बुधवार, 29 दिसंबर 2010

गोवा की रंगीनियाँ क्रिसमस में

राजेश,शशि, नवनीत,निखिल और मैं
मैने अपनी रेल यात्रा के  संस्मरण कई बार लिखे हैं....मेरी विदाउट रिजर्वेशन और विदाउट  टिकट वाली  यात्रा संस्मरण पढ़, समीर जी ने टिप्पणी भी की थी."अब कुछ और बचा हो जैसे रेल की छत पर बैठ कर यात्रा करना आदि तो वो भी सुना ही डालो लगे हाथ. :) "
ऐसी नौबत तो खैर नहीं आई, कभी ...(और अब क्या आएगी )

पर कई बार कार,बस, और प्लेन की यात्रा भी किन्ही ना किन्ही वजह से यादगार बन गयी है...एक बार इन्ही दिनों  मैं गोवा में थी...हर साल ये दिन जरूर याद आ जाते हैं. मुंबई से पास होने की वजह से कई बार गोवा जाना हुआ है.(वैसे राज़ ये है कि Three men in my house को यही destination ज्यादा पसंद है...एकदम इन्फोर्मल सा वातावरण , shorts में काम चल जाता है ....ज्यादा कपड़े नहीं  पहनने पड़ते..और समंदर का आकर्षण तो है ही )

वंदना अवस्थी दुबे ,प्रवीण पाण्डेय जी और भी कई लोगो के संस्मरण पढ़े हैं,गोवा से सम्बंधित.

 पर मेरी सलाह है किसी को गोवा जाना हो तो क्रिसमस के आस-पास ही प्लान करे. मौसम खुशनुमा होता है. सैलानियों की चहल -पहल होती है और हवाओं में ही एक रवानगी होती है. मेरी सबसे यादगार गोवा-यात्रा क्रिसमस के दौरान वाली  ही है.

इसलिए भी कि बस की यात्रा भी बहुत रोमांचक रही...एक सीमा तक भयावह भी.


हमलोग तीन परिवार ने स्लीपर  बस से गोवा जाने का प्लान किया. स्लीपर बस में ट्रेन की तरह  ऊपर वाली सीट गिरा दें तो दोनों तरफ की सीट मिलकर एक बड़ा सा चौरस बेड बन जाता है. साइड बर्थ भी था ट्रेन की तरह ही. सफ़र बहुत मजे में कट रहा था. सब लोग... बिहारी,मराठी, और बंगाली व्यंजनों  का आनंद लेते हुए...कभी कार्ड खेलते तो कभी अन्त्याक्षरी जमती. बच्चे भी अपने ग्रुप में मगन थे. बिलकुल पिकनिक जैसा  माहौल. ग्यारह के करीब  हमलोग सोने गए.

मैने अपने लिए साइड बर्थ चुनी {औरत त्याग की मूरत....:( } .लेकिन ये पता नहीं था ट्रेन और बस की साइड बर्थ में इतना फर्क है. बस, तेज रफ़्तार से घाटियों के बीच से गुजर रही थी..बार-बार टर्न लेती और मुझे लगता...मैं, अब गिरी की तब गिरी .नींद आनी तो दूर, पलकें तक नहीं झपक रही थी. पास वाले हैंडल  को जोर से पकड़ रखा था कि कहीं गिर ना जाऊं. वरना पूरी यात्रा में मेरा मजाक बनता रहता. वैसे ही हिचकोले खाते रास्ता तय हो रहा  था...और अचानक अजीब सी गड़गडाहट सी आवाज़ हुई बस के इंजिन से...और तेजी से किनारे की तरफ जाती बस अचानक रुक गयी. सबलोग इस आवाज़ से जाग गए. ड्राइवर ने बताया कुछ खराबी आ गयी है और किसी तरह उसने बस रोकी है. जब हमारे ग्रुप के पुरुषों ने उतर कर देखा तो पाया,बस का सामने वाला एक पहिया रास्ते के बिलकुल किनारे था और नीचे गहरी खाई थी. बस, कुछ इंचो से नीचे लुढ़कने से बची थी .


रात के दो बज रहे थे. सुबह होने में काफी वक्त था. उस पर से निखिल वैद्य ने नीचे उतर कर देखा और कहा कि 'बस' एक पीपल के पेड़ के नीचे रुकी हुई है. और आज अमावस्या है. पीपल के पेड़ पर भूत रहते हैं. शशि और रेखा की हालत तो वैसे ही  खराब  हो गयी. वो तो मुझे भूत से डर नहीं लगता,वरना खिड़की के पास मेरा ही बेड था. अचानक पीछे से एक गाड़ी बस से  कुछ इंच की दूरी  से निकली. तब सबका ध्यान गया कि हमारी 'बस', पतली सी सड़क पर तिरछी होकर रुकी थी. और उसकी हेडलाईट,टेल-लाईट  सब खराब हो चुके थे . अगर अँधेरे में  किसी दूसरी गाड़ी से पीछे से जरा सा भी धक्का लगता तो बस  गहरी खाई में चली जाती. इन पुरुषों को एक उपाय सूझा. इनलोगों  ने हमारे पर्स से छोटा आईना लिया और बस के पीछे जाकर खड़े हो गए. जहाँ किसी गाड़ी की आवाज़ आती ये लोग शीशा चमकाते,दूसरी गाड़ी की हेडलाईट पड़ते ही शीशा चमक उठता और उन्हें हमारी बस का पता चल जाता. पूरी रात,नवनीत (मेरे पतिदेव) ,निखिल और राजेश, और बस के ड्राइवर,कंडक्टर भी बारी-बारी से शीशा चमकाते रहे.


सुबह हुई तो देखा,हमलोग बीच जंगल में हैं. काफी दूर एक छोटी सी चाय की दुकान मिली. वहाँ  हमलोगों ने उनलोगों से बहुत ही महंगे दामो में पानी खरीद कर एक-एक ग्लास पानी से किसी तरह ब्रश किया और चाय पी. वैसे वे बेचारे भी काफी दूर से पानी ढो कर लाते थे. .बच्चों की तो मस्ती शुरू हो गयी,...वे वहीँ धमाचौकड़ी  मचाने लगे.. कभी पेड़ पर चढ़ते..कभी पत्थरों के पीछे छुपते. हमलोगों को गोवा पहुँचने  की टेंशन के साथ ,बच्चो पर भी ध्यान रखना पड़ रहा था.


पीछे से आती गाड़ियों से लिफ्ट माँगने का सिलिसला शुरू हुआ. बाकी लोग तो दो-दो ,तीन-तीन के ग्रुप में थे. उन्हें आनेवाली गाड़ियों में जगह मिल गयी.पर हमारा बारह लोगो का ग्रुप था. इतनी जगह तो किसी भी गाड़ी में नहीं थी.फिर कंडक्टर को पैसे देकर आगे भेजा...और उस से कोई सुमो या मिनी बस  किराए पर लाने को कहा गया. तब तक गाड़ी के  इंतज़ार में हम भी जंगल में मंगल मनाते रहे.


एक बार गाड़ी आ जाने पर शाम तक हमलोग गोवा पहुँच गए. होटल  की बुकिंग तो पहले से ही कर रखी थी. इतनी थकान के बावजूद, हमलोग फ्रेश होकर तुरंत ही बीच की तरफ निकल लिए.

क्रिसमस में गोवा की रौनक देखते  ही बनती है .हर घर के बाहर रंग-बिरंगी बत्तियों की झालर, और बड़ा सा स्टार लगा हुआ  था.वहाँ  की हवा में ही कुछ ऐसी उमंग और ऐसा उछाह था कि कुछ ही घंटो बाद पूरे ग्रुप ने एकमत से निश्चय किया कि क्रिसमस ही नहीं न्यू इयर भी गोवा में ही मनाएंगे .  इन दिनों विदेशी सैलानियों का हुजूम भी गोवा का रुख करता है. हालांकि यह भी पढ़ा कहीं कि गोवा आना सबसे सस्ता पड़ता है उन्हें, इसीलिए वहाँ के निम्न और मध्य वर्ग गोवा का रूख करते हैं.

