मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

फुलवारी और छत वाली पिकनिक


हर साल 31 दिसंबर को कोई न कोई बचपन के उन भूले-बिसरे दिनों की याद दिला ही देता है और हम सोचते हैं ,हम भी लिख लिख कर उन दिनों को जरूर याद करेंगे {पढ़ना आपकी मजबूरी :)} . उम्र कितनी भी हो जाए पर बचपन के वे चमकीले दिन अपनी चमक नहीं खोते और यादों की गठरी में नगीने से चमकते रहते हैं.
 

सतीश चन्द्र सत्यार्थी ने जब फेसबुक पर ये लिखा ,"बचपन में गांव में एक जनवरी के दिन हम बच्चा पार्टी मिलके पिकनिक करते थे. कोई अपने घर से आटा लाता था, कोई आलू, कोई तेल-मसाले. और गाँव से बाहर मैदान वगैरह में जाके ईंट वगैरह जोड़कर चूल्हा बनाया जाता था और खाना बनता था - पूरी, परांठे, आलूदम, खीर. किसी को बनाना तो आता नहीं था तो खाना अक्सर जल जाता या कच्चा रह जाता था. लेकिन उस दिन हम बच्चा पार्टी एकदम प्राउड, सेल्फ-डिपेंडेंट टाइप रहते.

सबके घर में उ
ससे बेहतर खाना बना होता उस दिन लेकिन हमलोग घरवालों के सामने एकदम चौड़े रहते कि आज घर में नहीं खायेंगे. हमलोगों का खुद का मस्त खाना बन रहा है. घरवाले और आस-पड़ोस वाले भी मजे लेते कि हमलोगों को भी थोडा चखाओ भई. लेकिन जिसने पिकनिक में आलू-आटा-नगद या कोई और सामान न दिया हो या खाना बनाने, बर्तन धोने में योगदान न दिया हो उसको भोजन स्थल के 500 मीटर के दायरे में फटकने की भी इजाजत नहीं होती थी.

पिकनिक ख़त्म होने के बाद कालिख से काला हुआ बर्तन लेकर घर आने पर गालियों और डंडे की भरपूर संभावना होती थी. उस बर्तन को चुपके से रसोई के गंदे बर्तनों के ढेर में सरका देना कोई हंसी-खेल का काम नहीं था. उसके लिए हाई लेवल की प्रतिभा और कंसेन्ट्रेशन चाहिए होता है, गुरु
.
 


इसे पढ़कर ,इसी से मिलती जुलती याद मुझे भी हो आयी .

उस साल नव वर्ष पर ,हम ढेर सारे भाई-बहन गाँव में  थे. और हमने पहली जनवरी को पिकनिक मनाने की सोची. .मैं और नेतरहाट में पढने वाले राजू भैया ही सबसे बड़े थे ,जरूर हम दोनों में से ही किसी का आइडिया रहा होगा. मैं चाहूँ तो सारा क्रेडिट खुद ले सकती हूँ क्यूंकि राजू भैया को तो ये सब याद भी नहीं होगा  (शायद ) . पर मैं ईमानदार हूँ, ऐसा करुँगी नहीं. :) हमने ईया-बाबा के सामने अपनी इच्छा रखी . और हमारे दादा-दादी हम बच्चों की हर इच्छा पूरी करते थे .(तब इच्छाएं भी तो कितनी  मासूम होती थीं ) .घर के पास ही एक नयी फुलवारी बनी थी, जिसमें छोटे-छोटे  आम-लीची -अमरुद-महुए-आंवले  के कलम (पौधे ) लगे थे . हम रोज शाम को पौधों को देखने  जाते कि वे कितने बड़े हो गए हैं . उस फुलवारी में ही पिकनिक मनाने की इजाज़त मिल गयी . हमने गोभी-मटर वाली खिचड़ी बनाने की सोची. चाची जिन्हें हम छोटी मम्मी कहते हैं ने बनाने की विधि बता दी  और सारा सामान दे दिया. पास में रहने वाली दो बहनें बेबी-डेज़ी पूरे समय हमारे साथ रहती थीं ,सो वे भी शामिल हो गयीं . बाहरी बरामदे में...अहाते में  गाय-बैलों की देखभाल करने वाले 'प्रसाद काका' और 'शालिक काका' के बच्चे हमेशा जमे रहते और हमारा कोई भी काम दौड़ कर पूरा किया करते थे .वे भी साथ हो लिए. पन्द्र-सोलह बच्चों का काफिला, रसद, बर्तन, जलावन की लकडियाँ, चटाई-चादर  सब लेकर फुलवारी की तरफ रवाना हो गया . घर पर कह दिया गया 'हमारा खाना नहीं बनेगा' .  


