सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

एक यादगार नाटक : 'बस इतना सा ख्वाब है'

शेफाली शाह और किरण करमाकर
एक बहुत ही बेहतरीन नाटक देखने  का मौका मिला,"बस इतना सा ख्वाब है". यह प्रशांत दलवी द्वारा लिखित मराठी नाटक 'ध्यानीमणी' का हिंदी अनुवाद है. करीब 15 साल  पहले मराठी में इसका मंचन बहुत मशहूर  हुआ था. इसके करीब 500 शो हुए  थे .पर यह नाटक एक कालजयी रचना  है, किसी भी युग में.....किसी भी काल में अंतर्मन को मथ डालने की  सामर्थ्य रखता है. मशहूर  फिल्म निर्माता विपुल शाह ने इसका हिंदी में मंचन करने का निर्णय लिया और चंद्रकांत कुलकर्णी के निर्देशन में शेफाली शाह (विपुल शाह कि पत्नी)  ने इस नाटक के माध्यम से 10 वर्षों बाद हिंदी नाटको में वापसी की है.   शेफाली शाह  (हसरतें..जैसी सीरियल की मशहूर  टी.वी. कलाकार ) और किरण करमाकर ( घर-घर की कहानी के बड़े बेटे..पार्वती के पति) ने मुख्य भूमिका निभाई हैं.

शालिनी एक मध्यमवर्गीय गृहणी है....ढीली ढाली साड़ी जैसे बस किसी तरह लपेट कर, घर के काम में व्यस्त रहती  है. पर खुशमिजाज है, दफ्तर के लिए तैयार होते पति से लगातार बातें करती रहती है...बेटे के नए यूनिफॉर्म खरीदने  की बातें...शहर से दूर..एक रिसोर्ट में नौकरी करने की शिकायत.....पति के देर रात तक काम  करने की शिकायत....कोई पड़ोसी ना होने की शिकायत...बाप-बेटे के घर गन्दा करने की और दोनों के मितभाषी होने की प्यार भरी शिकायत. पति के बाथरूम में टॉवेल मांगने पर कह देती है...."लगता है पुरुष इसीलिए शादी  करते हैं कि बाथरूम में से टॉवेल मांग सकें."

उसी वक्त पति के एक दूर के  रिश्तेदार का बेटा अपनी पत्नी के साथ उनके घर पर मेहमान  के रूप में आता है. वह लड़का क्लिनिकल साइकोलॉजी में पी.एच.डी कर रहा है. पति तो ऑफिस चला जाता है पर शालिनी उनकी आवभगत करती है. जब पता चलता है कि उसकी पत्नी प्रेग्नेंट है तो उसे सौ हिदायतें देती है. अपना अनुभव भी बांटती है. पूरे समय अपने बेटे मोहित की बातें करती रहती  है कि कैसे उसे  बड़ा करने में कितनी मुश्किल हुई. आठवीं में पढता है पर अपने पिता  के कंधे तक आ गया है. जब वे पतिपत्नी बाहर घूमने जाने लगते हैं तो पूछते हैं...."मोहित को क्या पसंद है..उसके लिए क्या गिफ्ट लायें' तो शालिनी मना करती है...पर बातों बातों में कह देती है,'देखो सारा घर उसके खिलौनों से भरा  है फिर भी टेबल टेनिस के रैकेट लिए जिद करता है.'

दूसरे दृश्य में रात के ग्यारह बज गए हैं...शालिनी दरवाजे पर खड़ी इंतज़ार कर रही है, मोहित अब तक घर नहीं लौटा है. मेहमान भी परेशान से खड़े हैं. पति बाहर से उसे ढूंढ कर लौटते हैं तो बताते हैं...'मोहित के  दोस्त भी  अभी घर नहीं  लौटे हैं.' मेहमान सोने चले जाते हैं. तभी बिजली  गुल हो जाती है और अँधेरे में मोहित के आने की खटपट...शालिनी के डांटने की आवाज़ आती रहती है...."अभी तो आया और अब सुबह कराटे कैम्प जाना है...तू घर आता ही क्यूँ है"
यह सुन कर सोने के लिए गए मेहमान दंपत्ति सोचते हैं...मोहित को उसकी टेबल टेनिस  की रैकेट अभी ही दे दें कहीं वह उनके जागने से पहले ही ना चला जाए. जब वे दरवाज़ा खोल बाहर आते हैं तो देखते हैं..'वहाँ कोई मोहित नहीं है....शालिनी एक खाली कुर्सी को डांट रही है'

