मैंने एसिड सर्वाइवर्स से सम्बन्धित कुछ आलेख लिखे हैं. जिसे Alok Dixit ji ने शेयर भी किया था . बहुत पहले से लक्ष्मी अग्रवाल , अंशु राजपूत से जुडी हुई हूँ. इनका हौसला, जिंदगी जीने का ज़ज्बा हमेशा ही प्रेरणा देते हैं. जब लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन पर 'छपाक' फिल्म बन रही थी,तभी से इसके रिलीज़ होने का इंतज़ार शुरू हो गया था . और संयोग ऐसे जुटे कि जल्दी से इसे देख भी लिया. इस तरह की फ़िल्में सबको जरूर देखनी चाहिए ताकि आमजन सोचने पर मजबूर हो जाए ,ये कैसे वहशी समाज में हम रह रहे हैं जहाँ एक लडकी के 'ना' की ऐसी सजा उसे दी जाती है.
'छपाक' फिल्म का विषय इतना गम्भीर होते हुए भी यह फिल्म बिलकुल भी बोझिल नहीं है. एसिड से बिगड़े हुए चेहरे के साथ एक लड़की कैसे अपना दर्द भुलाकर आम सा जीवन जीने की ज़द्दोज़हद में लगी होती है, पूरी फिल्म इसी पर आधारित है. एसिड से जलते शरीर की दर्द भरी चीखें आपके अंतस को झकझोर देती हैं. पर मालती सिर्फ अपनी किस्मत पर रोते बिसूरते हुए नहीं बैठती बल्कि आगे बढ़कर अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेती है, कोर्ट में पेश होकर अपराधी को सजा भी दिलाती है और एसिड की खुलेआम बिक्री पर रोक लगाने के लिए PIL भी दाखिल करती है. मालती खुशनसीब है कि उसकी मालकिन उसके इलाज का खर्च उठाती हैं, वकील उसका साथ देती हैं, उसकी हिम्मत बढाती हैं .पर सभी लडकियां इतनी किस्मतवाली नहीं हैं. फिल्म में ही एक लडकी मालती से कहती है, " दीदी आपकी सात सर्जरी हुई तब आपको ऐसा चेहरा मिला. हमारी दूसरी सर्जरी के ही पैसे नहीं जुट रहे." सभी एसिड सर्वाइवर्स के इलाज का खर्च सरकार को उठाना चाहिए ,आखिर अपने नागरिकों को सुरक्षा देने की जिम्मेवारी सरकार की है. एसिड की बिक्री पर बैन लगाने के बावजूद भी यह कैसे सहज उपलब्ध हो जा रहा है और मासूमों की जिंदगी तबाह किये जा रहा है ??
एसिड एक लडकी पर फेंका जाता है पर उसकी झुलसन में पूरा परिवार झुलस जाता है. एक सामान्य जिंदगी जीते, हंसते-खेलते परिवार की सारी जिंदगी उलट पुलट जाती है. इस गम से उबरने में मालती के पिता शराब में डूब जाते हैं. भाई उपेक्षित हो जाता है, समाज के उपहास भरे तानों से डिप्रेशन में जाकर गम्भीर बीमारी लगा बैठता है. फिर भी इन सबसे अगर मालती टूट जाती तो ये उस अपराधी की जीत होती . अपने ऊपर किये किसी भी जुल्म का जबाब यही है कि घुटने ना टेके जाएं, जुल्म के बावजूद अपना सामान्य जीवन जारी रखा जाए, हंसना-बोलना-खुश रहना ना छोड़ा जाए तो ये उस आतातायी की सबसे बड़ी हार होती है.
