सोमवार, 27 जून 2016

'काँच के शामियाने ' पर ऋताम्भरा कुमार की टिप्पणी

यूं ही स्क्रॉल करते ,ऋताम्भरा कुमार, के स्टेटस पर नजर पड़ी और सुखद आश्चर्य से भर गई .वे आज ही मित्र सूची में शामिल हुई हैं और उनका कोई मैसेज भी नहीं मिला था .ऐसे सरप्राइज़ अच्छे लगते हैं :)
 
ऋताम्भरा जी ने उपन्यास पढ़कर एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है..." बदलाव तभी संभव है जब हम खुद कोशिश करते हैं। किसी भी लड़की की जिन्दगी में सपनों का राजकुमार नहीं आता। राजकुमारी को अपनी जिन्दगी की खुशी खुद ही तलाश करनी होती है।
आपको उपन्यास पसंद आया ,खासकर आंचलिक बोली का समावेश ,,और अपने उसपर लिखा भी . बहुत बहुत शुक्रिया .
(कुछ लोगों ने पूछा है, उपन्यास कैसे मिल सकता है,उनके लिए लिंक नीचे है.)
                                                         'काँच के शामियाने '
कई महिनों से "रश्मि रविजा" का उपन्यास "कांच के शामियाने " पढ़ने की सोच रही थी... लेकिन पूजा खरे की समीक्षा पढ़ने के बाद तो समय गंवाये बिना ही मंगवा लिया। हाथ में किताब आने के बाद भी सोचा कि चलो रोज थोड़ा थोड़ा पढूंगी ( समयाभाव के कारण )... लगा एक हफ्ते की व्यवस्था हो गयी

लेकिन जब पढना शुरू की.... समय का पता ही नहीं चला... कई बार कोशिश की, अब रहने देती हूँ कल तक खतम कर लूंगी पर मेरी कोशिश नाकाम रही... समय देखी तो रात के तीन बज रहे थे। सच में यह उपन्यास हर औरत की कहानी है। पूरी न सही, किसी को कम, किसी को ज्यादा पर पढते समय लगता है कि ये सब तो मेरी जिन्दगी में भी हो चुका है। दो दिन तक सोचती रही हूँ कि रश्मि जी ने "जया "से इतना संघर्ष क्यों करवाया। समय बहुत बदल चुका है। लोग समझदार हो रहे हैं। उसके बाद कई दोस्त, परिचित एवं खुद की जिन्दगी को खंगालना शुरू की तो पाया कि समय वहीं का वहीं है। बदलाव तभी संभव है जब हम खुद कोशिश करते हैं। किसी भी लड़की की जिन्दगी में सपनों का राजकुमार नहीं आता। राजकुमारी को अपनी जिन्दगी की खुशी खुद ही तलाश करनी होती है। ये बात अलग है कि कोई औरत जल्दी समझ जाती और कोई देर से। और जो नहीं समझतीं समझौता करके जिन्दगी काट देती हैं।

उपन्यास से लगाव का एक कारण यह भी हो गया है कि मैंने बचपन से लेकर बीस बरस की उम्र तक का समय "हाजीपुर " और उसके आसपास के ही जगहों में ही बिताए हैं। आंचलिक बोली भी एक वजह बनी। जया की ननद का बोलने का लहजा भी किसी भूले बिसरे की याद दिला गया। धन्यवाद पूजा खरे अन्यथा इस उपन्यास को पढ़ने में और देर हो जाती...

निम्न लिंक पर उपन्यास मंगवाया जा सकता है
http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi…/…/9384419192
http://www.infibeam.com/…/kanch-ke-shami…/9789384419196.html

बुधवार, 22 जून 2016

काँच के शामियाने पर सरस दरबारी जी की टिप्पणी

बहुत शुक्रिया सरस दी (Saras Darbari )।आपने उपन्यास ही नहीं लिखने की प्रक्रिया भी समझने की कोशिश की ।लिख तो लिया था पर इसे एडिट करने में दो साल लगा दिए ।दिमाग इस दर्द से बचने के सौ बहाने ढूंढ लेता और देर होती जाती ।पर आख़िरकार किया और अब ख़ुशी है कि दिल से लिखी बात दिल तक पहुँच रही है ।
पुनः आभार ।
काँच के शामियाने

