शिक्षक दिवस पर जो पोस्ट लिखी थी, उसके बाद ही यह पोस्ट
लिखनी थी पर गणेशोत्सव की तैयारियों ने इतना व्यस्त रखा कि देर होती गयी और
संयोग ऐसा है कि आज हिंदी दिवस के दिन लिखने का मौक़ा मिल रहा है . वैसे तो
किसी ख़ास को याद करने के लिए कोई ख़ास दिन निश्चित नहीं होना चाहिए . पर ये
दिन उनकी यादों में डूबने उतराने का बहाना तो दे ही देते हैं.
यूँ तो हिन्दी हमारी मातृभाषा है ही...पर हिंदी से प्यार करना उसने सिखाया जिसे मैं बेझिझक अपना असली गुरु कह सकती हूँ. प्राइमरी से लेकर एम. ए .तक कई शिक्षक /शिक्षिकाओं ने अपनी शिक्षा से हमारे व्यक्तिव निर्माण में सहयोग दिया पर एक शिक्षक -साथी- पथप्रदर्शक जो हमेशा साथ रहा वो था "धर्मयुग " . साहित्य से प्रेम, खेल -फिल्मों में रूचि , मेरी सोच , मेरा व्यक्तित्व ,मेरा लेखन सब इसी पत्रिका की देन है.
वाक्यों को जोड़ जोड़ कर पढना शुरू किया और तब से ही शायद 'धर्मयुग' पढना भी शुरू कर दिया . शुरुआत तो आबिद सुरती के 'कार्टून कोना ढब्बू जी' से ही हुई होगी . फिर बाल-जगत, क्रीड़ा-जगत , फिल्म -जगत से गुजरते हुए ,राजनीति पर गूढ़ आलेख और कहानियाँ , धारावाहिक उपन्यास भी पढने लगी. धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका थी और काफी बड़े आकार की . आजकल तो कोई भी पत्रिका इतने बड़े आकार की नहीं है पर उन दिनों धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और Illustrated Weekly बहुत बड़े आकार में आते थे .जाहिर है अन्दर पढने की सामग्री भी बहुतायत में होती थी. धर्मयुग के शुरू में ही दो पन्नों में होतीं थीं "आँखों देखी ख़बरें " छोटे-छोटे चित्रों सहित ढेर सारी ख़बरें लिखी होती थीं. देश विदेश की कोई भी खबर नहीं छूटती थी .और धर्मयुग के पाठक बिलकुल अपडेट रहते थे .
धर्मयुग में हर सप्ताह एक कहानी और धारावाहिक उपन्यास की एक क़िस्त छपती थी . 'संजीव', प्रियंवद , गोविन्द मिश्र ,मिथिलेश्वर , मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज़ आज कथा जगत में ये नाम एक सशक्त हस्ताक्षर हैं .इन सबकी पहली कहानी (या प्रथम कहानियों में से )धर्मयुग में ही छपी थीं . सूर्यबाला. मालती जोशी, पानू खोलिया, स्वदेश दीपक ,शिवानी , स्नेह मोहनीश, चित्र मुद्गल इनकी कहानियां तो नियमित ही पढने को मिलतीं.और मैं इनके लेखन की जबरदस्त फैन थी. कुछ कहानियाँ समझ में नहीं आतीं . फिर भी मैं चार बार पढ़ जाती . कमलेश्वर , मन्नू भंडारी , जैसे सशक्त कथाकार भी लगातार धर्मयुग में लिखते थे . एक बार स्कूल की लाइब्रेरी के रख रखाव का काम हम कुछ लड़कियों को सौंपा गया था .वहाँ मुझे धर्मयुग की बहुत सारी पुरानी प्रतियां मिल गयीं . {सहेलियां काम करतीं और मैं उनकी डांट खाते हुए चुपके चुपके धर्मयुग पढ़ा करती :)}उनमें ही मन्नू भंडारी के मशहूर उपन्यास "आपका बंटी " की कुछ किस्तें पढ़ीं . कमलेश्वर की "आगामी अतीत " (अगर मुझे नाम ठीक याद है ) भी पढ़ी जिस कहानी पर गुलज़ार ने एक बेहतरीन फिल्म मौसम बनायी . 'कामना चंद्रा' की कहानी जिसपर फिल्म 'चांदनी' बनी .कुछ और कहानियों के साथ इसके पन्ने भी अब तक मेरे पास सहेजे हुए हैं . इतनी उच्च कोटि की कहानियाँ होती थी कि जीवन में कुछ सीख देकर ही जातीं .
