पिछली पोस्ट में दो किशोर समस्याओं की चर्चा की थी...इस पोस्ट में किशोरों की दो और बहुत ही कॉमन समस्याओं का जिक्र.
प्रसिद्द मनोचिकित्सक हरीश शेट्टी की क्लिनिक में एक माता-पिता ,आठवीं में पढनेवाली अपनी बेटी की मार्कशीट लेकर आए....नंबर 12 से लेकर 48 तक थे. माता-पिता का कहना था कि "पिछले साल उसे 85% नंबर मिलते थे और एक साल में गिरकर यहाँ तक तक आ गए.वह बहुत जिद्दी हो गयी है, उलटे जबाब देती है, पढ़ाई नहीं करती, सारा समय आइने के सामने खड़ी रहती है. उसकी संगत अच्छी नहीं है....कुछ कहने पर खुद को नुकसान पहुंचाने की धमकी देती है"
यह एक आम किशोर समस्या है...शायद ही किसी माता-पिता ने एकाध बार खुद को इन स्थितियों में ना पाया हो. डॉक्टर ने पूछा कि डांटने के सिवा आपने और कौन कौन से उपाय किए...माता-पिता ने बताया," हमलोगों ने कहा अगर वो हमारी बात मानेगी तो उसे नया मोबाइल खरीद देंगे...उसकी पॉकेट मनी बढ़ा देंगे ...फिर भी वो बिलकुल नहीं सुनती....सबकुछ नाकाम हो गया."
डॉक्टर ने कहा कि "आप उसे कुछ दिनों के लिए बिलकुल अकेला छोड़ दें...कोई जबाब-तलब ना करें..."
"ये तो नामुमकिन है...उसने इतने गंदे मार्क्स लाए और हम चुप रहें...हमलोग उसके स्कूल के प्रिंसिपल से मिलने वाले है कि वो ही उसे समझाएं या कोई सजा दें" माता-पिता का कहना था.
डॉक्टर ने उन्हें सिर्फ तीन दिन रुक जाने के लिए कहा. फिर उनसे उनकी बेटी के प्रति उनकी भावनाओं की बात शुरू की. माँ रो पड़ी कि "पहले वो इतनी अच्छी थी...मेरी सारी बात मानती थी...मुझे सबकुछ बताती थी....अब तो जैसे पह्चान में नहीं आती.."
डॉक्टर ने बोला, "अब भी वो उतनी ही अच्छी है...बस हमें उसकी भावनाओं को महसूस कर उसके मन की आवाज सुननी पड़ेगी"
डॉक्टर ने माता-पिता से इज़ाज़त ले, बेटी से बात की ..." तुम्हारे माता-पिता मेरे पास बैठे हैं और वे भी उतने ही दुखी हैं....जितनी तुम दुखी हो...मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ"
लड़की...इस शर्त पे तैयार हुई कि वहाँ उसके माता-पिता उपस्थित नहीं रहेंगे .लड़की ने बताया," उसके माता-पिता उस पर विश्वास नहीं करते, मुझे लड़के/लड़कियों से बात नहीं करने देते...मैं आठवीं में हूँ...पर मुझे छोटी बच्ची समझते हैं कि मुझे कोई भी बहका लेगा...मैं बर्थडे पार्टी में जाना चाहती हूँ...दोस्तों के साथ समय बिताना चाहती हूँ..पर मम्मी हमेशा शक करती है...मेरा फोन चेक करती है...हमेशा पूछती है..'किस से बात कर रही थी ..क्या बात कर रही थी'...मुझे इन सबसे बहुत खीझ होती है...मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता...मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता ...मैं मर जाना चाहती हूँ .... काउंसलिंग की जरूरत उन्हें हैं...आप उन्हें काउंसिल कीजिए."
अगले तीन सेशन डॉक्टर ने माता-पिता के साथ ही किए क्यूंकि उन्हें पता ही नहीं था...एक टीन-एज बच्चे को कैसे हैंडल किया जाए. वे ऐसे माहौल में बड़े हुए थे ..जहाँ कुछ भी सिर्फ सही और गलत था. उन्होंने कहा..."वो ये सब हमें भी कह सकती थी...हम समझ जाते " पर डॉक्टर का कहना है कि अक्सर घरो में वो सौफ्टवेयर डेवलप ही नहीं किया जाता ,जिसके तहत बच्चे ,अपनी कोई गलती शेयर कर सकें. ये सोफ्टवेयर तभी बन सकता है अगर सब एक दूसरे की भावनाओं को समझें और अपने अनुभव शेयर करें. उन घरों में ये संभव नहीं...जहाँ केवल धार्मिक माहौल हो और हमेशा भगवान का डर दिखाया जाता हो या फिर केवल बौद्धिकता की बातें की जाती हों और पढ़ाई के कीर्तिमानों पर ही चर्चा होती हो.