वहाँ देखा ,हर होटल के सामने एक शेड बना एक्स्ट्रा चेयर्स लगा कर होटल का एक्सटेंशन कर दिया गया था. ऐसी ही एक जगह ,एक विदेशी महिला को  चाय के ग्लास में 'पाव' डुबो कर खाते देखा. चारो तरफ ,म्युज़िक बजता रहता है...और लोग सड़को पर ही डांस करने लगते हैं. कई विदेशी महिलाएँ अकेली भी आई थीं. और लोकल लड़के उनके लिए गाइड का काम कर रहे थे. देखा मैने, वे उनके साथ ही समंदर में जातीं, होटल में साथ बैठ खाना भी खातीं. रेत पर बियर की बॉटल भी शेयर करतीं. कुछ भी एन्जॉय करने को एक साथी तो होना ही चाहिए,चाहे वो अजनबी...गोअन गाइड ही क्यूँ ना हो.


बियर तो गोवा में शायद पानी की तरह बहती है. मेल-फिमेल का कोई विभेद  नहीं. किसी पुरुष ने एक बियर ऑर्डर की नहीं कि वेटर दो ग्लास लेकर हाज़िर हो जायेगा.एक कपल शायद हनीमून के लिए  आया था. लड़की अपने  पीले रंग के  सिंथेटिक सूट और दो लम्बी चोटियों में लगे लाल मोटे रबर-बैंड के साथ लगता था, किसी यू.पी या बिहार के गाँव से सीधी उठ  कर आ गयी थी.पर जिस आत्मविश्वास के साथ वो बियर सिप कर रही थी,वो मुझे हैरान कर दे रहा था.


गोवा की प्राकृतिक सुन्दरता के बारे में तो इतना लिखा जा चुका है कि नया क्या लिखूं...हाँ, वहाँ एक बहुत ही सुन्दर जलप्रपात है "दूधसागर" वहाँ
  बहुत कम लोग जाते हैं. पर उस जलप्रपात तक पहुँचने कि यात्रा बहुत ही रोमांचक है....आधी दूरी तक एक वाहन ...फिर उसके बाद खुली हुई जीप और फिर  पैदल ही काफी दूरी तय करनी पड़ती है......जिसमे लकड़ी के पुल भी पार करने होते हैं. झरने के आनंद से ज्यादा उस यात्रा का आनंद  उठाने के लिए  जाना चाहिए.

क्रिसमस के दौरान रिवर क्रूज़ की रौनक भी थोड़ी सी ज्यादा थी. मांडवी नदी पर तैरता छोटा सा जहाज , रंग बिरंगी रोशनी में नहाया हुआ था और डेक पर बड़े, बूढे,बच्चे सब तेज संगीत पर थिरक रहे थे. सैंटा क्लॉज़ का ड्रेस पहने व्यक्ति किसी को बैठने ही नही दे रहा था. हमारे ग्रुप पर कुछ ख़ास ही मेहरबान था.और ग्रुप के बाकी सबलोग मुझपर मेहरबान थे. वो दिन ही कुछ ऐसा था. मेरे बर्थडे पर मुझे क्वीन या प्रिंसेस की तरह फील करवा आराम से बैठे रहने देना चाहिए था.पर  जरा सा सबकी  नज़र बचा कर  सांस लेने बैठती  ..और कोई ना कोई उठा ही देता .
 
बर्थडे का जिक्र आ  ही गया. सोचा था लास्ट  इयर की सरप्राइज़ पर तो पोस्ट लिख ही डाली  थी. उसके पहले मिले  सरप्राईज्स पर भी एक पोस्ट लिखी थी. इस बार ब्लॉग पर जिक्र नहीं करुँगी {रहेगा ही क्या, नया करने को ...:)} पर कुछ नई और मजेदार बातें हो ही गईं. एक तो बेटे ने अपने फेसबुक का स्टेटस  लगा दिया, " टुडे इज माइ मॉम्स बर्थडे " और उसके छः सौ फ्रेंड्स में से छुट्टियों में ज्यादातर ऑनलाइन रहते हैं.....दिन भर उसका फोन ,FB के अपडेट्स से टुनटुनाता   रहा, . मेरे फोन ने भी अच्छी संगत दी.:)

कुछ फोन कॉल्स  ने भी चौंका दिया. सुदूर कश्मीर की घाटियों और सात समंदर पार से ब्लॉगर मित्र के कॉल्स ,एक्स्पेक्ट नहीं किए  थे . ब्लॉग, इमेल, फेसबुक, एस.एम.एस से तो बधाइयां मिली हीं...अब जिन्हें नहीं पता था. ये पोस्ट पढ़ कर दे डालेंगे :). ऐसे ही थोड़े ना कहते हैं..
.ये दिल मांगे मोर 

पर मजेदार रहा..मेरी फ्रेंड्स का गिफ्ट. उनलोगों ने मुझे एक किलो प्याज ,गिफ्ट किया. अब इस पर   हंसू या रोऊँ..समझ में नहीं आया...(रोना तो पड़ेगा ही छीलते हुए )


दरअसल कुछ ही दिनों पहले ऐसे ही, मैने फोन पर थोड़ी शान बघारी,"पता है, मैं प्याज डालकर सब्जी बना रही हूँ"
"कितनी रिच हो ना..".राजी मेनन का जबाब था
"और क्या... हम नॉर्थ इंडियंस तो बिना प्याज के कुछ भी नहीं बनाते."..थोड़ा और रौब जमाया

और इनलोगों ने मुझे प्याज गिफ्ट करना तय कर लिया. मैने कहा था, गिफ्ट करते हुए फोटो भी लूंगी और ब्लॉग पर लिख दूंगी...वे और खुश हो गयीं..."हाँ, सब सोचेंगे .... कितना थॉटफुल  गिफ्ट दिया है,हमने" .पर गप-शप में फोटो लेना  ही भूल गयी...हाँ , प्याज की फोटो जरूर ले ली :) आधा किलो प्याज पहले से ही पड़ा था घर में यानि कि डेढ़ किलो प्याज मेरे घर में हैं....Thanx friends for making me feel like a queen :)


आप सबो का नव वर्ष ,हर्षोल्लास से भरा मंगलमय हो..नव-वर्ष की असीम शुभकामनाएं 

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

काली कॉफी में उतरती साँझ


थके कदमो से...
घर के अंदर  घुसते ही
बत्ती  जलाने का भी मन नहीं हुआ 


खिड़की के बाहर उदास शाम,
फ़ैल कर पसर गयी है
मुस्कुराने का नाटक करने की ज़रूरत नहीं आज
जी भर कर जी लूं, अपनी उदासी को
कब  मिलता है ज़िन्दगी में ऐसा मौका!
अपने मन को जिया जा सके
मनमुताबिक!


मोबाइल .... उफ़्फ़!!!
उदासी को जीने के मुश्किल से मिले ये पल
....कहीं छीन ना लें!!
साइलेंट पर रख दूं
लैंडलाइन का रिसीवर भी उतार ही दूं ..
ब्लैक कॉफी के साथ ये उदासी ....
एन्जॉय  करूं ... इस शाम को...!

सारे कॉम्बिनेशन सही हैं
धूसर सी साँझ ...
अँधेरा कमरा ...
ये उदास मन 
..... और काली  कॉफी!! 


शाम के उजास को अँधेरे का दैत्य
लीलने लगा है
आकाश की लालिमा, समाती जा रही है उसके पेट में
दैत्य ने खिड़की के नीचे झपट्टा मार
थोड़ी सी बची उजास भी हड़प ली
छुप गए उजाले नाराज़ होकर

घुप्प अँधेरा फैलते ही
तारों की टिमटिमाहट
से सज गई
महफ़िल आकाश की
जग-मग करने लगें हैं, जो
क्या ये तारे 
हमेशा ही इतनी ख़ुशी से चमकते रहते हैं?
या कभी उदास भी होते हैं!!
मेरी तरह!!

इन्ही तारों में से एक तुम भी तो हो
पर ...
मुझे उदास देख क्या कभी खुश हो सकते थे तुम?

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

खेल में बच्चों का भविष्य और सचिन के गीले पॉकेट्स


   
'जीवन में खेल का महत्व' इस विषय पर हम सबने अपने स्कूली जीवन में कभी ना कभी एक लेख लिखा ही होगा.पर बड़े होने पर हम क्या इस पर अमल कर पाते हैं?अपने बच्चों को 'खेल' एक कैरियर के रूप में अपनाने की इजाज़त दे सकते हैं? हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते. कई मजबूरियाँ आड़े आ जाती हैं. हमारे देश में खेल का क्या भविष्य है और खिलाड़ियों की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है. पर अगर आपके बच्चे की खेल में रूचि हो,स्कूल की टीम में हो, और वह अच्छा भी कर रहा हो तो माता-पिता के सामने एक बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है.
 

