रविवार, 28 अगस्त 2011

खाया-पिया ..अघाया मध्य वर्ग

इस जन आन्दोलन में कुछ जुमले बहुत उछले कि ये आन्दोलन,खाए-पिए-अघाए लोगो का है....मध्य वर्गीय लोगो का है.


सर्वप्रथम अगर ये वर्ग अघाया हुआ है तो इसे  किसी आन्दोलन को समर्थन देने की क्या जरूरत है? धूप-बारिश में सड़कें नापने की क्या जरूरत ? सिर्फ टेलिविज़न में चेहरा दिखाने की चाह तो उन्हें सडकों तक नहीं खींच लाई थी....क्यूंकि भले ही चौबीसों घंटे टी.वी. कैमरे चालू थे लेकिन जिस तरह हज़ारों लोग किसी रैली का हिस्सा बनते थे ,उन्हें मालूम था कि उनका चेहरा टी.वी. में नहीं दिखने वाला.कई इलाकों में तो टी.वी. कैमरे थे भी नहीं फिर भी लोगो ने रैलियाँ निकालीं....सभाओं में शामिल हुए. और इस वर्ग को अगर टी.वी. में आने का इतना ही शौक होता तो उसे वो माध्यम पता है जिसकी वजह से वे टी.वी. में आ सके. ऐसा भी नहीं है कि उनकी जिंदगी इतनी बोरिंग थी कि बस मन-बहलाव के लिए वे इस आन्दोलन में शामिल थे. यह पढ़ा-लिखा वर्ग....हर स्तर पर भ्रष्टाचार से इतना तंग आ गया है कि उसे आवाज़ उठाने की जरूरत महसूस हुई और अन्ना का आन्दोलन एक जरिया बना,अपनी बात कहने का. रोज़ अखबार में करोड़ों के घोटाले की खबर ...वर्त्तमान  संसद  में 76 सांसदों का यानि कि 14% सांसदों का हत्या,  अपहरण, बलात्कार में लिप्त होना....भारत का निरंतर सर्वाधिक भ्रष्ट देश की रैंकिंग में नीचे की तरह उन्मुख होना...इन्हें उद्वेलित कर गया. (Transparency International's corruption index के अनुसार 2010 में भारत का स्थान  87 था ...2009 में 84 था और दस साल पहले 69 था.)

हाँ , इस वर्ग पर किराए की ही सही पर सर पर छत है और ये वर्ग भूखा भी नहीं है. लेकिन क्या इतना काफी है? वो भूखा नहीं है...इसलिए उसे आवाज़ उठाने का हक़ नही है? उसकी और जरूरतें नहीं हैं??  कई लोगो की प्रतिक्रियाएँ देखीं कि इस आन्दोलन से किसान-मजदूर नहीं जुड़े हैं...इसलिए ये आन्दोलन व्यर्थ है. अगर इस आन्दोलन से थोड़ा भी फर्क पड़ेगा...लोगो के भ्रष्ट आचरण पर थोड़ा भी अंकुश लगेगा तो इसका लाभ, सबको एक सामान मिलेगा. जो लोग ये शिकायत कर रहे हैं कि  पिछड़ा वर्ग इसमें शामिल नहीं है...तो उन्हें खुद आगे आना चाहिए था...उन्हें भी इसमें सम्मिलित करने की कोशिश करनी चाहिए थी.

वे अगर सचमुच उनकी स्थिति से इतने ही व्यथित हैं तो उन्हें अन्ना की तरह किसी गाँव में जाकर एक गाँव के लोगों को आत्म-निर्भर ..खुशहाल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए. जितने लोग इस आन्दोलन का मज़ाक उड़ा रहे हैं या इस पर उंगलियाँ  उठा रहे हैं...वे लोग एक-एक गाँव ही क्यूँ नहीं अपना लेते?....आखिर 'अन्ना हजारे' के पास भी संकल्प-शक्ति के सिवा और कुछ भी नहीं था. वे लोग कहेंगे , हमारा काम तो अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करना है...फिर दूसरे लोग किसी तरह का प्रयत्न कर रहे हैं तो उसपर ऊँगली क्यूँ उठाना??...उन्हें निर्देश क्यूँ देना...कि इस मुद्दे के लिए नहीं फलां मुद्दे के लिए आन्दोलन करो. अगर वे कुछ गलत कर रहे हैं तो उन्हें टोकने का पूरा हक़ है  अन्यथा क्या मध्य वर्ग को उनकी चिंता नहीं है? पर यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठायी जा रही है ..जिसपर अंकुश से सबों को  राहत मिलेगी. यह एक दिन में नहीं होगा पर कहीं से शुरुआत तो करनी  ही पड़ेगी.

 हालांकि आरोप लगाने वालों ने जरूर कमरे में बंद होकर ही आन्दोलन देखा है.....वर्ना मैने अपनी आँखों से ऑटोवालों ...सब्जी-मच्छी बेचने वाले/वालियों को स्वेच्छा से इस आन्दोलन का हिस्सा बनते देखा है. ऑटो वाले किसी को सभा में छोड़ने आते और फिर वापस नहीं जाते...सड़क के किनारे ऑटो खड़ा करके  सभा में शामिल होते. इसी तरह , वे लोग रैलियों में भी शामिल हुए . जो समय नहीं दे पाते वे लगातार अपने पैसेंजर से इस विषय पर चर्चा करते देखे जाते. यह आन्दोलन स्वतः स्फूर्त था/है...इसमें सब अपने विवेक से शामिल हुए . इतना जरूर है कि मध्यम वर्ग की स्थिति रोज़ कुआं -खोदने और पानी पीने वाली नहीं है...और इसीलिए वे ज्यादा समय इस आन्दोलन को दे सके...तो इसके लिए उन्हें शर्मिंदा होना चाहिए??.....अफ़सोस प्रकट करना चाहिए??

किसी भी आन्दोलन के प्रति उदासीन रहनेवाले इस वर्ग ने इस आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया...इसकी एक ख़ास वजह ये भी है कि इसका नेतृत्व और आह्वान  साफ़-सुथरी छवि वाले लोग कर रहे हैं. सबको ये भरोसा है कि वे अपने किसी व्यक्तिगत लाभ या...प्रसिद्धि पाने के लिए ये आन्दोलन नहीं कर रहे. वे सचमुच समाज में एक बदलाव लाना चाहते हैं और जनता का भला चाहते है.

अन्ना हजारे जी का अनशन उनकी गांधीवादी छवि....और बार-बार शांतिपूर्ण आन्दोलन की अपील  , इस आन्दोलन के शांतिपूर्ण होने का कारण रही ही. पर इसका श्रेय इसमें भाग लेने  वाले लोगो को भी जाता है कि....बस शान्ति से वे सडकों पर आए और सभा की..कहीं कोई आगजनी..पत्थर-बाजी...किसी तरह का संपत्ति नुकसान या  बाज़ार  बंद नहीं हुआ. इतना अनुशासन-बद्ध होना,स्व-विवेक से ही संभव है.....किसी छड़ी के जोर पर नहीं किया जा सकता 

नेता सिर्फ निम्न वर्ग और उच्च  वर्ग की ही फ़िक्र करते हैं  क्यूंकि उच्च वर्ग से उन्हें पैसे मिलते हैं  और निम्न वर्ग से वोट. मध्य वर्ग की उन्हें कभी फ़िक्र नहीं रही. और इसीलिए मध्य वर्ग भी हमेशा उदासीन रहा. एक वजह ये भी थी...अब तक अधिकांशतः मध्य वर्गीय लोग, वे थे जो सरकार नौकरियों में थे. और अपनी जीविका के साधन और पेंशन के लिए सरकार पर निर्भर थे . इसलिए सरकार के विरुद्ध जाने की हिम्मत भी उन्हें कम ही होती थी. अब जो नया मध्यम वर्ग उभरा है उसका एक बड़ा वर्ग  सिर्फ सरकार पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर नहीं है और जो निर्भर हैं वे भी सरकार से अपनी गाढ़ी कमाई से भरे गए टैक्स का लेखा-जोखा पूछने की हिम्मत रखते हैं. 

