बुधवार, 30 नवंबर 2011

कौन तय करेगा...क्या लिखना सार्थक है..और क्या निरर्थक..



ये पोस्ट एक साल पहले ही लिखने की सोची थी...जब बाल श्रम की त्रासदियों पर लिखने पर मुझसे कुछ सवाल किए गए थे.पर फिर बाद में इरादा छोड़ दिया...हाल में ही जब इसी विषय से सम्बंधित एक पोस्ट लिखी तो मुझे आभास था कि फिर से इस पर आपत्ति दर्ज करते हुए कुछ सवाल उठाये जायेंगे. इसलिए इस बार पहले से ही तय कर लिया था कि अगली पोस्ट यही होगी...मेरे अंदेशे को सही ठहराते हुये, फिर से सवाल किए गए और मैने जबाब में लिख भी दिया...कि अगली पोस्ट में विस्तार से इस सम्बन्ध में लिखूंगी...लेकिन फिर से विचार त्याग दिया कि क्यूँ 'किसी एक के कथन  को इतनी तवज्जो दी जाए??'...लेकिन अब देख रही हूँ कि एक चर्चा सी ही निकल पड़ी है और कई सुर एक साथ मिलकर इसे महज 'आरामकुर्सी चिंतन' का नाम दे रहे हैं.

सर्वप्रथम  तो ये सोचा जाए कि 'हम लिखते क्यूँ हैं?' हो सकता है, कुछ लोग समाज में एक जागरण..क्रांति लाने के लिए लिखते हों....लोगो को ज्ञान बांटने के लिए लिखते हों. खुद को कवि-कहानीकार-पत्रकार के रूप में स्थापित करने को लिखते हों. सबके अपने कारण होंगे...पर मैं अपने बारे में कह सकती हूँ , मैं कोई क्रान्ति लाने...या ज्ञान बांटने का दावा नहीं करती या कोई तमगा लगाने की इच्छा नहीं रखती... मुझे लोगों से संवाद स्थापित करना..उनके साथ अपने  विचार बांटना अच्छा लगता है. कोई किताब पढ़ती हूँ..फिल्म देखती हूँ...कोई खबर..या कोई सामाजिक समस्या उद्वेलित करती है...तो उस पर अपनी कहने और लोगो की सुनने की इच्छा होती है. जैसा हम अपने दोस्तों के बीच करते हैं....अपने सुखद-दुखद ..मजेदार संस्मरण भी सुनते सुनाते हैं.  (मेरे जैसे ,निश्चय ही कुछ और लोग भी होंगे ) मन में सैकड़ों तरह के विचार आते हैं....जिन पर चर्चा करने का मन होता है. अब इन विचारों पर पाबंदी लगा देना कि नहीं सिर्फ फलां-फलां विषय पर ही बात की जा सकती है...अमुक विषय पर नहीं क्यूंकि आप उस विषय पर कुछ कर नहीं सकते...उस समस्या का समाधान नहीं कर सकते तो आराम से कुर्सी पर बैठ कर उस विषय पर चिंतन  करना हास्यास्पद है.
 और रोचक बात यह है कि इस तरह की बातें  करने वालों की पोस्ट्स पर एक नज़र डाली तो पाया...उनलोगों ने भी तमाम तरह की समस्याओं पर मनन किया है...{जाहिर है कुर्सी पर बैठ कर ही किया होगा..ए.सी. ऑन किया था या नहीं..ये नहीं कहा जा सकता  :)} अब कोई उनसे पूछे...आपने तो अन्ना के साथ दस दिन का अनशन नहीं रखा...आप तो नहीं गए लाल चौक पर झंडा फहराने...फिर उन विषयों पर चर्चा कैसे कर सकते हैं?...आपको तो बस आह-कराह भरे प्रेम गीत लिखने चाहिए. :)

यहाँ बहुसंख्यक ब्लोगर ऐसे हैं जिनका प्रोफेशन लेखन नहीं है....अपनी नौकरी.....घर की जिम्मेदारियों...सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए , थोड़ा सा समय निकाल कर अपने पसंदीदा विषयों पर वे लिखते हैं. कितने ही संस्मरण..कविताएँ...कहानियाँ पढ़कर लगता है...बिलकुल ऐसा ही तो हमने भी महसूस किया था. कई विषयों पर विस्तार से जानकारी मिलती है. जिन्हें पढ़कर पाठकों का भला अगर ना हो..तो कोई नुकसान तो नहीं ही होता. कितनी ही पोस्ट्स  के पीछे उस पर की गयी मेहनत नज़र आती है. लेखक कई सारे आर्टिकल्स पढ़कर उसका निचोड़ अपनी पोस्ट में प्रस्तुत कर देता है. अब लेखक ने भले ही वातानुकूलित कमरे में एक आरामकुर्सी पर बैठ कर यह सब किया हो...पर वह दस आर्टिकल  पढ़ने की हमारी मेहनत तो बचा लेता है....शायद  हम उतनी मेहनत करें भी ना...पर निश्चित रूप से लाभान्वित तो होते ही हैं. पढनेवाला भी शायद ए.सी. लगाकर , आराम से कुर्सी पर बैठ कर ही पढ़े...पर उसे यह अधिकार तो नहीं मिल जाता कि वो लिखने वाले पर सवाल खड़े करे कि उसने  तपती धूप में धूल भरी सड़कों की ख़ाक तो नहीं छानी...उनलोगों की मुश्किलें तो कम नहीं कर पाया...फिर उनकी मुश्किलों पर लिखने का क्या हक़ है?? 

टी.वी. चैनल्स पर सामाजिक विषयों पर लम्बे डिबेट्स..अखबारों में आलेख...सब कुर्सी पर और  वातानुकूलित कमरे में बैठकर ही किए/लिखे जाते हैं. जिसे बड़ी रूचि से बाकी सब अपने -अपने घर में  कुर्सियों पर बैठ कर { शायद ए.सी. भी लगाकर:)} देखते हैं...वहाँ तो सवाल नहीं उठाये जाते  कि क्या फायदा..इन सबसे??...समस्या का समाधान तो ये कर नहीं रहे??...फिर सिर्फ ब्लॉग पर लिखने वालों पर ही ये आपत्ति या छींटाकशी क्यूँ??

कितने ही लोगो की पोस्ट पढ़कर लोगो को नई जानकारी मिली होगी. मुझे अपनी पोस्ट्स याद हैं...जब २००९ में मैने सिवकासी के बाल -मजदूरों पर लिखा...कितने ही लोगो ने टिप्पणियों में कहा...कि उन्हें इसके विषय में नहीं मालूम था...दुबारा जब २०१० में उसे रिपोस्ट किया...तब भी ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ  मिलीं...मेल में भी अक्सर लोग इसका जिक्र करते रहे...पूरे एक साल बाद अभी ४ नवम्बर को  हाल में ही फेसबुक पर एक लड़की की फ्रेंड रिक्वेस्ट आई....इस मेसेज के साथ
  • Hello mam, Aapka blog dekha hai kai bar, lekin us par deepawali ka ek sansmaran jo ki shivkashi ke durdant sach ko bayan karta hai, use padh kar aankh me aasu aa gaye. Fir wo din aur aaj ka din hai ki maine patakhon ke bare me socha bhi nahi, isne kitno ko prabhavit kiya nahi janti par meri aur mere 12 saal ke bhai ki to zindagi hi badal di, halanki ham aur kuch to nahi kar sake par apne hisse ki imandari ham nibha rahe hai aur ishwar ki kripa se kabhi koi parivartan kar sakun to bahut khushi hogi.

    aapne soye hue logon ko ek bar jhakjhorne ka jo kam kiya hai wo apne aap me sarahniy hai. 