नयी कविताओं का दौर था और धर्मयुग में भी ज्यादातर वैसी कवितायें ही छपतीं पर हमें ज्यादा समझ नहीं आतीं. सूर्यभानु गुप्त की गज़लें और कैलाश गौतम की कवितायें ही पसंद आतीं . एक कविता थी ,'भाभी की चिट्ठी देवर के नाम " जिसमे एक भाभी गाँव का सारा हाल शहर में बसे देवर को चिट्ठी में लिखती है. "पड़ोस की गाय ने बछिया दी है.... मन करता चूल्हे की माटी खाने को " ऐसा ही बहुत कुछ था ..बड़ी अच्छी कविता थी और बहुत चर्चा हुई थी ,उसकी .शायद नेट पर मिल जाए . एक कविता 'राखी का ऋण ' जिसके रचयिता का नाम नहीं याद पर मैंने अपने नोटबुक में नोट करके रखी थी..यहाँ पोस्ट भी की थी .
क्रीड़ा जगत में क्रिकेट, टेनिस, बैडमिन्टन, हॉकी से सम्बंधित आलेख होते . पर ज्यादा बोलबाला क्रिकेट का ही रहता . जब भारत में कोई टेस्ट सीरीज खेली जाती तो बाकायदा क्रिकेट विशेषांक ही निकलता था और तब जरूर धर्मयुग की अतिरिक्त प्रतियां छपती होंगी क्यूंकि बहुत सारे लोग जो नियमित धर्मयुग नहीं लेते ,वे भी वो अंक जरूर खरीदते . दुसरे खेलों का तब भी वही हाल था जो अब है .पर जब प्रकाश पादुकोण ने 'विश्व कप जीता था तो मुखपृष्ठ पर कप के साथ प्रकाश पादुकोण और उनकी पत्नी 'उज्जला करकल ' (जो तब मंगेतर ही थीं ) की बड़ी सी तस्वीर छपी थी . एक और तस्वीर याद आती है 'क्रिस एवर्ट ' और 'विजय अमृतराज' की .विजय अमृतराज ने क्रिस के कंधे पर हाथ रखा हुआ था . क्रिस के उजले गोरे कंधे पर अमृतराज के गहरे रंग के हाथ बहुत ही अजीब से लग रहे थे . उस वक्त मैं बहुत ही छोटी थी फिर भी ध्यान से उस फोटो को देख रही थी और सोच रही थी, इतने गहरे रंग का व्यक्ति इतना हैंडसम कैसे हो सकता है ? (शायद उसे पहला क्रश कह सकते हैं ..दूसरा भी जरूर हुआ होगा..ऐसे ही कुछ लिखते वक़्त ख्याल आ जायेगा :)}
'हास्य व्यंग्य ' का भी एक पेज होता था .जिसमे अक्सर शरद जोशी के आलेख निकलते और शायद धर्मयुग की वजह से ही हास्य के पसंद का स्तर इतना अलग हो गया कि अब कोई कॉमेडी फिल्म -शो पसंद ही नहीं आते . होली पर हास्य कवियों की कुछ रोचक परिचर्चाएं तो अब तक याद हैं . कुछ साल पहले शरद जोशी की बिटिया 'नेहा शरद ' एक मॉल में मिल गयीं . मैंने उनसे 'शरद जोशी' उनकी पत्नी 'इरफाना शरद' की भी ढेर सारी बातें कीं (धर्मयुग में पढ़ी हुई ही ) वे भी सुनकर बहुत खुश हुईं कि मुझे इतना कुछ याद है.
राजनीति परक आलेखों में कम रूचि थी पर पढ़ जरूर लेती थी. और अब लगता है धर्मयुग के आलेखों का टोन शायद समाजवादी होता था . वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं .शायद इसीलिए मेरा रुझान भी समाजवाद की तरफ ही है. पर ज्यादा गहरे मैं तब भी नहीं जाती थी .आज भी दूर ही रहती हूँ .
दो पन्ने फिल्म जगत के भी होते थे . फ़िल्मी कलाकारों के साक्षात्कार या उनपर आलेख होते थे. पर कभी भी कोई 'चीप गॉसिप' नहीं पढने को मिलती. नयी रिलीज़ हुई फिल्मों की समीक्षाएं भी होती थी (और उन्हें पढ़कर जब मैं हॉस्टल जाती तो सहेलियों पर डींगें मारती कि ये फ़िल्में मैंने देख ली हैं )
नारी-जगत में पकवानों की विधि , हस्तकला ,नारी सम्बन्धी आलेख, परिचर्चाएं हुआ करती थीं. धर्मयुग में ही देखा था , चाय की छन्नी के ऊपर कपडा लगाकर एक गुडिया का चेहरा और छन्नी की डंडी पर कुछ कटे कागजों का नोटपैड जैसा बनाने की विधि . मेरे बेटे को जब स्कूल में Best out of waste बनाना था तो मैंने उसे यही बनाना सिखाया .स्कूल के प्रदर्शनी में भी उसे रखा गया था और बहुत पसंद आयी थी लोगों को .