स्कूल का नया सेशन शुरू होता है और हमारे घर में एक बहस छिड़ जाती है,क्यूंकि हर खेल की टीम का पुनर्गठन होता है और मैं अपने बेटे को शामिल होने से मना करती हूँ. जब तक वे छोटी कक्षाओं में थे,मैं खुद प्रोत्साहित करती थी,हर तरह से सहयोग देती थी. इनका मैच देखने भी जाती थी.कई बार मैं अकेली दर्शक होती थी. दोनों स्कूलों के टीम के बच्चे,कोच,कुछ स्टाफ और मैं. छोटे छोटे रणबांकुरे,जब ग्राउंड की मिटटी माथे पे लगा,मैच खेलने मैदान में उतरते तो उनके चेहरे की चमक देख, ऐसा लगता जैसे युद्ध के लिए जा रहें हों . मैंने,मैच के पहले कोच को 'पेप टॉक' देते सुना था और बढा चढ़ा कर नहीं कह रही पर सच में उसके सामने 'चक दे' के शाहरुख़ खान का 'पेप टॉक' बिलकुल फीका लगा था, फिल्म डाइरेक्टर के साथ में 'नेगी' थे, अच्छे इनपुट्स तो दिए ही होंगे.फिर भी मुझे नहीं जमा था.
पर जब बच्चे ऊँची कक्षाओं में आ जाते हैं,तब पढाई ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगती है. .क्यूंकि पढाई पर असर तो पड़ता ही है.जिन दिनों टूर्नामेंट्स चलते हैं. २ महीने तक बच्चे किताबों से करीब करीब दूर ही रहते हैं.और एक्जाम में 90% से सीधा 70 % पर आ जाते हैं.ऐसे में
बड़ी समस्या आती है.क्यूंकि भविष्य तो किताबों में ही है.(ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है).एक लड़के को जानती हूँ.जो ज़हीर और अगरकर के साथ खेला करता था. रणजी में मुंबई की टीम में था. १२वीं भी नहीं कर पाया. आज ढाई हज़ार की नौकरी पर खट रहा है...और यह कोई आइसोलेटेड केस नहीं है.ज्यादातर खिलाड़ियों की यही दास्तान है.यह भी डर रहता है,अगर खेल में बच्चों का भविष्य नहीं बन पाया तो कल को वे माता-पिता को भी दोष दे सकते हैं कि हम तो बच्चे थे,आपको समझाना था.और कोई भी माता पिता ऐसा रिस्क लेंगे ही क्यूँ??बुरा तो बहुत लगता है एक समय इनके मन में खेल प्रेम के बीज डालो और जब वह बीज जड़ पकड़ लेता है तो उसे उखाड़ने की कोशिश शुरू हो जाती है. इस प्रक्रिया में बच्चों के हृदयरूपी जमीन पर क्या गुजरती है,इसकी कल्पना भी बेकार है.

अगर उन्हें किसी खेल के विधिवत प्रशिक्षण देने की सोंचे भी तो मध्यम वर्ग के पर्स पर यह अच्छी खासी चपत होती है. coaching.traveling, bat, football ,studs,stockings,pads .... . लिस्ट काफी लम्बी है.
पता नहीं सचिन तेंदुलकर के गीले पौकेट्स की कहानी कितने लोगों को मालूम है? सचिन के पास एक ही सफ़ेद शर्ट पेंट थी.सुबह ५.३० बजे वे उसे पहन क्रिकेट प्रैक्टिस के लिए जाते.फिर साफ़ करके सूखने डाल देते और स्कूल चले जाते,स्कूल से आने के बाद फिर से ४ बजे प्रैक्टिस के लिए जाना होता.तबतक शर्ट पेंट सूख तो जाते पर पेंट की पौकेट्स गीली ही रहतीं.(मुंबई में कपड़े फैलाने की बहुत दिक्कत है,फ्लैट्स में खिड़की के बाहर थोड़ी सी जगह में ही पूरे घर के कपड़े सुखाने पड़ते हैं,यहाँ छत या घर के बाहर खुली जगह नहीं होती..उन दिनों उनके पास वाशिंग मशीन नहीं थी,और सचिन खुद अपने हाथों से कपड़े धोते थे,क्यूंकि उनकी माँ भी नौकरी करती थीं.वैसे भी सचिन अपने चाचा,चाची के यहाँ रहते थे,क्यूंकि उनका स्कूल पास था. चाचा-चाची ने उन्हें अपने बेटे से रत्ती भर कम प्यार नहीं दिया)इंटरव्यू लेने वाले ने मजाक में यह भी लिखा था, क्या पता सचिन के इतने रनों के अम्बार के पीछे ये गीले पौकेट्स ही हों,इस से एकाग्रता में ज्यादा मदद मिलती हो.

20/20 वर्ल्ड कप के स्टार रोहित शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं.रोहित शर्मा मेरे बच्चों के स्कूल SVIS से ही पढ़े हुए हैं. ये पहले किसी छोटे से स्कूल में थे.एक बार समर कैम्प में SVIS के कोच की नज़र पड़ी और उनकी प्रतिभा देख,कोच ने रोहित शर्मा को SVIS ज्वाइन करने को कहा.पर उनके माता-पिता इस स्कूल की फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे. कोच डाइरेक्टर से मिले और उनकी विलक्षण प्रतिभा देख डाइरेक्टर ने सिर्फ पूरी फीस माफ़ ही नहीं की बलिक क्रिकेट का पूरा किट भी खरीद कर दिया,रोहित शर्मा ने भी निराश नहीं किया. 'गाइल्स शील्ड' जिस पर 104 वर्षों तक सिर्फ कुछ स्कूल्स का ही वर्चस्व था.SVIS के लिए जीत कर लाये. मिस्टर लाड को कोचिंग के अनगिनत ऑफर मिलने लगे.बाद में तो एक कमरे में रहने वाले रोहति शर्मा ने मनपसंद कार की नंबर प्लेट 4500 के लिए 95,000Rs. RTO को दिए.(एक ख्याल आया,राज ठाकरे ,इन्हें मुम्बईकर मानते हैं या नहीं क्यूंकि रोहित शर्मा के पिता भी कुछ बरस पहले कानपुर से आये थे )

सचिन और रोहित शर्मा हर कोई तो नहीं बन सकता.पर जबतक हम बच्चों को मौका देंगे ही नहीं खेलने का,उनकी प्रतिभा का पता कैसा चलेगा?..जब कभी मैं बोलती हूँ,सचिन ढाई घंटे तक एक स्टंप से दीवार पर बॉल मारकर प्रैक्टिस करते थे. बच्चे तुरंत पलट कर बोलते हैं हमें तो दस मिनट में ही डांट पड़ने लगती है.
खेल के मैदान से बड़ी ज़िन्दगी की कोई पाठशाला नहीं है.मैंने देखा है, कैसे इन्हें ज़िन्दगी की बड़ी सीख जो मोटे मोटे ग्रन्थ नहीं दे सकते. खेल का मैदान देता है.एक मैच हारकर आते हैं,मुहँ लटकाए,उदास....पर कुछ ही देर बाद एक नए जोश से भर जाते हैं,चाहे कुछ भी हो,हमें अगला मैच तो जीतना ही है. यही ज़ज्बा मैंने खेल से इतर चीज़ों के लिए भी नोटिस किया है.
दूसरों के लिए कैसे त्याग किया जाए,और उस त्याग में ख़ुशी ढूंढी जाए,बच्चे बखूबी सीख जाते हैं.गोल के पास सामने बॉल रहती है,पर इन्हें जरा सी भी शंका होती है,अपने साथी को बॉल पास कर देते हैं,वो गोल कर देता है,उसे शाब्बाशी मिलती है,कंधे पर उठाकर घूमते हैं,अखबार में नाम आता है.और उसकी ख़ुशी में ही ये खुश हो जाते हैं.
 

