सूरज प्रकाश जी..अपने खजाने के साथ |
अब तक सुन रखा था, कम्बल बँट रहे हैं...लड्डू बँट रहे हैं...भोजन बँट रहा है...पर पुस्तकें बँट रही हैं, वो भी साहित्यिक पुस्तकें..और अपनी पसंद की पुस्तकें चुन लेने की छूट भी है...यह एक अनोखी खबर थी. जब सतीश पंचम जी ने बताया तो सहसा विश्वास नहीं हुआ...पर उन्होंने जाने-माने साहित्यकार सूरज प्रकाश जी के आलेख का लिंक भी दिया...जिसमे उन्होंने जिक्र किया था कि वे अपनी चार हज़ार संग्रहित पुस्तकें इच्छुक पाठकों को देना चाहते हैं...उनकी इस दरियादिली पर मन नतमस्तक हो उठा.
जब मैने ब्लोगिंग शुरू ही की थी....तभी सूरज प्रकाश जी से एक ब्लोगर मीट में मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ था. पर उसके बाद उनसे कोई संवाद नहीं हुआ. सतीश जी....फेसबुक के माध्यम से उनके संपर्क में थे. पर मेरे मन में पुस्तकें लेने की अदम्य इच्छा के साथ-साथ कुछ संकोच भी विद्यमान था. कोई परिचय नहीं...संवाद नहीं..और सीधा पुस्तकें लेने पहुँच जाऊं. सतीश जी से मैने सूरज जी के यहाँ जाने की इच्छा तो जताई पर कन्फर्म नहीं किया था. कॉलेज में मुझे सब कहते थे, 'रश्मि को किताबों की खुशबू आती है'...किसी ने कितनी भी छुपाकर कोई किताब रखी हो..मेरी नज़र पड़ ही जाती थी.. और यहाँ चार हज़ार किताबों की खुशबू ने तो जैसे दिल-दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया था..पर हिचकिचाहट भी पीछा नहीं छोड़ रही थी. और जैसे मुझे इसी ऊहापोह से उबारने के लिए वंदना अवस्थी दुबे की इंदौर जाने वाली ट्रेन लेट हो गयी और वो चैट पर मिल गयी...जैसे ही उसे मैने सूरज जी के आलेख का लिंक दिया और अपने असमंजस का जिक्र किया, उसने तुरंत कहा..'तुम्हे जरूर जाना चाहिए..ऐसा अवसर नहीं छोड़ना चाहिए...मैं मुंबई में होती तो जरूर जाती'..और मैने जाने का निर्णय ले लिया ...(शुक्रिया सतीश जी और वंदना ..दोनों का..जिनके प्रोत्साहन से मुझे इतनी नायाब पुस्तकें मिलीं)
जब सतीश जी को अपने निर्णय की जानकारी दी...तो उन्होंने सुबह दस बजे ही निकलने की बात की....अब हम गृहणियों के लिए जरा मुश्किल होता है, इतनी जल्दी घर से निकलना...जब सतीश जी से अपनी दुविधा बतायी तो वे बारह बजे चलने को तैयार हो गए.
दूसरे दिन मैं आराम से रोज की तरह घर के काम निबटा रही थी...और सतीश जी का फोन आ गया कि..उन्हें दोपहर को कुछ जरूरी काम आ गया है.....इसलिए उन्हें तो दस बजे ही निकलना पड़ेगा ...फिर से मन दुविधा में...सामने घर बिखरा पड़ा था..पर नज़रों के सामने तो बार-बार शेल्फ में सजी पुस्तकें ही घूम रही थीं. और मैने सोच लिया..'घर अपने संवरने का इंतज़ार कर सकता है..पर शेल्फ पर सजी पुस्तकें मेरा इंतज़ार नहीं करेंगी..' सबकुछ वैसा ही फैला हुआ छोड़ ,मैं झट से तैयार होकर निकल पड़ी ...और सतीश जी से पहले ही पहुँच गयी. सूरज जी बड़ी आत्मीयता से मिले..और बातों के दरम्यान उन्होंने बताया कि " अपनी 'चार हज़ार बेटियों' को उन्होंने अपने घर से विदा करने का निर्णय ले लिया है" बड़ी सटीक उपमा दी उन्होंने..सच ही तो है....इतने दिन किताबें उनके घर की रौनक बनी रहीं...अब वे दूसरे लोगों को सीख देने..उनका जीवन संवारने जा रही थीं.' वे बता रहे थे...'बहुत ही कठिन निर्णय था यह...पर मैने फैसला कर लिया...कि इन पुस्तकों का लाभ अब दूसरों को भी उठाने का मौका देना चाहिए '