हर प्रायोजित आन्दोलन किसी ना किसी वर्ग से सम्बंधित रहा है....लेकिन यहाँ सोशल नेटवर्किंग साइट...एस.एम.एस. के जरिये बिना किसी जाति-वर्ग भेद के लोग स्वेच्छा से एकजुट  हुए. अन्ना हजारे जी ने मंच से 'देश की युवा शक्ति' का शुक्रिया कहा..परन्तु सीनियर सिटिज़न ने भी इस आन्दोलन में बहुत ही अहम् भूमिका निभाई है. हमारे इलाके में ज्यादातर उम्रदराज़ लोग ही सम्मिलित थे. कॉलेज जाते बच्चों...कोचिंग क्लास से निकलते बच्चों से वे बस दो शब्द कहते थे.."बेटा...हमलोगों ने तो बहुत भुगत लिया...अब कोशिश है कि तुमलोगों को इतनी करप्शन ना देखनी पड़े...इसके लिए कुछ करना चाहिए"  और वे बच्चे मैकडोनाल्ड का बर्गर और CCD की कॉफी का मोह छोड़ कर उनकी बात ध्यान से सुनते और  शामिल हो जाते. टी.वी. ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई....स्टेज पर यूँ अन्ना हजारे को दूसरों के लिए भूखा-प्यासा देख कितने ही लोगो के गले से निवाला उतरना मुश्किल हो जाता और वे भी आन्दोलन में शामिल होने को निकल पड़ते.

टी.वी. पहले भी कुछ ऐतिहासिक घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका है. कहा जाता है..मशहूर 'बर्लिन की दीवार' गिरवाने में टेलिविज़न का भी हाथ था. पूर्व जर्मनी के लोग बार-बार टी.वी. पर पश्चिम जर्मनी के लोगों का रहन-सहन देख कर ही अपने ही देश के दो टुकड़े करती उस दीवार को गिराने पर आमादा हो गए.


अन्ना हजारे के आन्दोलन ने  एक उत्प्रेरक का कार्य जरूर किया है..अब मध्य वर्ग जाग गया है....और अपनी शक्ति भी पहचान गया है. वो अपने देश को जीने के लिए एक बेहतर स्थान बनाने के लिए कटिबद्ध है. मध्य वर्ग की संख्या 1996 के 26  मिलियन  से बढ़कर,अब 160  मिलियन  और 2015 में  267 मिलियन हो जाने का अनुमान है. यानि जनसँख्या का 40% तो सरकार और नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वे मध्य वर्ग की अस्मिता को पहचान लें क्यूंकि ये वर्ग  ,उन्हें सत्ता सौंपेगा...पावर  देगा तो पलट कर सवाल भी करेगा. 

बुधवार, 24 अगस्त 2011

तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते...




अभी बस दो दिनों पहले ही,मैने  एक फ्रेंड का स्टेटस देखा,...जिसमे उन्होंने लिखा था.." कई  दिनों से एक मित्र ऑनलाइन नहीं दिख रहा था...उसका कोई कमेन्ट भी किसी के स्टेटस पर नहीं दिख रहा था तो मुझे लगा कहीं मुझे ब्लॉक तो नहीं कर दिया...खोज-बीन करने पर पता चला ..वो अब इस दुनिया में नहीं है...." उस दिवंगत मित्र के प्रोफाइल का लिंक भी था....उस पर भी क्लिक कर उसे देखा और एक सिहरन दौड़ गयी,नसों में....मेरे लिए नेट के द्वारा किसी की मृत्यु के बारे में जानने का ये पहला मौका था. कितने ही सवाल उठे मन में....इनका प्रोफाइल तो वैसे ही रहेगा...कितने ही लोग...किसी नाम को सर्च करने के दौरान इस प्रोफाइल पर क्लिक करेंगे. शायद उनकी एल्बम  भी देखेंगे और उन्हें पता भी नहीं चलेगा ,ये हँसता मुस्कुराता आदमी अब इस दुनिया में नहीं है.,....क्या पता कोई किसी फोटो, कविता  की पंक्तियों के साथ टैग कर ले....कोई किसी ग्रुप का सदस्य बना ले...कोई फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दे...
              
इस तरह की बातें ही चल रही थीं दिमाग में और आज सुबह ही 'डा.अमर कुमार जी ' के देहावसान की खबर पढ़ी और स्तब्ध रह गयी....उन्हें भी बस नेट के माध्यम से ही जानने का मौका मिला था...सबकी तरह मैने भी उन्हें...उनकी अपने विशेष स्टाइल में लिखी...बेबाक टिप्पणियों से ही पहचाना था.

मेरी कहानी पर उन्होंने पहली बार  टिप्पणी की थी...और लिखा था.." मुझे ये उषा प्रियंवदा की 'रुकोगी नहीं राधिका' की याद दिलाती है.." मैं तो अभिभूत हो गयी थी...किसी नवोदित लेखक /लेखिका का उत्साहवर्द्धन करना वे खूब जानते थे. मैने जब उन्हें शुक्रिया कह कर  मेल भेजा 
(जैसा आलस्यवश अक्सर मैं नहीं करती और लोग नाराज़ हो जाते हैं  )..उनका बहुत ही प्यार भरा उत्तर आया...जिसमे मुझे उन्होंने "सद्यः स्नेही , कह कर संबोधित किया था...और बताया था कि वे टिप्पणी नहीं करते पर पढ़ते हमेशा  से हैं. मैं तुम्हारे पितृतुल्य हूँ...कुछ ऐसा भी लिखा था...." मुझे एक नया शब्द मिला.."सद्य स्नेही..' इस से पहले मैने ये शब्द नहीं सुना था. और मैं निश्चिन्त हो गयी कि उनकी पारखी नज़रें मेरे लेखन से गुजरती रहती हैं.  मेल से ही संपर्क बना रहता .और वे मुझे हमेशा..'सद्य स्नेही 'कहकर ही संबोधित करते....पर अब ....


जब कभी मेरे किसी पोस्ट से असहमत हुए तो असहमति भी जताई और मेरा स्पष्टीकरण पाकर संतुष्ट भी हो गए...शर्मीला इरोम वाली पोस्ट पढ़कर बहुत खुश भी हुए....और इस पोस्ट पर अपनी टिप्पणियों से लोगो का शंकानिवारण भी किया....मॉडरेशन पर वे अपनी असहमति जताते रहते थे और मैने सोच लिया था 'मॉडरेशन की मजबूरियों 'पर एक पोस्ट लिखूंगी...जिसकी शुरुआत उनके ही किसी कमेन्ट से करुँगी...और उनसे आग्रह करुँगी कि वे अपनी प्रतिक्रिया दें....अब शायद वो पोस्ट कभी ना लिखी जाए...


उनका कद ही कुछ ऐसा था कि उनके कुछ लिखे पर प्रतिकार करने में भी झिझक सी होती थी. एक जगह उन्होंने मेरा नाम "रश्मि ववेजा" लिख दिया था....और मुझे उन्हें ध्यान दिलाने की हिम्मत नहीं हुई...जबकि कोई रश्मि को रश्मी या रविजा को रवीजा लिखे तब भी मैं तुरंत टोक देती हूँ.



