दो वर्ष पहले आज ही के दिन 'काँच के शामियाने ' की प्रतियाँ मेरे हाथों में आई थीं. अपनी पहली कृति के कवर का स्पर्श , उसके पन्नों की ताज़ी खुशबू ,वे सारे अहसास यादों में सुरक्षित हैं. मैंने उस वक्त लिखा था....." अब यह उपन्यास लोगों के समक्ष रखते कुछ ऐसी ही अनुभूति हो रही है ,जैसे अपने बच्चे को हॉस्टल भेजते वक़्त होती है। घर में बच्चे को आस-पड़ोस, दोस्त ,रिश्तेदार सब जानते हैं। उनके बीच बच्चा, बेख़ौफ़ विचरता है और उसकी माँ भी आश्वस्त रहती है. पर हॉस्टल एक अनजान जगह होती है, जहाँ बच्चे को अपनी जगह आप बनानी होती है। अपनी चारित्रिक दृढ़ता, अपने सद्गुणों, का परिचय देकर लोगों को अपना बनाना होता है।
आशा है, इस उपन्यास में भी कुछ ऐसी विशेषतायें होंगी जो उसे अपनी छोटी सी पहचान बनाने में सफल बनाएंगी। "
आशा है, इस उपन्यास में भी कुछ ऐसी विशेषतायें होंगी जो उसे अपनी छोटी सी पहचान बनाने में सफल बनाएंगी। "
अब पता नहीं कितनी पहचान बनी ,पर पाठकों का प्यार इसे भरपूर मिला. इसके लिए आप सबकी तह-ए- दिल से आभारी हूँ .
मुझसे पूछा गया था ,"आपको क्या लगता है ? कितने लोग ये उपन्यास खरीदेंगे ?"
मैंने ईमानदारी से कहा , "मैं कुछ नहीं कह सकती ."
"फिर भी कुछ तो आइडिया होगा"
"ना बिलकुल भी अंदाजा नहीं है..." और सचमुच मुझे ज़रा भी इलहाम नहीं था क्यूंकि मेरे जो मुट्ठी भर नियमित पाठक और अच्छे दोस्त थे . उनलोगों ने तीन साल पहले ब्लॉग पर किस्तों में यह कहानी पढ़ रखी थी .मुझे लगा था , दुबारा पढने के लिए वे लोग शायद ही यह उपन्यास खरीदें . पर यह देख सुखद आश्चर्य हुआ कि ब्लॉग के करीब करीब सभी पाठकों ने यह उपन्यास मंगवाया और दुबारा पढ़ा . उनका कहना था, 'तब किस्तों में पढी थी, एक बार में पूरी किताब ख़त्म करना एक अलग अनुभव रहा '. आश्चर्यमिश्रित खुशी बढती गई, जब पाठकों ने इस उपन्यास पर अपनी प्रतिक्रिया लिख कर पोस्ट करनी शुरू की . समीक्षा पढ़कर ,अन्य पाठकों में उत्सुकता जगती और वे भी किताब मंगवा कर पढ़ते .धीरे धीरे एक श्रृंखला सी बनती गई और हर समीक्षा ने इस किताब को कम से कम चार पाठक और दिए . कई स्थापित लेखक- लेखिकाओं, कलाकारों ,पत्रकारों ने भी इस उपन्यास को पढ़ा और उस पर लिखा . कुछ लोगों ने अखबारों, पत्रिकाओं में समीक्षा भी लिखी. 'पाखी', 'राजस्थान पत्रिका', 'नवभारत टाइम्स', ,दैनिक जागरण, जन्संदेश टाइम्स , 'प्रभात खबर ; 'नई दुनिया ' आदि शीर्ष के अखबारों में समीक्षायें छपीं . मैं आप सबों के नाम नहीं लिख रही कि कहीं कोई नाम छूट ना जाए ,इस कृति को अपना स्नेह देने के लिए आप सबों का ह्रदय से आभार .
मैंने ईमानदारी से कहा , "मैं कुछ नहीं कह सकती ."
