गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

DDLJ : अच्छा है कि 'राज' हमारी यादों में जिंदा एक फिल्म किरदार है


आशा है,आप सबकी दीपावली...खुशियों से भरी गुजरी होगी...और दीपों के आलोक ने घर के साथ-साथ आपके जीवन को भी रौशन कर दिया होगा.

मुझे भी आज थोड़ी फुरसत मिली और टी.वी. ऑन किया तो देखा "दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे' फिल्म पर एक प्रोग्राम आ रहा था. करीब सोलह साल पहले, दिवाली के दिन ही यह फिल्म रिलीज़ हुई थी..और तब से मुंबई के एक थियेटर 'मराठा मंदिर' में अब तक इस फिल्म का शो चल रहा है..पब्लिसिटी स्टंट ही लगती है....थियेटर के मालिक और निर्माता-निर्देशक की जरूर मिली-भगत होगी...वरना सोलह साल से रोज कहाँ से कोई दर्शक मिलता होगा?? (वैसे ये मेरे अपने विचार हैं..सच का पता नहीं) ...मन है, एक बार उस थियेटर में जाकर असलियत पता की जाए..पर कोई मेरा साथ नहीं देनेवाला ..और अकेले फिल्म मैं देखती नहीं...इसलिए सच  एक रहस्य ही रह जाएगा :(.  दो साल पहले DDLJ  के चौदह साल पूरे होने पर, 'अजय ब्रहमात्मज जी' ने अपने ब्लॉग 'चवन्नी चैप' पर इस फिल्म से जुड़े अपने अनुभवों पर कुछ लिखने को कहा था..तभी ये पोस्ट लिखी थी...तो आज मौका भी है..और दूसरे ब्लॉग से अपना लिखा यहाँ पोस्ट करने का दस्तूर भी...सो निभा देते हैं रस्म :)


DDLJ  से जुड़ी मेरी यादें कुछ अलग सी हैं. इनमे वह किशोरावस्था वाला अनुभव नहीं है,क्यूंकि मैं वह दहलीज़ पार कर गृहस्थ जीवन में कदम रख चुकी थी. शादी के बाद फिल्में देखना बंद सा हो गया था क्यूंकि पति को बिलकुल शौक नहीं था और दिल्ली में उन दिनों थियेटर जाने का रिवाज़ भी नहीं था.पर अब हम बॉम्बे (हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) में थे और यहाँ लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे. एक दिन पति ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'फिल्म देखने चलना है?'(शायद उन्होंने भी ऑफिस में DDLJ की गाथा सुन रखी थी.) मैं तो झट से तैयार हो गयी.पति ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था.जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए.चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था. यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था. मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख पति को भी लौटना पड़ा.पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए.



फिल्म शुरू हुई तो काजोल की किस्मत से रश्क होने लगा...सिर्फ सहेलियों के साथ लम्बे टूर पर जाना. साथ-साथ मेरी कल्पना के घोडे भी दौड़ने लगे,काश!हमें भी ऐसा मौका मिला होता तो कितना मजा आता. शाहरुख़ खान के राज़ का किरदार तो जैसे दिल मानने को तैयार नहीं--'ऐसे लड़के भी होते हैं? एक अजनबी लड़की का इतना ख्याल रखना ...आरामदायक कमरा छोड़ इतनी ठंड में बाहर सोना..और उस पर से होंठ सी कर उसकी इक्तनी सारी डांट सुनना .......ना,ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में ही हो सकता है'.पर जब उनका टूर ख़तम हो गया तो उनके बीच जन्म लेते नए कोमल अहसास बिलकुल सच से लगे. 'तुझे देखा तो ये जाना सनम...."इस गीत के पिक्चाराइजेशन ने भी इस अहसास को बड़ी खूबसूरती से उकेरा है. कम ही रोमांटिक गीतों की पिक्ज़राइज्शन अच्छी लगती है..पर इसकी अच्छी लगी..
फिल्म जब पंजाब में काजोल की शादी की तैयारियों तक पहुंची तो 'राज' का चेहरा किसी के चेहरे के साथ गडमड होने लगा. वह चेहरा था मेरे छोटे भाई 'विवेक' का. बिलकुल 'राज' की तरह ही वह उस शादी के घर में बिलकुल अजनबी था. लेकिन छोटे-बड़े, नौकर-चाकर, नाते-रिश्तेदार सबकी जुबान पर एक ही नाम होता था--'विवेक'
 
विवेक मेरे दूर का रिश्तेदार है,मेरी मौसी के देवर का बेटा...पर है बिलकुल मेरे सगे छोटे भाई सा. मैं छुट्टियों में अपनी मौसी के यहाँ गयी थी,वहीँ विवेक से मुलाक़ात हुई. हम दोनों में अच्छी जम गयी. वह दिन भर मुझे चिढाता रहता और मैं किसी से भी उसका परिचय यूँ करवाती--"ये विवेक हैं,जिनकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई"

मैं अपने चाचा की बेटी की शादी में गयी थी . विवेक का घर चाचा के घर के बिलकुल करीब था. और वहां विवेक हमलोगों से मिलने आया. बिलकुल 'राज' की तरह वह बाकी लोगों से ऐसे घुल मिल गया जैसे बरसों की जान पहचान हो. मुझे याद नहीं कि किसी ने विवेक को शादी में फोर्मली इनवाइट किया हो पर किसी ने जरूरत भी नहीं समझी,जैसे मान कर चल रहें हों,वह तो आएगा ही. और शादी के दिन सुबह से ही विवेक तैनात. आजकल तो स्टेज,मंडप की साज सज्जा,खाना पीना सब contract पर दे देते हैं पर उन दिनों हलवाई के सामने बैठकर खाना बनवाना,बाज़ार से राशन लाना,मंडप सजाना सब घर के लोग मिलकर ही करते थे. ऐसे में विवेक के दो अतिरिक्त उत्साही हाथ बहुत काम आ रहे थे.भैया का तो वह जैसे दाहिना हाथ ही हो गया था.


DDLJ के राज की तरह वह किसी मकसद के तहत लोगों को खुश नहीं कर रहा था. बल्कि यह उसके स्वभाव में शामिल था. फिल्म की तरह गाना बजाना तो उन दिनों नहीं होता था. पर 'राज' की तरह ही वह जब मौका मिलता बच्चों से घिरा रहता और जहाँ कोई मामा,चाचा,दिख जाते कहता--"बच्चों, बोलो मामा की जय'. बच्चे भी गला फाड़ कर चिल्लाते. फिर वह मामा,चाचा से कहता,"पैसे निकालिए ,ये इतनी जयजयकार कर रहें हैं." वे लोग भी हंसते-हंसते सौ पचास रुपये पकडा देते और वह मुझे थमा देता,'जमा करो,सब मिलकर चाट खाने जायेंगे या सबके लिए चॉकलेट लाया जाएगा."


