मंगल
मिशन ' फिल्म पर ज्यादातर नकारात्मक प्रक्रियाएं मिलीं. कुछ ने तो कहा कि फ्री में
टोरेंट पर बढ़िया प्रिंट मिले तब भी न देखो.
पर मैं तो कभी किसी की सुनती नहीं, इसलिए थियेटर में देखने चली गई. पर फिल्म देखने के बाद आभास हो गया
कि वे लोग ऐसा क्यूँ कह रहे थे. जिन्हें विषय पर केन्द्रित, तकनीकी रूप से उन्नत, अंग्रेजी फ़िल्में देखने की आदत होगी, उन्हें यह फिल्म बहुत निराश करेगी
बल्कि एक मजाक ही लगेगी. लेकिन आमजन जो ज्यादातर मनोरंजन के लिए फ़िल्में देखते हैं, उनके लिए यह एक जरूरी फिल्म है. फिल्म
को मनोरंजक बनाते हुए जरूरी जानकारी भी देने की कोशिश की गई है. ये अलग बात है कि
फिल्म में बॉलीवुड मसाला डालने के चक्कर में
सब
घालमेल हो गया है और इसी वजह से सिनेमा के गम्भीर दर्शक चिढ गए हैं. लेकिन फिर भी
लोगों तक सरल भाषा में ‘मंगल ग्रह अभियान’ की मोटी मोटी बातें पहुँचाने की कोशिश
की गई है.
मंगलयान
की सफलता पर हमसबने उस मिशन में शामिल महिलाओं की तस्वीरें लगाई थीं और गौरवान्वित
भी हुए थे .यह पूरी फिल्म मंगल मिशन को सफल बनाने के उनके संघर्ष,लगन, जुनून के इर्द गिर्द बुनी गई है. 2010
में जब राकेश धवन( अक्षय कुमार) के नेतृत्व में ISRO की एक टीम रॉकेट लौंच करने में असफल
हो जाती हैं तो उन्हें सजा के तौर पर मंगल अभियान की तैयारी के लिए भेज दिया जाता
है. जिसके लिए न कोई स्पष्ट योजना है, ना बजट और ना ही अनुभवी वैज्ञानिकों
की टीम उन्हें मिलती है. वैज्ञानिक तारा (विद्या बालन ) जो उस असफलता के लिए खुद
को दोषी मानती हैं, राकेश धवन का पूरा साथ देती हैं. उनकी टीम में चार और महिलाएं और दो
पुरुष शामिल होते हैं . सब मिलकर रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं से प्रेरणा
लेकर अभियान को सफल बनाने में जुट जाते हैं. पैसे की अतिशय कमी की वजह से खर्च कम
करने के लिए कई तरह के जुगाड़ लगाए जाते हैं.(जिसमें भारतीय माहिर हैं 😊 ) राकेश धवन बजट की बात पर १९६३ में
पहले रॉकेट प्रक्षेपण का उदाहरण देते हैं, तब भी पैसे इतने कम थे कि रॉकेट के
अलग अलग पार्ट, साइकिल और बैलगाड़ी पर ढो कर ले जाए गए थे . काम करने का जुनून हो तो
रास्ते खुद ब खुद निकलते चले आते हैं. कई अडचनों को पार करते हुए एक हॉलीवुड फिल्म
की बजट से भी कम बजट में भारत, मंगल ग्रह के ऑर्बिट में प्रथम प्रयास में ही सफलतापूर्वक
सेटेलाइट भेजने वाला,पहला देश बन जाता है. ये सारी तकनीकी बातें भी बहुत सरलता से दर्शकों
तक पहुंच जाती हैं.
फिल्म
‘मंगल अभियान’ पर केन्द्रित है पर निर्माता-निर्देशक की रूचि फिल्म में इस अभियान
से इतर वैज्ञानिकों की निजी जिंदगी दिखाने की है जो पूरी तरह उनकी कल्पना पर
आधारित है. दर्शकों को बांधे रखने के लिए कोई मसाला छोड़ा नहीं गया, सास-बहू की नोंक-झोंक, घर-बाहर एक साथ सम्भालती सुपर वूमन, तलाक के बाद अकेली मुस्लिम लडकी को घर
मिलने की परेशानी, एक आज़ाद-ख्याल लडकी का सिगरेट फूंकना और बॉयफ्रेंड बदलना, एक कुंवारे चम्पू लडके का बाबाओं के
चक्कर लगाना, विदेश में बसे बेटे द्वारा बूढ़े माँ-बाप की उपेक्षा, एक आर्मी ऑफिसर
का घायल होना, सब शामिल है. देशभक्ति का तड़का भी भरपूर है. पर पता नहीं एकाध जगह फूहड़ हास्य भी शामिल करने
की क्या मजबूरी थी.
इन
सबके बावजूद यह फिल्म देखी जानी चाहिए. जिन लोगों ने विस्तार से मंगलयान के अभियान
के विषय में नहीं पढ़ा, शायद उनकी रूचि जागेगी . फिल्म में दी गई थोड़ी सी जानकारी से उनका
मन नहीं भरेगा वे सब कुछ जानना चाहेंगे. क्या पता कोई बच्चा वैज्ञानिक बनने का
सपना भी देखने लगे और पढाई में मन लगाए ( हो सकता है ये उम्मीद कुछ ज्यादा लगे पर
उम्मीद ही तो है ) .
फिल्म
में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विद्या बालन की है जो उन्होंने बखूबी निभाई है. अक्षय
कुमार
कभी कभी कुछ ज्यादा ही ड्रामेटिक लगते हैं. शरमन जोशी, थ्री इडियट्स के बाद से ही चम्पू लडके
के रोल में टाइप्ड हो गए हैं पर अभिनय सहज ही था . सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका के
साथ न्याय किया.
गीत-संगीत की गुंजाइश इस फिल्म में नहीं थी फिर भी डिस्को का एक लचर सा निरर्थक दृश्य रचा अगया है. छायांकन बहुत सुंदर है.
मंगल
अभियान की सफलता का सारा श्रेय इसरो के वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम को है. पर फिल्म
तो चैरिटी या शौक के लिए नहीं बनाई गई है. वैज्ञानिकों के संघर्ष पर फिल्म बनाकर पैसे
कमाने हैं, शायद कर मुक्त करवाने की लालसा में अंत में मोदी जी का भाषण भी
शामिल किया गया है. या फिर पार्टी विशेष के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखानी हो पर इस
फिल्म में बहुत असम्बद्ध सा लगता है.