"फिर भी कुछ तो आइडिया होगा"
"ना बिलकुल भी अंदाजा नहीं है..." और सचमुच मुझे ज़रा भी इलहाम नहीं था क्यूंकि मेरे जो मुट्ठी भर नियमित पाठक और अच्छे दोस्त थे . उनलोगों ने तीन साल पहले ब्लॉग पर किस्तों में यह कहानी पढ़ रखी थी .मुझे लगा था , दुबारा पढने के लिए वे लोग शायद ही यह उपन्यास खरीदें . पर यह देख सुखद आश्चर्य हुआ कि ब्लॉग के करीब करीब सभी पाठकों ने यह उपन्यास मंगवाया और दुबारा पढ़ा . उनका कहना था, 'तब किस्तों में पढी थी, एक बार में पूरी किताब ख़त्म करना एक अलग अनुभव रहा '. आश्चर्यमिश्रित खुशी बढती गई, जब पाठकों ने इस उपन्यास पर अपनी प्रतिक्रिया लिख कर पोस्ट करनी शुरू की . समीक्षा पढ़कर ,अन्य पाठकों में उत्सुकता जगती और वे भी किताब मंगवा कर पढ़ते .धीरे धीरे एक श्रृंखला सी बनती गई और हर समीक्षा ने इस किताब को कम से कम चार पाठक और दिए . कई स्थापित लेखक- लेखिकाओं, कलाकारों ,पत्रकारों ने भी इस उपन्यास को पढ़ा और उस पर लिखा . कुछ लोगों ने अखबारों, पत्रिकाओं में समीक्षा भी लिखी. 'पाखी', 'राजस्थान पत्रिका', 'नवभारत टाइम्स', ,दैनिक जागरण, जन्संदेश टाइम्स , 'प्रभात खबर ; 'नई दुनिया ' आदि शीर्ष के अखबारों में समीक्षायें छपीं . मैं आप सबों के नाम नहीं लिख रही कि कहीं कोई नाम छूट ना जाए ,इस कृति को अपना स्नेह देने के लिए आप सबों का ह्रदय से आभार .
इस पुस्तक ने कई नए मित्र भी दिए . उन्होंने किताब पढ़कर सम्पर्क किया और अब हम अच्छे दोस्त हैं . कुछ पाठकों ने तो आधी किताब पढने से पहले ही नम्बर लेकर फोन किया . कभी आधी रात को मैसेंजर टोन बजता और आग्रह होता, 'क्या मैं दो मिनट बात कर सकती हूँ " नम्बर देने के बाद मैं टाइप कर ही रही होती 'कल फोन करना' कि फोन बज उठता और आंसुओं में डूबी आवाज़ कहती ,' मेरे जीवन से मिलती जुलती कहानी है' मुझे सुनकर ख़ास ख़ुशी नहीं होती, दुःख होता कि आखिर किसी के जीवन में भी थोड़ा सा भी दुःख क्यूँ है " पर वे खुद ही आश्वस्त करतीं ,' नायिका जया की तरह वे भी संघर्ष कर अब उस दुःख से निकल आई हैं और अब जीवन में सब सही है पर किताब उन्हें अतीत में ले गया .कई पाठिकाओं ने कहा कि उपन्यास का कोई ना कोई पन्ना उनकी जिंदगी से मिलता जरूर है.
जब सब उपन्यास पढ़ते हुए 'नम आँखों ' की बात करते तो कहीं अपराध बोध भी होता . पर फिर वे स्पष्ट करतीं कि नायिका का संघर्ष सफल होता देख ,उनके होठों पर मुस्कान भी आई . कुछ फ्रेंड्स ने बड़ी विकट स्थितियों का भी जिक्र किया .एक मित्र की पत्नी ,फ्लाईट में 'काँच के शामियाने' पढ़ रही थीं. उन्हें पता ही नहीं चला, कब उनके आंसू बहने लगे .अपने फेलो पैसेंजर से बड़े कौशल से उन्होंने आंसू छुपाये .एक फ्रेंड ट्रेन में गीली आँखों से उपन्यास पढ़ती रहीं .पर उनके साथ, उनके परिवार जन थे . जिनके पूछने पर बता दिया कि कहानी कुछ ऐसी है
मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि मुझे संदेह था कि शायद इस स्त्री विषयक उपन्यास को पुरुष पाठक ज्यादा पसंद ना करें .लेकिन मेरी धारणा निर्मूल सिद्ध हुई . कई पाठकों ने उपन्यास पढ़ा और उस पर लिखा भी. एक लडके का मासूम सा मेल आया था ,' मैम शायद इंजीनियरिंग की पढाई ने देर तक बैठने की आदत डाल दी है ...आपका उपन्यास भी एक बैठक में खत्म कर लिया " एक पाठक के संदेश ने द्रवित कर दिया था .उन्होंने लिखा था, " उपन्यास पढ़ते हुए मुझे लग रहा है क्या कभी मेरी बहन-भाभी -पत्नी को भी इन हालातों से गुजरना पड़ा होगा .अगर उनके साथ अंशमात्र भी कुछ ऐसा गुजरा हो तो मैं हाथ जोड़कर उन सबसे माफी माँगता हूँ " अगर कोई पुरुष ,इतना भी समझ भी ले तो लिखना सार्थक लगता है. एक मित्र बिटिया की शादी करने वाले थे .इस उपन्यास को पढ़कर तीन रात सो नहीं पाए और संकल्प लिया कि हर हाल में अपनी बिटिया के साथ खड़े रहेंगे . उपन्यास पर ऐसी प्रतिक्रियाएं ,मुझे अभिभूत कर देतीं . एक सहेली सुदूर गाँव में अपनी एक रिश्तेदार को यह उपन्यास भेजने के लिए बेचैन है कि किसी तरह वो ये उपन्यास पढ़ ले और उसमें भी जया सी हिम्मत आ जाए .वहाँ कोई भी कुरियर वाले नहीं जाते ,मैं भी किताब भेजने का प्रयास कर रही हूँ .
