पिछली कुछ पोस्ट्स में बड़ी गंभीर बातें हों गयीं...आगे भी एक लम्बी कहानी पोस्ट करने का इरादा है...(पब्लिकली इसलिए कह दिया ताकि कहानी पोस्ट करने में अब और देर ना कर सकूँ :)} पर इसके बीच कुछ हल्की-फुलकी बातें हो जाएँ .
काफी साल पहले की घटना है, जब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे पर मुंबई में 'वैलेंटाइन डे' की धूम कुछ ऐसी ही रही होगी, तभी तो इनलोगों ने अपने टीचर से पूछा होगा कि ये 'वैलेंटाइन डे' क्या बला है? और टीचर ने इन्हें बताया कि आप जिसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं , इस दिन,उसे कार्ड ,फूल और गिफ्ट देकर विश करते हैं. अब बचपन में बच्चों की सारी दुनिया माँ ही होती है (एक बार छुटपन में मेरे बेटे ने एक पेंटिंग बनायी थी जिसमे एक घर था और एक लड़का हाथों में फूल लिए घर की तरफ जा रहा था...मैंने जरा उसे चिढ़ा कर पूछा ,"ये फूल, वह किसके लिए लेकर जा रहा है?" और उसने भोलेपन से कहा था,"अपनी ममी के लिए" ) . अब टीचर की इस परिभाषा पर दोनों बच्चों ने कुछ मनन किया और मेरे लिए एक कार्ड बनाया और गुलदस्ते से एक प्लास्टिक का फूल ले कर कार्ड के साथ सुबह सुबह मेरे तकिये पर रख गए...पता नहीं दोनों इतनी सुबह उठ कैसे गए....मेरी आँखें खुली तो दोनों भागते हुए नज़र आए और दरवाजे से झाँक रहे थे.
इनलोगों के स्कूल जाने के बाद मैंने सोचा,कुछ अलग सा करूँ.? बच्चों ने कार्ड दिया है तो कुछ तो करना चाहिए और मैंने सोचा..जब मेहमान आते हैं तभी ढेर सारी,डिशेज बनती हैं. क्रौक्रीज़ निकाली जाती हैं. सफ़ेद मेजपोश बिछाए जाते हैं..चलो आज सिर्फ घर वालों के लिए ये सब करती हूँ. मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ पर घर में बाकी सब नौनवेज़ के शौक़ीन हैं.सोचा,एक ना एक दिन तो बनाना शुरू करना ही है,आज ही सही....मैंने पहली बार फ्रोजेन चिकेन लाया और किसी पत्रिका में से रेसिपी देख बनाया. स्टार्टर से लेकर डेज़र्ट तक. बच्चे समझे कोई डिनर पर आ रहा है...जब ये लोग शाम को खेलने गए तब मैंने सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ भी निकाल कर लगा दी. दोनों बेटे बड़े खुश हुए और मैंने देखा किंजल्क मेरी महंगी परफ्यूम प्लास्टिक के फूलों पर छिड़कने लगा,. जब मैंने डांटा तो बोला,'मैंने टी.वी. में देखा है,ऐसे ही करते हैं"...जाने बच्चे क्या क्या देख लेते हैं.मैंने तो कभी नोटिस ही नहीं किया.
खैर सब कुछ सेट करने के बाद मैंने पतिदेव को फोन लगाया. उनके घर आने का समय आठ बजे से रात के दो बजे तक होता है. हाँ, कभी मैं अगर पूरे आत्मविश्वास से सहेलियों को बुला लूँ...कि वे तो लेट ही आते हैं तो वे आठ बजे ही नमूदार हो जाएंगे या फिर कभी मैं अगर बाहर से देर से लौटूं तो गाड़ी खड़ी मिलेगी नीचे. ये टेलीपैथी यहाँ उल्टा क्यूँ काम करती है,नहीं मालूम. :(
फोन पर कहा....."आज तो बाहर चलेंगे,मैंने खाना नहीं बनाया है.'
