मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

काँच टूटे उन पन्नों पर...और किरचें कहीं और जाकर चुभे --- प्रियंका गुप्ता

                                                                                                                                                                                                    
प्रियंका गुप्ता एक युवा लेखिका हैं. खूब सारा लिखती हैं. पत्रिकओं में अखबारों में लगातार छपती रहती हैं .
और इनका लिखा बहुत पसंद किया जाता  है . इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं .
काँच के शामियाने पर इतना बढ़िया लिखने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया :)


काँच के शामियाने-(रश्मि रविजा)-
मन में चुभी किरचें...उफ़!
यूँ तो किताब छप कर हाथ में आते ही रश्मि जी से मैने कहा था...जल्दी ही पढ़ती हूँ...फिर बताती हूँ...। पर उस समय कुछ ऐसी परिस्थितियाँ आई कि चाह कर भी मैं तुरन्त इस उपन्यास को नहीं पढ़ पाई...और पहली फ़ुर्सत मिलते ही जैसे ही इसे पढ़ने लेकर बैठी, जाने कितने सालों बाद पहले के दिनों की तरह एक बैठक में ही सारा उपन्यास पढ़ गई...। आखिरी पन्ना बन्द करने के कुछ ही पलों बाद मैने रश्मि जी को सिर्फ़ एक शब्द में अपनी प्रतिक्रिया दी थी...awesome...
वैसे तो एक लेखक-पाठक के बीच किसी भी रचना के असर को जानने के लिए (मेरे हिसाब से ) महज इतना संवाद ही पर्याप्त था, पर फिर भी जाने क्यों लगा, इस उपन्यास पर अगर कुछ और नहीं कहा तो अन्दर कुछ भरा रह जाएगा...। कहने को तो यह एक कहानी है, पर फिर भी बेहद अपनी-सी...। मेरे ख़्याल से जया महज एक नाम नहीं, एक पात्र भर नहीं है...वो तो जैसे इस सारी क़ायनात की ऐसी औरतों का प्रतिबिम्ब है जो रोज़-ब-रोज़ ऐसे ही किसी नरक से गुज़रते रहने को अभिशप्त हैं...। अत्याचार जया पर होते हैं, उसकी टीस पाठक के कलेजे को बींध जाती है...। सबसे अच्छी बात यह है कि जया सब कुछ सहने के बावजूद हारती नहीं है, हारना चाहती ही नहीं...। वह लड़ने को तैयर है...। परिवार से, समाज से, राजीव से...और शायद अपने आप से भी...।
मुझे लगता है जया जैसी औरतों की लड़ाई सबसे पहले अपने भीतर शुरू होती है...। इस लड़ाई में हर ऐसी औरत को सबसे पहले खुद से जूझते हुए जीतना होता है...। बाहरी लड़ाई तो बहुत बाद में आती है...। जया-राजीव के रूप में रश्मि जी ने बहुत सारे सामाजिक ताने-बाने को पूरी जीवन्तता से उजागर कर दिया है...। भारतीय समाज की न जाने कितनी औरतों ने यही सब झेला है। इस उपन्यास में कपोल-कल्पना जैसा तो कुछ है ही नहीं...। हर दूसरी आम लड़की की तरह जया भी मायके में अपनी सारी तकलीफ़ें सिर्फ़ इस लिए छुपाती है ताकि उनको कोई दुःख न हो...। पर क्या फ़ायदा...? उसके दुःख-तक़लीफ़ें जान कर भी उसकी माँ-भाई क्या करते हैं...? उनकी हर कोशिश तो यही होती है न कि उनकी अपनी बहन/ बेटी अपनी ज़िन्दगी की इतनी बड़ी लड़ाई एक दरिन्दे के हाथों हार जाए...।
सच कहूँ तो रश्मि जी की तरह मैं भी यही मानती हूँ कि राजीव को जानवर कहना भी उन बेज़ुबानों का अपमान होगा...। इस एक वाक्य में सब कुछ शीशे की तरह साफ़ झलक जाता है न...। सबसे अच्छी बात यह...जया अपनी लड़ाई खुद लड़ती है और जीतती भी है...। अगर वह ऐसा न करती तो शायद मैं एक पाठिका के तौर पर राजीव से ज़्यादा जया से नफ़रत कर बैठती...।
इस उपन्यास को पढ़ना एक पीड़ा से गुज़रने सरीखा है...एक ऐसी पीड़ा जो आग में तपते हुए सोने को महसूस होती होगी...। पर उस पीड़ा में कुन्दन बन कर और भी मूल्यवान हो जाने का जो सकून होता होगा, यह वैसी ही एक यात्रा है...। इसे पढ़ते हुए मैं ‘मैं’ रह ही नहीं गई थी...। मुझे नहीं मालूम मैं उस वक़्त कौन थी...। मैं तो जया हो गई थी...उसकी हर लड़ाई खुद लड़ते हुए...डरते हुए कि अगले ही पल कहीं वो हार न जाए...। उसके आँसू अपने गालों पर बहता महसूस करते हुए...। उसके भीतर की आग में खुद जलते हुए, एक अनोखे आक्रोश और ऊर्ज़ा से परिपूर्ण...सिर्फ़ एक औरत...।
मेरे विचार से रश्मि जी के लेखन की सार्थकता तो इसी बात से साबित हो जाती है जब उसका पाठक उनके पात्रों के साथ एकाकार हो जाए...। काँच टूटे उन पन्नों पर...और किरचें कहीं और जाकर चुभे...।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