कल ही काँच के शामियाने पढ़कर खत्म की ...
रश्मि रविजा की यह कहानी जब पहली बार उनके ब्लॉग पर पढ़ी थी तभी मन बहुत दुखी हुआ था, आखिर इतना दर्द क्यों लिख देता है ऊपर वाला किसी के नसीब में ...
पर जब आसपास देखती हूँ, तो बहुत लोगों को इसी पीड़ा से ग्रस्त पाती हूँ. हो सकता है उसकी डिग्री उतनी न हो, पर उस पीड़ा को ज़्यादातर स्त्रियों ने किसी न किसी रूप में सहा है. और इसीलिए यह कहानी सनातन हो गयी है . हर पाठक ख़ास तौर पर स्त्रियाँ अपने आपको उससे जुड़ा पाती हैं. स्त्रियाँ ही नहीं पुरुषों की प्रतिक्रियाएं भी हमने पढ़ी. जया के दर्द ने सबको झकझोरा है, और पुरुषों को अपने भीतर झाँकने को प्रेरित किया है.
यह रश्मि की कलम का जादू ही है की हर पाठक , जया के दर्द की टीस को महसूस कर रहा है उसके दर्द से विचलित हो रहा है .
किसी के दर्द को समझने के लिए उस दर्द से गुज़रना होता है, उसकी पीड़ा को पूरी शिद्दत से महसूस करना होता है , तभी उस कहानी की सच्चाई , पाठकों तक पहुँच पाती है . .
रश्मि ने यह बखूबी किया है. समझती हूँ इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने भी उस दुःख के सागर को तैर कर पार किया होगा .
इतने सक्षम लेखन के लिए उन्हें दिलसे बधाई और जया जैसी अनेकों स्त्रियों के लिए दिलसे दुआएँ , कि ईश्वर दुनिया की सारी खुशियाँ उनकी झोली में डाल दे और दुःख की परछाईं भी उन्हें न छू पाए .

मंगलवार, 14 जून 2016

काँच के शामियाने : सुचेता शर्मा जी के विचार

सुचेता शर्मा जी का बहुत शुक्रिया
आप नायिका के दर्द में भीग गईं और उसे दुख से लोहा ले, सुख के दिन वापस लाते देख खुश भी हुईं...यानि उपन्यास डूबकर पढ़ा .
                             काँच के शामियाने
 Fb पर रोज़ ,अक्सर किसी न किसी की timeline पर प्रिय Rashmi Ravija रचित " कांच के शामियाने "उपन्यास का ज़िक्र पढ़ने को मिल जाता है
यूँ बहुत ज़्यादा तो नहीं पढ़ती हूँ,पर fb पर ही अच्छी रचनाओं की चर्चा होती रहती है, उत्सुकतावश ऎसी बहुचर्चित पुस्तकों को पढ़ने की जिज्ञासा होती है,तो online order कर के अवश्य पढ़ती हूँ
हालांकि मैं दुःखद कहानियाँ,serials यहाँ तक movies तक देखने से बचती हूँ. कई दिन तक impact रह जाता है दिलो दिमाग पर शायद कुछ हद तक guilty conscious भी हावी हो जाती है क़ि अपने आस पास इतना कुछ बुरा घटित हो रहा है और हम चाह कर भी रोक नहीं पा रहे हैं


कुछ ऐसी ही त्रासदायक कथा है जया की,जो सालों "अपनों" द्वारा ही सताई जाती रही जिसे उसने अपनी नियति मान कर स्वीकार भी कर लिया.उसकी व्यथा,दर्द,मानसिक शारीरिक यंत्रणा को खूबी से चित्रित किया है रश्मि ने,या यूँ कहें कि दर्द की स्याही में डुबो करअपनी सधी हुई लेखनी से एक उपन्यास में,एक ज़िन्दगी की तमाम वेदना black and white में उंडेल कर रख दी है


जया मात्र कहानी की ही पात्र नहीं है,हमारे आस पास कई ऐसी दुखद जीवंत कहानियाँ बिखरी होती हैं,बेहतर है यदि हम इन innocent angels के लिए कुछ सार्थक,ठोस करें.