अभी हाल में ही उनकी बाल-मजदूर पर लिखी एक पोस्ट में फिल्म  'स्टेनली का डब्बा' का जिक्र पढ़कर मैने भी उस फिल्म के बारे में लिख डाला...और उसके बाद से ही उनका ब्लॉग नियमित रूप से देखने लगी थी...जिनमे एक पोस्ट में उन्होंने लिखा था...."अपने ब्लोगिंग कैरियर से क्रमबद्ध अवसान की इस बेला ...."


और मैने टिप्पणी की थी,...."ये अवसान क्यूँ....हमने तो अभी आपको पढना शुरू किया है....आपका ये ब्लोगिंग कैरियर निर्बांध  यूँ ही चलता रहे..नए पाठक जुड़ते रहें..."


हाँ!!  दादा...हमने तो ब्लॉग जगत से नाता नहीं तोड़ने का आग्रह किया था और आपने  इस जगत से ही नाता तोड़ लिया..



शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

हंगामा है क्यूँ बरपा...बस एक फिल्म ही तो है ,"आरक्षण"


पिछले कुछ दिन...सबकी तरह हमारे भी बहुत ही व्यस्त रहे....बड़े करीब से जनतंत्र की धड़कन  सुनने को मिली. आगे क्या होगा...ये तो किसी को नहीं पता...पर लोगों को अपने अंतर की आवाज़ का अहसास तो हुआ..कि वो आज भी जिंदा है...बुलंद है...और  ग्लास हाउस में रहने वालों को सुनने के लिए मजबूर कर सकती है.

स्कूल के दिनों में ही ये पंक्तियाँ लिखी थीं....काश!!  इस बार ये सच ना हों

तूफ़ान तो आया  बड़े  जोरों  का,  लगा  बदलेगा  ढांचा
मगर चंद  पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दि
ल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ


इस बीच, मौका लगा तो फिल्म,'आरक्षण' भी देख डाली. काफी विवाद हुए, हैं, इस फिल्म को लेकर....ब्लॉग पर पोस्ट्स भी जरूर लिखी गयीं होंगी..पर कुछ घरेलू व्यस्तताओं की वजह से, ना तो मैं ब्लॉग पर इस फिल्म के विषय में कुछ पढ़ पायी ना ही..अखबारों में. अच्छा ही हुआ...मेरे ऊपर कोई विचार हावी नहीं हो पाए. 

पर मेरी समझ में नहीं आया...इतना हंगामा किस बात पर??...'आरक्षण' हमारी दुनिया का सच तो है ही...क्यूँ है??...होना चाहिए?? ..नहीं होना चाहिए??..इस पर सबके दीगर विचार हैं और इस फिल्म में अलग-अलग पात्रों ने ..इन्ही विचारों को स्वर दिया है,बस इतना ही.
 ये सारे मुद्दे हमारे समाज में विद्यमान हैं...और इन पर खूब  बहसें भी होती हैं... प्रकाश झा ने बड़ी कुशलता से इन सारे मुद्दों की एक झलक इस फिल्म में दे दी है. पूरी फिल्म, इसी मुद्दे पर आधारित नहीं है. लेकिन अपनी तरफ ध्यान आकृष्ट कर सोचने को जरूर मजबूर करती है.

फिल्म वही बरसो पुराने  बॉलिवुड फौर्मुले....."बुराई पर अच्छाई की जीत" पर आधारित है. और इसे दर्शाने का माध्यम चुना गया है..मशरूम की तरह उगते कोचिंग क्लासेज़ को. एक मोटी रकम लेकर ये कोचिंग क्लासेज़ बच्चों और उनके अभिभावकों के मन में एक सुनहरे भविष्य का ख्वाब बो देते हैं और इसी की वजह से कॉलेज में अध्यापक पढ़ाते नहीं. 
पिछड़े वर्ग के कमजोर विद्यार्थियों का पक्ष लेने के आरोप में एक कॉलेज के प्रिंसिपल 'अमिताभ बच्चन, को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ता है. विलेन बने 'मनोज बाजपेई ' अब नए प्रिंसिपल हैं और बिलकुल फ़िल्मी स्टाईल में धोखा देकर... अमिताभ के घर में ही अपना कोचिंग इंस्टीच्यूट चलाते हैं.( एक ही शहर में रहते हुए ये प्रिंसिपल साहब को पता नहीं चलता, आश्चर्य का विषय है. :)) 



प्रिंसिपल का बंगला छोड़ने के बाद,अमिताभ अपने परिवार के साथ एक तबेले में जाकर आस-पास के गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने लगते हैं. इसकी प्रेरणा अवश्य ही "पटना ' के सुपर थर्टी क्लासेज़ से ली गयी है. यहाँ तक कि नाम भी 'सुपर तबेला' क्लासेज़ रखा गया है. 



शायद लोगों को इस सुपर थर्टी क्लासेज़ के बारे में पता होगा...



पटना में  'आनंद कुमार'   नामक एक सज्जन ने 2002 में एक कोचिंग क्लास की स्थापना की, जिसमे गरीब वर्ग के ३० मेधावी बच्चों को वे चुनते हैं. 
सुपर थर्टी के आनंद कुमार  

और फिर उन्हें मुफ्त में रहने, खाने  और पढ़ने की सुविधा प्रदान करते हैं. आनंद कुमार   की माँ 'जयंती देवी' इन सब बच्चों के लिए खाना बनाती हैं. ये सारे बच्चे मजदूरों के..खोमचे वालों के..रिक्शा खींचने वालों के बच्चे हैं. 2002 में जब उन्होंने इस कोचिंग संस्थान की शुरुआत की थी, तब से अब तक 242 छात्र आई.आई.टी. की परीक्षा में सफल रहे हैं. 2008 से पूरे तीस  के तीस  बच्चे आई.आई .टी. की  परीक्षा में सफल आते रहे हैं. 



2003 से 2006 तक छात्र, आनंद कुमार के घर के पास एक टीन के शेड में पढ़ते थे, इसके बाद उन्होंने अपने स्कूल में उन्हें शिफ्ट कर दिया जहाँ वे इन बच्चों के ऊपर आने वाले खर्च को पूरा करने के लिए अपेक्षाकृत संपन्न बच्चों को कोचिंग देते हैं. 

आनंद कुमार, एक जाने-माने गणितज्ञ  हैं...उनके पेपर्स कई अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं. 1994 में उन्हें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से 'रिसर्च' का ऑफर आया था. पर पैसों की कमी की वजह से वे नहीं जा सके. और उसके बाद से ही उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे कुछ ऐसा करेंगे कि पैसे के अभाव में गरीब मेधावी बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित ना हों और उन्होंने 'सुपर थर्टी' की परिकल्पना कर ली. पर सरकार से और बड़े बड़े उद्योगपतियों से मिली मदद की पेशकश  को उन्होंने ठुकरा दिया है.
इस कोचिंग क्लास को Times Magazine ने  " Best of  Asia 2010 "चुना है.

( किसी विदेशी फिल्म मेकर द्वारा सुपर थर्टी पर बनाई गयी documentary   भी देखी थी..जिसमे उस टिन शेड के आस-पास बेतरह गन्दगी बिखरी पड़ी थी...और होस्टल में दो बच्चे अपनी अपनी किताब खोले पढ़ रहे थे. बीच में एक कटोरी में भुने चने रखे थे...जिसे दोनों बीच-बीच में खा रहे थे..)

