इस लम्बी कहानी की कुछ किस्तों पर कुछ लोगों ने कई कई बार यह कहा कि "जब किसी स्त्री पर उसका पति या ससुराल वाले अत्याचार करते हैं तो उसे पहली बार में ही इसका विरोध करना चाहिए "
बिल्कल सच है यह क्यूंकि अगर विरोध नहीं किया तो फिर उनकी हिम्मत बढती चली जाती है...लेकिन अधिकाँश स्त्रियाँ ऐसा नहीं कर पातीं...पर सोचने की बात ये है कि वो ऐसा क्यूँ नहीं कर पातीं??
इसकी प्रमुख वजह है...उनका पालन-पोषण. उन्हें बचपन से ही यही सिखाया-पढाया जाता है कि त्याग करो..एडजस्ट करो...जबाब ना दो..विरोध ना करो....ऊँचा मत बोलो..ये सब स्त्रियोचित गुण नहीं हैं...वगैरह वगैरह...फिर वे कैसे सीख पाएंगी ना कहना...विरोध करना..??
पहले ये स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉगजगत के अभिभावकों..या अन्य मुट्ठी भर अभिभावकों की बात नहीं कर रही जो लड़के/लड़कियों में विभेद नहीं करते. पर वृहद् परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसे लोगों की संख्या सागर में बूँद जैसी नहीं भी तो.. एक बाल्टी भर जल जैसी ही है. अधिकाँश लोग ऐसे हैं जो लड़कियों के जन्म के साथ ही भेदभाव शुरू कर देते हैं. लड़कियों का जन्मोत्सव नहीं मनाएंगे...आगे चलकर उसका जन्मदिन नहीं मनाएंगे..पर बेटों का जन्मोत्सव और उसका जन्मदिन धूमधाम से मनाएंगे. समाज के एक वर्ग में देखा..कि वहाँ बेटियों की छट्ठी (जन्म के छः दिन बाद मनाया जाने वाला उत्सव ) का रिवाज़ नहीं है...अब ये रिवाज किसने बनाए??
अगर बेटे/बेटी दोनों ही बहुत छोटे हैं ..रो रहे हैं तो अक्सर बेटे को पुचकार कर उठा लिया जाता है. बढ़िया चीज़ें...खिलौने..कपड़े..चॉकलेट बेटों के लिए आते हैं. कितने ही घरों में ,बेटे को दूध का ग्लास दिया जाता है, उनकी दाल में घी जरूर डाला जाता है..पर बेटियों के नहीं. दूरदर्शन पर बेटियों को भी उचित पोषण दिया जाना चाहिए के संदेश की शुरुआत ही यूँ हुआ करती थी.."बेटियाँ ना खाया करे हैं, घी "...शायद बहुत लोग एतराज जताएं..पर यह सब कटु सत्य है ...एक मेरी आँखों देखी घटना है...बचपन में हम कॉलोनी के बच्चे दशहरा में मूर्तियों के दर्शन के लिए जा रहे थे. एक अफसर पिता..अपने बरामदे में से चिल्लाये..."मन्नू ने फटे हुए मोज़े पहने हैं" ..और उसकी बहन किट्टी ने अपराधी भाव से कहा.."मैने मना किया था...इसने नहीं सुना.." और वहीँ झुक कर उसने छोटे भाई के फटे मोज़े उतार कर खुद पहने और अपने अच्छे मोज़े उसे पहना दिए." पिताश्री संतुष्ट हो गए. उस वक़्त भी मुझे यह बात बहुत बुरी लगी थी (तभी शायद अब तक याद है ) .भीड़ में कोई झुक कर मन्नू के फटे मोज़े नहीं देखने जा रहा था....पर उसके पिताजी को कैसे गवारा हो ये. उनके घर में और भी ना जाने कितने ऐसे भेद-भाव किए जाते होंगे .