उपन्यास पढ़ने के बाद,बहुत मानसिक टेंशन रहा कुछ दिन,और संयोग ही कि एक book fair में अचानक ही रश्मि से मुलाक़ात हो गई और उनसे सीधे शिकायत कर दी कि इतनी pain क्यों दिखाई नायिका के जीवन में ,कैसे कोई इतना दर्द सह सकता है.......खैर, हक़ीक़त यही है कि कई मासूम "अपनों" द्वारा प्रताड़ित होते हैं जब तक वो खुद अपनी ज़िन्दगी की लगाम अपने हाथों में नहीं ले लेते......मुश्किल होता है पर असम्भव नहीं

शुक्रवार, 10 जून 2016

कविता वर्मा द्वारा 'काँच के शामियाने' की समीक्षा

 कविता वर्मा जी एक उत्कृष्ट लेखिका एवं समीक्षक हैं . इस वर्ष उनके कहानी  संग्रह को राजस्थान अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है.
बहुत आभार उनका, इस उपन्यास की समीक्षा के लिए.
कविता जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है ,"यह उपन्यास तीव्रता से इस बात को बल देता है कि भारतीय परिवारों में बच्चों खासकर लड़कों की परवरिश को गंभीरता से देखने सुधारने की जरूरत है तो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ आत्म सम्मान से जीना सिखाने की। "
अगर सबलोग इस तरफ ध्यान दें तो समाज में सुख चैन आ जाए .
आपने किताब पढ़ा और उसपर लिखा भी ...पुनः आभार

उपन्यास काँच के शामियाने (समीक्षा ) 
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रश्मि रविजा का उपन्यास काँच के शामियाने जब मिला थोड़ी व्यस्तता थी तो कुछ गर्मी के अलसाए दिन। कुछ उपन्यास की मोटाई देखकर शुरू करने की हिम्मत नहीं हुई। फेसबुक और व्हाट्स अप के दौर में इतना पढ़ने की आदत जो छूट गई।
दो एक दिन बाद पुस्तक को हाथ में रखे यूं ही उलटते पुलटते पढ़ना शुरू किया। सबसे ज्यादा आकृष्ट किया प्रथम अध्याय के शीर्षक ने 'झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी ' वाह जीवन के परिवर्तन को वर्णित करने का इससे ज्यादा खूबसूरत तरीका क्या हो सकता था / फिर जो पढ़ना शुरू किया तो झील के गर्भ में बहती धार सी कहानी में उतरती चली गई। बस वह कहानी अब कहानी नहीं रह गई थी वह शब्द चित्रों में बदलती किसी रील सी चलती चली जा रही थी। जिसमे सब विलीन हो गया आलस पृष्ठ अध्याय अतन्मयता सब। रह गई तो सिर्फ जया उसकी पीड़ा उसका संघर्ष उसकी जिजीविषा।
एक समय ऐसा भी आया जब मन में आक्रोश पूरे उफान पर था राजीव के लिए नहीं जया के लिए उसकी माँ भाई भाभी बहनों के लिए। रिश्तों के सतहीपन , मजबूरी की आड़ में कायरता जिम्मेदारी से भागने की कोशिश यही तो वास्तविकता है अधिकांश रिश्तों की जिनके लिए जीते मरते उनका मान रखते जिंदगी गुजार दी जाती है। राजीव और उसके परिवार के लिए तो घृणा थी वितृष्णा थी और ढेरों बद्दुआएँ थीं। इनके साथ भारतीय परिवारों का कड़वा बदबूदार सच भी था। पुरुषों की विकृत मानसिकता के पालन पोषण का घृणित दायित्व परिवार वाले ही निभाते हैं फिर भले वह उनके लिए ही मुसीबत बन जाये। धन लोलुपता सोचने समझने की शक्ति छीन लेती है तो ईर्ष्या असुरक्षा सही गलत की पहचान।
स्त्री के लिए सभी रिश्ते काँच के शामियाने ही साबित होते हैं जो उसे जीवन की कड़ी धूप से कतई नहीं बचाते और इस धूप में तप निखर कर वह कुंदन बन जाती है लेकिन कितनी स्त्रियाँ यह बड़ा प्रश्न है।
अलबत्ता जीवन की कड़वी हकीकतों को बारीकी से बुना गया है। हर पात्र अपनी अच्छाई निकृष्टता मजबूरी कायरता कुटिलता के साथ पूरी शिद्दत से अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है और खुद के लिए प्यार घृणा दया आक्रोश उत्पन्न कराने में पूरी तरह सक्षम है। यह उपन्यास तीव्रता से इस बात को बल देता है कि भारतीय परिवारों में बच्चों खासकर लड़कों की परवरिश को गंभीरता से देखने सुधारने की जरूरत है तो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ आत्म सम्मान से जीना सिखाने की।
रश्मि जी ने इस उपन्यास में ढेर सारे प्रश्न खड़े किये है जिसके जवाब समाज को ढूंढना है और ये उपन्यास सोच को समाधान ढूंढने की दिशा में मोड़ने में सक्षम है।
रश्मि जी को इस उपन्यास के लिए बहुत बहुत बधाई आप यूँ ही लिखती रहें समाज को नई सोच के साँचे में ढालने के लिए। आपके यशस्वी लेखन के लिए मेरी शुभकामनाये।