धर्मयुग एक ऐसी पत्रिका थी, जिसमे सबकी रूचि का कुछ न कुछ होता था . और मेरी रूचि तो हर विषय में थी . अब किसी विषय की master तो मैं अपनी वजह से नहीं बन सकी पर jack of all trades निश्चय ही धर्मयुग ने बना दिया .
कई बड़े लेखकों का कहना था , धर्मयुग के सम्पादक 'धर्मवीर भारती ' अपना ज्यादा समय लेखन को नहीं दे पाए,उन्होंने अपना सारा समय धर्मयुग के सम्पादन में लगा दिया. पर उनके सफल सम्पादन ने 'धर्मयुग' को इतनी उच्च कोटि की पत्रिका बना दिया था कि मेरे जैसे कितने ही लोगों का मार्गदर्शन उनके व्यक्तिव निर्माण में धमर्युग ने अपना सहयोग दिया . प्रोफेशनली जो लोग धर्मयुग की वजह से आगे आये , 'उदयन शर्मा, सुरेन्द्र प्रताप सिंह ' इनलोगों को तो सारी दुनिया जानती है पर आम लोगों के जीवन में भी इस पत्रिका के नियमित पठन ने महत्वपूर्ण बदलाव लाये हैं. मेरी बदकिस्मती है कि मैंने धर्मयुग के युवा जगत में लिखना शुरू किया तब तक टेलीविजन का दौर शुरू हो चुका था .लोगों की पढने की आदतें छूटने लगीं और मनोरंजन के लिए लोग टी.वी. का सहारा लेने लगे और मेरी प्रिय पत्रिका बंद हो गयी . मुझे खुद से ज्यादा मेरे बाद वाली पीढ़ियों के लिए अफसोस है कि वे एक इतनी अच्छी पत्रिका से वंचित रह गए .
अगर मेरे जीवन में धर्मयुग नहीं होता तो मेरा व्यक्तित्व अच्छा होता या बुरा ये नहीं पता पर अलग होता यह तो निश्चित है .
यूँ तो हिन्दी हमारी मातृभाषा है ही...पर हिंदी से प्यार करना उसने सिखाया जिसे मैं बेझिझक अपना असली गुरु कह सकती हूँ. प्राइमरी से लेकर एम. ए .तक कई शिक्षक /शिक्षिकाओं ने अपनी शिक्षा से हमारे व्यक्तिव निर्माण में सहयोग दिया पर एक शिक्षक -साथी- पथप्रदर्शक जो हमेशा साथ रहा वो था "धर्मयुग " . साहित्य से प्रेम, खेल -फिल्मों में रूचि , मेरी सोच , मेरा व्यक्तित्व ,मेरा लेखन सब इसी पत्रिका की देन है.
वाक्यों को जोड़ जोड़ कर पढना शुरू किया और तब से ही शायद 'धर्मयुग' पढना भी शुरू कर दिया . शुरुआत तो आबिद सुरती के 'कार्टून कोना ढब्बू जी' से ही हुई होगी . फिर बाल-जगत, क्रीड़ा-जगत , फिल्म -जगत से गुजरते हुए ,राजनीति पर गूढ़ आलेख और कहानियाँ , धारावाहिक उपन्यास भी पढने लगी. धर्मयुग साप्ताहिक पत्रिका थी और काफी बड़े आकार की . आजकल तो कोई भी पत्रिका इतने बड़े आकार की नहीं है पर उन दिनों धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और Illustrated Weekly बहुत बड़े आकार में आते थे .जाहिर है अन्दर पढने की सामग्री भी बहुतायत में होती थी. धर्मयुग के शुरू में ही दो पन्नों में होतीं थीं "आँखों देखी ख़बरें " छोटे-छोटे चित्रों सहित ढेर सारी ख़बरें लिखी होती थीं. देश विदेश की कोई भी खबर नहीं छूटती थी .और धर्मयुग के पाठक बिलकुल अपडेट रहते थे .
