यूं ही स्क्रॉल करते ,ऋताम्भरा कुमार, के स्टेटस पर नजर पड़ी और सुखद आश्चर्य से भर गई .वे आज ही मित्र सूची में
शामिल हुई हैं और उनका कोई मैसेज भी नहीं मिला था .ऐसे सरप्राइज़ अच्छे
लगते हैं :)
ऋताम्भरा जी ने उपन्यास पढ़कर एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है..." बदलाव तभी संभव है जब हम खुद कोशिश करते हैं। किसी भी लड़की की जिन्दगी में सपनों का राजकुमार नहीं आता। राजकुमारी को अपनी जिन्दगी की खुशी खुद ही तलाश करनी होती है।
आपको उपन्यास पसंद आया ,खासकर आंचलिक बोली का समावेश ,,और अपने उसपर लिखा भी . बहुत बहुत शुक्रिया .
ऋताम्भरा जी ने उपन्यास पढ़कर एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है..." बदलाव तभी संभव है जब हम खुद कोशिश करते हैं। किसी भी लड़की की जिन्दगी में सपनों का राजकुमार नहीं आता। राजकुमारी को अपनी जिन्दगी की खुशी खुद ही तलाश करनी होती है।
आपको उपन्यास पसंद आया ,खासकर आंचलिक बोली का समावेश ,,और अपने उसपर लिखा भी . बहुत बहुत शुक्रिया .
(कुछ लोगों ने पूछा है, उपन्यास कैसे मिल सकता है,उनके लिए लिंक नीचे है.)
'काँच के शामियाने '
कई महिनों से "रश्मि रविजा" का उपन्यास "कांच के शामियाने " पढ़ने की सोच रही थी... लेकिन पूजा खरे की समीक्षा पढ़ने के बाद तो समय गंवाये बिना ही मंगवा लिया। हाथ में किताब आने के बाद भी सोचा कि चलो रोज थोड़ा थोड़ा पढूंगी ( समयाभाव के कारण )... लगा एक हफ्ते की व्यवस्था हो गयी ☺
लेकिन जब पढना शुरू की.... समय का पता ही नहीं चला... कई बार कोशिश की, अब रहने देती हूँ कल तक खतम कर लूंगी पर मेरी कोशिश नाकाम रही... समय देखी तो रात के तीन बज रहे थे। सच में यह उपन्यास हर औरत की कहानी है। पूरी न सही, किसी को कम, किसी को ज्यादा पर पढते समय लगता है कि ये सब तो मेरी जिन्दगी में भी हो चुका है। दो दिन तक सोचती रही हूँ कि रश्मि जी ने "जया "से इतना संघर्ष क्यों करवाया। समय बहुत बदल चुका है। लोग समझदार हो रहे हैं। उसके बाद कई दोस्त, परिचित एवं खुद की जिन्दगी को खंगालना शुरू की तो पाया कि समय वहीं का वहीं है। बदलाव तभी संभव है जब हम खुद कोशिश करते हैं। किसी भी लड़की की जिन्दगी में सपनों का राजकुमार नहीं आता। राजकुमारी को अपनी जिन्दगी की खुशी खुद ही तलाश करनी होती है। ये बात अलग है कि कोई औरत जल्दी समझ जाती और कोई देर से। और जो नहीं समझतीं समझौता करके जिन्दगी काट देती हैं।
उपन्यास से लगाव का एक कारण यह भी हो गया है कि मैंने बचपन से लेकर बीस बरस की उम्र तक का समय "हाजीपुर " और उसके आसपास के ही जगहों में ही बिताए हैं। आंचलिक बोली भी एक वजह बनी। जया की ननद का बोलने का लहजा भी किसी भूले बिसरे की याद दिला गया। धन्यवाद पूजा खरे अन्यथा इस उपन्यास को पढ़ने में और देर हो जाती...
निम्न लिंक पर उपन्यास मंगवाया जा सकता है
http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi…/…/9384419192
http://www.infibeam.com/…/kanch-ke-shami…/9789384419196.html
'काँच के शामियाने '
कई महिनों से "रश्मि रविजा" का उपन्यास "कांच के शामियाने " पढ़ने की सोच रही थी... लेकिन पूजा खरे की समीक्षा पढ़ने के बाद तो समय गंवाये बिना ही मंगवा लिया। हाथ में किताब आने के बाद भी सोचा कि चलो रोज थोड़ा थोड़ा पढूंगी ( समयाभाव के कारण )... लगा एक हफ्ते की व्यवस्था हो गयी ☺
लेकिन जब पढना शुरू की.... समय का पता ही नहीं चला... कई बार कोशिश की, अब रहने देती हूँ कल तक खतम कर लूंगी पर मेरी कोशिश नाकाम रही... समय देखी तो रात के तीन बज रहे थे। सच में यह उपन्यास हर औरत की कहानी है। पूरी न सही, किसी को कम, किसी को ज्यादा पर पढते समय लगता है कि ये सब तो मेरी जिन्दगी में भी हो चुका है। दो दिन तक सोचती रही हूँ कि रश्मि जी ने "जया "से इतना संघर्ष क्यों करवाया। समय बहुत बदल चुका है। लोग समझदार हो रहे हैं। उसके बाद कई दोस्त, परिचित एवं खुद की जिन्दगी को खंगालना शुरू की तो पाया कि समय वहीं का वहीं है। बदलाव तभी संभव है जब हम खुद कोशिश करते हैं। किसी भी लड़की की जिन्दगी में सपनों का राजकुमार नहीं आता। राजकुमारी को अपनी जिन्दगी की खुशी खुद ही तलाश करनी होती है। ये बात अलग है कि कोई औरत जल्दी समझ जाती और कोई देर से। और जो नहीं समझतीं समझौता करके जिन्दगी काट देती हैं।
उपन्यास से लगाव का एक कारण यह भी हो गया है कि मैंने बचपन से लेकर बीस बरस की उम्र तक का समय "हाजीपुर " और उसके आसपास के ही जगहों में ही बिताए हैं। आंचलिक बोली भी एक वजह बनी। जया की ननद का बोलने का लहजा भी किसी भूले बिसरे की याद दिला गया। धन्यवाद पूजा खरे अन्यथा इस उपन्यास को पढ़ने में और देर हो जाती...
निम्न लिंक पर उपन्यास मंगवाया जा सकता है
http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi…/…/9384419192
http://www.infibeam.com/…/kanch-ke-shami…/9789384419196.html