अमरीश पुरी की तर्ज़ पर  कई बड़े-बूढे उसे यूँ काम करता देख, ऐनक उठा,सीधे ही पूछ लेते."तुम किसके बेटे हो?"और वह मुझे इंगित कर कहता,"मैं इनका छोटा भाई हूँ"..क्या परिचय देता कि मैं लड़की की चाची की बहन के देवर का बेटा हूँ.


शादी के दूसरे दिन, सुबह जब दूल्हा शेव कर तैयार होने लगा तो विवेक पहुँच  गया,"अरे आप दूल्हा हैं,खुद शेव करेंगे?..लाइए मैं शेव कर देता हूँ." और शेव करने के बाद बोला,"अब नेग निकालिए" लड़के ने भी मुस्कुराते हुए कुछ नोट पकडा दिए जो मेरे पास जमा हो गए. इस बार आइसक्रीम खाने के लिए.


मेरे चाचा दिखने में तो अमरीश पुरी की तरह रौबदार नहीं थे पर उनके बच्चों के साथ साथ हमलोग भी उनसे बहुत डरते थे. उस पर से जब बाराती छत पर पंगत में खाना खाने बैठे तो विवेक ने उनकी चप्पलें छुपा दीं. जब चप्पलें ढूंढी जाने लगी तो चाचा की क्रोधाग्नि में भस्म होने का हम सबको पूरा अंदेशा था. हमने विवेक को आगे कर दिया, "तुम्हारा आइडिया था,तुम भुगतो" और वह चाचा से बहस करता रहा,'इनलोगों ने जनवासे में हमें कितना परेशान किया है...समोसे गरम नहीं हैं...थम्स-अप ठंढा नहीं है.,...आइसक्रीम पिघली हुई है...इन्हें भी थोड़ा परेशान होने दीजिये "  पूरी शादी में पहली बार चाचा के चेहरे पर मुस्कान दिखी और उन्होंने विवेक को मनाया,चप्पलें वापस करने को.


विदा होते समय रूबी जोर-जोर से रो रही थी. भाई शायद पूरे साल बहन से झगड़ता हो,पर विदाई के समय बहन को रोते देख उसका दिल दो टूक हो जाता है, भैया ने विवेक को बोला,'तुम कार में साथ में बैठ जाओ,रास्ते में जरा उसे हंसाते हुए जाना." 
विवेक बोला..'अरे मेरे कपड़े नहीं हैं,कोई तैयारी नहीं है,ऐसे कैसे चला जाऊं?"
भैया ने बोला,'कोई बात नहीं,मैं कल लेता आऊंगा' 
और विवेक दुल्हन के साथ दूसरे शहर चला गया,जहाँ पहुँचने में कम से कम ८ घंटे लगते थे.

फिर बरसों बाद विवेक से मिलना हुआ. मेरे मन में उसकी वही शरारती छवि विद्यमान थी.पर १२वीं में पढने वाला वह लड़का, अब धीर गंभीर बैंक ऑफिसर बन चुका था,शादी भी हो गयी थी. बड़े अदब से मिला...मैंने पति से परिचय करवाया."ये विवेक है"(पर दूसरी पंक्ति कि 'जिसकी विवेक से कभी मुलाक़ात नहीं हुई' कहते कहते रुक गयी.) 

अच्छा है कि 'राज' एक फिल्म किरदार है और हमारी यादों में अपने उसी रूप में जिंदा है वरना सोलह साल बाद उसके हाथ में भी  'माऊथ ऑर्गन'की जगह एक लैपटॉप होता और चेहरे पर सदाबहार खिली मुस्कान की जगह होता चिंताओं का रेखाजाल.

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

सुबह की सैर के बहाने

कुछ दिनों पहले प्रवीण पाण्डेय जी ने और अजित गुप्ता जी ने अपने प्रातः भ्रमण पर एक पोस्ट लिखी थी...इसके काफी पहले से ही मैं भी मय-तस्वीरों के एक पोस्ट लिखनेवाली थी....पर बस, टलता ही रहा..कुछ महीनो से पता नहीं कैसी व्यस्तता चल रही है कि अब इसका जिक्र भी फ़िज़ूल लग रहा है...


जब-जब थोड़ा समय निकाल कर ऑनलाइन आई...ब्लॉग-जगत में चल रही किसी ना किसी डिस्कशन  में उलझ गयी...दिमाग का दही बन गया है..:(

अब शायद ये पोस्ट लिखते वक्त जरा मूड फ्रेश हो जाए...आशा है आपका भी. {लेखन से नहीं तो तस्वीरों से ही सही :)}

शायद बचपन में ही हॉस्टल में रहने के कारण सुबह उठने में कभी आलस्य महसूस नहीं हुआ...बच्चों के स्कूल की खातिर तो खैर सारी महिलाओं को सुबह की नींद को तिलांजलि  देनी ही पड़ती है. तो सुबह बच्चों को स्कूल बस में बिठाकर मेरा प्रातः-भ्रमण शुरू हुआ. मेरे घर के आस-पास के दो पार्क में जाने में तो पांच मिनट भी नहीं लगते...दो और पार्क भी पास ही हैं..वहाँ जाने में दस मिनट लगते हैं...उनमे से तीन पार्क में सुमधुर संगीत भी बजता रहता है...लता-रफ़ी-किशोर के के पुराने नगमे . बस सुबह की शुरुआत हो तो ऐसी.:) 


फिर भी मैं इन पार्क में नहीं जाती. जाने की शुरुआत तो की पर जॉगिंग ट्रैक पर वो गोल-गोल चक्कर लगाते बोर हो जाया  करती थी. कभी समय देखती कभी राउंड गिनती...आगे चलने वालों को पीछे छोड़ देने की चाह में चाल तेज करने में मजा भी आता...कई सारी सहेलियाँ भी मिल जातीं...फिर भी एकरसता कायम रहती .

और मिलते-जुलते खयालात वाले लोग आपस में मिल ही जाया करते हैं. राजी भी बच्चों को छोड़ने बस स्टॉप पर आती..उसे भी मॉर्निंग वाक का शौक....पर पार्क में जाना गवारा नहीं. उसने कॉलोनी के अंदर से पेडों से घिरा एक ख़ूबसूरत सा रास्ता चुन रखा था...लम्बा-घुमावदार-ऊँचा-नीचा रास्ता जिसपर चल कर जाने और आने में कुल एक घंटे लगते...और मैं उसके साथ हो ली. अच्छी कंपनी-ख़ूबसूरत रास्ता-सुबह का समय..परफेक्ट कॉम्बिनेशन. कहीं अमलतास के फूलों की चादर बिछी होती तो कहीं हरसिंगार के फूलों की. चिड़ियों की चहचहाट  के साथ, कोयल की कूक भी खूब सुनायी देती है. {दूसरे पक्षियों की आवाज़ मैं पहचानती ही नही :)}

इन रास्तों पर कई लोग मिलते हैं. उनमे एक हैं मेजर अंकल ( राजी कई बार पूछ चुकी है...अब तक मेजर अंकल का जिक्र तुम्हारी पोस्ट में नहीं आया? ) लम्बे-छरहरे तेज चाल से चलते हुए अंकल से कोई पहचान नहीं है..पर वे हमें वाक करते देख बड़े खुश होते हैं...दूर से ही हाथ फैला कर कहते हैं. " My  daughters  " और राजी कहती है..अगर फॉरेन कंट्रीज में होते तो अंकल जरूर हमें गले से लगा लेते. उनकी आवाज़ से ही इतना स्नेह छलक रहा होता है.  पर हमारे यहाँ तो अजनबियों को देख कर मुस्कुराते भी नहीं. मॉर्निंग वाक पर कुछ चेहरे हम वर्षों से देख रहे हैं.पर एक-दूसरे को देख कर भी अनदेखा कर देते हैं. ऐसे में विदेशों की ये प्रथा अच्छी लगती है. जहाँ अजनबियों की तरफ भी एक मुस्कान उछालने  से कोई परहेज नहीं की जाती.

