एर्नाकुलम में डिनर के बाद हमने बाहर टहलने की सोची पर वहाँ सडकों पर बहुत वीरानी छाई हुई थी , कार, ऑटो भी नजर नहीं आ रहे थे और रास्ते का भी अंदाजा नहीं था ,इसलिए हम वापस लौट आये .पर मैंने रात में ही सोच लिया था , सुबह जल्दी उठ जाउंगी और कल सुबह अकेली ही निकल पडूँगी .सूरज दादा की चौकीदारी में कैसा डर ।
सुबह -ए-एरनाकुलम
यूँ तो मुंबई के सामने हर शहर ऊँघता हुआ सा ही लगता है पर एरनाकुलम तो जैसे बस जरा सी पलकें खोल ,पलकों की झीरी से ही सुबह का जायजा ले रहा था ।अजनबी शहर की अनजान सड़कों पर घूमना मुझे हमेशा ही प्रिय है ।सुबह साढ़े पांच बजे नींद खुल गई और छः बजे तक मैं कमरे से बाहर आ गई ।होटल बिलकुल सुनसान था सिर्फ एक स्टाफ दिखा, पर गेट खुला हुआ था ।सामने की सड़क बिलकुल सूनी थी ।आस पास के घरों में भी कोई हलचल नहीं हो रही थी ।रंग बिरंगे फूलों के लॉन वाले खूबसूरत घर थे ।एक घर के बाहर एक बूढी अम्मा पानी डालकर बरामदा धो रही थीं ।एक घर से घण्टी की टुन टुन के साथ मधुर स्वर में श्लोक पढ़ने की आवाज आ रही थी ।(अब ये स्पष्ट करने की जरूरत तो नहीं कि मधुर आवाज़ किसी स्त्री की ही होगी :)।थोड़ी दूर आगे चल कर दाहिने मुड़ जाने के बाद ,थोडा चलने के बाद मुख्य सड़क आ जाती है ।इतना अंदाजा मुझे था ।
इस सड़क पर भी कोई नहीं था और मन हुआ क्यों न थोड़ी जॉगिंग ही कर लूँ ।मुम्बई में तो किसी भी वक्त सड़क या पार्क में ढेरों लोग होते हैं और दौड़ने में संकोच कर जाती हूँ ।पर यहाँ भी टाल गई ।हवा में समाती सांभर की ख़ुशबू नाक में भरते खरामा खरामा मुख्य सड़क पर आ गई और सामने जो देखा ,आश्चर्य में डूब गई ।सड़क झील के किनारे किनारे चल रही थी ।झील में कुछ बड़े नाव लंगर डाले खड़े थे ।हवा में हल्की सी खुनक थी ।ये एक पॉश इलाका लग रहा था ।सड़क की दूसरी तरफ कोर्ट, अस्पताल, कॉलेज, स्कूल बने हुए थे ।एक खस्ता हाल बिल्डिंग के ऊपर लिखा था ,Govt post matric hostel for boys' पहली बार ऐसा लिखा देखा ,post matric के लिए तो कॉलेज ही लिखा जाता है ।(बाद में एक येल्ल्पी में एक इमारत दिखी...जिसपर लिखा था pre matric girls hostel .शायद केरल में pre matric ,post matric कहने का चलन है.)हर प्रदेश में सरकारी भवनों का यही हाल है ।खिड़कियों के सारे शीशे टूटे हुए थे ।दरवाजे नहीं थे पर नीचे कुछ बाइक खड़ी थीं ।यानि ऐसे हाल में भी कुछ लोग रहते ही होंगे ।
मैरीन इंस्टिट्यूट से तीन लड़के बैग टाँगे निकलते दिखे तो उनसे इस कॉलोनी का नाम पूछ लिया ।'फाइन आर्ट एवेन्यू' नाम था इसका ।यथा नाम तथा गुण ।बहुत साफ़ सुथरा और कलात्मक ।एक चौराहे पर काले पत्थर से बनी महात्मा गांधी की बैठी हुई बड़ी सी भव्य मूर्ति लगी हुई थी ।थोड़ी ही दूरी पर एक स्तम्भ पर चारों दिशाओं की तरफ मुँह करती चार घड़ियाँ लगी हुई थीं ।और सब अलग समय पर रुकी हुई ।एक में साढ़े ग्यारह तो दूसरे में पौने तीन बज रहे थे ।यानि घड़ियाँ एक ही समय पर लगाई गईं होंगी पर खराब अलग अलग समय पर हुईं :)
सड़क के किनारे बंजारों के दो तीन परिवार ने डेरा डाले रखा था ।स्त्रियां लम्बी ऊँची सुंदर थीं ।मैंने बच्चे के साथ एक की फोटो ली तो दूसरी भी सुंदर कम्बल में लपेटे अपने बच्चे को लेकर सामने आ गई ।बच्चे का नाम पूछा तो बताया, 'रोहित '
उनसे पूछ ही लिया ,'कहाँ से आये हो?'
