रविवार, 13 मार्च 2011

होली के रंग,गाँव की सोंधी मिटटी के संग


कल एक पोस्ट डाली  थी...'रोडीज ' के ऑडिशन में आये एक लड़के की करुण कथा...और उसके जीवट की...पर अब पता चला...वो सारी कहानी  मनगढ़ंत थी...कोटिशः धन्यवाद ..अभिषेक और मीनाक्षी जी का जिनलोगों ने कुछ  लिंक देकर उसकी असलियत  बतायी....दरअसल मेरे बेटे ने भी कहा था...'वो फेक है'..पर मैंने कहा...वो सब अफवाह होगा...पर लिंक देखकर तो शक यकीन में बदल गया. अब चैनल वाले जाने कि उसके साथ क्या सुलूक करें....अब तक वे आम दर्शक  को बेवकूफ बनाते आये हैं...कोई उन्हें बना गया....पर मैंने  सोचा...पोस्ट डिलीट करना ही ठीक रहेगा. ऊपर स्पष्टीकरण और लिंक दे भी दूँ...फिर भी उसे निगेटिव पब्लिसिटी तो मिल ही जाएगी. क्यूँ बेकार में लोगों का कीमती समय बर्बाद किया जाए. जिनलोगों ने उसे पढ़कर उसपर अपने कमेन्ट दिए...क्षमाप्रार्थी  हूँ...उनका बहुमूल्य समय नष्ट हुआ.

होली नज़दीक है तो होली की कुछ यादें शेयर करने का उपयुक्त  मौका है...

कोई कहता है उन्हें होली नहीं पसंद...कोई कहता है बहुत पसंद है.पर मैंने कभी खुद को इस स्थिति में पाया ही नहीं कि पसंद या नापसंद करूँ.शायद बचपन सेही इस त्योहार को अपने अंदर रचा बसा पाया है.

ग्यारह  वर्ष की उम्र में हॉस्टल चली गयी...और तब से जैसे बस होली का इंतज़ार ही रहता...बाकी का पूरा साल होली में की गयी मस्ती याद करके ही गुजरता.सरस्वती पूजा के विसर्जन वाले दिन से जो गुलाल खेलने की शुरुआत होती वह होली की छुट्टी के अंतिम दिन तक चलती रहती. हमारे हॉस्टल का हर कमरा' इंटरकनेक्टेड' था.पूरी रात हर कमरे में जाकर सोने वालों के बालों में अबीर डालने का और मुहँ पर दाढ़ी मूंछ बनाने का सिलिसिला चलता रहता.पेंट ख़त्म हो जाते तो कैनवास वाले जूते का सफ़ेद रंग वाला शू पोलिश भी काम आता (ड्रामा में हमलोग बाल सफ़ेद करने के लिए भी इसका उपयोग करते थे) उन दिनों ज्यादातर लड़कियों के लम्बे बाल होते थे.उन्हें रोज़ शैम्पू करने होते.और टीचर से डांट पड़ती...बाल खुले क्यूँ रखे हैं?.मैं शुरू से ही नींद की अपराधिनी हूँ .इसलिए इस रात वाली गैंग में हमेशा शामिल रहती..बाकी सदस्य अदलते बदलते रहते.