एक बार कुछ दिनों तक अंकल को नहीं देखने पर हमने पूछ लिया..' अंकल वेयर हैव उ बीन ?'   और उन्होंने कहा,  "डोंट कॉल मी अंकल...कॉल  मी पप्पा " . शायद उनकी बेटी भी हमारी उम्र की ही होगी. अगर हमें फोन पर बात करते  देख लिया तो जोर की डांट भी लगा देते हैं...और हमने भी अगर उन्हें सामने से आते देख लिया तो जल्दी से फोन नीचे कर देते हैं... बारिश के दिनों में छतरी लाना भूल गए तब भी डांट पड़ती  हैं....अगर कभी थक कर हम  चाल धीमी कर देते हैं...तो उत्साह बढ़ाती उनकी आवाज़ जरूर आती है  " walk  fast... walk   fast  " 


कुछ लोगो का एक ग्रुप है जिसे उन्होंने खुद ही नाम दे रखा है.."गोविंदा ग्रुप" वे लोग एक दूसरे को देखकर नमस्ते या हलो नहीं बोलते....एक ख़ास अंदाज़ में 'गोss विंदा' कहते हैं. रास्ते में एकाध झोपडी भी है..उसके बाहर छोटे-छोटे बच्चे , इस ग्रुप को देखते  ही जोर से 'गोssविंदा' कहकर चिल्लाते हैं ये लोग भी उसी सुर में जबाब देते हैं...इतने उम्रदराज़ लोगो का ये बचपना देखना,अच्छा लगता है. 

महिलाएँ नियमित कम ही हैं..कुछ दिनों के लिए आती हैं..फिर ब्रेक ले लेती हैं. हमारी भी कई सहेलियों ने हमारे साथ वाक शुरू किया...पर कुछ दिनों  से ज्यादा  नियमित नहीं हो सकीं. पर एक Miss Sad  face  भी हमारी तरह ही रेगुलर है. पता नहीं क्यूँ हमेशा उसके चेहरे पर हमेशा एक मायूसी...एक वीतराग सा भाव रहता है. किसी ने कहा है, " if u  see someone  without a smile , give him one  of yours "  पर हमने कितनी कोशिश की पर वो सीधा सामने देखती हुई चली जाती है. हमारी स्माइल लेती ही नहीं. .:(

लिखते वक्त एक कुछ साल पहले की घटना याद आ रही है...जब हमने कुछ शैतानी भी की थी. कुछ दिनों से हम गौर कर रहे थे ...एक पेड़ के नीचे एक कार खड़ी होती है...शीशे चढ़े होते हैं. हम समझ गए उसके यूँ खड़े होने का मकसद. और जान-बूझकर उस कार के आस-पास जोर जोर से बातें करते हुए चक्कर लगाते रहते. कुछ ही दिनों में वो कार नया ठिकाना ढूँढने को निकल पड़ी. 

पिछले एक दो साल से सुबह चेन खींचने की घटनाएं भी आम हो गयी हैं. ...अब पुलिस गश्त लगाती रहती है. एक बार मोटरसाइकल पर एक पुलिसमैन को अपनी तरफ घूरते हुए पाया..और मन खीझ गया...मुंबई में तो आम लोग भी नहीं घूरते और ये पुलिसवाला...बेहद गुस्सा आया. पर आगे देखा वो एक महिला को रोक कर समझा रहा था.."चेन या मंगलसूत्र पहन कर ना आया करें" तब समझ में आया...वो देख रहा था...मैने भी पहनी है या नहीं...हाल में ही एक पुलिसमैन, मोटी चेन पहने एक पुरुष को समझाते हुए कह रहा था,..."काय करता तुमीस....अमाला प्रोब्लेम  होतो".

सैर से लौटते समय अक्सर  ही सब्जियां खरीद लाते हैं हम और हर बार मेरी जुबान से निकल ही जाता है.."ओह! रिटायर लोगो की तरह...रोज़ सब्जियां खरीद कर ले जाती हूँ" मुंबई में पली-बढ़ी राजी को ये बात समझ नहीं आती....और वो समझाने पर भी नहीं समझ  पाती..."हमारे यहाँ यूँ, सुबह-सुबह औरतें सब्जी खरीद कर नहीं लातीं" 

जब हम, पसीने से लथ-पथ.. चिपके बाल.. थका चेहरा लिए बिल्डिंग  के अंदर आते हैं...तो कितनी ही सजी संवरी , सुन्दर कपड़ों में बिलकुल फ्रेश दिखती  महिलाएँ ऑफिस के लिए निकल रही होती हैं. हम उन्हें देख कर मायूस हो जाते हैं...पर वे शायद हमें देख उदास हो जाती होंगी..क़ि "क्या लग्ज़री है...हम तो मॉर्निंग वाक पर जाने की सोच भी नहीं  सकते" 
वही है..कुछ खोया  कुछ पाया...







कौन चित्रकार है...ये कौन चित्रकार 

ये टहनियों से पैकेट की तरह लटकते चित्र , उलटे टंगे  चमगादड़ों के हैं.

विटामिन डी देने आ गया सूरज 

हम तो चले स्कूल 

मराठी पढ़ाने वाले हमारे कॉलोनी के काका..जिनपर एक पोस्ट लिखनी कब से ड्यू है.
पेवमेंट पर बिकती वसई से आई ताज़ी सब्जियां 

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

सुबह से ही आँखों में नमी सी है....

अनूप जलोटा के जन्मदिन पर उनके पारिवारिक समारोह में बर्थडे बॉय की फरमाईश पूरी करते हुए
काश..काश...ऐसी पोस्ट लिखने का मौका कभी नहीं आता...कोई चमत्कार हो ही जाता और जगजीत सिंह जी सकुशल अस्पताल से वापस अपनी उन्ही ग़ज़ल की दुनिया में लौट आते...पर ऐसा हो ना सका.

रोज़ अखबारों में उनके स्वास्थ्य के अपडेट्स ढूँढने वाली आँखें...अब उनकी अंतिम यात्रा की ख़बरें कैसे पढ़ पाएंगी, राम जाने..... दुख इतना गहरा है कि कुछ भी लिखना फ़िज़ूल लग रहा है...कहाँ इतनी काबिलियत है मेरे लेखन में कि अंदर का सारा दर्द शब्दों में उतार सके.

