सोमवार, 28 मार्च 2011

शरद कोकास की कविता पर समीक्षात्मक पुस्तक के विमोचन समारोह की झलकियाँ

मुंबई में होली हम उत्तर-भारतीयों का महत्वपूर्ण त्योहार है. और इस बार की होली तो कुछ ख़ास ही रही क्यूंकि ठीक होली के एक दिन पहले और एक दिन बाद ब्लॉगर बंधुओं से भी मिलने का सुयोग जुटा. १९ मार्च २०११  को मुंबई विश्वविद्यालय परिसर में शरद कोकास  जी की दीर्घ कविता 'पुरातत्ववेत्ता'  पर लिखी डा. विजया की समीक्षात्मक पुस्तक का विमोचन समारोह था. आभार शरद जी, आभा मिश्रा  जी और बोधिसत्व जी का...जिनके सौजन्य से मुझे भी इस समारोह में शामिल हो, इतने सारे दिग्गज  कवियों ,लेखकों,पत्रकारों  से रु-ब-रु होने का सुअवसर मिला.
बोधिसत्व जी एवं शरद जी

शरद जी और बोधिसत्व जी के प्रिय मित्र कवि नरेश चंद्रकर जी (इनकी एक बेहतरीन कविता शरद जी ने यहाँ पोस्ट की है ) बड़ौदा से सुबह ही बोधिसत्व जी के घर पधार चुके थे . मैं, आभा जी, नरेश जी,बोधिसत्व जी जब समारोह स्थल नेहरु ग्रंथालय पहुंचे तो शरद जी नीचे ही इंतज़ार में खड़े थे. उनकी मंशा थी कि उनके  मित्रों के बिना कार्यक्रम शुरू ना हो...और जब कवि ही मंच पर  उपस्थित ना हो तो कार्यक्रम कैसे शुरू हो सकता है :)
  
सरस्वती वंदना और दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ.मुंबई विश्विद्यालय के प्राध्यापक डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे. प्रोफ़ेसर  मनोहर जी ने कार्यक्रम का उदबोधन  किया. श्री ज्ञानरंजन जी किन्ही कारणवश तशरीफ़ नहीं ला सके थे...उनका आशीर्वाद स्वरुप  पत्र पढ़ कर सुनाया गया. सबसे पहले डा. विजया ने अपने विचार रखे. उन्होंने बताया कि जब उन्होंने शरद कोकास की कविता 'पुरातत्ववेत्ता ' पढ़ी तो उनका मन बहुत उद्वेलित हो गया. करीब चार-पांच महीने तक उनके दिमाग में यह कविता चलती रही. वे किचन में हों....या कहीं भी हों ...कविता की पंक्तियाँ लगातार उनके मन में प्रतिध्वनित होती रहतीं. उन्हें लगा जब उन्हें ये कविता इतना उद्वेलित कर रही है तो इसे  लिखते वक्त कवि किस यंत्रणा से गुजरा होगा. और उन्होंने इस कविता की विस्तृत समीक्षा लिखने का निश्चय किया. उन्होंने शरद जी से संपर्क किया . शरद जी ने सहर्ष स्वीकृति दे दी .
 

इसके बाद शरद जी ने कविता की रचना प्रक्रिया पर बातें की. उन्होंने  बताया  कि ५३ पेज की इस लम्बी कविता की शुरुआत मात्र तीन पंक्तियों से हुई थी .जब वे कविता लिखने बैठे तो उन्हें लगा कि उनकी कविता का यह केंद्रीय पात्र केवल पुरातत्ववेत्ता नहीं है बल्कि वह एक लेखक , कवि , इतिहासकार तथा चिन्तक भी हो सकता है .आम लोगो में इतिहासबोध उत्पन्न करना तथा चीजों को वैज्ञानिका द्रष्टिकोण से देखने की क्षमता  उत्पन्न करना ही उनका उद्देश्य है

शरद जी को इस बात का भी मलाल था कि आम आदमी 'पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा किए जा रहे महत्वपूर्ण कार्य की सार्थकता नहीं समझता. उन्होंने अपने अनुभव बताए कि कैसे पुरातत्ववेत्ता कहीं खुदाई करने जाते हैं तो लोग-बाग़ समझते हैं..."वे सोना ढूँढने आए हैं " और जब वे कोई टूटा बर्तन या टूटी ईंट मिलने पर खुश होते  हैं तो लोग कहते हैं.."अच्छा! ठीकरो मिल्यो है " शिक्षित लोगों को  भी इनके कार्य की महत्ता का अंदाजा नहीं है.