आज टीनेजर बच्चों को टीचर तो दूर माता-पिता भी हाथ लगाने की नहीं सोच सकते.पर गोल मिस करने पर,या कैच छोड़ देने पर कोच थप्पड़ लगा देता है,और ये बच्चे चुपचाप सर झुकाए सह लेते हैं.एक बार भी विरोध नहीं करते.
समानता का पाठ भी खेल से बढ़कर कौन सिखा सकता है? अभी कुछ दिनों पहले पास के मैंदान में ही अंडर 14 का मैच था. आमने सामने थे,धीरुभाई अम्बानी स्कूल,(जिसमे शाहरुख़,सचिन,सैफ,अनिल,मुकेश अम्बानी के बच्चे पढ़ते हैं) और सेंट फ्रांसिस (जिसमे मध्यम वर्ग के घर के बच्चों के साथ साथ,ऑटो वाले और कामवालियों के बच्चे भी पढ़ते हैं...स्कूल अच्छा है,और fully aided होने की वजह से फीस बहुत कम है.) धीरुभाई स्कूल का कैप्टन था शाहरुख़ का बेटा और सेंट फ्रांसिस का कैप्टन था एक ऑटो वाले का बेटा.जिसकी माँ,मोर्निंग वाल्क करने वालों को एक छोटी से फोल्डिंग टेबल लगा,करेले,आंवले,नीम वगैरह का जूस बेचती है. हम भी, कभी कभी सुबह सुबह मुहँ कड़वा करने चले जाते हैं. उसने उस दिन लड्डू भी खिलाये,बेटे की टीम जीत गयी थी. निजी ज़िन्दगी में ये बच्चे एक साथ कभी बैठेंगे भी नहीं पर मैंदान में धक्के भी मारे होंगे,गिराया भी होगा,एक दूसरे को..
अफ़सोस होता है...यह सबकुछ जानते समझते हुए भी हम मजबूर हो जाते हैं...क्यूंकि दसवीं में जमकर पढाई नहीं की तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा.और फिर किसी वाईट कॉलर जॉब हंटिंग की भेड़ चाल में शामिल कैसे हो पायेंगे ,ये नन्हे खिलाड़ी

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

हम उत्तर भारतीय क्या दे सकते हैं ,इन सवालों के जबाब ??


अपनी  एक कहानी में मैने जिक्र किया था कि कैसे , छोटे शहरों से आकर महानगरो में बसे लोग ,अपने बच्चों के ऊपर ज्यादा  ही प्रतिबन्ध लगाते हैं , और जैसे उन्हें एक जिद सी होती है लोगो को दिखाने की कि मेरे बच्चों को महानगर की हवा छू भी नहीं गयी है...वे बहुत ही आज्ञाकारी हैं ..और हमारी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करते. कुछ ऐसा ही उदाहरण हाल  में ही देखने  को मिला. और यह मेरी पिछली पोस्ट से भी  सम्बंधित है...जैसे  कि माता-पिता, ने फिल्मो में काम करने की इजाज़त तो दे दी..पर यह अंकुश हैं कि हर तरह के रोल नहीं करने हैं. इसी तरह ,आजकल लड़कियों को उच्च -शिक्षा की... मनपसंद नौकरी की...यहाँ तक कि प्रेम विवाह तक की इजाज़त है पर शर्त ये है कि प्रेम अपनी ही जाति के युवक से करो...हाल में ही पढ़ी शरद कोकास जी की  कविता की ये पंक्तियाँ याद हो आयीं, 
           
     

अपने आसपास
उसने बुन लिया है जाल संस्कारों का
उसने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की
जंगल में बहने वाली हवा
एक अच्छे दोस्त की तरह
मेरे कानों में फुसफुसाते हुए गुज़र जाती है
दोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है

बस फर्क ये है कि यहाँ जंगल की हवा फुसफुसाती नहीं बल्कि अभिभावक  स्पष्ट शब्दों में बरज देते हैं.


मेरी एक परिचिता हैं. सहेली भी कह सकती हूँ परन्तु हमारी मुलाक़ात  बहुत ही कम  होती है. साल में मुश्किल से 3,4 अवसर आते होंगे,जब  हम मिल बैठ कर बातें करे. मुंबई में नौकरी वाली  स्त्रियाँ सुबह 8 बजे घर से निकलती हैं और शाम 7,8 के पहले घर नहीं लौट पातीं. छुट्टी का दिन,सबके लिए परिवार का दिन होता है और नौकरी वाली  महिलाओं के सैकड़ों काम राह तक रहें होते हैं. लिहाजा आते-जाते मिल लिए तो बस रास्ते में ही दो मिनट बात हो जाती है,बस . एक दिन उन्होंने कहा कि वे घर पर आएँगी, उन्हें कुछ जरूरी बात करनी है.


मुझे अपने आस-पास की घटनाओं के बारे में लिखते  देख,किसी ने कहा था आपने लोगों के घर में hidden camera  लगवा रखा है क्या ? ऐसा तो नहीं है पर शायद कहानियाँ खुद मुझे ढूँढती हुईं, मुझ तक पहुँच जाती हैं. :)


मिसेज़ जेनिफर  (कल्पित  नाम) का बेटा एक प्रतिष्ठित विमान सेवा में काम करता है. वहाँ एक एयरहोस्टेस से उसका अफेयर हुआ. एयरहोस्टेस उत्तर-भारत की है. उसके पिता कर्नल हैं. उन्होंने इस सम्बन्ध पर कड़ी आपत्ति जताई और बेटे को जान से मारने की धमकी दे डाली. जेनिफर ने  तीन साल पहले ही अपने पति को खोया है. घर में सिर्फ वो और उनका  बेटा है, बेटी की शादी हो चुकी है. वो भी मुंबई में ही थोड़ी दूरी पे रहती है. जेनिफर मुझसे पूछ रही थी, टी.वी. अखबार में तो पढ़ती रहती हैं पर "क्या सचमुच, यू.पी. में 'ऑनर किलिंग' प्रचलन में है और उनके बेटे को खतरा है? " मैं उनके सामने तो सीधी बैठी थी पर अंदर ही अंदर मेरा सर शर्म से झुका जा रहा था. किस बिना पर मैं उन्हें ये आश्वाशन दूँ कि नहीं घबराने की कोई बात नहीं, उत्तर-भारत में ये सब नहीं होता. वो लड़के के साथ-साथ लड़की के लिए भी चिंतित थीं. वो कई बार उनके घर आ चुकी थी और उन्हें पसंद भी थी. मैने पूछा,"आपको कोई आपत्ति नहीं?" तो कहने लगीं  कि उनकी भी इच्छा तो थी कि कैथोलिक लड़की ही बहू बन कर घर आए पर अगर उनके बेटे को ये लड़की पसंद है तो उन्हें भी पसंद है,आखिर ज़िन्दगी, उन दोनों  को साथ गुजारनी है.


उन्होंने कई बार लड़की के पिता से बात करनी चाही.लड़के ने मिलना चाहा पर वे लोंग बात करने को भी तैयार नहीं. अपनी ही बेटी को  टॉर्चर  करने लगे  और उसकी नौकरी छुडवा उसे अपने नेटिव प्लेस पर भेजने को आमादा हो गए. विमान-सेवा में भी बात कर दोनों की ड्यूटी का समय बदलवा दिया ताकि दोनों मिल ना सकें .आखिर लड़की ने कहा कि ,' इस लड़के से रिश्ता तोड़ लिया  है" फिर भी उसका मोबाइल फोन जब्त कर लिया  और उसे कहीं भी आने-जाने की मनाही कर दी. सिर्फ जो कार पिक-अप करने आती, उस से एयरपोर्ट जाती और फिर घर वापस. उसकी माँ रोज आलमारी में उसका एक-एक कपड़ा उठा चेक करती थी की कहीं उसने 'सेल फोन' ,छुपा कर तो नहीं रखा. पर आज के बच्चे 'तू डाल-डाल तो मैं पात-पात'... लड़के ने उसे किसी के हाथो 'सेल फोन' भिजवाया जिसे वह अपने जूते में छुपा कर रखती थी और सिर्फ घर से एयरपोर्ट के रास्ते में उनसे बात करती थी....ये सब बताने  के साथ-साथ व्यग्रता से वे मुझसे पूछतीं, "सचमुच पढ़े-लिखे लोग तो ऑनर किलिंग नहीं करते,ना ...मेरे बेटे को तो कुछ नहीं होगा."


मैने किसी तरह उन्हें अस्श्वस्त किया कि ," नहीं.. ऐसा कुछ नहीं होगा" पर मैं सोच रही थी, आज के युग में भी  लड़की, "लंदन, पेरिस, अमेरिका जा सकती है पर अपनी मर्जी से शादी नहीं कर  सकती." 