अक्सर परिवारों में अभियोगी ...गवाह और जज की भूमिका अभिनीत की जाती है...बच्चे अभियोगी हो जाते हैं...जहाँ उनके कृत्यों की गवाह बनी माँ....जज-पिता के घर आते ही उनके कारनामे सामने रख देती है और जज फैसला सुनाते हैं.
माता-पिता को 'तुम कुछ नहीं करोगे'...फेल हो जाओगे' 'यही हाल रहा तो ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर पाओगे' जैस जुमलों से परहेज़ करना चाहिए.
आजकल एकल परिवार होने से माता-पिता पर भी अतिरिक्त जिम्मेवारी आ गयी है और बच्चों को भी अपनी मुश्किलें शेयर करने के लिए किसी अनुभवी का साथ नहीं मिलता. पहले मौसी-चाची-बुआ आदि से अक्सर मिलना-जुलना होता था और किशोर अपने मन की बातें शेयर कर पाते थे...माँ भी अपनी बहनों-जिठानी से बच्चों की समस्याएं डिस्कस कर पाती थीं...और अमूल्य सुझाव भी ले पाती थीं. पर अब दोनों को एक दूसरे की बात खुद ही समझने की कोशिश करनी पड़ेगी.
एक दूसरे केस में हरीश शेट्टी को अचानक एक स्कूल से इमरजेंसी कॉल आई. पता चला उस स्कूल के 7th और 9th क्लास के लड़के/लड़की स्कूल यूनिफॉर्म में एक मल्टीप्लेक्स में compromising position में पकडे गए हैं. उनके स्कूल यूनिफॉर्म से मल्टीप्लेक्स के मैनेजर ने उन्हें पहचान लिया और स्कूल को इन्फौर्म कर दिया. स्कूल के प्रिंसिपल ने दूरदर्शिता दिखाई और उनके माता-पिता को खबर करने की बजाय मनोचिकित्सक को बुलवा लिया.
दोनों बच्चे जमीन पर नज़रें गडाए बैठे रहे. डॉक्टर ने जैसे ही उनके कंधे पर हाथ रख,उन्हें "रिलैक्स' 'कहा....वैसे ही वाइस प्रिंसिपल बिगड़ पड़ी, "इन्हें बढ़ावा मत दीजिये...इन्हें कड़ी सजा दीजिये" डॉक्टर ने सबको बाहर कर दिया और अकेले में उनसे बात करने की कोशिश की. पढाई में वे अच्छे थे...इसके पहले कभी स्कूल भी बंक नहीं किया था...स्कूल में किसी शैतानी का कोई रेकॉर्ड नहीं था. दोनों बस इतना ही कह रहे थे.."प्लीज़ हमारे पैरेंट्स को मत बताइयेगा"
डॉक्टर ने उनसे कहा कि अगर आपकी जगह आपके भाई-बहन ऐसा करते तो आपको कैसा लगता?...उन बच्चों को खुद ही अपने व्यवहार का विश्लेषण करने को कहा और सही-गलत तय करने के लिए प्रेरित किया. उनसे खुद ही अपनी सजा (वैसे हरीश शेट्टी का कहनाहै... It is important to understand that punishment is a word we do not use in schools because it refers only to IPC crimes ") चुनने को कहा. बच्चे आश्चर्यचकित रह गए ,क्यूंकि उन्हें लग रहा था ,उन्हें स्कूल से निकाल दिया जायेगा. डॉक्टर ने सलाह दी कि वे पांचवी कक्षा को इतिहास और भूगोल का एक चैप्टर पढ़ाएं. उस दिन जब बच्चों के माता-पिता को कुछ नहीं बताया गया. एक सप्ताह बाद फिर काउंसलर ने उनसे पूछा कि क्या माता-पिता को को बता दिया जाए?" बच्चों ने फिर 'ना' कर दी . एक हफ्ते बाद फिर पूछा, इस बार बच्चों ने कुछ नहीं कहा.
