रविवार, 25 अगस्त 2019

फिल्म मिशन मंगल ; एक समीक्षा


मंगल मिशन ' फिल्म पर ज्यादातर नकारात्मक  प्रक्रियाएं मिलीं. कुछ ने तो कहा कि फ्री में टोरेंट पर बढ़िया प्रिंट मिले तब भी न देखो.  पर मैं तो कभी किसी की सुनती नहीं, इसलिए थियेटर में देखने चली गई. पर फिल्म देखने के बाद आभास हो गया कि वे लोग ऐसा क्यूँ कह रहे थे. जिन्हें विषय पर केन्द्रित, तकनीकी रूप से उन्नत, अंग्रेजी फ़िल्में देखने की आदत होगी, उन्हें यह फिल्म बहुत निराश करेगी बल्कि एक मजाक ही लगेगी. लेकिन आमजन जो ज्यादातर मनोरंजन के लिए फ़िल्में देखते हैं, उनके लिए यह एक जरूरी फिल्म है. फिल्म को मनोरंजक बनाते हुए जरूरी जानकारी भी देने की कोशिश की गई है. ये अलग बात है कि फिल्म में बॉलीवुड मसाला डालने के चक्कर में सब घालमेल हो गया है और इसी वजह से सिनेमा के गम्भीर दर्शक चिढ गए हैं. लेकिन फिर भी लोगों तक सरल भाषा में ‘मंगल ग्रह अभियान’ की मोटी मोटी बातें पहुँचाने की कोशिश की गई है.

मंगलयान की सफलता पर हमसबने उस मिशन में शामिल महिलाओं की तस्वीरें लगाई थीं और गौरवान्वित भी हुए थे .यह पूरी फिल्म मंगल मिशन को सफल बनाने के उनके संघर्ष,लगन, जुनून के इर्द गिर्द बुनी गई है. 2010 में जब राकेश धवन( अक्षय कुमार) के नेतृत्व में ISRO की एक टीम रॉकेट लौंच करने में असफल हो जाती हैं तो उन्हें सजा के तौर पर मंगल अभियान की तैयारी के लिए भेज दिया जाता है. जिसके लिए न कोई स्पष्ट योजना है, ना बजट और ना ही अनुभवी वैज्ञानिकों की टीम उन्हें मिलती है. वैज्ञानिक तारा (विद्या बालन ) जो उस असफलता के लिए खुद को दोषी मानती हैं, राकेश धवन का पूरा साथ देती हैं. उनकी टीम में चार और महिलाएं और दो पुरुष शामिल होते हैं . सब मिलकर रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से प्रेरणा लेकर अभियान को सफल बनाने में जुट जाते हैं. पैसे की अतिशय कमी की वजह से खर्च कम करने के लिए कई तरह के जुगाड़ लगाए जाते हैं.(जिसमें भारतीय माहिर हैं 😊 ) राकेश धवन बजट की बात पर १९६३ में पहले रॉकेट प्रक्षेपण का उदाहरण देते हैं, तब भी पैसे इतने कम थे कि रॉकेट के अलग अलग पार्ट, साइकिल और बैलगाड़ी पर ढो कर ले जाए गए थे . काम करने का जुनून हो तो रास्ते खुद ब खुद निकलते चले आते हैं. कई अडचनों को पार करते हुए एक हॉलीवुड फिल्म की बजट से भी कम बजट में भारत, मंगल ग्रह के ऑर्बिट में प्रथम प्रयास में ही सफलतापूर्वक सेटेलाइट भेजने वाला,पहला देश बन जाता है. ये सारी तकनीकी बातें भी बहुत सरलता से दर्शकों तक पहुंच जाती हैं.

