शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

भारतीय घरों का सच दिखाती फिल्म : The great indian kitchen


 The great indian kitchen फिल्म देखते हुए कई चेहरों का आँखों के समक्ष आ जाना लाज़मी है। हर मध्यमवर्गीय भारतीय महिला अपनी जिंदगी में कभी न कभी इन अनुभवों से गुजरती है। भारत के किसी भी प्रदेश की रसोई हो। त्योहारों पर बनने वाले सुस्वादु व्यंजन को दरकिनार कर दें तब भी रोज के खाने में भी बहुत मेहनत लगती है। पीसना,तलना, भूनना और ये सारी मेहनत स्त्री के हिस्से ही आती है। उस पर से पुरुषों के नखरे ,चटनी सिलबट्टे पर पिसी होनी चाहिए, चावल कुकर में नहीं,पानी में उबाल कर बनाये जाएं। पुरुष किसी भी प्रदेश में जाकर बस जाएँ पर उनकी जीभ पर पारंपरिक स्वाद का असर बना रहता है . शुरू के दृश्यों में ही अप्पम, इडियप्पम, पुट्टू,डोसा-सांभर, उबले केले,टोपियोको, केले के चिप्स छनते देख पता कल जाता है,यह केरल की रसोई है.

सुबह से घर की महिलाएं रसोई में लग जाती हैं और पुरुष जूठे चाय का कप भी सिंक में नहीं रखते।टेबल पर सांभर से निकाले सहजन भी चबा कर थाली के बगल में छोड़ देते हैं। जूठी प्लेटें और टेबल पर से जूठन उठाते उबकाई आ जाए. पर घर की स्त्रियाँ चेहरे पर बिना शिकन लाए जूठन उठाती हैं. ससुर जी के जूते भी सास सामने लाकर रखती है। और ससुर गर्व से बहू से कहते हैं, 'मेरी पत्नी एम.ए. पास है फिर भी अपने पिता के कहने पर उसे नौकरी नहीं करने दी' ।जबकि सास बहू से कहती हैं, 'तुम अप्लाई कर दो, सेलेक्ट हो जाने के बाद बात की जाएगी।'
नायिका लकड़ी के चूल्हे पर चावल बनाते, गैस पर साम्भर पकाते हुए टेबल पर रखे लैपटॉप पर नौकरी के आवेदन भी टाइप करती जाती है.
फ़िल्म में पीरियड आने पर किये जाने वाले छुआछूत पर भी विस्तार से चर्चा है। जब पीरियड आने पर नायिका को हर काम की मनाही हो जाती है और वो आराम से मोबाइल देखती रहती है, किताब पढ़ती रहती है तो मुझे एक पल को लगा, इस दिन-रात की मेहनत से कुछ दिनों के लिए बचाव अच्छा ही है।पर स्त्रियों को ऐसे समय में आराम देने की सोच नहीं बल्कि उन्हें हीन दिखाने की मंशा होती है। लड़की की बुआ सास आती है और उसे एक छोटे से कमरे में एक दरी बिछाकर सोने ,किसी के सामने न आने ,अपनी प्लेट धोकर अलग रखने के लिए कहती है। स्कूटर से गिरे पति को उठाने जाती है तब भी उसे झिड़की मिलती है,उसने पति को छू कैसे दिया ? पति साबरी मलाई की यात्रा पर जाने वाला था। पंडित उसे पत्नी के छू लेने पर शुद्ध होने का उपाय बताते हैं , 'गाय का गोबर खाना पड़ेगा या गोमूत्र पीना पड़ेगा फिर कहते हैं, नदी में डुबकी लगा लो तब भी शुद्धि हो जाएगी'। यानी पुरुष की सुविधा के लिए आसानी से नियम में परिवर्तन कर दिए जाते हैं।
मेरे पास केरल की एक लड़की पेंटिंग सीखने आती थी। उसने एक दिन आक्रोश में बताया, 'पता है, मेरा पति कहता है, पीरियड आने पर जमीन पर सोया करो ,मैं ब्राह्मण हूँ '। उस लड़की ने गुस्से में आगे कहा ,'और मैं क्या हूँ...पांच दिनों के लिए मेरी जाति चली जाती है ?' एक दिन उसने पति से सैनिटरी नैपकिन लाने को कहा तो पति ने कहा, "मैं पूजा-पाठ वाला आदमी हूँ,मुझसे ये सब मत मंगवाया करो।" पति आई आई टी से पढ़ा एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत था। फ़िल्म में भी नायिका अपने पति से सैनिटरी नैपकिन लाने के लिए कहती है ,उसके पति को नागवार तो गुजरता है पर शुक्र है, वो कुछ कहता नहीं।
इस फ़िल्म का एक दृश्य बहुत महत्वपूर्ण है। नायिका मायके आई हुई है। उसका छोटा भाई बाहर से आता है, एक ग्लास पानी मांगता है। माँ दूसरी बहन से पानी लाने के लिए कहती है, और नायिका बिफर जाती है, "तू खुद से एक ग्लास पानी नहीं ले सकता ?" पहले शायद उसे भी ये बड़ी बात नहीं लगती हो पर ससुराल में पुरुषों का बिलकुल ही काम न करना और स्त्रियों से सारे काम की अपेक्षा ने नायिका का ध्यान अपने मायके में लडके-लडकी के बीच होते भेदभाव की तरफ खींचा. शुरुआत ऐसे ही होती है, एक ग्लास पानी ला दो, खाना लगा दो, बिस्तर बिछा दो और लडकों को अपना काम भी करने की आदत नहीं पडती. आम मध्यमवर्गीय माँओं की तरह माँ नायिका को माफ़ी मांग लेने और अडजस्ट करने की सलाह देती है.
फ़िल्म में किचन का सिंक टपकता रहता है।नायिका उसके नीचे बाल्टी लगाकर रखती है और फिर गंदा पानी उठाकर बाहर फेंकती है। पति से कहकर थक जाती है,वे बड़ी सुविधा से भूल जाते हैं। नायिका का बार बार गंदे पानी से भरी बाल्टी फेंकना और पोंछा लगाते रहना उन्हें बड़ी बात लगती ही नहीं क्यूंकि उन्हें तो टेबल पर खाना परस कर मिल जाता है, धुले कपड़े मिल जाते हैं.
अंत में नायिका वही गंदा पानी ससुर और पति के चेहरे पर फेंक देती है और घर छोडकर चली आती है. पर उन्हें क्या, उन्हें तो एक दूसरी लडकी मिल जाती है जो शादी के बाद उसी तरह उनके जूते बर्तन उठाती है...और बिना चेहरे पर शिकन लाए घर के सारे काम करती है.