और सारे दर्शक  सहम से जाते हैं. शालिनी संतानविहीन है पर वह एक कल्पना की दुनिया बसा लेती है जिसमे
उसका बेटा बड़ा हो रहा है. सुबह भी वह वैसे ही मेहमान दंपत्ति से शिकायत  करती है कि 'मोहित रात को आया और सुबह चला गया.' प्रवीण को अपने डॉक्टर होने का दायित्व महसूस होता  है और वह शालिनी को  इस सत्य से अवगत कराने की  कोशिश  करता है, कि 'मोहित का कोई अस्तित्व ही नहीं है' इसपर शालिनी रौद्र रूप धारण कर लेती है और कहती हैं.."खबरदार जो  ऐसा कहा...तुम बताओ,तुम्हारा क्या  अस्तित्व है??...इसलिए कि मैं कह रही हूँ कि तुम प्रवीण हो?...तुम्हारी पत्नी कहती है..तुम्हारी माँ कहती है...ये तुम्हारे कपड़े हैं...ये तुम्हारी चीज़ें हैं...इसीलिए तुम्हारी पहचान है ना?...वैसे ही  मैं कहती हूँ कि मोहित है...ये उसके खिलौने हैं...ये उसके कपड़े हैं ...तो उसका अस्तित्व  है". बहुत ही गूढ़ बात कहलवा दी यहाँ लेखक ने शालिनी के मुख से....हमारा अस्तित्व किसी  की पहचान के बिना क्या है. शालिनी कहती है ,'घर में बच्चे होने का यही मतलब है ना...कि घर warmly disorganized रहता है...तो देखो मेरा घर भी  बिखरा हुआ है. यह भी warmly disorganized है.'

शालिनी के पति प्रवीण  को बताते हैं कि 'शालिनी का 'बस इतना सा ख्वाब पूरा नहीं हो सका कि वह अपने बच्चे की माँ बन सके. और इस वजह से पड़ोसी अपने बच्चों को हमारे घर नहीं भेजते थे कि कहीं उन्हें नज़र ना लग जाए. हमें बच्चे के जन्मोत्सव में नहीं बुलाते और शालिनी ने अपनी कल्पना की दुनिया बसा ली. अगर तुम उसे सत्य से अवगत कराना भी चाहते हो...उसकी आँखे खोलना भी चाहते हो तो खोल कर दिखाओगे क्या.??...यही कटाक्ष?...यही ताने? इस से अच्छा तो यह है कि वह इसी दुनिया में रहे और यही सोच, मैं भी उसका साथ देने लगा. यह समस्या मनोवैज्ञानिक से ज्यादा सामाजिक है"

दोनों पति-पत्नी ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे बेटा उनके घर में ही हो..
घर में साइकिल रखी  है, टेबल पर कंप्यूटर है....टेबल लैम्प जलता रहता है...छोटा सा टेबल फैन चलता रहता जैसे कोई बच्चा पढ़ रहा हो. बीच की  कुर्सी को इंगित कर वे आपस में बहस करते हैं कि  वह बड़ा होकर क्या बनेगा?...इस माध्यम से समाज के हर वर्ग पर गहरा कटाक्ष भी किया है..आखिर में शालिनी कहती है.. "तुम बस एक अच्छे भारतीय नागरिक बनना "
उसके पति जबाब देते  हैं,"हाँ, वहाँ काफी वेकेंसीज़ हैं..."