हमारी पीढ़ी ऐसी है कि प्रेम..रोमांस.....विछोह...दुख...दर्द... सब जगजीत सिंह की ग़ज़लों के सहारे ही महसूस किया है. फिल्म साथ-साथ..अर्थ...और उनकी ग़ज़लों के कुछ कैसेट्स सुनकर ही मन के गलियारों में एक दूसरी दुनिया का पदार्पण हुआ .

आज भी जब मैं या मेरे जाननेवाले..स्कूल-कॉलेज के दिन याद करते हैं तो जगजीत सिंह का नाम अनायास ही आ जाता है...उन दिनों उनकी गज़लों के प्रति दीवानगी की ये सीमा थी कि लगता था...उनकी गज़लें और उनकी आवाज़ में छुपा दर्द मुझसे बेहतर शायद ही कोई समझ सकता है. कितने सारे उर्दू शब्द , उनकी ग़ज़लों से ही जाना...ग़ालिब के अशआर से परिचय भी जगजीत सिंह की आवाज़ के जरिये ही हुआ.एक कजिन से शायद पिछले पंद्रह-सोलह बरस से नहीं मिली हूँ...पर आज भी जब भी बात होती है..एक बार जरूर पूछ लेता है.."अब भी वैसे ही ,जगजीत सिंह की गज़लें सुना करती हो?" उसने फेसबुक पर अकाउंट बनाया ,और फ्रेंड्स रिक्वेस्ट के साथ मैसेज में यही लिखा.."और जगजीत सिंह के क्या हाल हैं?" इतने दिनों की बिछड़ी सहेली से जब बारह बरस बाद बात हुई...तो उसने बात की शुरुआत ही इस वाक्य से की.." कुछ दिनों पहले जगजीत सिंह की बीमारी की खबर सुनी तो तुम्हे बहुत याद कर रही थी.." जगजीत सिंह के बहाने याद करने का बहाना भी गया..अब लोगो के पास से...

जिंदगी में तीन शख्सियत की ही घोर प्रशंसक रही...जगजीत सिंह..सुनील गावस्कर और जया भादुड़ी...अभी हाल में ही किसी से कहा...दो का जादू तो उतर गया...पर जगजीत सिंह के स्वर के जादू ने आज भी वैसे ही मन मोहा हुआ है...खैर जो गज़लें हमारे खजाने में शामिल हो चुकी हैं..वे तो यूँ ही महकती रहेंगी...बस अब नई ग़ज़ल शामिल नहीं हो सकेगी...इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा है , ये मन.

जब आप किसी के फैन होते हैं...तो उससे सम्बंधित हर खबर...पर निगाहें होती हैं...याद है..बरसो पहले धर्मयुग में छपा उनका इंटरव्यू....जिसमे उनसे पूछा गया था.."सुना है .चित्रा सिंह से आपकी अनबन चल रही है..आपलोग तलाक लेने वाले हैं"...और जगजीत सिंह का उत्तर था.."अच्छा! हमारे बारे में भी अफवाहें उड़ने लगीं..इसका मतलब..हमलोग भी फेमस हो गए हैं"
पढ़ कर मेरी भृकुटी पर बल आ गए थे...."ये क्यूँ कहा..जगजीत सिंह ने ...वे तो ऑलरेडी इतने फेमस हैं.."

इतने अपने से लगने लगे थे कि इंटरव्यू के साथ छपी तस्वीर भी पसंद नहीं आई....जिसमे चित्रा सिंह कुर्सी पर बैठी थीं..और वे पीछे खड़े थे..किशोर मन ने शिकायत की थी.."ये क्या पुराने स्टाईल में राजा-रानियों की तरह तस्वीर खिंचवाई है"

जब उन्होंने अपने बेटे को खोया था..तो उनके दर्द की सोच ही मन भीग आता था. चित्रा सिंह को संभालने के लिए जगजीत सिंह बाहरी रूप से शांत बने रहते..पर चित्रा सिंह ने एक इंटरव्यू में बताया.." वे बाहर से शांत दिखते हैं..पर आधी रात को उठ कर रियाज़ करने चले जाते हैं...और रियाज़ करते ,उनकी आँखों से झर-झर आँसू बहते रहते हैं.

इतना बड़ा दुख सहकर भी.....शो मस्ट गो ऑन की तर्ज़ पर उन्होंने शोज़ देना जारी रखा...कुल तीन बार उनकी शो में जाने का मौका मिला और हर बार जैसे गज़ले सुन कान ही नहीं...उन्हें गाते देख आँखें भी तृप्त हो जातीं . एक बार एक शो में हमलोग काफी देर से पहुंचे...और संयोग ऐसा कि ठीक जगजीत सिंह ने भी उसी समय हॉल में प्रवेश किया...मैं दरवाजे के एक किनारे खड़ी थी...और एक हाथ के फासले से हमारे आइडल गुज़र रहे थे...इतना बड़ा सुर सम्राट और सफ़ेद झक कुरते पायजामे में..इतना सिम्पल सा पर गरिमामय व्यक्तित्व ...कि देखने वाला ठगा सा रह जाए. संयोग से हमारे बैठने की जगह तीसरी कतार में थी .और मैं ग़ज़ल सुनने से ज्यादा उन्हें अपलक निहार रही थी..वो बीच-बीच में अपने साजिंदों का उत्साह बढ़ाना...चुटकुले सुनाना...अपनी ही गयी ग़ज़ल की ऐसी व्याख्या करना कि हॉल ठहाकों से गूंज उठता...कुछ चुनिन्दा ग़ज़लों पर पूरा हॉल उनके साथ गाने लगता. मध्यांतर में कई लोग उनका ऑटोग्राफ लेने गए...स्टेज से ज्यादा दूरी पर मैं नहीं थी..ऑटोग्राफ लेने के लिए मुझे भी ज्यादा नहीं मशक्कत नहीं करनी पड़ती..पर पता नहीं...उस भीड़ में जाकर खड़े रहने से ज्यादा मुझे दूर से ही उनके हर क्रिया-कलाप को देखना ज्यादा अच्छा लग रहा था.

जगजीत सिंह को यूँ भी....दर्शकों के साथ interaction अच्छा लगता था. एक बार वे दिल्ली में कुछ ब्यूरोक्रेट्स की महफ़िल में ग़ज़ल पेश कर रहे थे...उन्होंने दो गज़लें सुनायी ..पर हॉल में सन्नाटा पसरा रहा...उन टाई सूट में सजे अफसरों को ताली बजाना नागवार गुजर रहा था. अब जगजीत सिंह से रहा नहीं गया.उन्होंने तीसरी ग़ज़ल शुरू करने से पहले कहा..."अगर आप लोगों को ग़ज़ल अच्छी लग रही है. तो वाह वाह तो कीजिये.यहाँ आप किसी मीटिंग में शामिल होने नहीं आए हैं.सूट पहन कर ताली बजाने में कोई बुराई नहीं है.अगर आप ताली बजाकर और वाह वाह कर मेरा और मेरे साजिंदों का उत्साह नहीं बढ़ाएंगे तो ऐसा लगेगा कि मैं खाली हॉल में रियाज़ कर रहा हूँ."