शरद  जी ने यह कविता सबसे पहले...अपने अग्रज कविवर बन्धु "लीलाधर मंडलोई ' को पढ़ने के लिए भेजी. और सबसे पहले यह कविता अपने मित्र नरेश चंद्रकर को सुनाई, रात में उन्होंने यह कविता सुनानी शुरू की और कब सुबह के पांच बज गए  दोनों मित्रों  को पता ही नहीं चला. इस तरह इस कविता के प्रथम पाठक 'लीलाधर मंडलोई ' जी  और प्रथम श्रोता नरेश चंद्रकर जी बने . श्री ज्ञानरंजन जी ने इसे 'पहल' पत्रिका में प्रकाशित किया. अशोक बाजपेयी जी...लाल बहादुर वर्मा ..कवि वसंत त्रिपाठी ने इस पर समीक्षा लिखी थी. लाल बहादुर वर्मा जी ने इसे साहित्य  के साथ-साथ इतिहास  की पाठ्य-पुस्तक बनाने की जरूरत पर भी बल दिया. जब विजया जी ने इस पर समीक्षा लिखने की बात कही तो शरद जी को लगा...आठ-दस पेज की समीक्षा होगी.पर जब डा. विजया ने २०० पृष्ठ की समीक्षा लिखकर  भेजी तो कवि भी आश्चर्यचकित रह गए. उनलोगों ने सिर्फ  पांच बार पत्रव्यवहार किए और शरद कोकास  , डा. विजया से विमोचन के एक दिन पहले ही पहली बार मिले.

शरद जी ने बड़े जोशीले स्वर में कविता के शुरू के दो तीन पन्नो का पाठ किया...लोगों ने तो बार-बार ' बहुत खूब' कह कर प्रशंसा की ही. साथी कवि बोधिसत्व जी एवं नरेश जी ने भी कहा कि अपनी कविता का बहुत ही सुन्दर पाठ किया उन्होंने...ये पंक्तियाँ खासकर बहुत पसंद आयीं सबको.



इतिहास तो दरअसल माँ के पहले दूध की तरह है

जिसकी सही खुराक पैदा करती है ,हमारे भीतर
मुसीबतों से लड़ने की  ताकत
दुख सहन करने  की क्षमता देती जो
जीवन की समझ बनाती है वह
हमारे होने का अर्थ बताती है,हमें
हमारी पहचान कराती जो हमीं से

कवि नरेश जी
ने कविता पर विचार रखते हुए कहा कि वे कविता में इतना खो गए थे कि सुनते-सुनते पूरी रात बीत गयी और उन्हें पता ही नहीं चला.


कवि विजय कुमार ने इसे एक कालजयी कविता बताते हुए कहा कि इस कविता का महत्व आनेवाले कई बरसों तक रहेगा समीक्षा के विषय में उन्होंने कहा कि पोएटिक लोजिक ,सातत्य वा साधारणीकरण इस समीक्षा की विशेषता है .

कवि बोधिसत्व जी ने कविता की प्रशंसा की और कहा कि "वे भी इस कविता पर कुछ लिखने को इच्छुक हैं"...उन्होंने यह वायदा भी कर डाला कि "अगर २०११ में वे इस कविता पर कुछ नहीं लिखते तो फिर उन्हें किसी आयोजन में ना बुलाया जाए. "

कार्यक्रम के अध्यक्ष लीलाधर मंडलोई जी (जो दूरदर्शन के महानिर्देशक भी हैं ) ने डा.विजया की भूरी-भूरी प्रशंसा की कि अहिन्दीभाषी होकर भी हिंदी की एक कविता पर इतनी विस्तृत समीक्षा लिखी.और पुस्तक में विषय के अनुरूप दुर्लभ चित्र भी प्रकाशित किए हैं. कविता की भूमिका लीलाधर जी ने ही लिखी है..और वहाँ वे कविता पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं. यहाँ भी वे काफी-कुछ कहना चाहते थे.पर उनकी फ्लाईट का समय हो चला था ..इस वजह से उन्हें जाना पड़ा.