फिल्म ‘मंगल अभियान पर केन्द्रित है पर निर्माता-निर्देशक की रूचि फिल्म में इस अभियान से इतर वैज्ञानिकों की निजी जिंदगी दिखाने की है जो पूरी तरह उनकी कल्पना पर आधारित है. दर्शकों को बांधे रखने के लिए कोई मसाला छोड़ा नहीं गया, सास-बहू की नोंक-झोंक, घर-बाहर एक साथ सम्भालती सुपर वूमन, तलाक के बाद अकेली मुस्लिम लडकी को घर मिलने की परेशानी, एक आज़ाद-ख्याल लडकी का सिगरेट फूंकना और बॉयफ्रेंड बदलना, एक कुंवारे चम्पू लडके का बाबाओं के चक्कर लगाना, विदेश में बसे बेटे द्वारा बूढ़े माँ-बाप की उपेक्षा, एक आर्मी ऑफिसर का घायल होना, सब शामिल है. देशभक्ति का तड़का भी भरपूर है.  पर पता नहीं एकाध जगह फूहड़ हास्य भी शामिल करने की क्या मजबूरी थी.

इन सबके बावजूद यह फिल्म देखी जानी चाहिए. जिन लोगों ने विस्तार से मंगलयान के अभियान के विषय में नहीं पढ़ा, शायद उनकी रूचि जागेगी . फिल्म में दी गई थोड़ी सी जानकारी से उनका मन नहीं भरेगा वे सब कुछ जानना चाहेंगे. क्या पता कोई बच्चा वैज्ञानिक बनने का सपना भी देखने लगे और पढाई में मन लगाए ( हो सकता है ये उम्मीद कुछ ज्यादा लगे पर उम्मीद ही तो है ) .
फिल्म में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विद्या बालन की है जो उन्होंने बखूबी निभाई है. अक्षय कुमार 
कभी कभी कुछ ज्यादा ही ड्रामेटिक लगते हैं. शरमन जोशी, थ्री इडियट्स के बाद से ही चम्पू लडके के रोल में टाइप्ड हो गए हैं पर अभिनय सहज ही था . सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया.
गीत-संगीत की गुंजाइश इस फिल्म में नहीं थी फिर भी डिस्को का एक लचर सा निरर्थक  दृश्य रचा अगया है. छायांकन बहुत सुंदर है.

मंगल अभियान की सफलता का सारा श्रेय इसरो के वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम को है. पर फिल्म तो चैरिटी या शौक के लिए नहीं बनाई गई है. वैज्ञानिकों के संघर्ष पर फिल्म बनाकर पैसे कमाने हैं, शायद कर मुक्त करवाने की लालसा में अंत में मोदी जी का भाषण भी शामिल किया गया है. या फिर पार्टी विशेष के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखानी हो पर इस फिल्म में बहुत असम्बद्ध सा लगता है.

फिल्म सुपर थर्टी : अदम्य जीवट,साहस,लगन की कहानी

बच्चों की गर्मी छुट्टियों में पटना जाती थी, उन्हीं दिनों IIT का रिजल्ट आता था. फ्रंट पेज पर सुपर थर्टी के बच्चों का रिजल्ट होता और सब की जुबान पर इसी की चर्चा होती थी. मुझे भी डिटेल जानने की इच्छा हुई. कुछ डॉक्यूमेंट्रीज़ देखे .एक दृश्य, हमेशा के लिए आँखों के समक्ष ठहर गया, साधारण से कपड़ों में दो बच्चे एक मोटी सी किताब खोले, उसमें से गणित के सवाल बना रहे हैं. उनके बीच एक कटोरी में भुने चने रखे हैं, बीच बीच में दो-चार दाने मुंह में डाल लेते हैं. अपने बच्चों के पीछे उनकी पसंद की चीज़ें लेकर मनुहार करती, घूमती माँ के लिए ये देखना बहुत कष्टकर था. मैंने ब्लॉग पर भी विस्तार से एक पोस्ट लिखी थी. कुछ लोगों ने मुझे कुछ लिंक मेल किये कि “ये खबरें पढ़िए , सुपर थर्टी के बारे में सबकुछ सच नहीं है. उसके संचालक आनन्द कुमार एक और कोचिंग इंस्टिट्यूट चलाते हैं और उसके पैसे से सुपर थर्टी के बच्चों को पढाते हैं.अपनी दूसरी कोचिंग क्लास के उत्तीर्ण बच्चों को भी सुपर थर्टी के क्लास से उत्तीर्ण बता देते हैं.” ऐसा अगर वे करते भी हो तब भी इतने सारे गरीब बच्चों को मुफ्त भोजन-आवास के साथ शिक्षा भी मुहैया कराना कम बड़ी बात नहीं. अगर सुपर थर्टी के किसी बच्चे ने IIT की परीक्षा नहीं भी उत्तीर्ण की, कोई दूसरा कम्पीटीशन पास किया होगा. उसमें पढने के प्रति रूचि तो जगाई क्यूंकि गरीबों के पास शिक्षा छोड़कर ,अपनी किस्मत संवारने का कोई दूसरा साधन नहीं है.