फिल्म में बड़े subtle तरीके से दिखाया गया है कि इनलोगों को सिर्फ कोरी सहानुभूति की नहीं बल्कि आर्थिक संबल की ज्यादा आवश्यकता है. मालती अपना इंटरव्यू लेने वालों से भी पूछ लेती है, 'उनके यहाँ कोई नौकरी है ? ' NGO के संचालक से भी पहला सवाल यही करती है, 'सैलरी कितनी मिलेगी ?". जागरूकता फैलाना,विरोध करना, न्याय के लिए आवाज़ उठाना सब अपनी जगह सही है पर अपना और अपने परिवार का पेट पालने का प्रश्न पहला होता है.
लडकियों का तन मन झुलस जाता है पर नारी सुलभ इच्छाएं तो यथावत रहती हैं. जब मालती डॉक्टर से भोलेपन से पूछती है, 'मेरा कान बना सकते है ?' (उसे झुमके पहनने का बहुत शौक है ) तो दर्शकों के भीतर कुछ दरक जाता है. फिल्म में एक जगह मालती दृढ़ता से कहती है, "उसने सिर्फ मेरा तन बिगाड़ा है .मेरा मन वैसा अहि है.उसपर कोई असर नहीं हो सका "
फिल्म के अंत में आंकड़े पढ़कर एक सदमा लगता है .2013 के बनिस्पत 2017 में एसिड फेंकने की घटना में दुगुनी बढ़ोत्तरी हो गई है. फिल्म में आखिरी दर्ज घटना 7 दिसम्बर 2019 की है . Anshu Rajput ji के स्टेटस में देखा ..कल यानी 11 जनवरी 2020 को ही लखनऊ में तेरह साल की एक बच्ची के ऊपर तेज़ाब फेंका गया है. लडकियाँ आगे बढ़ रही हैं, घर से निकल रही हैं, सर झुकाकर किसी का भी प्रेम निवेदन स्वीकार नहीं कर रहीं, ना कहना सीख रहीं हैं और उसकी ऐसी भीषण सजा भुगत रही हैं. मुंबई प्लेटफार्म पर प्रियंका राठौर के साथ हुए हादसे का पूरा अपडेट रोज पढ़ती थी. नेवी ज्वाइन करने के लिए मुंबई आने वाली प्रियंका के ऊपर उसके पडोसी लड़के ने सिर्फ इसलिए एसिड फेंक दिया क्यूंकि वो नकारा और आवारा था और उसके घरवाले उसे प्रियंका का उदाहरण देते थे . टेढ़े मेढ़े अक्षरों में लिखी प्रियंका की वो चिट्ठी अखबार में भी पढ़ी थी, जहां वो अपने बिगड़े हुए चेहरे के साथ भी सिर्फ ज़िंदा रहना चाहती थी ताकि पैसे कमा कर अपने पिता की मदद कर सके. पर वो जान गंवा बैठी.
फिल्म का एक डायलॉग है , "किसी को नेस्तनाबूद कर देने का, तबाह कर डालने का ,बर्बाद कर देने का ख्याल पहले दिमाग में आता है तब उसके बाद एसिड की बोतल हाथों में आती है " इसलिए दिमाग का इलाज़ ज्यादा जरूरी है. ऊँची जाति वाले निम्न जाति की लडकियों को सबक सिखाने के लिए उनपर एसिड फेंक देते हैं. और ऐसे जघन्य कृत्य में कोई जेंडर विभेद नहीं है. मालती के ऊपर एसिड एक लडकी ही फेंकती है. 'लक्ष्मी अग्रवाल' के एक इंटरव्यू में भी सुना था कि उन्हें लड़कियों से ही ज्यादा ताने मिलते हैं.पूरे समाज की मानसिकता ही विकृत हो चली है.
