बुधवार, 29 मई 2019

दस वर्षों के बाद,वंदना अवस्थी से पहली मुलाकात

"ये मेरी बहुत अच्छी दोस्त/अच्छे दोस्त हैं " कहते अब एक हिचक सी Bहोती है। समय का रुख कब बदल जाता है, और लोग अच्छे दोस्त से सिर्फ दोस्त,फिर परिचित और फिर अपरिचित तक की यात्रा कब पूरी कर लेते हैं, आभास भी नहीं हो पाता। फिर भी नज़र का बजरबट्टू लगाकर कहने का मन है, पिछले दस वर्षों से वंदना अवस्थी दुबे  से दोस्ती एक समरेखा पर चलती आ रही है, फिंगर्स क्रॉस्ड चलती भी रहेगी। और विडम्बना ये कि अब तक हम मिले नहीं थे। कुछ सुयोग ही नहीं जुट पाया। अचानक एक दिन मैसेज आया..."22 मई को मैं पटना पहुँच रही हूँ, मुलाकात हो पाएगी? " वंदना को अंदाज़ा था कि मई के अंतिम सप्ताह में मुंबई लौटती हूँ। और उसका अंदाज़ा बिल्कुल सही था।

वंदना अपनी दीदी -जीजाजी के नए घर के गृहप्रवेश समारोह में शामिल होने पटना आई हुई थी। और मैं गाँव से बरक्स पटना मुम्बई जाते हुए एक दिन के लिए पटना में रुकनेवाली थी।

24 को वंदना से मिलना तय हुआ। सुबह आठ बजे की गाड़ी बुक कर दी थी। ताकि दोपहर में वंदना से मिल लूँ और शाम को उषाकिरण दी, भावना,वीणा, नीलिमा दी से मुलाकात हो जाये। गाँव में यूँ भी बहुत जल्दी सुबह हो जाती है। मैं और माँ जल्दी से तैयार  हो गए। पर सबकुछ सोचे हुए तरीके से हो जाये फिर लिखने का मसाला कहाँ से मिले :D । समय निकलता जा रहा था,गाड़ी का अता -पता ही नहीं, ड्राइवर फोन ही ना उठाये। गाड़ी के मालिक को फोन किया तो उसने कहा, 'गाड़ी तो सुबह ही निकल गई है पर ड्राइवर फोन नहीं उठा रहा।'आखिर ग्यारह बजे के करीब ड्राइवर महाराज ने मेहरबानी की और बताया, " वैशाली में हमारा गाड़ी धर लिया है, पेपर सब ले लिया है।हमको आते हुए तीन- चार बज जाएंगे " लो जी अब तो पटना पहुँचते आठ बज जाते,किसी से भी मिलना नहीं हो पाता। :( ।खैर गाँव में आप मुश्किल में हो तो पूरा गाँव मदद करने को सक्रिय हो जाता है। पास में रहने वाले रंजन,अभिषेक ने कई फोन घुमाए...रंजन की कार सजी धजी हुई सुबह ही दूल्हा दुल्हन को लेकर लौटी थी।रात भर का जागा ड्राइवर सो रहा था। खैर दूसरे ड्राइवर का इंतज़ाम हुआ।कार की फूल पत्तियां साफ की गईं और हम 1 बजे पटना के लिए निकले। पटना की सखियों माफी🙏 हमें ये शाम वंदना के नाम करनी पड़ी 😊.