माता-पिता पहले तो बहुत नाराज़ हुए. फिर उन्हें समझाने पर शांत हुए. काउंसलर ने उनसे आश्वासन लिया कि घर पर वे कोई सजा नहीं देंगे या व्यंग्य नहीं करेंगे. कुछ दिनों बाद लड़की की माँ , उस लड़के की जाति पूछने आई. ( शिक्षित लोगो के ये हाल हैं ).
हरीश शेट्टी का कहना है..." When in trouble hug the child a little longer and a little stronger " पर ये भी हमारे भारतीय परिवारों में कम ही देखने को मिलता है. जबकि touch therapy कितना महत्वपूर्ण है ,इस से सब अवगत हैं.
एक बार एक मित्र (वे भी मशहूर मनोचिकित्सक हैं, कभी उनसे भी किशोरों की समस्या पर कुछ लिखने का आग्रह करुँगी) से चर्चा कर रही थी कि हमारे जमाने और आज के बच्चों के व्यवहार में कितना अंतर है. उन्होंने कहा, "तब, इंटरनेट, सैटेलाईट चैनल्स, मोबाईल फोन थे?...नहीं ना...फिर व्यवहार एक जैसे कैसे हो सकते हैं? " सही है...जब बाहर इतना बदलाव आया है...तो हमें भी अंदर से बदलना होगा.
रश्मि जी, आपकी पिछली कड़ी की तरह यह विस्तार भी काफी चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा करता है.. घर घर की कहानी है यह तो.. आपके सुझाव और डॉक्टर साहब की काउंसिलिंग दोनों बहुत उपयोगी हैं.. हर अभिभावक, जिनके बच्चे इस उम्र के हैं, उनको यह पोस्ट अवश्य पढनी चाहिए!!
जवाब देंहटाएंमाता-पिता को 'तुम कुछ नहीं करोगे'...फेल हो जाओगे' 'यही हाल रहा तो ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर पाओगे' जैस जुमलों से परहेज़ करना चाहिए.
जवाब देंहटाएं- ये बहुत सही बात है...
दीदी आपकी ये पोस्ट भी लाजवाब है...लोगों को ऐसी बातें लिखनी चाहिए अपने ब्लोग्स में...
रश्मि जी,बहुत ही बढ़िया आलेख.
जवाब देंहटाएंबाल मन को समझना सब के बस की बात नहीं.
आपके सुझाव बहुत कारगर हैं.
मेरी बारह वर्षीय बेटी भी एक समस्या से जूझ रही है.
वह जब भी सुनती या पढ़ती है की 2012 में प्रलय आ जायेगी.उसके मन को गहरा आघात पहुंचता है.
बहुत डर जाती है.हमारे बहुत समझाने पर ही उसका यह वहम दूर हो पाता है.
अगर हो सके तो कृपया मार्गदर्शन कीजिये.
@विशाल जी,
जवाब देंहटाएंआपकी इस समस्या की चर्चा मैं जरूर अपने मनोवैज्ञानिक मित्र से करुँगी....और उनके सुझाव आपको मेल कर दूंगी...शुक्रिया
नाजुक विषय है -
जवाब देंहटाएंव्यवहार तो परिवर्तनशील, कई बार अनिश्चित भी होता है. BORN TO WIN, I AM OK, YOU ARE OK और HOW CHILDREN FAIL-John Holt याद आ रहे हैं.
जवाब देंहटाएंकितना जरुरी है बाल मनोविज्ञान को समझना...इतना आसान नहीं होता बच्चों से डील करना...
जवाब देंहटाएंबेहद महत्वपूर्ण विषय और बहुत सार्थक चर्चा चल रही है. साधुवाद.
जानकारी भरा बढ़िया आलेख...
जवाब देंहटाएंघर के किसी न किसी सदस्य पर विश्वास बने रहना आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंयह कड़ी भी पसंद आई बहुत उपयोगी और आँखें खोलने वाली ...आभार !