बीच-बीच में वे बाहर मिल जातीं ,बताती रहतीं..एक इतवार को  उन्होंने  बताया ,"सबकुछ वैसा ही है..पर लड़की के पैरेंट्स  को विश्वास हो गया है कि वो अब उनके बेटे से नहीं मिलती.और इसीलिए उनलोगों ने उसे एक सहेली के बर्थडे में जाने की इजाज़त दे दी और वो उनलोगों से मिलने आज उनके घर पर आई थी. वे , दोनों की कोर्ट मैरेज करवाने की सोच रही थीं. और पहली बार मुझे पता चला कि 'क्रिश्चियन लोगो के लिए कोर्ट मैरेज  के कुछ अलग कानून हैं' .


दूसरे दिन सोमवार की दोपहर यूँ ही मैने खिड़की से देखा, जेनिफर की बेटी परेशान सी अपनी छोटी सी बच्ची को लेकर धूप में खड़ी थी. . पूछने पर बताया कि माँ के ऑफिस से आने का इंतज़ार कर रही है .मैने अपने घर पर बुला लिया तब उसने बताया कि कल वो लड़की यहाँ आई थी,यह बात उसकी बेस्ट फ्रेंड ने उसके माता-पिता को बता दी. और वे लोंग उसपर बहुत  नाराज़ हुए. उसकी नौकरी छुडवा उसे गाँव  भेज रहें थे.तो उसने बहुत रो-धो कर  अंतिम बार एक फ्लाईट पर जाने की इजाज़त मांगी और एयरपोर्ट से सीधा लड़के के पास आई है. दोनों उसके घर के इलाके के पुलिस स्टेशन में गए हैं ताकि कहीं 'अपहरण का इलज़ाम ना लगा दें ' थोड़ी देर बाद हैरान-परेशान सी माँ भी आ गयीं. बेटी ने हँसते हुए ही पर विद्रूपता से कहा, "उसके माता-पिता को अपने समाज में बदनामी का डर था कि सब हसेंगे कि लड़की ने कैथोलिक लड़के से शादी कर ली...अब क्या कहेंगे जब सब हसेंगे , लड़की घर से भाग गयी"


इन दोनों की कोर्ट  मैरेज हो गयी...दस दिनों तक अपना फ़्लैट छोड़, ये लोग,रिश्तेदारों के घर रहें..."हमलोगों को भी नज़र रखने को कहा था कि कोई हमारे बारे में पूछने तो नहीं आता" वाचमैन को सख्त ताकीद थी, 'किसी अनजान को कुछ नहीं बताने की ' पर सब ठीक रहा . जेनिफर ने बड़े शौक से मेरे साथ जाकर मंगलसूत्र ख़रीदा कि "आखिर आपलोगों के धर्म में मंगलसूत्र का महत्त्व  है , लड़की को कोई अफ़सोस ना हो" उसके माता-पिता ने कोई अवांछित कदम तो नहीं उठाया पर बेटी के अकाउंट से उसके अब तक के कमाए चार  लाख रुपये निकाल लिए .

रविवार, 12 दिसंबर 2010

'.गे' का रोल करना क्या कोई अपराध है??

युवराज पाराशर
ज्यादातर लिखने-पढनेवाले लोंग छोटे शहरो से ही आते हैं...और बड़े गर्व से कहते हैं...'मैं तो छोटे शहर का हूँ' या किसी की तारीफ़ में भी कहते हैं..'उसके अंदर एक छोटे शहर का आदमी है'. मैं भी यह जुमला जब-तब अपने महानगर में जन्म-पले बढे दोस्तों के ऊपर फेंक देती हूँ. वे लोंग कहते/कहती भी  हैं, इतने वर्ष  महानगर में रहने के बाद भी खुद को छोटे शहर का कहती हो...मेरा  रेडीमेड जबाब होता है..' ग्रोइंग एज' तो वहीँ गुजरा .पर कभी -कभी छोटे शहर की  कुछ मानसिकता बहुत दुखी कर जाती है और सोचने पर मजबूर  कर देती है क्या छोटे शहर का सब-कुछ उजला-साफ़-धुला-पुंछा  ही है?

कुछ दिनों पहले 'आगरा' शहर की  एक खबर पढ़ी. वहाँ  का एक नवयुवक, मुंबई के ग्लैमर वर्ल्ड में अपनी जगह बनाने आया. उसने प्रतिष्ठित 'Gladrags competition भी जीता. यह प्रतियोगिता सर्वश्रेष्ठ पुरुष मॉडल  के चुनाव के लिए की जाती है. (लड़कियों के लिए सुपर मॉडल  प्रतियोगिता  होती है जिसे सबसे पहले 'विपाशा बसु' ने जीता था और आज वे एक सफल अभिनेत्री  हैं) उसने कई बड़ी कंपनियों  के लिए मॉडलिंग  की परन्तु अंततः फिल्मो में काम करना ही उनका लक्ष्य होता है.
युवराज  पाराशर को भी एक फिल्म मिली, "डोंट नो वाई, ना जाने क्यूँ. " यह फिल्म 'गे रिलेशनशिप' पर आधारित थी. इसी विषय पर एक अंग्रेजी फिल्म बनी थी." ब्रोकबैक माउन्टेन" इस फिल्म को पूरी दुनिया में बहुत सराहा गया. इसे  कई ऑस्कर अवार्ड भी मिले. यह हिंदी फिल्म भी इसी पर आधारित थी.

भारत में 'गे संबंधो' पर बनी यह पहली सीरियस फिल्म थी. 'दोस्ताना' वगैरह में भी इस विषय को लिया गया है,पर वहाँ कॉमेडी है और उसके नायक सचमुच 'गे' नहीं हैं. इस फिल्म को सिडनी फिल्म फेस्टिवल,लंडन फिल्म फेस्टिवल, न्यूयार्क फिल्म फेस्टिवल में दिखाने के लिए चुना गया. सिडनी फिल्म फेस्टिवल में इसे "viewer's choice award ' भी मिला.स्वीडन,आयरलैंड,
नॉर्वे, टर्की, फिलिपिन्स आदि कई  देशों में इसे वहाँ की  भाषा में डब करके दिखाया गया. फिल्म के दोनों हीरो, युवराज पाराशर और कपिल शर्मा को कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लेक्चर के लिए भी बुलाया गया.

लेकिन  युवराज पाराशर के घरवालो को उसकी इस सफलता से किंचित भी प्रसन्नता नहीं हुई. युवराज पाराशर  ने पहले तो अपने घरवालो से यह बात छुपाये रखी कि वह एक 'गे' का रोल कर रहा है. पर जब फिल्म रिलीज़ होने के बाद घर वालो को पता चला कि उसने एक 'गे' का रोल किया है तो वह बहुत नाराज़ हुए. अपने बेटे से सारे नाते तोड़ लिए, यही नहीं उसके पिता ने एक कदम आगे जाकर कोर्ट में  'युवराज पाराशर ' को बेदखल भी कर दिया. पिताजी ने अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि ,"उसकी माँ रो रो कर बेहाल हो गयी है...वो डिप्रेशन में है. रिश्तेदार और पड़ोसी हमारा मजाक उड़ाते हैं. हमारा घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. अब कोई लड़की उस से शादी नहीं करेगी. इसीलिए मैं यह कदम उठाने को मजबूर हो गया हूँ" और अपने ही बेटे का परित्याग  कर दिया. वे चाहते तो गर्व से अपने बेटे की सफलता से लोगो को अवगत करवा सकते थे. उन्हें सच्चाई बता सकते थे. बाकी लोगो के मस्तिष्क  पर छाया भ्रम दूर कर सकते थे.


सर्वप्रथम तो उनकी अनुमति से या फिर अपनी मर्जी से ही बेटे ने जब ग्लैमर वर्ल्ड में कदम रख ही दिया तो इस तरह की बातों के लिए उन्हें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए था. और बेटे को बेदखल करते वक्त उन्होंने यह भी नहीं सोचा, कि उसकी दुनिया वैसे ही कठिन और संघर्ष भरी है. उसपर से उन्होंने उसका एक मानसिक सहारा भी छीन लिया. वह भी बिना किसी अपराध के. एक 'गे लड़के' का रोल करना क्या अपराध की  श्रेणी में आता है?