फिर तो अपने सारे संकोच ताक पे रख कर उन अफसरानों ने खुल कर सिर्फ वाह वाह ही नहीं की और सिर्फ ताली ही नहीं बजायी.जगजीत सिंह के साथ गजलों में सुर भी मिलाये.अपनी फरमाईशें भी रखी.वंस मोर के नारे भी लगाए.(मैने बहुत पहले इस घटना से सम्बंधित एक पोस्ट भी लिखी थी )

पता नहीं..क्या क्या मिस करनेवाली हूँ...मन को समझाना मुश्किल पड़ रहा है कि उनके गाए, भजन...सबद...ग़ज़लों के अल्बम में और नए अल्बम शामिल नहीं होने वाले....अक्सर अखबार में कहीं ना कहीं उनके शो की खबर छपती थी....टी.वी. पर झलक दिख जाती थी...अब सब सूना ही रह जाएगा..


चित्रा सिंह के दुख की तो कल्पना भी मुश्किल ...पहले बेटा खोया...दो साल पहले उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली (चित्रा सिंह और उनके पहले पति की बेटी मोनिका लाल...जो डिप्रेशन की शिकार थीं )...और अब उन्हें इन सारे संकटों में संभालने वाले हाथो का सहारा भी नहीं रहा..

ईश्वर जगजीत सिंह आत्मा को शान्ति दे...और चित्रा जी को ये अपरिमित दुख सहने का संबल प्रदान करे..

हम सब तो बस अब यही कह सकते हैं...

शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आपकी कमी सी है

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

घूँघट की आड़ से....

आज आपलोगों को अपने ऊपर हंसने का जम कर मौका दे रही हूँ....अभी लिखते वक्त ही पाठकों के चेहरे नज़रों के सामने घूम रहे हैं...कि मेरी हालत पर उनकी बत्तीसी कैसे चमक रही है.:)

अब भूमिका बना दिया...मूड सेट कर दिया...तो हाल भी लिख डालूं...आपलोगों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी...हमें भी किन हालातों से गुजरना होता है.

मेरे ससुराल में श्रावणी पूजा में पूरे खानदान के लोग इकट्ठे होते हैं. और खानादन में कोई भी नई शादी हुई हो उस दुल्हन को शादी के बाद की पहली श्रावणी पूजा में जरूर उपस्थित होना पड़ता है. मुज़फ्फरपुर(बिहार) से थोड़ी दूर पर एक गाँव है....जहाँ इनलोगों का पुश्तैनी मकान है .मकान क्या अब तो पांच आँगन का वो मकान खंडहर में तब्दील हो चुका है. पर कुल देवता अब भी वही हैं...और पूजा-घर की देख-रेख हमेशा की जाती है. उसकी मरम्मत पेंटिंग समय-समय पर होती रहती है. एक पुजारी साल भर वहाँ पूजा करते हैं. सिर्फ श्रावणी पूजा के दिन आस-पास के शहरों से सबलोग वहाँ इकट्ठे होते हैं.

तो मुझे भी शादी के बाद जाना था . अब नई शादी और गाँव में जाना था सो पूरी प्रदर्शनी. सबसे भारी बनारसी साड़ी...सर से पाँव तक जेवर ..मतलब सर के ऊपर मांग टीका से लेकर पैर की उँगलियों के बिछुए तक.सारे जेवर पहनाये गए. वो बरसात की उमस भरी गर्मी. लोग कहते हैं.."पहनी ओढ़ी हुई नई दुल्हन कितनी सुन्दर लगती है"....जरा उस दुल्हन से भी पूछे कोई...उनलोगों का बेहोश ना हो जाना किसी चमत्कार से कम नहीं.

खैर हम भी ये सब पहन-ओढ़ कर एक कार में रवाना हुए. तब तो वहाँ ए.सी.कार भी नहीं थी. पर खिड़की से आती हवा भी ज्यादा राहत नहीं दे पा रही थी क्यूंकि सर पर भारी साड़ी का पल्लू था. जब वहाँ पहुँच कर कार रुकी और सब तो उतर गए पर मेरे पैर के बिछुए साड़ी की रेशमी धागे में फंस गए थे. किसी तरह छुड़ा कर नीचे उतरी तो बगल में खड़ी अम्मा जी ने जल्दी से आगे बढ़कर घूँघट खींच दिया, अब मुझे कुछ दिखाई ही ना दे .बुत बनी खड़ी रही.

आगे बढूँ कैसे....लगा गिर जाउंगी. ननद की बेटी ने कुहनी थाम कर सहारा दिया...एक हाथ से सर पर साड़ी संभाला तो इस बार साड़ी मांग टीका में उलझ गयी...सीमा ने छुड़ाया .फिर तो वो कार से घर के दरवाजे की दस कदम की दूरी दस किलोमीटर जैसी लगी...एक कदम बढाऊं और साड़ी के धागे, कंगन में फंस जाए....वहाँ से छुड़ा कर आगे बढूँ ...तो कभी नेकलेस में...कभी पायल में फंस जाएँ. आवाज़ से लग रहा था...आस-पास काफी लोग हैं...और सबकी नज़र शायद मुझपर ही है...पर मेरी नज़र तो बस उस एक टुकड़े जमीन पर थी जो घूँघट के नीचे से नज़र आ रहा था...उसी जमीन के टुकड़े पर किसी तरह पैर संभाल कर रखते हुए आगे बढ़ रही थी. घर के अंदर आकर सीमा ने जरा पल्ला सरका दिया तो राहत मिली. चारो तरफ नज़र घुमा कर जायजा ले ही रही थी बरामदे में जल्दी से एक चटाई बिछा दी गयी और मुझे उस पर बैठने को कहा गया. जैसे ही मैं बैठी.. कि एक तरफ से आवाज़ आई.."अच्छा तो ई हथिन नईकी कनिया..." अम्मा जी कहीं से तो आयीं और इस बार तो मेरा घूँघट , घुटने तक खींच दिया...अब तो लगे,दम ही घुट जाएगा...कुछ नज़र भी नहीं आ रहा था.

बैठे-बैठे मुझे 'गुनाहों का देवता' पुस्तक याद आ रही थी. जिसमे सुधा ने अपनी शादी में घूँघट करने से मना कर दिया था और मैं सोच रही थी...मुझमे जरा भी हिम्मत नहीं है. लोग जैसा कह रहे हैं...चुपचाप किए जा रही हूँ {आपलोगों को भी विश्वास नहीं हो रहा ना...मुझे भी अब नहीं होता :)} खुद को ही कोसे जा रही थी..पर अब लिखते वक़्त ध्यान आ रहा है..धर्मवीर भारती ने इस घटना का जिक्र सुधा के मायके में किया है. जहाँ उसके आस-पास उसके अपने लोग थे. ससुराल में सुधा को घूँघट के लिए कहा गया या नहीं...या सुधा की क्या प्रतिक्रिया रही...इन सबका जिक्र उपन्यास में नहीं है. अगर होता भी तो वहाँ नायक...नायिका के बचाव के लिए आ जाता. वो ही अपनी तरफ से मना कर देता.