अमिताभ बच्चन भी इसी तर्ज़ पर सैफ अली खान, प्रतीक बब्बर और अपनी बेटी के साथ मिलकर बच्चों को मुफ्त कोचिंग देते हैं. बच्चों के अच्छे रिजल्ट देखकर 'मनोज बाजपेई' की कोचिंग क्लास से भी सारे बच्चे 'सुपर तबेला ' क्लासेज़ का रुख कर लेते हैं. अब कुछ नेताओं के साथ मिलकर इस तबेले को तुडवा कर एक सरकारी गोदाम बनवाने की साजिश की जाती है. 

और आजकल देश की सड़कों पर जो दृश्य देखे जा रहे हैं...वे ही परदे पर साकार हो रहे थे. हज़ारों की तादाद में लोग निहत्थे बुलडोज़र के सामने खड़े हो जाते हैं. इस विशाल जनमानस को देख, नेता-व्यवसायी-भ्रष्ट प्रिंसिपल का नेक्सस बेबस हो जाता है. और तभी कॉलेज कि ट्रस्टी हेमा मालिनी अवतरित होती हैं और सबकुछ ठीक हो जाता है.

परन्तु अगर प्रकाश झा, कोचिंग क्लास की पढ़ाई की तुलना में कॉलेज में दी जाने वाली शिक्षा की श्रेष्ठता साबित करते...तो समाज की असली भलाई होती पर वे एक फिल्म बना रहे थे...जिसे सफल बनाने के लिए बहुत सारे कम्प्रोमाइज़ करने पड़ते हैं. फिल्म के दिखाए जाने वाले प्रोमोज में भी बस आरक्षण से सम्बंधित दृश्य ही बार-बार दिखाए 
जा रहे हैं..

फिल्म कई जगह बेहद संवेदनशील हो जाती है और दर्शकों का मन द्रवित कर जाती है.

अमिताभ बच्चन के अभिनय की प्रशंसा के लिए अब शब्द मिलने मुश्किल हैं...पिछड़ी जाति के सैफ अली खान...को जिसे बचपन से उन्होंने सहारा दिया था,उच्च शिक्षा लिए अमेरिका भी भेजा...उसे जब कॉलेज का अनुशासन भंग करने के लिए डांट कर गेट आउट कहते हैं...तो गुस्से से भरा चेहरा पल भर में असीम दर्द में तब्दील हो जाता है...कॉलेज छोड़ते समय पलट कर उस कॉलेज को देखना... सारे भाव बिना एक शब्द बोले ही व्यक्त हो जाते हैं. 

दीपिका आजकल के युवा बच्चों की तरह..अपने आदर्शवादी पिता को बहुत कुछ कह जाती हैं कि उन्होंने विश्वास कर घर अपने दोस्त के बच्चों को दे दिया...और अब बेघर हो गए. उसे एक ग्रेस मार्क नहीं लेने  दिया..और वो मेडिकल में जाने से वंचित रह गयी...पर बाद में पछताते हुए वो जब पीछे से अमिताभ को जकड़ कर रोती है तो हॉल में कई आँखें गीली हो जाती हैं.



'आरक्षण' के विषय पर सैफ और दीपिका में दूरी आ जाती है...तो  दोनों के उदास चेहरे ...अँधेरा...बारिश और बैकग्राउंड में बजता गीत..हॉल में सन्नाटा  सा ला देते हैं.


एक और बड़ा प्यारा सा दृश्य है फिल्म ,का..जहाँ अमिताभ सुबह चार बजे उठ कर कुछ बच्चियों को रिविज़न करवाने जाते हैं...कमरे में एक तरफ पिता सोए हुए हैं.....जिस तख़्त पर माँ सो रही हैं..उसी पर एक किनारे अमिताभ बैठ कर उन  बच्चियों को पढ़ाते  हैं. (मैने तो नहीं देखा...पर अपने गाँव के एक शिक्षक के बारे में सुना है वे यूँ ही चार बजे उठ जाते थे और बोर्ड के इम्तिहान की तैयारी करनेवाले बच्चों के घर का चक्कर लगाते थे और खिड़की से आती हुई आवाज़ से अंदाजा लगाते थे कि वे बच्चे पढ़ रहे हैं या नहीं..जिस घर की खिड़की से आवाज़ नहीं आई फिर तो वे नहीं...उनकी छड़ी बोलती थी )



अमिताभ की पत्नी के रूप में तन्वी आज़मी और बेटी के रूप में दीपिका 

पादुकोणे का अभिनय बहुत ही सहज है. सैफ ऐसे intense role  में 

अच्छे लगते हैं और अच्छा निभाया है उन्होंने. सम्पान घर के युवा..छात्र प्रतीक बब्बर के रोल पर ज्यादा मेहनत नहीं की गयी हैं. मनोज बाजपेयी ने तो भ्रष्ट प्रिंसिपल का रोल कुछ ऐसे निभाया है...कि दर्शक नफरत करने लगें उनसे. 

निर्देशन अच्छा है....पर स्क्रिप्ट थोड़ी ढीली है...इंटरवल के बाद फिल्म  धीमी हो जाती  है. इस फिल्म में गीत -संगीत की ज्यादा गुंजाईश नहीं थी..पर 'मौका..मौका...गीत होठों पर चढ़ने वाला है. 

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

भाई-बहन के निश्छल स्नेह के कुछ अनमोल पल

राखी आ गयी....और हमेशा की तरह....ये दिन तो भाई-बहनों का ही है...ये एक दिन ऐसा है... जब भाई सात समंदर पार हो....कितना भी व्यस्त हो, किसी काम में आकंठ डूबा हो...बहन की याद आ ही जाती है और कैसे नहीं आएगी?? बहन इतने दिल से जो याद करती है  


ब्लॉग जगत में अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए..पर छोटे (बड़े भी) बहन - भाइयों का स्नेह भरपूर मिला. इन आभासी बहन-भाई के रिश्ते पर बड़ी बहसें होती हैं....ना जाने कितनी पोस्ट लिखी जा चुकी हैं. कईयों का कहना है कि किसी मंसूबे के तहत..टिप्पणी पाने के उद्देश्य से ये रिश्ते बनाए जाते हैं....अब उनलोगों की  ऐसी सोच की कोई वजह होगी...पर मैं कैसे मानूं ??...जब मेरे अनुभव  बिलकुल ही अलग हैं. 


जब कोई मेल भेजते हुए अचानक दीदी लिख जाता है....और मेरे ख़ुशी प्रकट करने पर कहता है.....मैं अनजाने में ही 'दीदी' लिख गया...फिर दुबारा पढ़ा, तो ध्यान आया 'दीदी' लिखा है....फिर मैने उसे ऐसे ही रहने दिया. 


कितने ही लोग..दीदी,रश्मि दी या 'रश्मि बहना' कहते हैं...पर ना तो मैं उनकी सारी पोस्ट पर नियमित हूँ...और ना ही वे मेरी हर पोस्ट पर आते हैं.फिर टिप्पणियों की लेन-देन  की बात कहाँ से आई?? 


मैं तो इन भाइयों के स्नेह से इतनी अभिभूत हूँ कि शब्द नहीं मिलते...जब 'रवि धवन' शादी की बारात लेकर निकल रहा होता है..और मेरा आशीर्वाद लेने के लिए फोन करता है...मुझे बैंड की आवाज़ भी सुनाई देती है..और मैं डांट देती हूँ..."ये समय मिला है..तुम्हे फोन करने का??....मेरा आशीर्वाद सदा साथ है...अभी फोन रखो "

एक और ब्लोगर भाई...फेरों से उठता है....और फोन मिलाता है...मेरे पूछने पर कि सारी रस्मे हो गयीं?..कहता है...बस अभी-अभी पूरी हुई हैं. मुझे फोन पर लोगों की हलचल सुनाई देती है...और मैं कहती हूँ...'फोन रखो बाद में बात करती हूँ'...वो अपनी 'सद्द्यविवाहिता  दुल्हन' से भी बात करवाता है...और उसे मजाक में 'मिसेज' का संबोधन देने वाली मैं पहली होती हूँ...दुल्हन का  लाल चेहरा मुझे हज़ारों मील दूर बैठे भी 
दिखाई दे जाता है...:)


और मैं अपने इन भाइयों से अब तक मिली नहीं हूँ . 