वैसे भी इस विषय को लेकर लोगो में बहुत भ्रांतियां हैं. मैने कई लोगो को कहते सुना है कि यह सब पश्चिम की देन है..हमारी संस्कृति में यह सब कभी नहीं था. पर अगर नहीं था तो 'समलैंगिक' शब्द कैसे बना? एक बार एक सहेली से बात हो रही थी, वो कैथोलिक है और 'रायपुर' से है. उसका कहना था, कि उसके माता-पिता और उसके सास-ससुर जानते ही नहीं कि इस तरह के सम्बन्ध भी होते हैं या ऐसे शब्द भी हैं. मुझे लगता है,अवगत तो सब हैं पर इसके बारे में बात नहीं करते या फिर ना जानने का दिखावा करते हैं. यानि कि पाखण्ड . इस्मत चुगताई ने शायद १९४० में लेस्बियन संबंधो  पर आधारित एक कहानी लिखी थी 'लिहाफ' उसके लिए उन्हें काफी विरोध सहने पड़े. पर अब 2010 है...और मानसिकता वहीँ की
वहीँ .

जबकि महानगरो में ,कम से कम से कम मुंबई में लोग खुले विचार के हैं. मेरे बेटे को नाटको का शौक  है. उसने एक नाटक फेस्टिवल में भाग लिया था. उसका रोल एक जमूरे का था. और तेल लगे बाल, घुटनों तक की पैंट पहने उसने बेलौस अच्छी एक्टिंग की थी. एक दूसरे नाटक में एक बच्चे ने एक 'गे' का रोल किया था.' गोल्ड मेडल ' उस 'गे' का रोल करनेवाले को मिला. कई लोगो में मतभेद था कि 'जमूरे' ने ज्यादा अच्छी एक्टिंग की थी.माँ होने के नाते स्वाभाविक है मुझे भी ऐसा ही लगता. पर फिर मैने सोचा,एक तो उस लड़के ने ऐसा रोल करने की हिम्मत की, जबकि वह बच्चा सिर्फ सत्रह साल का था. और दूसरे इस से जागरूकता भी बढ़ेगी और लोंग इसे अस्पृश्य नहीं मानेंगे. उसके मेडल रिसीव करते ही हॉल तालियों से गूँज  उठा और इसमें उसके माता-पिता की तालियाँ भी शामिल थीं

 

आखिर ऐसा क्या है कि एक ही तरह की घटना एक जगह तो माता-पिता से तालियाँ दिलवाती हैं और दूसरी तरफ बेदखली? जबकि आज संचार साधनों के माध्यम से पूरा विश्व ही एक गाँव बन गया है. फिर मानसिकता में यह अंतर क्यूँ है? जबकि मेरा निजी अनुभव यह है कि पत्र-पत्रिका, छोटे शहरो वाले लोग ज्यादा पढ़ते हैं. वहाँ हर नुक्कड़ कोने पर पत्रिकाओं की दुकान मिल जायेगी. जबकि यहाँ मुंबई में या तो स्टेशन पर मिलेंगी या कहीं दूर-दराज किसी एक जगह पर. पढने का कतई शौक नहीं है यहाँ के लोगो को. पर वह एक अलग मुद्दा है. छोटे शहरो में आज भी नवयुवक ज्यादातर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे होते हैं और उसके लिए उन्हें पत्रिकाएं पढनी ही पढ़ती हैं. लेकिन जब वहाँ के लोंग , इतनी पत्रिकाएं पढ़ते हैं फिर वो जागरूकता  क्यूँ नहीं है? चीज़ों को स्वीकारने की विशाल हृदयता क्यूँ नहीं है?? आजकल तो टी.वी. के माध्यम से भी हर तरह की  खबर घर-घर पहुँच रही है. फिर भी इस तरह की घटनाएं देखने को मिलती हैं. यह बहुत ही दुखद है.

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

छोटी सी ये दुनिया...पहचाने रास्ते हैं...

शिल्पी(बीच में ) JNU के अपने गैंग के साथ 
मेरी छोटी बहन 'शिल्पी' JNU से फिलॉसफी में पी.एच.डी कर रही है और 'जानकी देवी कॉलेज' में 'एड हॉक लेक्चरर' भी है...(मुझे तो समझ नहीं आता इतनी छोटी सी लड़की की बातें बाकी बच्चे कैसे सुन  लेते हैं.....ये भी तो उनमे से एक ही लगती है). शादी में JNU से उसके  कई फ्रेंड्स आए थे और शादी का सारा कार्यभार 'शिल्पी और उसके फ्रेंड्स ने ही संभाल रखा था. ये बच्चे सुबह से देर रात तक शादी की तैयारियों में व्यस्त रहते. कभी सुबह सुबह सब्जी  मंडी जा कर ढेर सारी सब्जी लाते..तो कभी फूलवाले , मिठाईवाले या फिर टेलर के पास दौड़ लगाते. इतना अच्छा लगा देख,'शुचि' (bride to be) को पार्लर लेकर उसका चौथी कक्षा में मिला दोस्त अनुज जा रहा था...आज,अनुज ड्राइव कर रहा था और दोनों मुझे वो किस्से सुना रहें थे जब स्कूल  में अनुज,उसकी बड़ी बहन नमिता,  शिल्पी और शुचि एक ही रिक्शे में स्कूल जाते थे. शुचि-नमिता एक क्लास में थे और शिल्पी -अनुज एक क्लास में. चारो आमिर खान के  फैन...उसका नया पोस्टर या ऑडियो कैसेट आते ही टूट  पड़ते...अनुज को पोहा पसंद था ,उसने पहले से ही  कह रखा था.. 'शुचि दी.. मेरे लिए जरूर बचा कर रखना" और शुचि लंच-बॉक्स में  उसके लिए बचा कर ले आती थी. दोनों याद कर रहें थे..कितने अच्छे दिन थे बस रिजल्ट के एक दिन पहले टेंशन होता...बाकी सारे समय मस्ती. लकी हैं वे लोंग..जिनकी, बचपन की दोस्ती यूँ लगातार बनी रहती है.


शिल्पी के  एक फ्रेंड सत्येन ने रंग-बिरंगे दुपट्टों को पता नहीं कैसे मोड कर बड़े ख़ूबसूरत  फूलों का रूप दिया था. और संगीत वाले दिन पूरे हॉल को उन दुपट्टों से सजाया था. मेरी भी सीखने  की तमन्ना थी पर वक्त ही नहीं मिला..वरना एक पोस्ट भी लिख देती उसपर. जब उस से ये बात कही.तो कहने लगा, "ओह! मैं एक सेलिब्रिटी बनने से चूक गया" .जो भी काम सामने दिखे उसे  ये लोंग बिना किसी का इंतज़ार किए झट से पूरा कर देते . सत्येन, अफज़ल, ललित,पवन,जावेद,अनुज  (और नाम मुझे याद नहीं आ रहें ) तुम सबो को तन और मन  से ख़ूबसूरत लड़की जीवनसंगिनी के रूप में मिलेगी ...ऐसा शाहरूख खान ने DDLJ में कहा था कि लड़की की शादी में काम करने से ख़ूबसूरत दुल्हन मिलती है :)


पवन मेराज
शादी के दो  दिन पहले शिल्पी ने बताया कि आज  उसका एक फ्रेंड आ रहा है 'पवन मेराज' वो भी एक ब्लॉगर  है. मेरी उत्सुकता जगी. पूछने पर बताया कि वह नई, आधुनिक कविताएँ लिखा करता है. पवन ने मिलते ही कहा,'हाँ मैं आपको जानता हूँ...आपका ब्लॉग देखा है' अब यह नई बात नहीं रह गयी थी.  परिचय करवाते ही एक उत्सुकता होती है, कि लोंग पूछेंगे...".कहाँ रहती हैं..क्या करती हैं?" उसके अधिकाँश फ्रेंड्स...एक लाइन में बात ख़तम कर देते,'हाँ... आपको जानते हैं' .:(. मैने पवन से यूँ ही पूछ लिया, ' अशोक कुमार पाण्डेय..और शरद कोकास का ब्लॉग पढ़ते हो?"..लगा कविताओं में रूचि है..तो उन्हें जरूर पढता होगा. और वह कहने लगा..."वे दोनों तो मेरे बड़े  भाई जैसे हैं . शरद भैया  हमेशा गाइड करते हैं. अशोक भैया से तो अक्सर  मिलना होता है. वे कदम-कदम पर मेरा मार्गदर्शन करते हैं. कोई भी बड़ा निर्णय मैं उनकी राय के बिना नहीं लेता." .पवन ब्लॉग पर ज्यादा सक्रिय नहीं है...उसकी दूसरी बहुत सारी गतिविधियाँ हैं. उस से साहित्य जगत की ही बातें होती रहीं. हाल में ही 'वसुधा' पत्रिका में उसकी एक लम्बी कविता छपी है. उसने चौदह साल की उम्र से कविताएँ लिखनी शुरू  कर दी थीं...और पवन को अपनी  सारी कविताएँ कंठस्थ हैं. उर्दू का भी उसे अच्छा ज्ञान है और एडवेंचरस भी काफी है...सेल्समैनशिप  से लेकर पत्रकारिता तक आजमा चुका है...अभी तो एक अच्छी सी नौकरी में है.