हम सबकी औसत उम्र ग्यारह-बारह साल की थी. किसी ने रसोई में कभी कदम नहीं रखा था .पर आत्मविश्वास से लबरेज़ थे  कि 'हम सब कर लेंगे' . ईंटें  लाकर चूल्हा बनाया गया .पर लकड़ी तो सुलगे ही न .सबने कोशिश कर ली, फूंक मार-मार कर ,आँखें धुएं से भर जाएँ पर एक लपट न उठे . आखिर पास के खेतों में काम कर रहे  बिजली या फूलदेव किसी ने तो आकर मदद की और लकडियाँ जल उठीं . बड़ा सा पीतल का बर्तन (जिस पर मिटटी  का लेप लगा था ताकि बर्तन न जले ) चढ़ा दिया गया . (इस बार मेरा बेटा गाँव गया था तो इतने बड़े बर्तन  देखकर हैरान रह गया . बोला, "ऐसे बर्तन तो caterers  के पास होते हैं ". आज के बच्चे हलवाई शब्द भी नहीं जानते ) 

आस-पास तमाशा देखने वाले छोटे छोटे बच्चों की भीड़ खड़ी थी . चाची के के बताये निर्देशानुसार खिचड़ी पकती रही. (इतना याद तो नहीं, पर जरूर बनाने में फूलदेव  ने मदद की होगी ) बीच बीच में आपसी झगडा , रूठना-मनाना ...फिर ये कहते घर की तरफ चले जाना कि 'हमें नहीं मनाना पिकनिक ' और फिर आधे रास्ते से ही लौट आना. सब चलता रहा . जब खिचड़ी पक गयी तो एक मुश्किल  हुई.. हमें घेर कर खड़े छोटे-छोटे दर्शकों  के बीच बैठकर सिर्फ हमलोग कैसे खा लें , इसलिए उन्हें भी बिठाया गया और केले के पत्ते पर खिचड़ी परोसी जाने लगी. अब खिचड़ी अच्छी  बनी थी या  बच्चे भूखे थे ,थोड़ी देर में ही हमें डर लगने लगा कि खिचड़ी कम न पड़ जाए . मैं और राजू भैया परसने का काम कर रहे थे और आखिर में हुआ ये कि हम दोनों के लिए खिचड़ी नहीं बची. तब तक दिन के चार बज चुके थे . हमारा काफिला सरो सामान के साथ वापस लौट चला. मैंने  और भैया ने तय किया कि 'हमने नहीं खाया है', ये घर पर नहीं बतायेंगे . बर्तन आँगन में रखा गया और  बाकी बच्चे बाहर खेलने लगे. तय किया था , 'नहीं बताएँगे' पर भूख तो भूख होती है, हम दोनों किचन में जाकर डब्बे टटोलने लगे . छोटी मम्मी  की अनुभवी आँखें  समझ गयीं और उन्होंने पूछ लिया ,"भूख लगी है ?" हम तो चुप लगा गए पर खेलने से ब्रेक लेकर पानी पीने आयी संध्या ने जोर से बोल दिया, "इनलोगों के लिए तो खिचड़ी बची ही नहीं .इनलोगों ने सबको खिला दिया...और वो गाँव  के बच्चों के नाम गिनाने लगी कि कौन कौन खड़ा होकर  देख रहा था ." उन दिनों गाँव में गैस तो थी नहीं , और काकी शाम का खाना  बनाने के लिए .मिट्टी का चूल्हा और रसोई मिटटी से लीप रही थीं.  हमारे लिए कुछ बनाया नहीं जा सकता था सो हमें दही -चूड़ा (पोहा )  का भोग लगाना पड़ा. जो हम दोनों को ही बहुत पसंद था .


इसके बाद गाँव में हर साल पिकनिक मनाने का चलन शुरू हो गया . जब भी मैं गाँव जाती तो पिकनिक के किस्से सुनती. अब लडकियां  बड़ी हो रहीं थीं और खाना बनाना सीख गयी थीं .अब खिचड़ी की जगह खीर-पूरी-सब्जी या पुलाव-आलूदम बनता . शुरू में सारे बच्चे मिलकर पिकनिक  मनाते थे. फिर लड़के लड़कियों के अलग ग्रुप हो  गए. एक बार दोनों ग्रुप आस-पास ही पिकनिक मना रहे थे. और लड़कियों ने जाकर लड़कों की कुछ मदद कर दी. पास से गुजरते किसी बुजुर्ग ने देख लिया ,अब उनके पेट में दर्द कैसे न हो...उन्होंने गाँव  में जाकर हंगामा कर  दिया .एकाध  माता-पिता अपनी बेटियों को पिकनिक के बीच से उठा कर ले गए. फिर वे घर के आस-पास अपनी नज़रों के  सामने ही पिकनिक की इजाज़त देने लगे . फिर भी पहली जनवरी को पिकनिक मनाना बंद नहीं हुआ. (शायद अब भी मनाया जाता हो...इस बार घर पर फोन करुँगी तो पूछूंगी, )

मेरी पिकनिक तो फुलवारी से अब छत पर शिफ्ट हो गयी थी. महल्ले के सारे बच्चे मिलकर छत पर लकड़ी के बुरादे वाले चूल्हे पर गोभी मटर वाली खिचड़ी बनाते. ज्यादातर काम पड़ोस वाली प्रतिमा दी ही करतीं. जो हम सबसे उम्र में बड़ी थीं, पर हमेशा हमारे साथ खेलतीं. हम सब तो उबले आलू छीलने ,पानी लाने और सामान ढोने जैसे काम ही करते. रूठना-मनाना यहाँ भी बहुत होता. ज्यादातर इसलिए कि 'हमें कोई काम नहीं करने दिया' :) .

अब तो समय के साथ पिकनिक का स्वरुप ही बदल गया है . बड़े शहरों में तो पिकनिक का मतलब...सी-बीच  या गार्डेन में रेडीमेड या घर से बना  कर लाये पैक्ड खाने के साथ म्यूजिक-डांस ,गेम्स यही सब होता है. या फिर barbeque . बुरा यह भी नहीं. दौड़ती भागती ज़िन्दगी से कुछ पल चुरा कर सबके साथ हंस बोल लें ,इतना भी काफी है .

