मंगलवार, 29 जून 2010

ये पैरेंटिंग नहीं आसां....



मेरी  पिछली  पोस्ट  पर  जो  प्रतिक्रियाएँ आयीं, उनमे सबलोग इस बात से सहमत थे कि नई पीढ़ी, ज्यादा जागरूक है, दुविधाग्रस्त  नहीं हैं,खुलकर अपनी बात रखते हैं, अपने समय का उपयोग कैसे करें ये जानते हैं...बंधी बंधाई  लीक पर नहीं चलते...आदि आदि.

पर यह ख़याल भी बार बार आता है कि नई पीढ़ी  की ऐसी सोच के पीछे कुछ टी.वी...आस-पास के .माहौल आदि का हाथ तो है ही साथ में हम अभिभावकों का योगदान भी कम नहीं. और इस योगदान की प्रक्रिया में अभिभावकों को जिस जद्दोजहद से गुजरना होता है.यह उनके सिवा और कोई नहीं समझ सकता,और खासकर माताओं को,क्यूंकि ज्यादा से ज्यादा समय वे ही गुजारती हैं,उनके साथ.

आज हम कोशिश करते हैं कि बच्चे दोस्त की तरह व्यवहार करें,पर इस चक्कर में दोस्त और पैरेंट्स के बीच लकीर कहाँ खींचनी है, बच्चे कई बार ,ये नहीं समझ पाते और हमें ये स्थिति नागवार गुजरती है. हम दूसरे ही पल संभल जाते हैं,पर एक झटका तो लगता ही है. जैसे मेरे बेटे ने एक बार फिल्म देखते हुए सहजता से कह दिया,"उन दोनों के बीच तो अफेयर था, ना" और इस "अफेयर' शब्द ने मुझे जड़ कर दिया.हम तो अपने माता-पिता से ऐसी बातें करने की सोच ही नहीं सकते थे. पर फिर अपने आपको संभालना पड़ता है ,ताकि वे अपनी सारी बातें निस्संकोच शेयर कर सकें. कभी बिंदास कह देंगे, " ये ड्रेस तुम पे बिलकुल अच्छी नहीं लग रही" फिर वही ख़याल,हमने तो अपनी माँ से इस तरह कभी बात नहीं की.

वाणी ने कहा है कि "बेटी रात भर पढ़ती और सुबह देर तक सोती है ...शुरू शुरू में बहुत अजीब लगता क्यूंकि हमारे घर में देर तक सोना अच्छा नहीं माना जाता .." यही समस्या मेरे साथ भी है,कईयों के साथ होगी. मेरा बेटा भी पूरी रात पढता है फिर दस,ग्यारह बजे सो कर उठता है. मैं कहती हूँ सुबह उठकर फ्रेश होकर ,नाश्ता कर के फिर से सो जाओ.पर ये  कभी नहीं होता. और हमें ही स्थिति स्वीकार करनी पड़ती है.

हमारे समय स्टुडेंट लाइफ में ज्यादातर,सीधे सादे, फैशन से दूर रहने वालों को ही अच्छा समझा जाता था. पर आज स्कूल से ही डियो, नए डिजाइन के कपड़े, हेयर स्टाइल की शुरुआत हो जाती है.एक रोचक बात का जिक्र करती हूँ , मेरे बेटों के शब्दों  में " वो जैसे ही  क्लास में आया मैं समझ गया..स्कॉलर है ये तो, पूरे  स्लीव की शर्ट, गले  तक  बंद बटन , पेट तक पैंट और मांग निकाल कर बाल...एकदम स्कॉलर" (किसी को बुरा लगे तो क्षमा याचना). और हमारी  रोज-रोज उनके कपड़ों,हेयर जेल,डियो पर बहस हो जाती है. लड़कियों की माओं का भी यही हाल है. लोग कह सकते हैं, बहस क्यूँ,उनकी मर्जी का करने देना चाहिए,फिर तो महानगरों के बच्चे कानों में कुंडल पहन और टैटू बनवा कर आयेंगे.

आज बच्चे इतनी निर्भीकता  से अपने मन की बात रखते हैं, कि हम सोचते रह जाते हैं,हमारी तो सारी ज़िन्दगी, सबको खुश करने में ही गुजर गयी. इन्हें जहाँ जाना नहीं पसंद, खुलकर बता देंगे. जब मैं कहती हूँ, कि तुमलोग कुछ घंटों के लिए मना कर देते हो, और मुझे हॉस्टल से आने के बाद भी कभी,चाचा,मौसी,दादी,नानी अपने साथ ले जाती थीं. मन ना होते हुए भी मैं सोचती ,उनका दिल कैसे दुखाऊं? तो वे कहते हैं , "कहना  चाहिए था, that was Ur  loss " .