"'ठीक है, पर बच्चे वेट कर रहें हैं,सुबह कार्ड बना कर दिया है, डिनर तो साथ में ही करेंगे' " ...फिर या तो मैं फोन करती या मुझे फोन करके बताया जाता कि,अभी थोड़ी देर और लगेगी. आखिर 11 बजे मैंने कहा,"अब अगर एक बजे आयेंगे तब भी एक बजे ही सब डिनर करेंगे" और फोन रख दिया
बच्चों को तो मैंने खिला दिया ,उनका साथ भी दिया और इंतज़ार करने लगी. पति एक
बजे ही आए और आते ही बोला, "तुमने ऐसा एक बजे कह दिया की देखो एक ही बज गए"
कहीं पढ़ा था, "workaholic hates surprises "अब तो यकीन भी हो ही गया .
वो दिन है और आज का दिन है,सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ मेहमानों के आने पर ही निकलते हैं.
कुछ साल बाद एक बार 14th feb को ही मेरे बच्चों के स्कूल में वार्षिक प्रोग्राम था. दोनों ने भाग लिया था.मुंबई में जगह की इतनी कमी है कि ज्यादातर स्कूल सात मंजिलें होते हैं. स्कूल कम,5 star होटल ज्यादा दीखते हैं. क्लास में G,H तक devision होते हैं, लिहाज़ा वार्षिक प्रोग्राम भी ३ दिन तक चलते हैं और रोज़ दो शो किये जाते हैं,तभी सभी बच्चों के माता-पिता देख सकते हैं. उस बार भी इन दोनों को दो शो करने थे यानि सुबह सात से शाम के ६ बजे तक स्कूल में ही रहना था. मुझे फर्स्ट शो में सुबह देखने जाना था,और उसके बाद मैं घर पर अकेली रहने वाली थी.
यूँ ही झींक रही थी कि अकेली रहूंगी,खुद के लिए क्या बनाउंगी ,क्या खाऊँगी..पतिदेव ने दरियादिली दिखाई और कहा, 'मेरा ऑफिस रास्ते में ही है,प्रोग्राम के बाद वहीँ चली आना,लंच साथ में करते हैं'."मैंने चारो तरफ देखा, ख़ुदा नज़र तो नहीं आया पर जरूर आसपास ही होगा, तभी यह चमत्कार संभव था, वरना ऑफिस में तो बीवी का फोन तक उठाना मुहाल है. और यहाँ लंच की दावत दी जा रही थी.जरूर पिछले जनम में मैंने गाय को रोटी खिलाई होगी.:)
खैर प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद मेरी सहेली ने मुझे ऑफिस के पास ड्रॉप कर दिया और हम पास के एक रेस्टोरेंट में गए. वहाँ का नज़ारा देख तो हैरान रह गए. पूरा रेस्टोरेंट कॉलेज के लड़के लड़कियों से खचाखच भर हुआ था. हम उलटे पैर ही लौट जाना चाहते थे पर हेड वेटर ने this way sir ...please this way कह कर रास्ता रोक रखा था. पति काफी असहज लग रहें थे,मुझे तो आदत सी थी. मैं अक्सर सहेलियों के साथ इन टीनेजर्स की भीड़ के बीच CCD में कॉफ़ी पी आती हूँ. बच्चों के साथ ' Harry Potter ' की सारी फ़िल्में भी देखी हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं थी. पर नवनीत का चेहरा देख ,ऐसा अलग रहा था कि इस समय 'इच्छा देवी' कोई वर मांगने को कहे..तो यही मांगेंगे कि 'मुझे यहाँ से गायब कर दे.'. वेटर हमें किनारे लगे सोफे की तरफ चलने का इशारा कर रहा था. पर नवनीत के पैर जैसे जमीन से चिपक से गए थे. मुझे भी शादी के इतने दिनों बाद पति के साथ कोने में बैठने का कोई शौक नहीं था,पर सुबह से सीधी बैठकर पीठ अकड सी गयी थी, सोफे पर फैलकर आराम से बैठने का मन था. शायद नवनीत मेरा इरादा भांप गए और दरवाजे के पास छोटी सी एक कॉफ़ी टेबल से लगी कुर्सी पर ही बैठ गए, जैसे सबकी नज़रों के बीच रहना चाहते हों. वेटर परेशान था,'सर इस पर खाना खाने में मुश्किल होगी',...'नहीं..नहीं हमलोग कम्फर्टेबल हैं..जल्दी ऑर्डर लो.