आप सब की ज़िन्दगी में भी ऐसे खुशियों भरे पल की भरमार हो...आगामी वर्ष सारी इच्छाएं पूरी करे और निष्कंटक गुजरे.

नव वर्ष की अनंत शुभकामनाएं !!

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

जीना इसी का नाम है

 ये पोस्ट सत्रह दिसंबर को ही लिखनी थी. समय पर किया काम ही अच्छा लगता है पर अन्यान्य कारणों से नहीं हो  पाया. पर मन में था तो हफ्ते भर बाद ही सही.  
सोलह दिसंबर का दिन मेरे लिए दो वजहों से रोज से बहुत अलग था.
एक तो निर्भया के साथ पिछले साल इसी दिन वह हादसा हुआ था. टी.वी.,अखबार, सोशल नेटवर्क सब जगह  उस घटना की ही चर्चा थी कि कैसे निर्भया अपने शरीर में शक्ति  के आखिरी कतरे तक जी जान से लड़ी थी .आत्मसमर्पण नहीं किया था ,भले ही उसके शरीर की दुर्दशा कर दी गयी और भयंकर कष्ट झेलकर आखिर वह इस दुनिया से विदा हो गयी . निर्भया  के इस बलिदान से ,उस समय जो गुस्से का जलजला उठा वो युवाओं में विरोध की ताकत दे गया. हर उम्र के लोगों ने पानी की मार झेली ,पुलिस के डंडे खाए और विरोध जारी रखा .आखिर क़ानून को सख्त बनाना पड़ा. निर्भया तो चली गयी पर देश की सारी लड़कियों में साहस का एक बीज जरूर प्रतिरोपित कर गयी . क्यूंकि वह आखिरी दम तक लड़ी थी , अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का पुरजोर विरोध किया था .और जब होश आया तो उसने ये नहीं कहा कि वो 'शर्म से मर जाना चाहती है ' उसने कहा,'वो जीना चाहती है '

एक लड़की के इस साहस से लोगों को बहुत बल मिला. कई लोग कहते हैं , निर्भया के साथ हुए इस हादसे के बाद रेप की संख्या बढ़ गयी है. ऐसी  बहुत सारी खबरे मिलने लगी हैं. जबकि हुआ ये है कि  लडकियां अब शिकायत दर्ज करवाने लगी हैं, उनके माता-पिता ,रिश्तेदार भी उसे चुप रहने की सलाह देने की जगह ,पुलिस में जाकर रिपोर्ट करवा रहे हैं . क्यूंकि अब यह शर्म से मर जाने की बात नहीं है बल्कि जीकर अपराधी को सजा दिलवाना ज्यादा महत्वपूर्ण है.
सिर्फ रेप ही नहीं, छेडछाड , अनचाहे स्पर्श का भी विरोध किया जा रहा है .

वरना अब तक होता ये आया है कि ऐसी विकृत मानसिकता वाले  लोग समाज में  विभिन्न रिश्तों का लबादा ओढ़ कर बचते आ रहे थे/हैं. हमारे समाज की शायद ही कोई ऐसी लड़की हो जिसे भीड़-भाड़ में ,बस, ट्रेन या अपने जाने-पहचाने लोगों से कभी किसी अनचाहे स्पर्श का सामना न करना पड़ा हो. हमारे पड़ोस की एक लड़की थी , उसे एक बूढ़े मास्टर पढ़ाने आते थे . उसकी माँ आवाजें लगाती रहती और वो छत पर हमारे साथ बैठी रहती, बड़ी अनिच्छा से पढ़ने जाती. बताती कि माता-पिता मास्टर साहब (?) के पैर  छूकर प्रणाम करने को कहते और मास्टर साहब इस तरह से उसकी पीठ पर हाथ फेर कर आशीर्वाद देते कि वो वितृष्णा से भर  जाती. पर अपने माता-पिता से वो कुछ कह नहीं पाती, पैर छूने से मना करती थी तो उसे डांट ही पड़ती . पढने से हट कर सारा ध्यान इसमें लगा होता कि कैसे वह जल्दी से पैर छूकर भागे कि वे उसे आशीर्वाद न दे  सकें .
एक फ्रेंड है ,उसकी शादी के कुछ ही दिनों बाद ससुराल में एक पूजा हुई , पूजा पर वही पति के साथ  बैठी थी. पर खानदानी  पुजारी बार बार बहाने से उसका हाथ स्पर्श करे.

वो खानदानी पुजारी और ये घर की नयी बहू , कुछ कह भी न सके.