पर यहाँ मेरे नायक महाशय तो बाहर बैठे लोगो के साथ लफ्ज़ी गुलछर्रे उड़ाने में मशगूल थे. और मैं सोच रही थी...पुरुषों के लिए कभी कुछ नहीं बदलता. ये मेरे घर जाते हैं...वहाँ भी यूँ ही सबके साथ बैठे हंस -बोल रहे होते हैं....और यहाँ अपने घरवालों के साथ भी...सिर्फ हम स्त्रियों को ही ये सब भुगतना पड़ता है. पता नहीं किसने पहली बार ये 'घूँघट ' जैसी चीज़ ईजाद की. वर्ना अपनी सीता..शकुंतला तो कभी घूँघट में नहीं रहीं.

यूँ ही बैठी खीझ रही थी कि चिड़ियों की तरह चहचहाता लड़कियों का एक झुण्ड आया....और मुझे घेर कर बैठ गया...उन लड़कियों ने ही घूंघट हटा दिया...थोड़ी राहत मिली...पहली बार काकी-चाची-मामी जैसे संबोधन सुनने को मिले. उनसे बातें कर ही रही थी...कि दो बच्चे बाहर से भागते हुए आए और कहा...बाहर पेड़ पर झूला लगा हुआ है.....सारी लड़कियां उठ कर भागीं...और मुझे एक धक्का सा लगा...'अब मेरे ये दिन गए" :( .

कुछ ही मिनटों बाद एक बूढी महिला ने आकर कहा..."घूँघट कर लो...कुछ गाँव की औरतें सामने खड़ी हैं." लो भाई हम फिर से कैद हो गए और बाहर की दुनिया हमारे लिए बाहर ही रह गयी....पर मेरे बचाव को आयीं मेरी एक जिठानी..नीलू दीदी...आते ही उन्होंने बिलकुल पल्ला सर से काफी नीचे खींच दिया...और पूछा..."तुम्हे गर्मी नहीं लगती...??"

मैं क्या कहती...मुस्कुरा कर रह गयी. अब चारो तरफ देखने का मौका मिला...बड़ा सा आँगन था और आँगन को चारों तरफ से घेरे हुए चौड़े बरामदे. कहीं-कहीं बरामदे का छप्पर टूट गया था और...सूरज की तेज रौशनी सीधी जमीन पर पड़ रही थी. बरामदे के कोनो में चूल्हे जले हुए थे और उस पर पूजा में चढ़ाए जाने को पकवान बन रहे थे. कई सारे चूल्हे एक साथ जल रहे थे...थोड़ी हैरानी हुई...पर समझ में आ गया. हर परिवार अलग-अलग पकवान बना रहा है..पर पूजा सम्मिलित रूप से होगी. एक जगह एक जिठानी...चूल्हे में फूंक मारती पसीने से तर बतर हो रही थीं...पर आग जल नहीं रही थीं...और उन्होंने जोर की आवाज़ अपने पति और बच्चों को लगाई.."मैं यहाँ मर रही हूँ...आपलोग बाहर बैठे गप्पे हांक रहे हैं" पति-बच्चे भागते हुए आए...और कोई चूल्हे में फूंक मारने लगा...कोई पंखे से हवा करने लगा...तो कोई चूल्हे में अखबार डालकर लकड़ियों को जलाने की कोशिश करने लगा....आज का दिन होता तो जरूर एक फोटो ले लेती...उस समय बस एक मुस्कराहट आ गयी...पूरे परिवार का मिटटी के चूल्हे की खुशामद में यूँ जुटा देख.

पर मुस्कान को तुरंत ही नज़र लग गयी...और फिर से अम्मा जी आयीं और घुटनों तक घूँघट खींच दिया..." बस एक दिन की तो बात है...गाँव का यही रिवाज़ है..."
रिवाज़ से ज्यादा यह दिखाने की चाह होती है कि शहर की हुई तो क्या...मेरी बहू सारी परम्पराएं निभाती है.

पुनः बाहर की दुनिया मेरी नज़रों से बाहर हो गयी. कोई सिद्ध आत्मा होती तो बाहर की दुनिया यूँ बंद हो जाने पर....मौके का फायदा उठा अपने भीतर झाँकने की कोशिश करती....पर मैं अकिंचन तो कुढ़ कुढ़ कर ये कीमती वक़्त बर्बाद कर रही थी.

पूरे दिन ये सिलिसला चलता रहा...नीलू दी आतीं और डांट कर मेरा पल्ला पीछे खींच जातीं..अम्मा जी आतीं और वो नीचे खींच देतीं.

(आज वे दोनों इस दुनिया में नहीं हैं...पर उनकी ये यादें साथ बनी हुई हैं....ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे)

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

हैप्पी बर्थडे सीमा..:)

पता नहीं कितने लोगो को कहते सुना ..मेरा बरसो पुराना फ्रेंड फेसबुक या नेट के माध्यम से मिला/मिली और मैं खीझ कर रह जाती...मुझे तो मेरी कोई फ्रेंड मिलती ही नही. मेरी अधिकाँश फ्रेंड्स की तो शादी के बाद सरनेम चेंज हो गए होंगे...इसलिए नहीं मिलती...पर सीमा...सीमा, क्यूँ नहीं मिलती?? उस से तो उसकी शादी के बाद भी मुलाकात होती रही, बस पिछले 12 बरस से बिछड़ गए, हम. उसके पति का सरनेम भी पता था, फिर भी ना तो वो नेट पर मिलती ना ही फेसबुक पर. ब्लॉग पर भी कभी पोस्ट में कभी टिप्पणियों में उसके शहर उसकी कॉलोनी का जिक्र कर देती कि कोई पहचान वाला पढ़े तो शायद मदद कर सके. समस्तीपुर वालों से तुरंत दोस्ती का हाथ बढ़ा देती ....शायद वे जानते हों पर हर बार निराशा ही हाथ लगी.

सीमा ,कॉलेज के दिनों की मेरी बेस्ट फ्रेंड थी, जबकि हम एक साथ कभी पढ़े भी नहीं. पर उन दिनों वो ही मेरी बेस्ट फ्रेंड थी. उस से दोस्ती का किस्सा भी बड़ा अजीब है. बारहवीं के बाद मैने घर में ऐलान कर दिया था कि मैं अब हॉस्टल में रहकर नहीं पढूंगी बल्कि समस्तीपुर में ही पढूंगी(जहाँ पापा कि पोस्टिंग थी) . मम्मी-पापा ने समझाया..'ठीक है..पहले जाकर कॉलेज देख लो...अगर अच्छा लगे तो यहीं पढना" और मैं अपने पड़ोस में रहनेवाली एक लड़की के साथ वहाँ के विमेंस कॉलेज गयी. वहीँ पर मेरी मुलाकात सीमा से हुई और हमारी तुरंत दोस्ती हो गयी. करीब एक हफ्ते तक कॉलेज जाती रही. हम साथ लौटते...एक गली मेरे घर की तरफ मुड जाती और सीमा कुछ और लड़कियों के साथ सीधी चली जाती. एक हफ्ते में ही मैने निर्णय ले लिया कि नहीं हॉस्टल में रहकर ही पढूंगी. सीमा से मुलाकात भी ख़त्म हो गयी. मेरा एडमिशन हो गया...और सरस्वती पूजा के बाद मुझे हॉस्टल जाना था. सरस्वती पूजा के दिन, सीमा मेरा घर ढूँढती हुई मुझसे मिलने आई  और हम साथ साथ सरस्वती जी के दर्शन के लिए चले गए .उसके बाद से ही अक्सर हमारी शामें,एक दूसरे के घर के छत पर गुजरने लगीं.