आज बच्चों को all rounder होना चाहिए. हर पैरेंट्स की यही इच्छा है. लेकिन बिलकुल पढ़ाई वाले महौल से और अनुशासन में बंधा बचपन गुजारने वाले पैरेंट्स के लिए कितना मुशकिल हो जाता है यह सब स्वीकारना,जब आप बच्चे को पढ़ाई में टाल मटोल करते और पढाई को इतना lightly  लेते देखते हैं. पर स्थिति स्वीकार करनी ही पड़ती है.

महानगरों के पैरेंट्स को कुछ और समस्याएं  भी आती हैं.यहाँ देर तक पार्टियों का चलन है, रात के ग्यारह बजे तक बर्थडे पार्टी चल रही है. हमारी small town mentality स्वीकार नहीं कर पाती और फोन खटका ही देती हूँ. 

हमने भी एम.ए तक इतने इम्तिहान दिए हैं.और हमेशा रिजल्ट  के पहले एक डर,एक उद्विग्नता रहती थी. अभी मेरे साहबजादे के भी बोर्ड का रिजल्ट  आया ,रिजल्ट  के एक दिन पहले बेटे ने कहा,"हम सब फ्रेंड्स कॉफी शॉप  में मिल रहें हैं क्यूंकि कल,पता नहीं किसका, कैसा रिजल्ट आए,कैसा मूड हो,कौन किस कॉलेज में एडमिशन ले " मुझे कुछ अजीब लगा,पर CCD मेरे घर से चार कदम पर है,मना करने का सवाल ही नहीं था.बाकी सब दूर से आ रहें थे. और 16 लड़के लड़कियों ने पिज्जा और कोल्ड कॉफी विद आइसक्रीम पर दूसरे दिन के रिजल्ट का चिंतन-मनन किया. वहाँ से आया और लैपटॉप खाली देख झट फेसबुक पे दोस्तों को शुभकामनाएं देने बैठ गया. सुबह 5 बजे ही उसकी नींद खुल गयी, कम्प्यूटर पर थोड़ी देर गेम खेला और साढ़े छः बजे फुटबौल खेलने चला गया. अब मैं कैसे कहूँ कि रिजल्ट के पहले एक तरफ मुहँ लटका कर बैठते हैं,..हमने तो यही किया है. (भले ही नंबर कभी बुरे नहीं आए)

मानती हूँ,यह जेनेरेशन गैप ही है. पर इतना लंबा गैप??....या फिर हमारे माता-पिता को भी कुछ ऐसे ही अनुभवों से गुजरना पड़ा था .पर तब तो हम फेंस के उस तरफ थे...हमें क्या पता..??

अभी तो बस यही ख़याल आता है...
"ये पैरेंटिंग नहीं आसां.... "

शुक्रवार, 25 जून 2010

फिर से सही साबित होती हुई कछुए और खरगोश की कहानी

अभी हाल में ही महाराष्ट्र बोर्ड की दसवीं कक्षा का परिणाम घोषित हुआ है. परिणाम अच्छे ही हुए हैं और ये सुकून  की बात है कि इस बार अब तक किसी बच्चे की आत्महत्या की कोई खबर नहीं आई है. और इसकी जगह अखबार में कुछ  खुशनुमा ख़बरें  छपी हैं .एक 49 वर्षीय पिता दीपक आम्ब्रे ने अपनी बेटी हर्षा के साथ दसवीं के इम्तहान दिए और हर्षा  को 93% और उन्हें 45% मिले.वे हमेशा से पढना चाहते थे पर छोटे पांच भाई बहनों की देखभाल ने ये मौका नहीं दिया.सरकारी नौकरी में कार्यरत हो गए.पर ये सपना मन में पलता रहा जो बेटी के  उत्साहवर्द्धन से साकार हुआ.

16 वर्षीय मैत्री शाह ने अपना  पूरा जीवन व्हील चेयर पर बिताया है. उन्हें Congenital Muscular destrophy है. ये बीमारी शरीर के सारी मांसपेशियां कमजोर कर देती है पर मैत्री के जीने के उत्साह को ये छटांक भर भी कम नहीं कर पायी.मैत्री ने इस परीक्षा में 95% पाए. पेंटिंग और elocution में भी उसने कई ईनाम जीते हैं. स्कूल में  एक नाटक भी निर्देशित  किया है. अभी वो graphic designing और कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सीख रही है.
Mitri Shah

मैत्री ने एक सामान्य स्कूल में पढ़ाई की है.उसके स्कूल की प्रिंसिपल और शिक्षक भी ज़िन्दगी के प्रति उसकी जिजीविषा पर हैरान रह जाते हैं. सामन्य स्कूल में ऐसे बच्चों के पढने से बाकी बच्चों की संवेदनशीलता को भी बढ़ावा मिलता है.