बुधवार, 1 जून 2016

हमारी संवेदनायें बढ़ाती फिल्म ' वेटिंग '

हम सबको एक ही जिंदगी मिली होती है और हम दुनिया के सारे अनुभव नहीं ले सकते .किताबें और फ़िल्में, हमसे बिलकुल अलग परिस्थिति में जी रहे लोगों की ज़िन्दगी की झलक दिखाती हैं और दूसरों के प्रति हमारी संवेदनशीलता बढ़ाती हैं.

फिल्म 'वेटिंग' में अलग उम्र, अलग बैकग्राउंड के दो लोग एक सी अंतहीन प्रतीक्षा में शामिल हैं . दोनों के जीवनसाथी कोमा में हैं .दोनों अपने जीवनसाथी के होश में आने का इंतज़ार कर रहे है, पर उम्र के हिसाब से दोनों का नजरिया अलग है. शिव (नसीरुद्दीन शाह ) चालीस वर्ष साथ रही, अपनी पत्नी को हर हाल में होश में आते देखना चाहते हैं. पत्नी आठ महीने से कोमा में है, पर उन्होंने आस नहीं छोड़ी है. डॉक्टर ऑपरेशन के लिए तैयार नहीं होते, उनके ठीक होने की किसी सम्भावना से इनकार करते हैं पर शिव सैकड़ों मेडिकल जर्नल पढ़ डालते हैं और डॉक्टर से पत्नी के ऑपरेशन के लिए आग्रह करते है.कई उदाहरण देते हैं कि अमुक को इतने वर्षों बाद होश आ गया था .

.करीब पच्चीस वर्षीया तारा (कल्कि) की शादी के कुछ हफ्ते ही हुए थे और पति का एक्सीडेंट हो गया. टेनिस खेलने वाले ,मैराथन में दौड़ने वाले पति के लिए जब डॉक्टर बताते हैं कि ऑपरेशन के बाद हो सकता है वह कभी चल फिर बोल नहीं पाए तो तारा ऑपरेशन के लिए मना कर देती है. पर जब डॉक्टर ऑपरेशन करते हैं तो नास्तिक तारा, जो मंदिर में हाथ नहीं जोडती थी,प्रसाद नहीं लेती थी ,दौड़ते हुए,जाकर मंदिर के सामने खड़ी हो जाती है. खुद से सवाल भी करती है ,"क्या मैराथन में दौड़ते व्यक्ति को व्हीलचेयर पर बैठे देख, प्यार बदल जाना चाहिए .प्यार सच्चा है तो हर हाल में होना चाहिए'. प्यार की खातिर दोनों ने अपने अपने माता-पिता को नाराज़ कर शादी की थी.