धर्मयुग में हर सप्ताह एक कहानी और धारावाहिक उपन्यास की एक क़िस्त छपती थी . 'संजीव', प्रियंवद , गोविन्द मिश्र ,मिथिलेश्वर , मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज़ आज कथा जगत में ये नाम एक सशक्त हस्ताक्षर हैं .इन सबकी पहली कहानी (या प्रथम कहानियों में से )धर्मयुग में ही छपी थीं . सूर्यबाला. मालती जोशी, पानू खोलिया, स्वदेश दीपक ,शिवानी , स्नेह मोहनीश, चित्र मुद्गल इनकी कहानियां तो नियमित ही पढने को मिलतीं.और मैं इनके लेखन की जबरदस्त फैन थी. कुछ कहानियाँ समझ में नहीं आतीं . फिर भी मैं चार बार पढ़ जाती . कमलेश्वर , मन्नू भंडारी , जैसे सशक्त कथाकार भी लगातार धर्मयुग में लिखते थे . एक बार स्कूल की लाइब्रेरी के रख रखाव का काम हम कुछ लड़कियों को सौंपा गया था .वहाँ मुझे धर्मयुग की बहुत सारी पुरानी प्रतियां मिल गयीं . {सहेलियां काम करतीं और मैं उनकी डांट खाते हुए चुपके चुपके धर्मयुग पढ़ा करती :)}उनमें ही मन्नू भंडारी के मशहूर उपन्यास "आपका बंटी " की कुछ किस्तें पढ़ीं . कमलेश्वर की "आगामी अतीत " (अगर मुझे नाम ठीक याद है ) भी पढ़ी जिस कहानी पर गुलज़ार ने एक बेहतरीन फिल्म मौसम बनायी . 'कामना चंद्रा' की कहानी जिसपर फिल्म 'चांदनी' बनी .कुछ और कहानियों के साथ इसके पन्ने भी अब तक मेरे पास सहेजे हुए हैं . इतनी उच्च कोटि की कहानियाँ होती थी कि जीवन में कुछ सीख देकर ही जातीं .
नयी कविताओं का दौर था और धर्मयुग में भी ज्यादातर वैसी कवितायें ही छपतीं पर हमें ज्यादा समझ नहीं आतीं. सूर्यभानु गुप्त की गज़लें और कैलाश गौतम की कवितायें ही पसंद आतीं . एक कविता थी ,'भाभी की चिट्ठी देवर के नाम " जिसमे एक भाभी गाँव का सारा हाल शहर में बसे देवर को चिट्ठी में लिखती है. "पड़ोस की गाय ने बछिया दी है.... मन करता चूल्हे की माटी खाने को " ऐसा ही बहुत कुछ था ..बड़ी अच्छी कविता थी और बहुत चर्चा हुई थी ,उसकी .शायद नेट पर मिल जाए . एक कविता 'राखी का ऋण ' जिसके रचयिता का नाम नहीं याद पर मैंने अपने नोटबुक में नोट करके रखी थी..यहाँ पोस्ट भी की थी .
क्रीड़ा जगत में क्रिकेट, टेनिस, बैडमिन्टन, हॉकी से सम्बंधित आलेख होते . पर ज्यादा बोलबाला क्रिकेट का ही रहता . जब भारत में कोई टेस्ट सीरीज खेली जाती तो बाकायदा क्रिकेट विशेषांक ही निकलता था और तब जरूर धर्मयुग की अतिरिक्त प्रतियां छपती होंगी क्यूंकि बहुत सारे लोग जो नियमित धर्मयुग नहीं लेते ,वे भी वो अंक जरूर खरीदते . दुसरे खेलों का तब भी वही हाल था जो अब है .पर जब प्रकाश पादुकोण ने 'विश्व कप जीता था तो मुखपृष्ठ पर कप के साथ प्रकाश पादुकोण और उनकी पत्नी 'उज्जला करकल ' (जो तब मंगेतर ही थीं ) की बड़ी सी तस्वीर छपी थी . एक और तस्वीर याद आती है 'क्रिस एवर्ट ' और 'विजय अमृतराज' की .विजय अमृतराज ने क्रिस के कंधे पर हाथ रखा हुआ था . क्रिस के उजले गोरे कंधे पर अमृतराज के गहरे रंग के हाथ बहुत ही अजीब से लग रहे थे . उस वक्त मैं बहुत ही छोटी थी फिर भी ध्यान से उस फोटो को देख रही थी और सोच रही थी, इतने गहरे रंग का व्यक्ति इतना हैंडसम कैसे हो सकता है ? (शायद उसे पहला क्रश कह सकते हैं ..दूसरा भी जरूर हुआ होगा..ऐसे ही कुछ लिखते वक़्त ख्याल आ जायेगा :)}
'हास्य व्यंग्य ' का भी एक पेज होता था .जिसमे अक्सर शरद जोशी के आलेख निकलते और शायद धर्मयुग की वजह से ही हास्य के पसंद का स्तर इतना अलग हो गया कि अब कोई कॉमेडी फिल्म -शो पसंद ही नहीं आते . होली पर हास्य कवियों की कुछ रोचक परिचर्चाएं तो अब तक याद हैं . कुछ साल पहले शरद जोशी की बिटिया 'नेहा शरद ' एक मॉल में मिल गयीं . मैंने उनसे 'शरद जोशी' उनकी पत्नी 'इरफाना शरद' की भी ढेर सारी बातें कीं (धर्मयुग में पढ़ी हुई ही ) वे भी सुनकर बहुत खुश हुईं कि मुझे इतना कुछ याद है.