ऐसे ही सोलह वर्षीय विद्याश्री जाओकर  ने जो  मूक-बधिर हैं, अपने स्कूल में सारे सामान्य बच्चों को पीछे छोड़ते हुए 95.4% नंबर लाकर अपने स्कूल में टॉप किया .और उसने कोई कोचिंग क्लास नहीं ज्वाइन की थी,सिर्फ नियमित पढाई की थी.

मेरे घर में भी एक बार फिर से कछुए और खरगोश की कहानी सही साबित हुई.

 मेरे दोनों बेटे पांचवी कक्षा तक 96% लाया करते थे. फिर धीरे धीरे  उनके पर निकलते गए और और कक्षा की ऊँची पायदानों के साथ अंक का प्रतिशत नीचे गिरता गया.मैं घबरा कर टीचर्स से पूछतीं..तो वे आश्वस्त करातीं,नहीं नहीं...ये लोग क्लास के टॉप 5 में से हैं.(इनके स्कूल में रैंकिंग नहीं होती कि फर्स्ट ,सेकेण्ड पता चले.)ऊँची कक्षाओं  में ज्यादा नंबर नहीं मिलते. फिर भी मैं संतुष्ट नहीं होती,जबकि टीचर्स इनके ओवर ऑल पेर्फौर्मेंस से काफी खुश रहतीं. जब बड़ा बेटा ,अंकुर नवीं में था तो पेरेंट्स मीटिंग में जाते हुए ठीक क्लास के सामने उसने कहा,"पहले से बता दे रहा हूँ...टीचर बहुत शिकायत करने वाली है" मैं चौंकी, "क्यूँ??" तो लापरवाही से बोला.."वो ऐसी ही है..हमेशा डांटती रहती है" आगे कुछ पूछने का मौका नहीं था ,हम क्लास में कदम रख चुके थे. और टीचर ने शिकायतों की झड़ी  लगा दी, "इतना talkative है.तीन फ्रेंड्स है, तीन कोने में बिठाती हूँ और नज़र बचा के फिर से सब साथ बैठ जाते हैं..एक को डांटने  पर दूसरा हँसता रहता है...इसे डांटती हूँ तो सर झुकाए  कैसे कैसे मुहँ बनाता है, सिर्फ एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़  में मन लगता है,क्लास में तो टिकता ही नहीं...ये रिहर्सल..वो रिहर्सल.....मना करने पर भी बालों की स्पाईक्स बनाता है.वगैरह..वगैरह." मेरे लिए यह पहला मौका था अपने बच्चे की शिकायत सुनने का.मैं शर्म और गुस्से से लाल हुई जा रही थी.खैर मैने टीचर को पूरे अधिकार दिए..."आप डांट , मार या  जो भी पनिशमेंट देनी हो दीजिये,मैं कुछ नहीं बोलूंगी"

घर आकर मैने अपना भाषण शुरू किया.बीच में एक पल को रुकी तो अंकुर ने  पूछा,"मैं थोड़ा और पोहा ले लूँ?" बस मैं समझ गयी कि इस चिकने घड़े पर कोई असर नहीं हो रहा.उसके बाद ये सिलसिला चलता रहा. टीचर पढाई में तो शिकायत नहीं करती.पर इसकी और बातों से उन्हें शिकायत थी. पर प्रिंसिपल को शायद ऐसे शैतान बच्चे ही अच्छे लगते थे.उनके गुड़ बुक्स में था इसका ग्रुप.पर जब प्रिंसिपल ने अंकुर  को "हेड बॉय " नियुक्त करने को बुलाया तो उसने इनकार कर दिया. उसने ही नहीं उसके बाकी चारों फ्रेंड ने भी मना कर दिया क्यूंकि ये आखिरी साल था और इन्हें शैतानी करनी थी.टीचर्स को परेशान करना था. पहले तो मैने विश्वास नहीं किया पर जब इसकी क्लास टीचर ने भी यही शिकायत कि " U know what...he even refused to b the head boy of the school  ".तो मुझे बहुत अफ़सोस हुआ.ज़िन्दगी भर लोग इस बात को याद रखते हैं.