अगर किसी एक को भी मेरा लिखना सार्थक लगता है और वह उसे एक साल के बाद भी याद रखता है तो चाहे हज़ारो लोग मुझसे सवाल करते रहें, कि "आपने लिखने के सिवा क्या किया??" मुझे फर्क नहीं पड़ता. पटाखा उद्योग हो जरी उद्योग या कोई अन्य उद्योग..उसमे शामिल बच्चों की दुर्दशा  के सम्बन्ध में किसी ने तो पहली बार लिखा होगा...अगर वो भी यही सोच कर रुक जाता कि मैं इन बच्चों को इस उद्योग से छुड़ा नहीं पा रहा....उनके पुनर्वास के लिए कुछ नहीं कर पा रहा फिर मुझे लिखने का क्या हक़ है?? तो दुनिया के सामने इन मासूमों की सच्चाई कभी आ पाती??
शर्मिला इरोम वाली पोस्ट जब लिखी थी...तब भी टिप्पणियों में कई लोगो ने स्वीकार किया कि उन्हें इसके बारे में नहीं पता था ...लेकिन मुझे तो चार दीवारों के अंदर महफूज़ होकर लिखना ही नहीं चाहिए था क्यूंकि मैं शर्मिला  के साथ अनशन पर तो नहीं बैठी ...ऐसे ही महिलाओं के ऊपर घरेलू हिंसा...वृद्ध जनों के प्रति लोगो की उपेक्षा.....पति को खोने के बाद स्त्रियों कि स्थिति...immigrant workers....समाज में उपस्थित तमाम विसंगतियों के प्रति लिखना ही नहीं चाहिए....क्यूंकि हम इसे दूर तो नहीं कर पा रहे....पर जैसा कि शिल्पा मेहता ने एक पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में लिखा था...the first step to improvement in these situations is spreading awareness "... तो पोस्ट पर सवाल खड़े करने के बजाय या फिर 'आर्म चेयर आर्टिकल' कहकर माखौल  उड़ाने के बजाय शिल्पा की बात पर भी ध्यान दिया जा सकता है..हालांकि ये स्पष्ट कर दूँ...मैं सोए समाज को जगाने के उद्देश्य से किसी योजना  के तहत कुछ नहीं लिखती.....इसलिए लिखती हूँ क्यूंकि ये बातें मुझे व्यथित करती हैं.

और ये पूछना  भी फ़िज़ूल है कि ,"आगे आयें और बतायें कि आपने अपने बच्चों के अलावा और किसी बच्चे /बच्चों के लिए क्या किया है ?  संवेदना व्यक्त कर देने से ही एक इंसान के दायित्वों की पूर्ति नहीं हो जाती ....इस दिशा में -वचने का दरिद्रता वाले लोग बहुत हैं भारत में " चलो, मेरे पास इस सवाल का जबाब था...मैने दे दिया....पर जो लोग भी गहरी संवेदनाएं रखते है, वे जरूर कुछ ना कुछ करना चाहते हैं. लेकिन उन्हें मौका और माहौल नहीं मिलता. हर शहर में सेवा संस्थाएं नहीं हैं...या हैं भी तो उनकी जानकारी नहीं होती.  कई बार महिलाएँ  घर के कामों से समय नहीं निकाल पातीं....या फिर घर वाले पसंद नहीं करते...कई पुरुष भी नौकरी की व्यस्तता से समय नहीं निकाल पाते. पर उन्हें लिखने का शौक है...और वे अपने व्यस्ततम दिनचर्या से थोड़ा समय निकाल कर अपनी जानकारी, लोगो के साथ बाँटते हैं,तो इसमें बुरा क्या है??  जरी उद्योग में ज्यादातर बच्चे ,मधुबनी-सीतामढ़ी--दरभंगा जैसे शहरों से लाए जाते हैं...अगर नेट पर इसके विषय में पढ़कर...उसी  शहर  के किसी व्यक्ति ने अपने सामने किसी एजेंट को उन बच्चों के माता-पिता को लुभाते देखा तो उन्हें सच्चाई से अवगत तो करा  सकता है.इसलिए यह कहना....कि कुछ ठोस नहीं कर पाते..तो इनपर बात भी नहीं करनी चाहिए..लिखना भी नहीं चाहिए....सही नहीं लगता.

 और क्या पता..अपने- अपने  स्तर पर सबलोग कुछ ना कुछ करते भी हों...क्यूंकि जो लोग सचमुच कुछ सेवाकार्य करते हैं..वे ढिंढोरा पीटना नहीं चाहते. मेरी एक सहेली है...हम रोज दिन में दो बार मिलते .हैं .साथ शॉपिंग जाते हैं...फिल्म जाते हैं पर उसने कभी नहीं बताया कि वो अपनी कामवाली के बेटे की दसवीं के किताबों और कोचिंग क्लास का पूरा खर्चा उठा रही है. हाल में ही उसकी बाई मेरे घर आई थी तो उसने बताया. ऐसे ही एक दूसरी सहेली ने नहीं कभी नहीं बताया कि एक सब्जीवाली के बेटे के ट्यूमर के टेस्ट-ऑपरेशन -हॉस्पिटल का सारा खर्च उसने दिया है. सब्ज़ीवाली ने बताया. ऐसे कई लोगो को जानती हूँ...जो अपने जन्मदिन पर उपहार नहीं लेते/लेतीं बल्कि...आग्रह करते हैं कि सड़क पर पल रहे बच्चों के लिए...चप्पलें...कपड़े...जरूरत के दूसरे सामान खरीद दिए जाएँ. बच्चों का जन्मदिन घर में नहीं मनाते  बल्कि अनाथालय के बच्चों के साथ मनाते हैं..(प्रसंगवश एक बात का उल्लेख कर रही हूँ . कई लोग  श्राद्ध के मौके पर या और मौकों पर गरीबों को हलवा -पूरी-खीर खिलाते हैं. लेकिन एक बार एक अनाथालय के संचालक ने आग्रह किया कि हलवा-पूरी की जगह सब्जियां डली सादी खिचड़ी खिलाना श्रेयस्कर होगा. क्यूंकि उन गरीबों को या अनाथालय में पल रहे बच्चों को घी-तेल-मसालों से युक्त गरिष्ठ भोजन की आदत नहीं होती. वे रुखी- सूखी खाते हैं इसलिए ऐसा खाना खाने के बाद...उनकी तबियत खराब हो जाती है. दस्त-उलटी-पेटदर्द की शिकायत होने लगती है. हमलोग रोज दाल-चावल -रोटी-सब्जी खाते हैं..इसलिए  हलवा-पूरी हमें विशेष लगता है..पर उन गरीबों के लिए हमारा सादा खाना ही स्वादिष्ट व्यंज्यन से कम नहीं...गरीबों को हलवा -पूरी खिला..लोग समझते हैं..बहुत पुण्य कमा लिया  पर बदले में वे उनका अहित ही कर जाते हैं...हाँ, कम घी -तेल वाली मिठाई  उन्हें दी जा सकती है ) 

जब इंसान के भीतर संवेदनाएं होंगी तो वह उन समस्याओं की चर्चा भी करेगा..उनपर लिखेगा भी....और अपने स्तर पर उसे दूर करने की भी कोशिश करेगा...इसलिए ये कहना कि 'बाल श्रम की चर्चा ही व्यर्थ है...इन सब विषयों पर लिखना ही निरर्थक  है'...कुछ अजीब सा लगता है...तो फिर सार्थक लेखन क्या है??...सिर्फ ,प्रेम और विरह के गीत....संस्मरण...प्रवचन.....फूल-तारे-चाँद-खुशबू की बातें??

शनिवार, 26 नवंबर 2011

उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन

अक्सर मैं किसी विषय पर एक पोस्ट लिखती हूँ...पर पोस्ट पब्लिश करने के बाद भी कितनी ही बातें मन में घुमड़ती रह जाती हैं...और एक श्रृंखला सी ही बन जाती है. कई  बार टिप्पणियाँ भी विषय आगे बढाने को मजबूर कर देती हैं. 

पिछली पोस्ट में मैने लिखा था...
जो बुजुर्ग दंपत्ति अकेले अपने बच्चों से अलग जीवन बिताते हैं...अब शायद वे सहानुभूति  के पात्र नहीं हैं. अगर उन्होंने अपना भविष्य सुरक्षित रखा हो...और कुछ शौक अपना रखे हों तो उनकी वृद्धावस्था भी सुकून से कटती है. 

पर ये उन खुशनसीब बुजुर्गों के लिए सही है....जिन्हें जीवन की सांझ में भी एक-दूसरे का साथ प्राप्त हो...पर उनलोगों की स्थिति बहुत ही कारुणिक होती है...जो जीवन के इस मोड़ पर आकर बिछड़ जाते हैं. जिंदगी भर दूसरे    कर्तव्य निभाते एक-दूसरे के लिए समय नहीं निकाल पाते और जब सभी कर्तव्यों से निवृत हो उनके पास समय ही समय होता है तो एक दूसरे का साथ छूट जाता है और फिर से वे अकेले ही जीवन बिताने को अभिशप्त हो जाते हैं.

एक मनोवैज्ञानिक मित्र ने एक बार बताया था..उनके पास एक वृद्ध सज्जन आए जो पत्नी की मृत्यु के बाद आत्महत्या कर लेना चाहते थे .क्यूंकि वे गहन अपराधबोध से पीड़ीत थे. जीवन भर उन्होंने पत्नी की उपेक्षा की थी. उन्हें घर संभालने वाली एक हस्ती से अलग नहीं देखा था. अब सेवा निवृत हो वे पत्नी को मान-सम्मान देना चाहते थे. उनके साथ समय बिताना ..घूमना-फिरना चाहते थे. परन्तु पत्नी ही उन्हें छोड़ कर दूर जा चुकी थी. 

