(ये आलेख मैंने ब्लॉग बनाने के शुरूआती दिनों में लिखा था...दरअसल तीन आलेखों की एक श्रृंखला सी ही लिखी थी. ये ब्लॉग बनाया तभी से इच्छा थी...उन पोस्ट्स को यहाँ भी पोस्ट करूँ....बहुत सारे नए पाठक जुड़ गए हैं,अब ...उनमे से "सचिन के गीले पौकेट्स...." तो पोस्ट भी कर चुकी हूँ ...ये पोस्ट भी मेरे दिल के बहुत करीब है और आजकल क्रिकेट का मौसम भी है...सो माकूल लगा...अभी पोस्ट करना.)
हमारे देश को सुष्मिता सेन के रूप में पहली विश्व सुंदरी मिलीं. पर विश्व सुंदरी का खिताब एक भारतीय बाला को बहुत पहले ही मिल गया होता अगर उन्होंने अपने दिल की नहीं सुन...पोलिटिकली करेक्ट जबाब दिया होता. मशहूर मॉडल 'मधु सप्रे' फाईनल राउंड में पहुँच गयी थीं. फाईनल राउंड में 3 सुंदरियाँ होती हैं और एक ही प्रश्न तीनो से पूछे जाते हैं. जिसका जबाब सबसे अच्छा होता है,उसे मिस यूनिवर्स घोषित कर दिया जाता है. (विषयांतर है....पर बरसो पहले टी. वी. पर देखा हुआ कुछ याद हो आया ....'मिस इंडिया' प्रतियोगिता के फाइनल राउंड में भी सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय के साथ कुछ और सुंदरियों से भी एक ही सवाल पूछा गया था, " अगर आप इतिहास की एक तारीख बदलना चाहें तो वो कौन सी तारीख होगी...?" सुष्मिता सेन ने जबाब दिया ,"इंदिरा गांधी की हत्या का दिन "और dumb ऐश (वैसे मुझे वो बहुत पसंद हैं ) का जबाब था, "अपना जन्मदिन" ...जाहिर है...सुष्मिता सेन को ताज मिलता और वो सही चयन था .) यहाँ मिस यूनिवर्स की प्रतियोगिता में सवाल था 'अगर एक दिन के लिए आपको अपने देश का राजाध्यक्ष बना दिया गया तो आप क्या करेंगी?" बाकी दोनों ने भूख,गरीबी दूर करने की बात कही....हमारी मधु सप्रे ने कहा,"वे पूरे देश में अच्छे खेल के मैदान बनवा देंगी"...जाहिर है उन्हें खिताब नहीं मिला....बहुत पहले की बात है,पर मुझे भी सुनकर बहुत गुस्सा आया था की ये कैसा जबाब है. हमारे देश को एक विश्व सुंदरी मिलने से रह गयी. पर आज जब मैं खुद मुंबई में हूँ तो मुझे उनकी बात का मर्म पता चल रहा है. मधु सप्रे मुंबई की ही हैं और एक अच्छी एथलीट थीं.
इस कंक्रीट जंगल में बच्चे खेलने को तरस कर रह जाते हैं. बिल्डिंग के सामने थोड़ी सी जगह में खेलते हैं पर हमेशा अपराधी से कभी इस अंकल के सामने कभी उस आंटी के सामने हाथ बांधे,सर झुकाए खड़े होते हैं.क्यूंकि यहाँ घर के शीशे नहीं कार का साईड मिरर ज्यादा टूटता है. कई बार दो सोसाईटी के बीच झगडा इतना बढ़ जाता है (तुम्हारी बिल्डिंग के बच्चे ने मेरी बिल्डिंग के कार के शीशे तोड़े) की नौबत पुलिस तक पहुँच जाती है. फूटबौल खेलने जितनी जगह तो होती नहीं,क्रिकेट ही ज्यादातर खेलते हैं. मै खिड़की से अक्सर देखती हूँ....इनके अपने नियम हैं खेल के...अगर बॉल ऊँची गयी...'आउट'...दूर गयी...'आउट'.....पार्किंग स्पेस में गयी ..'आउट' सिर्फ स्ट्रेट ड्राईव की इजाज़त होती है. बच्चे जमीन से लगती हुई सीधी बॉल सामने वाली विकेट की तरफ मारते हैं और रन लेने भागते हैं. एक ख्याल आया, 'सुनील गावसकर' का पसंदीदा शॉट था 'स्ट्रेट ड्राईव' और उन्हें बाकी शॉट्स की तरह इसमें भी महारत हासिल थी. कहीं यही राज़ तो नहीं??. क्यूंकि अपनी आत्म कथा 'Sunny Days ' में जिक्र किया था कि वे बिल्डिंग में ही क्रिकेट खेला करते थे...और कोई आउट करे तो अपनी बैट उठा, घर चल देते थे (सिर्फ गावस्कर के पास ही बैट थी ).. इसी से शायद, उन्हें विकेट पर देर तक टिके रहने की आदत पड़ गयी. क्या पता स्ट्रेट ड्राईव में महारत भी यहीं से हासिल हुई हो....अपनी डिफेंसिव खेल का भी जिक्र किया था कि...उनकी माँ उन्हें बॉलिंग. करती थीं...और एक दिन उनके शॉट से माँ की नाक पर चोट लग गयी...माँ तुरंत दवा लगाकर आयीं और बॉलिंग जारी रखी..उसके बाद से ही गावस्कर संभल कर खेलने लगे.
