कविता प्रेमियों के लिए 'अशोक कुमार पाण्डेय' जाना पहचाना नाम है. ब्लॉगजगत में जिन लोगों की कविताएँ पढ़ती हूँ और जिनकी नई कविता का इंतज़ार रहता है...अशोक जी का नाम उनमे प्रमुख है. उनके ब्लॉग 'असुविधा' पर कई कवितायें पढ़ी हैं. कुछ दिनों पहले ही उनका कविता -संग्रह ' लगभग अनामंत्रित' पढ़ने का सुयोग प्राप्त हुआ. इस संकलन की हर कविता नायाब है.
युवा कवि एवं आलोचक 'महेश चन्द्र पुनेठा जी' ने अशोक जी की कविताओं के विषय में कहा है..."अशोक की कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। वह जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं।उनकी भा्षा काव्यात्मक है लेकिन उसमें उलझाव नहीं है। उनकी कविताएं पाठक को कवि के मंतव्य तक पहुंचाती हैं। जहां से पाठक को आगे की राह साफ-साफ दिखाई देती है। यह विशेषता मुझे उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत लगती है। अच्छी बात है अशोक अपनी कविताओं में अतिरिक्त पच्चीकारी नहीं करते। उनकी अनुभव सम्पन्नता एवं साफ दृष्टि के फलस्वरूप उनकी कविता संप्रेषणीय है और अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं।
मां दुखी है
उनकी कविताएं अपने समय और समाज की तमाम त्रासदियों-विसंगतियों -विडंबनाओं - अंतर्विरोधों -समस्याओं पर प्रश्न खड़े करती है तथा उन पर गहरी चोट करती हैं। यही चोट है जो पाठक के भीतर यथास्थिति को बदलने की बेचैनी और छटपटाहट पैदा कर जाती है। यहीं पर कविता अपना कार्यभार पूरा करती है।
लगभग अनामंत्रित में 48 कविताएं संकलित हैं. इन कविताओं में जीवन की विविधता दिखाई देती है."
मुझमे कविताओं पर कुछ लिखने की योग्यता नहीं है. बस उन्हें पढना अच्छा लगता है....सोचा एकाध कविताएँ ,यहाँ शेयर की जाएँ.
महेश चन्द्र पुनेठा जी द्वारा इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा यहाँ देखी जा सकती है.वैसे तो उनकी हर कविता पढ़ कर देखनी चाहिए...इस पते पर यह पुस्तक मंगवाई जा सकती है.
शिल्पायन
10295
लें न. 1 , वेस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा, दिल्ली-110032
दूरभाष :011 - 22326078
काम पर कांता
सुबह पांच बजे...रात
बस अभी निकली है देहरी से
नींद
गांव की सीम तक
विदा करना चाहती है मेहमान को
पर....
साढ़े छह पर आती है राजू की बस !
साढ़े आठ बजे...
साढ़े आठ बजे...
सब जा चुके हैं !
काम पर निकलने से पहले ही
काम पर निकलने से पहले ही
दर्द उतरने लगा है नसों में
ये किसकी शक्ल है आइने में ?
वर्षों हो गये ख़ुद का देखे हुए
अरे....पौने नौ बज गये !
दस बजे...
दस बजे...
कौन सी जगह है यह?
बरसों पहले आई थी जहां
थोड़े से खुले आसमान की तलाश में
परम्परा के उफनते नालों को लांघ
और आज तक हूं अपरिचित !
कसाईघर तक में अधिकार है कोसने का्… सरापने का
पर यहां सिर्फ़ मुस्करा सकती हूं
तब भी
जब उस टकले अफ़सर की आंखे
गले के नीचे सरक रही होती हैं
या वो कल का छोकरा चपरासी
सहला देता है उंगलियां फाईल देते-देते
और तब भी
और तब भी
जब सारी मेहनत बौनी पड़ जाती है
शाम की काॅफी ठुकरा देने पर !
शाम छह बजे...
शाम छह बजे...
जहां लौट कर जाना है
मेरा अपना स्वर्ग
इंतज़ार मंे होगा
बेटे का होमवर्क
जूठे बर्तन / रात का मेनू
और शायद कोई मेहमान भी !
रात ग्यारह बजे...
रात ग्यारह बजे...
