्टी भी मिलती और बाहर खाना खाने के लिए पैसे भी .मालकिन उसे डांस भी सिखाती. कुछ दिनों बाद ही उसकी माँ स्वस्थ होकर उसे ढूंढती हुई आ गयी..उसे अपने साथ  ले गयी. उसके लिए एक पियानो भी खरीद दिया. पर उसकी  ये ख़ुशी ज्यादा दिन नहीं रही . फिर से माँ पर पागलपन का दौरा पड़ा और उसे पागलखाने में भर्ती कर दिया गया. 

नौ-दस वर्ष की उम्र में नोरमा को फिर से एक घर में बर्तन धोने -झाडू लगाने  की नौकरी करनी पड़ी. उस घर का एक बूढ़ा व्यक्ति 'नोरमा' से हमदर्दी जताने लगा. पिता के स्नेह से वंचित नोरमा उस से हिल-मिल गयी और एक दिन उस बुड्ढे ने उसकी पवित्रता नष्ट कर डाली. मालकिन से शिकायत करने पर उसने उल्टा नोरमा की ही पिटाई कर डाली कि वो शरीफों को बदनाम करती है. नोरमा को लगता  ..उसने बहुत बड़ा पाप किया है. उसके सर पर पेट की भूख के बोझ से ज्यादा पाप की भावना का बोझ था. 


इस बीच नोरमा को पता चला,उसकी ग्रेस आंटी ने शादी कर ली है. वह उन्हें ढूंढते हुए उनके घर पहुँच गयी. वो वहाँ बहुत खुश थी.पर ग्रेस के पति को उसे रखना गवारा नहीं था..और ग्रेस ने उसे एक अनाथालय में भर्ती करा दिया.वहाँ नोरमा दो साल रही.

इसके बाद उसकी ग्रेस आंटी उसे अपने एक रिश्तेदार  बूढी महिला के घर ले गयीं. वो वृद्धा "ऐना' उसे बहुत प्यार करती थीं. नोरमा अपनी बचपन की यादों में इन वृद्धा से जुड़ी यादों को सबसे खुशनुमा मानती है. ऐना की मृत्य के बाद.."आई लव्ड हर" नाम से उसने एक लम्बी कविता भी लिखी .

नोरमा स्कूल जाने लगी. उसे लिखने -पढ़ने का शौक हो गया. एक बार  उसे "डॉग इज मेंस बेस्ट फ्रेंड" पर एक लेख लिखने पर एक ईनाम भी मिला. फिर तो वह कहानी-कविताएँ लिखने लगी. वो 'एब्राहम लिंकन' की गहरी प्रशंसिका थी और उसके कमरे में एक ही तस्वीर होती थी. 'एब्राहम लिंकन' की .  पढ़ने-लिखने के शौक के साथ उसे सजने संवरने का भी बहुत शौक था. लड़कों के साथ घूमना-फिरना भी शुरू हो गया. यह देख उसकी ग्रेस आंटी और ऐना ने १९४२ में उसकी शादी कर दी. नोरमा अपने पति जिम को बहुत प्यार करती थी और पजेसिव भी थी. पर नोरमा का सौन्दर्य उनके प्यार की राह  में काँटा बन गया. उसके पति के मित्र उसकी खूबसूरती की तारीफ करते और उसकी तरफ खिंचे चले आते. नोरमा को अपनी प्रशंसा अच्छी लगती पर जिम को नागवार गुजरती और उनमे तनाव बढ़ने लगा और वे अलग हो गए. 

उसे  मॉडलिंग के कई ऑफर भी मिलने लगे.  नोरमा ने इसे गंभीरता से लिया और एक मॉडलिंग स्कूल ज्वाइन कर ली. हँसना.. बोलना..चलना..सब नए सिरे से सीखने लगी.एक्सरसाइज़ करती ..अपनी सुन्दरता..अपनी फिगर का ख्याल रखती और बहुत जल्दी ही एक मशहूर मॉडल बन गयी. उसकी तस्वीरें देख, "आर.के.ओ.रेडियो पिक्चर्स"   के मालिक ने "ट्वेंटीयेथ सेंचुरी फौक्स' नामक प्रसिद्द फिल्म कम्पनी से संपर्क कर नोरमा को साईन करने की सलाह दी. फिल्म कम्पनी वालों ने नोरमा से अपना नाम बदलने के लिए कहा. उनलोगों ने सलाह दी कि  उन दिनों  की  प्रख्यात गायिका ' मर्लिन मिलर' के नाम का पहला शब्द 'मर्लिन 'चुन ले और दूसरा शब्द खुद ढूंढ ले.. नोरमा की ग्रेस आंटी  ने उस से कहा  कि  वो अपनी माँ के बचपन का नाम 'मनरो' लगा सकती है.और अब उसका नाम हो गया, "मर्लिन मनरो'

'ट्वेंटीयेथ सेंचुरी फौक्स' ने उसे साइन तो कर लिया था पर वह अनेक नवोदित तारिकाओं में से एक नाम भर थी.  उसे कोई रोल नहीं मिल रहा था. एक सस्ती सी फिल्म में एक्स्ट्रा का रोल मिला जिसमे उसका बस एक सीन था जिसमे 'हलो' बोलना  था. मर्लिन ने उसके लिए बहुत मेहनत की पर प्रदर्शन के समय उसका सीन एडिट कर दिया गया.