मूड का तो सत्यानाश हो चुका था..और पतिदेव पूरे समय गुस्से में थे, बीच बीच में बोल पड़ते "इन बच्चों को देखो,कैसे पैसे बर्बाद कर रहें हैं:..माँ बाप बिचारे किस तरह पसीने बहा कर पैसे कमाते हैं और इनके शौक देखो'.वगैरह..वगैरह" ...मैंने चुपचाप खाने पर ध्यान केन्द्रित कर रखा था. ज्यादा हाँ में हाँ मिलाती तो क्या पता कहीं खड़े हो एक भाषण ही ना दे डालते वहाँ. वेटर ने डेज़र्ट के लिए पूछा तो उसे भी डांट पड़ गयी,'"अरे टाईम कहाँ है, जल्दी बिल लाओ"..
जब बाहर निकल, गाड़ी में बैठी तो नाराज़गी का असली कारण पता चला, उन्हें लग रहा था कि सब सोच रहें होंगे वे भी ऑफिस से किसी के साथ लंच पर आए हैं. मन तो हुआ कह दूँ कि,'ना..जिस तरह से आप सामने वाली दीवार घूर रहे थे और चुपचाप खाना खा रहे थे,सब समझ गए होंगे हमलोग पति-पत्नी ही हैं.'...या फिर कहूँ 'ठीक है अगली बार से पूरी मांग भरी सिंदूर और ढेर सारी चूड़ियाँ पहन कर आउंगी ताकि सब समझ जाएँ कि आपकी पत्नी ही हूँ.'पर शायद उनके ग्रह अच्छे थे,ऑफिस आ गया और मेरी बात मुल्तवी हो गयी.
दूसरे दिन सहेलियों को एक दूसरे से पता चला और सबके फोन आने शुरू हो गए,सबने चहक कर पूछा ,"'क्या बात है...सुना,पति के साथ 'लंच डेट' पर गयी थी,कैसा रहा?'..और मेरा पूरा अगला दिन सबको ये किस्सा सुनते हुए बीता.आज यहाँ भी सुना दिया.
'वेलेंटाइन डे' अभी-अभी गुजरा है......अखबार..टी .वी...सोशल नेटवर्क...सब जगह इसके पक्ष-विपक्ष में बातें होती रहीं...पक्ष में तो कम..जायदातर आलोचना ही होती रही कि 'प्यार का एक ही दिन क्यूँ मुक़र्रर है'..वगैरह..वगैरह...पर इतना हंगामा क्यूँ है बरपा..इस एक दिन के लिए......यूँ भी कोई भी कपल...कितने बरस ये वेलेंटाइन डे मनायेगा?..एक बरस...दो बरस...इस से ज्यादा बार 'वेलेंटाइन डे' की किस्मत में एक कपल का साथ नहीं लिखा होता...जन्मदिन या वैवाहिक वर्षगाँठ जरूर सालो साल मनते रहते हैं.