जवाब देंहटाएंरश्मि जी
जवाब देंहटाएंकई बार ऐसा भी होता है कि बच्चे अपने अभिभावकों को समझदार नहीं समझते है उन्हें लगता है की उनके माता पिता आज के ज़माने के नहीं है और वो उनकी समस्या और बातो को नहीं समझ पाएंगे इसलिए भी उनसे अपनी बाते शेयर नहीं करते है | वैसे आप के उस पोस्ट का इंतजार रहेगा जिसमे आजकल के बच्चो के व्यवहार में परिवर्तनों और उन्हें हैंडल करने के तरीके बताये जायेंगे | अपने मित्र से कहिये कि जल्दी एक पोस्ट इस पर लिखे |
बहुत ही सुंदर लेख, ओर यह लेख हम जैसे बहुत से क्या, सभी के काम आयेगा, अकसर हम लोग ऎसी गलतिया करते हे, जाने अंजाने मे ओर फ़िर बच्चो से दुर हो जाते हे, इस जारी रखे, धन्य्वाद
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट है.
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि विवाहित जोड़ों को माँ-बाप बनने से पहले ही उसकी ट्रेनिंग लेनी चाहिए. आजकल के जटिल और तेजी से बदलते समय में बच्चों को पालना बहुत जिम्मेदारी भरा काम है.
बढती उम्र के बच्चों को संभालना आज के दौर में बहुत मुश्किल कार्य है , मुश्किल तो हर दौर में ही रहा होगा , मगर एकल परिवार होने के कारन आजकल अभिभावक इस पर ज्यादा ध्यान भी देतेहैं .. समाज की बदलती सोच के साथ कुछ हद तक खुद को बदलना भी जरुरी है !
जवाब देंहटाएंलोगों में धैर्य की कमी हो रही है और खामियाजा बच्चे भुगत रहे हैं ।
जवाब देंहटाएंआपके दोनों लेख पढे....रियाद के 12 साल का अनुभव याद आ गया कि बढ़ते बच्चों की समस्या अलग अलग परिवेश में अलग अलग होती हैं और उन्हें सुलझाना कोई आसान काम नहीं होता...लेकिन प्यार,विश्वास और धीरज जैसे नायाब हथियार बच्चों से पेश आने के लिए काम आते हैं..
जवाब देंहटाएंbahar ke vatavaran me aur ghar kee samajh me itni gutthiyaan ulajh gai hain ki unko suljhana kathin ho gaya hai... shayad yah aalekh kuch madad kare
जवाब देंहटाएंबाल मनोविज्ञान पर बहुत ही उम्दा और सहेजने लायक पोस्ट है..
जवाब देंहटाएं..
किशोरों की समस्याओं को लेकर आपके दोनों आलेख बहुत विचारणीय तथा सारगर्भित हैं ! दरअसल आजकल के पारिवारिक ढाँचे की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि आजकल माता पिता तथा बच्चों के बीच सम्बन्ध आदर मान या प्यार और समझदारी के ना होकर परस्पर स्पर्धापूर्ण हो गये हैं ! माता पिता अपने अहम और बड़प्पन के अहंकार में बच्चों के आगे झुकना नहीं चाहते और बच्चे माता पिता के दृष्टिकोण को रूढ़िवादी और पुरातन मान सुनने को ही तैयार नहीं होते इसीलिये टकराव की स्थितियाँ पैदा होती हैं ! ऐसे में सबसे बड़ी ज़रूरत है कि बच्चों और अभिभावकों के बीच सकारात्मक संवाद की अनुकूल स्थितियों को पैदा किया जाये ! इसके लिये उन्हें आपस में एक दूसरे का विश्वास हासिल करना होगा और एक दूसरे की सदाशयता पर भरोसा करना होगा ! एक दूसरे के साथ प्यार, सहानुभूति तथा उदारता के साथ पेश आना होगा ! तभी यह संभव हो सकेगा ! इतने संवेदनशील लेखन के लिये आपकी जितनी प्रशंसा की जाये कम होगी ! मेरा आभार स्वीकार करें !
जवाब देंहटाएंरश्मिजी, पहले तो आभार इतनी अच्छी पोस्ट के लिए। आपने स्पर्श चिकित्सा के लिए लिखा,
जवाब देंहटाएंवास्तव में यह बहुत कारगार होती है। पहले संयुक्त परिवार होते थे बच्चे कभी भाभी के साथ कभी चाची के साथ घुलमिलकर अपने जज्बात निकाल लेते थे और केरियर का इतना बोझ भी सर पर नहीं था लेकिन अब उनका कोई नहीं है। पता नहीं पढे-लिखे अभिभावक भी क्यों केवल केरियर की ही चिन्ता करते हैं, मुझे तो समझ नहीं आता। पहली पोस्ट नहीं पढी है अब पढूंगी।
रश्मि ! मैंने आपका आर्टिकल अभी पढा नही है सिवाय इस पंक्ति के 'हरीश शेट्टी का कहना है..." When in trouble hug the child a little longer and a little stronger '
जवाब देंहटाएंपिछले चौंतीस साल से मैं दिन में कई बार गोस्वामीजी और अपने बच्चो के गले लगती हूँ.और अब....मेरी बहुए और ट्विन्स बिना नागा रोज मेरे गले लगते हैं.इनसे कई पारिवारिक समस्याए आती ही नही और आ भी जाये तो देर तक नही टिकती. ये जादू की छड़ी है .अपन तो यहाँ से जायेंगे तब 'उसे' गले लगा लेंगे या 'उसके' गले लग जायेंगे.अभी तो इस छोटी सी आदत ने जिंदगी जीना आसान कर दिया.दोस्त ज्यादा बनाए और रिश्तों को निभाना आसान कर दिया.
मैंने अपनी बिटिया को भी यही कह कर विदा किया कि वो अपने पति,सास और ननदों से रोज गले मिले.
डेडी बाहे फैलाए तो अच्छी बेटी की तरह चुपचाप गले लग जाना.
'हग' का चमत्कार मेरे घर आ के देखो,पर....सावधान ! मुझसे मिलते ही मेरे गले लगना होगा.
वैसे इन सबके बावजूद किशोर बच्चो को ले के प्रोब्लम्स तो आती है.
बच्चों के नंबरों पर बड़ों की प्रतिक्रिया...
जवाब देंहटाएंमुझे वो एड याद आ गई जिसमें एक पिता को परेशान दिखाया जाता है कि उसके बेटे ने ये सवाल पूछ लिया है-
अकबर का बाप कौन था...
अब वो पिता अपने दोस्त से कहता है...यार मैंने कौन सी जिओग्राफ़ी पढ़ रखी है जो मुझे पता होगा कि अकबर का बाप कौन था...
फिर एक दिन वही पिता छाती फुला कर अपने बेटे के पास बैठा होता है और कहता है-मुझे पता चल गया है कि अकबर का बाप कौन था- राकेश रोशन....
जय हिंद...
माता-पिता जब बच्चे की मनसिकता को नहीं समझ पाते तब मुझे बहुत कोफ़्त होती है. हर बच्चा लगभग वैसी ही हरकतें करता है, जिन्हें ये मां-बाप अपने बचपन में, ठीक उसी की उम्र में कर चुके होते हैं.ऐसे में क्यों नहीं वे अपना बचपन याद करते, कि जब किसी ग़लत बात पर उन्हें दोष दिया जाता था तो वे कैसा महसूस करते थे? अगर अपने समय को याद करेंगे, तो निश्चित रूप से बच्चे के साथ न्याय कर पायेंगे. आज समय बदल गया है. बच्चों की ज़रूरतें भी. ऐसे में यदि हम बच्चों की ज़रूरतों को ध्यान में रक्खें, उनकी जायज़ बातों को मानें तो चोरी जैसी घटनाएं हों ही नहीं.
जवाब देंहटाएंलड़के और लड़की की दोस्ती को लेकर भी मां-बाप नाहक ही परेशान रहते हैं. यदि दोस्ती के बीच लिंग भेद न करें तो बच्चों में स्वाभाविक और बराबरी की दोस्ती का रिश्ता क़ायम होता है.जितनी रोक लगाई जायेगी, उत्सुकता और इच्छा उतनी ही बढेगी.
मेरी दोस्ती बचपन से ही लड़्कों से ज़्यादा रही, या मेरे घर के आस-पास लड़के ही ज़्यादा थे तो दोस्त भी वही थे. लेकिन मेरे घर में कोई रोक-टोक नहीं थी, तो मुझे कभी अटपटा लगा ही नहीं. दोस्ती के अलावा कोई दूसरे विचार भी मन में नहीं आये.
सही मार्गदर्शन के अभाव में बचपन भटकता है.
बहुत उपयोगी, बल्कि ज़रूरी है यह वार्ता। बच्चे तो बडे और समझदार हो ही जायेंगे परंतु वयस्कों का बडा और समझदार होना बहुत ज़रूरी है। क्या हमें एक नये वयस्क शिक्षा आन्दोलन की आवश्यकता है?
जवाब देंहटाएंdi bahut hi sarthak post...