"काँच के शामियाने ' पर आर. एन. शर्मा जी के विचार


आर.एन.शर्मा जी एक बहुत ही सजग और गंभीर पाठक हैं . उन्हें पढने का बहुत शौक है . दुनिया के हर भाषा की  अधिकाँश विख्यात किताबें वे पढ़ चुके हैं और लगातार पढ़ते रहते हैं .
उनकी इस उपन्यास पर प्रतिक्रिया  खास मायने रखती है .
बहुत आभार आपका.
                                                                      


 काँच के शामियाने

'कांच के शामियाने'...उपन्यास पढ़ने के बाद अभी तक उसके कई चरित्र, जया-राजीव-संजीव-रूद्र आदि, दिमाग में घूम रहें हैं।

सोचता हूँ कोई इतना क्रूर और निर्दयी कैसे हो सकता है। न सिर्फ राजीव और उसके घरवाले [संजीव को छोड़] , बल्कि जया के इर्द गिर्द जो समाज है उसने भी जया की जिंदगी को नर्क बना दिया और कैसे जया भी इतना शारीरिक और मानसिक अत्याचार बर्दाश्त करती रही इतने लंबे समय तक महज़ इसलिए की उसके अपने घरवाले और आस पास के लोग क्या कहेंगे। पूरे उपन्यास में कम से कम 150 पृष्ठ तक यही कहानी है जो पाठक को अंदर तक न सिर्फ छू जाती है बल्कि हिला डालती है। कई घटनाएं आँखे नम कर जातीं है।सहानुभूति जैसा शब्द शायद छोटा है, लगता है की जया को खुद जाकर इस दलदल से निकाल लाएं। बाद की कहानी जया के साहस और उसके 3 समझदार बच्चों की कहानी है। दिन तो उसके पलटने ही थे पर बहुत समय लग गया। अंत में एक सुखद अहसास छोड़ गया...

बहुत समय पहले रश्मि जी की एक कहानी " छोटी भाभी" पढ़ी थी। पता नहीं क्यों " कांच के शामियाने" पढ़ते समय " छोटी भाभी" रह रह के याद आती रही। लगता नहीं की कोई कहानी पढ़ी जा रही है।यही रश्मि जी के लेखन का कमाल है।

रही बात भाषा की, हिंदी के साथ भोजपुरी का प्रयोग न सिर्फ अच्छा लगा बल्कि उसके होने से पटना, सीतामढ़ी और बिहार के दूर दराज़ इलाकों और वहां के रीत रिवाजों से पाठक अच्छी तरह वाकिफ हो सका। वहां की स्थानीय भाषा होने से वहां के सामजिक परिवेश की अच्छी झलक देखने को मिली। वैसे भी रश्मि जी के शब्दों और शैली का चयन बे मिसाल है।

इतने अच्छे उपन्यास के सृजन के लिए वे बधाई की पात्र हैं।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

कुमार प्रशांत श्रीवास्तव की 'काँच के शामियाने 'से रोचक मुलाक़ात


कहानी लिखने वालों के साथ, अक्सर कहानियाँ भी घटित होती हीहैं . एक ऐसा ही कुछ रोचक वाकया हुआ .

 एक सज्जन, जिन्हें किताबें पढने का शौक है ,और जो अक्सर ऑनलाइन किताबें मंगवाते रहते हैं. अमेजन से दो किताबें मंगवा रहे थे तो उनकी नजर 'कांच के शामियाने' पर पड़ी . उन्हें किताब के नाम ने आकर्षित किया और उन्होंने किताब ऑर्डर कर दी .(और मुझे कुछ लोगों से फीडबैक मिला था कि नाम बड़ा पुराना सा है, सत्तर के दशक का लगता है, कोई कूल नाम होना चाहिए .एक हफ्ते तक मैं कुछ सोच में थी पर फिर अपने सूत्र वाक्य, 'सुनो सबकी करो अपने मन की' पर अमल करते हुए यही नाम रहने दिया )बाद में भी कई लोगों ने लिखा कि सबसे पहले उन्हें उपन्यास के नाम ने ही आकृष्ट किया .