सुबह नसों में उतरा दर्द
पूरे बदन में फैल चुका है
नींद अपने पूरे आवेग से
दे रही है दस्तक
अचानक करीब आ गए हैं
अचानक करीब आ गए हैं
सुबह से नाराज़ पति
सांप की तरह रेंगता है
ज़िस्म पर उनका हाथ
आश्चर्य होता है
कभी स्वर्गिक लगा था यह सुख !
नींद में अक्सर...
नींद में अक्सर...
आज देर से हुई सुबह
नहीं आई राजू की बस
नाश्ता इन्होने बनाया
देर तक बैठी आईने के सामने
नहीं मुस्कराई दफ़्तर में
नहीं मुस्कराई दफ़्तर में
मुह नोच लिया उस टकले का
एक झापड़ दिया उस छोकरे को
लौटी तो चमक रहा था घर
लौटी तो चमक रहा था घर
चाय दी इन्होने
साथ बैठकर खाए सब
आंखो से पूछा
और.... काग़ज़ पर क़लम से लगे उसके हांथ !
"मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ"
कि मुझ पर रुक जायेगा ख़ानदानी शज़रा
वशिष्ठ से शुरु हुआ
तमाम पूर्वजों से चलकर
पिता से होता हुआ
मेरे कंधो तक पहुंचा वह वंश-वृक्ष
सूख जायेगा मेरे ही नाम पर
जबकि फलती-फूलती रहेंगी दूसरी शाखायें-प्रशाखायें
मां उदास है कि उदास होंगे पूर्वज
मां उदास है कि उदास हैं पिता
मां उदास है कि मैं उदास नहीं इसे लेकर
उदासी मां का सबसे पुराना जेवर है
वह उदास है कि कोई नहीं जिसके सुपुर्द कर सके वह इसे
उदास हैं दादी, चाची, बुआ, मौसी…
कहीं नहीं जिनका नाम उस शज़रे में
जैसे फ़स्लों का होता है नाम
पेड़ों का, मक़ानों का…
और धरती का कोई नाम नहीं होता…
शज़रे में न होना कभी नहीं रहा उनकी उदासी का सबब
उन नामों में ही तलाश लेती हैं वे अपने नाम
वे नाम गवाहियाँ हैं उनकी उर्वरा के
वे उदास हैं कि मिट जायेंगी उनकी गवाहियाँ एक दिन
बहुत मुश्किल है उनसे कुछ कह पाना मेरी बेटी
प्यार और श्रद्धा की ऐसी कठिन दीवार
कि उन कानों तक पहुंचते-पहुंचते
शब्द खो देते हैं मायने
बस तुमसे कहता हूं यह बातकि विश्वास करो मुझ पर ख़त्म नहीं होगा वह शज़रा
वह तो शुरु होगा मेरे बाद
तुमसे !
तुम्हारी दुनिया में इस तरह
सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूं
न डस लेना चाहता हूं
तुम्हारे कदमों की उड़ान को
चूड़ियों की जंजीर में
नही जकड़ना चाहता
सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूं
न डस लेना चाहता हूं
तुम्हारे कदमों की उड़ान को
चूड़ियों की जंजीर में
नही जकड़ना चाहता
तुम्हारी कलाईयों की लय
न मंगलसूत्र बन
झुका देना चाहता हूं
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
जिसका एक सिरा बंधा ही रहे
घर के खूंटे से
किसी वचन की बर्फ़ में
न मंगलसूत्र बन
झुका देना चाहता हूं
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
जिसका एक सिरा बंधा ही रहे
घर के खूंटे से
किसी वचन की बर्फ़ में
नही सोखना चाहता
तुम्हारी देह का ताप
बस आंखो से बीजना चाहता हूं विष्वास
और दाख़िल हो जाना चाहता हूं
ख़ामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आंखों में दाख़िल हो जाती है नींद
तुम्हारी देह का ताप
बस आंखो से बीजना चाहता हूं विष्वास
और दाख़िल हो जाना चाहता हूं
ख़ामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आंखों में दाख़िल हो जाती है नींद
जैसे नींद में दाख़िल हो जाते हंै स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाख़िल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाख़िल हो जाती हैं उम्मीदें
और फिर
झिलमिलाती रहती है उम्र भर.
जैसे स्वप्न में दाख़िल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाख़िल हो जाती हैं उम्मीदें
और फिर
झिलमिलाती रहती है उम्र भर.