पति का प्रमोशन हो गया है...वह मिठाई और नई साड़ी लेकर घर आता है..बहुत खुश है कि अब काम का बोझ कम हो गया...अब अपनी पत्नी को ज्यादा समय दे पायेगा. वह पत्नी के नज़दीक जाना चाहता है तो वह मोहित की तरफ इशारा करती  है...आखिर पति साइकिल बाहर रख देता है और कहता है...'मोहित बाज़ार से कुछ सामान लेकर आओ' .फिर से नज़दीक जाना चाहता है तो शालिनी पति को ही 'मोहित समझकर संबोधित कर कहती है कि....'इतने बड़े हो गए हो..अब भी डर लगता  है..अपने कमरे में जाओ' .दरअसल शालिनी के मन में ये बात गहरे पैठ गयी है कि जब वह संतान को जन्म नहीं दे सकती तो पति के साथ की क्या जरूरत.

अब पति को लगता है...शालिनी से  मोहित को  दूर करने की जरूरत है. पहले, पति यह  बहाना बनाता है कि मोहित गलत संगत में पड़ गया है,ठीक से नहीं पढता उसे बोर्डिंग  भेज देना चाहिए .इस पर शालिनी उसके मेज के करीब सारा समय एक स्टूल लेकर बैठी  रहती है कि मैं इस पर नज़र रखूंगी. आखिरकार एक दिन पति गुस्से में दरवाज़ा बंद कर मोहित को मारने-पीटने  का अभिनय करता है और फिर कैंची से उसका खून कर देता है. खिड़की से सब देखती,शालिनी चिल्लाती रहती है. और बाद में कमरे में इस तरह रोती है कि शायद ही ऑडीटोरियम  में कोई आँख नम ना हुई हो.

इसके बाद पति को ही अपराध बोघ होने लगता है...उसे सब जगह खून बिखरा नज़र आता है...उसे जमीन पोंछते देख..शालिनी  उठकर आती है.और जब वह कहता है,"मैने मोहित का खून कर दिया..अब तुम कैसे रहोगी..तुम इतनी अकेली हो गयी" तो शालिनी कहती है..'अकेली कहाँ...आप हैं ना मेरे साथ "...नाटक का अंत थोड़ा अचानक (abrupt) सा लगता है...हो सकता है ...नाटककार को जो कुछ कहना था,वह कह चुका था...उसे नाटक को अब और नहीं खींचना  था या फिर शायद इस तरह का  शॉक लगने  के बाद ऐसे मरीज़ ठीक भी हो जाते हों.

शेफाली शाह और किरण करमाकर का अभिनय इतना जानदार है कि देखते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं. शेफाली शाह ने दो घंटे तक 'शालिनी' के  कैरेक्टर में रहकर , इस रोल को इतना आत्मसात कर लिया था कि नाटक ख़त्म होने के बाद दर्शकों का अभिवादन करते हुए भी मुस्कराहट नहीं आ पायी उनके चेहरे पर.
 

शेफाली शाह और विपुल शाह
ऑडीटोरियम से निकलते हुए दर्शक अपने में गुम...कुछ ग़मगीन से थे. शायद सबके दिमाग में चल रहा था कि  हमें हर चीज़ फॉर ग्रांटेड लेने की आदत है. बच्चों की शैतानी...उनकी शरारतों  से हम तंग आ जाते हैं....वहीँ ऐसे भी लोग हैं, जो उनकी एक शरारत की बाट जोह रहे होते हैं. शेफाली शाह ने  भी एक इंटरव्यू में कहा कि 'इस नाटक में अभिनय के बाद वे अपने बच्चों की अहमियत  समझने लगी हैं.'
 
 यह  नाटक बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर गया. यह विषय कुछ ऐसा है कि  इस पर संतानहीन  दंपत्ति और उनके करीबी लोग, दोनों ही आपस में खुलकर बात नहीं कर पाते. एक निश्चित फासले से अंदाज़ने की कोशिश की जाती है. पर मन में क्या चल  रहा है...कोई नहीं समझ पाता. लोग दया का पात्र ना समझ लें,यह सोच निस्संतान दंपत्ति अपना दुख नहीं बाँट पाते....और कहीं उन्हें कुछ बुरा ना लग जाए,यह सोच , बाकी लोग भी चुप रहते हैं.  लोग ,बड़ी आसानी से कह देते हैं , निस्संतान दंपत्ति कोई बच्चा गोद क्यूँ नहीं ले लेते. लेकिन उनके मन की क्या स्थितियाँ हैं. वे अपने मन को कितना तैयार कर पाते हैं ,किसी दूसरे का बच्चा गोद लेने  के लिए यह सब दूसरे नहीं समझ पायेंगे. बच्चा  गोद लेना या  न लेना यह उनका नितांत व्यक्तिगत निर्णय है   और उसका सम्मान किया जाना चाहिए.