सरस्वती पूजा में हमलोग गेट से लेकर स्टेज तक ,जहाँ सरस्वती जी की मूर्ति रखी जाती थी.सुर्खी की एक सड़क बनाते थे.(सुर्खी ईंट के चूरे जैसा होता है ) उसके ऊपर चॉक पाउडर से अल्पना बनायी जाती थी.हर वर्ष होली में एक बार उस सुर्खी से जमकर होली खेली जाती.ये रास्ता मैदान के बीच से होकर जाता था और हम लोग रोज शाम को मैदान में 'बुढ़िया कबड्डी' खेला करते थे.किसी ना किसी का मन मचल जाता और वो एक पर सुर्खी उठा कर फेंकती..वो लड़की उसके पीछे भागती पर बीच में जो मिल जाता,उसे ही लगा देती. फिर पूरा हॉस्टल ही शामिल हो जाता इसमें. एक बार शनिवार के दिन ऐसे ही हम सब सुर्खी से होली खेल रहें थे. अधिकाँश लड़कियों ने यूनिफ़ॉर्म नहीं बदले थे.सफ़ेद शर्ट और आसमानी रंग की स्कर्ट सुर्खी से लाल हो गयी थी.उन दिनों 'सर्फ़ एक्सेल' भी नहीं था.फिर भी हमें कोई परवाह नहीं थी. मेट्रन मार्केट गयीं थीं. वो कब आकर हमारे बीच खड़ी हो गयीं पता ही नहीं चला.जब जोर जोर से चिल्लाईं तब हमें होश आया और हमें सजा मिली की इसी हालत में खड़े रहो. सब सर झुकाए लाईन में खड़े हो गए. शाम रात में बदल गयी,सुर्खी चुभने लगी,मच्छर काटने लगे पर मेट्रन दी का दिल नहीं पिघला.जब खाने की घंटी बजी और कोई मेस में नहीं गया तो मेस में काम करने वाली गौरी और प्रमिला हमें देखने आई. झूठमूठ का डांटा फिर इशारे से कहा..एक एप्लीकेशन लिखो...कि अब ऐसे नहीं करेंगे.सबने साईन किया डरते डरते उनके कमरे में जाकर दिया.फिर हमें आलू की पानी वाली सब्जी और रोटी(रात का रोज़ का यही खाना था,हमारा) खाने की इजाज़त मिली.पर सिर्फ हाथ मुहँ धोने की अनुमति थी,नहा कर कपड़े बदलने की नहीं.खाना तो हमने किसी तरह खा लिया.पर मेट्रन के लाईट बंद करने के आदेश के बावजूद ,अँधेरे में ही एक एक कर बाथरूम में जाकर बारह बजे रात तक सारी लडकियां नहाती रहीं.

हॉस्टल में 'टाइटल' देने का बड़ा चलन था...रोज ही नोटिस बोर्ड के पास एक कागज़ चिपका होता.और किसी ना किसी कमरे की लड़कियों ने बाकियों की खबर ली होती.खूब दुश्मनी निकाली जाती इस बहाने. कई बार तो असली झगडे भी हो जाते और बोल चाल बंद हो जाती.पर ऐसा कभी कभी होता...ज्यादातर सब टाइटल पढ़ हँसते हँसते लोट पोट ही हो जाते.

मेरे स्कूल के दिनों में पापा की पोस्टिंग मेरे पैतृक गाँव के पास थी. अक्सर हॉस्टल से सीधा मैं गाँव ही चली जाती.वहाँ की होली भी निराली होती थी.दिन भर अलग अलग लोगों के ग्रुप निकलते.सुबह सुबह लड़कों का हुजूम निकलता.लड़के गोबर और कीचड़ से भी खेला करते.और कोई दामाद अगर गाँव में आ गया तो उसकी खैर नहीं उसे फटे जूते और उपलों का माला भी पहनाया जाता.एक बार मेरे पापा दालान में बैठे शेव कर रहें थे.एक हुडदंगी टोली आई पर वे निश्चिन्त बैठे थे कि ये सब उनसे उम्र  में  छोटे  हैं.पर उनमे ही उनका हमउम्र भी कोई था और उसने उन्हें एक कीचड़ भरी बाल्टी से नहला दिया.पापा को सीधा नहर में जाकर नहाना पड़ा.

लड़कियों का ग्रुप एक बाल्टी में रंग और प्लेट में अबीर और सूखे मेवे(कटे हुए गरी, छुहारे) लेकर घर घर घूमता.उन दिनों घर की बहुएं बाहर नहीं निकलती थीं. कई घर की बहुएं तो लड़कियों से भी बात नहीं करती थीं.(ये बात अब तक मेरी समझ में नहीं आती). घर में काम करने वाली,आँगन में एक पटरा और रंग भरी बाल्टी रखती. कमरे से घूंघट निकाले बहू आकर पटरे पर बैठ जाती और हम लोग अपनी अपनी बाल्टी से एक एक लोटा रंग भरा जल शिव जी की तरह उनपर ढाल देते.फिर घूंघट के अंदर ही उनके गालों पर अबीर मल देते और हाथों में थोड़े अबीर में लिपटे मेवे थमा देते.वे बहुएं भी हमारी फ्रॉक खींच हमें नीचे बैठातीं और एक लोटा रंग डाल देतीं.घूंघट के अंदर से भी वे सब कुछ देखती रहतीं.कोई लड़की अगर बचने की कोशिश में पीछे ही खड़ी रहती तो इशारे से उसे भी बुला कर नहला देतीं.