फिल्म का कथानक बहुत गंभीर है पर फिल्म कहीं से भी बोझिल नहीं होती. . हॉस्पिटल में शिव और तारा मिलते हैं और बार बार जेनरेशन गैप सामने आ जाता है. आज की पीढ़ी की तारा ,हर वाक्य में F वर्ड बोलती है और शिव असहज हो जाते हैं . उनकी असहजता और तारा के साथ दोस्ती में F वर्ड बोलने की कोशिश दर्शकों को हंसा देती है. फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं ,जब पूरा हॉल हंस पड़ता है. तारा के पति के ऑफिस का एक कर्मचारी जो तारा की सहायता के लिए आता है ,उसके साथ कोई ना कोई रोचक स्थिति आ ही जाती है.
तारा आज की पीढी की तरह जल्दबाज़ है , उस से इंतज़ार नहीं होता वह शिव से पूछती है, ऐसी स्थिति में भी इतने zen (शांत ) कैसे हो ?' और शिव बताते हैं...इतना गहरा दुःख होने पर सबसे पहली स्थिति नकारने की होती है, फिर गुस्सा आता है ,फिर स्वीकार करना और उसके बाद डिप्रेशन .डिप्रेशन सबसे खतरनाक स्थिति होती है, उसमें बह गए तो जिंदगी बर्बाद और उबर गए तो फिर zen कि स्थिति में अ आजाते हैं .
फिल्म में सोशल मीडिया पर भी कटाक्ष है .तारा कहती है ,मेरे दो हज़ार फेसबुक फ्रेंड्स हैं, ट्विटर पर पांच हज़ार फौलोवर्स हैं ,कुछ भी उलटा सीधा लिखती हूँ ढाई सौ लाइक्स आ जाते हैं पर आज इस दुःख की घड़ी में मैं बिलकुल अकेली हूँ . शिव भावहीन चेहरे से पूछते हैं ,'ट्विटर क्या है ' तारा बताती है...'एक तरह का नोटिसबोर्ड है' :)
 
उसके अन्तरंग मित्र भी अपनी अपनी उलझनों में फंसे हुए हैं और नहीं आ पाते .एक सहेली कुछ दिनों बाद आती भी है तो उसका बेटा बीमार पड़ जाता है और उसे वापस जाना पड़ता है. फिल्म में एक इशारा भी है...'सुख के सब साथी हैं...दुःख का ना कोई .'
डॉक्टर्स की मजबूरी भी बयां हुई है कि कैसे अपने आस-पास मरीजों के रिश्तेदारों का दुःख देखते हुए कैसे उसमें शामिल ना हों और निर्लिप्त रहें. डॉक्टर रजत कपूर अपने जूनियर्स को एक तरह से ट्रेन करते हैं हैं कि मरीज के परिजनों को स्थिति कैसे बताई जाए ,उसमें कितना अभिनय हो, कितना सच .
हॉस्पिटल और इंश्योरेंस कम्पनी की सांठगांठ की तरफ भी हल्का सा इशारा है .पैसे वाले मरीज के ऑपरेशन के लिए वे तुरंत तैयार हो जाते हैं जबकि दूसरों को टालते रहते हैं .आम जन की मजबूरी भी बताई है..'अपना घर गिरवी रख दिया ...सारी जमा पूंजी खर्च कर दी...बढती उम्र की वजह से लोन नहीं मिल सकता और आगे महंगा इलाज जारी रखना मुश्किल हो जाता है.

शायद तारा के नई पीढी की होने की वजह से पूरी फिल्म अंग्रेजी में ही है और हिंदी बोलते जैसे बीच बीच में अंग्रेजी का एकाध वाक्य बोला जाता है .वैसे ही बीच में कहीं कहीं हिंदी में डायलॉग हैं . कोची में स्थित होने के कारण मलयालम के भी कुछ शब्द हैं . फिल्म में 'F' वर्ड की भरमार है . हमलोग आश्चर्य कर रहे थे फिल्म को A सर्टिफिकेट क्यूँ दिया गया है. इस से कहीं ज्यादा तो टी वी पर सबकुछ दिखाया जा रहा है. पर हाल के विवाद देखते हुये समझ में आया ... इस 'F ' की वजह से ही फिल्म अडल्ट घोषित की गई है.

एक घंटे चालीस मिनट की फिल्म में कई छोटे छोटे बिन्दुओं को छुआ गया है. अनु मेनन का निर्देशन काबिल ए तारीफ़ है . सिर्फ हॉस्पिटल में शूटिंग कर कुछ पात्रों के सहारे अपनी बातें दर्शकों तक पहुंचाने में सफल हुई हैं. नसीरुद्दीन शाह के अभिनय के तो सभी कायल हैं. कल्कि का अभिनय बहुत बढ़िया है. उनका अभिनय बहुत सहज और विश्वसनीय है. छोटे रोल में सहयोगी कलाकारों ने भी बढ़िया काम किया है.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...