जून २०११ को एक मित्र की शादी हुई. १३ फ़रवरी २०११ यानि वैलेंटाइन डे के एक दिन पहले ...उनकी प्रेमिका ने मुंबई से हैदराबाद कोरियर करके Bournville chocolate का एक डब्बा भेजा .उस चॉकलेट के विज्ञापन में यह संदेश रहता था.."यु हैव टु अर्न इट "..यानि की इस चॉकलेट के हकदार बनने के लिए आपको कुछ करना होगा. वे मित्र महाशय हैदराबाद से फ्लाईट ले १४ फ़रवरी की सुबह...मुंबई पहुँच हाथों में फूलों का गुलदस्ता लिए अपनी माशूका के दर पर हाज़िर .साबित कर दिया कि वे उस चॉकलेट के हकदार हैं.
इस बार वैलेंटाइन डे की पूर्वसंध्या पर हमने पूछा.." कल क्या ख़ास प्रोग्राम है?"
बोले.."कुछ नहीं..पत्नी तो मायके में है"
"पर पिछले साल भी तो वो मायके में ही थी" मैने कह दिया.
"वीकडेज़ है...छुट्टी कहाँ.." उनका अगला जबाब था.
"लास्ट इयर भी तो वीकडेज़ ही था.." मैं कहाँ छोड़ने वाली थीं..
"तब और बात थी..." स्क्रीन के पार दिखा नहीं..पर खिसियानी सी हंसी जरूर होगी उनके चेहरे पर.
"इस बार भी छुट्टी तो ली ही जा सकती है" मुझे मजा आ रहा था उन्हें ग्रिल करने में.
"अभी ड्यू डेट के समय तो लेनी ही पड़ेगी ना...इसलिए छुट्टियाँ बचा रहा हूँ.." मुझे पता था उनकी पत्नी 'फैमिली वे' में हैं.
आगे मैं कुछ कहती कि "गौट टु गो "..कहकर उन्होंने जान छुड़ा ली.
यही एक साल पहले वैलेंटाइन डे कैसे बिताया..उसके किस्से वे विस्तार से सुना रहे थे और अब...उस दिन के जिक्र से ही जान छुडाने लगे थे.
ऐसे ही कुछ और किस्से ध्यान में हैं...कैसे शादी के दूसरे-तीसरे साल...पहली बार वैलेंटाइन डे पर दिए गए कार्ड और गिफ्ट्स देखकर गुजरते हैं...पर हम तो अपनी कथा सुनाने जा रहे हैं...जिन लोगों ने वैलेंटाइन डे सेलिब्रेट किया होता है...उनका तो ये हाल है..जिन्होंने इस चिड़िया का नाम ही शादी के कई साल बाद सुना होता है...उनका ये दिन कैसे गुजरता है...:)
(दो साल पुरानी पोस्ट है..पर एक फ्रेंड के पूछने पर कि 'कैसा रहा आपका वैलेंटाइन डे? 'उसे ये लिंक दिया तो दुबारा फिर से पढ़कर बड़ी हंसी आई...अब अकेले हंसने का क्या मजा...आप सब भी साथ दीजिये..:)}
(इतने छोटे थे..जब कार्ड बनाया था ) |
इनलोगों के स्कूल जाने के बाद मैंने सोचा,कुछ अलग सा करूँ.? बच्चों ने कार्ड दिया है तो कुछ तो करना चाहिए और मैंने सोचा..जब मेहमान आते हैं तभी ढेर सारी,डिशेज बनती हैं. क्रौक्रीज़ निकाली जाती हैं. सफ़ेद मेजपोश बिछाए जाते हैं..चलो आज सिर्फ घर वालों के लिए ये सब करती हूँ. मैं विशुद्ध शाकाहारी हूँ पर घर में बाकी सब नौनवेज़ के शौक़ीन हैं.सोचा,एक ना एक दिन तो बनाना शुरू करना ही है,आज ही सही....मैंने पहली बार फ्रोजेन चिकेन लाया और किसी पत्रिका में से रेसिपी देख बनाया. स्टार्टर से लेकर डेज़र्ट तक. बच्चे समझे कोई डिनर पर आ रहा है...जब ये लोग शाम को खेलने गए तब मैंने सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ भी निकाल कर लगा दी. दोनों बेटे बड़े खुश हुए और मैंने देखा किंजल्क मेरी महंगी परफ्यूम प्लास्टिक के फूलों पर छिड़कने लगा,. जब मैंने डांटा तो बोला,'मैंने टी.वी. में देखा है,ऐसे ही करते हैं"...जाने बच्चे क्या क्या देख लेते हैं.मैंने तो कभी नोटिस ही नहीं किया.