अक्सर किताबों में लोगो के संस्मरण या उनके अनुभवों  में सुना है...'पिता बहुत सख्त थे...हम उनसे बहुत डरते थे...उनके सामने बैठते नहीं थे...छोटी सी गलती की भी वे कड़ी सजा देते थे..' जाहिर है पिता यह सब बेटे के अच्छे भविष्य के लिए ही करते होंगे. पर इन सबमे वे बेटे के मन में एक कठोर पिता के रूप में ही जगह बना पाए...एक स्नेही पिता के रूप में नहीं. और अपनी वृद्धावस्था में जब वे बेटे से प्रेम की अपेक्षा करते हैं तो बेटा वह प्रेम दे ही नहीं पाता...क्यूंकि प्रेम का पौधा पिता ने उसके हृदयरूपी जमीन पर लगाया ही नहीं. जिंदगी कभी इतनी मोहलत नहीं देती कि कुछ काम हाशिए पर रखे जाएँ और समय आने पर उनका हिसाब-किताब किया जाए. कर्तव्य-देखभाल-अनुशासन-प्रेम-हंसी-ख़ुशी....सब साथ चलने चाहिए. जिंदगी के हर लम्हे में शामिल होने चाहिएँ . वरना अफ़सोस के सिवा कुछ और हाथ नहीं लगता.

अकेले पड़ गए माता या पिता को बच्चे, अकेले नहीं छोड़ सकते और नई जगह में ,ये किसी अबोध बालक से अनजान दिखते  हैं.यहाँ का रहन सहन,भाषाएँ सब अलग होती हैं. इनका कोई मित्र नहीं होता. बेटे-बहू-बच्चे भी सब अपनी दिनचर्या में व्यस्त होते हैं. इन्होने अपने पीछे एक भरपूर जीवन जिया होता है. पर उनके अनुभवों से  लाभ उठाने का वक़्त किसी के पास नहीं होता.

दिल्ली में मेरे घर के सामने ही एक पार्क था. देखती गर्मियों में शाम से देर रात तक और सर्दियों में करीब करीब सारा दिन ही,वृद्ध उन बेंचों पर बैठे शून्य निहारा करते. मुंबई में तो उनकी स्थिति और भी सोचनीय है. ये पार्क में होती तमाम हलचल के बीच,गुमनाम से बैठे होते हैं. कितनी बार बेंचों पर पास आकर दो लोग बैठ भी जाते हैं,पर उनकी उपस्थिति से अनजान अपनी बातों में ही मशगूल होते हैं. अभी हाल में ही एक शाम  पार्क गयी थी...इस पार्क में बीचोबीच एक तालाब  है. उसके चारो तरफ पत्थर की बेंचें बनी हुई  हैं..और बेंच के बाद एक चौड़ा सा जॉगिंग ट्रैक है. एक बेंच पर तालाब की तरफ मुहँ किए एक वृद्ध सज्जन बैठे थे और बार-बार रुमाल से अपनी आँखें पोंछ रहे थे. मन सोचने पर विवश हो उठा..पता नहीं...किस बात से दुखी हैं...पत्नी का विछोह है...या बेटे-बहू ने कोई कड़वी बात कह दी. 
जब भी बाहर से आती हूँ....पांचवी मंजिल की तरफ अचानक नज़र उठ ही जाती है.  शाम के  छः बज रहे हों...रात के नौ या दिन के बारह... एक जोड़ी उदास आँखें खिड़की पर टंगी होती हैं...और मैं नज़रें नीचे कर लेती हूँ. 
वृद्धावस्था  अमीरी और गरीबी नहीं देखती.सबको एक सा ही सताती है. एक बार मरीन ड्राईव पर देखा. एक शानदार कार आई. ड्राईवर ने डिक्की में से व्हील चेयर निकाली और एक वृद्ध को सहारा देकर कार से उतारा. समुद्र तट के किनारे वे वृद्ध घंटों तक सूर्यास्त निहारते रहें.

यही सब देखकर एक कविता उपजी थी,यह भी डायरी के  पन्नों में ही 
क़ैद पड़ी थी अबतक. दो साल पहले 'मन का पाखी' पर पोस्ट किया था . आज यहाँ शेयर कर रही हूँ.


जाने क्यूँ ,सबके बीच भी 
अकेला सा लगता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.

यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता. 

ठोकर खा, एक क्षण देखते तो सही
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.

लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में

देख भी ले कोई शख्स ,तो चौंकेगा पल भर 
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर

यह निर्लिप्तता सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी 

काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका 
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर

ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका हो ना, कहीं हश्र यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.

(हालांकि अब थोड़े हालात बदल रहे हैं...पिछले कुछ वर्षों से इन एकाकी वृद्धों के साथ -साथ ये भी देखती  हूँ.. कुछ वृद्ध एक लाफ्टर क्लब बना जोर जोर से हँसते हैं..और व्यायाम भी करते हैं. शाम को भी वे एक-दो घंटे साथ बैठे बात-चीत करते हैं...इतना भी अगर उन्हें सुलभ हो तो जीने का बहाना मिल जाये

बुधवार, 23 नवंबर 2011

जिंदगी के ये मसले कभी आसान तो होंगे...

पिछली पोस्ट "हमारी कॉलोनी के काका'   पर आई टिप्पणियों ने कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया.
मेरे ये लिखने पर कि सत्तासी वर्षीय काका अपनी हमउम्र पत्नी के साथ अकेले रहते हैं. कई लोगो ने चिंता जताई....और  अपनी टिप्पणी में कहा...'काका ने बच्चों के बिना जीना सीख लिया'..या फिर 'कुछ ऐसा नहीं किया जा सकता कि उनके  बच्चों को उनका ध्यान रखने पर मजबूर किया जा सके"

ये सब पढ़कर एक ख्याल आया....कि अगर कल्पना की  जाए कि काका अपने बेटे के साथ किसी फ़्लैट में रहते हैं. मध्यम वर्गीय काका के बेटों का भी मुंबई में दो बेडरूम का फ़्लैट होगा. काका-काकी को ड्राइंग रूम में ही जगह मिलेगी. निश्चय ही रसोई पर अधिकार बहुरानी का होगा. शायद वो सुबह-सुबह काका को चाय बना कर देने में आना-कानी करे. काका को अपनी इस तरह की दिनचर्या पर भी शायद दो बातें सुननी पड़ें. या अगर हम सकारात्मक सोच रखें.. कि बेटे-बहू..काका के जीवन में दखल अंदाजी ना करें. लेकिन तब भी...अभी जैसी दिनचर्या काका जी रहे हैं...उस से अलग क्या होता.

काकी का भी अपनी  बहू रानी के साथ गप-शप में मन लगेगा या फिर  खिट- पिट  होगी या काकी चुप रहकर कर अपना समय गुजारेंगी. सास-बहू में सहेलिपना  बहुत कम ही देखा जाता है. और अगर काकी को चुपचाप ही अपने दिन गुजारने पड़ें तो फिर अपने घर में रहना क्या बुरा है. 

आजकल के बच्चों को उनके स्कूल... होमवर्क..ड्राइंग-डांस-गेम क्लासेस इतनी मोहलत नहीं देते कि वे अपने माता-पिता के साथ समय बिता सकें. दादा-दादी के साथ समय गुजारने का मौका कहाँ मिलेगा. 

एक सवाल यह भी है..अगर माता-पिता...बेटे-बहू के बीच सबकुछ स्नेह..प्यार..सम्मान से भरा  होता तो अलग रहने की नौबत ही क्यूँ आती? शुरुआत में कुछ तो ऐसा घटा होगा...कि दोनों ने एक-दूसरे की जिंदगी में दखल दिए बिना...अलग रहना तय किया होगा. और हर बार बच्चों को ही दोषी ठहराना ठीक नहीं. कई बार कोई वैमनस्य नहीं होता पर दोनों ही अपना स्पेस चाहते हैं. इसलिए अलग रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं. 

आजकल हर शहर की ये आम स्थिति है. क्यूंकि अब समीकरण बदल चुके हैं. पहले गाँवों में कृषि ही जीवन-यापन का साधन था. जमीन..खेत-खलिहान..घर के बड़े-बुजुर्ग के नाम पर होती थी....वे स्वतः ही घर के मालिक बन जाते थे...और सभी परिवारजन उनका आदर करते थे...उनकी आज्ञा मानने को बाध्य होते थे. पर अब सब कुछ बदल गया है. आजकल जब ,बड़े-बुजुर्ग अपने बच्चों के पास रहते हैं...तो वे घर के मालिक नहीं होते...बल्कि अक्सर बच्चों पर निर्भर होते हैं. बहुत कम प्रतिशत ही ऐसे लोगो का है जो बहुत ही मान-सम्मान के साथ अपने बुजुर्गों को रखते हैं. अक्सर उन्हें उपेक्षा..और कलह ही झेलनी पड़ती है. 