45 टिप्‍पणियां:

  1. नाटक की कहानी बहुत मार्मिक है । बहुत अच्छे तरीके से पेश किया गया है ।

    लेकिन संतान विहीन मां को इस तरह ख्वाबों की दुनिया में रखना सही नहीं लगा । हकीकत का सामना करने से ही हल निकलता है ।

    बेशक नाटक दर्शकों के मन को छू जायेगा ।

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  2. इसे देखते हुए कैसा महसूस हुआ होगा ये सोच रहा हूँ.

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  3. बहुत ही मार्मिक विषय है। संतानविहीन मां की मन:स्थित, इस तरह के परिवारों की मनस्थिति आदि को लेकर बहुत गूढ़ तरीके से कहा गया है। उसी तरह आपने भी बढ़िया तरीके से नाटक के बारे में लिखा है।

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  4. सिद्ध कलाकार अपनी प्रत्येक रचना में प्रस्तुति के नये क्षितिज, नई दिशा की तलाश करता है। ‘"एक यादगार नाटक : 'बस इतना सा ख्वाब है'"’ में आपने नाटक की कला को कहानी कला के रूप में सार्थक प्रयोग किया है।
    एक कहानीकार की समीक्षा / प्रस्तुति किसी रोचक कहानी से कम नहीं है।
    इस समीक्षा में कहानी और पात्रों की पीड़ा बोलती है और चीख कर युग-सत्य का इजहार करती है।

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  5. ऐसा लगा जैसे नाटक का मंचन होते देख रहा हूँ.. सारे के सारे लोग जो इस नातक से जुड़े हैं, माहिर हैं अपने फन के... इसलिये अवश्य ही एक दर्शनीय नाटक रहा होगा! धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिये!!

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  6. हालांकि मैं शेफाली शाह और किरण करमाकर को नहीं जानता हूँ... इनफैक्ट मैं टी.वी. ही नहीं देखता हूँ... और जो मर्द टी.वी. सिरियल्ज़ देखते हैं ... उन्हें देख कर मुझे बहुत दया आती है.... बड़े ही डाउट फुल कैरेक्टर लगते हैं... ही ही ही ...

    वैसे आपका यह रिविऊ पढ़ कर मुझे ऐसा लगा कि अब आपको ... फिल्म एनालिस्ट बन जाना चाहिए... आपका रिविऊ करने का तरीका बहुत ही यूनिक है... ऑन द पैराडाइम... एकदम ऐसा लग रहा था पढ़ते वक़्त.. जैसे सब कुछ आँखों के सामने ही चल रहा हो...

    वेल डन एंड सैगाशियसली रिटन...

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  7. आप कह रही थी की आप कोई प्ले देखने जाने वाली हैं...यही है न वो प्ले...

    दीदी कसम से, मैं भी यही सोच रहा हूँ की देखते हुए कैसा महसूस हुआ होगा...

    वैसे, आपको एक बात बताऊँ...एक ऐसे व्यक्ति को मैं जानता हूँ, जिसने एक इंसान के होने का भ्रम पाल रखा है....मेरे ही उम्र का है वो...दोस्त तो नहीं कह सकता, लेकिन हाँ जान पहचान है...
    उसकी दोस्त, जिसका बहुत पहले ही एक्सीडेंट हो गया था, वो भी एक कल्पना की दुनिया बसाये हुए है की वो उसकी दोस्त उसके साथ है...

    आपको यकीन नहीं आएगा, लेकिन ये सच है....मैंने खुद उसे उस लड़की के बारे में बात करते हुए सुना है..

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  8. @अभी
    तुम्हारा कमेन्ट पढ़ते हुए...goose bumps आ गए. ये कहानी-नाटक..सब हमारे बीच से ही तो आते हैं...किसी ना किसी का सच तो होता ही है ये.