राजनीति परक आलेखों में कम रूचि थी पर पढ़ जरूर लेती थी. और अब लगता है धर्मयुग के आलेखों का टोन शायद समाजवादी होता था . वामपंथी या दक्षिणपंथी नहीं .शायद इसीलिए मेरा रुझान भी समाजवाद की तरफ ही है. पर ज्यादा गहरे मैं तब भी नहीं जाती थी .आज भी दूर ही रहती हूँ .
दो पन्ने फिल्म जगत के भी होते थे . फ़िल्मी कलाकारों के साक्षात्कार या उनपर आलेख होते थे. पर कभी भी कोई 'चीप गॉसिप' नहीं पढने को मिलती. नयी रिलीज़ हुई फिल्मों की समीक्षाएं भी होती थी (और उन्हें पढ़कर जब मैं हॉस्टल जाती तो सहेलियों पर डींगें मारती कि ये फ़िल्में मैंने देख ली हैं )
नारी-जगत में पकवानों की विधि , हस्तकला ,नारी सम्बन्धी आलेख, परिचर्चाएं हुआ करती थीं. धर्मयुग में ही देखा था , चाय की छन्नी के ऊपर कपडा लगाकर एक गुडिया का चेहरा और छन्नी की डंडी पर कुछ कटे कागजों का नोटपैड जैसा बनाने की विधि . मेरे बेटे को जब स्कूल में Best out of waste बनाना था तो मैंने उसे यही बनाना सिखाया .स्कूल के प्रदर्शनी में भी उसे रखा गया था और बहुत पसंद आयी थी लोगों को .
धर्मयुग एक ऐसी पत्रिका थी, जिसमे सबकी रूचि का कुछ न कुछ होता था . और मेरी रूचि तो हर विषय में थी . अब किसी विषय की master तो मैं अपनी वजह से नहीं बन सकी पर jack of all trades निश्चय ही धर्मयुग ने बना दिया .
कई बड़े लेखकों का कहना था , धर्मयुग के सम्पादक 'धर्मवीर भारती ' अपना ज्यादा समय लेखन को नहीं दे पाए,उन्होंने अपना सारा समय धर्मयुग के सम्पादन में लगा दिया. पर उनके सफल सम्पादन ने 'धर्मयुग' को इतनी उच्च कोटि की पत्रिका बना दिया था कि मेरे जैसे कितने ही लोगों का मार्गदर्शन उनके व्यक्तिव निर्माण में धमर्युग ने अपना सहयोग दिया . प्रोफेशनली जो लोग धर्मयुग की वजह से आगे आये , 'उदयन शर्मा, सुरेन्द्र प्रताप सिंह ' इनलोगों को तो सारी दुनिया जानती है पर आम लोगों के जीवन में भी इस पत्रिका के नियमित पठन ने महत्वपूर्ण बदलाव लाये हैं. मेरी बदकिस्मती है कि मैंने धर्मयुग के युवा जगत में लिखना शुरू किया तब तक टेलीविजन का दौर शुरू हो चुका था .लोगों की पढने की आदतें छूटने लगीं और मनोरंजन के लिए लोग टी.वी. का सहारा लेने लगे और मेरी प्रिय पत्रिका बंद हो गयी . मुझे खुद से ज्यादा मेरे बाद वाली पीढ़ियों के लिए अफसोस है कि वे एक इतनी अच्छी पत्रिका से वंचित रह गए .
अगर मेरे जीवन में धर्मयुग नहीं होता तो मेरा व्यक्तित्व अच्छा होता या बुरा ये नहीं पता पर अलग होता यह तो निश्चित है .