खैर ,अब बोर्ड की परीक्षा पास आ रही थी और पढाई में  गंभीरता नदारद थी  थी. सिर्फ कोचिंग क्लास अटेंड करता और वही फुटबौल मैच, नाटक, क्विज़ कॉम्पिटिशन..वगैरह में व्यस्त रहता. दिसंबर आ गया और यही रवैया, पति से शिकायत की  तो,उन्होंने बस इतना कहा,"पढ़ते क्यूँ नहीं....तुम्हारी वजह से मुझे सुनना पड़ता है." मैने अपने हर तरीके आजमा लिए लेकिन सेल्फ स्टडी थी ही नहीं उसकी.

फिर  जनवरी में प्रिपरेशन लीव मिला और वह सुबह आठ बजे तैयार होकर जो पढने बैठता ,बीच बीच में एकाध घंटे का ब्रेक लेकर रात के बारह बजे तक पढता रहता. अब मैं ही कहती कि जरा ब्रेक ले लो..बाहर घूम आओ..कभी कभी ये भी कह देती.."इस तरह दिन रात पढने से कुछ नहीं जायेगा दिमाग में" बोर्ड  परीक्षा तक यही सिलसिला चला. परीक्षा के बाद जो भी पूछता उसे से कहता 85 प्लस मिलेगा.मैं उसे अलग बुला कर बोलती, लास्ट मिनट पढने से इतने नंबर नहीं मिलेंगे. बहुत हुआ तो 80- 82 मिल जाएंगे.उसे 87% मिले .

छोटा बेटा अपूर्व कुछ सिंसियर था. नियमित पढता .एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़ में वो भी सक्रिय था पर पढाई नियमित करता.नवीं तक टीचर ने शिकायत भी नहीं की और अपने स्कूल का डिसिप्लिन मिनिस्टर भी बन गया तो मुझे लगा अब राहत है. पर देर से ही सही इनके भी पर निकले. नवीं ख़तम होते होते शिकायतें शुरू.सबसे ज्यादा उसके हेयर स्टाइल पे. मैने कहा,'मैं भी परेशान  हूँ..हमेशा हाथों से सीधे कर देती हूँ पर ये लोग फिर से स्पाईक  बना लेते हैं."एक बार प्रिंसिपल ने तेल की शीशी मंगवा कर बाकी बच्चों के सर पर  तो थोड़ा थोड़ा डाला.इसके सर पर पूरी शीशी उलट दी कि डिसिप्लिन मिनिस्टर होकर भी ऐसी हरकत??  दसवीं में इन महाशय ने भी 'हेड बॉय' बनने से इनकार कर दिया.टीचर्स के समझाने पर भी  प्रीफेक्ट कौंसिल तक नहीं ज्वाइन किया.क्यूंकि शैतानी करनी थी. हॉकी फुटबौल दोनों की टीम में था. पर सबके साथ ये नियमित रूप से दो घंटे सेल्फ स्टडी भी करता. अंकुर भी कहता "ये तुम्हे परेशान नहीं करेगा."

पर जनवरी आ गया,मार्च में बोर्ड की परीक्षा और उसकी पढाई की रफ़्तार बढती ही नहीं. वही रात के दस बजे पढाई बंद और सुबह सात बजे के पहले किताबों को हाथ नहीं लगता. मैं इतना समझाती कुछ तो एक्स्ट्रा पढो. कोई असर नहीं. अंकुर भी कहता,"अंतिम  समय में तो घोड़े ,गधे सब भागते हैं, इसकी रफ़्तार तो कछुए वाली ही है." अंकुर ने पूरे  साल परेशान किया था और अपूर्व ने इन अंतिम दो महीने में. हम उसे कहते, थोड़ी मेहनत से तुम्हे ९०% मिल जाएंगे पर तुम मेहनत करते ही नहीं.उसने  My goal 92% लिख कर अपने स्टडी टेबल पर चिपका रखा  था..पतिदेव भी कहते,"सिर्फ लिख कर चिपका देने से  नहीं मिलते नंबर"

और उसे बोर्ड में 92% ही  मिले. फिर से एक बार खरगोश और कछुए की कहानी सही साबित हुई.हालांकि दोनों भाइयों में कोई रेस नहीं थी. दोनों की अपनी क्षमताएं और कमजोरियां हैं. अब मुझे यही लगता है कि इस पीढ़ी को मालूम है,उन्हें कब, कहाँ, कितना समय देना है.और ये किसी बनी बनायी लीक पर नहीं  चलते.