लोग कह सकते हैं..'ये तो आपके बचपन की बात है...बड़ी पुरानी बात है..अब ऐसा नहीं होता ' तो वे ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का मई महीने का ये फेसबुक स्टेटस पढ़ सकते हैं .."सहयात्री ने दो लीटर के ठंढे पानी की बोतल खरीदी .एक ग्लास खुद पिया..एक ग्लास बेटे को दिया और उसके बाद आधा ग्लास बेटी को " ( आठ लोगों ने इस स्टेटस को लाइक भी किया है ) .अब इस छोटी सी बच्ची को तो अभी से इस विभेद को स्वीकार करने की आदत पड़ जायेगी .और इस तरह के भेदभाव करने वाले माताओं-पिताओं की संख्या बहतायत में है
ये सब कहने का अर्थ ये है कि जब लडकियाँ बिलकुल नासमझ होती हैं...उनकी सोच विकसित नहीं हुई होती है..तभी से उनके साथ ये भेदभाव शुरू हो जाता है और उसे ये अपनी नियति समझ स्वीकार
करती जाती हैं ..इसे ही सही समझने लगती है क्यूंकि अपने पालनकर्ता को तो वे गलत नहीं समझ सकतीं. जैसे ये समझती हैं कि माता-पिता का आदर करना चाहिए वैसे ही ये भी समझती हैं कि भाई यानि पुरुष को हर चीज़ में ज्यादा महत्व देना है. आज कई भाई बड़े भावुक होकर संस्मरण लिखते हैं कि उनकी बहनों ने अपने पैसे बचा कर उनके लिए कितना कुछ किया...इतना त्याग किया...भाई-बहन का प्रेम तो इसमें है ही..पर साथ में ये भी है...कि लड़कियों की मेंटल कंडिशनिंग ही ऐसी हो जाती है कि खुद के लिए नहीं,..हमेशा दूसरों के लिए सोचना है.वरना उनकी भी उम्र भाई के आस-पास की ही होती है..पर उनमें समझदारी बहुत जल्दी आ जाती है. स्त्रियों में प्रेम-त्याग के कुछ अन्तर्निहित गुण होते हैं. पर उनके इस गुण की इतनी बढ़ा-चढ़ा कर तारीफ़ की जाती है कि वे भी उन्हीं गुणों को संवारने में लग जाती हैं..उनके बाकी सारे गुण गौण हो जाते हैं.
जब लडकियाँ बड़ी होती हैं...तो फिर वही शिक्षा में भेदभाव ..अच्छे स्कूल कॉलेजों में बेटों का दाखिला...मेडिकल -इंजीनियरिंग...की पढ़ाई उसकी कोचिंग के लिए लाखों खर्च करने को तैयार पर बेटियों को आर्ट्स पढ़ने की हिदयात .इसके साथ ही उन्हें तमाम किस्से सुनाए जाते हैं...'सीता के त्याग के.'..'शिव को पाने के लिए पार्वती की तपस्या के'....'कुंती के अनजाने में ही कह देने पर पांच पतियों में बंट जाने वाली द्रौपदी के'...'उन पतिव्रताओं के जो वेश्यागामी..अत्याचारी पति के बीमार पड़ने पर उन्हें कंधे पर लाद...लहु-लुहान घुटनों से देवी माँ के दर्शन के लिए दुर्गम पर्वत पर चढ़ जाती हैं...कि उनके पति ठीक हो जाएँ'....तो ऐसी कहानियाँ सुन ..और ऐसे व्यवहार को झेलकर किसी भी लड़की की सोच कैसी होगी.?? यही कि उससे तो त्याग ही अपेक्षित है...उसे हर हाल में ससुराल में एडजस्ट करना चाहिए . उसे खुद के के लिए नहीं..दूसरों के लिए जीना है...और वे यही करती हैं. पति के अत्याचार के विरोध का ख्याल आने से पहले अपने माता-पिता ..अपने संतान का ख्याल आ जाता है. आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़कियों के भी माता-पिता ये कभी नहीं चाहते कि बेटी ससुराल छोड़ मायके वापस आए. तो जब लौट कर कहीं जाने का ठौर-ठिकाना ना हो तो वो झट से विरोध कैसे करे?? हाँ ,जब सर से पानी ऊपर चला जाए..अत्याचार की परकाष्ठा हो जाए तब जरूरजरूर धीरे धीरे उसमें हिम्मत आने लगती है..पर यह हिम्मत उसे असहनीय पीड़ा से मिलती है अपने परिजनों से नहीं.
लड़कों से राजनीति...देश की समस्याओं पर डिस्कशन किया जाता है. शायद ही इन मामा-चाचा -भतीजो-भांजों के संग पारिवारिक बैठकों में लड़कियों को शामिल किया जाता हो. हाँ, इस विचार-विमर्श को और लज्जतदार बनाने के लिए लड़कियों से गरमागरम पकौड़ों और चाय की फरमाइश जरूर की जाती है. उसके बाद लड़कियों पर तोहमत लगा दिया जता है कि उनकी तो इन विषयों में कोई रूचि ही नहीं. ये मानसिकता इतनी गहरे पैठ गयी है कि पुरुष सोच ही नहीं पाते..स्त्रियों की भी इन सबमें भागेदारी की इच्छा हो सकती है.