ओह!! अब अपने किस्से ही सुनाती रहूंगी तो आप सब बोर हो जायेंगे...लीजिये कुछ दूसरे भाई-बहनों की प्यार भरी बातें पढ़िए...पिछले 
साल पोस्ट की थी....पढ़ रखी हो तो दुबारा पढ़िए...अच्छी लगेंगी..:)
 

हम मध्यमवर्गियों का इतिहास में कहीं नाम नहीं होता पर रस्मो-रिवाज़,त्योहार,परम्पराएं..एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन्ही के द्वारा हस्तांतरित की जाती है. राखी में भी बहने बड़े शौक से राखी खरीदती हैं या खुद बनाती हैं, मिठाइयां  बनाती हैं,भाई शहर में हुआ तो राखी बाँधने जाती हैं  वरना दिनों पहले ,राखी पोस्ट की जाती है, भाई भी उसी स्नेह से इसका प्रतिदान करते हैं.

पर जब भाई -बहन का यही प्यार निम्न वर्ग और उच्च  वर्ग में देखने को मिलता है तो बड़ी सुखद अनुभूति होती है.

एक बार मैं अपने दादा जी के पास गाँव गयी हुई थी.देखा हमारी गायें चराने वाला चौदह -पंद्रह वर्ष का एक किशोर, मेरे दादा जी से सौ  रुपये मांग रहा है (तब वह एक बड़ी रकम थी ) कुछ दिन बाद उसकी माँ ने बताया कि शिवराम अपनी बहन 'प्रमिला' से मिलने पहली बार उसके ससुराल गया .प्रमिला चावल का पानी निकाल रही थी (भोजपुरी में कहें तो मांड पसा रही थी )..उसने जैसे ही सुना, भाई आया है, ख़ुशी में उसका ध्यान बंट गया और गरम पानी से उसका हाथ जल गया. शिवराम अंदर गया तो देखा,उसकी बहन पुआल पर सोती है. घर आकर वह अपनी माँ से बहुत झगडा कि ऐसी जगह उसकी शादी कर दी कि उसका हाथ जल गया और वह पुआल पर सोती है. उसने मेरे दादाजी से एडवांस पैसे लिए और एक चौकी खरीद,बैलगाड़ी पर लाद, अपनी बहन के ससुराल पहुंचा आया.

ऐसा ही प्यार हाल में देखा. मेरी कामवाली मराठी  बाई, 'माँ बीमार है' कहकर एक दिन अचानक गाँव चली गयी.उसकी बहन काम पर आने लगी तो बताया कि उसके पति ने बहुत मारा-पीटा है..इसीलिए वह चली गयी है. करीब दस दिन बाद वह वापस आई, उसने कुछ नहीं बताया तो मैने भी नहीं पूछा...अचानक उसके थैले में से मोबाइल बजने लगा.मैने यूँ ही पूछ लिया ,'नया मोबाइल लिया?"

तब उसने सारी बात बतायी कि यह सब सुनकर ,उसका भाई चार लोगों के साथ गाँव से आया और उसके पति की अच्छी धुनाई की (कितने मध्यमवर्गीय भाई हैं जिन्होंने यह सुन, अपने जीजाजी को दो झापड़ रसीद किए हों कि मेरी बहन पर हाथ क्यूँ उठाया ?..खैर..) एक कमरा किराये पर ले उसका सारा समान वहाँ शिफ्ट किया और बहन को एक मोबाइल खरीद कर दिया कि जब भी जरूरत हो,बस एक फोन कर ले .इसका  परिणाम भी यह हुआ कि उसका पति खुद माफ़ी मांगता हुआ साथ रहने आ गया.

भाई-बहन का ऐसा  ही निश्छल स्नेह ,उच्च वर्ग में देख भी आँखें नम हो जाती हैं.

अमिताभ बच्चन जब कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान भयंकर रूप से बीमार  पड़े थे ,उन्हीं दिनों राखी भी पड़ी थी और डॉक्टर के मना करने के बावजूद ,अमिताभ बच्चन ने 'सोनिया गांधी' और रमोला (अजिताभ की पत्नी ) की राखी कलाई से नहीं उतारी थी. बाद में सोनिया गाँधी और अमिताभ बच्चन  के सम्बन्ध मधुर नहीं रहें.पर जब तक निश्छल प्रेम था,उसे नज़रंदाज़ कैसे किया जा सकता है? पता नहीं कितने लोगों को पता है,सोनिया गाँधी की शादी ,हरिवंश राय बच्चन के घर से हुई थी ,मेहंदी,हल्दी की रस्म वहीँ अदा की गयी थी और इसी नाते अमिताभ से भाई का रिश्ता बना.

संजय दत्त से सम्बंधित घटना बहुत ही द्रवित करनेवाली है. एक प्रोग्राम में उनकी बहन प्रिया बता रही थीं. संजय दत्त सबसे बड़े थे,इसलिए दोनों बहनों को हमेशा इंतज़ार रहता कि राखी पर क्या मिलेगा,वे अपनी फरमाईशें भी रखा करतीं.पर जब संजय दत्त जेल में थे,उनके पास राखी पर देने के लिए कुछ भी नहीं था. उन्हें  जेल में कारपेंटरी और बागबानी  कर दो दो रुपये के कुछ कूपन मिले थे. उन्होंने वही कूपन , बहनों को दिए. जिसे प्रिया ने संभाल कर रखा था और उस प्रोग्राम में दिखाया. सबकी आँखें गीली हो आई थीं.

ऋतिक रौशन का किस्सा कुछ अलग सा है. उनका और उनकी बहन सुनयना के कमरे तो अलग अलग थे पर उन्हें बाथरूम शेयर करना पड़ता था. ऋतिक रौशन को सफाई पसंद थी जबकि टीनएज़र लड़कियों सी सुनयना  के क्रीम, लोशन,क्लिप्स, नेलपौलिश इधर उधर बिखरे होते. उनका रोज झगडा होता. फिर सुनयना  की शादी हो गयी.ऋतिक जब दूसरे दिन  बाथरूम में गए तो एकदम साफ़ झक झक करता बाथरूम  देख हैरान रह गए.और इतनी  याद आई बहन  की कि तौलिया आँखों से लगाए बाथरूम के फर्श पर ही बैठ रोने लगे. 


ये थे भाई बहनों के निश्छल स्नेह के कुछ खट्टे-मीठे पल.

मेरे सारे भाइयों  को दुनिया की ढेssssssssर  सारी खुशियाँ मिलें.

सफलताओं के शिखर हो,उनके कदमो तले
हर डाली पर जीवन की,नव पुष्प खिले,
दीपों की माला सी, पाँत खुशियों की जगमगाए
सुख,समृधि, शांति ,से उनका दामन भर जाए 
.

शनिवार, 6 अगस्त 2011

इक था बचपन...बचपन के प्यारे से दोस्त भी थे...