मंगलवार, 15 जून 2010

भोपाल गैस त्रासदी और फिल्म एरिन ब्रोकोविच


"एरिन ब्रोकोविच' मेरी पसंदीदा फिल्म है. पर जब जब इसे देखती हूँ (और Zee Studio n Star Movies की कृपा से कई बार देखी है ) मुझे 'भोपाल गैस त्रासदी ' याद आ जाती है और लगता है कोई मिस्टर या मिस ब्रोकोविच यहाँ क्यूँ नहीं हुए? जो इस बड़ी कम्पनी को घुटने टेकने पर मजबूर कर देते और पीड़ितों को सही कम्पेंसेशन तो हासिल होता. इस बार पुनः पीड़ितों के साथ हुए इस अन्याय ने इस फिल्म की फिर से याद दिला दी.

यह फिल्म 'एरिन ब्रोकोविच' की ज़िन्दगी पर आधारित है और यह दर्शाती है कि कैसे सिर्फ स्कूली शिक्षा प्राप्त तीन बच्चों की तलाकशुदा माँ ने सिर्फ अपने जीवट और लगन के सहारे अकेले दम पर 1996 में PG & E कम्पनी को अमेरिका के साउथ कैलिफोर्निया में बसे एक छोटे से शहर 'हीन्क्ले' के लोगों को 333 करोड़ यू.एस.डॉलर की क्षतिपूर्ति करने को मजबूर कर दिया,जो कि अमेरिकी इतिहास में अब तक कम्पेंसेशन की सबसे बड़ी रकम है.

फिल्म में एरिन ब्रोकोविच की भूमिका जूलिया रॉबर्ट ने निभाई है और उन्हें इसके लिए,ऑसकर, गोल्डेन ग्लोब, एकेडमी अवार्ड,बाफ्टा, स्टार्स गिल्ड ,या यूँ कहें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का प्रत्येक पुरस्कार मिला .रोल ही बहुत शानदार था और जूलिया रॉबर्ट ने इसे बखूबी निभाया है.

स्कूली शिक्षा प्राप्त 'एरिन' एक सौन्दर्य प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीतती है. उसके बाद ही एक लड़के के प्यार में पड़कर शादी कर लेती है और दो बच्चों के जन्म के बाद उसका तलाक भी हो जाता है. वह छोटी मोटी नौकरी करने लगती है,फिर से किसी के प्यार में पड़ती है,पर फिर से धोखा खाती है और एक बच्चे के जन्म के बाद दुबारा तलाक हो जाता है. अब वह, ६ साल का बेटा और ४ साल और नौ महीने की बेटी के साथ अकेली है और अब उसके पास कोई नौकरी भी नहीं है. वह नौकरी की तलाश में है,उसी दौरान एक दिन एक कार दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो जाती है, कम्पेंसेशन के लिए वह एक वकील की सहायता लेती है जिनक एक छोटा सा लौ फर्म है. लेकिन वो यह मुकदमा हार जाती है क्यूंकि विपक्षी वकील दलील देता है कि "उस कार को एक डॉक्टर चला रहा था,वह लोगों को जीवन देता है,किसी का जीवन ले कैसे सकता है? और एरिन के पास नौकरी नहीं है इसलिए वह इस तरह से पैसे पाना चाहती है.यह दुर्घटना उसकी गलती की वजह से हुई"


नौकरी के लिए हज़ारो फोन करने के बाद हताश होकर वह उसी Law Firm में जाती है और जोर देती है कि वे उसका केस हार गए हैं,इसलिए उन्हें एरिन को नौकरी पर रख लेना चाहिए. बहुत ही अनिच्छा से वह बहुत ही कम वेतन पर , उसे 'फ़ाइल क्लर्क' की नौकरी दे देते हैं. फिर भी उसे ताकीद करते हैं कि वह अपने फैशनेबल कपड़े पहनना छोड़ दे.इस पर एरिन ढीठता से कहती है कि "उसे लगता है वह इसमें सुन्दर दिखती है" .एरिन की भाषा भी युवाओं वाली भाषा है,एक पंक्ति में तीन गालियाँ,जरा सा गुस्सा आता है और उसके मुहँ से गालियों की झड़ी लग जाती है. बॉस उसे हमेशा डांटा करता है पर एक बार गुस्से आने पर बॉस के मुहँ से भी गाली निकल जाती है और दोनों एक दूसरे को देखकर हँसते हैं.बॉस और एरिन में बॉस और कर्मचारी के अलावा कोई और रिश्ता नहीं दिखाया गया है.