 मैं घर का गेट ढूंढ ही रही थी कि चेहरे पर हज़ार वाट की मुस्कान लिए, एक उजली सी दुबली-पतली काया नमूदार हुई। वंदना की दीदी ,जीजाजी ,उनकी दोनों बेटियाँ शैली और संज्ञा बड़े प्यार से मिलीं। हमेशा बिहार से बाहर रहने के बावजूद दोनों बेटियों ने बिहार के संस्कार के मुताबिक पाँव छूकर प्रणाम किया
  पढ़ाकू दस वर्षीय नाती ऋतज बार बार पूछ लेता, "चाय बनाऊँ ?😊 "।उसने दो दिन पहले ही चाय बनानी सीखी थी और दो बार बिल्कुल परफेक्ट चाय बनाकर पिलाई । बहुत ही आलीशान बड़ा सा घर है, उसकी एक दीवार पर गुणी बिटिया संज्ञा ने बहुत ही सुंदर म्यूरल बनाया है। ऋतज और वंदना ने भी पूरी करने में मदद की।(तस्वीर ज़ूम कर के देखें,जहाँ कोई गलती नज़र आये जरूर वंदना ने की होगी 😛 )

मैंने अनुमति लेकर झट तस्वीर ले ली ,स्कूल की दीवार पर ऐसा बना सकती हूँ (कहीं कुछ अच्छा देखूं तो स्कूल का ही ख्याल रहता है  :) )

एक मजे की बात हुई...वंदना जैसे ही मेरा परिचय देते हुए कुछ बताने लगती, दीदी कहतीं, 'हां पता है हमें...फोटोज़ भी देखे थे " :) दीदी-जीजाजी भी फेसबुक पर हैं और मेरी पोस्ट पढ़ते रहते हैं। आखिर वंदना ने खीझकर कह दिया,'लो भई , इनलोगों को तो सब पता है...कुछ बताने की जरूरत ही नहीं।"😀
हम और वंदना बातें करते रहे और अर्चना दी हमारी कैंडिड फोटोज़ खींचती रहीं। वंदना के मम्मी पापा से भी मिली। पापा सौम्य-स्नेहिल और मम्मी तो बिल्कुल गुड़िया सी हैं।प्यार से गले लगा लिया । उन्होंने तीन वर्ष पूर्व मेरा उपन्यास 'काँच के शामियाने ' पढ़ा था और उन्हें पूरी कथानक याद थी। मेरे लिए सुखद आश्चर्य था,वंदना की दोनों दीदियों ने भी मेरा उपन्यास पढ़ रखा था। (और काँच के शामियाने इतना ईर्ष्यालु है,चाहता है सिर्फ उसकी ही चर्चा हो , मैं कहानी संग्रह 'बन्द दरवाजों का शहर' दीदी के लिए लेकर आई थी पर उसने गाड़ी में ही छुड़वा दी :( )
मुझे एक पल को भी लगा ही नहीं, मैं किसी अनजान घर में आई हूँ या सबसे पहली बार मिल रही हूँ। जब आंटी से विदा लेने गई तो उन्होंने कब चुपके से दुपट्टे के कोने में रुपये बांध दिए,मुझे पता ही नहीं चला। पता चलने पर भी आंटी के आशीर्वाद को तो नत होकर ग्रहण करना ही था।मुझे और वंदना को तो दस वर्ष का कोटा पूरा करना था, हमारी गप्पें ही खत्म ना हों। बीच बीच में शर्बत,चाय,मिठाई,नमकीन की सप्लाई होती रही। संज्ञा ने कहा , "यहाँ पास में बहुत अच्छी चाट मिलती है, पार्सल मंगवाती हूँ।आपलोग ए. सी. में बैठकर आराम से खाइए।" पर हमारा पुराना प्यार जाग उठा था। कंकड़बाग में मेरे चाचा और मामा रहते थे। रिटायरमेंट के बाद पापा भी कुछ समय रहे थे। मेरा बहुत जाना-पहचाना इलाका था। वंदना भी गर्मी छुट्टियों में अक्सर अपनी दीदी के पास आया करती थी। कोने पर मशहूर शालीमार स्वीट्स की चाट और लस्सी की याद ही हमारे मुँह में पानी ला रहै था। और हम दोनों सबसे विदा ले चाट खाने चल दिये।