खैर सब कुछ सेट करने के बाद मैंने पतिदेव को फोन लगाया. उनके घर आने का समय आठ बजे से रात के दो बजे तक होता है. हाँ, कभी मैं अगर पूरे आत्मविश्वास से सहेलियों को बुला लूँ...कि वे तो लेट ही आते हैं तो वे आठ बजे ही नमूदार हो जाएंगे या फिर कभी मैं अगर बाहर से देर से लौटूं तो गाड़ी खड़ी मिलेगी नीचे. ये टेलीपैथी यहाँ उल्टा क्यूँ काम करती है,नहीं मालूम. :(
फोन पर कहा....."आज तो बाहर चलेंगे,मैंने खाना नहीं बनाया है.'
वे बोले, "अरे, कहाँ इन सब बातो में पड़ी हो"..
मैंने कहा "ना....when u r in rome do as romans do इसलिए खाना तो बाहर ही खायेंगे".
'मुझे लेट होगा बाहर से ऑर्डर कर लो'.
(स्कूल के दिन ) |
बच्चों को तो मैंने खिला दिया ,उनका साथ भी दिया और इंतज़ार करने लगी. पति एक
बजे ही आए और आते ही बोला, "तुमने ऐसा एक बजे कह दिया की देखो एक ही बज गए"
कहीं पढ़ा था, "workaholic hates surprises "अब तो यकीन भी हो ही गया .
वो दिन है और आज का दिन है,सफ़ेद मेजपोश और क्रौक्रीज़ मेहमानों के आने पर ही निकलते हैं.
कुछ साल बाद एक बार 14th feb को ही मेरे बच्चों के स्कूल में वार्षिक प्रोग्राम था. दोनों ने भाग लिया था.मुंबई में जगह की इतनी कमी है कि ज्यादातर स्कूल सात मंजिलें होते हैं. स्कूल कम,5 star होटल ज्यादा दीखते हैं. क्लास में G,H तक devision होते हैं, लिहाज़ा वार्षिक प्रोग्राम भी ३ दिन तक चलते हैं और रोज़ दो शो किये जाते हैं,तभी सभी बच्चों के माता-पिता देख सकते हैं. उस बार भी इन दोनों को दो शो करने थे यानि सुबह सात से शाम के ६ बजे तक स्कूल में ही रहना था. मुझे फर्स्ट शो में सुबह देखने जाना था,और उसके बाद मैं घर पर अकेली रहने वाली थी.