अशोक जी बिटिया वेरा के साथ
जब मैने शिल्पी को यह सब बताया  कि ' अशोक कुमार पाण्डेय अच्छे मित्र हैं..पवन उन्हें बड़े भाई की तरह मानता है' तो  शिल्पी बड़े जोर से चौंकी .."तुम अशोक भैया को कैसे जानती हो..?" (अशोक जी से मित्रता का  भी दिलचस्प किस्सा है. उन्होंने शायद कुछ सामयिक विषयों पर  मेरी टिप्पणियाँ देख मुझे "जनपक्ष' ज्वाइन करने का आमंत्रण  भेजा था. मैने 'जनपक्ष' ब्लॉग चेक किया और पाया वहाँ तो बड़े बड़े साहित्यकारों...पत्रकारों के गंभीर आलेख  थे .और मैने  अशोक जी को जबाब भेज दिया कि "वहाँ तो बड़ा गंभीर साहित्य लिखा जाता है..जबकि मैं तो बहुत हल्का-फुल्का लिखती हूँ, क्या कंट्रीब्यूट करुँगी? " अशोक जी का जबाब आया "गंभीर साहित्य  क्या होता है?" और मैने मजाक में  लिख डाला, "बोरिंग सा.." दरअसल सोचा ,'कौन से मेरे मित्र हैं...बुरा भी मान जायेंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा.' पर अशोक जी ने बुरा नहीं माना और उनका दो तीन स्माईली  के साथ जबाब आया कि "गंभीर साहित्य हमेशा बोरिंग नहीं होता " और मानती हूँ इस बात को...शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने 'जनपक्ष' से परिचय करवाया और कुछ बहुत ही उत्कृष्ट आलेख पढने को मिले. ) शिल्पी  को तो बता दिया..पर अब मेरी बारी थी पूछने की कि वो कैसे जानती है,उन्हें  तो बताने लगी.."मैं तो उनके घर पर दो दिन रही भी हूँ...जब वह ग्वालियर कोई परीक्षा देने गयी थी तो अशोक जी के घर पर ही रुकी थी " (रिश्तेदारों से कई साल बाद मिलो तो कितना कुछ घट चुका होता है उनके जीवन में... कितने नए रिश्ते बन गए होते हैं...पता भी नहीं चलता )


शिल्पी, अशोक जी की ..किरण भाभी की (अशोक जी की पत्नी किरण पाण्डेय अच्छी बैडमिन्टन प्लेयर है....नेशनल लेवल पर बैडमिन्टन खेल चुकी हैं,पर तब वे 'किरण विश्वकर्मा' थीं. ) और उनकी प्यारी बिटिया 'वेरा' की छोटी सी उम्र में समझदारी भरी कई बातें बताती रही. शिल्पी ने एक रोचक बात बतायी कि वे लोंग यूँ ही चर्चा कर  रहें थे कि 'बचपन की   कौन सी हसरत बाकी है...जो अब तक नहीं की' { अगली परिचर्चा के लिए एक नया आइडिया भी मिल गया :) } शिल्पी ने कहा.."उसे 'बबल गम' से गुब्बारे बनाने नहीं आते " और वेरा ने तुरंत उसे सिखाने का बीड़ा उठा लिया..सिखाया ही नहीं...अगले दिन ताकीद की कि ढेर सारे बबल गम्स लेकर आइयेगा आपको प्रैक्टिस करानी है. :)


जब मुंबई लौट कर ये सब बातें अशोक जी को बताईं तो उनका चौंकना लाज़मी था ...अच्छा था हम चैट कर रहें थे वरना जिस तरह से वे चौंके थे अगर फोन पर बताती तो फोन उनके हाथों से गिर,अपनी  सदगति को प्राप्त हो गया होता:). उन्होंने कहा  " दुनिया कितनी छोटी है, न "..सच में दुनिया कितनी छोटी है ..और खूबसूरत  भी...फिर भी लोंग प्यार से एक-दूसरे की तरफ दोस्ती का हाथ नहीं बढाते बल्कि सामने हाथ बांधे , टेढ़ी गर्दन किए... तिरछी  नज़रों से देखते रहते हैं..{कितने ही चेहरे घूम गए नज़रों के सामने ..:) :) }

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

एक मुख़्तसर सी मुलाकात.......महफूज़ के साथ

लखनऊ  में बहन की शादी तय होने की खबर सुनते ही ,मैने लखनऊ जाने का प्लान बना लिया था. और लखनऊ जाऊं और महफूज़ से ना मिलूं ये तो मुमकिन ही नहीं.  महफूज़ के साथ हुए हादसे के बाद तो मिलने की इच्छा और भी बलवती हो गयी कि अपनी आँखों से देख लूँ..वो बिलकुल ठीक तो है.
पर गिरिजेश राव जी की तरह महफूज़ से भी यही कहा कि शादी की गहमागहमी से फ्री होते ही खबर करती हूँ. शादी संपन्न हो जाने के बाद मेरे पास दो दिन थे. इन्ही दो दिनों में महफूज़ से मिलने की  सोच रखा था .पर हुआ यूँ कि बारात वाले दिन मैं अपना मोबाइल चार्ज करना ही भूल गयी. दूसरे दिन बहन की विदाई के बाद बातें करते कब सो गयी पता ही नहीं चला. (दो तीन दिनों से सुबह तीन-चार बजे सोना...और शादी की रात का जागरण तो था ही ) मोबाइल स्विच्ड ऑफ हो चुका था. रात में ख्याल आया तो चार्जर लगाया.

 दूसरे दिन सुबह स्विच ऑन करते ही महफूज़ के मेसेज आने शुरू हो गए..."आप कहाँ है?"..."आप लौट तो नहीं गयीं"..."प्लीज़ कॉल मी"...अब जाकर अपनी लापरवाही  का अहसास हुआ .उस दिन तो महफूज़ से मिलना था. तुरंत  कॉल बैक किया.  पता चला, महफूज़ फोन कर-कर के परेशान था और मराठी में रेकॉर्डेड मेसेज सुन और परेशान हो गया कि शायद मैं बिना मिले लौट गयी.(ऐसा भला कैसे हो सकता है ) यह सुन और भी अफ़सोस हुआ कि उसने अपनी बहन आएशा के साथ घर आने का प्लान किया हुआ था. आएशा से भी मिलने का सुनहरा  अवसर गँवा दिया था, मैने. आज का दिन तो था पर मेरी शॉपिंग पूरी बाकी थी. चिकन के कुरते...टॉप, सलवार-सूट ,साड़ियों की ढेर सारी खरीदारी करनी थी और शाम की ट्रेन थी. हिचकते हुए महफूज़ से कहा तो उसने कहा ."कोई बात नहीं शॉपिंग ख़तम कर के घर आ जाइए फिर मुझे कॉल करिए .मैं घर पर मिलने आ जाऊँगा." मन ही मन सौ बार थैंक्स कहा उसे.