कॉलेज के दिनों की तरह हमने रिक्शा या ऑटो नहीं लिया कि पैदल चलते देर तक साथ रह पायेंगे 💝। सबकी अजीब निगाहों की परवाह ना करते हुए दुकान की फोटो खींची गई,वंदना ने बड़े पोज़ वोज़ दिए 😀 ।
पर शालीमार जाकर एक सबक मिला, 'पुरानी यादों के साथ कृपया कोई छेड़छाड़ ना करें । उन लम्हों को दुबारा जीने की कतई कोशिश ना करें। दिल के कोने में उनकी खूबसूरत याद संजो कर रखें और जब तब झांक कर आहें भर ले। वरना दिल इतनी जोर से टूटेगा कि वे यादें फुर्र कर उड़ जाएंगी।'

सबसे पहले तो चाट खाने की व्यवस्था ने ही निराश किया। पहले दुकान के अंदर ही टेबल लगे होते और आप शांति से चाट खा सकते थे। अब दुकान बहुत बड़ा हो गया है, ढेरों मिठाई-नमकीन-चॉकलेट सजे थे और टेबल बाहर लगी थी। सड़क की चिल्ल-पों सुनते ,गर्मी से बेहाल होते आप चाट खाइए। हमने पुराने प्रेम की खातिर वो भी मंजूर किया । पर दिल टूटना तो अभी बस शुरू हुआ था, काउंटर पर बैठे लड़के ने बताया अब लस्सी नहीं मिल्कशेक मिलता है (बढ़नी मारो,इस मिल्कशेक को...समझने वाले इसका अर्थ समझ जाएंगे :) )
चाट की शकल ही कुछ नहीं जंच रही थी और मुँह में रखते ही स्वाद ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। कहीं नमक बहुत ज्यादा, कहीं मिर्च तेज.....दही भी खट्टी। बड़ी मुश्किल से दो चार चम्मच खा कर हमने पूरी प्लेट छोड़ दी।
 आइसक्रीम खा कर मुँह का स्वाद बदलने की सोची पर अब दूध के जले हम छाछ भी फूंक रहे थे। कोई भी जाना-पहचाना नाम नहीं दिखा तो ये इरादा भी मुल्तवी किया और एक छोटी बोतल माज़ा से संतोष किया।
तीन घण्टे गुजर गए थे पर महसूस हो रहा था,हमने तो कुछ बात ही नहीं की :) । खैर, मिलने की शुरुआत तो हुई....अब मिलते रहेंगे।

    


 



  



मंगलवार, 7 मई 2019

"काँच के शामियाने " पर विवेक रस्तोगी जी की टिप्पणी

"बहुत बहुत शुक्रिया Vivek Rastogi ji आपने एक बैठक में किताब ख़त्म कर ली और मेरे इस भ्रम को भी निरस्त कर दिया कि शायद पुरुषों  को यह किताब उतनी पसंद ना आये . आपकी प्रतिक्रिया बहुत मायने रखती है .

काँच के शामियाने" शुरू तो दो दिन पहले की थी, पर बहुत अधिक न पढ़ पाने से लय नहीं बन पायी, पर आज सुबह से फुरसत निकाल कर 3-4 घंटों में ही किताब का आनंद ले लिया, Rashmi जी ने जिस अंदाज में यह उपन्यास लिखा है, वह झकझोरने वाला है, क्योंकि कहीं न कहीं वाकई यह कितनी ही जिंदगियों का सच होगा, एक अनजाना सा सच, उपन्यास की शैली लेखिका की कहानियों की शैली में ही है, कि एक बार पढ़ने बैठे तो जब तक पूर्ण न कर लें, तब तक मन कहीं और लगता ही नहीं।

यही लेखक की लेखनी का चातुर्य है।

धन्यवाद एक बहुत ही अच्छा सामाजिक पहलू दिखाने के लिये, मैंने भी कई मोड़ कहानियों में सोचे थे, परंतु वैसा कुछ हुआ नहीं।

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...