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  9. इतना अच्छा लिखा है आपने कि लगा नाटक ही देख रहा हूँ। नाटक की कहानी ऐसी है कि आज पढ़ने के बाद जीवन भर याद रहेगी।
    ...बहुत बधाई।

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  10. बहुत ही सशक्त नाटक है. सारे पात्र अपने बीच के से ही लगते हैं. आपने बहुत ही प्रभावी तरीके से इसे अभिव्यक्त किया है. देखने का मौका तो पता नही कब नसीब हो पायेगा, पर आपने पूरी तस्वीर शब्दों में खींच दी, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम

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  11. मै डॉ टी एस दराल जी की टिपण्णी से सहमत हुं, अगर वो अपने पति का ही कत्ल कर देती गुस्से मे? या खुद का हो ही कुछ कर लेती? इस लिये शुरु से ही इस का हल निकालना चाहिये, धन्यवाद

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  12. आपने इतने बढ़िया तरीके से समीक्षा की है कि नाटक का सारा चित्र उबर आया,और आँख बरबस नम हो गयी.
    सलाम.

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  13. नाटक के कथानक को बहुत सुंदर तरीके से धाराप्रवाहरूप में प्रस्तुत किया आपने .समस्त भाव ऐसे लग रहे थे मानो दर्शकों के मुख पर आ जा रहें हों और आप उनका भी अवलोकन कर रहीं हो.
    शानदार प्रस्तुति के लिए आभार .
    मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा ' पर आपका स्वागत है.

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  14. मनोवैज्ञानिक नाटक प्रतीत होता है। जिन्‍होंने अभिनय किया,उनमें भी एकाग्रता की जरूरत रही होगी। उतनी ही एकाग्रता देखने वालों में भी चाहिए। आपके आलेख से लगता है कि आप इस कसौटी पर खरी उतरीं।
    *
    नाटककार केवल‍ निसंतान दम्‍पतियों की बात नहीं कर रहा है। वह उन लोगों की बात भी कर रहा है जो सपने पालकर जीते हैं,और उम्र भर जीते हैं,सपने पूरे नहीं होते,लेकिन सपने होते तो हैं।
    *
    आपने नाटक की दो तस्‍वीर दी हैं। दूसरी तस्‍वीर देखकर शेफाली के अभिनय की गहराई पता चलती है। उनके चेहरे पर गहरे भाव हैं।
    *
    ब्‍लागों पर बासी पड़ चुके विषयों के बीच आपकी यह पोस्‍ट ठंडी हवा का झोंका है। आप लगातार नए विषय चुन रही हैं।
    *
    बधाई और शुभकामनाएं।

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  15. रश्मि जी हमारी भी आँखे नम हो गईं... बच्चों के ना होने का एहसास केवल वही समझ सकता है जो इस दौर से गुजरा हो.. आपका वृत्तांत बहुत जीवंत है.. हर दृश्य स्पष्ठ्ता से व्यक्त हुआ है... मानो नाटक सामने मंचित हो रहा हो..

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  16. जब पढ़ते हुए ऐसी हालत हो रही है तो आपको प्ले देखना कितना जबरदस्त अनुभव रहा होगा

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  17. शेफाली जी के अभिनय का मैं तब से प्रशंसक हूँ जब उन्हें शेफाली छाया या उससे भी पहले जब शेट्टी के उपनाम से जाना जाता था याने रंगीला फिल्म या उससे पहले के कुछ बेहतरीन धारावाहिकों के समय से.. उनको स्टेज पर अभिनय करते देखना किसी सपने के पूरा होते देखने से कम नहीं.. बढ़िया पोस्ट..

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  18. रश्मि जी हमारी भी आँखे नम हो गईं आपका वृत्तांत बहुत जीवंत है..बढ़िया तरीके से समीक्षा की है

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  19. शैफाली की अभिनय क्षमता का हमेशा कायल रहा हूँ....अच्छा रहा इस मंचन के बारे में जानना!