ऐसी या इस से भयावह जाने कितनी कहानियां हमारे आस-पास बिखरी पड़ी हैं. पर अब लगता है, इनमे कमी आएगी. अब लडकियां शर्म-संकोच छोड़कर विरोध कर रही हैं. और अच्छी बात ये है कि उनका विरोध अनसुना नहीं किया जा रहा . लोग ध्यान देने लगे हैं और उनके विरोध में शामिल भी हो रहे हैं. माएं अब लड़कियों पर ज्यादा ध्यान देने लगी हैं . उन्हें कम उम्र में ही आगाह करने लगी हैं, इस से अच्छी बात ये हुई है कि ऐसी किसी घटना का सामना करना पड़ा तो लड़की  उसी वक़्त विरोध कर सकती हैं क्यूंकि उसे पता है ,अब उसकी बात सुनी जायेगी और उसके पैरेंट्स उसके साथ होंगें. मिडिया में किसी बात का भी बहुत शोर होता है , चौबीसों घंटे वही चर्चा . कभी-कभी परिवार के साथ न्यूज़ चैनल्स देखना मुश्किल हो जाता है. चाहे कितना भी कम टी.वी. ऑन करें पर इन विषयों से बचना मुश्किल होता है. पर एक अच्छी बात ये होती है कि ये शब्द सुनते ही अब नज़रें झुकाने ,वहाँ से चले जाने का प्रचलन ख़त्म हो गया है. अब ये  सामान्य से शब्द लगने लगे हैं.  इन विषयों पर बात होनी जरूरी थी. शर्म -संकोच की दीवार टूटनी जरूरी थी. जब ऐसी विकृतियाँ समाज में हैं तो उसपर बात क्यूँ  न की जाए, उनसे बचने के प्रयास और बच्चियों को आगाह क्यूँ न किया जाए.

और इन सब विषयों पर यूँ सार्वजनिक रूप से चर्चा होने पर अब ऐसी विकृत मानसिकता वाले भी
 संभल गए हैं. अभी शोभना चौरे जी ने अपनी पोस्ट में जिक्र किया है कि उनकी भतीजी किसी शख्स की चर्चा कर रही थीं, जिनकी आदत थी लड़कियों को गले लगाकर अभिवादन करने की .और हर लड़की अपने सिक्स्थ सेन्स से ऐसे स्पर्श को पहचान जाती है. वे अब सबको दूर से नमस्ते कर अभिवादन कर रहे थे . अच्छा है ऐसे लोग संभल जाएँ, वरना अब तो उनका बचना मुश्किल ही है. और सबकी सोच में ये परिवर्तन आया है ,निर्भया के बलिदान से . अपनी ज़िन्दगी देकर , कई जिंदगियां बचा लीं  उसने. 

कई बार ,ऊपर से सब ठीक लगता है...लड़की सामान्य लगती है. पर इस तरह की घटनाएं उनके मस्तिष्क पर ऐसा गहरा असर डालती हैं कि वे ताजिंदगी एक सामान्य जीवन नहीं  बिता पातीं. मनोवैज्ञानिकों के पास कितने ही ऐसे केस आते हैं , जहाँ माता-पिता को समस्या कुछ और दिखती है...और उनके मन के भीतरी तह में छुपा कारण ये होता है.
बस आशा और प्रार्थना है कि निर्भया का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा...और हर लड़की और उसके माता-पिता अब एक्स्ट्रा सजग रहेंगे .


एक और वजह से ये दिन और दिनों से अलग था ..डा. कौसर जो अचानक ही हमें छोडकर चले  गए . १६ दिसंबर को उनका जन्मदिन था . 15 दिसंबर की रात  बारह बजे से ही डा. कौसर को याद करने वालों के मैसेज से  उनकी पूरी FB wall भरी हुई थी. इतनी आजीज़ी  से सब याद कर रहे थे . कोई कह रहा था ..'प्लीज़ कम बैक सर..' कोई  कह रहा था..." अब अमुक फंक्शन आपकी शेरो शायरी के बिना कैसे पूरा होगा ' या 'अमुक फंक्शन  में सब होंगे बस फंक्शन की जान आप नहीं...' कोई  जैसे एक जिद के साथ कह रहा था," हम आपका बर्थडे हर बार की तरह ही मिलकर मनाएंगे ..केक काटेंगे...पार्टी करेंगे ...आप कहीं नहीं गए हैं, हमारे बीच  ही हैं. " " सबसे टचिंग था उनकी पत्नी भावना का  मैसेज 
Happy birthday sweetheart.waiting to b together again...... " और उनकी हाँ में हाँ भी नहीं मिलाया जा सकता था .

अपने जाने के बाद इतना बड़ा खालीपन छोड़ गए वो कि सब हर पल  उनकी कमी महसूस  करते है.  जानने वाले ही नहीं अनजान  लोग भी उनके जीवन से कोई सीख ग्रहण करें,ये  बहुत बड़ी बात है. मेरे एक मित्र जो महीनो गायब रहते हैं फिर अचानक प्रकट होकर मेरी कोई पोस्ट डिस्कस करने लगते हैं. डा. कौसर वाली पोस्ट पढ़कर कहने लगे . "मुझे भी डा. कौसर जैसा बनना है ' ..मुझमें बहुत सारी  खामियां हैं...मुझे वो सब दूर करनी हैं...मुझे जल्दी गुस्सा  नहीं होना..लोगों के अहसास का ध्यान रखना  है, लोगों को खुश रखना  है ...इतना तो मैं कर ही सकता हूँ, ...इस से मेरे आस-पास वालों की ज़िंदगी आसान हो जायेगी ."
एक छोटी सी इस पोस्ट पढ़कर ही जब लोग इतनी प्रेरणा ले रहे हैं तो उनके साथ रहने वाले...उनसे मिलने जुलने वाले....कितने प्रेरित होते होंगे .