एक दिन फ़ाइल संभालते समय एक फ़ाइल पर उसकी नज़र पड़ती है,जिसमे एक घर को बेचने सम्बन्धी कागजातों में घर में रहने वालों की बीमारी का भी जिक्र था. उत्सुक्तता वश वह उस परिवार से जाकर मिलती है.और उस पर यह राज जाहिर होता है कि उस इलाके में हर घर के लोग खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त हैं क्यूंकि pG & E कम्पनी अपने Industrial waste वहाँ के तालाबों में डालते हैं ,जिस से वहाँ का पानी दूषित हो जाता है. और वहाँ के वासी उसी पानी का उपयोग करते हैं. पानी में chrome 6 का लेवल बहुत ही ज्यादा होता है,जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही खतरनाक है.एरिन उस इलाके के हर घर मे जाकर लोगों से मिलती है,उसके आत्मीयतापूर्ण व्यवहार से लोग, अपने दिल का हाल बता देते हैं.किसी का बच्चा बीमार है,किसी के पांच गर्भपात हो चुके हैं. किसी के पति को कैंसर है. वह डॉक्टर से भी मिलती है और उनसे विस्तृत जानकारी देने का अनुरोध करती है.

जब वह ऑफिस लौटती है ,तब पता चलता है इतने दिन अनुपस्थित रहने के कारण उसे नौकरी से निकाल दिया गया है. वह कहती है, मैने मेसेज दिया था,फिर भी बॉस नहीं पिघलते.घर आकर फिर वह अखबारों में नौकरी के विज्ञापन देखने लगती है,इसी दरम्यान उस हॉस्पिटल से सारी जानकारीयुक्त एक पत्र कम्पनी में आता है और उसके बॉस को स्थिति की गंभीरता का अंदाजा होता है.वे खुद 'एरिन' के घर जाकर उसकी investigation की पूरी कहानी सुनते हैं और उसे नौकरी दुबारा ऑफर करते हैं.इस बार 'एरिन' मनमानी तनख्वाह मांगती है,जो उन्हें माननी पड़ती है.

अब एरिन पूरी तरह इस investigation में लग जाती है.वह आंख बचा कर वहाँ का पानी परीक्षण के लिए लेकर आती है,मरे हुए मेढक, मिटटी सब इकट्ठा करके लाती है.और जाँच से पता चल जाता है,कि poisonous chromium का लेवल बहुत ही ज्यादा है. और यह बात कम्पनी को भी पता है,इसलिए वह लोगों के घर खरीदने का ऑफर दे रही है.

एरिन पूरी तरह काम में डूबी रहती है पर उसके तीन छोटे बच्चे भी हैं...शायद किसी अच्छे काम में लगे रहो तो बाकी छोटे छोटे कामों का जिम्मा ईश्वर ले लेता है, वैसे ही उसका एक पड़ोसी 'एड ' बच्चों की देखभाल करने लगता है और 'एरिन' के करीब भी आ जाता है. एरिन का बड़ा बेटा कुछ उपेक्षित महसूस करता है और उस से नाराज़ रहता है पर जब एक दिन वह 'एरिन' के फ़ाइल में अपने ही उम्र के एक बच्चे की बीमारी के विषय में पढता है और उसे पता चलता है की 'एरिन' उसकी सहायता कर रही है. तो उसे अपनी माँ पर गर्व होता है.

एरिन की पीड़ितों का दर्द समझने की क्षमता और उन्हें न्याय दिलाने का संकल्प और उसके बॉस 'एड' की क़ानून की समझ और उनका उपयोग करने की योग्यता ने PG & E को 333 करोड़ डॉलर क्षतिपूर्ति के रूप में देने को बाध्य कर देती है .

इस फिल्म का निर्देशन अभिनय,पटकथा तो काबिल-ए-तारीफ़ है ही. सबसे अच्छी बात है.कि नायिका कोई महान शख्सियत नहीं है,बिलकुल एक आम औरत है,सारी अच्छाइयों और बुराइयों से ग्रसित.

इस फिल्म के रिलीज़ होने के बाद 'एरिन ब्रोकोविच' अमेरिका में एक जाना माना नाम हो गयीं उन्होंने 'ABC पर Challenge America with Erin Brockovich Lifetime. में Final Justice नामक प्रोग्राम का संचालन किया.आजकल वे कई law firm से जुडी हुई हैं. जहाँ पीड़ितों को न्याय दिलाने के कार्य को अंजाम दिया जाता है.

बुधवार, 9 जून 2010

जब हम बादलों पर चले





जब हम बादलों पर चले. जी हाँ सही पढ़ा आपने,बादलों पर भी और बादलों के बीच भी. एक सहेली ने अपने फ्रेंड के ऑर्कुट प्रोफाईल में किसी का स्क्रैप देखा ,जिसमे उसने अपने ट्रेकिंग के अनुभव लिखे थे, उसने जानकारी ली और पता चला, वह पहाड़ी हमारे घर से ज्यादा दूर नहीं. मुझसे चर्चा की...मैं तो ऐसे अनुभवों के लिए हमेशा तैयार रहती हूँ. पति और बेटे भी उत्साहित रहते हैं. पिछले साल, एक इतवार को,हम तीन परिवार मय बच्चों के ट्रेकिंग का पहला अनुभव लेने चल पड़े.