उन्हें किताब पसंद आई ,एक ही सिटिंग में पढ़ ली उन्होंने और फिर मुझे मैसेज करने को मुझे फेसबुक पर ढूँढा तो पता चला उनके और मेरे दो म्युचुअल फ्रेंड्स हैं. उनकी पत्नी की मामी मेरी भी फ्रेंडलिस्ट में हैं .उन्होंने तुरंत अलका को फोन लगा कर पूछा ,'आप रश्मि रविजा को कैसे जानती हैं' अलका इस पर क्या कहे क्यूंकि हमारी जब तक फोन पर बात नहीं होती, हमारा दिन शुरू नहीं होता. वो मेरी छोटी बहन है यानि कि Kumar Prashant Srivastava की पत्नी पूजा के मामा की शादी मेरे मामा की बेटी से हुई है. :)


प्रशांत जी ने किताब पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी है .: "Aaap ka novel kaanch ke shamiyane padha.. maine ek bar shuru kiya to yakin maniye bina khatm kiye ruk nahi paya..just abhi finish kiya hai. Last page tak aate aate mai khud emotional ho gaya.... I must say grt work.. Waiting for ur next novel.
. As i am only a reader not a good writer, so can't express my feelings about this novel in so many words, but i want to say that its contents have so much emotions which can make its place in best seller group very soon. Now about the story ...

जो कि शुरुआत में ये दिखाती है कि एक लड़की की शादी आज भी घर के सिचुएशन और एक रुढीवादी सोच ( लड़का अच्छा खाता -कमाता है, और क्या चाहिए ) पर निर्भर है. और कहानी में एक पुरुष का अहम् उसकी जिद ,एक परिवार की स्वार्थपरक इच्छाएं , दोहरा मापदंड ,फिर एक स्त्री (महिला) के दुःख दर्द और संघर्ष और अंत में अपनी पहचान बनाने के संघर्ष और प्रयास, सब कुछ है, इसमें .एक पाठक के अंदर के बहुत से इमोशन, इसको पढ़ते हुए जाग जाते हैं. शुरू में दुःख, क्रोध, फिर दर्द,दया और अंत में ख़ुशी के आंसू > मुझे इसमें जो बहुत अच्छा लगा, उसमे सेपहला तो ये है कि जो एक माँ का अपने बच्चे को जन्म देने का जुनून और ज़ज्बा और दूसराइसका समापन .

जिस तरह से माँ और बच्चे के लाड़ -दुलार किया गया है, वो मन को हर्षित कर देता है. "

यह प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत मायने रखती है क्यूंकि यह एक ऐसे पाठक कीप्रतिक्रिया है , जो फेसबुक, ब्लॉग किसी भी माध्यम से मुझसे कनेक्टेड नहीं थे .और उहोने किताब का नाम पहले पढ़ा, लेखिका का बाद में .
बहुत शुक्रिया प्रशांत जी ,आपने और कुछेक मित्रों ने मेरे मन से ये वहम भी दूर कर दिया कि पुरुषों को ये किताब शायद पसंद ना आये.

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

"काँच के शामियाने' पर कलावंती सिंह जी की टिप्पणी

कलावंती सिंह जी एक संवेदनशील कवियत्री और जानी मानी समीक्षक हैं . उनकी कवितायें और पुस्तकों की समीक्षा प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. उनका बहुत आभार  ,उन्होंने इस उपन्यास पर अपनी प्रतिक्रिया दी .

रश्मि रविजा का उपन्यास काँच के शामियाने अभी अभी पढ़कर उठी हूँ। सरल भाषा शैली मे लिखा गया एक अत्यंत रोचक उपन्यास । बहुत दिनों बाद कोई ऐसी चीज पढ़ी जहां बौद्धिकता का आतंक नहीं है । मुझे लगता है कि ऐसे पारिवारिक उपन्यासों का बहुत प्रचार प्रसार होना चाहिए ताकि लोग इसे पढ़कर मनोरंजन और शिक्षा दोनों पा सकें।

आज भी परिवार ही किसी व्यक्ति को सुरक्षा और सम्मान दे सकता है अच्छे बुरे वक़्त में उसके साथ खड़ा रहता है। एक पारिवारिक जीवन है और उसकी विसंगतियों की कहानी है यह । आज स्त्री शिक्षा और स्त्री सशक्तिकरण, संपति का अधिकार जैसे तमाम आंदलनों के बावजूद समाज में स्त्री की असली स्थिति क्या है? अपने लिए नौकरी करने या उसमें आगे बढ्ने के तमाम साल औरत को अपने बच्चे बड़े करने में लग जाते हैं। घर में किए गए कार्यों का कोई मोल नहीं। संवेदनशील लड़कियों को दोहरी मार झेलनी पड़ती है। लोग योग्य लड़कियों से विवाह तो करना चाहते है पर उसे सम्मान देना नहीं जानते। हर समय नीचा दिखाते हैं। पुरुष विवाह के बाद उसे जैसे चाहे रखे । मायके के लोग भी कभी उसको मायके के घर को अपना समझने नहीं देते। 

मेरे आस पास की कितनी ही लड़कियों का चेहरा मैंने इस उपन्यास में देखा।

रश्मि रविजा ने बहुत छोटे छोटे डिटेल्स को बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा है और लिखा है।

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...