'राजस्थान से'
..'इतनी दूर ??'
"हाँ घूमते हुए चले आये '
मैं सोच रही थी राजस्थान से इतनी दूर केरल...ना भाषा समझ में ना आने वाली न खान पान ।पर बंजारों से ये कितना बेवकूफी भरा सवाल था ...वे तो घूमते हुए कहीं भी पहुँच जा सकते हैं ।
थोडा आगे एक बहुत खूबसूरत पार्क था पर करीब करीब खाली ।मैंने गेट से अंदर जाना चाहा तो पाया गेट बन्द है ।तभी दूर से जॉगिंग ट्रैक पर एक सज्जन आते दिखे और मैंने पूछ लिया ,'ये कोई प्राइवेट पार्क है क्या ?' उन्होंने बताया आगे की तरफ का गेट खुला है काफी चलने और कई बन्द गेट पर करने के बाद मेन गेट मिला जिस पर लिखा था ,'Subhash Chandr Bose park' ।कुछ लोग भी दिखे ।शायद यही वजह थी कि इतने कम लोग थे अब जब खुले गेट के लिए इतनी दूर चल कर आना पड़ेगा तो कौन आएगा ।झील से सटा हुआ जॉगिंग ट्रैक था और किनारे बेंच भी लगी हुई थीं ।इक्का दुक्का लोग बेंच पर बैठे थे और थोड़े से लोग टहल रहे
थे ।बहुत ही खुबसूरत जगह थी .
बेटे का फोन आया कि वह भी आ रहा है और मैं पार्क में इधर उधर घूमती उसका इंतज़ार करने लगी ।उसके आने के थोड़ी देर बाद हम भी लौट पड़े ।रास्ते के किनारे पेड़ के नीचे नारियल वालों की दूकान सज रही थी ।पेड़ की शखाओं से बंधे नारियल के गुच्छे भले लग रहे थे ।मुम्बई में मेरी दक्षिण भारतीय सहेलियाँ केरल-कर्नाटक के नारियल की बहुत तारीफ़ करती हैं ।कुछ तो मुम्बई में नारियल पानी पीती ही नहीं कि' हमारे गाँव वाला टेस्ट नहीं' ।मैंने भी बहुत हुलस कर एक नारियल लिया पर या तो बदकिस्मती से मुझे अच्छा नारियल नहीं मिला या शायद ऐसा ही स्वाद होता हो ।मुझे तो मुम्बई वाला नारियल पानी ही पसंद
मुझे उम्मीद थी कि नुक्कड़ पर कहीं फिल्टर कॉफी मिलेगी ।पर एक जगह चाय ही मिली ।दो दिन में सिर्फ एक बार फिल्टर कॉफी नसीब हुई है ।यहाँ भी नेस्कैफे और ब्रू ने ही बाजार जमा लिया है .
होटल में नाश्ता कर हम तैयार हो गए . नाश्ते में इडली साम्भर ,डोसा, ब्रेड बटर ,कॉर्नफ्लेक्स के साथ पूरी भाजी भी थी . पूरी का आकार , पूरी में से आधी कटी हुई पूरी का था . समूचे केरल यात्रा में हर होटल के नाश्ते में पूरी इसी शेप की मिली . ऐसी पूरी खिल भी नहीं पाती .मैं नाश्ता के लिए जाते वक्त कभी भी फोन लेकर नहीं जाती (चार्जर में लगा छोड़ देती ) वरना फोटो भी ले लेती.