इसके बाद शुरू होता रंग छुडाने का सिलसिला.आँगन में चापाकल के पास हम बहनों का हुजूम जमा हो जाता,आटा,बेसन से लेकर केरोसिन तेल तक आजमाए जाते.त्वचा छिल जाती.पर हम रंग छुड़ा कर ही रहते.घर की औरतें बड़े बड़े कडाहों में पुए पूरी तलने में लगी होतीं.पुए का आटा रात में ही घोल कर रख दिया जाता.एक बार मेरी दादी ने जिन्हें हम 'ईआ' बुलाते थे.मैदे के घोल में शक्कर की जगह नमक डाल दिया था.वहाँ बिजली तो रहती नहीं थी.एक थैले में गाय बैलों के लिए लाया गया नमक और दूसरे थैले में शक्कर एक ही जगह टंगी थी.सुबह सुबह सबसे पहले 'ईआ' ने मुझे ही दिया चखने को,जब मैंने कहा नमकीन है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ.फिर उन्होंने हमारे घर में काम करने वाली (पर बहुओं पर सास से भी ज्यादा प्यार,अधिकार और रौब जमाने वाली) 'भुट्टा काकी' से चखने को कहा .जब उन्होंने भी यही बताया तब उनके होश उड़ गए...फिर तो पता नहीं कितने एक्सपेरिमेंट किये गए.दुगुना,शक्कर..मैदा सब मिला कर देखा गया..पर अंततः उसे फेंकना ही पड़ा.

शाम को होली गाने वालों की टोली घर घर घूमती.पूरे झाल मंजीरे के साथ हर घर के सामने कुछ होली गीत गाये जाते और बदले में उन्हें ढेर सारा अनाज दिया जाता.सारे दिन खेतों में काम करने वाले,गाय-भैंस चराने वालों का यह रूप, हैरान कर देता हमें.हमारे 'प्रसाद काका' जो इतने गंभीर दीखते कभी काम के अलावा कोई बात नहीं करते. वे भी आज के दिन भांग या ताड़ी के नशे में गाने में मशगूल रहते.ज्यादातर वे लोग एक ही लाइन पर अटक जाते..." गोरी तेरी अंखियाँ लगे कटार..."...बस अलग अलग सुर में यही लाईन दुहराते रहते.

अब तो पता नहीं...गाँव में भी ऐसी होली होती है या नहीं.

32 टिप्‍पणियां:

  1. गलती से अनुराग जी और समीर जी की टिप्पणी डिलीट हो गयी थी...

    Smart Indian - स्मार्ट इंडियन

    कमाल का ज़माना था। होली मुबारक!

    Udan Tashtari
    क्या क्या न याद दिला दिया यह संस्मरण लिख कर.....बहुत बढ़िया लगा,

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  2. बहुत सुंदर संस्मरण। एक दम फगुआहट वाला। यादों के गलियारे में घसीट कर ले गईं आप।
    पर एक शिकायत है, सारी पृष्टभूमि में स्थल का नाम न होना मुझे इससे तारतम्य जोड़ने में दिक़़कत पैदा कर रहा था।
    ... पर जिस तरह कि उठा-पटक थी, उससे तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था कि यह तो अपनी तरफ़ का ही हाल-ए-बयां है। जो भी हो यादों के गलियारे में आपके द्वारा छींटे गए रंग-गुलाल-और (कीचड़=मुहावरे वाला अर्थ में नहीं) में खूब-खूब भींगे।
    एक और चीज़ मेंशन करूंगा ..
    @ हॉस्टल में 'टाइटल' देने का बड़ा चलन था
    अहा! बड़ा हिट कार्यक्रम होता था यह। आज उसका नाम तो याद नहीं पर टाइटल याद है, जिसे होली में तोता सुंदरी का खिताब दिया था, इसलिए कि सुग्गापंखी रंग का ड्रेस पहन कर आई थी .....
    ... और अगर थोड़ी चर्चा जोगीरा सर-र-र-र की भी कर देतीं तो उसी मिट्टी की पूरी कहानी लगती जिसके बारे में मैं सोच रहा हूं।
    आभार, धन्यवाद इस सुंदर प्रस्तुति के लिए।
    हैप्पी होली!