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  20. बहुत खुबसूरत अंदाज़ जैसे वास्तविकता आँखों के सामने ही घटित हो रहा हो |
    बहुत सुन्दर अंदाज़ |

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  21. लिखा तो आप ने भी वाकई अच्छा है चुकी दोनों कलाकारों को जानती हूँ इसलिए लगा की जैसे वो ही मेरे सामने अभिनय कर रहे है | हा ये सच है की बहुत से लोग ऐसे है जो बच्चे तो चाहते है किन्तु वो गोद नहीं लेना चाहते है मै खुद निजी रूप से ऐसे लोग को जानती हूँ उन्होंने एक गरीब बच्चे को गोद तो लिया किन्तु ज्यादा समय तक वो दोनों उसे संभल नहीं पाए क्योकि उन्हें उससे प्यार ही नहीं हुआ उसे अपना बच्चा समझ ही नहीं पाये | जबकि एक दुसरे दंपत्ति को भी देखा है की उन्हें बच्चे नहीं थे वो चाहते थे की उन्हें बच्चे हो किन्तु उन्हें कभी भी बच्चो से ज्यादा लगाव भी नहीं था बल्कि रिश्ते के दुसरे बच्चो को भी वो पसंद नहीं करते थे | सभी की अपनी अपनी सोच होती है |

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  22. हमारा अस्तित्व किसी की पहचान के बिना क्या है।

    सही तो है।
    पढ़ते पढ़ते ही आंखें नम हो गईं।

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  23. मनोवैज्ञानिक समस्या पर संवेदनशील पात्रों का अभिनय और उसपर तुम्हारा वर्णन ...जैसे हम खुद ही देख आये पूरा प्ले और उन अनुभूतियों को जीते रहे ...समस्या का हल देर से करने की कोशिश की गयी , मगर यही तो कहानी थी ...

    बच्चा गोद लिया जाए या नहीं , ये व्यक्तिगत निर्णय ही होना चाहिए ..जिस तरह इन दम्पत्तियों के साथ सहानुभूति/उपेक्षा प्रकट की जाती है , सामाजिक समस्या ही ज्यादा लगती है !

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  24. jab padhna shuru kiya ek achchi si kahani lagi...anat tak pahuchte pahuchte andar tak hil gyi...gajab ka natak aur gajab ki aapki lekhni...

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  25. बहुत ही मार्मिक कहानी है प्ले की रश्मि जी ! नि:संतान दंपत्ति की कल्पनालोक में जीने की मानसिकता के माध्यम से नाटककार ने ऐसे दम्पत्तियों के प्रति समाज में लोगों की नकारात्मक सोच पर करारा वार किया है ! आपने इतना बढ़िया रिव्यू लिखा है कि बिना देखे ही पूरा नाटक देख लेने का आभास हो रहा है ! जीवन के प्रति शालिनी और उसके पति का इस तरह मिथ्यालोक में रहने का दृष्टिकोण निश्चित रूप से विमर्श का विषय हो सकता है ! यह सोच एक व्यक्ति विशेष की हो सकती है जिसको वे अपने अभिनय के द्वारा जी रहे थे और किसी भी नाटककार को अपनी कृति के लिये कथावस्तु और तदनुरूप चरित्र चुनने का अधिकार होता है ! ऐसे व्यक्ति भी कथा के पात्र हो सकते हैं ! सुन्दर समीक्षा और समालोचना के लिये बधाई !

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  26. निश्‍चय ही प्रभावशाली प्रस्‍तुति होगी.

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  27. kafi jabardast kahani aur uske kirdaar aur uske bich aapke drishtikon ... ek sashakt charitra ko ubhaara.
    khwaab mein jeena galat ya sahi hai , ise hum nirdharit nahi ker sakte

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  28. शेफ़ाली जी सशक्त अभिनेत्री हैं. मंच पर उनका अभिनय कौशल देखना निश्चित रूप से बहुत सुखद अनुभव रहा होगा. शानदार समीक्षा के लिये बधाई.

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  29. bahut umda sameeksha kee hai ap ne ,
    naatak ki kahani itni sashakt aur marmik hai ki barbas hi ankhen bhar aain

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  30. मराठी रंगमंच बहुत समृद्ध है । हम लोग बचपन से इस तरह के नाटक मराठी में देखते आये हैं । यह खुशी की बात है कि मराठी के बेहतरीन नाटकों को अब हिन्दी में प्रस्तुत किया जा रहा है ।

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  31. रश्मि जी आपने तो हिला कर रख दिया इस नाटक से ....
    पर आपने इसे जिस खूबी से लिखा है काबिलेतारीफ है ....
    आपने कहानी को शब्दों में जीवत कर दिया ....