मेघना गुलज़ार ने बहुत ही संवेदनशील फिल्म बनाई है .दीपिका पादुकोण ने इसे मेघना गुलज़ार के साथ प्रोड्यूस भी किया है. दीपिका ने जिस तरह पूरी फिल्म में अपने चेहरे पर एसिड विक्टिम का मेकअप किये रखा,उसकी तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं. जनता से जो प्यार उन्हें मिला है, ऐसी फिल्मों में काम कर वे सूद समेत वापस कर रही हैं (और बदले में और प्यार पा रहीं हैं ) .मालती के संघर्ष में मितभाषी साथी के रूप में विक्रांत मैसी ने बहुत अच्छा काम किया है. सभी सह कलाकार अपने रोल को जीते हुए प्रतीत होते हैं. पूरी फिल्म में टुकड़ों में बजता गीत बहुत कर्णप्रिय है.
'छपाक' फिल्म का विषय इतना गम्भीर होते हुए भी यह फिल्म बिलकुल भी बोझिल नहीं है. एसिड से बिगड़े हुए चेहरे के साथ एक लड़की कैसे अपना दर्द भुलाकर आम सा जीवन जीने की ज़द्दोज़हद में लगी होती है, पूरी फिल्म इसी पर आधारित है. एसिड से जलते शरीर की दर्द भरी चीखें आपके अंतस को झकझोर देती हैं. पर मालती सिर्फ अपनी किस्मत पर रोते बिसूरते हुए नहीं बैठती बल्कि आगे बढ़कर अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेती है, कोर्ट में पेश होकर अपराधी को सजा भी दिलाती है और एसिड की खुलेआम बिक्री पर रोक लगाने के लिए PIL भी दाखिल करती है. मालती खुशनसीब है कि उसकी मालकिन उसके इलाज का खर्च उठाती हैं, वकील उसका साथ देती हैं, उसकी हिम्मत बढाती हैं .पर सभी लडकियां इतनी किस्मतवाली नहीं हैं. फिल्म में ही एक लडकी मालती से कहती है, " दीदी आपकी सात सर्जरी हुई तब आपको ऐसा चेहरा मिला. हमारी दूसरी सर्जरी के ही पैसे नहीं जुट रहे." सभी एसिड सर्वाइवर्स के इलाज का खर्च सरकार को उठाना चाहिए ,आखिर अपने नागरिकों को सुरक्षा देने की जिम्मेवारी सरकार की है. एसिड की बिक्री पर बैन लगाने के बावजूद भी यह कैसे सहज उपलब्ध हो जा रहा है और मासूमों की जिंदगी तबाह किये जा रहा है ??
एसिड एक लडकी पर फेंका जाता है पर उसकी झुलसन में पूरा परिवार झुलस जाता है. एक सामान्य जिंदगी जीते, हंसते-खेलते परिवार की सारी जिंदगी उलट पुलट जाती है. इस गम से उबरने में मालती के पिता शराब में डूब जाते हैं. भाई उपेक्षित हो जाता है, समाज के उपहास भरे तानों से डिप्रेशन में जाकर गम्भीर बीमारी लगा बैठता है. फिर भी इन सबसे अगर मालती टूट जाती तो ये उस अपराधी की जीत होती . अपने ऊपर किये किसी भी जुल्म का जबाब यही है कि घुटने ना टेके जाएं, जुल्म के बावजूद अपना सामान्य जीवन जारी रखा जाए, हंसना-बोलना-खुश रहना ना छोड़ा जाए तो ये उस आतातायी की सबसे बड़ी हार होती है.
फिल्म में बड़े subtle तरीके से दिखाया गया है कि इनलोगों को सिर्फ कोरी सहानुभूति की नहीं बल्कि आर्थिक संबल की ज्यादा आवश्यकता है. मालती अपना इंटरव्यू लेने वालों से भी पूछ लेती है, 'उनके यहाँ कोई नौकरी है ? ' NGO के संचालक से भी पहला सवाल यही करती है, 'सैलरी कितनी मिलेगी ?". जागरूकता फैलाना,विरोध करना, न्याय के लिए आवाज़ उठाना सब अपनी जगह सही है पर अपना और अपने परिवार का पेट पालने का प्रश्न पहला होता है.