ब्लॉग ,गुजरे लम्हों को याद करने का एक बहाना सा बन गया है...सारे संस्मरण गुजरी यादों के सागर ही तो हैं....जिनमे डूबना-उतराना मुझे कुछ ज्यादा ही भाता है.


जब फिल्मो से जुड़े संसमरण लिख रही थी...उसी समय सोच लिया था...इसी तर्ज़ पर ..अपने दोस्तों...विद्यालयों  और किताबों से जुड़े संस्मरण भी लिखूंगी...और  'फ्रेंडशिप  डे' से उपयुक्त और कौन सा अवसर हो सकता है...दोस्तों पर लिखने का...
वैसे , इस तरह की पोस्ट लिखने की प्रेरणा 'अभिषेक 'के ब्लॉग से मिली...उसने जितनी अच्छी तरह अपने दोस्तों के बारे में लिखा है...मुझे संदेह है कि मैं उतना अच्छा लिख पाउंगी..पर कोशिश से क्यूँ बाज़ आऊं :)


 मेरी प्रारम्भिक शिक्षा 'रांची' में हुई. 'चिल्ड्रेन्स  एकेडमी' में एडमिशन हुआ था...उन दिनों 'जूनियर के.जी.', 'सीनियर के.जी'. नहीं..'के.जी वन', 'के जी टू' होते थे...इसलिए याद है क्यूंकि  अपनी मौसी -मामा को ऊँची कक्षाओं में और कॉलेज में देख मैं बड़ी निराश होकर कहती.."हम तो अभी के जी.टुइए में हैं..." और इस बात को कई बार दुहराया जाता.
 तब शायद मैं 'के जी टुइए' में थी..तभी एक दोस्त बनी.."मसूदा' सिर्फ नाम ही याद है...चेहरा बिलकुल भी नहीं याद. :( एक बार मैं बुखार के कारण स्कूल नहीं गयी थी...और मसूदा ने चार लाइन  वाली नोटबुक से पेज निकाल दो पंक्ति की एक  चिट्ठी लिखी थी..."डियर रश्मि...हाउ आर यू ..मसूदा " इतने में ही पेज भर गया था. :) और अपने चपरासी के हाथों वो चिट्ठी भेजी...पूरे घर भर में वो चिट्ठी हाथो- हाथ घूमती रही..नाना-मामा-मौसी सब हंस-हंस कर पढ़ते रहे...और सबसे चर्चा करते रहे. और मुझे उनकी ये हरकत बहुत ही अजीब लगी थी( नागवार भी गुजरी  थी) ...कि मेरे नाम की चिट्ठी की इतनी  चर्चा क्यूँ हो रही है...जबकि मेरी मौसी अपने पास में रहने वाली सहेली  को रोज ही कुछ ना कुछ लिखकर मेरे हाथो भेजती थी..'ये किताब भेज दो..तो  वो नोट्स भेज दो..'तब तो उनकी चिट्ठी कोई नहीं पढता...तब नहीं पता था कि ..तीन-चार साल के बच्चों का यूँ आपस में लेटर भेजना बड़ा अटपटा लगा होगा.

मसूदा के पिता का ट्रांसफर हो गया और वो स्कूल छोड़ चली गयी....इसके बाद एक फ्रेंड याद है, 'विनीता' . उस से ज्यादा उसके 'सेंटेड रबर' याद हैं...उसके इरेज़र के किनारे हरे रंग के और सुगन्धित होते थे...और उसकी नज़र बचा मैं उसे सूंघ लिया करती थी...शायद घर पर कभी फरमाईश नहीं की होगी..वर्ना ननिहाल में पूरी कर ही दी जाती..पर नानी ने इतनी  उपदेशात्मक कहानियाँ सुना-सुना कर जैसे ब्रेन वाश ही कर दिया था कि...किसी की नक़ल..बराबरी नहीं करनी चाहिए...ये ..वो..पता नहीं..क्या क्या जिंदगी में नहीं करना चाहिए (हाय!! आज के बच्चे.. ना तो  नानियों को सीरियल देखने से फुरसत  है कि वे कहानियाँ सुनाएँ....ना ही बच्चों को अपने होमवर्क और कार्टून नेटवर्क से कि वे कहानियाँ सुनें ) 

एक बार मेरी मौसी ने मुझे एक सुन्दर सी गुड़िया बना कर दी थी...जरी की साड़ी में लम्बे बालों वाली गहनों से सजी गुड़िया. मैं उसे अपने छोटे से स्टील के बक्से में छुपा, स्कूल ले गयी थी... विनीता को दिखाने.(जब अपने बच्चों के टिफिन बॉक्स उनके स्कूल बैग में डालते उनके खिलौने...दिख जाते थे तो अपने दिन याद आ जाते थे , ये सिलसिला शायद पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है )  विनीता भी अपने बक्से में एक हरे रंग का पत्थर लाई थी मुझे दिखाने के लिए...जो उसके पिताजी कहीं टूर पर गए थे तो लेकर आए थे. मैने उस पत्थर के बदले में वो गुड़िया विनीता को दे दी. बचपन में  मैं कोई टॉम बॉय नहीं थी..पर गुड़ियों से भी कभी नहीं खेलती..इसीलिए शायद गुड़िया से मोह नहीं रहा हो...पर मेरी मौसी आज तक सुनाती है कि इतने प्यार से और इतनी मेहनत से उसने गुड़िया बनाई थी...और मैने पत्थर के एक टुकड़े के बदले में किसी को दे दिया.:)  विनीता काफी दिनों तक हमारे घर में याद की जाती रही ...अपने पुकार के नाम ' बुन्नु' के कारण. मेरी एक मौसी को वो नाम इतना पसंद था कि कई साल बाद अपनी बेटी का नाम उन्होंने 'बुन्नु' रखा...

मेरा छोटा भाई भी जब स्कूल जाने की उम्र का हुआ तो मैं पापा की पोस्टिंग वाले शहर में आ गयी...और एक ही स्कूल में हम दोनों का नाम लिखवाया गया...वहाँ एक ही साल पढ़ी...कुछ दोस्त भी बने...माधुरी..अशोक..हरेकृष्ण..कंचन..पर कुछ ख़ास यादगार नहीं घटा...इतना ध्यान है कि पता नहीं क्यूँ और किस विषय पर ...मैने  एक कार्टून बनाया था और उस पर लिख दिया कंचन...क्लास में सब तो बहुत हँसे थे..पर कंचन बेहद नाराज़ हो गयी थी...और मुझसे बात करना बंद कर दिया था...और वो दिन और आज का दिन...फिर कभी कोई कार्टून नहीं बनाया...कंचन को कभी ये पता भी नहीं चल पाया होगा कि मेरे अंदर के उभरते कार्टूनिस्ट को हमेशा के लिए ख़त्म करने में उसका हाथ है { अब कहने में क्या जाता है...:) }

एक साल के बाद ही पापा का उस शहर  से तो ट्रांसफर हो गया पर कहीं पोस्टिंग नहीं हुई थी...(ये बात प्राइवेट नौकरी वाले समझ ही नहीं पाते कि सरकारी नौकरियों में ऐसा होता है) हमारा साल ना खराब हो इसलिए हमें गाँव भेज दिया गया. और अंग्रेजी स्कूल के थर्ड स्टैण्डर्ड के बाद मेरा नाम सीधा छठी कक्षा  में लिखवा दिया गया. ये कहा जाता था कि अंग्रेजी मीडियम  का स्टैण्डर्ड ऊँचा होता है. मेरे क्लास में सिर्फ चार लडकियाँ थीं और मेरी उम्र से बहुत बड़ी...वे तभी से अपने दहेज़ की  तैयारियों में जुटी हुई  होतीं. गाँव में लडकियाँ थोड़ी बड़ी हुई नहीं कि उन्हें क्रोशिया और सूई धागा थमा दिया जाता था...अपने भावी घर को सजाने संवारने के लिए वे टेबल क्लॉथ...तकिया के खोल..चादरें... फोटो फ्रेम बनने में जुट जातीं.. जिनमे  हनुमान जी...बत्तख..खरगोश वगैरह काढ़े जाते ...दसवीं पास करते ही या स्कूली पढ़ाई के दौरान ही उनकी शादी कर दी जाती....और तब तक बक्सा भर कर उनके हाथ की कारीगरी के नमूने तैयार हो जाते. 