उन दिनों हमारी दुनिया थी...किताबें..पत्रिकाएं...फ़िल्में ,क्रिकेट और जगजीत सिंह की गज़लें. फिल्म हम साथ देखते...किसी पत्रिका में कोई कहानी पढ़ लेते तो दूसरे के लिए रख देते और जब उस कहानी की बातें करते तो पता चलता...हम दोनों को वो ही अंश पसंद आए हैं. एक ने जो किताब पढ़ी..दूसरे को पढवाना अनिवार्य था. एक शाम,सीमा एक मोटी सी किताब लेकर आई जिसमे अमृता प्रीतम की तीन लम्बी कहनियाँ...कुछ छोटी कहानियाँ और कुछ कविताएँ संकलित थीं. किताब देखकर मुझे हर्ष और विषाद एक साथ हुआ...दूसरे दिन ही मुझे हॉस्टल जाना था. पर सीमा ने ताकीद कर दी...पूरी किताब ख़त्म करनी ही है. हम इन कहानियों पर बातें करेंगे. मेरी रूचि तो थी ही और पूरी रात जागकर मैने वो सारी कहानियाँ पढ़ीं (उनमे अमृता प्रीतम की मशहूर कहानियाँ .. पिंजर और नागमणि भी थी) .

सीमा की प्रतिक्रिया देखकर ही मुझे ये पता चला...'हर उम्र पर किताबो का असर अलग रूप में होता है" मैने नवीं कक्षा में 'गुनाहों का देवता 'पढ़ी थी ..और आज तक...वही असर है.पर सीमा को शायद बी.ए. फाइनल इयर में मैने उसके जन्मदिन पर 'गुनाहों का देवता' दी थी. उसे अच्छी लगी पर उतनी नहीं, जितनी मुझे लगी थी. मेरे भी हर जन्मदिन पर सुबह-सुबह, कोहरे में लिपटी दो दो स्वेटर पहने. मोज़े, जूते, स्कार्फ से लैस. (क्यूंकि पूरा जाड़ा...उसका सर्दी-जुकाम-बुखार से लड़ते गुजरता ) सीमा, अमृता-प्रीतम..मोहन राकेश की या कोई दूसरी साहित्यिक  किताब लिए मेरे घर हाज़िर हो जाती. उन दिनों..हमें ' Pride and Prejudice " Wuthering Hights 'बहुत अच्छे लगते . Erich Segal की Love Story तब भी हम दोनों को उतनी अच्छी नहीं लगी थी...जबकि वो अंग्रेजी की 'गुनाहों का देवता' है.
उन दिनों मैने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था और सीमा उनकी पहली पाठक ही नहीं...जबरदस्त आलोचक की भूमिका भी निभाती. तारीफ़ वाली जगह तारीफ़ भी करती पर बहुत ही कंजूसी से :)

हॉस्टल में भी लम्बे लम्बे ख़त के सहारे हम साथ बने रहते. कभी-कभी छुट्टियों में मुझे दादाजी गाँव ले जाते ..जहाँ टी.वी. था तो सही..पर बैटरी पर चलता...सिर्फ रविवार को रामायण और फिल्म ही देखे जाते. क्रिकेट मैच के दिनों में एक-एक मैच के हाइलाइट्स सीमा मुझे लिख भेजती. सुनील गावस्कर की आत्मकथा 'सनी डेज़' हम दोनों ने साथ पढ़ी थी. और ऐसे कितनी ही बहस हो जाए..पर सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री हम दोनों के ही फेवरेट थे {मेरे तो आज भी हैं...सीमा का नहीं पता :)}
वैसे ही फेवरेट थे जगजीत सिंह. उन दिनों कैसेट का जमाना था.... "बात निकलेगी तो दूर..." कल चौदवीं की रात थी...' देश में निकला होगा चाँद..." हम पता नहीं कितनी बार रिवाइंड करके सुनते. उस ढलती शाम में गूंजता..जगजीत सिंह का उदास स्वर हमें कहीं भीतर तक उदास कर जाता जबकि वजह कोई नहीं होती.

पर कुछ मामलो में सीमा बहुत बेवकूफ थी. उसने दसवीं में पढ़ने वाले अपने कजिन को 'ख़ामोशी' फिल्म सजेस्ट कर दी..और जब उसे पसंद नहीं आई तो सीमा को बहुत आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया . ऐसे ही, उसके घर बोर्ड की परीक्षा देने उसके गाँव से कुछ लडकियाँ आई थीं. ,उनलोगों ने रविवार को टी.वी. पर फिल्म देखने की इच्छा जताई. सीमा ने उनके बैठने की व्यवस्था..बिलकुल टी.वी. के सामने की. पर फिल्म थी, 'कागज़ के फूल' कुछ ही देर में उनकी खुसुर पुसुर शुरू हो गयी...और सीमा मैडम नाराज़.."एक तो सामने बैठ गयीं..और अब डिस्टर्ब भी कर रही हैं..इतनी अच्छी फिल्म उन्हें कैसे अच्छी नहीं लगी." यह बात उसे समझ में नहीं आती ..कि सबका लेवल अलग होता है...:)

बाज़ार से मुझे या सीमा को कुछ भी लाना हो.हम साथ जाते और आने-जाने के लिए सबसे लम्बा-घुमावदार रास्ता चुनते..जाने कैसी बातें होती थीं ..जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं. सीमा को कॉलेज में कुछ काम होता और मैं शहर में होती तो हम साथ ही जाते उसके कॉलेज. पर कॉलेज में नहीं रुकते. उन दिनों कैफे....मैक डोनाल्डस तो थे नहीं, जहाँ समय गुजारे जा सकते. कॉलेज के पास एक निर्माणधीन मकान के अंदर जाकर कभी उसकी सीढियों पर बैठते तो कभी..उस घर के किचन की प्लेट्फौर्म पर. रेत-पत्थर -इंटों के ढेर के बीच...और हमें डर भी नहीं लगता...उस घर में एक तरफ मजदूर काम कर रहे होते...और एक तरफ हम बैठे अपनी बातों में मशगूल. अब सोच कर ही डर लगता है...अब शायद ही ऐसे माहौल में लडकियाँ सुरक्षित महसूस करें, खुद को....क्या होता जा रहा है,हमारे समाज को.