लडकियों का तन मन झुलस जाता है पर नारी सुलभ इच्छाएं तो यथावत रहती हैं. जब मालती डॉक्टर से भोलेपन से पूछती है, 'मेरा कान बना सकते है ?' (उसे झुमके पहनने का बहुत शौक है ) तो दर्शकों के भीतर कुछ दरक जाता है. फिल्म में एक जगह मालती दृढ़ता से कहती है, "उसने सिर्फ मेरा तन बिगाड़ा है .मेरा मन वैसा अहि है.उसपर कोई असर नहीं हो सका "
फिल्म के अंत में आंकड़े पढ़कर एक सदमा लगता है .2013 के बनिस्पत 2017 में एसिड फेंकने की घटना में दुगुनी बढ़ोत्तरी हो गई है. फिल्म में आखिरी दर्ज घटना 7 दिसम्बर 2019 की है . Anshu Rajput ji के स्टेटस में देखा ..कल यानी 11 जनवरी 2020 को ही लखनऊ में तेरह साल की एक बच्ची के ऊपर तेज़ाब फेंका गया है. लडकियाँ आगे बढ़ रही हैं, घर से निकल रही हैं, सर झुकाकर किसी का भी प्रेम निवेदन स्वीकार नहीं कर रहीं, ना कहना सीख रहीं हैं और उसकी ऐसी भीषण सजा भुगत रही हैं. मुंबई प्लेटफार्म पर प्रियंका राठौर के साथ हुए हादसे का पूरा अपडेट रोज पढ़ती थी. नेवी ज्वाइन करने के लिए मुंबई आने वाली प्रियंका के ऊपर उसके पडोसी लड़के ने सिर्फ इसलिए एसिड फेंक दिया क्यूंकि वो नकारा और आवारा था और उसके घरवाले उसे प्रियंका का उदाहरण देते थे . टेढ़े मेढ़े अक्षरों में लिखी प्रियंका की वो चिट्ठी अखबार में भी पढ़ी थी, जहां वो अपने बिगड़े हुए चेहरे के साथ भी सिर्फ ज़िंदा रहना चाहती थी ताकि पैसे कमा कर अपने पिता की मदद कर सके. पर वो जान गंवा बैठी.
फिल्म का एक डायलॉग है , "किसी को नेस्तनाबूद कर देने का, तबाह कर डालने का ,बर्बाद कर देने का ख्याल पहले दिमाग में आता है तब उसके बाद एसिड की बोतल हाथों में आती है " इसलिए दिमाग का इलाज़ ज्यादा जरूरी है. ऊँची जाति वाले निम्न जाति की लडकियों को सबक सिखाने के लिए उनपर एसिड फेंक देते हैं. और ऐसे जघन्य कृत्य में कोई जेंडर विभेद नहीं है. मालती के ऊपर एसिड एक लडकी ही फेंकती है. 'लक्ष्मी अग्रवाल' के एक इंटरव्यू में भी सुना था कि उन्हें लड़कियों से ही ज्यादा ताने मिलते हैं.पूरे समाज की मानसिकता ही विकृत हो चली है.
मेघना गुलज़ार ने बहुत ही संवेदनशील फिल्म बनाई है .दीपिका पादुकोण ने इसे मेघना गुलज़ार के साथ प्रोड्यूस भी किया है. दीपिका ने जिस तरह पूरी फिल्म में अपने चेहरे पर एसिड विक्टिम का मेकअप किये रखा,उसकी तारीफ़ के लिए शब्द नहीं हैं. जनता से जो प्यार उन्हें मिला है, ऐसी फिल्मों में काम कर वे सूद समेत वापस कर रही हैं (और बदले में और प्यार पा रहीं हैं ) .मालती के संघर्ष में मितभाषी साथी के रूप में विक्रांत मैसी ने बहुत अच्छा काम किया है. सभी सह कलाकार अपने रोल को जीते हुए प्रतीत होते हैं. पूरी फिल्म में टुकड़ों में बजता गीत बहुत कर्णप्रिय है.