फिल्म में बीफ (गौ-मांस) का भी कई बार जिक्र है. बहुत लोगों को ज्ञात नहीं है कि केरल के हिन्दू जो बहुत पूजा-पाठ करते हैं, मंदिर जाते हैं, सुबह तुलसी में जल देते हैं , शाम को दिया जलाते हैं. उनके खान-पान में बीफ सामान्य रूप से शामिल है.

फिल्म की लोकेशन और कलाकारों के अभिनय बहुत सहज और सच्चे लगते हैं। अगर इसका हिंदी रीमेक बना तो फ़िल्म कुछ अलग ही नज़र आएगी। एक बात और ध्यान देने वाली है, केरल में सर पर पल्ला या घूंघट का रिवाज नहीं है। नायिका सलवार सूट तो पहनती है पर दुपट्टा कभी नहीं लेती।उत्तरभारतीय घरों में तो सारा काम करते, सर पर दुपट्टा और पल्ला सम्भालते स्त्रियाँ परेशान होती रहती हैं।
The great indian kitchen में महिला को सुबह से शाम तक किचन में खटते दिखाया जाता है। कभी जो कोई फ़िल्म The great indian house पर बनी तो फिर दिखाना पड़ेगा, सुबह महिला किचन में काम करती है, बच्चों को स्कूल छोड़ने-लाने जाती है, सब्जी-राशन लाती है। बच्चों को डॉक्टर के पास ,उनके स्कूल के पी.टी.एम., स्पोर्ट्स डे, एनुअल डे, अटेंड करती है। घर में मेहमानों की आवाभगत, उन्हें घुमाना-फिराना, बीमार सास-ससुर की सेवा सब महिला के जिम्मे। महानगर में पुरुषों की मजबूरी होती है, सुबह के गए, देर रात गए लौटते हैं।अक्सर प्राइवेट नौकरी होती है,छुट्टी नहीं ले पाते। यहाँ पुरुष विलेन नहीं मजबूर होते हैं।पर इनमें ही जो पुरूष स्वभाव से क्रूर होते हैं पत्नी के इतना कुछ करने के बाद भी उसे गालियों और नीले-काले निशान से भी नवाजते हैं।

नौकरी वाली महिलाओं की गाथा तो और भी साहस भरी, सुबह चार बजे उठकर ,रात ग्यारह बजे तक घर-दफ्तर सब सम्भालती हैं।

खैर, इन सब पर फ़िल्म जब बनेगी तब देखी जाएगी।फिलहाल तो अमेज़न प्राइम पर The great indian kitchen देख लीजिए (खासकर सभी पुरुष )। भाषा मलयालम है,अगर इंग्लिश सबटाइटिल्स पढ़ने में मुश्किल हो तब भी आराम से देखी जा सकती है। समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

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