मुझसे उन्होंने मेरी रूचि की किताबें पूछीं..जाहिर था...कहानियाँ लिखती हूँ..तो मेरी रूचि कहानी संग्रह--उपन्यासों में ही थीं. अंदर के कमरे में चारों तरफ करीने से सजी किताबें रखी थीं.....शेल्फ पर...तख़्त पर...जमीन पर किताबों का अम्बार लगा हुआ था. मैं mesmerized सी खड़ी थी. दिनों बाद मैं हिंदी की इतनी सारी पुस्तकें एक साथ देख रही थी.{मुंबई में तो अंग्रेजी ..मराठी..गुजराती का ही बोलबाला है..:( } कई लेखकों के लेखन से 'धर्मयुग' के जरिये परिचय हुआ था. प्रियंवद, गोविन्द मिश्र, संजीव, मिथिलेश्वर, सुषमा मुनीन्द्र, मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज, प्रियरंजन...आदि की किताबें देख सब की सब पढ़ने का मन हो रहा था. एकाध पलट कर देखा...और लिखा हुआ पाया..'इनकी पहली कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी' . प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद इलाचंद्र जोशी, मोहन राकेश...जैसे लेखकों की किताबें तो मैने कॉलेज की लाइब्रेरी में ही खंगाल डाली थीं. पर इन लेखकों को पत्रिकाओं में ही पढ़ा था. सबकी किताबें सामने थीं और चुनना मुश्किल हो रहा था. सतीश पंचम जी भी पधार चुके थे और जमीन पर आसान जमाये...मनोयोग से पुस्तकें चुनने में व्यस्त थे. उन्हें भी वही मुश्किल हो रही थी...कौन सी चुनें, कौन सी छोड़ें.
सूरज जी, मुझे किताबों का ज़खीरा दिखा कर अन्य लोगो की सहायता करने चले गए. लाइब्रेरी के लिए भी लोग पुस्तकें लेने आए थे....सूरज जी पुस्तकें चुनने में , उनकी मदद कर रहे थे . कौन सी किताबें बच्चों के लिए अच्छी रहेंगी..कौन सी शिक्षकों के लिए...उन्हें बता रहे थे.
कुछ बांगला भाषी लोग भी थे...हिंदी साहित्य में उनकी रूचि देख बहुत ही अच्छा लग रहा था. उन्हें धर्मवीर भारती की 'अंधायुग ' चाहिए थी...सूरज जी ने अपने हाथों से एक-एक किताब रखी थी...उन्हें पता था, वो पुस्तक वहीँ कही हैं...पर मिल नहीं रही थी..मुझे भी मन्नू भंडारी की 'आपका बंटी' फिर से एक बार पढ़ने का मन था...सूरज जी ने बताया कि वो पुस्तक भी है...पर पुस्तकों के अम्बार में कहीं गुम हो गयी थी. उनलोगों के चले जाने के बाद...' अंधा युग' दो किताबों के बीच दबी हुई मिल गयी....क्या पता मेरे जाने के बाद 'आपका बंटी' भी मिल गयी हो. :(:(
वहाँ अंग्रेजी की भी काफी किताबें थीं...पर उनमे मेरी कोई रूचि नहीं थी...मुंबई में अंग्रेजी की किताबें तो आसानी से मिल जाती हैं...एक सज्जन अंग्रेजी के प्रख्यात लेखकों की किताबें ढूंढ रहे थे...सूरज जी उनकी सहायता कर रहे थे. मैने भी सबसे ऊपर वाली शेल्फ में एक किनारे..'बोरिस पेस्टर्नेक' की 'डा. जीवागो' रखी देखी थी..झट से बता दिया. सूरज जी ने थोड़े संकोच से कहा, 'वो किसी ने फोन करके कहा है...अलग रखने को' उन्हें लगा, शायद मेरी भी रूचि है...पर मैने ये किताब अपने ग्रेजुएशन के इम्तहान के दिनों में पढ़ी थी...और डांट भी खाई थी..' कहानी थोड़ी थोड़ी भूल भी गयी हूँ..पर डांट पूरी की पूरी याद है..:) एक तिपाई पर भी कुछ किताबें अलग कर के किसी के लिए रखी हुई थीं. मन बार-बार देखने को हो रहा था...कौन सी किताबें हैं..पर सख्ती से रोक लिया खुद को..क्या फायदा...मेरी पसंद की कोई किताब होगी तो बेकार अफ़सोस होगा.
