ये पोस्ट एक साल पहले ही लिखने की सोची थी...जब बाल श्रम की त्रासदियों पर लिखने पर मुझसे कुछ सवाल किए गए थे.पर फिर बाद में इरादा छोड़ दिया...हाल में ही जब इसी विषय से सम्बंधित एक पोस्ट लिखी तो मुझे आभास था कि फिर से इस पर आपत्ति दर्ज करते हुए कुछ सवाल उठाये जायेंगे. इसलिए इस बार पहले से ही तय कर लिया था कि अगली पोस्ट यही होगी...मेरे अंदेशे को सही ठहराते हुये, फिर से सवाल किए गए और मैने जबाब में लिख भी दिया...कि अगली पोस्ट में विस्तार से इस सम्बन्ध में लिखूंगी...लेकिन फिर से विचार त्याग दिया कि क्यूँ 'किसी एक के कथन को इतनी तवज्जो दी जाए??'...लेकिन अब देख रही हूँ कि एक चर्चा सी ही निकल पड़ी है और कई सुर एक साथ मिलकर इसे महज 'आरामकुर्सी चिंतन' का नाम दे रहे हैं.
सर्वप्रथम तो ये सोचा जाए कि 'हम लिखते क्यूँ हैं?' हो सकता है, कुछ लोग समाज में एक जागरण..क्रांति लाने के लिए लिखते हों....लोगो को ज्ञान बांटने के लिए लिखते हों. खुद को कवि-कहानीकार-पत्रकार के रूप में स्थापित करने को लिखते हों. सबके अपने कारण होंगे...पर मैं अपने बारे में कह सकती हूँ , मैं कोई क्रान्ति लाने...या ज्ञान बांटने का दावा नहीं करती या कोई तमगा लगाने की इच्छा नहीं रखती... मुझे लोगों से संवाद स्थापित करना..उनके साथ अपने विचार बांटना अच्छा लगता है. कोई किताब पढ़ती हूँ..फिल्म देखती हूँ...कोई खबर..या कोई सामाजिक समस्या उद्वेलित करती है...तो उस पर अपनी कहने और लोगो की सुनने की इच्छा होती है. जैसा हम अपने दोस्तों के बीच करते हैं....अपने सुखद-दुखद ..मजेदार संस्मरण भी सुनते सुनाते हैं. (मेरे जैसे ,निश्चय ही कुछ और लोग भी होंगे ) मन में सैकड़ों तरह के विचार आते हैं....जिन पर चर्चा करने का मन होता है. अब इन विचारों पर पाबंदी लगा देना कि नहीं सिर्फ फलां-फलां विषय पर ही बात की जा सकती है...अमुक विषय पर नहीं क्यूंकि आप उस विषय पर कुछ कर नहीं सकते...उस समस्या का समाधान नहीं कर सकते तो आराम से कुर्सी पर बैठ कर उस विषय पर चिंतन करना हास्यास्पद है.
और रोचक बात यह है कि इस तरह की बातें करने वालों की पोस्ट्स पर एक नज़र डाली तो पाया...उनलोगों ने भी तमाम तरह की समस्याओं पर मनन किया है...{जाहिर है कुर्सी पर बैठ कर ही किया होगा..ए.सी. ऑन किया था या नहीं..ये नहीं कहा जा सकता :)} अब कोई उनसे पूछे...आपने तो अन्ना के साथ दस दिन का अनशन नहीं रखा...आप तो नहीं गए लाल चौक पर झंडा फहराने...फिर उन विषयों पर चर्चा कैसे कर सकते हैं?...आपको तो बस आह-कराह भरे प्रेम गीत लिखने चाहिए. :)
यहाँ बहुसंख्यक ब्लोगर ऐसे हैं जिनका प्रोफेशन लेखन नहीं है....अपनी नौकरी.....घर की जिम्मेदारियों...सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए , थोड़ा सा समय निकाल कर अपने पसंदीदा विषयों पर वे लिखते हैं. कितने ही संस्मरण..कविताएँ...कहानियाँ पढ़कर लगता है...बिलकुल ऐसा ही तो हमने भी महसूस किया था. कई विषयों पर विस्तार से जानकारी मिलती है. जिन्हें पढ़कर पाठकों का भला अगर ना हो..तो कोई नुकसान तो नहीं ही होता. कितनी ही पोस्ट्स के पीछे उस पर की गयी मेहनत नज़र आती है. लेखक कई सारे आर्टिकल्स पढ़कर उसका निचोड़ अपनी पोस्ट में प्रस्तुत कर देता है. अब लेखक ने भले ही वातानुकूलित कमरे में एक आरामकुर्सी पर बैठ कर यह सब किया हो...पर वह दस आर्टिकल पढ़ने की हमारी मेहनत तो बचा लेता है....शायद हम उतनी मेहनत करें भी ना...पर निश्चित रूप से लाभान्वित तो होते ही हैं. पढनेवाला भी शायद ए.सी. लगाकर , आराम से कुर्सी पर बैठ कर ही पढ़े...पर उसे यह अधिकार तो नहीं मिल जाता कि वो लिखने वाले पर सवाल खड़े करे कि उसने तपती धूप में धूल भरी सड़कों की ख़ाक तो नहीं छानी...उनलोगों की मुश्किलें तो कम नहीं कर पाया...फिर उनकी मुश्किलों पर लिखने का क्या हक़ है??