Kerala Folklore Theatre and Museum at Thevara, Ernakulam सबसे पहले हम कोचीन में ही स्थित 'लोक कला म्यूजियम' में गए . इसे Kerala Folklore Theatre and Museum at Thevara, Ernakulam कहा जाता है . यह म्यूजियम George Thaliath और उनकी पत्नी Annie George के 25 वर्ष के प्रयासों का फल है. 65 कुशल बढ़ई और कारीगर ने इसे बनाने में सात वर्षों का समय लिया. 2009 में इसका उदघाटन हुआ.
इसकी इमारत तीन मंजिला है और इसका निर्माण 'मालाबार', त्रावणकोर और कोचीन की वास्तुकला के आधार पर हुआ है. इसका प्रवेश द्वार ही सोलहवीं सदी के तमिलनाडू के एक मंदिर के भग्नावशेष से बना है. पहली मंजिल को Kalithattu, कहा जाता है, इसमें केरल के विभिन्न पारम्परिक और लोक नृत्य जैसे, थेय्यम, कथकली, मोहनीअट्टम, ओट्टान्थुल्ल (Theyyam, Kathakali, Mohiniyattam and Ottanthullal) की वेशभूषा और जेवर रखे गए हैं . दूसरी मंजिल, जिसे कमल पत्र कहा जाता है , खूबसूरत म्यूरल पेंटिंग्स से सजा हुआ है . इसकी लकड़ी की छत पर अद्भुत कारीगरी की हुई है.जो साठ फ्रेम से मिलकर बना है . यहाँ, मास्क, कठपुतलियाँ, गहने, दीप स्तम्भ, एंटिक वाद्य यंत्र, और लकड़ी ,ब्रोंज, पीतल की कई मूर्तियाँ हैं. पाषाण युग की कई मूर्तियाँ भी हैं. एक जगह देखा, दसवीं शताब्दी में पुत्र प्राप्ति की मन्नत के लिए लोग कुछ आकृतियाँ चढाते थे . यानि पुत्र प्राप्ति की कामना ,इतनी पुरानी है.
तीसरी मंजिल पर लकड़ी का सुंदर स्टेज बना अहा है ,जहां रोज साढ़े छः बजे केरल की प्राम्प्रिक कलाओं और नृत्य की मंच प्रस्तुति होती है.
प्रवेश शुल्क , प्रति व्यक्ति 100 रुपये है . कैमरा के लिए भी 100 रूपये का टिकट है. म्यूजियम में मुझे केरल में जन्मी पर कर्नाटक में रहने वाली एक डॉक्टर मिल गई. जो मेरी गाइड बन गई और हर चीज़ विस्तार से बताया . पारम्परिक नृत्य के गहने इतने भारी थे कि उन्हें पहनकर नृत्य करना कितना मुश्किल होता होगा, सोचकर ही हैरानी होती है. एक जगह एक मंदिर का दरवाजा सुरक्षित रखा गया था .जिसकी ऊँचाई बहुत छोटी थी. .डॉक्टर साहिबा ने बबताया कि हमारा समाज मातृ सत्तात्मक है .मंदिर पर औरतों का अधिकार होता है और उनकी अनुमति से ही कोई मंदिर में प्रवेश कर सकता है, पति भी .पीतल के गुड्डे -गुडिया भी दिखे ,उन्होंने बताया कि शादी मे लड़की को दिए जाते हैं और नवरात्रि में हर घर के गुड्डे गुड़ियों की सफाई की जाती हैऔर उन्हें सजाया जाता है. एक लकड़ी की गोल सी चीज़ दिखा कर कहा कि इसमें रखकर गरम चावल परोसा जाता है. वे लोग आज भी अपने घ रों मे इस्तेमाल करते हैं . म्यूजियम में एक दूकान भी थी जहां साड़ियाँ, बैग, एंटिक जेवर, नाव की आकृति बहुत कुछ बिक रहा था .जिसे टूरिस्ट यादगार के तौर पर ले जा सकते हैं .