मेरा मन उन दिनों सिर्फ खेलने -कूदने में ही रहता था....लिहाज़ा...तीसरी-चौथी में पढ़ने वाली  बेबी-डेज़ी..अनीता..सुनीता..मीरा..राजकुमार...दीपक..भोला..वगैरह ही मेरे दोस्त होते.. स्कूल से आते ही फ्रॉक  के घेरे में थोड़ा भूंजा डाल कर फांकते हुए लडकियाँ मेरे घर  धमक जातीं. लड़के पैंट के पॉकेट में भूंजा डाले होते. अब शहर से आने के कारण इस तरह फ्रॉक में भूंजा खाना मुझे नहीं रुचता...और उन्हें ये बात अजीब सी लगती. मुझे तैयार होने में थोड़ी देर लगती पर वे लोग इंतज़ार करते...फिर तो अँधेरा होने तक..हमलोग कबड्डी, बुढ़िया कबड्डी... इक्खट दुक्खट..कित-कित  खेला करते....कभी कभी गुल्ली डंडा भी....आस-पास के सारे बच्चे हमारे घर के सामने इकट्ठे होते..और बेतरह शोर मचाते....दादा-दादी कुछ नहीं कहते...लेकिन हमारे यहाँ काम करनेवाली काकी...जरूर कहतीं..'लग गईल ..मैना झोंझ" 

बेबी,डेज़ी...मैं और मेरा भाई 'नीरज' साथ में स्कूल जाया  करते थे. एक बार घनघोर बारिश हो रही थी...हमारे पास रेनकोट थे..पर मुझे पहनने में इतनी शर्म आ रही थी...क्यूंकि बेबी,डेज़ी के पास नहीं थे...वे दोनों केले के बड़े बड़े पत्तों से खुद को ढक कर बारिश से बचने की नाकाम कोशिश करतीं...और मैं सर झुकाए बारिश के पानी से तो बच जाती पर शर्म से पानी पानी होती आगे बढ़ जाती. आज भी...गाँव की उस पगडण्डी पर फ्रॉक में केले के पत्ते ओढ़े वो छोटी सी लड़की आँखों के आगे साकार है. स्कूल में ना के बराबर उपस्थिति होती...और एक क्लासरूम बंद कर के दोनों बहने और कुछ और भीगी हुई लडकियाँ...सिर्फ समीज पहने...खिड़की के पल्ले पर अपने फ्रॉक सूखने को डाल देतीं...और हम उसी क्लास में इक्खट दुक्खट खेलना शुरू कर देते.

एक बार कुछ दोस्तों की आपस में लड़ाई हो गयी. और मैने पता नहीं किस दोस्त का साथ देने के लिए अपने सर की...झूठी कसम खा ली...सबने मेरा विश्वास कर लिया...सुलह हो गयी....लेकिन मैं अंदर से बुरी तरह डर गयी....कि अब मैने झूठी कसम खाई है...अब तो मर ही जाउंगी...और मैं दालान में जाकर चुपके -चुपके रोती..कि मेरे परिवार वाले... मेरे दोस्त..सब मुझे याद करके कितना रोयेंगे..( तब 'मिस'करने जैसे शब्द पता नहीं थे...भाव पर वही थे) पर मरने से डर नहीं लगता क्यूंकि उस समय मेरे लिए मृत्यु का अर्थ था...'आँखे बंद कर सो जाना और मर जाना ' ....रोज रात में यही सोच कर  सोती....कि सुबह तक तो मैं मर जाने वाली हूँ..पर पूरे एक हफ्ते तक...सुबह आँखें  खुलने  पर खिड़की से प्रसाद काका को बाहर झाड़ू लगाते....गाय -बैलों को दाना-पानी देते ....दादा जी को दातुन करते हुए आस-पास वालों से बातें करते देखती तो राहत मिलती  कि अब तक झूठी कसम ने असर नहीं किया है....और तब से ही ये कसम-वसम  मानना छोड़ दिया :)

(वे मेरे सारे दोस्त जहाँ भी हों उनके स्वस्थ-सुखी जीवन के लिए हज़ारों दुआएं...आप सब मित्रों को भी 'फ्रेंडशिप डे' की हार्दिक शुभकामनाएं.)

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

जब यादगार के तौर पर एक कॉफीन के सिवा कुछ नहीं रहता.

अक्सर गरीब देश के लोगो को नौकरी का लालच दे..दूसरे देशों में ले जाने के बारे में हम पढ़ते हैं...हमें उनके हालातो के बारे में भी मालूम होता है...पर सरसरी तौर पर. लेकिन जब इन्ही स्थितियों का शिकार हुए किसी के जीवन के पन्ने एक-एक कर हमारे सामने खुलने लगते हैं...तो लगता है..कहाँ है ईश्वर??


पिछले दिनों टी.वी. पर एक डौक्यूमेंट्री देखी जो दिल दहला गयी. 

पप्पू एक खुशमिजाज़ बंगला देशी युवक है..पढ़ा लिखा है...पर कोई पक्की नौकरी नहीं है.....कविताएँ लिखता है...मधुर गीत गाता है...ट्यूशन पढाता है. घर में सिर्फ  माँ और एक विधवा बहन अपने दो बच्चों के साथ है...पिता को वह बचपन में ही खो चुका है..माँ कपड़े सिल कर गुज़ारा करती है...आर्थिक परेशानियों के बीच जिंदगी की गाड़ी चल रही है..पर परिवार में आपसी प्यार बहुत है...पप्पू  माँ का बहुत ध्यान रखता है...घर में झाड़ू लगा देता है....माँ की साड़ी में कलफ लगा...इस्त्री  कर देता है...माँ से हमेशा कहता है...'अब इतना काम मत किया करो.." बहन के बच्चों की देखभाल करता है...उसके छोटे बेटे को नहलाना -धुलाना-खिलाना सब वही करता है.

एक व्यक्ति उस से दोस्ती गांठता है...उसके घर भी आना-जाना शुरू कर देता है....और अपने मीठे व्यवहार से सबका दिल जीत लेता है. वह पप्पू को सलाह देता है कि उसकी रिक्रूटमेंट एजेंसी के जरिये वो क्यूँ नहीं मलेशिया चला जाता?.. ..वहाँ से वह हर महीने हज़ारों रुपये (टका ) घर भेज सकेगा. बस उसे कुछ पैसों का इंतजाम करना होगा...पप्पू की  माँ के पास कुछ जमीन थी...जिसे उसने कितने बुरे वक़्त आने पर भी नहीं बेचा था....पर अब बेटे के सुखद भविष्य के सपने सच करने के लिए वो जमीन बेच देती है...कुछ क़र्ज़ भी लेती है और पप्पू मलेशिया चला जाता है.

उसके जाने के दिन माँ...पुलाव और खीर बनाती है...पर कवि ह्रदय पप्पू कहता है,..उसे अपने देश का राष्ट्रीय भोजन करना है और वह है...'बासी भात,प्याज और हरि मिर्च' पप्पू कहता है,...विदेश से लौटने के बाद भी वो यही खायेगा. एयरपोर्ट भी वो टैक्सी में नहीं..अपने राष्ट्रीय वाहन साइकिल रिक्शा में जाता है.