आभा मिश्रा जी मैं, शरद जी

इसके अलावा सर्वश्री रामजी तिवारी , वेद राही , राम प्रकाश द्विवेदी , त्रिभुवन राय सभी वक्ताओं ने एक स्वर से कहा कि यह कविता हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और लिखने वालों को प्रेरणा  भी देती है कि कविता की लम्बाई की चिंता किए बिना अपनी इच्छानुसार वे अपने भावों को शब्द दे सकते हैं..एक ना एक दिन उसका मूल्य साहित्य जगत जरूर समझता है. और हिंदी साहित्य  भी समृद्ध होता है. ज्ञानरंजन जी की प्रशंसा भी की गयी कि उन्होंने इतनी लम्बी कविता को प्रकाशित किया. हिंदी से इतर भाषा वाले भी हिंदी-साहित्य की ओर उन्मुख हो रहे हैं...यह हिंदी के लिए शुभ-संकेत है. और सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ समीक्षक का कवि से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था..सिर्फ कविता की उत्कृष्टता ही उन्हें समीक्षा लिखने को प्रेरित कर गयी. ऐसी ही परम्परा होनी चाहिए. कार्यक्रम में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि विनोद दास , अनूप सेठी , ओम शर्मा , तथा मराठी के साहित्यकार ,प्रकाश भाताम्ब्रेकर,सुश्री सुमनिका सेठी ,डॉ.वसुंधरा तारकर , मुक्ता नायडू नीरा नाहटा और अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे .

मैं ,नरेश जी, शरद जी, आभा जी
कार्यक्रम की समाप्ति पर चाय-नाश्ते के साथ फोटो-सेशन का दौर चला. शरद जी और बोधिसत्व जी के प्रशंसक/प्रशंसिकाएं  उनके साथ तस्वीर खिंचवाने को आतुर थे. शरद जी को बार-बार अपनी प्लेट नीचे रख देनी पड़ रही थी...पता नहीं वे अपनी प्लेट की सामग्री ख़त्म भी कर पाए या नहीं :)

पर पूरे कार्यक्रम के दौरान सबसे नयनाभिराम दृश्य रहा ...समकालीन कवियों का आपसी स्नेह. स्कूली बच्चों सा एक-दूजे के कंधे से उनकी बाहें हट ही नहीं रही थीं. तस्वीरों में आप बानगी देख सकते हैं:)

शरद जी  और लेखिका डा. विजया 



शरद जी , बोधिसत्व जी एवं नरेश चंद्रकर जी













31 टिप्‍पणियां:

  1. रचनाकर्म से जुड़ी रपट पढ़ कर अच्छा लगा. धन्यवाद.

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  2. सुंदर, सरस और रोचक विवरण।
    आपकी शैली का कमाल एक बार फिर स्पष्ट है। जिस रोचकता से आपने पूरे विवरण को प्रस्तुत किया है वह एक सांस में पूरा आलेख पढने को बाध्य कर देता है।
    कोकास जी की कविता पर विजया जी की समीक्षा पढने की उत्सुकता बढ गई है।
    अगर आप प्रकाशन, मूल्य आदि की जानकारी भी साथ में दे देतीं तो और भी अच्छा होता।
    सारे चित्र रोचक, सुंदर और करीने से सजे हुए हैं।
    बहुत ही परिश्रम से सजाई पोस्ट के लिए बधाई।

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  3. लगा कि मैं भी कार्यक्रम में ही पहुंच गया हूं।
    शानदार रिपोर्ट है। दिल खुश हो गया।

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  4. सुन्दर रिपोर्ट, इतिहास का सही वर्णन।

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  5. एक शानदार रपट के लिए आपको हार्दिक बधाई... मानसिक रूप से मैं भी वहीं मौजूद था :) शरद भैया ने श्री नरेश चंद्रकर जी से बात भी कराई थी. उनकी लिखी कविता 'बातचीत' भी मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है. पुरातत्ववेत्ता की तारीफ़ में मैं क्या कहूं? जब बड़े-बड़े साहित्यकार इतना पहले ही कह चुके हैं तो मेरा कहना तो दोहराव मात्र होगा. शरद भैया को हमेशा से ही मैं आधुनिक युग के एकलव्य कवियों में मानता आया हूँ और मुझे पूरा भरोसा है कि ये एकलव्य कवि लेखन में तो आगे हैं ही, प्रसिद्धि में भी आधुनिक अर्जुन कवियों से आगे ही निकलेंगे.
    साभार

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  6. पोएटिक जस्टिस का उजास,
    नाम है शरद कोकास...

    जय हिंद...