जिन घरों में बुजुर्गों का अपना कमरा होता है....बहुत ही आदर और मान-सम्मान मिलता है....वहाँ  भी उनकी अपनी जीवन चर्या क्या होती है?? अखबार पढ़ते हैं..टी.वी. देखते हैं...थोड़ा सा पार्क में टहल आते हैं. घर के सदस्य अक्सर व्यस्त ही रहते हैं...घर में आने-जाने वाले मेहमान भी ज्यादातर बेटे-बहुओं के दोस्त और सहेलियाँ ही होते हैं. घर की जिम्मेवारियों से भी वे मुक्त रहते हैं. उनकी जरूरत की सारी चीज़ें उनके  बेटे-बहू उन्हें उपलब्ध करवा देते  हैं. कहने-सुनने में यह कटु लगता है..पर उनका जीवन कुछ नीरस सा हो जाता है.

जो बुजुर्ग अपने घर में अकेले रहते हैं...वहाँ  पति-पत्नी के ऊपर घर चलाने की जिम्मेवारियां होती हैं. वे उनमे ही उलझे होते हैं. अपने घर में वे अपनी मर्जी से जीते हैं. पास-पड़ोस से भी उनके अपने बनाए हुए रिश्ते होते हैं. अक्सर आस-पास रहने वाले युवा दंपत्ति उन्हें माता-पिता स्वरुप सम्मान देते हैं और बुजुर्ग भी उन्हें...अपने बेटे-बेटियों जैसा प्यार देते हैं. उनके बीच स्नेह का ये बिरवा इसलिए पनपता है..क्यूंकि एक-दूसरे के जीवन में कोई दखलंदाजी नहीं होती. कोई अपेक्षाएं या शिकायतें नहीं होतीं. बुजुर्गों की अपनी इच्छानुसार...समयानुकूल जितनी सेवा कर दी...उतने में ही बुजुर्ग दंपत्ति खुश हो जाते हैं..क्यूंकि पीछे कोई इतिहास नहीं होता...कि अपने बेटे के लिए इतना किया..बदले में उसने बस इतना सा किया. पड़ोसी युवा दंपत्ति भी सुकून से रहते हैं...क्यूंकि ये बुजुर्ग किसी तरह की  टोका-टाकी नहीं करते...ना ही किसी तरह की जबाबदेही होती है..उनके प्रति.

जो बुजुर्ग अकेले अपने बच्चों से अलग जीवन बिताते हैं...अब शायद वे सहानुभूति  के पात्र नहीं हैं. अगर उन्होंने अपना भविष्य सुरक्षित रखा हो...और कुछ शौक अपना रखे हों तो उनकी वृद्धावस्था भी सुकून से कटती है. हाँ, बीमार पड़ने पर किसी तरह की असुविधा होने पर उनके बच्चों को उनका ख्याल जरूर रखना चाहिए. अपना यह कर्तव्य कभी नहीं भूलना चाहिए.

आजकल महानगरों में एक चलन देख रही हूँ....अक्सर लोग..अपने माता-पिता का पुराना मकान बेच कर उनके लिए अपने फ़्लैट के पास ही कोई फ़्लैट खरीद देते हैं. दोनों की अपनी प्राइवेसी भी बनी रहती है...और बुजुर्गों की देख-भाल भी हो जाती है...अपने बच्चों को अपने आस-पास पाकर उनका मन भी लगा रहता है. 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

हमारी कॉलोनी के काका


उम्र के इस मोड़ पर भी....किसी को नमस्ते कहती हूँ...और वे आशिर्वादस्वरूप मेरी हथेली पर कभी कोई टॉफी..लेमनचूस...खट्टी-मीठी गोलियाँ तो कभी दो बेर रख देते हैं. मेरे ये कहने पर..."क्या काका....हम बच्चे थोड़े ही हैं..." वे मुस्कुरा कर कहते हैं...."अरे खा लो"..या फिर कहते हैं..."बच्चों को दे देना" . ये हैं हमारी कॉलोनी के काका. उनकी जेबें हमेशा इन चीज़ों से भरी रहती है...और बच्चों को ..रुक कर उनसे दो बातें करने वालों की हथेली पर वे कुछ रखना कभी नहीं भूलते.  इनका नाम है, 'श्रीनिवास रा. तलवलकर' . सत्तासी (87 ) वसंत देख चुके औसत कद के दुबले-पतले पर स्फूर्तिवान काका सुबह साढ़े छः बजे ऑटो के  इंतज़ार में खड़े मिलते  हैं. रोज, सुबह की चाय पी वे ऑटो ले लाइब्रेरी जाते हैं. सीनियर सिटिज़न की लाइब्रेरी की चाबी उनके पास ही रहती है. लाइब्रेरी में छः अखबार आते हैं...उनपर स्टैम्प लगाते हैं. पत्रिकाओं को करीने से रखते हैं. लोगो से मिलजुलकर वे घर लौटते हैं. नाश्ता कर, लेखन कार्य करते हैं. फिर खाना खाकर थोड़ा आराम और दो बजे से वे बच्चों को मराठी पढ़ाने के लिए निकल पड़ते हैं.

मुझसे भी काका की पहचान इसी क्रम में हुई. जब मेरा बड़ा बेटा किंजल्क चौथी कक्षा में गया उसके पाठ्यक्रम में एक नया विषय जुड़ गया, 'मराठी'. मैने सोचा, लिपि देवनागरी है...थोड़ी-बहुत समझ में आ ही जाती है. मैं उसे पढ़ा लूंगी . एक दिन मैं उसे एक कविता में  समझा रही थी ,"तूप रोटी खा'...का अर्थ है.."दूध रोटी खा' और पोछा लगाती मेरी काम वाली बाई ने कहा...'नहीं भाभी 'तूप' का मतलब होता है..'घी' यानि 'घी रोटी खा'...ऐसे ही एक दिन एक पाठ में  "गवत काढतो" का अर्थ मैं समझाने लगी...कि 'कुछ लोग..पेड़ के नीचे बैठ..गप्पे हांक रहे थे .'...फिर से मेरी बाई ने सुधारा..."गवत काढतो' का अर्थ 'गप्पे हांकना' नहीं......'घास निकालना' है. अब मुझे चिंता हुई...ऐसे तो मेरा बेटा फेल हो जाएगा...एक सहेली से चर्चा की और उसने 'काका' के बारे बताया...और काका ने मेरे दोनों बेटों को इतनी अच्छी मराठी की शिक्षा दी कि बोर्ड में किंजल्क को ८६ और कनिष्क को ८१ नंबर मिले...अफ़सोस बस ये रहा  कि हिंदी में कम मिले..:(..आज काका की शिक्षा के बदौलत दोनों इतनी धाराप्रवाह मराठी बोलते हैं कि ट्रैफिक पुलिस...कुली वगैरह हमें भाव ही नहीं देते, मेरे बेटों से ही बात करते हैं. 

हमारी कौलोनो के ज्यादातर बच्चों को काका ने ही मराठी पढाया है. और गौर करने की बात ये है कि काका, शिक्षक नहीं हैं. वे पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हुए हैं. मराठी साहित्य पढना-पढ़ाना उनका शौक है. उन्हें लिखने का भी शौक है और अक्सर अखबारों में पत्रिकाओं में उनके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं. वे हमेशा कहते हैं, मुझे जो पेंशन मिलती है...उसमे मेरा खर्च निकल आता है...लेकिन मैं चाहता हूँ...ज्यादा से ज्यादा लोग मराठी पढना-लिखना सीखें. इसीलिए काका को पैसे  का भी आकर्षण नहीं. आज के युग में ,घर पर आ कर पढ़ाने का वे मात्र दो सौ रुपये लेते थे. मैने और मेरी सहेली ने उनसे जबरदस्ती ये राशि तीन सौ रुपये करवाई. पर काका संकोचवश किसी से पैसे के लिए नहीं कहते और कई लोग इसका फायदा उठा...उन्हें समय पर पैसे नहीं देते या फिर कम देते हैं...काका फिर भी कुछ नहीं कहते. पर जब कई लोग उन्हें मान-सम्मान नहीं देते तो उन्हें जरूर दुख होता. कई घरों में माता-पिता नौकरी पर होते..और बच्चे अकेले घर पर,रहकर अपनी मनमानी करते.....जब भी मैं चाय लेकर जाती...काका ये सब बातें शेयर करते...बातों -बातों में काका के जीवन के पन्ने भी खुलते चले जाते...मुश्किल , बस ये होती कि बातें करते काका भूल जाते कि मुझे मराठी नहीं आती और वे हिंदी से कब मराठी में स्विच कर जाते,उन्हें भी पता नहीं चलता. जो बातें समझ नहीं आती मुझे बाद में बच्चों से पूछना पड़ता.

