इस जन आन्दोलन में कुछ जुमले बहुत उछले कि ये आन्दोलन,खाए-पिए-अघाए लोगो का है....मध्य वर्गीय लोगो का है.
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने एक उत्प्रेरक का कार्य जरूर किया है..अब मध्य वर्ग जाग गया है....और अपनी शक्ति भी पहचान गया है. वो अपने देश को जीने के लिए एक बेहतर स्थान बनाने के लिए कटिबद्ध है. मध्य वर्ग की संख्या 1996 के 26 मिलियन से बढ़कर,अब 160 मिलियन और 2015 में 267 मिलियन हो जाने का अनुमान है. यानि जनसँख्या का 40% तो सरकार और नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वे मध्य वर्ग की अस्मिता को पहचान लें क्यूंकि ये वर्ग ,उन्हें सत्ता सौंपेगा...पावर देगा तो पलट कर सवाल भी करेगा.
सर्वप्रथम अगर ये वर्ग अघाया हुआ है तो इसे किसी आन्दोलन को समर्थन देने की क्या जरूरत है? धूप-बारिश में सड़कें नापने की क्या जरूरत ? सिर्फ टेलिविज़न में चेहरा दिखाने की चाह तो उन्हें सडकों तक नहीं खींच लाई थी....क्यूंकि भले ही चौबीसों घंटे टी.वी. कैमरे चालू थे लेकिन जिस तरह हज़ारों लोग किसी रैली का हिस्सा बनते थे ,उन्हें मालूम था कि उनका चेहरा टी.वी. में नहीं दिखने वाला.कई इलाकों में तो टी.वी. कैमरे थे भी नहीं फिर भी लोगो ने रैलियाँ निकालीं....सभाओं में शामिल हुए. और इस वर्ग को अगर टी.वी. में आने का इतना ही शौक होता तो उसे वो माध्यम पता है जिसकी वजह से वे टी.वी. में आ सके. ऐसा भी नहीं है कि उनकी जिंदगी इतनी बोरिंग थी कि बस मन-बहलाव के लिए वे इस आन्दोलन में शामिल थे. यह पढ़ा-लिखा वर्ग....हर स्तर पर भ्रष्टाचार से इतना तंग आ गया है कि उसे आवाज़ उठाने की जरूरत महसूस हुई और अन्ना का आन्दोलन एक जरिया बना,अपनी बात कहने का. रोज़ अखबार में करोड़ों के घोटाले की खबर ...वर्त्तमान संसद में 76 सांसदों का यानि कि 14% सांसदों का हत्या, अपहरण, बलात्कार में लिप्त होना....भारत का निरंतर सर्वाधिक भ्रष्ट देश की रैंकिंग में नीचे की तरह उन्मुख होना...इन्हें उद्वेलित कर गया. (Transparency International's corruption index के अनुसार 2010 में भारत का स्थान 87 था ...2009 में 84 था और दस साल पहले 69 था.)
हाँ , इस वर्ग पर किराए की ही सही पर सर पर छत है और ये वर्ग भूखा भी नहीं है. लेकिन क्या इतना काफी है? वो भूखा नहीं है...इसलिए उसे आवाज़ उठाने का हक़ नही है? उसकी और जरूरतें नहीं हैं?? कई लोगो की प्रतिक्रियाएँ देखीं कि इस आन्दोलन से किसान-मजदूर नहीं जुड़े हैं...इसलिए ये आन्दोलन व्यर्थ है. अगर इस आन्दोलन से थोड़ा भी फर्क पड़ेगा...लोगो के भ्रष्ट आचरण पर थोड़ा भी अंकुश लगेगा तो इसका लाभ, सबको एक सामान मिलेगा. जो लोग ये शिकायत कर रहे हैं कि पिछड़ा वर्ग इसमें शामिल नहीं है...तो उन्हें खुद आगे आना चाहिए था...उन्हें भी इसमें सम्मिलित करने की कोशिश करनी चाहिए थी.
वे अगर सचमुच उनकी स्थिति से इतने ही व्यथित हैं तो उन्हें अन्ना की तरह किसी गाँव में जाकर एक गाँव के लोगों को आत्म-निर्भर ..खुशहाल बनाने का प्रयत्न करना चाहिए. जितने लोग इस आन्दोलन का मज़ाक उड़ा रहे हैं या इस पर उंगलियाँ उठा रहे हैं...वे लोग एक-एक गाँव ही क्यूँ नहीं अपना लेते?....आखिर 'अन्ना हजारे' के पास भी संकल्प-शक्ति के सिवा और कुछ भी नहीं था. वे लोग कहेंगे , हमारा काम तो अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करना है...फिर दूसरे लोग किसी तरह का प्रयत्न कर रहे हैं तो उसपर ऊँगली क्यूँ उठाना??...उन्हें निर्देश क्यूँ देना...कि इस मुद्दे के लिए नहीं फलां मुद्दे के लिए आन्दोलन करो. अगर वे कुछ गलत कर रहे हैं तो उन्हें टोकने का पूरा हक़ है अन्यथा क्या मध्य वर्ग को उनकी चिंता नहीं है? पर यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठायी जा रही है ..जिसपर अंकुश से सबों को राहत मिलेगी. यह एक दिन में नहीं होगा पर कहीं से शुरुआत तो करनी ही पड़ेगी.