टी.वी. चैनल्स पर सामाजिक विषयों पर लम्बे डिबेट्स..अखबारों में आलेख...सब कुर्सी पर और वातानुकूलित कमरे में बैठकर ही किए/लिखे जाते हैं. जिसे बड़ी रूचि से बाकी सब अपने -अपने घर में कुर्सियों पर बैठ कर { शायद ए.सी. भी लगाकर:)} देखते हैं...वहाँ तो सवाल नहीं उठाये जाते कि क्या फायदा..इन सबसे??...समस्या का समाधान तो ये कर नहीं रहे??...फिर सिर्फ ब्लॉग पर लिखने वालों पर ही ये आपत्ति या छींटाकशी क्यूँ??
कितने ही लोगो की पोस्ट पढ़कर लोगो को नई जानकारी मिली होगी. मुझे अपनी पोस्ट्स याद हैं...जब २००९ में मैने सिवकासी के बाल -मजदूरों पर लिखा...कितने ही लोगो ने टिप्पणियों में कहा...कि उन्हें इसके विषय में नहीं मालूम था...दुबारा जब २०१० में उसे रिपोस्ट किया...तब भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ मिलीं...मेल में भी अक्सर लोग इसका जिक्र करते रहे...पूरे एक साल बाद अभी ४ नवम्बर को हाल में ही फेसबुक पर एक लड़की की फ्रेंड रिक्वेस्ट आई....इस मेसेज के साथ
- Hello mam, Aapka blog dekha hai kai bar, lekin us par deepawali ka ek sansmaran jo ki shivkashi ke durdant sach ko bayan karta hai, use padh kar aankh me aasu aa gaye. Fir wo din aur aaj ka din hai ki maine patakhon ke bare me socha bhi nahi, isne kitno ko prabhavit kiya nahi janti par meri aur mere 12 saal ke bhai ki to zindagi hi badal di, halanki ham aur kuch to nahi kar sake par apne hisse ki imandari ham nibha rahe hai aur ishwar ki kripa se kabhi koi parivartan kar sakun to bahut khushi hogi.
aapne soye hue logon ko ek bar jhakjhorne ka jo kam kiya hai wo apne aap me sarahniy hai.
अगर किसी एक को भी मेरा लिखना सार्थक लगता है और वह उसे एक साल के बाद भी याद रखता है तो चाहे हज़ारो लोग मुझसे सवाल करते रहें, कि "आपने लिखने के सिवा क्या किया??" मुझे फर्क नहीं पड़ता. पटाखा उद्योग हो जरी उद्योग या कोई अन्य उद्योग..उसमे शामिल बच्चों की दुर्दशा के सम्बन्ध में किसी ने तो पहली बार लिखा होगा...अगर वो भी यही सोच कर रुक जाता कि मैं इन बच्चों को इस उद्योग से छुड़ा नहीं पा रहा....उनके पुनर्वास के लिए कुछ नहीं कर पा रहा फिर मुझे लिखने का क्या हक़ है?? तो दुनिया के सामने इन मासूमों की सच्चाई कभी आ पाती??
शर्मिला इरोम वाली पोस्ट जब लिखी थी...तब भी टिप्पणियों में कई लोगो ने स्वीकार किया कि उन्हें इसके बारे में नहीं पता था ...लेकिन मुझे तो चार दीवारों के अंदर महफूज़ होकर लिखना ही नहीं चाहिए था क्यूंकि मैं शर्मिला के साथ अनशन पर तो नहीं बैठी ...ऐसे ही महिलाओं के ऊपर घरेलू हिंसा...वृद्ध जनों के प्रति लोगो की उपेक्षा.....पति को खोने के बाद स्त्रियों कि स्थिति...immigrant workers....समाज में उपस्थित तमाम विसंगतियों के प्रति लिखना ही नहीं चाहिए....क्यूंकि हम इसे दूर तो नहीं कर पा रहे....पर जैसा कि शिल्पा मेहता ने एक पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में लिखा था...the first step to improvement in these situations is spreading awareness "... तो पोस्ट पर सवाल खड़े करने के बजाय या फिर 'आर्म चेयर आर्टिकल' कहकर माखौल उड़ाने के बजाय शिल्पा की बात पर भी ध्यान दिया जा सकता है..हालांकि ये स्पष्ट कर दूँ...मैं सोए समाज को जगाने के उद्देश्य से किसी योजना के तहत कुछ नहीं लिखती.....इसलिए लिखती हूँ क्यूंकि ये बातें मुझे व्यथित करती हैं.