म्यूजियम अच्छी तरह घूमने में दो घंटे लग जाते हैं .
RAASA Restaurant -- केरल का पारम्परिक भोजन
वहाँ से निकलते लंच का वक्त हो गया था. और ड्राइवर हमें एक रेस्टोरेंट में ले गया ,जहां केले के पत्ते पर केरल का पारम्परिक भोजन मिल रहा था . एक सहेली के घर में ओणम में जितने व्यंजन खाए थे ,केले के पत्ते पर वे सारे व्यंजन परोसे गए . गुड और अदरक की चटनी, अवियल, रसम, साम्भर , मूंग दाल ,पापड्म और ढेर सारी अलग अलग सब्जियां थीं ,.हर ओणम में सहेली के घर जीमने के बाद भी उनके नाम मुझे कभी याद नहीं हो पाए . दो तरह का पायसम भी था, जिसका स्वाद अद्भुत था . बाद मे भी हम हर जगह पायसम ढूंढते रहे पर कहीं नहीं मिला. फिर ह्में ख्याल आया उत्तर भारत के किसी होटल में जाकर हम खीर मांगे तो क्या ह्में मिलेगा :)
खा पीकर हम मुन्नार की तरफ चल दिए . रास्ता बहुत ही खूबसूरत था , घूमती हुई पहाड़ी सडकें और हर तरफ हरियाली .उनके बीच गुलमोहर की तरह कई पेड़ नारंगी रंग के चटख फूलों से लादे हुए. ड्राइवर को भी उनका नाम मालूम नहीं था .कहीं भी एक इंच भी खाली जगह नहीं दिखती .हर तरफ हरा भरा. .शायद इसीलिए इसे God's own country कहा जाता है. रास्ते में दो जगह खूबसूरत झरने भी मिले .
करीब तीन बजे हम होटल 'ब्लैक फ़ोरेस्ट' पहुँच गए .नाम के अनुसार ही बिलकुल घने जंगल के बीच में यह होटल था और पहाड़ की ढलान पर बना हुआ था .पहला होटल ऐसा देखा, जिसमें एंट्री छत की तरफ से थी . छः मंजिल की होटल में छत की तरफ से प्रवेश कर लिफ्ट से नीचे जाना पड़ता है. चौथी मंजिल पर रिसेप्शन और दूसरी मंजिल पर हमारा कमरा था . सुन्दर सी बालकनी भी थी .और पास ही बहते झरने का शोर कमरे तक बदस्तूर पहुँच रहा था .
Spice Garden Munnar
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आज- कल -परसों फूल
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कमरे में थोड़ी देर आराम कर हम 'स्पाइस गार्डेन' देखने निकला गए . हल्की सी बारिश शुरू हो गई थी . और हमारे पास छाता नहीं था . .सोच ही रहे थे कैसे घूम पायेंगे कि देखा गार्डेन के ऑफिस के बाहर ढेर सारे छाते रखे हुए हैं . यहाँ भी प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति 100 रुपये था . एक साठ वर्षीय हंसमुख गाइड हमारे साथ हो लिए और एक एक पेड़ के विषय में विस्तार से बताया. हमने दाल चीनी, काली मिर्च, इलायची, कॉफ़ी, जायफल, अंजीर , कोको और ढेर सारी आयुर्वेदिक औषधियों वाले पौधे देखे . साथ में उन पौधे के गुण भी बताते जा रहे थे . सुनते वक्त तो लग रहा था , सब याद है पर शाम तक सब गड्ड मड्ड हो गया. बस प्रमुख चीज़ें ही याद रहीं.
इलायची के पौधे कि जड़ों के पा स्खूब सारी इलायची फली हुई थी . इसे तैयार करते वक्त पांच किलो इलायची में से एक किलो इलायची ही काम लायक मिलती है. इसकी फसल साल भर होती है. 45 दिनों में एक फसल तैयार हो जाती है. कोको खूब सारे फले हुए थे .इसके बीज्निकाल कर सुखाया जाता है और फिर उस से चॉकलेट बनाई जाती है.