मुंबई में ,वसई के पास 'तुन्गरेश्वर' नामक एक पहाड़ी है, उस पहाड़ी पर थोड़ी चढ़ाई के बाद एक बड़ा सा शिव मंदिर है. और पहाड़ी की चोटी पर एक बाबा का आश्रम. अधिकाँश लोग मंदिर में दर्शन कर वापस लौट जाते हैं.हमलोग भी सुबह सुबह घर से निकल पड़े कि मंदिर में दर्शन करेंगे और फिर चोटी पर बने आश्रम तक जाएंगे. मंदिर तक का रास्ता भी कम रोमांचक नहीं. दो,तीन बरसाती नाले पड़ते हैं रास्ते में...और जंगल के बीच पगडण्डी से रास्ते. मुंबई की भीड़ भरी चौड़ी सड़कों के बाद इन पगडंडियों पर चलना एक अलग ही अनुभव था. हमलोगों ने भी दर्शन किए, वहीँ छोटे से दुकान में झमाझम बरसते पानी के बीच ,गरम गरम भजिये,बड़ा पाव और इलायची वाली मीठी चाय पी और ऊपर की चढ़ाई के लिए चल दिए.

लगातार बारिश हो रही थी. हम सबने रेन वियर पहन रखे थे पर इसके बावजूद पूरी तरह भीग चुके थे.सब बहुत एन्जॉय कर रहें थे, बच्चों को तो आवाज़ देनी पड़ती, साथ में चलने को. किसी पत्थर से फूटता पानी देखते और फिसलन की परवाह किए बिना, उसके नीचे जा खड़े होते. पास में कोई बहता सोता नज़र आता और पूरी मण्डली, छोटे छोटे पत्थरों पर किसी तरह बैलेंस करती, बीच धार में जाकर खड़ी हो जाती. कहीं कहीं सिर्फ पानी गिरने का शोर सुनायी देता और हम खोज में लग जाते, कहाँ से आवाज़ रही है? फिर ऊपर चढ़ाना भूल,उन चट्टानों से गिरते झरने का आनंद लेने लगते.

रास्ते में तरह तरह के पेड़ मिले ,जिनका नाम भी हम भूल चुके थे,बच्चों ने तो कभी देखे ही नहीं थे. हम उनका ज्ञानवर्धन करते और पेडों के अंग्रेजी,हिंदी,मलयालम और तुलु (ये कर्नाटक की भाषा है,ऐश्वर्या राय की भाषा और मेरी सहेली,वैशाली की) नाम भी सीखते जाते. ऐसे में ही मुझे कदम्ब का पेड़ दिखा...इसे बाकी और कोई नहीं पहचान पाया,शायद दक्षिण में ना होता हो या फिर आम ना हो. और इस पेड़ को देख मुझे चौथी कक्षा में पढ़ी वो कविता याद गयी,"यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ, होता यमुना तीरे
मैं भी उसपर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे."..दरअसल ये दो पंक्तियाँ याद करने को भी बहुत मशक्कत करनी पड़ीं और कोई सहायता करने वाला भी नहीं. पर सबने मेरी याददाश्त की तारीफ की तो मैने थोड़ा डरा भी दिया उन्हें, "अच्छी -बुरी सारी ही चीज़ें याद रहती हैं मुझे ":)

वह फ्रेंडशिप डे भी था. कभी कभी बारिश थोड़ी कम होती तो किसी घने पेड़ के नीचे,बैग से फल,बिस्किट, निकाले जाते और साथ में एहतियात से प्लास्टिक में लिपटा मोबाइल भी. ढेरों मेसेज पड़े होते. पतिदेवों की चढ़ी भृकुटी और कटाक्ष कि 'ये लोग तो टीनेजर्स को भी मात कर रही हैं' को बिलकुल नज़र अंदाज़ कर इधर के मेसेज उधर फॉरवर्ड किए जाते और कारवां निकल पड़ता. रास्ते में कुछ लड़के 'हर हर महादेव का नारा लगा रहें थे' यह कोई धार्मिक यात्रा नहीं थी,पर हमारे बच्चे भी शुरू हो गए,शायद यूँ चिल्लाने से थोड़ा,जोश जाता .