दो साल पहले की बात है.. एक रिश्तेदार के यहाँ गयी हुई थी. पति -पत्नी दोनों उच्च पदासीन हैं . एक रविवार ..उसके पति स्नान करने जा रहे थे तभी टी.वी. पर एक विचारोत्तेजक कार्यक्रम आने लगा. वे टॉवेल में ही आकर टी.वी. के सामने बैठ गए और पत्नी से कहा."तब तक तुम जाकर नहा लो.." जब उसने कहा ."क्यूँ ..मेरी भी इच्छा है देखने की ?" तब बड़े बेमन से ''ओके...देखो.."कहकर मुहँ घुमा कर बैठ गए.
एक बार ट्रेन में देखा एक पुरुष की एक सहयात्री से कुछ बहस हो रही थी..उनकी बेटी ने पिता का मंतव्य स्पष्ट करना चाहा...तो पिता ने तुरंत हाथ उठा कर मना कर दिया.."मैं बात कर रहा हूँ ना.." ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं जहाँ .लड़कियों को अपनों के द्वारा ही चुप रहने की हिदायत दी जाती है. अगर ऐसा वे उनकी रक्षा के लिए करते हैं तो फिर उनके व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा? वे तो दबी-ढंकी ही रह जायेगी...उन्हें अजनबियों के सामने बोलने की ..अपनी बात कहने की आदत ही नहीं रहेगी तो जब पिता/भाई आस-पास नहीं होंगे तब भी वो अपनी बात कैसे कह पाएंगी ?? यही वजह है कि ऐसे माहौल में पली लडकियाँ जल्दी अपना मुहँ नहीं खोल पातीं...ना ही अपने ऊपर किए गए जुल्म का विरोध कर पाती हैं.
'सत्यमेव जयते' के एक कार्यक्रम में उस लड़की का इंटरव्यू था..जिसने शादी में दहेज़ का विरोध करते हुए...भावी ससुराल वालों पर स्टिंग ऑपरेशन किए. पहले भी अखबार में विस्तार से ये रिपोर्ट पढ़ी थी (मुंबई की ही घटना थी यह ) तब भी यही ख्याल आया था कि इसका क्रेडिट उस लड़की के माता-पिता को देना चाहिए जिन्होंने इतनी हिम्मत दी उस लकड़ी को . यह कहकर चुप नहीं करा दिया कि 'ये सब बड़ों के मामले हैं,हमारा काम है.....बीच में मत पड़ो...जाओ चाय बना के लाओ" .
मेरी इस कहानी को पढ़कर परिचित/अपरिचित लोगों के कई मेल/फोन आए...सबने अपने अनुभव बांटे (इतने कि चार,पांच कहानी का प्लाट तैयार हो जाए ).एक लड़की ने अपना अनुभव बताया कि उसने ससुराल वालों की बढती मांगों को लेकर शादी के दो दिन पहले अपने पिता को फोन करके कहा (उसके पिता...उसके भावी ससुरालवालों के पास ही गए हुए थे ) कि "आप इस शादी से मना कर दीजिये ". पिता ने पूछा..."सच में तुम श्योर हो?" और लड़की के हाँ कहने पर पिता ने वहाँ शादी तोड़ दी. मैने उस लड़की की हिम्मत की तारीफ़ तो की ही साथ ही उसके पैरेंट्स के प्रति भी अपनी श्रद्धा व्यक्त की कि उन्होंने अपनी बेटी की इच्छा का मान रखा...उसका पालन-पोषण ऐसे किया कि वो ना कहने की हिम्मत कर सके.
तो आज जरूरत है..ऐसे ही माताओं-पिताओं की जो बचपन से ही अपनी लड़कियों का ऐसे पालन-पोषण करें कि वो अपनी आवाज़ पहचानें...'ना' कहना सीखें...विरोध करना जानें तब वे अपने ऊपर किए गए पहले जुल्म का विरोध कर पाएंगीं...और किसी को ये नसीहत देने का मौका नहीं देंगी कि 'पहली बार में ही किसी अत्याचार का विरोध करना चाहिए "