ऐसे लोग दुनिया में थोड़े दिन गुजार कर ही अपना जीना सार्थक कर जाते हैं, लोगों की ज़िंदगी बदल जाते हैं...ईश्वर ऐसे लोगों को धरती पर भेजता रहे पर फिर इतनी जल्दी वापस न बुलाये...:(

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

संवेदनहीनता की परकाष्ठा

मिशेल अपने पिता के साथ (इनसेट में स्वर्गीय डा. मयूर मेहता )
कुछ दिनों से पोस्ट  लिखने से खुद को जबरन रोक रखा था. एक दूसरे  कार्य को अंजाम देना था (लिखने का ही ) पर अफ़सोस की बात  वो भी नहीं कर रही (नहीं हो पा रहा, ऐसा क्यूँ लिखूं,मैं कर ही नहीं रही. ) .एक दो विषय , उथल-पुथल मचा रहे थे,दिमाग में.  सोचा लिख ही डालूं , और एक निर्णय के साथ कंप्यूटर ऑन किया .आदतवश पहले फेसबुक पर नज़र डाली और सुबह ही अखबार में पढी एक खबर शेयर करने का मन हो आया. सोचा, उस खबर पर फेसबुक का लिंक देकर पोस्ट लिखने में जुट जाउंगी. वो खबर कुछ यूँ थी :
 
"तिरपन वर्षीय 'डॉक्टर मयूर मेहता' अपने स्कूटर से शाम को वापस घर जा रहे थे . उनका स्कूटर पास से गुजरती एक मोटरसाइकिल में जरा सा टच हुआ और बाइक पर सवार लड़के ,उन्हें भला-बुरा कहने लगे. इन्होने भी जबाब दिया. झड़प हुई और उनमें से एक लड़के ने चाक़ू निकाल कर उनके पैर पर वार कर दिया. खून बहने लगा . वे गिर गए पर फिर से संभल कर स्कूटर पर सवार हो चल पड़े. वे  लड़के भाग गए. पर उनके पैर से खून बहना बंद नहीं हुआ था और कुछ दूर जाने के बाद वे स्कूटर से सड़क के किनारे गिर पड़े .लोगों की भीड़ जमा हो गयी . पर सब बस देखते रहे कोई उनकी सहायता करने नहीं आया. दूर से उन्नीस वर्षीया एक लड़की मिशेल ये सब देख रही थी. उसने अपनी स्कूटी पार्क की और उन सज्जन की सहायता के लिए आयी . उनके ज़ख्म पर अपना स्कार्फ बाँधा , ऑटो रिक्शा रोकने की कोशिश करने लगी. पर कोई रिक्शा नहीं रुक रहा था . इस बीच करीब ४०-५० लोगों की भीड़ जमा हो गयी थी. पर कोई आगे नहीं बढ़ रहा था . आखिर उस लड़की ने गुस्से में पत्थर से एक ऑटो का शीशा तोड़ दिया . ऑटो रिक्शा को रुकना पड़ा. यह देख, थोड़े लोग भी सक्रिय हुए. डॉक्टर साहब को उठा कर  ऑटो में डालने में  और अस्पताल ले जाने में उस लड़की की मदद की . पर इन सबमें कीमती समय नष्ट हो चुका था .अत्यधिक खून बह जाने की वजह से डॉक्टर को बचाया नहीं जा सका. मिशेल  ने कोशिश तो की पर लोगों की संवेदनहीनता ने उसकी कोशिश कामयाब नहीं होने दी "
 (पूरी खबर यहाँ पढ़ी जा सकती है )  

इस खबर को शेयर करते हुए मैंने यह भी लिखा था क्या तमाशा देखने वाले ४०-५० लोग अपराधी नहीं है ? वे लोग किसी इन्सान को यूँ सड़क पर धीरे धीरे मौत की तरफ बढ़ते देखते रहे और तमाशबीन  बने रहे. इस पर कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं आयीं जो कुछ सोचने पर मजबूर कर गयीं. लोगों का कहना है कि "वे लोग नहीं ये सिस्टम दोषी है. हमारी आदत होती है कि हम सिस्टम से नहीं  लड़ते और आसानी से मासूम लोगों को दोष दे देते हैं. जो संयोगवश  घटनास्थल पर होते हैं .उन्हें दोष देना आसान होता है क्यूंकि वे पहले ही अपराधबोध से पीड़ित होते हैं और दोष दिए जाने पर प्रतिकार नहीं कर पाते. हम सिस्टम को दोष नहीं देते क्यूंकि सिस्टम को दोषी कहेंगे तो हमें उनसे लड़ना  पड़ेगा, क़ानून बदलना पड़ेगा आदि आदि."

उनकी बात अपनी जगह सही है . लोग इसलिए आगे नहीं आते क्यूंकि पुलिस , अदालत के चक्कर  में वे पड़ना नहीं चाहते. पर यह सब तो बाद की बात है. आप अपनी आँखों के सामने किसी को यूँ मरता हुआ देख कैसे सकते हैं ? क्या आप इंसान हैं ? अगर हैं तो किस तरह के इन्सान हैं ? आपसे तो जानवर अच्छे  जो अपने घायल साथी के लिए कुछ नहीं कर पाते पर  संवेदना से उसके घाव तो चाटते  हैं.