    हाँ अंत जरा अव्यवहारिक लगा ...
    जहां वह मोहित से इतना अधिक प्रेम करती थी तो उसकी हत्या कैसे बर्दास्त कर पायेगी....
    एक माँ के नज़रिए से तो ये अंत उचित नहीं लगा ....
    समझाने का कोई और तरीका भी हो सकता था ....पर हत्या ......???

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  32. रंगमंच पर इतनी सुंदर जानकारी देने के लिए धन्यवाद

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  33. रश्मि यही तुम्हारी खासियत है कि इस तरह प्रस्तुत करती हो कि लगता है सामने ही घटित हो रहा है ………………इस समस्या को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है वो सोचने को मजबूर करता है और साथ ही उन लोगो की मन: स्थिति का दर्शन कराता है।

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  34. बेहतरीन समीक्षा। पढ़कर लगा सामने बैठकर देख रहे हों । मार्मिक चित्रण ।

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  35. अभी कुछ ही दिन पहले घुघूती जी की एक पोस्ट पढ़ी बच्चे गोद लेने वाले बहिरागतों पर ! नाटक के संतान विहीन दंपत्ति ने इस आसान विकल्प को स्वीकारने और सहज जीवन जीने के मार्ग को क्यों नहीं चुना और फिर घर में एक क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट का ही आगमन क्यों हुआ ? ये दो ऐसी बातें हैं जो नाटककार प्रशांत दलवी के सुनियोजित मंतव्य / उद्देश्यपरकता की ओर ध्यान खींचती हैं !

    निश्चय ही नाटककार इस समस्या के मनो-जागतिक पक्ष को उभारना चाहते होंगे जहां हमें सहज उपलब्ध 'दूसरे विकल्प' के बजाये केवल 'अपने ही नैसर्गिक' की आकांक्षा होती है फिर भले ही वह आभासी ही क्यों ना हो ?

    यह भी सत्य है कि हम अपने लिए यथार्थ अथवा आभास के जीवन को स्वयं ही चुनते हैं ! ... तद्जनित समस्यायें झेलते हैं और उनके निदान भी खोजते हैं ! मेरे लिए यह नाटक उन लोगों से वास्ता रखता है जिन्होंने आभासी जीवन चुना किन्तु सावधान उन्हें भी करता है जो यथार्थ में जीते हैं ! तो दलवी साहब को उनके संबोधन की सफलता पर पूरे अंक !

    करमाकर और शेफाली के अभिनय को सीरियल्स में ही देखा है वे दोनों भावप्रवण अभिनेता / अभिनेत्री बतौर स्वीकार्य हैं मुझे ! समझ सकता हूं कि उन्होंने नाटक में जान डाल दी होगी ! बहरहाल ...

    सखियों सहित / दलबल सहित फिल्मों को देखने के आपके शौक में यह किंचित बदलाव बासन्ती बयार सा लगा :)

    आपके रिव्यू की तारीफ़ पहले ही इतनी ज्यादा हो चुकी है कि अब हम बहुत अच्छा कहें तो क्या पता आपको अच्छा भी लगेगा कि नहीं :)

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  36. शोभना चौरे जी की मेल से प्राप्त टिप्पणी....वे किसी कारणवश अपनी टिप्पणी पोस्ट नहीं कर पा रही हैं.