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  3. अब गावों मे भी वो उत्साह और सरलता नहीं बची है... शहरों मे औपचारिकता निभाते हुए होली बिताई जाती है.... होली को रंग से ज़्यादा मदिरा का त्योहार माना माने लगा है

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  4. आपकी होली की पोस्ट पढ़कर तो बचपन से लेकर सारी होलियाँ यद् हो आई |छोटे शहरों में आज के ३५ -४० साल पहले लडकियों को बाहर तो क्या ?हमको तो घर में भी पिताजी का सख्ती थी होली न खेलने के लिए किन्तु हम भी कहाँ मानने वाले जिस बात की मना हो उसे उसे करने का आनन्द ही कुछ और हमारा घर अक पूरा बाड़ा था उसी में कुआ था पिताजी बाहर गये की की पहुंच गये कुए पर कुए पर चार गिरियाँ थी बस क्या था बाल्टिया खिची और अक दुसरे पर डालो |
    मध्य प्रदेश में होली पञ्च दिन तक मनाई जाती है पूर्णिमा से लेकर रंग पंचमी तक |हमको भी कालेज में सख्त मनाही थी फिर पहले टिन की बाम(झंडू बाम नहीं )की डिब्बी होती थी उसके ढक्कन में छेद करना और उसमे गुलाल भरकर लडकियों की मांग में छिडक देना प्रिंसिपल मैडम से डांट खाकर आजाना कोई फर्क नहीं पड़ता था |

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  5. मै बहुत ज्यादा होली खेलता था, वेसे मुझे अपने भारतिया त्योहार सभी बहुत पसंद हे, क्योकि वो सब अपने हे, लेकिन यहां आ कर इन सब से बहुत दुर आगे, ओर यहां त्योहार मनाने का मजा भी नही आता,आप ने बहुत कुछ याद दिला दिया, धन्यवाद

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  6. (dost ke laptop se comment kar raha hun isliye roman mein hai)

    -
    gaaon mein holi ke samay bas ek hi saal raha hun....bahut chota tha tab...dhundli si yaad hai....
    waise patna ki holi bhi jabardast rahtr the...bahut kuch yaad aa gaya di.....bahut bahut si baatein yaad aayi....is baar to holi mein ghar nahi jaa paa rha hun :(

    holi ki yaad behtreen thi di :)

    aur waise,
    आलू की पानी वाली सब्जी और रोटी(रात का रोज़ का यही खाना था,हमारा) ....daya aa rahi hai aapke us samay ke haalat par :D

    waise aap log bhi kam nautanki aur sharaten nahi kiye hain....ek do post likh hi dijiye apne hostel ke din ke bhi :) :) :P seriously :)

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  7. ''उसे निगेटिव पब्लिसिटी तो मिल ही जाएगी'' पर मैंने आपसे पहले भी सावधानी रखने की अपेक्षा की थी, खैर.

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  8. आपकी यह और आने वाली होली भी मौज भरी होगी, क्‍योंकि त्‍यौहार मनाने के लिए मौसम से ज्‍यादा मन की जरूरत होती है.

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  9. शायद पसंद नापसंद के अनिर्णय की स्थिति बहुतों की होती है मगर होली की संक्रामकता ऐसी होती ही है कि आप किसी निर्णय पर पहुंचे इसके पहले ही इसके चपेट में आ जाते हैं -जैसे आपकी पोस्ट ने इस दिशा में संवेदनशीलता ट्रिगर कर दी है -हैपी होली !
    रही अबीर लगाने की बात तो ..चलिए छोडिये ..होली अभी थोड़ी दूर है !

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  10. न जाने कितनी होलियों की याद दिला दी। इस बार तो पुणे में है,लगता है सूखा ही रहेगा।

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  11. हम तो सूरज की कहानी को सच ही समझे बैठे थे और आपकी कल की पोस्ट भी पढी थी। फोन में पढी थी तो कमेंट नहीं पढ पाये और ना दे पाये। आज आपने अभिषेक और मीनाक्षी जी के लिंक दिये तो समझा कि उनकी पोस्ट में सूरज के बारे में लिखा होगा, जाकर देखा। लेकिन अभिषेक के ब्लॉग पर कुछ नहीं था और मीनाक्षी जी के लिंक पर क्लिक करने पर मेरा ही जीमेल खाता खुल जाता है। शायद उन्होंने लिंक कमेंट में दिये होंगें।
    खैर

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  12. होली की हुल्लडबाजी
    खूब याद दिलाई जी आपने हमें भी अपने बचपन की कई होली
    बढिया संस्मरण बांटे आपने, धन्यवाद

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  13. अब रंगों का चटकपन ख़त्म हो रहा है... होली बदल गया है... गाँव देहात... शहर... हर जगह...

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  14. @राहुल जी,

    हमें कैसे पता चलेगा क्या सच है क्या झूठ??....जब MTV वाले बार-बार उस प्रोग्राम को रिपीट कर रहे हैं...सच ही समझेंगे न हम.

    मैंने पहले भी इस तरह की कई ख़बरें अपने ब्लॉग पर शेयर की हैं....हर खबर की खुद जांच-पड़ताल कर के तभी कुछ लिखा जाए ,यह तो संभव नहीं या फिर शायद सिर्फ संस्मरणों तक ही सीमित रहा जाए क्यूंकि वह सच है,इसका दावा हम कर सकते हैं.

    मुझे ऐसी सकारात्मक ख़बरें शेयर करनी अच्छी लगती हैं. Maximum City नामक पुस्तक में सुकेतु मेहता ने बिहार के घर से भाग कर मुंबई आये एक लड़के की कहानी लिखी है...काफी दिनों से उसपर एक पोस्ट लिखने का मन है.अब उन्होंने सच ही लिखा होगा...मैं तो ऐसा ही मानती हूँ.

    और मुझे तो संतोष हुआ की वो पोस्ट मैंने लिखी और उस लड़के की सच्चाई मेरे सामने आयी...वरना उसकी कहानी से द्रवित हो..कितने लोगों को उसका उदाहरण मैं दे चुकी होती. एक 'सूरज' ने झूठी कहानी सुनायी पर सैकड़ों सूरज ऐसे हैं....जिन्होंने अपनी मेहनत और लगन के बल पर अपनी किस्मत की रेखा बदली है.

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  15. @अंतर जी,

    मैंने सिर्फ अभिषेक और मीनाक्षी जी का परिचय दिया....'उस लड़के' से सम्बंधित लिंक इसीलिए नहीं दिए...कि बेकार में ही लोग उसके बारे में पढ़,अपना समय नष्ट न करें.

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  16. आपकी एक और पोस्टपर मैंने भी आपको बाद में बताया था.. ख़ैर होली के रंगों ने बहुत कुछ पुराना याद दिला दिया.. आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम, गुज़रा ज़माना बचपन का!!

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  17. रश्मि जी , हमने तो टिप्पणी में भी रियल्टी शोज के बारे में संदेह प्रकट किया था । आखिर संदेह सही निकला ।
    होली की मस्त शुभकामनायें ।

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  18. आपने होस्टल के दिन याद करवा दिए.
    हम उम्रों के साथ होली खेलने का अलग ही मज़ा है.
    सलाम.

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  19. मज़ेदार. होली के रंग में रंगी पोस्ट.

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  20. @ रोडीज ,
    ???
    क्या ये पोस्ट पढ़ी है हमने ?

    @ होली ,
    सारों को हास्टलर मानकर व्यवहार करें यहां वार्डन दिखने की कोशिश कोई भी करे पर है कोई नहीं :)

    घूंघट वाली बहुएं यहां भी है और गोरी की नयन कटारियों पे फ़िदा ...:)

    होली के इस शुभ अवसर पर हमारा आशीष स्वीकार करियेगा !

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  21. आपने तो कितना पुराना पहुँचा दिया ... यादों की परतें खोलने की ज़रूरत नही पड़ी ...
    सब कुछ जो लिखा है ... हमने भी किया है अपने दौर में ... बस होस्टल नही रहा ... जब कभी आज के बच्चों को देखता हूँ तो टीस उठती है ... कितना कुछ है जो आज के बच्चों से छूट रहा है ....
    समझ नही आ पाता जब कभी उनको अपनी उम्र में रख कर सोचता हूँ की उनके पास कौन सी यादें रहेंगी अपने बच्चों को बताने के लिए ...

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  22. @मनोज जी,
    संस्मरण में, मैं हमेशा स्थान का उल्लेख करने से परहेज़ करती हूँ...मुझे लगता है...कमो-बेश पूरे हिन्दुस्तान में एक सा ही माहौल है. जो भी पढ़े उसे ये सब अपने आस-पास का ही लगे...और वो उस से relate कर सके. बस मेरी सोच है ये.

    प्रसंगवश एक बात ध्यान में आ रही है....उत्तरी बिहार में पहले, माँ को 'ईआ' कहकर पुकारा जाता था...महाराष्ट्र में यह शब्द उल्टा होकर 'आई' बन जाता है..और उत्तराखंड में 'इजा '...कितनी समानता है...