खजाने का अंश जो मैं ले आई. |
सूरज जी ने बताया था...प्रति व्यक्ति दस किताबें और पुस्तकालयों के लिए सौ किताबों की सीमा उन्होंने तय की है. ताकि ज्यादा से ज्यादा पुस्तक प्रेमी इस अवसर का लाभ उठा सकें . दस किताबों की सीमा, हम कब का पार कर चुके थे...बार-बार किताबों की अदला बदली करते. एक निकालते दूसरी रखते. फिर मैं किताबों से अलग हट कर खड़ी हो गयी...जितना ही देखूंगी ,उतना ही मन में लालच आएगा. सतीश जी भी पेशोपेश में थे. उन्होंने अपनी किताबें गिनी और कहा...ये तो बारह हो गयीं...सूरज जी ने सदाशयता से कहा 'कोई बात नहीं..दो किताबें 'रूंगा' में ले लीजिये." अब 'रूंगा' मेरे लिए नया शब्द था. सूरज जी ने समझाया..'जैसे दुकान से हम सामान लेने के बाद कहते हैं..थोड़ा एक्स्ट्रा दे दो...इस एक्स्ट्रा को 'रूंगा' कहते है' . मैने तुरंत कहा, "मैने तो रूंगा लिया ही नहीं" सूरज जी ने हँसते हुए कहा.."आप भी ले लीजिये' और मैने जिन दो किताबों पर हाथ फेर फेर कर वापस रख दिया था..जल्दी से उन्हें भी अपनी जमा की पुस्तकों में शामिल कर लिया. सतीश जी ने कहा. हमारे गाँव में 'रूंगा' के लिए 'घलुआ' शब्द प्रयुक्त करते हैं. 'घलुआ' तो मैने सुन रखा था..पर मुझे लगता था...इसका अर्थ है 'मुफ्त में ले लेना..' आज सही अर्थ पता चला...और 'घलुआ' और 'रूंगा' का सही अर्थों में प्रयोग करते हुए हमलोग दो किताबें ज्यादा ले आए.
किताबें चुनने के बाद उनपर स्टैम्प लगाने की बारी थी. स्टैम्प पर एक बहुत सुन्दर संदेश लिखा हुआ था..."ये किताब पढ़कर किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दें" इसका अक्षरशः पालन करने का इरादा है. इस पोस्ट के साथ , मैने वहाँ से ली गयी पुस्तकों की तस्वीर लगाई है. आपलोगों को जो भी पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो, बता दें...उन्हें वह किताब मिल जायेगी. {पर मेरे पढ़ने के बाद :)}
सुन्दर संदेश वाला स्टैम्प |
बातचीत भी चल रही थी और सूरज जी बता रहे थे कि अपने ब्लॉग पर लिखा उनका यह आलेख हिन्दुस्तान के 54 एडिशन में छपा है. और काफी प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं. एक महिला ने लिखा है..'किताबें समेटने का इतना अच्छा मौका और मैं इस मौके से हज़ार किलोमीटर दूर :( :( काश मुझे कुछ किताबें मिल सकतीं !!"... सूरज जी ने मेल करके उक्त महिला से उनकी पसंद की किताबों के नाम मांगे और उन्हें भेजने के लिए किताबें अलग कर के रख दी हैं . मेरे घर आने के बाद वंदना अवस्थी का फोन आया...यह जानने के लिए कि 'मैं किताबें लेने गयी थी या नहीं?' और बातों में पता चला..जिन महिला का जिक्र सूरज जी कर रहे थे...वो वंदना मैडम ही थीं. मैने उसे लिंक दिया और हज़ार मील दूर बैठे ही उसने मुझसे पहले ही मेल करके अपने नाम की किताबें बुक कर लीं और मुझे तिपाई पर अलग रखी किताबों को बस निहार कर ही संतुष्ट हो जाना पड़ा..:(:( {कोई नहीं...वंदना के पढ़ने के बाद उस से मैं वो किताबें मंगवा लूंगी, सतीश जी से भी किताबें एक्सचेंज करनी हैं.. :)}
सूरज प्रकाश जी के चेहरे पर संतुष्टि और प्रसन्नता के भाव देखकर अंदाज़ा हो रहा था कि 'लेने से कहीं ज्यादा ख़ुशी, देने में होती है' कोटिशः धन्यवाद सूरज जी..आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला.
लौटते हुए मैं सोच रही थी...फेसबुक पर किताबों की तस्वीर लगा कर एक थैंक्स का मैसेज लिख दूंगी...जो लोग ब्लॉग नहीं पढ़ते...उन्हें भी पता चल जाएगा और वे भी सूरज जी के इस महत्वपूर्ण कार्य से प्रेरणा ले सकेंगे. पर मेरे इंटरनेट कनेक्शन ने ही धोखा दे दिया...कल दिन भर गायब रहा..और पोस्ट लिखने में सतीश पंचम जी बाजी मार ले गए. उनकी पोस्ट यहाँ देखी जा सकती है.