    साहित्य समाज का दर्पण होता है हम बचपन से पढ़ते आये है इस नाटक की कथावस्तु को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत कर अपने यह वाक्य सिध्ह कर दिया|



    निसंतान दम्पति की वेदना और उनके साथ रहने वाले की
    मानसिक अवस्था और इसी अवस्था के रहते उनका दैनिक आचरण कितना बनावटी और सतही हो जाता है की संवाद प्रायः बंद ही हो जाते है |
    बहुत सुन्दर विश्लेषण |

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  37. @अली जी,

    सखियों सहित / दलबल सहित फिल्मों को देखने के आपके शौक में यह किंचित बदलाव बासन्ती बयार सा लगा

    मैने सिर्फ नाटक के बारे में लिखा....देखने का सुअवसर मिलने की भूमिका नहीं लिखी....पर आपने यह कहकर उगलवा ही लिया ये सब.:)

    नाटक देखने का शौक हमें शायद फिल्मो से ज्यादा है...पर हमारे इलाके में हिंदी नाटकों का मंचन नहीं होता....पृथ्वी थियेटर, भाई दास हॉल..नेहरु सेंटर...सब हम लोगो के घर से काफी दूर है. और नाटको का मंचन हमेशा रात में ही होता है . हमारे यहाँ के थियेटर में गुजराती और मराठी नाटकों का मंचन नियमित रूप से होता है. और हम हर बार थियेटर के सामने से गुजरते हुए हसरत से पोस्टर पर एक नज़र जरूर डाल लेते हैं शायद हिंदी/अंग्रेजी में कुछ दिख जाए. अखबारों में भी नाटकों का विज्ञापनों वाला पन्ना ध्यान से देखा जाता. ब्लॉग जगत में आने के बाद मेरा वो पन्ना देखना तो कम हो गया..पर मेरी सहेली शर्मीला...हर बार चेक करती ...और जैसे ही हमारे एरिया में इस नाटक के मंचन की खबर पढ़ी...उसने सबको फोन खटका डाला. लेकिन पहले से तय पारिवारिक कार्यक्रमों की वजह से कई सहेलियाँ नहीं आ पायीं...सिर्फ हम तीन ही मैनेज कर पाए...हमारे पतिदेवों ने भी बस इसलिए एतराज नहीं किया कि अगर जरा सी आनाकानी की तो उन्हें साथ जाना पड़ेगा :)...ये सुनहरा मौका हम छोड़नेवाले नहीं थे. यह नाटक भी रात 9 बजे शुरू हुआ और 11.40 पर ख़त्म.

    हमलोग टिकट विंडो पर भी खूब सुना आए कि 'हिंदी नाटक का शो क्यूँ नहीं करते??' .शायद इस शो के हाउसफुल होने पर वे और 'शोज़' करने के लिए प्रेरित हों, और हमें और नाटक देखने का मौका मिले..पर आपको पता ही है...मैं बस उन्ही फिल्मो/नाटको के बारे में लिखती हूँ..जो मुझे अपील करती हैं :)

    मेरी सहेली, राजी का फेसबुक पर इस पोस्ट के लिंक पर किया कमेन्ट उसके नाटक देखने की उत्कंठा बयाँ करता है .

    Raji Menon K -- I missed it. I missed it......I would have sooooo loved to see the play. after reading the post i feel even more awful for having missed it. next time, folks

    {शुक्रिया उसके कमेंट्स यहाँ पोस्ट करने का बहाना देने के लिए:)}

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  38. सुन्दर जानकारी के साथ साथ मार्मिक विष्य पर पढ कर मन द्र्वित हो गया। सच मे कुछ दुख कितने गहरे होते हैं जिन्हें हम पूरी तरह किसी से बाँट भी नही सकते। शुभकामनायें।

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  39. इतना पढ़ ही आँखें बह चलीं, सीधे देखती तो क्या हाल होता पता नहीं...

    आपने जिस ढंग से विवेचना की है...हैड्स ऑफ़ यु....
    थैंक्स अ लोट .....थैंक्स ....

    देखें हमें कभी यह नाटक देखने का अवसर मिलता है या नहीं...
    यूँ नाटक का यह सत्य किसी के जीवन का सत्य न हो...यह प्रार्थना है ईश्वर से...

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  40. मुम्बई के रंगमच से लगाव से ऐसी भावपूर्ण प्रस्तुतियां देखने का सौभाग्य मुम्बई पाते हैं -आपने पूरे दृश्यों को साक्षात कर दिया ...तौलिया लाने की बात तो यूफेमिजम(euphemism ) है ..दरअसल बात चड्ढी-बनियान की ही है जैसा मनीषा पांडे ने ब्लागजगत में पहली बार उद्घोषित किया था :)

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