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  7. रश्मि, जितना गरिमामय, शानदार कार्यक्रम रहा होगा, उतनी ही गरिमामय तुम्हारी रपट है. चलो हम भी शामिल हो गये, इस कार्यक्रम में तुम्हारी पोस्ट के बहाने.तस्वीरें भे बहुत बढिया हैं. शरद जी के ये कविता तो कमाल है ही.

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  8. सचित्र विवरण पढकर तो लगा कि जैसे हम भी वहीं मौजूद थे...

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  9. अच्छी रिपोर्ट लिखी आप ने पढ़ कर मेरी जानकारी काफी बढ़ गई , कितना कम जानती हूँ अभी हिंदी ब्लोगिंग और ब्लोगरो के बारे में | धन्यवाद |

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  10. एक सुन्दर रिपोर्ट.. सुसज्जित एवम् संतुलित!!

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  11. रश्मिजी
    बहुत ही सुन्दर ढंग से आपने इस कार्यक्रम की विस्तृत रिपोर्ट हम तक पहुंचाई है जैसे हम भी वही हो |
    आभार |
    शरदजी को बहुत बहुत बधाई |

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  12. शरद जी को बहुत बधाई ...
    कुछ तस्वीरें फेसबुक पर पहले देख चुके थे ,
    शरदजी की कविता पर समीक्षात्मक पुस्तक का विमोचन समारोह जितना शानदार रहा , उतनी ही रोचक तुम्हारी पोस्ट !

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  13. कार्यक्रम का बहुत ही शानदार विवरण दिया है आपने ! आपकी यह रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह बहु चर्चित कविता 'पुरातत्ववेत्ता' तथा इसकी समीक्षा पढ़ने की जिज्ञासा और बढ़ गयी है ! शरद जी बहुत अच्छे रचनाकार हैं यह सर्वविदित हैं ! यह रचना पाठकों तक कैसे पहुंचे इसका उपाय भी बताइये ! आप इतने आनंद दायक कार्यक्रम का हिस्सा बनीं इसके लिये बहुत बहुत बधाई ! विवरण बहुत ही संतुलित एवं रोचक है हमेशा की तरह ! बधाई एवं आभार !

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  14. बधाई. 'पुरातत्‍ववेत्‍ता- और पुरानी हो कर मेरी...'

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  15. पुरातत्‍व पर कविता और कविता पर समीक्षा की पुस्‍तक, क्‍या बात है? इतिहास अधूरा रह जाए यदि पुरातत्‍ववेत्ता ना हो तो। यह सत्‍य है कि लोग इसका महत्‍व नहीं समझ पाते लेकिन इतिहास से ही व्‍यक्ति जीवन्‍त दिखायी देता है नहीं तो वह भी एक मशीन या केवल जीवधारी ही होता। मेरी ढेर सारी बधाई शरद जी को और विजया जी को। अच्‍छी रपट और अच्‍छी जानकारी देने के लिए आपका आभार।

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  16. बहुत संतुलित और अच्छी रिपोर्ट.....

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  17. शरद जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें। बहुत बढिया रिपोर्ट प्रस्तुत की।

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  18. बढ़िया रपट.बढिया फोटो.अपने न आ पाने का दुःख रहेगा.आपके घर शरद व सब से मिल बहुत भला लगा.
    घुघूती बासूती

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  19. शरद जी को बधाई । होली पर अच्छा अवसर रहा , पुस्तक विमोचन का ।

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  20. .

    रश्मि जी ,

    क्या गजब की रिपोर्टिंग है। आनंद आ गया । आपकी लेखन शैली के तो हम कायल हैं ही। तस्वीरों ने मन प्रसन्न कर दिया।

    .

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  21. पुरातत्ववेत्ता शरद भाई की कालजयी रचना है। एक बार जब उन्होने मुझे इस कविता के विषय में बताया तो मैने सोचा की कैसी होगी इतनी लम्बी कविता? लेकिन विजया जी समीक्षात्मक पुस्तक से समझ आ गया।

    सुंदर पोस्ट द्वारा जानकारी देने के लिए आभार।

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  22. शरद जी को तो बाद में बधाई देती हूँ पर आपने जिस रोचकता से एक -एक छोटी से छोटी बात का जिक्र किया ...
    सुभानाल्लाह .....
    क्या लिखतीं हैं आप ....
    एक पत्रकार के सारे गुण हैं आपमें .....
    आपने शरद जी कि यह कविता पढने की रोचकता बना दी है ..
    डॉ विजया जी को बहुत बहुत बधाई जिन्होंने ये समीक्षात्मक पुस्तक लिखी ...
    और शरद जी आपसे तो हम नाराज़ हैं ...
    इसलिए नो बधाई वधाई ....
    अरे ....खबर तक न होने दी हमें ....?
    इधर सतीश जयसवाल जी अक्सर आपका ज़िक्र करते रहते हैं उन्होंने भी नहीं बताया ....