सचिन और रोहित शर्मा भी मुंबई के हैं और आक्रामक खिलाड़ी हैं पर सचिन शिवाजी पार्क के सामने रहते थे और रोहित MHB ग्राउंड के सामने...उन्हें जोरदार शॉट लगाने में कभी परेशानी नहीं महसूस हुई होगी. विनोद कांबली के बारे में सुना है कि वह चाल में रहते थे। आसपास के घरों में गेंद न लगे इसलिये गेंद को उंचा उठाकर मारते थे और शायद यही राज था कि कांबली ज्यादातर ऐसे ही शॉट खेलते देखे गये।
मुंबई में कई सारे खुले मैदान हैं पर उनपर किसी ना किसी क्लब का कब्ज़ा है.मेरे घर के पास ही एक म्युनिस्पलिटी का मैदान था...सारे बच्चे खेला करते थे...कुछ ही दिनों बाद एक क्लब ने खरीद लिया...मिटटी भरवा कर उसे समतल किया.और ऊँची बाउंड्री बना एक मोटा सा ताला जड़ दिया गेट पर. सुबह सुबह कुछ स्थूलकाय लोग,अपनी कार में आते हैं. एक घंटे फूटबाल खेल चले जाते हैं. बच्चे सारा दिन हसरत भरी निगाह से उस ताले को तकते रहते हैं. कई बार सुनती हूँ...'अरे फलां जगह बड़ी अच्छी गार्डेन बनी है'...देखती हूँ,मखमली घास बिछी है,फूलों की क्यारियाँ बनी हुई हैं...सुन्दर झूले लगे हुए हैं....चारो तरफ जॉगिंग ट्रैक बने हुए हैं. पर मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती...यही खुला मैदान छोड़ दिया होता तो बच्चे खेल तो सकते थे. एकाध खुले मैदान हैं भी तो पास वाले लोग टहलने के लिए चले आते हैं और बच्चों को खेलने से मना कर देते हैं .एक बार एक महिला ने बड़ी होशियारी से बताया कि 'मैंने तो उनकी बॉल ही लेकर रख ली,हमें चोट लगती है' .मैंने समझाने की कोशिश भी की..'थोड़ी दूर पर जो गार्डेन सिर्फ वाक के लिए बनी है...वहां चल जाइए'...उनका जबाब था..";अरे, ये घर के पास है,हम वहां क्यूँ जाएँ?"..."हाँ,..वे क्यूँ जाएँ?" इनलोगों के बच्चे बड़े हो गए हैं, अब इन्हें क्या फिकर. जब बच्चे छोटे होंगे तब भी उनकी खेलने की जरूरत को कितना समझा होगा,पता नहीं.
कभी कभी इतवार को बिल्डिंग के बच्चे स्टड्स,स्टॉकिंग पहन पूरी तैयारी से फूटबाल खेलने जाते हैं और थके मांदे लौटते हैं...बताते हैं तीन मैदान पार कर, जाकर उन्हें एक मैदान में खेलने की जगह मिली.कभी कभी ये लोग शैतानी से गेट के ऊपर चढ़कर जबरदस्ती किसी कल्ब के ग्राउंड में खेलकर चले आते हैं.मेरे बच्चे भी शामिल रहते हैं...पर मैं नहीं डांटती....एक तो सामूहिक रूप से ये जाते हैं और फाईन करेंगे तो पैसे तो दे ही दिए जायेंगे...दो बातें सुनाने का मौका भी मिलेगा...कि अपना शौक पूरा करने के लिए वे बच्चों से उनका बचपन छीन रहें हैं.
एक बार राहुल द्रविड़ से जब एक इंटरव्यू में पूछा गया कि" क्या बात है,आजकल छोटे शहरों से ज्यादा खिलाड़ी आ रहें हैं"..इस पर द्रविड़ का भी यही जबाब था कि महानगरों में खेलने की जगह बची ही नहीं है.खेलना हो तो कोई स्पोर्ट्स क्लब ज्वाइन करना होता है. उन्होंने अपने भाई का उदाहरण दिया कि वो 8 बजे रात को घर आते हैं. इसके बाद कहाँ समय बचता है कि बच्चे को लेकर क्लब जाएँ. हर घर की यही कहानी है. माता-पिता अक्सर नौकरी करते हैं...अब बच्चे को लेकर स्पोर्ट्स क्लब कैसे जाएँ ?" मेरे बेटे भी जब स्कूल में थे अक्सर....दो बस बदल कर, दोस्तों के साथ, फुटबौल प्रैक्टिस के लिए जाते थे.आज भी छोटा बेटा, हॉकी प्रैक्टिस के लिए....सुबह ४ बजे उठ कर ट्रेन से चर्चगेट जाता है.(३० किलोमीटर दूर , खैर वो एस्ट्रो टर्फ पर खेलने के लिए) ...पर वैसे भी खेलने की जगह की बहुत कमी है... इतवार को किसी भी बड़े मैदान का नज़ारा देखने लायक होता है. मैदान में एक साथ क्रिकेट के कई मैच चल रहे होते हैं. इसकी बाउंड्री उसमें,उसकी बाउंड्री इसमें . और कितने ही लोग इंतज़ार में बैठे होते हैं..
कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.