हालांकि आरोप लगाने वालों ने जरूर कमरे में बंद होकर ही आन्दोलन देखा है.....वर्ना मैने अपनी आँखों से ऑटोवालों ...सब्जी-मच्छी बेचने वाले/वालियों को स्वेच्छा से इस आन्दोलन का हिस्सा बनते देखा है. ऑटो वाले किसी को सभा में छोड़ने आते और फिर वापस नहीं जाते...सड़क के किनारे ऑटो खड़ा करके सभा में शामिल होते. इसी तरह , वे लोग रैलियों में भी शामिल हुए . जो समय नहीं दे पाते वे लगातार अपने पैसेंजर से इस विषय पर चर्चा करते देखे जाते. यह आन्दोलन स्वतः स्फूर्त था/है...इसमें सब अपने विवेक से शामिल हुए . इतना जरूर है कि मध्यम वर्ग की स्थिति रोज़ कुआं -खोदने और पानी पीने वाली नहीं है...और इसीलिए वे ज्यादा समय इस आन्दोलन को दे सके...तो इसके लिए उन्हें शर्मिंदा होना चाहिए??.....अफ़सोस प्रकट करना चाहिए??
किसी भी आन्दोलन के प्रति उदासीन रहनेवाले इस वर्ग ने इस आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया...इसकी एक ख़ास वजह ये भी है कि इसका नेतृत्व और आह्वान साफ़-सुथरी छवि वाले लोग कर रहे हैं. सबको ये भरोसा है कि वे अपने किसी व्यक्तिगत लाभ या...प्रसिद्धि पाने के लिए ये आन्दोलन नहीं कर रहे. वे सचमुच समाज में एक बदलाव लाना चाहते हैं और जनता का भला चाहते है.
अन्ना हजारे जी का अनशन उनकी गांधीवादी छवि....और बार-बार शांतिपूर्ण आन्दोलन की अपील , इस आन्दोलन के शांतिपूर्ण होने का कारण रही ही. पर इसका श्रेय इसमें भाग लेने वाले लोगो को भी जाता है कि....बस शान्ति से वे सडकों पर आए और सभा की..कहीं कोई आगजनी..पत्थर-बाजी...किसी तरह का संपत्ति नुकसान या बाज़ार बंद नहीं हुआ. इतना अनुशासन-बद्ध होना,स्व-विवेक से ही संभव है.....किसी छड़ी के जोर पर नहीं किया जा सकता
नेता सिर्फ निम्न वर्ग और उच्च वर्ग की ही फ़िक्र करते हैं क्यूंकि उच्च वर्ग से उन्हें पैसे मिलते हैं और निम्न वर्ग से वोट. मध्य वर्ग की उन्हें कभी फ़िक्र नहीं रही. और इसीलिए मध्य वर्ग भी हमेशा उदासीन रहा. एक वजह ये भी थी...अब तक अधिकांशतः मध्य वर्गीय लोग, वे थे जो सरकार नौकरियों में थे. और अपनी जीविका के साधन और पेंशन के लिए सरकार पर निर्भर थे . इसलिए सरकार के विरुद्ध जाने की हिम्मत भी उन्हें कम ही होती थी. अब जो नया मध्यम वर्ग उभरा है उसका एक बड़ा वर्ग सिर्फ सरकार पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर नहीं है और जो निर्भर हैं वे भी सरकार से अपनी गाढ़ी कमाई से भरे गए टैक्स का लेखा-जोखा पूछने की हिम्मत रखते हैं.
हर प्रायोजित आन्दोलन किसी ना किसी वर्ग से सम्बंधित रहा है....लेकिन यहाँ सोशल नेटवर्किंग साइट...एस.एम.एस. के जरिये बिना किसी जाति-वर्ग भेद के लोग स्वेच्छा से एकजुट हुए. अन्ना हजारे जी ने मंच से 'देश की युवा शक्ति' का शुक्रिया कहा..परन्तु सीनियर सिटिज़न ने भी इस आन्दोलन में बहुत ही अहम् भूमिका निभाई है. हमारे इलाके में ज्यादातर उम्रदराज़ लोग ही सम्मिलित थे. कॉलेज जाते बच्चों...कोचिंग क्लास से निकलते बच्चों से वे बस दो शब्द कहते थे.."बेटा...हमलोगों ने तो बहुत भुगत लिया...अब कोशिश है कि तुमलोगों को इतनी करप्शन ना देखनी पड़े...इसके लिए कुछ करना चाहिए" और वे बच्चे मैकडोनाल्ड का बर्गर और CCD की कॉफी का मोह छोड़ कर उनकी बात ध्यान से सुनते और शामिल हो जाते. टी.वी. ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई....स्टेज पर यूँ अन्ना हजारे को दूसरों के लिए भूखा-प्यासा देख कितने ही लोगो के गले से निवाला उतरना मुश्किल हो जाता और वे भी आन्दोलन में शामिल होने को निकल पड़ते.
टी.वी. पहले भी कुछ ऐतिहासिक घटनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका है. कहा जाता है..मशहूर 'बर्लिन की दीवार' गिरवाने में टेलिविज़न का भी हाथ था. पूर्व जर्मनी के लोग बार-बार टी.वी. पर पश्चिम जर्मनी के लोगों का रहन-सहन देख कर ही अपने ही देश के दो टुकड़े करती उस दीवार को गिराने पर आमादा हो गए.
अन्ना हजारे के आन्दोलन ने एक उत्प्रेरक का कार्य जरूर किया है..अब मध्य वर्ग जाग गया है....और अपनी शक्ति भी पहचान गया है. वो अपने देश को जीने के लिए एक बेहतर स्थान बनाने के लिए कटिबद्ध है. मध्य वर्ग की संख्या 1996 के 26 मिलियन से बढ़कर,अब 160 मिलियन और 2015 में 267 मिलियन हो जाने का अनुमान है. यानि जनसँख्या का 40% तो सरकार और नेताओं के लिए बेहतर होगा कि वे मध्य वर्ग की अस्मिता को पहचान लें क्यूंकि ये वर्ग ,उन्हें सत्ता सौंपेगा...पावर देगा तो पलट कर सवाल भी करेगा.