जब चोटी पास आने लगी, तो नीचे देखा,पूरी मुंबई बादलों से ढंकी हुई थी. जहाँ रास्ता संकरा होता,वहाँ दोनों तरफ की खाइयाँ बादलों से ढंकी नज़र आतीं और ऐसा लगता हम बादलों के ऊपर चल रहें हैं.बड़ा ही अप्रतिम दृश्य था. दस फीट की दूरी की चीज़ें भी नज़र नहीं रही थीं. बस बादल ही बादल छाये थे. ग्रुप का कोई पीछे छूट जाता तो नज़र भी नहीं आता,और जब दिखता तो ऐसा लगता बादलों के मध्य अवतरित हो रहा है. रेशमी वस्र,मुकुट और आभूषणों की कमी थी,वरना लगता साक्षात इन्द्रदेव ही नज़र रहें हैं. पर जींस ,टी शर्ट में सजी आकृति हमारी कल्पना को उडान नहीं भरने देती.

प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य को घूँट घूँट पीते,हम पहाड़ी की चोटी पर बने आश्रम में पहुँच गए..वहाँ एक बड़े से ड्रम में, हर्बल चाय रखी थी,जिसके दो घूँट ने ही सारी थकान मिटा डाली . आश्रम के कर्मचारियों ने बड़ी विनम्रता से सूचित किया कि भोजन का भी इंतजाम है.भोजन कक्ष में, एक तरफ करीने से लकड़ी के पटरे रखे थे. और एक तरफ साफ़-सुथरी थलियाँ.बड़े बड़े पात्रों में गरम गरम चावल और साम्भर रखे थे. आश्रम के दो कर्मचारी खड़े थे पर खाना खुद ही परोसना था और थाली भी धोकर रखनी थी. इतनी देर तक भीगे रहने के बाद यह गरम भोजन अति स्वादिष्ट लगा. बच्चे भी थाली धोने का अवसर पाकर बड़े खुश थे. आश्रम के पीछे सुन्दर सी वाटिका थी..जहाँ झकोरे की हवा चल रही थी,हमारे गीले कपड़े आधे सूख गए, सुन्दर सुन्दर लहराती फूलों की डाली मन मोह रही थी,पर हमें अभी नीचे उतरने का पूरा रास्ता तय करना था. आश्रम के अलग अलग हिस्सों में छिटके लोग, प्रांगण में इकट्ठे हुए और नीचे उतरने की यात्रा शुरू हुई.

नीचे का रास्ता और भी रोमांचकारी था. सारे बरसाती नालों में, जिनमे आते वक़्त कमर से भी नीचे पानी था,दिन भर की बारिश में पानी कंधे तक गया था. हमलोग ह्यूमन चेन बना पार करते रहें. एकाध जगह, पुलिया भी बनी थी, पर उस पर जाना किसी को गवारा नहीं था,बच्चों को भी नहीं.'राजी' कभी कॉलेज की तरफ से यहाँ पिकनिक के लिए आई थी और याद कर रही थी कि कैसे उसके मित्र ने उसकी लाल रंग की सुन्दर सी सैंडल खेल खेल में पानी में फेंक दी, और जब लेने की कोशिश की तबतक तेज धार उसे बहा कर ले गयी.फिर उसने दूसरी सैंडल भी निशाना लगा कर फेंक दी.पर उसकी रोनी सूरत देख ,उसे अपनी सैंडल दे दी. पर राजी कह रही थी,"मेरी फेवरेट सैंडल थी, वो और उसके सैंडल कितने बड़े और अनकम्फर्टेबल थे." हमलोगों ने डांटा ,एक तो उस बेचारे ने इस पथरीले रास्ते पर अपनी सैंडल दी और उसे गालियाँ दे रही हो.पर 'राजी' अब भी अपने लाल सैंडल का सोग मना रही थी और वे पल याद कर उस दोस्त को अब भी बुरा-भला कह रही थी..बेचारा ऑस्ट्रेलिया के किसी शहर में खांस रहा होगा.

 पूरे नौ घंटे तक लगातार चलने के बाद, फिर से हम उसी दुकान में भजिया, और चाय का लुत्फ़ ले रहें थे. घर पहुँचने में रात के नौ बज गए. मन में थोड़ा डर था इस तरह सारा दिन भीगने के बाद,कोई बीमार पड़े. लेकिन किसी को कुछ नहीं हुआ. हम महिलाओं को मॉर्निंग वाक की और बच्चों को खेलने कूदने की आदत थी,लिहाज़ा हमें तो कुछ महसूस नहीं हुआ पर पति लोगों को जिन्हें लिफ्ट,.सी.कार,केबिन और जिम की आदत है उन्हें संभलने में तीन दिन लग गए.

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...