    टाइटल तो हमें भी बहुत सारे याद हैं,अब तक...एक लड़की के गाल में डिम्पल पड़ते थे...उसे टाइटल दिया गया था..."शर्मीला के गड्ढे में पटौदी गिरे...आपके गड्ढे में कौन..:)

    वे होली गीत तो अब बिलकुल ही नहीं याद....अगर पता होता इतने दिनों बाद वो सब लिखने वाली हूँ...तो शायद हर होली गीत रट कर याद कर लेती...पर बचपन में उनदिनों गीत के बोल भी समझ में नहीं आते थे...और हम गीत से ज्यादा....खेतों में काम करने वालों ,गाय-भैंस चराने वालों का 'ताड़ी' के नशे में किया गया नृत्य देखने में ज्यादा मगन रहते थे.

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  23. @अली जी,
    वो पोस्ट जरा सा शुबहा होते ही मैने चंद घंटों के बाद ही हटा ली. हालांकि कई लोग यह भी शंका जता रहे हैं...शायद वो खबर झूठी हो और लड़का ही सच बोल रहा हो...आश्चर्य तो होता है...उसे अपना राज़ खुल जाने का डर नहीं था ?...कोई ना कोई तो पहचान ही लेता...जो भी हो..कंट्रोवर्सी वाली बात को समाप्त करना ही श्रेयस्कर लगा.

    और आप कोई बुजुर्ग नहीं कि आशीर्वाद दें :)...दोस्तों में तो वैसे भी शुभकामनाएं देना ही सही है{हमने ले लीं :)}...इसलिए अपना आशीष आप खुद के पास ही रख छोड़े या उपयुक्त पात्र को दें.... होली की ढेर सारी शुभकामनाएं .

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  24. @दिगंबर जी,
    जब कभी आज के बच्चों को देखता हूँ तो टीस उठती है ... कितना कुछ है जो आज के बच्चों से छूट रहा है ....
    समझ नही आ पाता जब कभी उनको अपनी उम्र में रख कर सोचता हूँ की उनके पास कौन सी यादें रहेंगी अपने बच्चों को बताने के लिए ...


    मुझे भी कई बार ये ख्याल आता है...उनके पास भरे-पूरे ननिहाल के किस्से नहीं हैं...ढेर सारे भाई-बहनों के साथ मस्ती की यादें नहीं हैं...आज के बच्चे कभी चाचा..मामा..बुआ ..मौसी के यहाँ महीनो के लिए नहीं जाते...छुट्टियाँ होती भी हैं तो ढेर सारी एक्टिविटीज़ उन्हें व्यस्त रखती है..स्विमिंग सीखना है..गिटार क्लास जाना है...शायद बस इसकी ही यादें रहेंगी उनके पास...

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  25. बहुत सुन्दर खाका खींचा है होली का……………होली की शुभकामनायें।

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  26. होली के उल्लास और उन्माद से सराबोर बहुत ही बेफिक्र और मदमस्त सा आलेख ! मन उत्फुल्ल हो गया ! बचपन की ढेर सारी यादों और अनुभवों की परतें खोल दीं आपने ! काश आज भी सभी लोग उतनी ही मासूमियत से होली के इस त्यौहार को मना पाते जैसे पहले मनाया जाता था ! अब तो लगता है जैसे बेमन से सिर्फ रस्म अदायगी की जा रही है वह भी दिखावे के लिये ! होली की आपको तथा आपके परिवार को बहुत सारी शुभकामनायें !

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  27. रश्मि तुम्हारे संस्मरण पढ कर ही लगा कि होली वाकई खासेऔर उल्लस से भरपूर त्यौहार है वरना अपने पास तो एक भी होली नही जिसे बताया जा सके कि हमने होली मनाई। पढ कर ही आनन्द आ गया। होली की हार्दिक शुभकामनायें।

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  28. रश्मि जी ,
    होस्टल के लुभावने दिन ...शरारतें ...बदमाशियां सारी उम्र नहीं भूलती ....
    और जब याद करो बहुत सुकून देतीं हैं .....
    आपकी शरारतों में हम भी शामिल हो लिए ....
    हमने तो यूँ कभी होली खेली नहीं ...
    हाँ कुछ बड़े हुए तो गाड़ियों में ग्रुप बना किसी नदी किनारे खाना पीना और मौज मस्ती चलती थी ...

    पिछली पोस्ट तो पढ़ नहीं पाई ..पर अब तो समाधान भी हो गया ...
    मैं भी विवाद के कारण आ नहीं पाई ...

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  29. रोडीज़ को भुला कर हम तो होली आनन्द लेने मग्न हो गए.... यहाँ तो पता ही नही चला कि कब होली आई और कब गई...

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