जानि सरद रितु खंजन आए।
पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।।’’
पंछियों की दुनिया में रूचि लेने से पहले ही इस 'खंजन' पक्षी से परिचित थी. माँ को रामायण की बहुत सारी चौपाइयां कंठस्थ हैं और गाँव में कभी इस पक्षी को दिखाकर उन्होंने ये चौपाई कही थी. हमारे गाँव में इसे खिर्लीच कहा जाता है. तभी से इस पक्षी की पहचान हो गई थी .पर कभी गहराई से नहीं सोचा था कि ऐसा क्यूँ कहते हैं कि खंजन को देख कर समझ जाना चाहिए कि शरद ऋतु आने वाली है.
सहस्त्रों वर्षों से ये पंछी हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय कर सर्दियों में बर्फीले प्रदेशों से हमारे यहाँ आते हैं. और गर्मी आते ही अपने देश लौट जाते हैं. गर्मियों में ही ये अपने देश में प्रजनन और बच्चों की देखभाल करते हैं. उन प्रदेशों में यह पंछी गौरैया की तरह ही आम है पर हमें इनके दर्शन शरद ऋतु में ही होते हैं. इनकी पूंछ हमेशा हिलती रहती है इसीलिए अंग्रेजी में इसे wagtail कहते हैं. ये अलग अलग रंगों के होते हैं. सफेद-सलेटी-पीला .मैंने सफेद वाला खंजन ही देखा था. पहली बार पीले रंग के गले और वक्ष वाला खंजन देखा.
नवंबर-दिसम्बर से ही अन्य प्रदेशों के पक्षी-प्रेमी खंजन की तस्वीर लगाने लगे थे. पर मुंबई में मुझे ये पंछी नजर नहीं आ रहे थे .अब तो सर्दी उतार पर है.मैंने आशा ही छोड़ दी थी कि आज सुबह दूर से एक छोटा सा पंछी नजर आया जिसकी पूंछ लगातार हिल रही थी . मैं समझ गई, आज मेरा लकी डे है
. नई जगह पर कुछ कुछ भूला सा, देर तक चुपचाप बैठा यह इधर उधर देख रहा था 
.



इस पंछी से सम्बन्धित एक जिज्ञासा और थी . आँखों की सुन्दरता की उपमा खंजन नयन से दी जाती है .तुलसीदास ने भी सीता जी के आँखों की तुलना खंजन से की है.
खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसय चारू चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते।