अक्सर जब दस-बारह या उस से ज्यादा किस्तों वाली कहनियाँ लिखती हूँ...तो उसके बाद...उस कहानी को लिखने की प्रक्रिया या कहें मेकिंग ऑफ द स्टोरी/नॉवेल....भी लिख डालती हूँ. इन दो किस्तों की कहानी के बाद कुछ लिखने का इरादा नहीं था...पर इस कहानी पर लोगो की प्रतिक्रियायों ने कुछ लिखने को बाध्य...नहीं बाध्य तो नहीं...हाँ, कुछ लिखने की इच्छा जरूर जगाई मन में.
इस कहानी की थीम कुछ अलग सी थी और मुझे इसे लिखने में थोड़ी हिचकिचाहट भी थी....कि कहीं ऐसा तो नहीं लगे कि ये कहानी 'बंद दरवाजों का सच 'विवाहेतर संबंधों ' को बढ़ावा दे रही हो या फिर उसे सही ठहरा रही हो. मन में दुविधा थी और ऐसे में तो दोस्त ही काम आते हैं. वंदना अवस्थी दुबे ,राजी मेनन और रश्मि प्रभा जी से इसके प्लाट की चर्चा की....और तीनो ने ही सुन कर कहा...तुम्हे जरूर लिखना चाहिए. आभार उन सबका. अक्सर इस कहानी में वर्णित जैसे हालात आते हैं लोगों की जिंदगी में......और इसके लिए अक्सर स्त्री को ही दोषी ठहरा दिया जाता है. पर इसके लिए सिर्फ स्त्री को गलत नहीं कहा जा सकता...दोषी वे हालात होते हैं.
कुछ लोगों ने टिप्पणियों में भी कहा और कुछ ने मेल में और बातचीत में भी कहा कि नीलिमा सही वक़्त पर संभल गयी वरना वास्तविक जीवन में ऐसा होता नहीं...लोग भावनाओं पर काबू नहीं रख पाते और बहक जाते हैं. पर मैं इस से इत्तफाक नहीं रखती. अभी भी हमारे देश में देह की पवित्रता बहुत मायने रखती है. और यह बात पूरे विश्वास से इसलिए भी कह रही हूँ क्यूंकि यह कहानी एक सत्य घटना पर आधारित है.
मेरी सहेली के पड़ोस में एक महिला रहने आई. साथ में उसके सास-ससुर भी आए थे. उन्होंने मेरी सहेली से कहा ...बहू पहली बार शहर में अकेले पति के साथ रहने आई है, जरा इसका ख्याल रखना. वे लोग अहिन्दीभाषी थे ..महिला को लोगों के साथ घुलने-मिलने में थोड़ा संकोच होता था. सहेली नौकरी करती है...काफी व्यस्त रहती है..फिर भी वह उक्त महिला का हाल-चाल पूछ लिया करती थी...कभी फ्री रहती तो अपने साथ बाज़ार वगैरह ले जाती क्यूंकि उस महिला का पति काफी व्यस्त रहता था...सुबह के गए देर रात को घर आया करता था.
मेरी सहेली ने गौर किया...सामने वाली बिल्डिंग के टेरेस से एक लड़का अक्सर उनकी बिल्डिंग की तरफ देखता रहता है....उसने इसे ,ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया...पर एक दिन वह छुट्टी ले घर पर थी तो देखा...वह लड़का उसके पड़ोस में उक्त महिला के घर गया. सहेली ने बाद में उस से पूछा भी...और समझाया भी...कि 'वह दूर ही रहे'..पर उस महिला ने कहा...'वे लोग सिर्फ अच्छे दोस्त हैं.." एकाध बार और सहेली ने उसके घर लड़के को आते देख उसे समझाने की कोशिश की....पर फिर बाद में चुप हो गयी कि कहीं व्यर्थ की दखलअंदाजी ना लगे.