अगले पांच-छः साल तक मर्लिन भटकती रहीं. वो शाम को सज-धज कर बस इसलिए निकलतीं की कोई एक डिनर खिला दे. कई पुरुष  सुन्दर लड़की के साथ के लिए भटकते और उसे डिनर पर ले जाते पर डिनर से ज्यादा उसने कोई समझौता नहीं किया. कई मौके आए जब उन्हें थप्पड़ रसीद कर गिरते-पड़ते काँटों से लहुलुहान होते अपने घर की तरफ भागी. एक रोचक वाकया भी हुआ. एक अठहत्तर वर्षीय आदमी ने उसके पास शादी का पैगाम भेजा  कि "वो उसका गहरा प्रशंसक है..पत्रिकाओं से काटकर उसके सारे चित्र सुरक्षित रखे हैं. उसे दिल के दौरे पड़ते हैं...वो सिर्फ चार-पांच महीनों का मेहमान है..और उसके पास अस्सी लाख रुपये हैं. वो मर्लिन मनरो के पति के रूप में मरना चाहता है. अगर मर्लिन मनरो उस से शादी कर  ले तो सारे पैसे उसके  हो जाएंगे. संदेश लाने वाले ने कहा कि अगर उसमे से आधा हिस्सा चालीस लाख रुपये 'मर्लिन' उसे दे दे तो  वह ये शादी करा देगा. मर्लिन  ने ये कहते उसके मुहँ पर दरवाज़ा बंद कर दिया कि "मेरे हिस्से के चालीस लाख भी तुम ही रख लो "

इस अकेलेपन और गरीबी की भटकन में मर्लिन मनरो का एक ही सहारा थी, कोलंबिया कंपनी की अभिनय अध्यापिका " नाटाषा लाईटेस  " लाईटेस ने उसके कपड़े पहनने का ढंग ...चाल-ढाल ..संवाद बोलने के तरीके को सुधारा (मर्लिन भी प्रसिद्धि पाने के बाद भी अपनी उस गुरु को नहीं भूली. अपनी कम्पनी में एक ऊँचा पद दिया और स्क्रिप्ट स्वीकार करने या उसमे  कोई भी परिवर्तन वो उनकी सलाह के बिना नहीं करती थी )

लाईटेस की सिफारिश से उसे एक संगीत प्रधान फिल्म मिली "लेडीज़ ऑफ द कोरस"   जिसमे आठ गायिकाओं में से एक गायिका 'मर्लिन' भी थीं. इस फिल्म की शूटिंग के दौरान वे कोलंबिया पिक्चर्स के संगीत निर्देशक " फ्रैडी  कारगर ' के प्यार में गिरफ्तार हो गयी. फ्रैडी भी उनका बहुत ख्याल रखते ...उसकी समस्याएं सुलझाते उसके साथ समय बिताते  अपने घर ले जाकर अपनी माँ -बहन और अपने बेटे से भी मिलवाया. वह तलाकशुदा थे . पर अपना प्रेम प्रदर्शित नहीं करते.  सारा स्टूडियो उनके इस विचित्र प्रेम कहानी को उत्सुकता से देखता. आखिर मर्लिन ने ही कहा.."हमें विवाह कर लेना चाहिए' इस पर फ्रैडी ने कहा."कल को मुझे कुछ हो गया..तो तुम क्या मेरे बेटे की अच्छी माँ बन पाओगी"

यह सुनते ही मर्लिन वहाँ से चली गयी और फ्रैडी से बात करना बंद कर दिया. फ्रैडी ने बाद में उसकी बहुत मिन्नतें कीं पर मर्लिन ने दुबारा उसकी तरफ नहीं देखा. फिल्म प्रदर्शित हुई पर सफल नहीं हुई और एक महीने बाद ही 'कोलंबिया पिक्चर्स 'से उसे नोटिस दे दिया गया.

एक बार फिर से भुखमरी के दिन सामने थे. कोलंबिया फिल्म्स के 'चेयर मैन' मर्लिन पर मेहरबान हो गए और अक्सर उसे डिनर पर ले जाने लगे. मर्लिन को उन्होंने  अपनी कम्पनी में तो काम नहीं दिलवाया पर दूसरी कम्पनी के मालिक के पास एक पत्र लेकर भेजा. उस कम्पनी के मालिक ने फिल्म में रोल देने की शर्त रखी कि "एक सप्ताह उसके साथ समुद्री जहाज पर बिताना होगा" मर्लिन ने कहा.."बेशक..पर आपके बीवी-बच्चे भी साथ होने चाहिएँ "
यह कहकर जब वो बाहर आई तो पाया..उसकी टूटी-फूटी कार चोरी हो गयी है. पुलिस में शिकायत करने पर पता चला..उसके कमरे का किराए ..दुकानों से उधार लिए  सामान के एवज में उनलोगों ने कार पर कब्ज़ा कर लिया है. 
अब मर्लिन मनरो को फ़िक्र थी कि कहीं से  सिर्फ पचास डॉलर मिलें ताकि.कमरे..धोबी..गैस का किराया निकल सके. 

(पुष्पा भारती जी ने तो बहुत विस्तार से लिखा है...पर काफी संक्षिप्त करने की कोशिश के बावजूद...पूरी कहानी बहुत लम्बी हो गयी...इसलिए  दो  पोस्ट  में  विभक्त करना  पड़  रहा है... अगली पोस्ट में 'मर्लिन मनरो' की सफलता और प्रेम के किस्से )

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