यूँ ही झींक रही थी कि अकेली रहूंगी,खुद के लिए क्या बनाउंगी ,क्या खाऊँगी..पतिदेव ने दरियादिली दिखाई और कहा, 'मेरा ऑफिस रास्ते में ही है,प्रोग्राम के बाद वहीँ चली आना,लंच साथ में करते हैं'."मैंने चारो तरफ देखा, ख़ुदा नज़र तो नहीं आया पर जरूर आसपास ही होगा, तभी यह चमत्कार संभव था, वरना ऑफिस में तो बीवी का फोन तक उठाना मुहाल है. और यहाँ लंच की दावत दी जा रही थी.जरूर पिछले जनम में मैंने गाय को रोटी खिलाई होगी.:)
खैर प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद मेरी सहेली ने मुझे ऑफिस के पास ड्रॉप कर दिया और हम पास के एक रेस्टोरेंट में गए. वहाँ का नज़ारा देख तो हैरान रह गए. पूरा रेस्टोरेंट कॉलेज के लड़के लड़कियों से खचाखच भर हुआ था. हम उलटे पैर ही लौट जाना चाहते थे पर हेड वेटर ने this way sir ...please this way कह कर रास्ता रोक रखा था. पति काफी असहज लग रहें थे,मुझे तो आदत सी थी. मैं अक्सर सहेलियों के साथ इन टीनेजर्स की भीड़ के बीच CCD में कॉफ़ी पी आती हूँ. बच्चों के साथ ' Harry Potter ' की सारी फ़िल्में भी देखी हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं थी. पर नवनीत का चेहरा देख ,ऐसा अलग रहा था कि इस समय 'इच्छा देवी' कोई वर मांगने को कहे..तो यही मांगेंगे कि 'मुझे यहाँ से गायब कर दे.'. वेटर हमें किनारे लगे सोफे की तरफ चलने का इशारा कर रहा था. पर नवनीत के पैर जैसे जमीन से चिपक से गए थे. मुझे भी शादी के इतने दिनों बाद पति के साथ कोने में बैठने का कोई शौक नहीं था,पर सुबह से सीधी बैठकर पीठ अकड सी गयी थी, सोफे पर फैलकर आराम से बैठने का मन था. शायद नवनीत मेरा इरादा भांप गए और दरवाजे के पास छोटी सी एक कॉफ़ी टेबल से लगी कुर्सी पर ही बैठ गए, जैसे सबकी नज़रों के बीच रहना चाहते हों. वेटर परेशान था,'सर इस पर खाना खाने में मुश्किल होगी',...'नहीं..नहीं हमलोग कम्फर्टेबल हैं..जल्दी ऑर्डर लो.
मूड का तो सत्यानाश हो चुका था..और पतिदेव पूरे समय गुस्से में थे, बीच बीच में बोल पड़ते "इन बच्चों को देखो,कैसे पैसे बर्बाद कर रहें हैं:..माँ बाप बिचारे किस तरह पसीने बहा कर पैसे कमाते हैं और इनके शौक देखो'.वगैरह..वगैरह" ...मैंने चुपचाप खाने पर ध्यान केन्द्रित कर रखा था. ज्यादा हाँ में हाँ मिलाती तो क्या पता कहीं खड़े हो एक भाषण ही ना दे डालते वहाँ. वेटर ने डेज़र्ट के लिए पूछा तो उसे भी डांट पड़ गयी,'"अरे टाईम कहाँ है, जल्दी बिल लाओ"..
जब बाहर निकल, गाड़ी में बैठी तो नाराज़गी का असली कारण पता चला, उन्हें लग रहा था कि सब सोच रहें होंगे वे भी ऑफिस से किसी के साथ लंच पर आए हैं. मन तो हुआ कह दूँ कि,'ना..जिस तरह से आप सामने वाली दीवार घूर रहे थे और चुपचाप खाना खा रहे थे,सब समझ गए होंगे हमलोग पति-पत्नी ही हैं.'...या फिर कहूँ 'ठीक है अगली बार से पूरी मांग भरी सिंदूर और ढेर सारी चूड़ियाँ पहन कर आउंगी ताकि सब समझ जाएँ कि आपकी पत्नी ही हूँ.'पर शायद उनके ग्रह अच्छे थे,ऑफिस आ गया और मेरी बात मुल्तवी हो गयी.
दूसरे दिन सहेलियों को एक दूसरे से पता चला और सबके फोन आने शुरू हो गए,सबने चहक कर पूछा ,"'क्या बात है...सुना,पति के साथ 'लंच डेट' पर गयी थी,कैसा रहा?'..और मेरा पूरा अगला दिन सबको ये किस्सा सुनते हुए बीता.आज यहाँ भी सुना दिया.