सीमा की शादी बहुत जल्दी हो गयी...और घर में शादी की बातचीत उस से भी पहले से शुरू हो चुकी थी. ऐसे में सीमा ,सीधा मेरे घर आ जाती. पीछे से उसकी अनु दीदी और कजिन...आतीं तब मुझे पता चलता..'मैडम घर से नाराज़ होकर आई है' जाहिर है..इतनी जल्दी शादी की उसकी मंशा नहीं थी....पढ़ने में बहुत तेज थी..अपने कॉलेज की प्रेसिडेंट भी थी. दूसरे कॉलेज में किसी प्रोग्राम के सिलसिले में जाती तो उसकी धाक जम जाती. सारे लोग उसे पहचानते थे. मेरे पड़ोस में रहने वाली लड़की तो इसी बात पर इतराए घूमती और अपनी सहेलियों पर रौब जमाती कि उसके पड़ोस में 'सीमा' का आना जाना है. मैं, जब दुसरो से उसकी तारीफ़ सुनती तो पलट कर सीमा को एक बार देखती..'मुझे तो उसमे ऐसा कुछ ख़ास दिखता नहीं....किस बात की तारीफ़ करते हैं लोग.' :)

समस्तीपुर से पापा का ट्रांसफर हो गया..मैं एम.ए करने पटना चली आई..सीमा ससुराल चली गयी. एक दिन मैं मनोयोग से लेक्चर सुन रही थी..और देखती क्या हूँ..मेरी क्लास के सामने सीमा अपने पतिदेव के साथ खड़ी है. एम.ए में थी..पर फिर भी कभी लेक्चर के बीच में क्लास छोड़ बाहर नहीं निकली थी. पहली बार बिना..प्रोफ़ेसर से कुछ पूछे बाहर आ गयी...और फिर थोड़ी देर में अपनी किताबें भी उठा कर ले आई. इसके बाद तो सीमा को जब भी मौका मिलता...मुझसे मिल जाती. मैं बनारस में अपनी मौसी के यहाँ थी...वहाँ, सीमा के डॉक्टर पति का कोई कॉन्फ्रेंस था..वो उनके साथ,अपने छोटे से बेटे को लेकर मुझसे मिलने चली आई. मेरी शादी में भी...अपनी छः महीने की बेटी को अपनी माँ के पास छोड़कर शामिल हुई थी.

पापा भी रिटायरमेंट के बाद पटना में आ गए थे. और सीमा अब पटना के एक स्कूल में बारहवीं कक्षा को पढ़ाती थी. शादी के बाद उसने बी.ए.,..एम.ए.....बी.एड. और पी.एच .डी. भी किया. सिविल सर्विसेज़ का प्रीलिम्स भी क्वालीफाई किया. am really proud of her :) .पर वो समझ गयी थी कि mains नहीं कर पाएगी...क्यूंकि ससुराल में घर का काम....दो छोटे बच्चों की देखभाल के साथ मुमकिन नहीं था.

फिर तो, मैं जब भी गर्मी छुट्टियों में पटना जाती..पहला फोन सीमा को ही घुमाती. और हम मिलते रहते. करीब बारह साल पहले... गर्मी छुट्टी में पटना गयी तो आदतन फोन लगाया..बट नो रिस्पौंस...सीमा के स्कूल गयी...वहाँ ऑफिस में किसी ने बताया.."उनका तो स्थानान्तरण हो गया' मुम्बइया भाषा के आदी कान को...ये शब्द समझने में ही दो मिनट लग गए. उनके पास सीमा का कोई कॉन्टैक्ट नंबर नहीं था और गर्मी छुट्टी की वजह से स्कूल बंद था..प्रिंसिपल,किसी टीचर से मिलना मुमकिन नहीं था. पटना में पापा ने भी नया घर ले लिया था ....मुंबई में हमने भी फ़्लैट ले लिया था. सबके फोन नम्बर बदल चुके थे. मुझे पता था, सीमा ने कोशिश की होगी..पर कहाँ ढूँढती हमें. और मैने सोचा लिया..."अब तक वो मुझे ढूँढती आई है...'इस बार सीमा को मुझे ढूंढना है."


ऑरकुट पर मिली बेटे के साथ सीमा की फोटो
जिसमे मैने उसे नहीं पहचाना

मैं कोशिश करती रहती. हर कुछ दिन बाद मैं उसका नाम लिख एक बार एंटर मार लेती.....पता नहीं कितनी सीमा के चेहरे की रेखाएं गौर से पढ़ने की कोशिश करती. और कामयाबी मिली कल..एक अक्टूबर को. उसके नाम के साथ जुड़ा था. प्रिंसिपल ऑफ़ ___ स्कूल {स्कूल का नाम नहीं लिख रही...उसका कोई स्टुडेंट ना पढ़ ले, ये सब :)} पर इस से ज्यादा कोई इन्फोर्मेशन नहीं मिली. पर नीचे एक वेबसाईट का लिंक मिला..जिसमे परिचय में लिखा था.. son of Dr Rajkumar and Dr . Seema ...early education in Darbhanga . दरभंगा सीमा की ससुराल थी.. अब इतने संयोग तो नहीं हो सकते. मैने जैसे ही नाम पढ़ा..याद आ गया...'सीमा के बेटे का नाम 'ऋषभ' है. पर कन्फर्म कैसे हो...ये सीमा का ही बेटा है. उसके ऑर्कुट प्रोफाइल का लिंक था. वहाँ फोटो में ढूँढने की कोशिश कि. एक फोटो थी माँ के साथ..पर उसमे सीमा पहचान में नहीं आ रही थी. हाँ, डॉक्टर साहब को जरूर पहचान लिया. ऋषभ का मेल आई डी भी मिल गया..और मैने झट से एक मेल भेज दिया...फिर भी सुकून नहीं आ रहा था...अब नाम पता चल गया तो फेसबुक पर ढूँढने की कोशिश की और पाया...ऋषभ ने माँ के साथ...अपने बचपन की एक तस्वीर लगा रखी है.
सीमा ही थी..:)
मैने सोचा...अब कहाँ वीकेंड में वो रिप्लाय करेगा...दोस्तों के साथ फिल्म देखने..पार्टी करने में बिजी होगा...अब सोमवार को ही reply करेगा . फिर भी सोने से पहले एक बार मेल चेक किया.....और..और ऋषभ का मेल था...जिसमे एक संदेश था...".. apki timing bhi perfect hai .. Its her birthday tomorrow .. mamma ko bhi apse baat karke utni he khushi hogi i m sure ! :)

फेसबुक पर मिली फोटो जिसमें सीमा को पहचानना मुश्किल नहीं था.



सीमा का फोन नंबर भी था...और बारह बजने में बस तीन मिनट शेष थे फिर तो मैने एक पल की देरी नहीं की ...बस बर्थडे विश किया और पूछा..पहचाना?...दूसरी तरफ से चीखती हुई आवाज़ आई.."कहाँ थी इतने साल??" सीमा ने आवाज़ पहचान ली...:)

जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो सीमा..:):)

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...