फिल्म की घोषणा होते ही उसके रिलीज़ होने की प्रतीक्षा शुरू हो गई. बहुत पहले देख भी ली थी पर अनेकानेक कारणों से जल्दी कुछ लिख नहीं पाई. ऋतिक रौशन को आनन्द कुमार के रोल में देखने के प्रति मैं भी आशंकित थी. पर फिल्म देखते हुए उनकी कदकाठी, रूपरंग सब घुल मिल जाते हैं. बिहारी एक्सेंट भी नहीं है लेकिन फर्स्ट हाफ में कहानी इतनी बाँध कर रखने वाली है कि अलग से ध्यान नहीं जाता . कैम्ब्रिज में एडमिशन मिल जाने के बाद भी,पैसे की कमी की वजह से आनन्द कुमार इंग्लैण्ड नहीं जा पाते .पैसों के इंतजाम के लिए पिता के साथ दर दर भटकना, दर्शकों की आँखें नम कर जाता है. आनन्द कुमार के किसी इंटरव्यू में भी एक नेता की कही बात सुनी थी. इसे फिल्म में हू ब हू लिया गया है. गोल्ड मेडलिस्ट आनन्द कुमार जब नेता जी से कहते हैं, “आपने गोल्ड मेडल देते हुए कहा था , जब कभी जरूरत हो तो मेरे पास मदद के लिए आ जाना “. पंकज त्रिपाठी बिलकुल नेताओं वाले अंदाज में कहते हैं, “हाँ हाँ मैंने आपको जरूर बुलाया होगा. मैं सब युवा लोगों को बुलाता हूँ. “ फिर जब आनन्द कुमार हिम्मत कर कहते हैं, “मुझे इंग्लैण्ड जाना है ,पैसे की जरूरत है “ नेता जी बोलते हैं...” जाओ...जरूर जाओ...इंग्लैण्ड ,अमेरिका, जर्मनी, चीन कहीं भी जाओ...पर पैसे के फेर में मत पड़ो...पैसा बहुत बुरी चीज है. और विदेश जाकर अपने देश की मिटटी को मत भूलना. ये मिटटी तुम्हारी माँ है...आदि आदि “ नेताओं के वही रते रटाये जुमले हैं. प्रसंग कोई भी हो, समस्या कोई भी हो उन्हें वही जुमले बोलने हैं.

आनन्द कुमार विदेश नहीं जा पाते. उनके पिता की मृत्यु हो जाती है. माँ पापड़ बेलने लगती है और आनन्द कुमार साइकिल पर पापड़ बेच कर घर का खर्च चलाते हैं. उन्हें एक कोचिंग क्लास में पढ़ाने का ऑफर मिलता है .वे पढाने लगते हैं, घर के हालात सुधरने लगते हैं. पर जब एक बच्चे को पैसे की कमी की वजह से उस कोचिंग क्लास में एडमिशन नहीं मिलता तो आनन्द कुमार को अपना समय याद आने लगता है.