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  23. तस्वीरें तो लगभग सभी पहले ही देख चूका था, और रिपोर्टिंग आज पढ़ भी लिया...
    वैसे बहुत सही रिपोर्टिंग थी....मुझे लगा की मैं भी वहीँ आपके साथ घूम रहा हूँ कहीं :)

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  24. रपट पढ़ी. अहोभाग्य आपके जो आप इस कार्यक्रम में शामिल हुईं...थोड़ी इर्ष्या स्वभाविक सी हुई..फिर मना लिया मन को.

    शारद भाई को बधाई...दिग्ग्जों से मिलने के ऐसे मौके यादगार रहते हैं.

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  25. पुरातत्व पर अमूमन लोग वैसे भी बहुत कम जानकारी रखते हैं और थोड़ा सा हटकर विषय मानते हैं....ऐसे में उस विधा को लेकर कविता रचना बहुत ही अलग दृष्टिकोण की मांग करता है और शरद जी के ब्लॉग पर ही जो कुछ मैंने उनकी अन्य कविताओं में भी पढ़ा है उनमें वह दृष्टिकोण बखूबी झलकता है।

    इस विस्तृत एंव शानदार रपट को पढ़वाने के लिये धन्यवाद।

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  26. आपका लिखा संस्मरण और चित्र के साथसाथ हा भी शामिल हो गये शरद जी की कविता की समीक्षा के कारिक्रम में ... इतिहास को लिखती ये कविता वाकई लाजवाब होगी ... कहाँ और कैसे मिल सकती है इस बात का खुलासा हो तो मज़ा दुगना हो जायगा ...

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  27. वहां दीप प्रज्ज्वलित हुआ जबकि कोकास जी अंतर्मन प्रज्ज्वलित करने का हुनर रखते हैं ! कैसा आश्चर्य जो ५३ पेज की कविता पर २०० पेज की समीक्षा लिख दी गई ! कवि और समीक्षक दोनों बधाई के पात्र हैं !

    कार्यक्रम की फोटोज और रिपोर्ट शानदार हैं और वो ब्लॉगर की अपनी उपलब्धि है ! इतने सारे सुन्दर चेहरों में , एक चेहरा मिस कर रहा हूं पर जानता हूं उसे ब्लागर्स के कैमरे पसंद नहीं :)

    कारण पता नहीं पर इतना जानता हूं कि मेरी प्रतिक्रिया उस बौद्धिक जमावड़े की टक्कर की नहीं है !

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  28. @ "पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा किए जा रहे महत्वपूर्ण कार्य की सार्थकता नहीं समझता..."

    वाकई यह तकलीफ देह है और इस दयनीय हालत के जिम्मेवार हमारी शिक्षा और मीडिया है जिसमें प्रिंट मीडिया शामिल है ! जो कौम अपने इतिहास और पूर्वजों में रूचि नहीं रखती उनके ऊपर केवल दया खायी जा सकती है ! पूरे देश में पुरातत्व विभाग की स्थिति भी दयनीय है , देश भर में बिखरी ऐतिहासिक धरोहरों के रखरखाव के लिए सरकार भी उपेक्षा का भाव ही रखती आई है !
    शरद कोकस जैसे लोग बधाई के पात्र हैं जो इस विधा को जीवंत करने का प्रयत्न कर रहे हैं !

    शरद कोकस एवं अन्य विशिष्ट अतिथियों को बधाई एवं इस महत्वपूर्ण सम्मलेन की जानकारी देने के लिए आपका आभार रश्मि जी !

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  29. रश्मि जी , आप सभी का स्नेह देख कर बहुत अच्छा लगा । साहित्यिक कार्यक्रमों की रपट से अलग यह आत्मीय रपट पढ कर आपकी लेखन शैली की पुन: सराहना करने का मन कर रहा है । बहुत बहुत धन्यवाद ।

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  30. वाह.....

    बहुत बहुत बधाई शरद जी को और आपका बहुत बहुत आभार,की आपने हमें इस विवरण द्वारा एक तरह से कार्यक्रम में सम्मिलित ही कर लिया...

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