इसके बाद घटनाक्रम ने जो मोड़ लिया..वो अगर मैं कहानी में लिख देती तो नाटकीयता से भरपूर लगता लेकिन ऐसे ही नहीं कहते.. .. "God is the greatest fiction writer " उन लोगो का फ़्लैट का ग्यारह महीने का कॉन्ट्रेक्ट ख़त्म हो गया और उक्त महिला के पति ने उसी बिल्डिंग में फ़्लैट किराए पर ले लिया...जिस बिल्डिंग में वो लड़का रहता था. आस-पास के सैकड़ों बिल्डिंग छोड़कर प्रौपर्टी डीलर ने उसी बिल्डिंग में उस महिला के पति को फ़्लैट दिखाया और उन्हें पसंद भी आ गया. अब वो महिला घबरा गयी...अब उसे लड़के के लक्षण भी ठीक नहीं लग रहे थे. एक ही बिल्डिंग में दूसरे माले पर वो महिला और सातवें माले पर वो लड़का रहने लगा. और वही हुआ जिसका उसे डर था. महिला के अवोइड करने पर वो लड़का समय-असमय उसे फोन करने लगा...और एक दिन जबरदस्ती उसके फ़्लैट में घुस आया....महिला ने किसी तरह भागकर पड़ोस में शरण ली. कह दिया की कोई अजनबी था. वो लड़का सीढियों से ऊपर चला गया. यह सब उसने मेरी सहेली को फोन पर बताया.
पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती. उस बिल्डिंग के लोग काफी चिंता में पड़ गए कि इतनी सिक्युरिटी के बाद भी कोई बाहर से कैसे बिल्डिंग में घुस आया. सोसायटी की मीटिंग हुई...वाचमैन की खबर ली गयी. उस बिल्डिंग में भी मेरी कई सहेलियाँ रहती हैं...उन सबने मुझसे भी अपनी चिंता बांटी. मुझे अंदर की बात की खबर थी...पर उक्त महिला की खातिर मैने उन्हें सच्चाई नहीं बतायी.
करीब पांच वर्ष पहले की घटना है,यह. उस महिला से मिलना तो दूर मैने उसे कभी देखा भी नहीं...सहेली ने नाम जरूर बताया होगा..पर अब तो वो भी नहीं याद......पर इस पूरे घटनाक्रम ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया कि जरूर वो महिला बहुत अकेलापन महसूस करती होगी...नए शहर में...कोई दोस्त नहीं....हिंदी-अंग्रेजी बोलने में कठिनाई..पति व्यस्त रहता होगा.... इसीलिए उसने उस लड़के से दोस्ती की होगी. और इसके लिए उस महिला को बिलकुल गलत नहीं कहा जा सकता. थोड़ी सराहना....थोड़ी केयरिंग... अपनी कहने..दुसरो की सुनने की इच्छा सबके भीतर होती है.
जबतक उस लड़के ने मीठी-मीठी बातें की ...उसे अच्छा लगा पर...जब इस से आगे बढ़कर उसने कुछ चाहा तो महिला का संस्कारी मन स्वीकार नहीं कर पाया. अभी भी हमारी संस्कृति में देह की पवित्रता ही अहम् होती है. और रिश्ते एक निश्चित दूरी पर ही निभाये जाते हैं. इसलिए सिर्फ कहानी में ही नहीं..वास्तविक जीवन में भी लोग भावनाओं पर काबू रखना जानते हैं.
यह कहानी बहुत ही वास्तविक सी लगती है....इसका थोड़ा श्रेय मेरी सहेली 'राजी' को भी जाता है. रोज मॉर्निंग वॉक पर मैं उस से इसके सीन डिस्कस किया करती थी....और उस से पूछती..ऐसा हो सकता है ना...और वो मुझे आश्वस्त करती. { जबरदस्ती कविता सुनायी जाती है...यह तो सब जानते हैं...पर जबरन कहानी भी सुनायी जाती है,यह सिर्फ राजी जानती है:).. पर मानती नहीं...कहती है..'वो एन्जॉय करती है,सुनना' }
वंदना ने भी सिर्फ आश्वस्त ही नहीं किया...बल्कि कहा था...इसी प्लाट पर मैं भी एक कहानी लिखती हूँ....मैने तो लिख डाला...अब मुझे भी वंदना की कहानी का इंतज़ार है...आप सब भी उस से फरमाइश करते रहिए :)