काका की जीवन-कथा भी कम दिलचस्प नहीं. उनका जन्म ३० जुलाई १९२४ को महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के अक्कलकोट नामक गाँव में हुआ. काका दस भाई बहन में सबसे बड़े थे. थे. घर में बहुत गरीबी थी. काका पढ़ने में बहुत तेज थे.पर उनके गाँव में उस वक्त सिर्फ प्राइमरी स्कूल ही था.  उनके पिताजी के रिश्ते की एक बहन उन्हें आगे पढ़ने के लिए अपने गाँव लेकर गयी. वहाँ काका सात दिनों में सात घर में खाना खाया करते थे और सबका काम कर देते थे. इस तरह से उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की. उसी वक़्त उनके पिताजी  गुजर गए. काका को सोलापुर में राशनिंग ऑफिस में चालीस रुपये के वेतन पर नौकरी मिली. बीस रुपये वे घर भेज देते थे..दस रुपये खुद के लिए रखते  थे और दस रुपये अपनी नानी को भेजते थे. इसके बाद उन्हें अहमदनगर में पोस्ट ऑफिस में इकसठ  रुपये के वेतन  पर दूसरी नौकरी मिली. घर के हालात सुधरने लगे. छोटे भाई-बहन पढ़ने लगे. बहनों की शादी भी  कर दी. काका की शादी १९४५ में हुई. महाराष्ट्र में ही उनके तबादले होते रहे. कई बार नौकरी में उनके सीधेपन  का फायदा उठा..उनके सहकर्मियों ने उन्हें धोखा भी दिया...फिर भी काका का बहुत ज्यादा नुकसान नहीं कर पाए वो.

अपने झोले में से मेरे लिए कोई हिंदी पत्रिका ढूंढते हुए 
१९८२ में काका रिटायर होकर बॉम्बे आ गए क्यूंकि उनके सारे भाई-बहन बॉम्बे में ही थे. काका के बड़े लड़के की नौकरी भी बॉम्बे में ही थी. काका के दो पुत्र और एक पुत्री हैं. पर काका,काकी के साथ अकेले ही रहते हैं.   हमारे समाज के हर वृद्ध की तरह काका की कहानी भी अलग नहीं है. उनके बड़े बेटे काका के घर से कुछ ही दूरी पर रहते हैं. परन्तु माता-पिता के पास बिलकुल ही नहीं आते-जाते. हाल में ही काका ने बहुत दुखी होकर बताया कि उनके बेटे की पचासवीं वैवाहिक वर्षगाँठ थी..क्लब में बड़ी सी पार्टी दी..परन्तु माता-पिता को कोई सूचना या आमंत्रण नहीं मिला. उनकी बिल्डिंग के लोग...आस-पड़ोस ही अब उनका परिवार है.

काका मराठी साहित्य के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं. अभी हाल में ही उनकी लिखी मराठी लोक कथाओं की एक पुस्तक प्रकाशित हुई है. परन्तु मराठी प्रकाशन की स्थिति भी हिंदी प्रकाशन से इतर नहीं है. इस पुस्तक के प्रकाशन में काका के सत्रह हज़ार रुपये खर्च हो गए. बड़े मन  से हर जान-पहचान वालों को काका ने वो पुस्तक भेंट की. अभी काका एक दूसरी पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी में लगे हुए हैं. कहते हैं...कुछ एरियर्स मिलने वाले हैं...उन पैसों को इनमे लगा दूंगा. जब बच्चों को पढ़ाने आते थे...अक्सर काका किसी पत्रिका में छपे अपने किसी आलेख की चर्चा करते. एक  दिन मैने यूँ ही पूछ लिया..."काका आपको..कुछ पारिश्रमिक भेजते हैं ..वे लोग"?...काका ने कहा...' नहीं..वे पत्रिका ही भेज देते हैं...{आज मेरे साथ भी ऐसा ही होता है...पारिश्रमिक की जगह मैं पत्रिका पाकर ही खुश हो जाती हूँ..:)}

काका कोई भगवान तो हैं नहीं...एक आम इंसान हैं...इसलिए इंसान जनित कमजोरियां उनमे भी हैं. वे घर में बिलकुल ही नहीं टिकते. घर से बस सोने खाने -लिखने-पढ़ने का ही सरोकार रखते हैं. खाली वक़्त में अक्सर गेट के पास रेलिंग पर बैठे होते हैं. हमेशा कहते हैं.."घर में काकी किट-पिट करती है...इसलिए घर में रहने का नई...बस पैसे काकी के हाथों में रख देता हूँ..." अब इतने बुजुर्ग हैं..उनसे कैसे कहूँ.."काकी को भी तो इस उम्र में साथ चाहिए...कोई बोलने- बतियाने वाला चाहिए...आप सारा दिन घर से बाहर रहेंगे तो वे किट-पिट तो करेंगी ही. " कई बार अपनी झुकी कमर के साथ काकी...किसी बाई के साथ...अकेली दुकान में खरीदारी करती हुई दिख जाती हैं.

परन्तु काका सही मायनों में एक कर्मयोगी हैं. और सबसे अच्छी बात...उन्हें शुगर...ब्लड- प्रेशर..कोलेस्ट्रौल ..किसी तरह की कोई बीमारी नहीं.  मेरे बच्चों का कैरियर अभी शुरू भी नहीं हुआ..पर वे काका को देखकर कहते हैं..." अपनी रिटायर्ड लाइफ तो बिलकुल काका की तरह जीनी है"

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

ज़री बौर्डर पर काले धब्बे

जब सिवकासी में पटाखे बनाने वाले बाल-मजदूरों पर एक पोस्ट लिखी थी....उसके बाद ही 'ज़री उद्योग' में लगे  बच्चों के विषय में भी लिखने की इच्छा थी...खासकर इसलिए भी कि कई लोगों का बाल-श्रम के सन्दर्भ में कहना है कि इस से बच्चों का पेट भरता है..वे परिवार की मदद कर पाते हैं...उनका दिमाग पूरी तरह विकसित हो चुका होता है...इसलिए उनका काम करना उचित है...अब शायद उन्हें पता नहीं कि किस तरह के हालातों में ये लोग काम करते हैं...या फिर इस तरह उनका काम करना उन्हें स्वीकार्य है या फिर वे उनकी दशा के सम्बन्ध में आँखें मूँद लेना चाहते हैं. 

अक्सर अखबारों में खबरे आती हैं... फलां ज़री यूनिट से इतने बच्चे पकडे गए. ज़री यूनिट का मालिक फरार हो जाता है..और बच्चे अपने माता-पिता के पास गाँव भेज दिए जाते हैं, लेकिन तबतक दूसरे गाँवों से दूसरे बच्चों को....किसी गलीचे-बीडी - ईंटें -पटाखे' उद्योग के बिचौलिए बहला-फुसला कर उनके माता-पिता को उनके अच्छे भविष्य का लालच देकर शहर ले आते हैं और कई शिक्षित-समझदार लोग भी इसे उचित समझते हैं कि बच्चे का पेट तो भर रहा है...और वो गाँव में दर-दर की ठोकरें तो नहीं खा रहा.

मुंबई-दिल्ली-सूरत-कलकत्ता..करीब करीब  हर बड़े शहर में कपड़ों पर ज़री की कढाई का काम किया जाता है और ज्यादातर बच्चे ही इस कढाई के  के काम में लगे होते हैं. केवल दिल्ली में ही 5000-7000 ज़री यूनिट्स हैं..और हर यूनिट में ४० के करीब बच्चे काम करते हैं. बिहार-झारखंड-नेपाल-यू.पी-छत्तीसगढ़ -आंध्र प्रदेश के गाँवों में 'ज़री यूनिट' चलाने वालों के एजेंट घूमते रहते हैं और गरीब माता-पिता को यह दिलासा देकर कि शहर में वो काम करके पैसे भी कमा सकेगा और पढ़ाई करके एक अच्छी जिंदगी जी सकेगा' इन बच्चों को शहर ले आते हैं. ज्यादातर बच्चे यू.पी. के आजमगढ़ और रामपुर एवं बिहार के सीतामढ़ी और मधुबनी जिले से आते हैं. कई बच्चों ने अपने जीवन के आठ बसंत भी नहीं देखे होते और इन एजेंट के हाथों अपना बचपन..अपनी हंसी- ख़ुशी सब गिरवी रख देते हैं, सिर्फ दो सूखी रोटी के एवज में. क्यूंकि अक्सर काम सिखाने की बात कहकर इन बच्चों को पैसे भी  नहीं दिए जाते. सालो-साल ये सिर्फ काम ही सीखते रह जाते हैं.