वे गरीब बच्चों को मुफ्त में कोचिंग देने का फैसला लेते हैं. उन गरीब बच्चों को जिनके पास पढने का कोई साधन नहीं है, पर गणित में रूचि है ,अपने पास रख कर दोनों समय का खाना खिला कर IIT की तैयारी करवाते हैं. रोजमर्रा के जीवन के उदाहरण देकर मैथ्स -फिजिक्स-केमिस्ट्री इस तरह समझाते हैं कि इन विषयों में बच्चों की रूचि जागती है, खौफ नहीं होता. यह कहकर उनमें विश्वास भरते हैं कि "अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा, जो हकदार है वही राजा बनेगा ।"
इस मुहिम में तमाम अडचनें आती हैं....पैसे की कमी, बच्चों की जरूरतें, दूसरी कोचिंग क्लास चलाने वालों के लगातार हमले. पर आनन्द कुमार की माँ, भाई, बच्चे और कुछ सच्चे दोस्त हमेशा उनके साथ खड़े रहते हैं. माँ अपनी देखरेख में बच्चों के लिए खाना बनवाती हैं.

फिल्म में माँ और पिता के बीच की छोटी-मोटी नोंक झोंक बहुत प्यारी लगती है. अमूमन इस उम्र में और उस वर्ग में पति-पत्नी में आपसी संवाद ही बहुत कम होते हैं. पर गरीबी से आक्रांत परिवार में इन दृश्यों को डालकर निर्देशक ने फिल्म की बोझिलता कम करने की कोशिश की है. 

फिल्म के प्रति दर्शकों को आकृष्ट करने के लिए फिल्म में बहुत सारा बॉलीवुड मसाला भी डाला गया है. एक छोटा सा प्रेम प्रसंग भी है. जो नकली नहीं लगता पर नब्बे के दशक में नायिका आजकल के चलन वाले अनारकली सूट और बड़े बड़े इयररिंग्स में थोड़ी अलग थलग दिखती है. ( नेता जी भी जनता दरबार में घर से एलोवेरा जूस मंगवा कर पीते हैं, जिसका १९९२ में प्रचलन नहीं था पर शायद इसे क्रिएटिव लिबर्टी कहते हैं जो जरूरी हो जाता है पर हमें तो खटक जाता है  )

सेकेण्ड हाफ में फिल्म थोड़ी बनावटी लगने लगती है. अंग्रेजी स्कूल में पढने वाले छात्रों के साथ सुपर थर्टी के बच्चों के घुलने मिलने के लिए जो सिचुएशन तैयार की गई है, वो गले नहीं उतरती. वैसे ही आनंद कुमार को गोली लगने पर जब दूसरे कोचिंग क्लास वाले उन्हें जान से मारने के लिए अस्पताल पर हमला करते हैं और बच्चे विज्ञान के प्रयोगों से जिस तरह उनका सामना कर उन्हें हराते हैं, वो भी एक बच्चों के फिल्म के लिए तो बहुत प्रेरणादायी है पर एक गम्भीर फिल्म में नहीं जमा. ये चीज़ें और भी कई तरह से दिखाई जा सकती थीं....पर इस अत्यधिक ड्रामे ने फिल्म को कमजोर कर दिया .

अक्सर बायोपिक में अंत में जिनपर फिल्म बनाई गई है ,उन्हें भी परदे पर अलग से दिखाते हैं. फिल्म के अंत में इंतज़ार ही कर रही थी पर आधे स्क्रीन पर ऋतिक रौशन और आधे पे आनन्द कुमार की झलक भर दिखाई देती है.वो भी कुछ सेकेंड्स के लिए . मुझे लगा था, सुपर थर्टी से पास हुए कुछ बच्चों के भी चेहरे और उनके दो शब्द सुनने को मिलेंगे ,पर अनावश्यक ड्रामे में ही फिल्म की लम्बाई इतनी बढ़ गई कि इन सबकी गुंजाइश ही नहीं रही .( पर भला हो यू ट्यूब का, वहाँ सब मौजूद है 😊 )

फिर भी एक साधारण से व्यक्ति ने जिस जीवट, साहस और लगन से सैकड़ों गरीबों की किस्मत बदल दी और कितनों की प्रेरणा बने. उनकी कहानी देखने योग्य है. कई राज्यों में इसे करमुक्त करके सरकार ने सराहनीय कार्य किया है. स्कूल के बच्चों को भी जरूर दिखाई जानी चाहिए.

सोमवार, 5 अगस्त 2019

मनाली का मनु मंदिर

पहली बार कोई टी वी शो देखते हुए लगा कि अगर पलकें झपकाई या गर्दन घुमाई तो कुछ मिस हो जाएगा . एपिक चैनल पर सभ्यता की शुरुआत से सम्बन्धित कार्यक्रम में मनाली का  मनु मंदिर दिखा रहे थे और विशेषज्ञों द्वारा मंदिर से जुडी कथा भी बता रहे थे .

अभी अभी ये मंदिर देख कर लौटी हूँ  ,स्मृतियाँ भी ताजा थीं. एक कथा के अनुसार ,'ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। एक कल्प में 14 मनु हो जाते हैं। एक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। वर्तमान में वैवस्वत मनु (7वें मनु) हैं। वैवस्वत मनु एक दिन दक्षिण की एक नदी तृप्ति धारा में स्नान कर रहे थे तो एक छोटी मछली ,उनके हाथों में आ गई . वे मछली को नदी में छोड़ने लगे तो मछली ने कहा ,'मुझे बड़ी मछली खा जायेगी . आप मुझे अपने घर ले चलिए ' मनु ने मछली को घर में लाकर एक घड़े में डाल दिया . मछली बड़ी होने लगी तो उसे तालाब में और फिर समुद्र में डाल दिया .मछली ने कहा कि शीघ्र ही जल प्रलय आने वाला है ,आप एक नाव में सृष्टि के बीज लेकर बैठ जाइएगा .मैं नाव को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दूंगी . प्रलय आने पर मनु सप्तऋषियों को और सृष्टि के बीज लेकर नाव में बैठ गए और मछली ने हिमालय की  तरफ एक ऊँचे स्थान पर नाव को लेजाकर 'ह्म्प्ता पर्वत' से बांध दिया . प्रलय शांत होने पर सप्तऋषियों ने यज्ञ कर एक नारी का निर्माण किया ,जिसे श्रद्धा कहा गया .और मनु एवं श्रद्धा ने मानव सन्तति को आगे बढ़ाया . सप्तऋषियों  ने सृष्टि के बीज से सृष्टि की रचना की.
 मनाली शहर का नाम मनु + आलय = मनुआलय का ही अपभ्रंश है .

वहां, महाराष्ट्र के ही कुछ टूरिस्ट मिले उसमे से एक अंकल जी मंदिर के रखरखाव से बहुत नाराज़ थे .पुजारी से कह रहे थे कि वे लोग सिर्फ पैसे लेते हैं, पीतल की मूर्तियों को चमकाते नहीं .सारी मूर्तियाँ काली पड़ गई हैं . मूर्तियों पर  प्लास्टिक के फूल की माला चढ़ाई हुई थी ,वह भी उन्हें नागवार गुजर रहा था , बोल रहे थे ,"एक ताजे फूल की माला तो चढ़ा ही  सकते हैं आपलोग ,इतने पैसे मिलते हैं आपलोगों को '

आज की अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करती पीढ़ी Adam and Eve को ज्यादा जानती है . उनका प्रश्न था , "हम मनु की संतान हैं ,ऐसा कहा जाता है . मनु और श्रद्धा की सन्तान है ऐसा क्यूँ नहीं कहा जाता ? श्रद्धा का नाम Eve की  तरह बराबरी में क्यूँ नहीं लिया जाता ?"
अब इसका उत्तर तो मेरे पास  नहीं .
मंदिर के अंदर चित्र खींचने की मनाही थी .हमने सिर्फ बाहर से ही ली पर नेट पर अंदर की तस्वीरें भी मौजूद हैं .
मनु मंदिर ,वशिष्ठ मंदिर और हिडिम्बा मंदिर की कुछ तस्वीरें .




फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...