सड़क के किनारे  कोई जख्मी पड़ा होता है लोग मुहं फेर सर्र से निकल जाते हैं. इन्सानियत पर गहरा धब्बा यह भी है.....पर यह तो संवेदनहीनता की परकाष्ठा है कि घेरा बना कर  समूह में खड़े हैं और किसी घायल का खून बहता देख रहे हैं. यहाँ  तो अकेले किसी पर कोई दोषारोपण नहीं होने वाला था .चार लोग मिलकर उस घायल को उठाते, दूसरे चार लोग जबरदस्ती कोई कार या ऑटो रुकवाते . एक कोई आगे बढ़ता तो दुसरे लोग साथ आ ही जाते . आखिर उस लड़की ने कोशिश की तो लोग आगे आये  ही. पर किसी एक इंसान का आगे बढना बहुत मुश्किल हैं. हम सब इतने खुदगर्ज हैं ,पुलिस अदालत की बात तो बाद में दिमाग में आयेगी .पहली चीज़ तो आएगी..कपडे खराब  हो जायेंगे ,गाड़ी गन्दी हो जायेगी.. घर पहुँचने  में देर हो जायेगी. अमुक की पार्टी में जाना है,शादी में जाना है...रात में इन चक्करों में देर हो गयी तो सुबह ऑफिस पहुंचना मुश्किल होगा, जरूरी मीटिंग छूट जायेगी...वगैरह ..वगैरह.

हमें क्या मतलब...वो हमारा कोई तो नहीं लगता .और इन सब बातों के लिए सिस्टम दोषी नहीं है. हमारी संवेदनाएं मर गयी हैं . खुद से आगे हम देखते ही नहीं. परले दर्जे के खुदगर्ज हैं हमलोग. तबतक इंतज़ार करते हैं जबतक कोई अपना जख्मी न हो. यही अपने  भाई-भाभी ,माता-पिता,चाचा-चाची हों तो समय,पैसा पास में होगा ,.पुलिस अदालत के चक्कर सब मंजूर होंगे. पर अनजान लोगों के लिए हम बिलकुल असंवेदनशील हो जाते हैं. कभी कभी तो लगता है...हम सब इतने  व्यक्तिवादी क्यूँ हैं ? क्या हमारे जीवन-दर्शन ही ऐसे हैं कि बस हम अपना ही सोचते हैं .
,सिस्टम को दोषी ठहरा देना और खुद हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना....यहाँ तक कि चुपचाप किसी को मरते देखते रहना .  वो लड़की मिशेल या ऐसे लोग जो सहायता के लिए आगे आते हैं ,वे भी इसी सिस्टम का ही हिस्सा हैं. पर उनके अन्दर संवेदनाएं कैसे जिंदा हैं ? वे सिस्टम का क्यूँ नहीं सोचते ?
 

अब सारी उम्मीद इसी युवा पीढ़ी से है. हमारी पीढ़ी तो स्वार्थियों की पीढ़ी है . बहुत लोग युवा पीढी की बहुत शिकायत करते हैं. उनपर तरह तरह के आरोप लगाए जाते हैं .पर मुझे इस पीढ़ी से बहुत उम्मीदें हैं. कम से कम  ये पीढ़ी मुखौटे लगाकर नहीं घूमती . मेरे आस -पास, मेरी बिल्डिंग , कॉलोनी, फ्रेंड्स, रिश्तेदारों के बच्चे जो अब युवा हैं . ब्लॉगजगत-फेसबुक पर सक्रिय युवा चेहरों के अन्दर बहुत संवेदनशीलता दिखती है और कुछ करने की चाह भी (मौक़ा मिलने  पर वे करते भी हैं ) .यह भी सही है ये पूरे समाज का एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं ,पर छोटा ही सही ,हैं तो ...कल ये हिस्सा बड़ा भी होगा .

हो सकता है ,ऐसा लगे मैं बहुत आशावादी हूँ , पर थोड़े से जो बदलाव दिख रहे हैं, उनकी बिना पर ही सोचती हूँ कि आनेवाला समय ,इतना रुखा ,इतना आत्मकेंद्रित नहीं होगा. वैसे सोच समझ कर तो ये खबर शेयर नहीं की .पर जब सोचती हूँ कि क्यूँ की ??तो यही लगता है...शायद अवचेतन मन में हो कि जो भी इसे पढ़े और उसके सामने कभी ऐसा कोई हादसा हो तो उसे  ये प्रकरण याद आ जाए और वो सहायता करने से पीछे न हटे.

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

साथ निभाने की जिम्मेवारी क्या सिर्फ एक पक्ष की है ??

तलाक /डिवोर्स जैसे शब्द लोगों को बहुत असहज कर जाते हैं. ये शब्द सुनते ही मस्तिष्क थोडा सजग, आँखें उत्सुक और कान चौकन्ने हो जाते हैं. जन्म-विवाह-मृत्यु की तरह इसे सामान्य रूप में नहीं लिया जाता. शब्द ही ऐसा है, दो लोग जो एक साथ जीने की तमन्ना  ले जीवन शुरू  करते हैं...सुख दुःख में साथ  निभाने का वायदा करते हैं अब एक दूसरे से अलग रहना चाहते हैं.
 