जवाब देंहटाएंabhi abhi paper me padha pre-primary me padhne wal bachche apne frens ko lip lock greet kar aur is wajah se school ki teachers bahut pareshan hai ab wo parents ke saath ek workshop karne wale hai...aaj kal relations me itni openness aa chuki hai...bachche jaisa apne ghar per dekhte hai wahi imitate karte hai...ek baar ishu ke school me bhi ek seminar hua tha jo child abuse ke baare me tha aur wo bahut hi sarthak rha. kai aise pahlu paata chale jinse hum to bilkul anbhigy the...
pata hai di abhi se ye bachche girl fren boy fren ki baate karte hai...ek din meri maa-in-law kaha mai rahu ya na rahu iski janam patri milaye bina shadi mat karna...mujhe itni hasi aayi, maine bola ye shadi to meri pasand se karne wali nahi patri kya milane degi...khair y sab to bus aisi hi choti choti baate hai lekin aapki pichli dono post bahut hi achchi aur hamesha ki tarah bahut kuch sikhane wali...
thanx di.
(comment kuch jyada lamba ho gya ho to kaat- chant kar chota kar dijiyega :) )
विचारणीय आलेख सोचने को मजबूर करता है।
जवाब देंहटाएंमुझे तो लग रहा था कि ये वही पोस्ट है जिसे मैं पढ़ चुका हूं (शीर्षक से वैसा ही लगा )...अभी आराधना ने पोस्ट का लिंक बज पर शेयर किया तो समझा कि नई पोस्ट है।
जवाब देंहटाएंखैर, घरों में वैसे भी बच्चों को ज्यादा सिर चढाने से बचे जाने की एक मानसिकता होती है ताकि बच्चे उद्दंड न हो जायें, ज्याजा शरारती न हो जांय....लेकिन अब धीरे धीरे यह मानसिकता बदल रही है। अब लोग बच्चों से धीरे धीरे ज्यादा मित्रवत व्यवहार करने लगे हैं।
बहुत ही संजीदा किस्म की पोस्ट और उस पर उतनी ही ज्ञानवर्धक टिप्पणियां।
सुंदर और उपयोगी पोस्ट रश्मि जी बधाई और शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंरश्मि दीदी ,
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया आलेख अकसर हम लोग ऎसी गलतिया करते हे,जाने अंजाने मे बच्चो से दुर हो जाते हे,बढती उम्र के बच्चों को संभालना आज के दौर में बहुत मुश्किल कार्य है
समाज की बदलती सोच के साथ कुछ हद तक खुद को बदलना भी जरुरी है !
रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंसार्थक और विचारोत्तेजक पोस्ट।
हम आधुनिक (!) युग में जी रहे हैं .. एक औद्योगिक और वैज्ञानिक युग में..। आज मानव भी औद्योगिक और वैज्ञानिक हो गया है। इससे न सिर्फ़ सामाजिक-पारिवारिक रचना में परिवर्तन आया है बल्कि मानव के स्वभाव में भी परिवर्तन आता जा रहा है। संयुक्त परिवार का विघटन एकाकी परिवार के आगमन से विश्वास की भावना क्षतिग्रस्त हो गई है। भौतिकवादी स्वभाव के कारण लोग आत्मकेन्द्रीत होते जा रहे हैं। एक अविश्वास, संत्रास, हतोत्साह और खालीपन - अकेलापन दिखता है। यह अकेलापन बोध कराता है कि वह आधा है, अधूरा है। पूर्णता का अहसास लोप होते जा रहा है और हर कोई अपने अपने ढ़ंग से जीवन जीना चाहता है बिखराव बढ़्ता जा रहा है।
हां, आपने जो एक-दूसरे की भावनाओं को समझने और कस कर लंबी अवधि के लिए बाहों में जकड़ने की बात की है उससे सहमत हूं।
बेहतरीन आलेख. हमने खूब कोशिश की है बच्चो से मित्रवत रहने की. हमे खुशी भी खूब होती है जब वो अपने मन की बात खुलकर कहते हैं.
जवाब देंहटाएंएक बड़ी सी प्रतिक्रिया दी थी पर लगता है नेट उसे लील गया ! दोबारा हिम्मत नहीं हो रही कि उतना लंबा टाइप कर सकूं इसलिए सिर्फ इतना कह रहा कि एक संवेदनशील मुद्दे /एक सार्थक विषय को उठाने के लिये आप साधुवाद की पात्र हैं !
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