और ये पूछना भी फ़िज़ूल है कि ,"आगे आयें और बतायें कि आपने अपने बच्चों के अलावा और किसी बच्चे /बच्चों के लिए क्या किया है ? संवेदना व्यक्त कर देने से ही एक इंसान के दायित्वों की पूर्ति नहीं हो जाती ....इस दिशा में -वचने का दरिद्रता वाले लोग बहुत हैं भारत में " चलो, मेरे पास इस सवाल का जबाब था...मैने दे दिया....पर जो लोग भी गहरी संवेदनाएं रखते है, वे जरूर कुछ ना कुछ करना चाहते हैं. लेकिन उन्हें मौका और माहौल नहीं मिलता. हर शहर में सेवा संस्थाएं नहीं हैं...या हैं भी तो उनकी जानकारी नहीं होती. कई बार महिलाएँ घर के कामों से समय नहीं निकाल पातीं....या फिर घर वाले पसंद नहीं करते...कई पुरुष भी नौकरी की व्यस्तता से समय नहीं निकाल पाते. पर उन्हें लिखने का शौक है...और वे अपने व्यस्ततम दिनचर्या से थोड़ा समय निकाल कर अपनी जानकारी, लोगो के साथ बाँटते हैं,तो इसमें बुरा क्या है?? जरी उद्योग में ज्यादातर बच्चे ,मधुबनी-सीतामढ़ी--दरभंगा जैसे शहरों से लाए जाते हैं...अगर नेट पर इसके विषय में पढ़कर...उसी शहर के किसी व्यक्ति ने अपने सामने किसी एजेंट को उन बच्चों के माता-पिता को लुभाते देखा तो उन्हें सच्चाई से अवगत तो करा सकता है.इसलिए यह कहना....कि कुछ ठोस नहीं कर पाते..तो इनपर बात भी नहीं करनी चाहिए..लिखना भी नहीं चाहिए....सही नहीं लगता.
और क्या पता..अपने- अपने स्तर पर सबलोग कुछ ना कुछ करते भी हों...क्यूंकि जो लोग सचमुच कुछ सेवाकार्य करते हैं..वे ढिंढोरा पीटना नहीं चाहते. मेरी एक सहेली है...हम रोज दिन में दो बार मिलते .हैं .साथ शॉपिंग जाते हैं...फिल्म जाते हैं पर उसने कभी नहीं बताया कि वो अपनी कामवाली के बेटे की दसवीं के किताबों और कोचिंग क्लास का पूरा खर्चा उठा रही है. हाल में ही उसकी बाई मेरे घर आई थी तो उसने बताया. ऐसे ही एक दूसरी सहेली ने नहीं कभी नहीं बताया कि एक सब्जीवाली के बेटे के ट्यूमर के टेस्ट-ऑपरेशन -हॉस्पिटल का सारा खर्च उसने दिया है. सब्ज़ीवाली ने बताया. ऐसे कई लोगो को जानती हूँ...जो अपने जन्मदिन पर उपहार नहीं लेते/लेतीं बल्कि...आग्रह करते हैं कि सड़क पर पल रहे बच्चों के लिए...चप्पलें...कपड़े...जरूरत के दूसरे सामान खरीद दिए जाएँ. बच्चों का जन्मदिन घर में नहीं मनाते बल्कि अनाथालय के बच्चों के साथ मनाते हैं..(प्रसंगवश एक बात का उल्लेख कर रही हूँ . कई लोग श्राद्ध के मौके पर या और मौकों पर गरीबों को हलवा -पूरी-खीर खिलाते हैं. लेकिन एक बार एक अनाथालय के संचालक ने आग्रह किया कि हलवा-पूरी की जगह सब्जियां डली सादी खिचड़ी खिलाना श्रेयस्कर होगा. क्यूंकि उन गरीबों को या अनाथालय में पल रहे बच्चों को घी-तेल-मसालों से युक्त गरिष्ठ भोजन की आदत नहीं होती. वे रुखी- सूखी खाते हैं इसलिए ऐसा खाना खाने के बाद...उनकी तबियत खराब हो जाती है. दस्त-उलटी-पेटदर्द की शिकायत होने लगती है. हमलोग रोज दाल-चावल -रोटी-सब्जी खाते हैं..इसलिए हलवा-पूरी हमें विशेष लगता है..पर उन गरीबों के लिए हमारा सादा खाना ही स्वादिष्ट व्यंज्यन से कम नहीं...गरीबों को हलवा -पूरी खिला..लोग समझते हैं..बहुत पुण्य कमा लिया पर बदले में वे उनका अहित ही कर जाते हैं...हाँ, कम घी -तेल वाली मिठाई उन्हें दी जा सकती है )
जब इंसान के भीतर संवेदनाएं होंगी तो वह उन समस्याओं की चर्चा भी करेगा..उनपर लिखेगा भी....और अपने स्तर पर उसे दूर करने की भी कोशिश करेगा...इसलिए ये कहना कि 'बाल श्रम की चर्चा ही व्यर्थ है...इन सब विषयों पर लिखना ही निरर्थक है'...कुछ अजीब सा लगता है...तो फिर सार्थक लेखन क्या है??...सिर्फ ,प्रेम और विरह के गीत....संस्मरण...प्रवचन.... .फूल-तारे-चाँद-खुशबू की बातें??