इसके बाद काफी दिनों तक पप्पू  की कोई चिट्ठी नहीं आती. उसकी माँ बहने बार-बार रिक्रूटमेंट एजेंसी में जाती हैं...तो वे कहते हैं...जाकिर हुसैन के नाम से एक चिट्ठी आएगी...उसे खोल लेना...अब उन्हें पता चलता है कि पप्पू को फर्जी पासपोर्ट पर ले जाया गया था,जबकि इनलोगों ने उसका असली पासपोर्ट बनवाया  था...
काफी दिनों बाद उन्हें एक कैसेट मिलता है...जिसमे पप्पू ने अपनी सारी राम कहानी टेप करके भेजी है...पूरे डौक्यूमेंट्री  में वो टेप चलती रहती है. पप्पू कहता है..".मैने कोई चिट्ठी इसलिए नहीं लिखी क्यूंकि माँ तुम्हे वो सब सुनकर तकलीफ होती ...पर तुम तो माँ हो...बिना मेरे बताए ही समझ जाओगी,कि मैं तकलीफ में हूँ...इसलिए छुपाने का कोई फायदा नहीं. ..इतने दिनों बाद तुमलोगों से बात करने का मौका मिला है..तो आज मैं तब तक बोलता रहूँगा..जबतक ये कैसेट ख़त्म ना हो जाए.

और पप्पू बताता है कि उन्हें नौकरी का लालच दिया गया पर यहाँ किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी करवाई जाती है...ईंट ..बड़े बड़े पाइप उन्हें ढोने  पड़ते हैं...मजदूरी कोई नहीं मिलती और खाने के लिए सूखे हुए ब्रेड और  पानी सी दाल  मिलती है. उन्हें खुले में कचरे के पास सोना पड़ता है...एक चादर तक नहीं है बिछाने को...दिनों से वे नहाए नहीं हैं. और एक महीने से ज्यादा उन्हें एक जगह काम नहीं करने दिया जाता क्यूंकि उनके पास....प्रॉपर कागज़ात नहीं हैं. अलग-अलग देशों से लाए मजदूरों को आलू-बैंगन की तरह एक साइट से दूसरे साइट पर बेच दिया जाता है. एक जगह से लाए लोगो को एक साथ नहीं रखा जाता.
अगर ये लोग विरोध करते हैं..तो उन्हें बुरी तरह पीटा जाता है. 


जब इनसब ने मिलकर काफी विरोध किया तो इन्हें थोड़े पैसे दिए जाने लगे...वे सब कम से कम खर्च करते और पैसे बचाते. पर एक दिन पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया...और जेल जाने से बचने के लिए सारे पैसे घूस में दे दिए . पप्पू बीच बीच में बंगला गीत भी गाता  है...जिसमे उसके दिल का दर्द उभर आता है.."काली रात है...अनजान  शहर है...डर लगता है..पर मैं जाऊं कहाँ " जैसे भावार्थ हैं.
 पप्पू कहता है कि जितने पैसे उसे यहाँ आने में लगे हैं..उतना कमाने में उसे शायद २०,३० साल लग जाएँ..पर वो हार नहीं मानेगा..पैसे कमाएगा जरूर.कभी नाराज़ होकर कहता है...."इनलोगों ने हम जीते जागते लोगो का सौदा किया...अपना  घर-परिवार चलाने के लिए...अपने बीवी-बच्चों.. माँ को खुश रखने के लिए पर वे भूल जाते हैं कि जिनका सौदा कर रहे हैं...उनका भी एक परिवार है...माँ.. भाई.. बहन है. कभी निराश होकर ये भी कहता है..'मेरा तो नाम तक अपना नहीं...मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं...जैसे पप्पू मर गया हो....मैं अब एक मृतक  के सामान हूँ." 

पप्पू की माँ- बहने...एजेंसी में जाकर पप्पू की स्थिति बताती हैं और उसे वापस लाने की प्रार्थना करती हैं...तो उन्हें सब पहचानने से इनकार कर देते हैं...बहन उस दोस्त के पैर पकड़ लेती है तो वो इतनी जोर की ठोकर मारता है कि वो कई फीट दूर जाकर गिरती है. बहन बताती है कि मेरे भाई के पास अच्छे कपड़े नहीं थे तो मैने दो बार जाकर रेड क्रॉस में खून बेचा और उसके लिए शर्ट लेकर आई..पर उसे नहीं बताया..और आज उसी भाई के लिए कुछ नहीं कर पा रही" यहाँ भी उनकी हालत बहुत दयनीय हो गयी . मकान का किराया नहीं दे पाने की वजह से मकान मालिक उनकी आजीविका का साधन सिलाई मशीन उठा कर ले गया. 

पप्पू की माँ -बहनों का एजेंसी में जाकर गुहार लगना और कुत्ते की तरह दुरदुराया जाना जारी रहता है. और एक दिन उन्हें बताया जाता है कि उनका बेटा ,अमुक तारीख को वापस आ रहा है.....वे लोग आस-पास सबको ख़ुशी-ख़ुशी बताती हैं...उसके लिए बढ़िया खाना बनाती हैं...और जब एयरपोर्ट जाती हैं तो एक कॉफीन में अपने बेटे का मृत शरीर उन्हें मिलता है. पता चलता है....पुलिस ने पप्पू को शरणार्थी कैम्प में  डाल दिया गया था...और वहीँ प्रताड़ना देकर उसे मौत की  नींद सुला दिया गया. कुछ आंकड़े भी दिखाए गए कि हर साल मलेशिया के विभिन्न शरणार्थी कैम्प में मरने वालों की संख्या सौ से ऊपर ही है.

उसकी बहन ने उस कॉफीन को सम्भाल कर रखा है...क्यूंकि उसके पास उसके भाई की बस वही निशानी है...वो कहती है...मैं पूरा ध्यान रखती हूँ कि इस पर कोई खरोंच ना आजाये ,ये कहीं से टूट ना जाए...क्यूंकि मेरे भाई की यही आखिरी निशानी है..उसका एक कपड़ा...उसकी कोई भी चीज़ हमारे पास यादगार के तौर पर नहीं है. माँ सडकों पर भटकती रहती  है कि कोई भी लड़का मेरे पप्पू जैसा मिले तो मैं उसे पास बुला, दो बातें करूँ....लेकिन वो आंचल से आँखें पोंछते हुए कहती है...'उसे कोई नहीं मिलता.'
डौक्यूमेंट्री में सबसे द्रवित करनेवाला  है...पप्पू की सात वर्षीय भांजी का कथन....शायद अजनबी लोगो के सामने और कैमरे को देख वो अपने आँसू रोकने का  भरसक प्रयत्न करती है..कंपकंपाते होठों से बस इतना कह पातीहै.."मामा को अक्सर सपने में देखती हूँ कि वो सर पर हाथ रखे ,सड़क के पास उदास सा बैठा हुआ है" होंठ वैसे ही कांपते रहते हैं...और एक आँसू गालों पर ढुलक  आता है.

ये सिर्फ बंगलादेश के एक पप्पू या उसके घर की कहानी नहीं है...हमारे देश के भी कितने ही नौजवान ऐसी ही नौकरी के लालच में खाड़ी के देशों में जलालत की जिंदगी बिताने को मजबूर हैं...उनका भी अंत कुछ ऐसा ही होता है...और परिवार वाले भी यही सब भुगतते हैं.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...