दस बाई दस के कमरे में जिसमे एक पीला बल्ब जलता रहता है....कोई खिड़की नहीं होती ..कहीं कहीं चालीस बच्चे एक साथ रहते हैं. ये बच्चे अठारह घंटे काम करते हैं. कमरे के ही एक कोने में बाथरूम होता है और दूसरा कोना....किचन का काम करता है.जहाँ बारी-बारी से ये बच्चे ही खाना बनाते हैं. खाने में सिर्फ चावल और दाल होता है. इन्हें कभी बाहर जाने की इजाज़त नहीं होती. बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास नहीं ले जाया जाता और बीमारी गंभीर हो जाने पर किसी रिश्तेदार को बुला सौंप दिया जाता है...कई बच्चे हॉस्पिटल भी नहीं पहुँच पाते और दम तोड़ देते  हैं. बच्चों को चोटों के साथसाथ spinal injuries  तक रहती है.

११ साल का सलीम बिहार के दरभंगा जिले से है और मुंबई के धारावी की एक ज़री यूनिट में सुबह आठ बजे से आधी रात तक काम करता है . दो साल हो गए हैं उसे काम करते पर अभी तक उसे उसकी पहली तनख्वाह नहीं मिली है,क्यूंकि वो अभी काम सीख रहा है. ज़री यूनिट में काम करने वाले तीन भाग में बंटे होते  हैं, शागिर्द, कारीगर और मालिक. सारे बच्चे शागिर्द की कैटेगरी में आते हैं. जो कढाई  सीखने के साथ-साथ , साफ़-सफाई, खाना बनाना, मालिक और कारीगर लोगो के पैर दबाना ..मालिश करना..सब करते हैं..और क्या क्या करवाए जाते होंगे....ये कोई भी कल्पना कर सकता है.

ज़री यूनिट से छुडाये गए बच्चे अपनी कहानी बताते हैं. दस साल के बज्यंत कुमार की माँ को एक एजेंट ने अप्रोच किया और अच्छी नौकरी का लालच दे शहर ले आया. आठ साल  के श्याम और दस साल के गोविन्द  के पिता ने उस एजेंट से दो हज़ार रुपये क़र्ज़ लिए थे . नहीं चुकाए जाने की दशा  में पिता ने अपने दोनों बच्चे उसके हवाले कर दिए .( क़र्ज़ ...इसी मंशा से दिया ही गया होगा कि वो चुका ना पाए और फिर उसके दोनों बच्चे उठा लिए जाएँ.) दोनों के बाल शेव कर दिए गए. ताकि इनके पसीने से काम खराब ना हो. दिल्ली की ४२ डिग्री टेम्परेचर में सिर्फ अंडर पैंट पहने ये बच्चे बिना किसी खिड़की वाले कमरे में बिना किसी पंखे के १४ से १८ घंटे तक काम करते हैं. दो साल हो गए उन्हें एक पैसा भी नहीं दिया गया और ना ही वे अपने घर गए.  दस साल के सादिक राम का कहना  है," जब हमलोग बहुत थक जाते थे  तो हमें पीटा जाता था ..और अगरबत्ती से हाथ जला दिए जाते थे.' ग्यारह साल का हसन छः साल से काम कर रहा है...यानि कि जब उसने शुरुआत की होगी वो सिर्फ पांच साल का होगा. पिछले तीन साल से वो घर नहीं गया. "नौ साल के अजय कुमार ने बताया कि ,'मारकर उसका हाथ फ्रैक्चर कर दिया गया' दस साल के कमलेश कुमार के पीठ पर चाक़ू के कई ज़ख्म देखने को मिले.' गलती होने पर मालिक और कारीगर बच्चों के बाल तक उखाड़ लेते थे. और लिखना मुश्किल हो रहा है. हर बच्चे के पास ऐसी एक कहानी है. अखबारों में पत्रिकाओं में...नेट पर....मालिकों के हैवानियत के किस्से बिखरे पड़े हैं. 

तेरह-चौदह की उम्र के बाद तनख्वाह दी भी जाती है तो मुश्किल से 200 रुपये और फिर  सिर्फ एक समय का ही  खाना दिया जाता है. अगर कढाई करते सूई टूट जाए तो उन्हें अपने पैसे से सूई खरीदनी पड़ती है. एक सूई बारह रुपये की आती है...और हफ्ते में दो सूई तो टूटती ही है. लिहाज़ा कई-कई दिन उन्हें चाय-बिस्कुट भी नसीब नहीं होता और भूखे पेट काम करना पड़ता है.

कई NGO  1998 से ही इन बच्चों को इस दोज़ख से निकालने में लगे हुए हैं...कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित  BBA  (बचपन बचाओ आन्दोलन.)लगातार इन बच्चों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयासरत है. NGO 'प्रथम' ने मालिकों से आग्रह किया कि वे बस काम से आधे  घंटे का ब्रेक दें...उस ब्रेक में वे बच्चों को पढ़ना चाहते  हैं. कुछ ज़री यूनिट के मालिक मान गए. उसी कमरे में उन्हें पढाया जाता है. नौ साल का 'मोहम्मद हकील' बार बार अपना नाम  स्लेट पर लिखता और मिटाता है. पढ़ाई उसके लिए एक खेल है...क्यूंकि उसे काम से कभी कोई छुट्टी ही नहीं मिली कि कोई खेल  खेल सके .

ये हालात सिर्फ ज़री यूनिट में काम करने वाले बच्चों के ही नहीं है....हर उद्योग से जुड़े, बाल मजदूर का यही हाल है. इन बच्चों के पेट में दो रोटी पहुँच जाती है और ये सडकों पर नहीं सोते. कहीं कहीं उनके माता-पिता को कुछ रुपये भी मिल जाते होंगे. तो क्या हमें संतुष्ट हो जाना चाहिए?? लोग शिकायत करते हैं कि गलीचे बनाने का काम बंद करवा कर गलत किया गया...क्यूंकि उन नन्ही उँगलियों से बने गलीचों की विदेशों में बहुत मांग थी. इसे सिर्फ ह्रदयहीनता ही कहा  जा सकता है और कुछ नहीं.

जो लोग बाल श्रम को सही मानते हैं....वे कभी उसका उजला पक्ष भी दिखाएँ.




( सभी चित्र गूगल से साभार )

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

परकटे नन्हे परिंदे

रचना जी ने अपनी पोस्ट में 'बाल मजदूरी' के मुद्दे पर चर्चा की है...पहले भी मैने इस विषय पर लिखा है...और आज भी  मन में कुछ सवाल सर उठा रहे हैं...आखिर, बच्चे अपने खेलने-कूदने ..पढ़ने-लिखने के दिनों में ये सोलह घंटे का श्रम और अमानवीय स्थिति में जिंदगी गुजारने को क्यूँ मजबूर हो जाते हैं?

उन्हें काम पर रखने वाले दोषी हैं...तो क्या उनके माता-पिता का कोई दोष नहीं जो उन्हें इस कच्ची सी उम्र में काम के बोझ तले दब जाने को मजबूर कर देते हैं?? गरीबी एक बहुत बड़ा कारण तो है ही...पर उस से भी ज्यादा मुझे लगता है...उनके बीच जागरूकता की कमी...और पढ़ने-लिखने की सुविधा का अभाव भी एक वजह  है.

कई बार गाँव के गरीब लोग अपने बच्चों को नौकर के रूप में इसलिए रखवाते  हैं कि वो एक अच्छे परिवार के संसर्ग में रहेगा. मैने खुद देखा है...कितनी ही बार लोग खुद अपने बच्चे को लेकर आते थे और कहते थे..'सारा दिन सडकों पर  बाग़-बगीचों में घूमता रहता है...आपलोगों के साथ रहकर कुछ सीख जाएगा" खैर, मैं ये नहीं कहती कि इसके पीछे पैसों का लालच नहीं होगा...लेकिन माता-पिता की ये चिंता भी रहती है कि...ये गाँव में खाली बैठा अपना समय बर्बाद कर रहा है. अगर गाँवों में बच्चों के स्कूल जाने की व्यवस्था हो....स्कूल में शिक्षक हों..और वहाँ सचमुच पढ़ाई होती हो. बच्चों के माता-पिता को ये विश्वास दिलाया जाए कि बच्चा-पढ़ लिख कर आपसे बेहतर जिंदगी जी सकेगा..उनके सामने ऐसा कोई उदाहरण भी हो ..जहाँ उनके बीच का कोई बच्चा पढ़-लिख कर अच्छी जिंदगी बसर कर रहा हो  तो ये तस्वीर बदल सकती है. और अगर सरकार की mid day meal की व्यवस्था सुचारू रूप से कार्यान्वित की जाए तो इस समस्या का शत प्रतिशत हल निकल सकता  है.