पर घर से 'अमीनाबाद  मार्केट' बहुत दूर था उस पर से  घर से निकलने में भी देर हो गयी. शादी के घर से निकलना  कितना मुश्किल होता है,सबको आभास होगा...कहीं कोई बहन,मौसी अटैची खोले बैठी होती है..और दूसरी कहती है."जरा ये साड़ी तो देखो..कितनी सुन्दर लग  रही है"...वहाँ ठिठकते हुए, आगे बढ़ो..तो कोई जेवर दिखा रहा होता है...कहीं कोई बच्ची प्यारा सा डांस कर रही होती है,  दो पल  को कदम रुक  ही जाते हैं.....दरवाजे से निकलने  को ही होते हैं कि कोई  काम करनेवाला  फरमाइश कर देता है..'जरा किचन से ये निकाल  कर दे दो" अब या तो खुद उनका काम कर दो..या किसी को ढूंढ कर सौंप दो...सब पूरा कर बाहर निकलो ..तो कुछ
एक्चुअली मैं शादी में इसमें बिजी थी..
बना बनाया जो मिल रहा था :)

बुजुर्ग, कुर्सी लगाए बैठे होते हैं..देखते ही आवाज़ देंगे.."जरा देखो तो कब से चाय के लिए कहा था...लाया क्यूँ नहीं अब तक.." अब वापस पूरी दूरी तय कर चाय के लिए ताकीद करने जाओ.. ..आप सोचते हैं,जल्दी से ऑटो ले निकल  जाएँ..पर किसी घर वाले की नज़र पड़ जाती है..और वे पीछे पड़ जाते हैं.."अरे इतनी गाड़ियां हैं..ऑटो से क्यूँ जाओगी...अरे जरा उसको बुलाओ..वो नहीं है..तो फलां को बुलाओ."....अब इंतज़ार करो..गाड़ी और ड्राइवर का..तो कहने का अर्थ ये कि इन सब अडचनों को पार करते हुए हमें मार्केट के लिए निकलने में दोपहर हो  गयी.

लखनऊ  की ट्रैफिक तो सुब्हानल्लाह ...कोई भी किधर से गाड़ी लिए घुसा चला आता है. वैसे ये boasting  नहीं है.पर मुंबई जैसी systematic  traffic कहीं नहीं है. हैदराबाद जैसे मेट्रो में भी देखा है...कोई extreme right lane से सीधा left turn ले लेता है. राम-राम करके मार्केट पहुंचे...और जल्दी-जल्दी खरीदारी शुरू की. दुकानदार सोच रहें होंगे ,'ऐसे कस्टमर रोज आएँ'. हम चार कुरते देखते और उसमे से दो सेलेक्ट कर लेते.  एक नज़र घड़ी पर थी और एक नज़र कपड़ों पर. शो केस में लगी कितनी ही पोशाकें ललचा रही थीं (अभी भी आँखों के सामने घूम रही हैं :( ) पर समय की कमी के कारण उन्हें ट्राई नहीं कर पायी.

महफूज़ का फोन भी आ रहा था."घर कब पहुँच रही हैं?"  पांच बज चुके थे .और घर जाकर सामान पैक कर वापस स्टेशन के लिए निकलना था. पौने आठ  की ट्रेन थी. किसी तरह शॉपिंग ख़तम की और ईश्वर से प्रार्थना  करते कि कोई ट्रैफिक जैम ना मिले ,घर की तरफ चले.

मेरे आने के कुछ ही देर बाद महफूज़ मियाँ भी अवतरित हो गए...एक सुन्दर सा बुके और मिठाई का पैकेट लिए. उसे बिलकुल स्वस्थ देख, सच बहुत ही ख़ुशी हुई . वही सदाबहार हंसी थी चेहरे पर...किसी अजनबियत की तो कोई गुंजाईश थी ही नहीं. पिछले एक साल में दोस्ती के हर रंग देख लिए हैं. महफूज़ को देखते ही मैने कह दिया.."तुम तो इतने छोटे लगते हो...अभी दो-चार साल शादी  ना करो तब भी "मोस्ट एलिजिबल बैचलर" का खिताब कहीं जाने वाला नहीं." ये चॉकलेट,मिठाई, बुके का जिक्र करना मुझे ठीक नहीं लग रहा. पर वे लोंग लाए थे तो कहना तो पड़ेगा ही..वैसे  ये सब  जरूरी नहीं ..मैने तो उनलोगों को कुछ भी नहीं दिया... बस  शादी की मिठाई ही ऑफर की ..वो भी मौसी की दी हुई....और हाँ एक और चीज़ दिया ....वो था...धन्यवाद  :).

....और ' शिखा, महफूज़  लाल रंग की टीशर्ट पहन कर नहीं आया था.:) ' मैं और शिखा, महफूज़ के  लाल रंग के ऑब्सेशन पर उसकी काफी खिंचाई करते हैं. {पता नहीं, पुरुषों को क्यूँ ये खब्त है कि वे रेड कलर में ज्यादा स्मार्ट दिखते हैं ...अब सारे पाठक अपनी रेड कलर की शर्ट, टी-शर्ट, कुरते  याद कर रहें होंगे...आपलोग कॉन्शस मत होइए, बेहिचक पहनिए :)

 पर महफूज़ से आराम से बैठकर बात तो हो ही नहीं सकी. कभी मैं भाग कर रिश्तेदारों को विदा करने जाती...कभी समान संभालती..कभी महफूज़ से दो बातें करती...महफूज़ को बड़ा अफ़सोस था, ' मेरे ममी-पापा से नहीं  मिल सका' वे स्टेशन के लिए निकल चुके थे. और मुझे अफ़सोस हो रहा था कि वक्त ही नहीं है...जरा

वैसे ,मैने  इतना सारा काम भी किया
आराम से बैठ कर बातें करें. बातों से ज्यादा बस अफ़सोस ही प्रकट होता रहा. एक घंटा  कैसे निकल गया  पता ही नहीं चला. कैमरा ऊपर ही पड़ा था पर एक फोटो लेने की भी याद नही रही...जबकि इतने भाई-बहन सामने थे..कोई भी खींच  देता. बहनों ने मेरे सारे समान  एक जगह जुटा दिए थे. पैकिंग भी कर रही थीं. पर एक बार देख कर सब लॉक तो मुझे ही करना था. इधर मौसी की पुकार भी चल रही थी, "कुछ तो खा लो" बड़े बेमन से महफूज़ को विदा कहा. अब अगली बार सब सिस्टमैटिक होगा. मोबाइल चार्ज करना हरगिज़ नहीं भूलूँगी.

महफूज़ से तो घंटे भर की ही मुलाकात थी..पर उसकी लाई स्पेशल मिठाई ,मेरे साथ मुंबई तक आई. गुझिया के आकार की मिठाई जिसकी पूरी पेठे की थी और अंदर खोया और ड्राई फ्रूट्स  भरा था..जरूर वहाँ की स्पेशियालिटी होगी क्यूंकि यहाँ मुंबई में नहीं मिलती. ट्रेन में मैने को-पैसेंजर्स को ऑफर किया...तो सब नाम पूछने लगे. अब मुझे तो पता ही नहीं था.(अब भी नहीं पता :( ) अली और अब्बास ने तो बस अंदर का खोया खाया और आउटर कवरिंग को चॉकलेट का रैपर समझते रहें. उनके  डैडी ने कितना कहा..'इसे भी खा जाओ...ये खाने की चीज़ है"...पर वे नहीं माने.. रैपर समझ फेंकने ही वाले थे कि डैडी जी ने उदरस्थ  कर लिया.

अपनी सहेलियों को भी खिलाया....उन्होंने  इसे अच्छा नाम दिया.."ये तो बिलकुल पान की तरह है.:)"  मेरे बच्चों ने भी कहा..'आंटी ने सही कहा...बिलकुल पान जैसा है.." और मेरे अंदर की माँ ने गंभीर होकर पूछ लिया.."तुमलोगों को कैसे पता..पान का स्वाद.....कब खाया?"  दोनों ने एक स्वर में कहा.."शादी में खाए हैं...." हाँ! शादी..में बच्चों को चाय-कॉफी-पान की छूट मिल जाती है. पटना  में अटेंड की एक शादी याद आ गयी...वहाँ बिलकुल एक नौटंकी कलाकार की तरह सजा-धजा एक पान वाला था...जो घूम घूम कर कुछ नृत्य जैसी मुद्राएँ बनाते हुए सबको अपने हाथों से पान खिला रहा था. नए से नए तरीके इंट्रोड्यूस हो रहें हैं.

महफूज़ ने बताया इस 'पान वाली  मिठाई' को  ऑनलाइन भी ऑर्डर कर सकते हैं...अब आप में से जो भी ऑर्डर करे..मेरा कमीशन मत भूलियेगा....आखिर मैने ही इसके बारे में बताया है आप लोगों को .:)

 (एक और ब्लॉगर  से मिलने का दिलचस्प किस्सा ..अगली पोस्ट में )

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...