सैकड़ों साल पहले,हमारे समाज में  जब वैवाहिक संस्था का निर्माण हुआ था . आदिम जीवन पद्धति छोड़ कर दो लोगों ने साथ रहने का फैसला किया तब जीवन भर साथ निभाने की जिम्मेवारी दोनों पक्षों की रही होगी  .फिर धीरे धीरे पुरुष इस जिम्मेवारी से खुद को मुक्त करता गया और परिवार बनाए रखने  की जिम्मेवारी स्त्री के कंधे पर डाल दी गयी . शायद इसलिए भी कि स्त्री शारीरिक रूप से कमजोर रही है और आर्थिक रूप से पति पर निर्भर . श्रम वह भी पुरुषों से कम नहीं करती थी/है पर शिकार करके  लाना, खेतों में हल चलाना जैसे शारीरिक श्रम वाले कार्य पुरुष ही करते थे और वे खुद को श्रेष्ठ समझने लगे. एक पत्नी के रहते उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करना शुरू कर दिया .जबकि ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वायदा तो पहली पत्नी के साथ था ,लेकिन उन्होंने  आसानी से वो कसम तोड़ दी जबकि स्त्री ने आजीवन उसे निभाया .
 
हम अपनी पौराणिक कथाओं में पढ़ते रहे हैं ,"एक राजा की चार रानियाँ थीं " और इसे सहज रूप से स्वीकार करते रहे हैं. बचपन में पढ़ा, एक रुसी लेखिका का इंटरव्यू याद आ रहा है (जरूर धर्मयुग में ही पढ़ा होगा ) जिसमे उन्होंने कहा था ,"हमने कई हिंदी पौराणिक कथाओं  के रुसी  अनुवाद किये हैं पर हमें अपने बच्चों को ये समझाने में कि एक राजा की दो/तीन/चार रानियाँ थीं  बहुत मुश्किल होती है " तब मैंने पहली बार जाना था कि कुछ समाज ऐसे भी हैं जहां एक समय में एक राजा की एक ही रानी होती है.
इसके उलट हमने कभी किसी कथा  में ये नहीं पढ़ा कि एक रानी थी, उनके चार राजा थे .या एक स्त्री थी उसके दो पति थे . (द्रौपदी का उदाहरण बिलकुल अलग है और यहाँ भी द्रौपदी की  मर्जी से उसके पांच पति नहीं बने थे ) .
 
पौराणिक काल से यह प्रथा चलती आ रही है और मैंने भी अपनी आँखों से दो पत्नी वाले कई लोग देखे हैं . दुसरे समाजों /देशों में तलाक/डिवोर्स  की प्रथा क्यूँ आयी कब आयी ,किस कारण से आयी मुझे जानकारी नहीं है पर ये जानकारी जरूर है कि हमारे  यहाँ ऐसी कोई प्रथा नहीं थी कि अगर किसी भी कारण शादी नहीं निभ रही है तो पति-पत्नी अलग हो जाएँ . पति जरूर अलग हो जाता  था (घर अलग न हों पर कमरा तो अलग हो ही जाता था ) और नयी स्त्री के साथ अपना आगामी जीवन व्यतीत  करता था पर स्त्री उसके नाम की माला जपते ही अपना इहलोक और परलोक  संवारती रहती थी. पत्नी अगर उसे संतान (या पुत्र रत्न ) न दे पाए, रोगी हो, या उसमें कोई भी कमी दिखे तो पुरुष को झट दूसरी स्त्री के साथ शादी की अनुमति थी.पर पति शराबी/कामी/दुराचारी जो भी हो पत्नी से यही अपेक्षा की जाती थी  कि हर हाल में वो पति की सेवा करे ,उसका साथ निभाये . तलाक/डिवोर्स जैसा कोई प्रावधान हमारे समाज में नहीं था कि ऐसे पति से मुक्त होकर स्त्री स्वतंत्र रूप से अपना जीवन  बिताए . या फिर पति बिना एक स्त्री से मुक्त हुए दूसरी स्त्री से शादी न कर सके . इसीलिए ऐसा कोई शब्द भी हमारे यहाँ प्रचलित नहीं है. जब ऐसी स्थिति की ही कल्पना नहीं है तो कोई शब्द कैसे निर्मित होता.

जब यह  कानून अस्तित्व में आया  तो शब्द भी गढ़ा गया 'विवाह-विच्छेद ' पर इसे सामाजिक मान्यता मिलने में शायद सौ साल से अधिक ही  लगेंगे . क़ानून यह भी है कि एक पत्नी के रहते ,दूसरी स्त्री से शादी नहीं की जा सकती. पर जिस तरह हमारे देश में हर क़ानून का पालन किया जाता है, वैसा ही हाल इस कानून का भी है . जो लोग सरकारी नौकरी में हैं, उन्हें भी डर नहीं तो दूसरे व्यवसाय वालों के लिए कुछ कहा ही नहीं  जा सकता. मैं जब दस-ग्यारह साल की थी एक साल अपने गाँव में पढ़ाई की थी ..हमारे पडोसी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे , तीन-चार साल शादी के हो गए थे और उन्हें कोई संतान नहीं थी. बड़े धूमधाम से उनकी दूसरी शादी हुई. पूरा गाँव शरीक हुआ. उनकी पहली पत्नी भी क्यूंकि उनसे वायदे किये गए थे कि 'मालकिन तो तुम ही होगी ,आनेवाली तो तुम्हारी  नौकरानी बन कर रहेगी' . पर उस विवाह का एक दृश्य मुझे याद है , उनकी पहली पत्नी आँगन में बैठी अपने ही पति की शादी में खूब ढोलक बजा कर दूसरी औरतों के साथ गीत गा रही थीं. मैं अपनी दादी के साथ गयी और पता नहीं दादी को देखते क्या हुआ ,वे रोने लगीं. मेरी दादी ने उन्हें छाती से चिपटा लिया  और काफी देर तक वे जोर जोर से रोती रहीं. नयी बहु आ गयी ,और धीरे धीरे पहली पत्नी पर अत्याचार शुरू हो गए. उन्हें रसोई में आने की इजाज़त नहीं, खाना नहीं दिया जाने लगा, कमरे में बंद रखा जाने लगा. वे मिडल पास थीं यानी कि सातवीं तक पढ़ी हुई थीं. उन्हें पढने का शौक था ,खिड़की से मुझसे किताबें  मांगती और कहतीं कि उन्हें खाना नहीं दिया गया. नंदन-पराग और धर्मयुग के बीच छुपा कर  कई बार उन्हें चिवड़ा -गुड और खजूर (आटे से बना ) देने जाती. एक बार अपने रूखे बाल दिखा कहने लगीं,'तेल नहीं है लगाने को ' छोटी शीशी में उन्हें तेल भी छुपा कर दे आयी थी. फिर कुछ दिनों बाद वे मायके चली गयीं .(या  ससुराल से निकाल दिया गया )..वहाँ  भी ठौर नहीं मिला . पास के शहर में छोटी मोटी नौकरी करने लगीं ,कुछ कुछ मानसिक संतुलन भी खो दिया था. सबके मजाक की वस्तु बनी रहतीं और फिर उनकी अल्प आयु में ही मृत्यु हो गयी . एक ज़िन्दगी तो चली गयी. जबकि उनके पति अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ आज भी सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं .

हमारे गाँव में ही एक बूढ़े मास्टर साहब थे .जिन्होंने अपने इकलौते बेटे की शादी एक गाँव की लड़की से कर दी . लड़के ने शादी तो कर ली पर पत्नी को कभी अपने साथ अपनी नौकरी पर नहीं ले  गया .वहां दूसरी शादी कर ली और अपना घर बसा लिया .पहली पत्नी ताउम्र अपने सास-ससुर की सेवा करती रही .

ये तो मेरे बचपन के किस्से हैं . जब मैं कॉलेज में थी . हमारे घर से चार घर छोड़ सरकारी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर साहब थे ,उनकी पत्नी को कोई बीमारी हो गई थी और वे चलने फिरने से लाचार  हो गयी थीं, व्हील चेयर पर ही चलतीं .उन्हें ,उनके घर को और उनके दो छोटे बेटों को संभालने पत्नी की छोटी बहन साथ रहती थी.  .प्रोफ़ेसर साहब ने दूसरी शादी कर ली अक्सर शाम को दूसरी पत्नी के साथ छत पर टहलते नज़र आते और पत्नी की छोटी बहन घर के सारे काम करती.

ऎसी तमाम सच्ची घटनाएं हैं  समाज में ,जहाँ सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों को ही दुःख झेलने पड़े हैं .शादी होते ही स्त्री के लिए उसके माता-पिता के घर के दरवाजे बंद हो जाते हैं और अगर पति दूसरी शादी कर ले .फिर भी स्त्री को सबकुछ सहकर वहीँ रहना है क्यूंकि उस से तो यही अपेक्षा है कि 'डोली गयी तो अब अर्थी ही उठनी चाहिए " . उसे तो दान कर दिया गया है...और दान की हुई वस्तु कोई वापस नहीं लेता, अब उसका नया मालिक उसके साथ जो चाहे करे. इसी वजह से पति को भी छूट मिली होती है ,उनकी मनमानी चलती  है और स्त्रियाँ समझौते पर समझौते करती चली जाती हैं.
 

पति चाहे जैसा हो, स्त्री को उसे स्वीकार कर ज़िन्दगी भर निभाना ही पड़ता है. हमारी धार्मिक कथाओं में ,फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता है ,पति वेश्यागामी था , अब असाध्य रोग से पीड़ित है, पर पत्नी उसे पीठ पर लादकर छिले घुटनों से पहाड़ी पर बने मंदिर तक चढ़ कर जाती है....निर्जल  व्रत रखती है...पूजा करती है और उसका पति ठीक हो जाता है. अगर प्रेम हो तो ये सब करने में कोई बुराई नहीं. पर यह हमेशा एकतरफा ही क्यूँ होता है ? पति कभी अपनी पत्नी के लिए इतने व्रत-उपवास क्यूँ नहीं करता ?...इतने कष्ट क्यूँ नहीं उठाता ?? क्या साथ  निभाने की जिम्मेवारी सिर्फ एक पक्ष की है, दोनों पक्षों की नहीं है ?? कुछ पति भी अपनी पत्नी का ख्याल रखते हैं . पर उनकी संख्या बहुत ही कम  है और यहाँ बहुसंख्यक  लोगो की स्थिति पर चर्चा हो रही है.
अब तलाक का प्रावधान  आ गया है..पर समाज में अब भी इसे अच्छी नज़र से नहीं  देखा जाता. तलाकशुदा स्त्रियों को बहुत कुछ झेलना पड़ता है.

  पर ये बातें सुनने में लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. उन्हें हमारी भारतीय संस्कृति जहाँ 'नारी को देवी का रूप दिया गया है ' उस पर आंच आती दिखती है. .हम भी भारतीय ही हैं. हमें भी अपनी संस्कृति की कुछ बातों पर नाज़ हैं,पर जो कमियाँ हैं , उस पर भी तो बात करनी होगी, उन्हें छुपाते ही रहेंगे तो उन्हें दूर करने के उपाय कैसे ढूंढें जायेंगे .

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