रुद्राक्ष का पेड़ भी दिखाया .और बताया कि हज़ारों रुद्राक्ष के फल में से एक 'एकमुखी रुद्राक्ष' मिलता है और उसकी कीमत लाखों में होती है. अन्नानास, नांरगी भी फले हुए दिखे . कई गोल मटोल संतरे पेड़ से लटक रहे थे .पर उन्हें तोड़ने का मन नहीं हुआ ,जैसा हिमाचल में सेब के बाग़ देख कर हुआ था .शायद इसलिए कि यहाँ एक ही पेड़ था जबकि वहाँ गुलाबी सेब से लदे सैकड़ों पेड़ थे. इस स्पाइस गार्डेन में हर चीज़ का एक ही पेड़ यक पौधा था, जिसे टूरिस्ट के दर्शनार्थ लगाया गया था .वरना कई एकड़ जमीन में इन सबके पेड़ हैं और हज़ारों लोग उसकी देखभाल में लगे होते हैं . एक भीनी भीनी खुशबू वाली छोटे छोटे फूलों की झाडी थी, जिसे 'आज- कल -परसों' कहते हैं .इस फूल का रंग पहले दिन सफेद, दूसरे दिन नीला और तीसरे दिन हल्का बैंगनी हो जाता है.
गार्डेन के एक छोर पर मसालों और आयुर्वेदिक औषधियों की एक दूकान थी . तरह तरह के तेल और दवाइयां थीं वहां . बाल झड़ने की समस्या से तो सभी ग्रस्त रहते हैं . उनकी बातों में आकर हमने भी खूब महंगे तेल ले लिए (अभी घर में किसी ने आजमाना शुरू नहीं किया है ) कुछ मसाले ले लिए . पेमेंट करते वक्त उनलोगों ने बोला कि कार्ड नहीं लेते. अब आजकल लोगों की कैश रखने की आदत खत्म हो गई है. हमारे पास भी लिमिटेड कैश थे . उनलोगों ने कहा, 'पास ही ATM है. ड्राइवर आपको ले जाएगा .' हमें भी अभ्यास है, मुम्बई में हर नुक्कड़ पर ATM मिल जाता है . लिहाजा हमने पास के सारे कैश दे दिए .बाहर आकर जब ड्राइवर से कहा तो उसने बोला...ATM तो टाउन में है, वहाँ जाने में डेढ़ घंटे लगने थे . स्पाइस गार्डेन के बाद हमें 'कथकली और कलारीपयाट्टू (Kalarippayattu ) का शो देखना था . स्पाइस गार्डेन से थोड़ी ही दूर पर 'शो सेंटर' था पर वे लोग भी कार्ड से पेमेंट नहीं लेते थे .लिहाजा हमें टाउन ही जाना पडा. वहाँ भी चार ATM में कैश ही नहीं थे .पांचवे ATM में कैश था पर लंबा क्यू भी . पैसे निकालने जरूरी थे . शो के लिए हम समय पर नहीं पहुँच पाते .
इसलिए उसी भीगे भीगे से छोटे से मार्केट में घूमते रहे . एक रेस्टोरेंट में गर्म गर्म मिर्ची के भजिये और मसाला चाय पिया (फिल्टर कॉफ़ी यहाँ भी नहीं मिली ) .बड़ी बड़ी मिर्ची के बेसन में लिपटे भजिये केरल में बहुत मशहूर है. ठेले पर खूब मिलते हैं. ठेलेवाले मिर्ची का तोरण या हार सा सजा कर रखते हैं . अन्धेरा हो गया था और इन सर्पीली रास्तों से हमें अभी होटल वापस लौटना था . कुछ जगह रास्ते पर बादल उतारे हुए थे और जीरो विजिबिलिटी थी. जैसन ने बताया इन रास्तों पर हमेशा ही बादल रहते हैं. आगे रास्ता खुल जाएगा . सर्दियों में तो छः बजने के बाद रास्ते बिलकुल बंद हो जाते हैं. शाम ढलने से पहले ही होटल वापस लौटना होता है .
यहाँ एक सीख मिली कि किसी हिल स्टेशन पर जाएँ तो पर्याप्त कैश रखें .ATM दूर होते हैं और कैश से खाली भी.
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नृत्य के जेवर |