गरीब लोग सिर्फ गाँव में ही नहीं..शहर में भी हैं. मुंबई की झुग्गी झोपड़ियों में गाँव से आकर ही बसे हुए हैं . मानव-स्वभाव की तरह लालच इनमे भी होगा...ये भी अपने बच्चे को काम पर लगा पैसे पाने की सोचते होंगे. पर इनकी सोच में बदलाव आ चुका है. यहाँ, ज्यादातर सब अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ाने की कोशिश करते हैं. बच्चों के लिए ट्यूशन रखते हैं...अगर उनकी पढ़ने में रूचि रही और उन्होंने अच्छा रिजल्ट लाया तो उन्हें कॉलेज में भी पढ़ाते हैं. क्यूंकि उनमे ये जागरूकता आ चुकी है कि बच्चे अगर पढ़-लिख गए तो उनकी जिंदगी संवर जायेगी . यहाँ ,बच्चों को स्कूल की सुविधा है....जहाँ पढ़ाई भी होती है.

मनुष्य गरीब हो या अमीर..हमेशा अपनी संतान के लिए एक अच्छी जिंदगी का सपना देखता है..अपवाद हो सकते हैं..पर हर गरीब अपने बच्चों को सिर्फ धनोपार्जन का एक जरिया नहीं समझता. अगर उनके सामने बेहतर विकल्प रखे जाएँ तो वे कभी अपने बच्चों से किसी भी किस्म  की मजदूरी करवाने को तैयार नहीं होंगे.

लेकिन सारी सरकारी योजनायें कागजों पर ही रह जाती हैं या फिर सिर्फ नाम के लिए इनका कार्यान्वयन होता है. कितने ही स्कूल कागज़ पर ही हैं...उस स्कूल में बच्चों का भी जिक्र रहता है और शिक्षक हर महीने तनख्वाह भी ले जाते हैं. 'मिड डे मील' की व्यवस्था है..पर बच्चों को खाने में कंकड़-पत्थर..कीड़ों से भरे चावल दिए जाते हैं.छात्रवृत्ति की भी योजना है पर पता नहीं सही पात्रों को वो मिलती भी है या समर्थ लोग तिकड़म लगा..वो भी हड़प कर जाते हैं. 

आंकड़े बताते हैं...हमारे देश में,  एक करोड़ से भी ज्यादा बाल श्रमिक हैं. करीब पच्चीस साल पहले ही 'बाल श्रम 'के विरुद्ध कानून बन चुका है...पर उस समय से बाल श्रमिकों की संख्या में  १५% की वृद्धि ही हुई है. बाल श्रम के विरुद्ध कानून बना कर कुछ नहीं किया जा सकता...जब तक गाँवों को विकसित नहीं किया जाएगा...वहाँ भरण-पोषण और पढ़ने -लिखने की सुविधा नहीं मुहैया करवाई जायेगी...ये बाल मजदूरी का कलंक हमारे समाज के माथे पर विद्यमान रहेगा.


शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

फिल्म 'मोड़' : जैसे फिज़ा में एक प्यारी सी धुन



जैसा कि इस ब्लॉग का नाम है....यहाँ बस बातें ही होती हैं...और जब मैं फिल्मो की बातें करती हूँ तो फिर बातों-बातों में लोगो को फिल्म की  कहानी भी पता चल जाती है...और कुछ लोग ऐसा नायाब मौका हाथ से क्यूँ जाने दें...कह डालते हैं..'हमें तो कहानी पता चल गयी'...भले ही उस फिल्म का नाम भी ना सुना हो...और उनके शहर के थियेटर में आने की उम्मीद भी न  हो...

यही वजह थी..जब एक मित्र से फिल्म 'मोड़' की प्रशंसा कर रही थी तो उन्होंने कहा...' इस पर पोस्ट क्यूँ नहीं लिखतीं?'...और मैने मजबूरी जता दी..बेकार ही लोगो को कहने का मौका क्यूँ दूँ...."येल्लो कहानी बता दी'

उन्होंने बड़ी गंभीरता से कहा...'लोग आपकी पोस्ट..आपकी शैली के लिए पढ़ते हैं....आपका  लिखा उन्हें पसंद आता है.." woww..  good  to know कि हमारी कोई शैली  भी है...फिर भी मन मुतमईन नहीं हुआ...जब सहेली से इसकी चर्चा की ....तो उसका भी कहना था..."तुम्हे लिखना चाहिए ...कई लोगो को इस फिल्म के बारे में तुम्हारी पोस्ट से पता चलेगा..शायद  उनकी रूचि जागे और वे,ये फिल्म देखना चाहें...वगैरह..वगैरह.."

अब मुझे बातें करने के साथ लिखने का भी मर्ज है तो देर काहे  की....हाँ, जिन्हें ऐतराज हो...उनके लिए ये पोस्ट यहीं समाप्त होती है :)

जब से नागेश कुकनूर की हैदराबाद ब्लूज़ देखी...उनकी दूसरी फिल्मो का इंतज़ार होने लगा था...डोर .इकबाल..तीन दीवारें...रॉकफोर्ड  ने उनसे उम्मीदें और जगा दीं ...पर 'हॉलीवुड-बॉलिवुड;...'आशायें' ..बॉम्बे टू बैंगकॉक' जैसी फिल्मो ... ने निराश ही किया...लेकिन उनकी नई फिल्म मोड देखने की इच्छा थी...एक तो इसमें आएशा टाकिया  थीं..और प्रोमोज में 'पेड़.. झरने.. धुंध से घिरा एक ऊँघता सा पहाड़ी शहर और चश्मा लगाये...सीधे-सादे रणविजय सिंह  और ताजे गुलाब सी खिली आएशा टाकिया को देख..लगा कोई संजीदा सी कहानी जरूर है. ..और उम्मीद के दिए रौशन रहे.

बड़ी प्यारी सी फिल्म है...हकीकत में ऐसा शायद ना होता हो...पर यकीन करने का मन होता है कि हकीकत कुछ ऐसी ही हो..झरने के पास बैठी हार्मोनिका (माउथ ऑर्गन) बजाती ओस की बूँद सी मासूम लड़की और गहरे बादल सा खुद में कई राज़ समेटे गंभीर सा  सीटी में कोई धुन बजाता लड़का. लड़का, गाहे-बगाहे उसे कविता की पंक्तियाँ सुनाता है...लड़की की सुन्दर सी पेंटिंग्स बनाता है ...लड़की को सिर्फ एक बेइंतहा प्यार करनेवाला कोई चाहिए...वो लड़के की पर्सनालिटी...बैंक-बैलेंस कुछ नहीं देखती..सिर्फ उसका दिल देखती है. अपनी बुआ के पूछने पर कहती है..."अब तक कोई नहीं मिला...जो सिर्फ मेरे लिए जीना चाहे..."

अरण्या घड़ी रिपेयर करती है..अकेले रहती है. उसके पिता संगीत के उपासक हैं..किशोर कुमार के पुजारी...उनका एक ऑर्केस्ट्रा है...पर शराब की लत भी है..इसी वजह से बेटी ने शर्त रखी है..वे शराब छोड़ने के बाद ही घर में रह सकते हैं...पर बेटी उन्हें प्यार भी बहुत करती है..सुबह-सुबह चाय लेकर,बाहर उठाने  जाती है...रघुवीर यादव ने बहुत ही अच्छी एक्टिंग की है...जब भी मौका मिले वे मासूमियत से पूछ बैठते हैं..'अब,घर आ सकता हूँ..?"