मुझे एक बात की ख़ुशी है कि इस उपन्यास की तकरीबन हर प्रति को एक से ज्यादा लोगों ने पढ़ा है . कुछ मैसेज पढ़कर मुस्कान आ जाती ,'आपका उपन्यास तो मिल गया है पर मेरे हाथों में अब तक नहीं पहुंचा...बहनों ने ले ली...ननद पढने लगी ,सास ने पढ़ा और फिर अपनी बहन को दे दी .कुछ लड़कियों ने पहली बार एक उपन्यास पढ़ा....कुछ ने कई वर्षों बाद कोईकिताब पढी .शायद आम सी कहानी है ,इसीलिए लोगों के दिल तक पहुँच रही है.
कुछ लोगों के आँखों से परदे भी हटे . एक कॉलेज की फ्रेंड अब सेंट्रल स्कूल की प्रिंसिपल है . पैर में मोच आने से बेड रेस्ट में थी और पड़े पड़े मेरा उपन्यास खत्म कर लिया . जब मैंने उसका हाल चाल लेने को फोन किया तो उसके स्कूल की कुछ टीचर्स वहाँ बैठी थीं . उपन्यास पर भी बात हुई और उसने कहा, 'तुमने बहुत बढ़ा चढा कर लिखा है ' पुरानी सहेली थी मैंने भी कह दिया ..." तुम्हारी खिड़की से जितना आसमान दिखता है, आसमान उतना ही नहीं है...नजर का दायरा बढ़ा कर देखो ' बात खत्म करने के बाद उसने पास बैठी शिक्षिकाओं को उपन्यास के बारे में बताया और ये भी कहा..."लिखने वाले ज़रा बढ़ा चढा कर लिख देते हैं, ऐसा थोड़े ही होता है " दूसरे दिन उन शिक्षिकाओं में से एक शिक्षिका वापस आई और पढने के लिए 'काँच के शामियाने ' माँगा .और फिर बातों बातों में फूट फूट कर रोने लगी .उसने अपनी कहानी बताई कि बहुत कुछ ऐसा उसके साथ गुजर चुका है . मेरी सहेली आवाक ,वो पांच साल से उस शिक्षिका को जानती थी पर उसे बिलकुल भी अंदाजा नहीं था ,' उस मुस्कराते चेहरे के पीछे कुछ पुराने गहरे दर्द भी छुपे हैं '
दोस्तों ने बड़े प्यार से फ्री में मेरी किताब के लिए मॉडलिंग भी की ..खूब प्यारी प्यारी तस्वीरें भेजीं .उनके स्नेह से मन भीग गया पाठकों ने ही इस उपन्यास को प्रकाशित करने के लिए जोर डाला था और यह सचमुच उनकी अपनी किताब है . इसे पाठकों के बीच लोकप्रिय होते देख ,उन्हें मुझसे ज्यादा खुशी होती .
हाथ जोड़कर,सर नवा कर सभी पाठकों का बहुत बहुत शुक्रिया ...ऐसे ही स्नेह बनाए रखें .
और हाँ ये कहना तो रह ही गया
हैप्पी बड्डे 'काँच के शामियाने' :)
और हाँ ये कहना तो रह ही गया
हैप्पी बड्डे 'काँच के शामियाने' :)