अरण्या के पास एक लड़का रोज अपनी घड़ी रिपेयर करवाने आता है....जबतक अरण्या घड़ी रिपेयर करती है...वह रुपये को मोड़ कर एक ख़ूबसूरत हंस की शक्ल दे देता है..और उसके सामने रख कर चला जाता है...फिर एक दिन कह देता है कि वो उसकी दसवीं कक्षा का सहपाठी 'एंडी' है...और उसका बचपन से ही उसपर क्रश है...अपने प्रति उसका यूँ समर्पण देख..अरण्या को भी लगता है..उसे बस उसका ही इंतज़ार था...अरण्या की  बुआ तन्वी आज़मी एक रेस्तरां चलाती हैं,जहाँ अरण्या उनकी मदद करती है...(पर इस  फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि  दक्षिण के एक पहाड़ी शहर में स्थित है....क्यूंकि गाड़ियों के नंबरप्लेट...दक्षिण के हैं...पर उस रेस्तरां में इडली- डोसे की जगह पनीर और दम आलू मिलते हैं :)..अब फिल्म वाले इतना ध्यान थोड़े ही रखते हैं..) जब अरण्या  की बुआ एंडी से मिलने पर कहती है..'यही है तुम्हारा बॉयफ्रेंड ?'  तो वो एंडी  मासूमियत से पूछता है.." सचमुच मैं तुम्हारा बॉयफ्रेंड हूँ..जब चाहे तुम्हारा हाथ पकड़ सकता हूँ...?" {लड़के नोट करें..लडकियाँ पूर्ण समर्पण के साथ..ऐसे भोलेपन पर भी फ़िदा होती हैं :)}

एक दिन अरण्या , उस लड़के को बाज़ार में देखती है..पर उसकी वेशभूषा..चाल-ढाल... बॉडी लेंग्वेज सब अलग होता है...वो आवाज़ देने पर अरण्या  को पहचानता भी नहीं...उसका पीछा करने पर उसे एक मेंटल हॉस्पिटल में जाते हुए देखती है...वहाँ भी वह बेलौस अंदाज़ में वाचमैन से.. नर्स से मजाक करता रहता है. 

अरण्या परेशान होकर पुराने स्कूल में जाकर उसका पता ढूँढने की कोशिश करती है तो पता चलता है..कि दस साल पहले एंडी की मौत हो चुकी है. फिर भी वह उसके घर जाकर उसके माता-पिता से मिलती है...वहाँ वह एंडी की तस्वीर इस लड़के के साथ देखती है...और एंडी की माँ बताती है कि ये अभय है...एंडी का बेस्ट फ्रेंड और एंडी की  मौत से उसके दिमाग पर ऐसा असर पड़ा है कि वह  split  personality  का शिकार हो गया है...वह बीच बीच में एंडी की तरह ही बर्ताव करने लगता है...उसकी तरह का पहनावा वेशभूषा...मेंटल हॉस्पिटल से भागकर उनके घर भी आ जाता है और उन्हें माँ कहकर बुलाता है....बहुत छोटा सा रोल है ' एंडी की माँ के रूप में  सफल मराठी अभिनेत्री 'प्रतीक्षा लोनकर 'का पर वे एक माँ के दिल की कशमकश बयाँ करने में सफल रही हैं...जहाँ अपने बेटे के रूप में अभय को देख उनके माँ के दिल को सुकून भी मिलता है..वे उन पलों को जीना भी चाहती हैं पर फिर कर्तव्य का ध्यान कर वे डॉक्टर को खबर कर देती हैं...डॉक्टर अरण्या  को देखकर सब कुछ समझ जाते हैं और उसे पूरी हकीकत बताते हैं कि एंडी का अरण्या  पर जबर्दस्त क्रश था..और यह बात उसके बेस्ट फ्रेंड अभय को पता थी...इसीलिए वह जब एंडी के रूप में आता है तो अरण्या  के साथ समय बिताना चाहता है...और चिंता की बात ये है कि आजकल वो ज्यादा से ज्यादा समय एंडी के रूप में ही रहने लगा है. इसलिए अरण्या को उस से मिलना बंद करना होगा." अरण्या   के सामने ही अभय को दौरे पड़ते हैं...और वह एंडी से अभय के रूप में लौट आता है...( split   personality  विषय पर  Sidney  Sheldon  की एक बहुत ही प्रख्यात पुस्तक है. "If  Tomorrow Comes  "  इस किताब पर फिल्म भी बनी है....जहाँ नायिका के  अंदर ढेर सारे कैरेक्टर रहते हैं...और वह समय  समय पर उस कैरेक्टर के अनुरूप  ही व्यवहार करने लगती  है) .. अभय, अरण्या  को एंडी की मौत का जिम्मेवार मानता है...अभय  भी मन ही मन अरण्या  को प्यार करता था पर एंडी की तरह कन्फेस नहीं कर पाता  था..इसीलिए उसने मजाक में एंडी से कहा कि तुम्हारे जैसे सीधे-सादे लड़के से अरण्या  प्यार नहीं कर सकती....तुम अपना प्यार साबित करना चाहते हो तो...तो कुछ कर के दिखाओ...उस ऊँचे पत्थर से पानी में कूद जाओ ..और एंडी जब सचमुच कूदने लगता है तो अभय उसे चिल्लाकर बहुत रोकने की कोशिश करता है...पर एंडी कूद  जाता है...और उसकी मौत हो जाती है. यह सब बताते हुए ,अभय बहुत वायलेंट हो जाता है...और उसे अब इलेक्ट्रिक शॉक  दिए जाने लगते हैं. 

आएशा टाकिया, नागेश कुकनूर, रणविजय सिंह 
फिल्म में इस मुद्दे को भी उभारा गया है कि कैसे बड़े बड़े बिल्डर इन पहाड़ी शहरों की खूबसूरती को नष्ट कर बड़े बड़े रिसौर्ट बनाने की कोशिश कर रहे हैं और इसके लिए वहाँ के निवासियों  के घर मुहँ मांगी  कीमत पर खरीद लेते हैं. फिल्म में तो अरण्या और उसकी बुआ एक मुहिम चला कर बिल्डर को वापस जाने पर मजबूर कर देती हैं..पर वास्तविक जीवन में शायद ऐसा ना होता हो.

अब अरण्या  को अभय से प्यार हो जाता है...और वो छुप छुप कर  खिड़की से उसे देखने...उस से मिलने की कोशिश करती है. इलेक्ट्रिक शॉक देने की वजह से अभय मानसिक और शारीरिक रूप से बिलकुल कमजोर हो जाता है...उसकी ये हालत दस साल से उसकी सेवा करने वाली नर्स...अरण्या ..उसके पिता और उसकी बुआ से नहीं देखा जाता और वे सब मिलकर अरण्या को अभय को भगाने में मदद करते हैं.

ट्रेन चल पड़ती है...अभय नासमझ सा बैठा हुआ है..और अरण्या हार्मोनिका निकाल कर बजाने लगती है....अभय के चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट आती है और वो सीटी में एक धुन बजा कर अरण्या का साथ देने लगता है. फिल्म इसी ख़ूबसूरत मोड पर ख़त्म हो जाती है.

फिल्म का छायांकन बहुत ही सुन्दर  है...पहाड़ी शहर के प्राकृतिक दृश्यों को बहुत खूबसूरती से कैमरे में कैद किया गया है. बैकग्राउंड में बजता गीत इतना सटीक है..जैसे ही दर्शकों को लगता है...फलां कैरेक्टर ये सोच रहा होगा...और उसकी सोच गीत की शक्ल में सुनायी देने लगती है. तन्वी आज़मी...रघुवीर सहाय...अनंत महादेवन सारे  मंजे हुए कलाकारों ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है..आयेशा  टाकिया...सुबह की ओस सी मासूम भी लगती हैं...और अभिनय भी लाज़बाब किया है..
पर सबे ज्यादा चौंकाया है. 'रणविजय सिंह ' ने...उनकी पहली फिल्म है, जिसमे इतना लम्बा रोल है...पर वे अपने कैरेक्टर से बिलकुल ही अलग नहीं लगते..एंडी के कैरेक्टर में बिलकुल खामोश से सीधे-सादे लगते हैं..वहीँ अभय के किरदार में आजकल के मॉडर्न युवा. 
दस साल पहले उन्हें  MTv   के कार्यक्रम रोडीज़ वन में देखा था...रोडीज वन जीतने के बाद वे   MTv   में    VJ  भी बन गए...और अब रोडीज़ के ऑडिशन भी लेते हैं...पर इस फिल्म में उनका अभिनय उनके इमेज से हटकर बहुत  ही संवेदनशील रहा. 

नागेश कुकनूर का निर्देशन बहुत ही सधा हुआ है...पर कहीं कहीं स्क्रिप्ट में थोड़ा ढीलापन  है...शायद आजकल के युवाओं में इतना धैर्य ना हो...बिना संवाद के लम्बे दृश्यों को झेलने का.


ये फिल्म ताइवान की फिल्म  CHEN SHUI DE QING CHUN ....अर्थात  KEEPING WATCH    पर आधारित है .

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यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...